पूनम तिवारी की कहानी ‘सामंजस्य’।


पूनम तिवारी

जीवन अपने आप में अद्भुत होता है। इस जीवन को जीते हुए हमें कई तरह के ऐसे समझौते करने पडते हैं जो अनपेक्षित होते हैं। जीवन एक तरह से नट की उस तनी हुई रस्सी पर संतुलन बना कर चलने की तरह है जो दो खम्भों के बीच बंधा होता है। एक पल के लिए भी संतुलन बिगडा नहीं कि धराशायी होना निश्चित। एक व्यक्ति को तमाम तरह की वैसी आलोचनाएं भी झेलनी पड़ती हैं जिसके लिए अमूमन वह उत्तरदायी नहीं होता है। पूनम तिवारी ने अपनी कहानी सामंजस्य के जरिये जीवन के इस पहलू को खूबसूरती से उकेरने की कोशिश की है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है पूनम तिवारी की कहानी सामंजस्य

          

सामंजस्य 


पूनम तिवारी



पापा का चार बार फोन चुका था। डॉ द्वारा ऑप्रेशन बता दिया गया। सोमवार को ऑपरेशन होना है। मात्र तीन सौ किलोमीटर की दूरी पर रह रहा हूँ। फिर भी घर पहुँचने की कितनी जुगत लगानी पड़ती है। सोमवार को ही हैप्पी का प्रेप का एडमिशन टेस्ट है। अगर छूट गया तो फिर अच्छे स्कूल में पढ़ने से वंचित रह जायेगा। टीना तो वैसे ही नाखुश रहती है। उसे लगता है कि मैं अपने घर वालों के लिए समय निकाल लेता हूँ किंतु ऐसा मैं जान कर नहीं करता। पिछली बार पापा का फोन आया कि मम्मी की अचानक तबियत खराब हो गयी है। दूसरे दिन गुड़ फ्राइडे फिर सैकेंड सैटरडे और इतवार मिला कर तीन छुट्टियाँ मिल गयी। पहुँचने पर मम्मी पापा दोनों खुश हो गए। इकलौता होने के कारण फर्ज़ भी तो मेरा ही बनता है। बहन की ससुराल भी तो भाई जायेगा कैसे भी समय निकालना पड़े, मैनेज करता हूँ किंतु ऐसे में टीना के उलाहने खूब सुनने पड़ते हैं। लाख कोशिश करता हूँ कि शिकायत का मौका दूँ परन्तु ऐसा हो नहीं पाता।



हैप्पी के जन्म के समय  मुझे कंपनी द्वारा एक प्रोजेक्ट के तहत एक सप्ताह के लिए दिल्ली से बंगलौर भेजा गया था। मैंने पूरी कोशिश की थी कि मेरे बजाय किसी और को भेज दिया जाये किन्तु ऐसा हो नहीं पाया। टीना की डिलीवरी, डॉक्टर द्वारा दिए समय से पूर्व हो गयी। जिस दिन बेटे के जन्म की ख़बर सुनी। मेरे अन्दर का पिता ख़ुशी से झूम उठा। सारा कुछ यूँ ही छोड़ कर भागने को दिल बेचैन हो उठा लेकिन मैं तो ऐसा सिर्फ सोच ही सकता था, कर नहीं सकता था। नौकरी करनी है तो नाकरी नही चलेगी। भले ही शोषण होता रहे। यही तो अन्तर है एक औरत और एक मर्द में, वो पति है, पिता है, बेटा है। कितनी प्लानिंग की थी। कितनी बेसब्री से इंतजारी दिन गिन रहा था कि अपने बच्चे को सबसे पहले मैं देखूंगा। उसका पहला रोना, हँसना सब कैमरे में क़ैद करूँगा। ऐसी तमाम प्लानिंग रोज़ी-रोटी के इर्द-गिर्द सिमट कर रह जाती हैं। साढ़े चार साल हो गए, हैप्पी के जन्म को लेकिन टीना उस बात को भुला नहीं पायी।




जब शादी तय हुई थी मेरे पास अच्छी भली नौकरी थी। शायद ग्रहों का कुछ चक्कर रहा होगा कि शादी से ठीक दो महीने पहले कम्पनी ने मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया क्योंकि मैंने समय को ले कर कम्पनी के खिलाफ आवाज़ उठाई थी कि आठ घण्टे के बजाय तेरह घण्टे काम लिया जा रहा है।


टीना जब घर ब्याह कर आयी तो मैं अंदर ही अंदर यह सोच कर घुल रहा था कि मेरे ऊपर कहीं झूठ बोल कर शादी करने जैसा आरोप लग जाए। उस वक्त वह भी अच्छी कम्पनी में थी। मैं सुबह उसे साथ ले कर जाता। उसे ऑफिस छोड़ कर घर वापस लौट आता। फिर शाम उसे ऑफिस से लेने पहुँच जाता। बीच का समय नेट में नौकरी खोजने में लगा रहता। इन सबसे टीना अंजान थी। लगभग ढाई महीने उसको ऑफिस पहुँचाने और अपनी नई नौकरी खोजने का सिलसिला चलता रहा। नई नौकरी ज्वाइन करने के पश्चात् आप बीती टीना को बताई। मुस्करा कर बोली थी। "इसमें झूठ बोलने जैसा क्या था बेफिक्र हो कर कहते स्विच करना चाह रहा था।" "अभी ऐसा कह रही हो। उस समय बखेड़ा खड़ा हो जाता।" अपनी सेविंग के कारण अपना झूठ भी बचा पाया था। टीना के प्रग्नेंसी के समय तीसरे महीने से ही उसे कोई कोई दिक्कत बनी ही रहती। चौथे ही महीने बिना सोचे विचारे रिजाइन कर के गयी। अभी तक ज्वाइन नहीं किया। और जरूरत भी क्या है मैं कमा तो रहा हूँ।



हैप्पी आठवीं कक्षा में पहुँच गये। हँसी तीसरी कक्षा में है। जब बच्चे छोटे थे। तब इंतज़ार था। इनके थोड़े बड़े होने का, सोचता था कि तब कुछ राहत मिल पायेग़ी लेकिन अब तो और बंध गए। बड़ी क्लास ज्यादा पढ़ाई। उधर मम्मी पापा की आँखें तो हम लोगों के इंतज़ार में ही पथराई रहती हैं। बच्चों के इम्तहान के इंतज़ार दादा दादी करते हैं शुरू होने के नहीं, समाप्त होने के, जिससे बच्चे उनके पास कुछ समय बिता सकें। फिर एक टकराव शुरू होता है। टीना को अपने मायके जाना होता है। बच्चे भी नानी के घर जाना चाहते हैं क्योंकि दादी का घर तो गांव में है। बीबी के साथ बच्चों को भी मक्खन लगाना पड़ता है।


"
बच्चों, दो चार दिन के लिए ही सही, पहले दादा दादी से मिल लो, वहाँ बुआ भी आयीं हैं। फिर नानी के घर चलते हैं।" बस इतना सुनते ही टीना फट पड़ती। "तुम तो यही चाहते हो बस मैं गुलामी करती रहूँ, तुम्हारे घर वालों की, सब मजे करेगें मैं गर्मी में किचन में लाल होती रहूँग़ी।" ऐसे वक्त मैं चुप रहता हूँ। शांति बनाए रखने के लिये सिल्लापोसी भी करता हूँ।


नये शहर में मेरा तबादला हो गय। नया शहर, नये लोग, भयंकर ट्रैफिक, एक डे घण्टा घर पहुँचने में लगता है। ऑफिस के नज़दीक घरों का रेंट अधिक है, इसीलिए दूर लेना पड़ा। ट्रैफिक में कितने ही बार माँ-बहन की गालियाँ बेवजह सुननी पड़ जाती हैं। देर से घर पहुँचने पर आँखें तरेरती पत्नी, इंतज़ार करते बच्चों को देख एक अनजाने से अपराध बोध से घिर जाता हूँ।




आठ सौ किलोमीटर दूर हो गये अपने माता-पिता की हर पल चिंता लगी रहती है। इधर बच्चों का नये स्कूल में दाखिला के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़े। नये घर की शिफ्टिंग क्या आसान होती है। हर बड़े काम के लिए मेरा मुँह देखा जाता है। यदि मैं कह दूँ कि ये काम नहीं हो पायेगा तो तुरंत सुनने को मिल जायेगा "कैसे मर्द हो? इतना छोटा सा काम तुमसे नहीं हो पायेगा।" कई बार लगता है, बड़ी नाइंसाफी कर दी ऊपर वाले ने मर्द बना कर। कोई समझने को तैयार ही नहीं होता की मर्द को भी दर्द होता है।


यहाँ के ऑफिस स्टाफ में महिलाओं की संख्या अधिक है। उनमें से कभी किसी का बच्चा बीमार हो जाता है। कभी सास बीमार हो जाती है। सहानुभूति के लिए यही मजबूत पात्र होते हैं। हम पुरुष आठ-नौ बजे तक ऑफिस में बैठते हैं। महिलाएं शाम के पाँच बजे नहीं कि कंधे में बैग लटका निकलने की भूमिका बनाने लगती हैं। हम मर्दों को तो बैल की तरह ट्रीट किया जाता है। कभी-कभी महसूस होता है कि ज़िन्दगी की थकान में गुम हो गया, एक लफ्ज़ है, जिसे सुकून कहते हैं।



पिछले एक सप्ताह से मेरे और टीना के बीच मौन पसरा है। पापा की तबियत अब कुछ ज्यादा खराब रहने लगी है। यही हाल मम्मी का भी है। घुटनों के दर्द के कारण काफी तकलीफ रहती है। उन्हें अपने पास रखने की बात सुनते ही टीना  भड़क उठी।


"
उन लोगों के लिये किसी सर्वेन्ट का इंतज़ाम कर दो। यहाँ आ कर हर वक्त की चिक-चिक मुझसे नहीं सुनी जायेगी।" आज मैं टीना की किसी बात का जवाब नहीं देने वाला था। मैं चुप रहा, ख़ामोशी सबसे बुलन्द आवाज़ है। जो बाहर की सुनता है वह बिखर जाता है, जो भीतर की सुनता है, वह सँवर जाता है। मम्मी-पापा को कुछ हो गया तो मैं अपने आपको माफ कर पाऊँगा, और मेरे रिश्तेदार और पड़ोसी मुझे माफ करेंगे। मेरी पूरी कोशिश थी कि टीना भी साथ चले मम्मी-पापा को लेने लेकिन नहीं राज़ी हुई। मैं अकेले निकल पड़ा। अच्छा पिता हूँ। प्यार -सम्मान करने वाला पति हूँ। साथ ही आदर्श पुत्र भी तो हूँ। कौन कहता है सामंजस्य बिठाना सिर्फ औरतें जानती हैं। जीवन भविष्य में है अतीत में है, जीवन तो बस इस पल में है।


                                  

सम्पर्क -

ई-मेल : poonam tiwari 018 @ gmail. com


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि चित्रकार विजेंद्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. आ पूनम तिवारी जी, परिवार में संतुलन और सामंजस्य बनाये रखकर जीवन - यापन करने का मंत्र देती बहुत सुन्दर रचना । ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं :
    जो बाहर की सुनता है वह बिखर जाता है, जो भीतर की सुनता है, वह सँवर जाता है।
    आप मेरे ब्लॉग "marmagyanet.blogspot.com" पर मेरी रचनाएँ भी पढ़ें औअर अपने बहुमूल्य वोचारों से वगत कराएं। --ब्रजेन्द्र नाथ

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'