स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख ‘वीरेंद्र कुमार बरनवाल का साहित्यिक अवदान’।


वीरेंद्र कुमार बरनवाल



साहित्य से इतर जिन कुछ लेखकों ने कुछ महत्त्वपूर्ण काम किये हैं उनमें वीरेंद्र कुमार बरनवाल का नाम प्रमुख है। वीरेंद्र जी ने ऐसे मुद्दों या व्यक्तियों को अपने लेखन का विषय बनाया जिनके बारे में हम आम तौर पर रैखिक ढंग से सोचते हैं। वीरेंद्र जी ने अपने लेखन द्वारा उन विषयों को एक नया आयाम और नयी ऊंचाई प्रदान किया। भारतीय इतिहास के विवादास्पद व्यक्तित्व जिन्ना को ले कर लिखी गयी किताब हो या फिर मुस्लिम नवजागरण को ले कर लिखी गयी किताब हो, एक अलग सोच और एक अलग नजरिया साफ तौर पर दिखायी पडता है। बीते 12 जून 2020 को वीरेंद्र जी इस दुनिया से रूखसत हो गये। उनके प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुये पहली बार पर प्रस्तुत है स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख वीरेंद्र कुमार बरनवाल का साहित्यिक अवदान 


        

वीरेंद्र कुमार बरनवाल का साहित्यिक अवदान
               

स्वप्निल श्रीवास्तव




किसी लेखक की निर्मिति अचानक नहीं होती। उसके पीछे जीवन–परिस्थिति की अहम भूमिका होती है। परिवार का वातावरण भी कम सहायक नहीं होता। इसलिए किसी लेखक की कथा कम रोचक नहीं होती। लेखक बरनवाल इसके अपवाद नहीं थे। वे जनपद आजमगढ के एक कस्बे फूलपुर में 21 अगस्त 1945 को पैदा हुए थे। उनके पिता दयाराम बरनवाल स्वतंत्रता सेनानी थे। वे भारत छोडो आंदोलन में जेल गये थे। वे उनसे आजादी की लड़ाई और उसमे शामिल नेताओ जैसे गांधी नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, लोहिया और जय प्रकाश नारायण की चर्चा करते थे। इन लोगो की कहानियां सुन कर वीरेंद्र कुमार बरनवाल बड़े हुए। इन्हीं के बीच उनकी चेतना का विकास हुआ। पिता के अलावा उन्हें अपने पिता के सखा मुंशी दौलतराम के जीवन का प्रभाव उनके जीवन पर पड़ा। वे मजलूमो के हमदर्द थे और उन्होंने अपने जीवन को सामाजिक कार्य में लगा दिया था। उनके घर में पत्र–पत्रिकायें भी आती रहती थी – जिसमें आज, संसार, सन्मार्ग, विश्वामित्र, सरस्वती, माधुरी, मर्यादा और चांद और हंस प्रमुख थी।  ये अपने समय की जरूरी पत्र पत्रिकायें थी। इन्ही को पढ़ते हुए उनकी साहित्यिक अभिरूचि विकसित हुई। 
 



वीरेंद्र कुमार बरनवाल की शिक्षा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हुई जो उस समय शिक्षा का अदभुत केंद्र था। अंग्रेजी भाषा में उच्च शिक्षा लेने के बाद कुछ दिनों तक अध्यापन का कार्य किया। उसके बाद भारतीय राजस्व सेवा में उनका चुनाव हुआ। यह उनके जीवन का एक मोड़ था। इतनी व्यस्त नौकरी में पहुंच कर लोग अपने रचनात्मक जीवन से बिलग हो जाते हैं। उनकी प्राथमिकतायें बदल जाती हैं लेकिन वीरेंद्र कुमार बरनवाल नें इस व्यस्त नौकरी में लिखने का स्पेस खोज लिया था। यह हमारे लिये आश्चर्य की बात है। साहित्य के प्रति उनकी गहरी रूचि बनी रही। साहित्य को उन्होंने विभागीय व्यस्तताओं से अलग रखा। उन्होंने अनुवाद और इतिहास के शोध को अपना कार्यक्षेत्र चुना। ये दोनो विधाएं रचनात्मक लेखन से एकदम जुदा थी। इसके लिये अतिरिक्त श्रम और समर्पण की जरूरत होती है। लेखन की इस चुनौती को उन्होंने खुले मन से स्वीकार किया।

 




उन्होंने अनुवाद के जरिये साहित्य में प्रवेश किया। उन्होंने अमेरिका के रेड इंडियन कवियों की कविताओं के अनुवाद किये जो पहल पत्रिका में प्रकाशित हुए इन अनुवादों के जरिये उनकी रूचि का पता लगा। उन्होंने अपने अनुवाद के लिये श्वेत नहीं अश्वेत कवियों का चुनाव किया। हम जानते है कि अश्वेत कवि श्वेतों शासको और तानशाहों के जुल्म के शिकार हो रहे थे। दुनिया की श्रेष्ठ कविताएं जनसंघर्ष से पैदा होती हैं। उनके प्रतिरोध का स्वर मुखर होता है। श्वेतों के अश्वेतों के प्रति अत्याचार देखना हो तो उसके लिये अफ्रीका महाद्वीप का उदाहरण लिया जा सकता है। दक्षिणी अफ्रीका के रंगभेद से हम भलीभांति परिचित है। यह देश गांधी के जीवन प्रयोगशाला था – जहाँ से वे सत्य अहिंसा और सत्याग्रह के अनुपम संधान किया था। दक्षिणी अफ्रीका के अंग्रेज शासको ने गांधी के साथ किस तरह का हिंसात्मक व्यवहार किया था – वह जगजाहिर है। इसका विवरण गांधी के लेखन के अलावा इतिहास की किताबों में सहज मिल सकते है। गांधी को जो अनुभव की पूंजी और वैचारिकता मिली, वह इसी भूमि से मिली। अफ्रीकी कवियों – लेखको ने तानाशाही के विरूद्ध आवाज उठायी और अपनी रचनाओं में अपने प्रतिरोध को जगह दी। उन्होंने शासको की बर्बरता का मुकाबला अपने साहित्य से किया – जिसके लिये उन्हें जेल की यातनायें और अत्याचार झेलने पड़े नेल्सन   मंडेला को दक्षिणी अफ्रीका को गुलामी से मुक्त करने के लिये अपने जीवन अधिकांश  वर्ष  कारागार में बिताने पड़े। वे युवा काल में जेल गये और बूढ़े हो कर निकले लेकिन वह दुनिया भर के क्रांतिकारियो के लिये एक नजीर बने। दुनिया का इतिहास बताता है कि आजादी लम्बे संघर्ष के बाद ही मिलती हैं।
  



वीरेंद्र कुमार बरनवाल की रूचि अफ्रीका के उन्हीं कवियों में रही है जिन्होने अपनी कविता में जनता का पक्ष चुना था। वह उनकी क्रांतिकारी कविताओं के मुरीद थे। ये कवि–लेखक अपने देश को तानाशाही शासन से मुक्त कराना चाहते थे। हमारे स्वतंत्रता संग्राम में माखन लाल चतुर्वेदी, बाल कृष्ण शर्मा नवीन जैसे कवियों को इस संदर्भ में याद कर सकते हैं। किसी देश की आजादी का सपना एक बड़ा सपना हैं। यह संस्कार उन्हें जरूर अपने पिता से मिले होंगे।


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नाईजीरिया के अश्वेत कवि वोले शोयिंका को 1986 में साहित्य का नोबेल सम्मान मिला। वह प्रथम अफ्रीकी कवि लेखक थे जिसे इस सम्मान से नवाजा गया था। उन्होंने उनकी कविताओं के अनुवाद किए जो हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए उसके बाद विस्तृत भूमिका के साथ – पानी के छींटे सूरज के चेहरे पर– प्रकाशित हुई जिसमें तीस नाईजीरियाई कवियों के अनुवाद संकलित थे। वोले शोयिंका की कविताओं का बड़ा संग्रह – वोले शोयिंका की कविताएंनाम से 1991 में साया हुई थी। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ना अफ्रीकी समाज के यातनाओं से हो कर गुजरना है। उन्होंने कविताओं सा चयन सावधानी से किया है जिससे उनकी महत्वपूर्ण कविताओं को प्रतिनिधित्व मिल सके। इस किताब की भूमिका में लेखक ने वोले शोयिंका के जीवन, समाज और संघर्ष और परम्पराओं के बारे में विस्तार से लिखा है। पुस्तक के परिशिष्ट में – सहज सुभाव छुवा छल नाहींनामक संस्मरण में उन्होंने 13 नवम्बर 1988 में नेहरू स्मारक व्याख्यानमाला के लिये शोयिंका दिल्ली पधारे थे तो लेखक नें उनका इंटरव्यू लिया था। उनसे मिलते ही उन्हें राम विलास शर्मा की निराला से मिलने पर यह पंक्ति याद आ गयी –


वह सहज विलम्बित मंथर गति जिसको निहार
गजराज लाज से राह छोड़ दे एक बार।
 


लेखक ने उक्त पंक्ति को शोयिंका के संदर्भ में याद किया है। लेखक बताता है कि शोयिंका ने कालिदास और टैगोर के साहित्य को पढ़ रखा है। वे याद करते हैं कि शोयिंका ने आत्मरतिग्रस्त नीग्रो – श्रेष्तावादियो की आत्म प्रशंसा के अतिरेक में एक बार कह दिया था कि एक सिंह को जंगल में खड़े हो कर अपने सिंहत्व की घोषणा करने की जरूरत नहीं होती। उनका यह विवाद बहुत दिनों तक चर्चा में रहा। प्रसिद्ध अफ्रीकी लेखक यह इस उद्धरण को याद करिए उन्होंने कहा था – जब तक हिरन अपना इतिहास खुद नहीं लिखेगे तब तक हिरणों के इतिहास में शिकारियों की शौर्य गाथाएं गायी जाती रहेगी।



लेखक ने शोयिंका की इस अनुवाद की किताब को छ: खंडों में बिभाजित किया है जिसमें शोयिंका की महत्वपूर्ण कविताएं  शामिल हैं। इस संग्रह की एक कविता को प्रस्तुत करने के लोभ को मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूं – जो उन्होंने अफ्रीकी योद्धा नेल्सन मंडेला पर लिखी गयी है – इस कविता का शीर्षक है – तुम्हारा तर्क मुझे डरा देता है मंडेला– है 



मंडेला, मुझे डरा देती है तुम्हारी उदारता
तुम्हारे हृदय के चंग की वह कसी हुई चमड़ी
जिसकी ताल पर नाचते हैं लाखों लोग
मुझे भय है, मोटी जोंकों सरीखे हम
चिपक गये हैं तुम्हारी नसों से
हमारी दैनिक असावधानियां भोथरा कर देती हैं
तुम्हारी इच्छा शक्ति की धार
समझौते रिक्त कर देते हैं
तुम्हारे कर्म की परिपूणता
सोखते हुए एक महाद्वीप के
इच्छा – शून्य उदरों को, अंतत:
तुममें क्या शेष रह जायेगा मंडेला



मंडेला पर यह कविता आलोचनात्मक है। दक्षिणी अफ्रीका की कमान थामते हुए मंडेला कम विवादस्पद नहीं थे।






अनुवाद कार्य के बाद वीरेंद्र कुमार बरनवाल इतिहास की तरफ मुड़ते हैं। यह उनके लेखन का प्रस्थान बिंदु है। यह उनका अलग तरह का काम है और इसके लिये वह मुहम्मद अली जिन्ना जैसे विवादस्पद व्यक्तित्व का चुनाव करते हैं। इस किताब को लिखने लिए उन्होंने गहन अध्ययन किया है। इस किताब में पहली बार नये तथ्यों का उदघाटन हुआ है – किताब का नाम है – “जिन्ना  : एक पुनर्द्रिष्टि”। यह किताब सिर्फ जिन्ना के बारे में नहीं लिखी गयी है। इसमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और बिभाजन के तमाम महीन व्योरे हैं। वे कहते हैं कि जिन्ना के अंतिम दस वर्षों में देश–विभाजन के आंदोलन को धारदार और आक्रामक नेतृत्व प्रदान करने के कारण जिन्ना की छवि साधारण हिंदू मानस में एक खलनायक की ही रही है।
 


इतिहास के अध्येता यह जानते है कि किस तरह जिन्ना की शुरूआती छवि एक राष्ट्रवादी नेता की रही है लेकिन आगे चल कर उनकी छवि कट्टर मुस्लिम नेता की बन गयी थी।
 


लेखक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की तुलना महाभारत से करता है। वे जिन्ना की तुलना महाभारत के अप्रतिम पात्र कर्ण से करते हैं – जिसके भीतर पांडव का रक्त होने के बावजूद उसकी नियति कौरव पक्ष में लड़ने की थी। इस किताब के छ: अध्याय हैं जिसमें जिन्ना के जन्म से ले कर उनके राजनीतिक जीवन और स्वतत्रता संग्राम और आंदोलनों के तमाम विवरण है। खंड – दो में जिन्ना की जीवन संगिनी के नाम पर अध्याय का नामकरण अदभुत है – जिन्ना की कामना का नील कुसुम - रत्ती जिन्ना।
  


इस किताब की शुरूआत लेखक की भूमिका से होती है। हम जानते हैं कि किसी किताब की भूमिका उस किताब को समझने की कुंजी होती है। सबसे पहले गोपाल कृष्ण गोखले का उद्धरण है। गोखले ने जिन्ना का सम्पूर्ण जीवन नहीं देखा था। उनके दिमाग में जिन्ना की छवि अलग थी। वे लिखते है- जिन्ना सच्चे तत्वों से बने हैं। सम्प्रदायिक पूर्वाग्रहो से मुक्त वह हिंदू–मुस्लिम एकता के सर्वश्रेष्ठ राजदूत हैं। 



गोपाल कृष्ण गोखले कांग्रेस के नेता थे। 19 फरवरी 1915 को उनकी मृत्यु हो गयी थी। उस समय उनकी उम्र महज 48 साल थी। उस समय जिन्ना कांग्रेस के नेताओं के साथ आजादी की लड़ाई में शमिल थे। उनके पास पाकिस्तान की कल्पना नहीं थी। नेहरू जिन्ना की राजनीतिक गतिविधियों से परिचित थे। वे जिन्ना के बदलते हुए रूख से परिचित थे। लेखक ने जिन्ना के बारे में जो विचार व्यक्त किये थे – उनका उद्धरण दिलचस्प है। वे लिखते हैं-  जिन्ना मुझे उस उस शख्स की याद दिलाते हैं, जो अपने मां–बाप दोनों का कत्ल कर अदालत से इस बिना पर माफी चाहता है कि वह यतीम है।


नेहरू के इस वाक्य में व्यंग है। एक तरह से जिन्ना के चरित्र की समीक्षा है।
  


इस किताब में कई अध्याय है जिसकी चर्चा सम्भव है लेकिन मेरे कवि मन उस प्रेम कथा की चर्चा मौजू लग रही है जिसे जिन्ना और रत्ती बाई ने मिल कर रचा था। इसका वर्णन लेखक ने बड़े काव्यात्मक ढ़ग से किया है। इस प्रेम अध्याय का नाम है - जिन्ना की कामना का नील कुसुम – रत्ती जिन्ना। रत्ती को यह नाम सरोजिनी नायडू ने दिया था। रत्ती उद्योगपति दिनेश पैटिट की बेटी थी – जिनके यहां जिन्ना का आना जाना था। इसी बीच दोनों के बीच प्रेम प्रस्फुटित हो जाता है। जिन्ना का रहन–सहन यूरोपियन था। वे दाढी नहीं रखते थे। महाकवि इकबाल की तरह क्लीन शेव थे। वे बीफ खाते थे – वाइन के शौकीन थे और सिगरेट के कश लगाते थे। मुस्लिम समाज में इसे हराम माना जाता था। रत्ती कम आधुनिक नहीं थी। वह पारसी समाज से आती थी। उसका रहन–सहन आधुनिक था। रत्ती अपने पिता से तीन वर्ष छोटे जिन्ना के प्रेम में मुब्तिला हो गयी थी। जब उनके पिता को पता चला तो मिलने जुलने पर पाबंदी लगा दी गयी। इसके बावजूद उनका इश्क परवान चढ़ता  रहा। उम्र और धर्म की सीमाएं उसे बाधित नहीं कर सकीं।

   

तमाम जद्दोजहद के बाद उनकी कामना पूर्ण हुई। रत्ती ने मुस्लिम धर्म स्वीकार किया और 9 अप्रेल 1918 को उन दोनो का निकाह हुआ। उस समय जिन्ना की उम्र 43 और रत्ती अपने जीवन के अठाहरवे साल में थी। रत्ती के धर्म परिवर्तन के बाद शादी की घटना ने जिन्ना के कथित धर्मनिरपेक्ष छवि का थोड़ा नुकसान जरूर हुआ। हालांकि आगे चल कर अपनी इस छवि को निरंतर तोड़ते रहे। उनकी मुस्लिम कट्टरता ने पाकिस्तान जैसे धार्मिक देश को जन्म दिया। यहां जिन्ना और गांधी के जीवन की बिडम्बना लगभग एक सी है। विभाजन के बाद वे अपने–अपने देश में अप्रासंगिक हो गये थे। जिन्ना टी बी जैसे राजरोग और अपने लोगों की बेरूखी से मारे गये और गांधी की हत्या एक हिंदू धर्मांध ने की थी। दोनों 1948 में इस दुनिया से रूखसत हुए तारीखें क्रमश: 30 जनवरी और 11 सितम्बर थी।

 

जिन्ना और रत्ती दोनो शेक्सपियर के नाटकों के शौकीन थे। लेखक ने शेक्सपियर की पंक्ति – ‘मेन आर एप्रिल व्हेन दे वू, दे आर दिसम्बर ह्वेन दे मैरीयानी जब मर्द प्यार करते हैं तो बसंत होते हैं। वे शादी करते शीत ऋतु में तब्दील हो जाते हैं। यह पंक्ति उनके जीवन में भी दोहरायी गयी। जिन्ना राजनीति में व्यस्त रहने गये और रत्ती का अकेलापन बढ़ता गया। परिणामस्वरूप रत्ती जिन्ना से अलग ताज होटल में अपना ठिकाना बना लिया। रत्ती के जीवन की कथा में कान जी द्वारिका नाथ की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। रत्ती से उनके भावुक सम्बंध थे। वह सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियों से गहरे जुड़े थे।



रत्ती की निसंगता और अस्वस्थता बढ़ती जा रही थी और 20 फरवरी 1929 को यह नील कुसुम अपनी शाख से गिर कर टूट गया। रत्ती का जीवन जिस रोमानियत से शुरू हुआ था, उसकी मृत्यु उतनी ही ह्र्दयविदारक हुई। रत्ती की मजार को देखने गये वीरेंद्र कुमार बरनवाल को गालिब का वह मशहूर शेर याद आया था - 


सब कहां, कुछ लाला- ओ – गुल में नुमायां हो गई
खाक में क्या सूरते होगी कि पिन्हा हो गयी।


राजनीति के तमाम शुष्क घटनाओं को पढ़ना धैर्य की मांग करता है। इस किताब के अंत में लेखक ने जिन्ना के समकालीनों, गांधी, नेहरू, इकबाल के बारे मे लिखा और उनसे जिन्ना के सम्बधों की पड़्ताल की है। यह इस किताब का जरूरी अध्याय है।






गांधी ने 1909 में हिंद स्वराजनाम की पुस्तक लिखी थी। दरअसल यह किताब लंदन से दक्षिणी अफ्रीका की समुंद्री यात्रा करते समय लिखी गयी थी। यह  किताब सम्वाद शैली में लिखी गयी है। इसके प्रश्नकर्ता इतिहासकार एस. आर.  मल्होत्रा और डा. प्राण जीवन मेहता थे। यह किताब हमें गांधी के भीतर जन्म ले रहे विचारों से परिचित कराती है। उस समय गांधी की उम्र चालीस साल की थी। अभी वह हिंदुस्तान नहीं आये थे लेकिन वहां की गतिविधियों पर उनकी नजर थी। दक्षिणी अफ्रीका में रहते हुए वे जिस संघर्ष में लगे हुए थे, उसके अनुभव उन्हें  भारत में काम आये। वीरेंद्र कुमार बरनवाल ने हिंद स्वराज : नव सभ्यता विमर्श नाम से एक अन्य जरूरी किताब लिखी। यह किताब आधुनिक सभ्यता पर गहरे कटाक्ष करती है। वह भारतीय परम्परागत समाज और ब्रिटेन के आधुनिक जीवन के भेद–विभेद पर रोशनी डालती है। हम जानते है की गांधी आधुनिकता के विरोध में नहीं थे। वह छोटे मोटे ग्रामीण उद्योगो की वकालत करते थे। ताकि शहरी और ग्रामीण जीवन में संतुलन बना रहे। दुर्भाग्य से आजादी के बाद यह संतुलन कायम नहीं रह सका। गांव से शहर की ओर पलायन बढ़ा है। आज जब इस कोरोना संकट में कामगार शहर से गांव लौट रहे हैं तो गांव में उनके रोजगार के अवसर नहीं है। आज सब को गांधी की कही हुई बात याद आ रही है। अमर्त्य सेन ने कहा था  कि गांवों को हमने रहने लायक नहीं छोड़ा है और शहरों को रहने लायक नहीं बनाया। देश की आर्थिक नीतियो के कारण यह विषमता तेजी से बढ़ी है। उसके नतीजे हम देख रहे है।



यह आकस्मिक नहीं है कि लेखक हिंद स्वराज को नव सभ्यता विमर्श का दर्जा देते है। गांधी आधुनिकता के बरअक्स स्वदेशी पर ज्यादा जोर देते थे। जब यह किताब प्रकाशित हुई तो अंग्रेजों ने जब्त कर दिया था। जब यह किताब जब्ती से मुक्त हुई तो इसकी खूब चर्चा हुई । इस किताब के आलोचक कम नहीं थे। गोखले को इस किताब की मान्यताएं रास नहीं आयी। आज इस किताब के प्रकाशन के सौ वर्ष से ज्यादा समय हो गया है। दुनिया एक ग्लोबल विलेज में बदल चुकी है। किताब पर एक टिप्पणी  देखे -  बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के भ्रष्ट सरकारों के साथ निर्लज्ज दुरभि संधियों को उजागर कर उनके पर्यावरण और मानवद्रोही चरित्र  के विरूद्ध गांधी की परम्परा में संघर्षरत और शहीद नाइजेरियन के अदम्य केन सारो वीवावीवा और उनके साथियों के मार्मिक प्रसंग गहराई से उद्वेलित करते हैं। आधुनिक सभ्यता की जड़े मशीन और उससे प्रेरित अंधाधुंध आद्योगीकरण में हैं।

 

वीरेंद्र कुमार बरनवाल नें अपनी बात रखने के लिये विख्यात अंग्रेजी कवि रूडयार्ड किप्लिंग की मशहूर कविता पंक्ति उद्धृत की है – पूरब पूरब है पश्चिम पश्चिम। दोनों कभी नहीं मिल सकते। सचमुच यह कोई कविता पंक्ति नहीं सभ्यताओं की वास्तविकता है। गांधी के किताब की यही आधारभूमि भी है। इस पुस्तक का एक अन्य शेर उनकी बात का तर्जुमानी करता है –



बुझी जाती है मशरिकी मगरिब की आंधी से  
उम्मीदे – रोशनी कायम है लेकिन भाई गांधी से 
  


यह भी कहा जाता है कि गांधी को इस किताब को लिखने की प्रेरणा रूस के महान लेखक लियो तल्स्ताय की किताब – लेटर टू द हिंदू (1908) से मिली। यह अस्वाभाविक नहीं है। रस्किन और तल्स्ताय उनके प्रिय लेखक थे। तल्स्ताय से उनके पत्र–व्यवहार भी रहे है। वे मानवतावादी लेखक रहे हैं। एक लेखक के साथ वे चिंतक भी रहे हैं। मजलूमों और मजदूरों के प्रति उनकी गहरी सहानुभूति रही है। बरनवाल ने आज के संदर्भ में गाधी की इस किताब की सम्यक व्याख्या की है। सौ से ज्यादा वर्ष पहले गांधी ने जो विचार व्यक्त किये थे – वे आज के समय में ज्यादा प्रासंगिक हैं। आज के इस पूंजी समय में उनके विचारों की सार्थकता महसूस की जा रही है।







वीरेंद्र कुमार बरनवाल ने लीक से हट कर काम किया है। लकीर के फकीर नहीं रहे। कभी-कभी उन्होंने खिची गयी रेखाओं को तोड़ कर रचनात्मक दखल दिया है। इस अतिक्रमण का साहस बहुत कम लेखकों में होता है। सुविधावादी लेखक गोल–गोल घूम कर अपना काम निकाल लेते हैं लेकिन जो लेखक बनी–बनायी धारणाओं को तोड़ते हैं, उनका काम इतिहास में दर्ज होता है। मुस्लिम नव-जागरण पर बहुतेरे काम हुए हैं लेकिन उनकी किताब – मुस्लिम नवजागरण और अकबर इलाहाबादी का गांधीनामाको पढ़ना अलग आस्वाद और ऐतिहासिक तथ्यों से गुजरना है। इस किताब में मुस्लिम पुरोधाओ का जीवन और समाज के लिये किये गये योगदान की विस्तार से चर्चा की गयी है। इस पुस्तक को संभव करने के लिये उन्होंने इतिहास के अंधेरे कोनो में पहुंचने की कोशिश की है। उन्होंने शाह बली उल्लाह, मिर्जा तब तालिब, मुमताज अली, सैयद अहमद खां और मौलाना अबुल कलाम आजाद के योगदान के बारे में गहरे मनोयोग के साथ लिखा है।
 


सबसे महत्वपूर्ण है मकबूल शायर अकबर इलाहाबादी की लम्बी नज्म – गांधीनामा। यह नज्म 1921 में लिखी गयी थी। उस समय गांधी 52 साल के थे और शायरे–आजम अकबर इलाहाबादी उम्र के 75 वें पड़ाव पर थे। इस उम्र में वह गांधी के कितने बड़े मुरीद थे यह बात उनकी यह बड़ी  नज्म पढ़ कर अनुभव की जा सकती है। अकबर इलाहाबादी ने आजादी की लड़ाई का मंजर देखा था। वे  गांधी  की भूमिका से वाकिफ थे। इस नज्म की चंद लाइने देखें –



इंकिलाब आया, नई दुनिया, नया हंगामा है
शाहनामा हो चुका, अब दौरे गांधीनामा है
दीद के काबिल उस उल्लू का फो नाज है
जिससे  मगरिब ने कहा तू आंनरेरी बाज है

.....

इस सोच में मेरे नासेह, टहल रहे हैं
गांधी तो वज्द में हैं यह क्यों उछल रहे हैं



असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन के गांधी के क्रिया-कलापों से अकबर इलाहाबादी मुतास्सिर थे। फारसी कवि फिरदौसी ने ईरान के बादशाहों का गुणगान अपनी किताब शाहनामा में किया है। उसी तर्ज पर अकबर इलाहाबादी ने गांधीनामा नज्म लिखी है। शाहनामा के वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण है लेकिन गांधीनामा यथार्थपरक है।  
 

सम्भवत: यह लेखक की अंतिम किताब है। वे बौद्धिक क्षमता से परिपूर्ण लेखक थे। लेखन के जिस इलाके में वे गये, वहां कुछ नया ही किया। वे अच्छे लेखक के साथ उम्दा इंसान भी थे। इस पंक्तियों के लेखक को उनकी कई मुलाकातों की याद है। बड़े- बड़े महानगरों में रहने के बाद ही उनका पुरबिया ठाट कम नहीं हुआ था न उनका टोन ही बदला था। बडे ओहदे पर रहने के बाद वह अहंकारविहीन व्यक्ति थे। अधिकांश अफसर–लेखकों से मिल कर घनघोर निराशा होती है – वे ठीक से लेखक हो नहीं पाते हैं, मनुष्य होना तो दूर की बात है।

 

स्वप्निल श्रीवास्तव




सम्पर्क

स्वप्निल श्रीवास्तव
510 – अवधपुरी कालोनी
अमानीगंज, फैज़ाबाद – 224001


मोबाइल – 9415332326
  




  

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