मनीषा जैन की कविताएँ
नाम- मनीषा जैन
जन्म- 24 सितम्बर, 1963 मेरठ उ.प्र.
शिक्षा- बी. ए दिल्ली विश्वविद्यालय,
एम. ए. हिन्दी साहित्य
प्रकाशित रचनाएं- एक काव्य संग्रह प्रकाशित ‘‘रोज गूंथती हूं पहाड़’’।
नया पथ, कृति ओर, अलाव, वर्तमान साहित्य, मुक्तिबोध,
बयान, साहित्य भारती, जनसत्ता, रचनाक्रम, जनसंदेश, नई दुनिया, अभिनव इमरोज,
युद्धरत आम आदमी आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, आलेख, समीक्षायें प्रकाशित
हताशाओं के विकट दौर में हमारी स्त्रियों ने हमें थाम रखा है. खुद अमानवीय यंत्रणाएं भुगतते हुए स्त्रियाँ बचाने का ये कार्य अनवरत करती जा रही हैं. वे प्यार की बारिस में अपना सब कुछ लुटाने के लिए तैयार हैं. यह समर्पण पुरुष जाति में आम तौर पर नहीं दिखाई पड़ता. मनीषा जैन ऐसी ही कवियित्री हैं जिन्होंने अपनी छोटी-छोटी कविताओं में ऐसे कई बिम्ब उठाये हैं जो हमें एकबारगी चकित नहीं करते हैं. इसलिए क्योंकि ये बिम्ब कोई दूर की कौड़ी नहीं बल्कि हमारे बिल्कुल आस-पास के हैं. बिल्कुल अपने जैसे लगते हैं. यहाँ हाड़-तोड़ परिश्रम के बावजूद वह जो एक हँसी है वह जीवन को बचाए हुए है. मनीषा जैन की कुछ इसी भाव-भूमि की कविताएं आईए पढ़ते हैं.
1.रोज गूंथती हूं पहाड़
रोज गूंथती हूं
मैं कितने ही पहाड़
आटे की तरह
बिलो देती हूं
जीवन की मुश्किलें
दूध-दही की तरह
बेल देती हूं
आकाश सी गोल रोटी
प्यार की बारिश में
मैं सब कुछ कर सकती हूं
सिर्फ तुम्हारे लिए।
2. घर में उजास
वह स्त्री अंधेरी रात में
चम्पा के उजले फूल
भर लाई है डलिया में
रख देगी उन्हें बरामदे में
उजास भर जायेगा
घर में पल भर में।
3. बदलना
कई सालों बाद
जब वह आता है
नौकरी से वापस
वह बदल जाता है
इतना
सर्दी में जमें
घी जितना।
4. भेद रहा है चक्रव्यूह रोज
वह ढ़ोता रहा
दिनभर पीठ पर
तारों के बडंल
जैसे कोल्हू का बैल
होती रही छमाछम
बारिश दिनभर
रात भर टपकती रही छत
उसका बिस्तर होता रहा
पानी-पानी
दिन उकसते ही
वह फिर चला गया
मानों चक्रव्यूह को भेदने।
5. ओ शाम!
ओ शाम!
तू तनिक ठहर
भर दूं सब स्त्रियों के आंखों में
तेरा उजियारा
भर दूं किसी बीमार की आंखों में
उम्मीद का सहारा
भर दूं किसी बच्चे की मुठ्ठी में
कल के सपनें
दे दूं किसी वृ़द्धा को
प्यार भरा घर
ओ शाम! तू तनिक ठहर।
6. नया ठिकाना
बनाते रहे वे
बड़े-बड़े
शानदार मकान
घूमते रहे
शहर-दर-शहर
मकान पूरा होने पर
रातों रात वे अपना
नया ठिकाना खोजने लगे।
7. हंसी जीवन देती है
पत्थर ढ़ोती स्त्री के
हाथ कितने कठोर हो गए हैं
पावं पर भी मेहनत की
गर्द जम गई है
परंतु चेहरे पर
मुलायम हंसी
जीवन को बचाये हुए है।
8. अनार के फूल
सड़क से गुजरते हुए
अपलक देख रही हूं
निमार्णाधीन मकान के बाहर
उन मजूर स्त्रियों के मुख पर
श्रम के पसीने की बूदें
झिलमिलाती हुई
सतरंगी इन्द्रधनुष के रंग भी
फीके हो गए थे उस वक्त
जब तसला उठाती हुई
करती हैं बीच-बीच में
एक दूसरे से
चुहल, हंसी मज़ाक
तब सारे फूलों के
रंग उतर आए थे
गालों पर उनके
लगता था जैसे
वे दुनिया की सबसे
खूबसूरत औरतें हैं
और अनार के फूलों सी हंसी
दबा लेती हैं होठों में अपने।
9. कुछ नहीं बोलता पेड़
हरसिंगार के फूल
झरते हैं
जब सुबह की बेला में
लगता है तुम
मुस्कुरा रही हो
कुछ नही बोलता पेड़
बस अपनी खुशबू
बिखरा देता है
चुपचाप
तुम्हारी तरह।
सम्पर्क-
मोबाइल-09871539404
ई मेल- 22manishajain@gmail.com
मुलायम हंसी जीवन को बचाए हुए है '
जवाब देंहटाएंतभी तो बचा है जीवन
aaj ke mahetavpurn kavi santosh ji ki tippni mere liye mahtavpurn he. kavitaye blog per prakashit karne ke liye dhanyevad. Manisha jain
जवाब देंहटाएंकई सालों बाद जब वह आता है ,
जवाब देंहटाएंनौकरी से वापस ,
बदल जाता है वह
सर्दी में जमे घी जितना
अभिनव रूपकत्व लिए हैं तमाम रचनाएं हमारे वक्त का दर्द ,झरबेरियों सी चुभन ठंडे सम्बन्धों की नकली आंच।