शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ



शहनाज इमरानी कविता की  दुनिया में एक नया नाम है. शहनाज की कवितायें बिम्ब और शिल्प के चौखटे तोड़ते हुए ढेर सारी उम्मीदों के साथ हमारे सामने हैं. देखने वालों को इन कविताओं में एक अनगढ़पन भी दिखेगा लेकिन इस बात से इंकार नहीं कि यह नयी कवियित्री पूरी तरह चौकस है अपने समय, समाज और संवेदनाओं के बीच. शहनाज को पता है कि आज का जीवन कितना दुष्कर है. रिश्वत के बिना कोई काम हो पाना आज लगभग नामुमकिन सा हो गया है. जो खुद बड़े अपराधी हैं, जिन्होंने खुद बड़े डांके डाले हैं, जिन्होंने खुद लाखों-करोड़ों के वारे-न्यारे किये हैं, वही आज हमारी संविधानिक संस्थाओं पर काबिज हैं और बड़ी बेशर्मी के साथ नैतिकता का जाप करते रहते हैं. व्यवस्था को बिगाड़ने का आरोप वे बिना किसी हिचक के उन लोगों पर लगाते हैं जो प्रतिबद्धता के साथ नेपथ्य में रहते हुए अपने काम में जुटे हुए हैं. शहनाज की ही एक कविता की पंक्तियाँ ले कर कहें तो 'माथे का पसीना पोंछते हुए ही कुछ ठीक करने की कोशिश में आज भी कुछ लोग प्राण-प्रण से जुटे हुए हैं.'  इस नयी कवियित्री का स्वागत करते हुए पढ़ते हैं इनकी कुछ नवीनतम कविताएँ। 

           
दीमक 

फ़ैलती जा रही है दीमक रिश्वत की
स्कूल में एडमिशन के लिए, ट्रेन में रिजर्वेशन के लिए
रेड लाइट पर चालान से बचने के लिए
मुकदमा जीतने और हारने के लिए
नौकरी के लिए, राशनकार्ड, लाइसेंस, पासपोर्ट के लिए,
अस्पताल के लिए, घर के लिए, खाने के लिए, पीने के लिए
सांस लेने के लिए
जुर्म, नाइंसाफ़ी, बेईमानी
अल्फ़ाज़ों ने नए लिबास पहन लिए हैं
महंगाई, ग़रीबी, भूख और बेरोज़गारी से लोग जूझ रहे हैं
हमारे पास ईमानदारी बची नहीं 
और बेईमानी एक राष्ट्रीय मजबूरी बन गई 
सब की अपनी-अपनी ढपली अपना राग
संवेदनशीलता से बचते हुए इंसान के ख़िलाफ़
हर नाइंसाफी को बर्दाश्त करना
कोई तो सीखे क़ैदी ज़हनों में सोच भरना
कोई तो सुलझाए ज़िंदगी का गणित
ज़िंदा आदमी कंकाल की तरह
करते है मेहनत ढ़ोते हैं
ईंटे,  रेत, सीमेंट
बनते जा रहे है कंक्रीट के जंगल
बैगर, ब्याज़ और क़र्ज़ का बोझ
आदमी का खून पी कर
मानते है कामियाबी का उत्सव
नेपथ्य में काम करने वाले अँधेरे में
रंगमंच पर तालियों की गड़गड़ाहट और शोर।


     
                  
 चुनाव


खेतों के साथ चलते हुए
रातो-रात मैदान बन जाते हैं
सड़कें दौड़ने लगती हैं
कुछ जांबाज़ लफ्ज़ छलांग लगाते हैं
और ख़बर के सबसे सियाह पहलू को
नए बने शहर के सामने लाते हैं
जब मानी का सबसे मुश्किल नुकता आता है
लोग फिसल कर जल्लाद के साथ हो लेते हैं 
जो राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानता
वो ही तो नेता बन जाता है
चुनाव जीतना दहशतगर्दी का लाइसेंस मिल जाने जैसा है 
देशवासियों को खाना नसीब नहीं
और वो पार्टी के बाद का खाना ट्रकों में भर कर फेंकते है
बे घर लोग बदन पर चीथड़े
खाली पेट सरकारी अस्पतालों के फर्श पर
बिना दवा इलाज के दम तोड़ते रहते हैं
खून,बलात्कार, हिंसा, अन्याय, अत्याचार, कट्टरवाद
मेरे देश में आज भी राष्ट्र से पहले धर्म आता है !
अणु-परमाणु से चल कर
न्यूट्रोन-प्रोटोन तक पहुंची
इस चरम सभ्यता की जिन्दगी में
प्रजा पीछे छूट गयी और तंत्र बुलेट प्रूफ़ कारों में आगे निकल गया।


गाँव का एक दिन    
                   
परिंदे जाग गये  है
एक दूसरे का अभिवादन
कर रहे हैं शायद
दो चिड़ियाँ आपस में
प्यार करती है
या झगड़ती हैं
चार खम्बे और एक छप्पर
कहने को है एक घर
आँगन के चूल्हे से
उठता कण्डों का धुआँ है
एक बछड़ा उछलता है
एक चितकबरी गाय रँभाती है
एक कुत्ता आँगन में सोता है
एक गहरा कुआँ
जिस से लौटती थीं गूँजती आवाज़ें
समय ने पाट दिया है
कुछ पेड़ों के पत्ते पीले हुए है
सूनी डालियों को छोड़ कर
हवा के रुख़ पर तैरते है
जैसे बिना इरादों के आदमी
कच्चे रास्तों से गुज़र कर
गाँव कि छरहरी पगडण्डी
चौड़ी सड़क से जा मिली है
यहाँ सब कुछ वैसा सुन्दर नहीं है
जो अक्सर टी.वी. के चैनलों पर
दिखाया जाता है
मुख्तलिफ़ दुनियाँ है गाँव कि
अभावों से भरी ज़िन्दगी की साँसे
किसान का पसीना
और गरीबी की मार। 


 अब्बू तुम्हारी याद

तुम्हारी याद
रोज़ तपते दिन का सामना करती है
फिर ढलते शाम के सूरज तक पँहुच जाती है
आज देखो फिर काला अँधेरा पीला चाँद ले आया है
क्यों बेतरतीब सी है यह दुनियॉं
कुछ ठीक करने की कोशिश में तुम
माथे का पसीना पोंछते रहे
तुम्हारी बातों में थी रौशनी
ज़िन्दगी का संघर्ष और बहुत सारा साहस
शुरुआत और अन्जाम के बीच अब भी
भटकती है कहानी
कहीं धुएँ को तरसते हैं चूल्हे तो कहीं
जीवन ने सिर्फ व्यापारी बना दिया है
ज़ुल्म करने वालों और
ज़ुल्म सहने वालों तक एक ही कहानी है
जनसंख्या बड़ती है तो भूख भी बड़ जाती है
रिश्तों का जोड़ टूट गया है
इस दौड़ में अगला क़दम पीछे वाले से छूट गया है
हवा में फैले हैं अन्देशे और हाँपता हुआ डर
दुनियाँ बन गई है एक बारूद की खदान
अब भी जारी है राजनीति के झगड़े कुर्सी की खिंचा तान
सब कुछ ही है वैसा
बदल कर भी कुछ न बदलने जैसा।

पिछली सर्दी में

वो दिन बहुत अच्छे थे
जब अजनबीपन की ये बाढ़
हमारे बीच नहीं उगी थी
इसके लोहे के दाँत
हमारी बातों को नहीं काटते थे
उन दिनों की सर्दी में
मेंरे गर्म कम्बल में तुम्हारे पास
कितने क़िस्से हुआ करते थे
हर लफ्ज़ का मतलब वही नहीं होता
जो किताबे बताती है
लफ्ज़ तो धोखा होते है
कभी कानों का कभी दिल का
और ख़ामोशी की अँधेरी सुरंग में
काँच सा वक़्त टूटने पर
बाक़ी रह जाती हैं आवाज़े
और उनकी गूँज !


मोहल्ले का चौकीदार

अपने हाथ का तकिया बना कर
अक्सर सो जाता है
अपनी छोटी-छोटी आँखे और चपटी सी नाक लिए
सब को हाथ जोड़ कर सर झुकता है
नाम तो बहादुर है पर डर जाता है
खुद को साबित करने के लिये
चौकन्ना हाथ में लिये लाठी
उसे पटकता है ज़मी पर
चिल्लाता है ज़ोर से "जागते रहो "
अपनी चौकन्नी आँखों का
एक जाल सा फैलाता है
फिर भी सड़क का कोई कुत्ता बिना भोंके
निकल ही जाता है
हर महीने लोगों के दरवाज़े खटखटाता है
कुछ दरवाज़े तो पी जाते हैं उसकी रिरियाहट को
कुछ देते है आधा पैसा
कुछ अगले महीने पर टाल देते हैं
मैम साब घर जाना है
माँ बहुत बीमार है
इस बार तो पूरा पैसा दे दो
और मैम साब कुछ सुने बगैर
दरवाज़ा बंद कर के कहती है
छुट्टा नहीं हैं फिर आना।


संपर्क -

ई मेल : shahnaz.imrani@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. विजेन्द्र कृति ओर

    शहनाज़ सचमुच आज की कविता के लिए एक नया नाम है। जैसा कवि संतोष ने कहा एक भरोसे का नाम। कुछ दिनों पहले शहनाज़ की कुछ कविताएं "कृतिओर" में पढ़ी थीं। वहाँ भी पहली बार। पहली बार में भी पहलीबार। कैसा सुखद संयोग है। मुझे शहनाज़ की कविताएं पढ़ कर सहसा एमिली डिकिन्सोन [ अमरीकी ] poetess की याद आई । फर्क है कि एमिली डिकिन्सन सिर्फ अपने बंद कमरे से दुनिया को देखती है । शहनाज़ खड़ी की गई दीवारों को तोड़ कर ज़िंदगी की जद्दोजहद के बीच खुद जद्दोजहद करती दिखती है । मौलिकता इन कविताओं की खूबसूरती है । कवि संतोष कम वधाई के पात्र नही। वे अपनी कविताओं के साथ पहली बार ब्लॉग को भी याद किए जाएंगे । वे नए की खोज करते है । अग्रजों को यथोचित मान भी देते है जो अब विरल होता जा रहा है। दोनों को मेरी हार्दिक शुभ कामनाएँ ।

    जवाब देंहटाएं
  2. सुरेन्द्र रघुवंशी-

    शहनाज़ इमरानी की कविताओं में जहाँ जीवन की खुशबू है वहीँ संघर्षों का ताप भी है । वे बहुत सरल शैली में बेहद पेचीदा सबाल उठाने में माहिर हैं । कविता उनके लिए वायवीय चमत्कारों के प्रदर्शन का माध्यम न होकर अपने और दुनियाबी संघर्षों को व्यक्त करने का जरिया है ।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत-बहुत धन्यवाद
    विजेन्द्र जी और सुरेन्द्र जी
    आपकी होसला अफ़ज़ाई का
    आपने कविताओं को सुन्दर शब्दों से सराहा और प्रशंसा की
    आभारी हूँ। :)
    शहनाज़ इमरानी

    जवाब देंहटाएं
  4. kavitaye nischit roop se kurur yatharth ka bodh karati he. achi kavitao ke liye badhai. vijendra ji ke painting behad adbhut he. Manisha jain

    जवाब देंहटाएं
  5. अमीर चंद वैश्य

    भोपाल की नयी कलम से परिचित कराने के लिए धन्यवाद. ये कविताएँ पढ़ कर आभास होता है कि इमरानी की जीवन दृष्टि वर्गीय है और संवेदना मानवीय करुणा से पूर्ण. इसीलिए इन कविताओं में मार्मिक तीखा व्यंग्य है, जो क्रूर व्यवस्था की असलियत उजागर करता है. इनमें सादगी है और रवानगी भी. भाषा का ये लहजा सुलतान अहमद के निकट है. कवितायेँ विशवास जगाती हैं कि उनसे इमरानी की अलग पहचान बनेगी. उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएं.

    जवाब देंहटाएं
  6. मनीषा जैन, कमल चौधरी, अमीर चंद वैश्य, ओंकार धन्यवाद आप सब का आपने कविताओं को पढ़ा। और बहुत खूबसूरत लफ़्ज़ों से सराहा।आपके शब्दों से नई ऊर्जा और उत्साह पैदा होता है। और इन शब्दों के आगे शुक्रिया कहना बहुत छोटा हो जाता है। शाहनाज़ इमरानी

    जवाब देंहटाएं
  7. Shabdon par tairti bhavnayen door tak chetnaa main peth jaati hain. Yatharth ke beech a sunehli si kiran. Naman..........

    जवाब देंहटाएं
  8. "छुट्टा नहीं है...." बेहद प्रभावशाली कवितायेँ .. बहुत शुक्रिया इन्हें हम तक पहुंचाने का.. :)

    जवाब देंहटाएं
  9. धन्यवाद सुन्दर शब्दों के लिए और प्रेरणा देने के लिए। आभार मित्र मुकेश और जयेश :)
    शाहनाज़ इमरानी

    जवाब देंहटाएं
  10. तुम्हारी याद
    रोज़ तपते दिन का सामना करती है
    फिर ढलते शाम के सूरज तक पँहुच जाती है
    आज देखो फिर काला अँधेरा पीला चाँद ले आया है
    क्यों बेतरतीब सी है यह दुनियॉं
    कुछ ठीक करने की कोशिश में तुम
    माथे का पसीना पोंछते रहे ( जनसंघर्ष की पक्षधर इन कविताओं की रचनाकार को सलाम )

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'