चैतन्य नागर का आलेख ‘विचारों के गलियारे’।


चैतन्य नागर

 
सोच-विचार के बारे में कौन सोचता है? विचारों की पड़ताल का काम हम मनोवैज्ञानिकों, कभी-कभी दार्शनिकों और अक्सर तथाकथित आध्यात्मिक विशषज्ञों पर छोड़ देते हैं। जीवन में हर क्षेत्र के विशेषज्ञ ढूंढने की हमारी आदत दिलचस्प है। हमें खुद के बारे में, साथ के लोगों और उनके साथ अपने संबंधों को समझने के लिए भी विशषज्ञों की दरकार पड़ती है। हमारा पहला कदम ही जैसे खुद से बहुत दूर पड़ता है; पास की चीज़ों से बहुत ज़्यादा हमें दूर की बातें लुभाती हैं। दुष्यंत जी ने बिल्कुल ठीक कहा है:
गज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते,
वो सब के सब परीशां हैं, वहां पर क्या हुआ होगा।
इसका सीधा अर्थ है कि लोग अपने पास, अपने भीतर होने वाली घटनाओं से ज्यादा कहीं और होने वाली बातों की फिक्र में रहते हैं।


बहुत करीब की चीज़ों में हमारी देह, हमारा मन और उसमें उठने वाली विचारों और भावनाओं की तरंगें शामिल हैं। जीवन भर इनकी गिरफ्त में जीते हुए, इनके असर में काम करते हुए भी बहुत कम लोग हैं जो इनके बारे में गंभीर जिज्ञासा और रुचि रखते हैं। पर उन्हें गौर से देखना बड़ा ही दिलचस्प है; अपने विचारों को निहारना, ठीक वैसे ही जैसे अपनी हथेलियों में आप कुछ पंखुड़ियां उठा कर देखते हैं।


विचारों को देखना-समझना उतना आसान भी नहीं। तटस्थ हो कर देखना तो और भी कठिन है। विचारों के साथ ही उन्हें स्वीकार करने और खारिज करने की प्रवित्तियाँ भी चलती हैं। हर विचार अपने विपरीत किसी विचार का बीज भी अपने साथ लिए चलता है। जैसे ही मन में घृणा उठती है, हम अपने मन में प्रेम जगाना चाहते हैं। अपने भीतर की दुनिया के प्रति जिज्ञासा रखने वाले किसी भी इंसान के लिए यह सब कुछ बड़ा अद्भुत है और कई चुनौतियां भी हैं इसमें चुनौतियां इसलिए क्योंकि इसमें गहरी ईमानदारी और विनम्रता की जरूरत पड़ती है। पर हम थोड़ी दिलचस्पी खुद से दिखाएँ तो आगे चल कर किसी और की मदद की भी  जरुरत पड़े, तो इसमें कोई हर्ज़ भी नहीं। पर इस यात्रा की शुरुआत में स्वयं की रूचि, जिज्ञासा और सीखने वाले मन का होना बहुत जरूरी है।


चैतन्य नागर के इस आलेख में कोशिश की गई है एक आम इंसान की तरह विचारों की पहेली को समझने की। थोड़ी सी संवेदनशीलता इस अंतर्यात्रा में हमें बहुत दूर तक ले जा सकती है, ऐसा लेखक का मानना है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है चैतन्य नागर का आलेख विचारों के गलियारे
  



विचारों  के  गलियारे


चैतन्य नागर



ऑल्डस हक्सले जब पेंटिंग्स देखने के लिए कला दीर्घाओं में जाते थे तो ख़ास किस्म के नशीले ड्रग्स लेते थे जिनके असर में आ कर उन्हें रंगों की चमक और पेंटिंग्स का सौदर्य अपनी पूरी भव्यता के साथ दिख सके। बाग़ में टहलते हुए वह वनस्पति शास्त्र के अपने विराट ज्ञान को एक ओर हटा कर फूलों को देखना चाहते थे, बगैर सोच-विचार के हस्तक्षेप के उनको बस निहार लेना चाहते थे, और ऐसा न कर पाने की स्थिति में उदास हो जाते थे। हक्सले पिछली सदी के महानतम बुद्धिजीवियों में से थे, पर कहीं उन्हें बुद्धि की, बौद्धिकता की सीमाओं का भान था। उन्हें यह स्पष्ट दिखता था कि बुद्धि इंसान के साथ एक ख़ास बिंदु तक तो बनी रहती है, पर उसके बाद उसका हाथ झटक देती है। हक्सले की उदासी ने कई कवियों और खोजी बुद्धिजीवियों को भी छुआ होगा। इसका स्वाद उनको जरूर मिला होगा। कुछ मनोवैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि बुद्धि की सर्वोच्च उपलब्धि स्वयं की सीमित प्रकृति और अपनी व्यर्थता को समझ लेने में ही है। बुद्धि, सोचने की क्षमता के अलावा भावनाओं और इन्द्रियों की भी विशेष भूमिका होती है वास्तविकता को समझने के लिए।


    

क्या सोच-विचार, अतीत के अनुभवों एवं ज्ञान के कारण इन्द्रियों की सामान्य गतिविधियाँ बाधित होती हैं? जब हमे कहीं ठोकर लगती है, तो अक्सर यही होता है कि सोच विचार में डूबे रहने की वजह से हम ठीक सामने पड़ी बाधा को भी नहीं देख पाते। वैसे ही जब हम कुछ सोच रहे हों और सामने वाला कुछ बोलता रहे, तो हम सुन नहीं पाते, क्योंकि मन विचारों में कहीं डूबा होता है। हम कहते हैं ध्यान कहीं और था। ध्यान वहीँ था, बस उस पर कोई पुरानी कोई स्मृति या आने वाले कल की कोई फिक्र हावी हो गयी थी, विचारों के रूप में। ऐसा ही नहीं था क्या? रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में सामान्य चीज़ों को देखते-सुनते, महसूसते समय विचार किस तरह बाधा बनता है, इसे एक वस्तुनिष्ठ तथ्य के रूप में देखा और सत्यापित किया जा सकता है। यह सब कुछ इतना करीब होते हुए भी कितना कम समझा गया है! हमें करीब की चीज़ों से ज्यादा दूर की  चीज़ों में दिलचस्पी है। आंतरिक से कहीं अधिक वाह्य में रूचि है।




विचारों की गति को निहारना दिलचस्प है। एक विचार आता है और फिर आगमन होता है एक अंतराल का, जिसमें पहले के विचार की दिशा बदल जाती है और दूसरा विचार शुरू हो जाता है। यदि कोई अंतराल न होता तो फिर सुबह से रात तक एक ही विचार चलता रहता। पर यह सब कुछ इतनी तेजी से होता है कि दिखाई नहीं पड़ता। जैसे तेजी से चलते हुए पंखे की अलग-अलग पत्तियां कहां दिखाई देती हैं? पर होती तो हैं। 'ऊहापोह' शब्द को हमारे सामान्य सोच-विचार का निकटतम पर्याय कहा जा सकता है। सोचते हम कुछ और हैं, कह बैठते हैं कुछ। करते समय तो और भी बखेड़ा खड़ा कर जाते हैं। एक ही बार में दो विरोधाभासी चीज़ों की इच्छा; एक साथ ही कुछ पाने की भी और न भी पाने की अभिलाषा --- कुल मिला कर यह सोच विचार बड़ी उपद्रवी चीज़ है। हमारे कहने, करने और सोचने के बीच बड़ी-बड़ी खाइयाँ हैं जो हमारे सोच विचार की बुनियादी रूप से काइयां प्रकृति पर प्रकाश डालती है। फैज़ ने इस उलझन को अपने एक बहुत ही उम्दा शेर में भी व्यक्त किया है :

दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ़ हम,
कहने को उनके सामने बात बदल बदल गयी...

पहले सब कुछ स्पष्ट कर के किसी का घर से निकलना और मौका पड़ते ही जबान का कहीं और ही फिसल जाना, यह रोज़मर्रा की बात है।



किरातार्जुनीयम् में महाकवि भारवि ने दुर्योधन से इस बात को बड़े प्रभावी ढंग से कहलवाया है :

जानामि धर्मम् न च में प्रविति, जनाम्यधर्मम न च में निवृति; केनापि देवेन ह्रदयस्थितेन, यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि।

दुर्योधन कह रहा है कि उसे मालूम तो है कि सही क्या है, पर उसका मन उस ओर जाता नहीं; उसे यह भी मालूम है कि गलत क्या है, पर उसे इससे मुक्ति नहीं। आगे वह कहता है कि कोई है जो मेरे भीतर बैठा है और जैसा वह तय करता है, वैसा-वैसा मैं करता रहता हूँ। यह जो भीतर बैठा है, वही अनियंत्रित, अपरीक्षित विचार है, ऐसा समझ आता है। उसमे बड़ा प्रबल वेग है और वह ऊटपटांग चीज़ें करवाता रहता है हमसे।




कुछ मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि ज़्यादातर विचार असजग होने पर आते हैं। अनवधान ही विचार है। सजगता की बिल्ली चौकन्नी हो कर बैठी रहे तो विचार का चूहा बिल से ही नहीं निकलता। यह प्रयोग करने योग्य है। कुछ सेकण्ड्स के लिए सही गौर से, पूरे होश के साथ विचारों को देखने की कोशिश करें, देखिए  विचार या तो आएंगे नहीं या फिर उनका वेग कम हो जाएगा। इससे सवाल उठता है कि क्या विचार एक तरह की बेहोशी में ही आते हैं? बेहोशी अतीत की स्मृति या भविष्य की फिक्र में खो जाने का ही दूसरा नाम है। यदि ऐसा है तो इस बेहोशी के कारण सिर्फ सतही नहीं; चेतना की अवचेतन, अचेतन परतें, उपरी परतों से अधिक गहरी और अबूझ हैं। बताते हैं कि अवचेतन मन से और गहरे जा सकें तो देखेंगे कि समस्त मानव जाति की सामूहिक स्मृतियाँ वहां इकट्ठा हो कर जमी हुई हैं। अतीत का अर्थ बस बीता पल, बीता हफ्ता या वर्ष नहीं, यहाँ तो सभी बीती सदियों का सामूहिक संचित अनुभव है जो जाने-अनजाने में मन की भीतरी सतहों में दर्ज होता चला गया है। मन की बेहोशी गहरी है और कुछ तो है जो समझ से बाहर है। ग़ालिब ने अपने एक खूबसूरत शेर में इस बेहोशी के बारे में लिखा है :


बेखुदी बेसबब नहीं ग़ालिबकुछ तो है जिसकी पर्दादारी है।


          

हम शायद ही कभी सोचते हों कि विचार क्या हैं, कि सोच क्या है? इनकी उत्पत्ति कहाँ है? स्मृति से? क्या भावनाएं भी सोच ही हैं? यदि सोच स्मृति का प्रयुत्तर है और स्मृति की जड़ें अतीत में ही हैं तो फिर तो नए विचार या नयी सोच जैसा कुछ हो ही नहीं सकता। हम जो कुछ भी सोच रहे हैं वह क्या किसी और ने, किसी और समय में, कहीं नहीं सोचा? फिर नयी, मौलिक और अपनी सोच जैसा क्या है? चमकते सूरज के नीचे जो है वह क्या पुराना ही है? नए आवरण में बासी कुछ?



विचारों की हरकत पर गौर करें तो एक ओर फफूंद लगे अतीत की दस्तक लगातार दरवाजे पर सुनायी देती है। दूसरी ओर मन की आँखें एक अजन्मे, काल्पनिक, धुंधले भविष्य की ओर ताकती रहती हैं। वर्तमान क्षण अतीत के भविष्य की ओर प्रवाह के लिए बस एक गलियारा भर है। विचार एक पेंडुलम की तरह डोलता रहता है बीते हुए पल और आने वाले पल की बीच। हर विचार के केंद्र में मजबूती और पूरी जिद के साथ बैठा हुआ एक 'मैं' है। इस 'मैं' की सरंचना ही संदेह के दायरे में है। हो सकता है यह स्मृतियों का एक पुलिंदा मात्र हो, बस एक मेंटल कंस्ट्रक्ट’, मनोवैज्ञानिक संरचना भर हो। मैंका भाव विचार को एक निरंतरता देता प्रतीत होता है। इसके बगैर विचारों का भवन भरभरा कर गिर पड़ेगा, ऐसा ही प्रतीत होता है। अब गौर किया जाए कि क्या ऐसा भी कोई विचार है जिसमे 'मैं' न हो? एक और सवाल। क्या 'मैं', अहम् का भाव  भी बस एक विचार ही है?




विचारणा मन के सबसे गहरे संस्कारों या आदतों में है। यह मानना बहुत ही मुश्किल है कि उसके बगैर भी जीवन को समझा जा सकता हैसभी के लिए बेहतर और आसान बनाया जा सकता है। इसलिए बौद्धिकता का, विचारों का महिमामंडन एक सामान्य बात है जो बहुत छोटी उम्र से ही दिमाग में ठूंस दी जाती है। आइन्सटाइन ने विचार के इस खेल को समझा था और यह भी कहा था कि विचार से पैदा हुई समस्याओं का समाधान विचार के स्तर पर हो ही नहीं सकता विचार की मदद से समाज ने बहुत प्रगति की, विज्ञानं और प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में हम बहुत आगे तक गए, पर विचार ने ही दुनिया का सबसे अधिक सर्वनाश भी किया है। वर्चस्व की कामना, शोषण की प्रवित्ति, उपभोग करने और बटोरने की आदत --- ये सभी विचार ही हैं जिन्होंने हमारे मन को गिरफ्त में रखा हुआ है।  विचार का अर्थ प्रगतिशील विचार ही नहीं। विचार का विरोध फासीवादी प्रवित्ति ही नहीं। बहुत ही क्रूर, दकियानूसी और प्रतिक्रियावादी लोग भी विचार के असर में ही सोचते और काम करते हैं। आम भाषा में हम भले ही हम उसे विचारहीन कह लें, पर उन पर भी विचारों की मजबूत गिरफ्त होती है।




समस्या यह भी है अनावश्यक विचारों के अंत करने की संभावना का इस्तेमाल तथाकथित धार्मिक लोगों ने अपनी धनलोलुप, सत्ता की भूखी रसना को तृप्त करने के लिए कर लिया है। वे विचारातीत ध्यान, परम शान्ति, और इस तरह की तमाम बेबुनियाद बातें करके लोगों को रिझाने लगे। इसीलिए विचारों की अंदरुनी दुनिया का वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन नहीं हो सका है और यह ज़िम्मेदारी मनोवैज्ञानिकों के कन्धों पर आ कर ही रुक गयी। कभी सम्भव हुआ भी तो रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में, प्राथमिक शिक्षा के स्तर से नहीं, बल्कि एक ख़ास किस्म के विज्ञान के रूप में। जब कि विचार और उसकी वैज्ञानिक समझ हर समझदार इंसान के लिए उतनी ही आवश्यक है, हमारे रोज़मर्रा के जीवन के साथ उतनी ही गहराई के साथ जुड़ी है, जितना कि हमारा आहार, व्यवहार और शारीरिक स्वास्थ्य।




सम्पर्क

मोबाईल : 7007955489

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'