विजेन्द्र की कविता ‘ओ एशिया’ पर अमीर चन्द वैश्य का आलेख
यह विडम्बना ही है कि दुनिया का सबसे बड़ा महाद्वीप होने के
बावजूद एशिया एक लम्बे समय से साम्राज्यवादी शक्तियों के उत्पीड़न का शिकार रहा है।
पहले यूरोपीय शक्तियों ने एशिया के देशों को गुलाम बना कर शोषण किया और अब अमरीका
अपने निहित स्वार्थों के चलते एशिया के ही विभिन्न हिस्सों कभी ईराक, कभी
अफगानिस्तान तो कभी ईरान को अपना शिकार बनाता रहा है। एशिया का पश्चिमी हिस्सा
जिसे हम ‘मध्य-पूर्व’ के नाम से जानते हैं आज भी इन शक्तियों के उत्पीडन का शिकार
होता रहता है। लेकिन अब हालात बदलने लगे हैं। विशेषज्ञों की राय है कि इक्कीसवीं
सदी एशिया के वर्चस्व की सदी होगी। भारत और चीन जैसे देशों ने आर्थिक स्तर पर अपने
को बड़ी शक्तियों में शामिल कर लिया है। आज उनकी उपेक्षा कर सकना संभव नहीं है। जापान
पहले से ही विश्व राजनीति और अर्थव्यवस्था में अपनी अग्रणी भूमिका निभाता आ रहा है।
इसी एशिया को ले कर वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी ने एक लम्बी कविता ‘ओ एशिया’ लिखी है।
दुर्भाग्यवश यह कविता आलोचकों के नज़रों से एक लम्बे समय ओझल रही। वरिष्ठ आलोचक
अमीर चंद वैश्य ने इस कविता पर हमें पहली बार के लिए एक लंबा आलेख लिख भेजा है। दस
जनवरी को विजेन्द्र जी के उन्यासीवें जन्मदिन
के अवसर पर उन्हें बधाईयाँ देते हुए जन्मदिन विशेष की दूसरी कड़ी में हम प्रस्तुत कर रहे हैं अमीर जी का यह आलेख ‘विजेन्द्र
की सर्जना का शतदल कमल’
विजेन्द्र की सर्जना का शतदल कमल
अमीर
चन्द वैश्य
वरिष्ठ कवि
विजेन्द्र द्वारा रचित चार लम्बी कविताओं ‘कठफूला बाँस’ (1977), ‘संवाद स्वयं से’
(2011), ‘ओ एशिया’ (2012), और ‘कौतूहल’ (2013) का संकलन सन् 2013 में प्रकाश में आया है। संकलन का शीर्षक है ‘कठफूला बाँस’। विजेन्द्र सन् उन्नीस सौ सत्तर के दशक से यथार्थमूलक एवं
लोकधर्मी लम्बी कविताओं की सृष्टि करनते रहे हैं। आज भी कर रहे हैं। सन् 1974 में प्रकाशित ‘जनशक्ति’ और सन् 1977 में ‘पक्ष’ पत्रिका में प्रकाशित ‘कठफूला बाँस’ विजेन्द्र की प्रारम्भिक एवं महत्त्वपूर्ण कविताएँ हैं।
इन्हीं कविताओं के नाम से उनके दो संकलन प्रकाश में आए हैं। दोनों में लम्बी
कविताएँ संकलित हैं।
‘कठफूला बाँस’
में संकलित पहली-दूसरी कविताओं पर आलेख लिख
चुका हूँ। इस आलेख में तीसरी कविता ‘ओ एशिया’ का वैशिष्ट्य
समझने-समझाने के प्रयास किया गया है।
सेवियत संघ के
विघटन के बाद दुनिया में अभूतपूर्व परिवर्तन हुए हैं। दुनिया एक ध्रुवीय हो गई है।
अब साम्राज्यवादी अमरीका का वर्चस्व बढ़ गया है। अपने समय और समाज के प्रति जागरूक
कवि विजेन्द्र ने वर्तमान विश्व को एक ध्रुवीयता से बचाने के लिए एशिया को दूसरी ‘महाशक्ति’ के रूप में रूपायित करके मांगलिकता के लिए बेहतर भविष्य की
कल्पना की है। ‘शिवेतरक्षतये’
काव्य-प्रयोजन के समर्थक विजेन्द्र की यह कविता
सुखद स्वप्न है, जो भविष्य में
साकार हो सकता है। वह एशिया महाद्वीप को संगठित रूप में देखना चाहते हैं। इससे
अमरीकी साम्राज्यवाद का विजय-रथ रुक सकता है। अतः वह एशिया को जगाते हुए सम्बोधित
करते हैं-
‘‘ओ
एशिया के विशाल महाद्वीप तुम जागो
दुनिया देखती है तुम्हारी तरफ, जागो
बोलने दो लाखों कंठों को एक साथ
ये दबी-कुचली आवाज़ें धरती के गर्भ में
क्या कहना चाहती हैं
उन्हें सुनो
उनका उत्तर दो
उन्हें भरोसा दो
ज्योतिस्तम्भ बुझे पड़े हैं
कहाँ है वो रोशनी
तुम्हारी छिपी विद्रोही तड़प। (कठफूला बाँस,
पृ0 91, 92)
‘ज्योतिस्तम्भ’
विजेन्द्र का प्रिय बिम्ब है। लेकिन वह बुझा
पड़ा है। अतएव अंधकार का साम्राज्य है। यह अँधेरा क्रूर पूँजी के वर्चस्व के कारण
परिव्याप्त है। मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता का शीर्षक सभी जानते हैं। उन्होंने
अपने जीवन-काल में सभ्यता-समीक्षा करते हुए ‘अँधेरे में’ आशंका के अनेक
द्वीप देखे थे। आशंकाओं के द्वीप कम नहीं हुए हैं। विजेन्द्र भी अपने समय-समाज में
पसरे हुए अँधेरे को देख-देख कर गहरे सोच में डूब जाते हैं-
‘‘ये अंधेरा कब छटेगा
सभी
तो लगते हैं एक से
पथ-क्षीण, पथ-भ्रष्ट
केले
का पात ढुल-मुल
देखा
एक दिन कुछ कवियों को
उड़ते
पतझरे पत्तों की तरह हवा में
मेरी
तरफ देख कर वे हँसे
उनकी
आँखों ने बताया
कहते
हों जैसे पड़े रहो इस खल्लड़ में
गढ़लीकों
में
डामर
पुते राजमार्ग जाते हैं राजभवनों में।’’ (पृ0 92, 93)
इस काव्यांश में
विजेन्द्र का साधक कवि-व्यक्तित्व झलक रहा है, जो सत्ता-समर्थक कवियों/लेखकों पर व्यंग्य का प्रहार भी है।
‘खल्लड़’ बदायूँनी बोली का शब्द है। यह लोहे से बनता है।
मिर्च-मसाला कूटने के काम में आता है। आशय यह सच्चे कवि को कष्टों में पड़े रह कर
विरोधियों के प्रहार झेलने पड़ते हैं। सत्तामुखी कवियों/लेखकों की प्रखर आलोचना
करते हुए शमशेर ने भी कहा था-
‘‘ राह तो इक थी हम दोनों की
आप
किधर से आए गए
हम
जो लुट गए पिट गए
आप
जो राजभवन में पाए गए।’’
विजेन्द्र ने भी
शमशेर के समान राजभवन का त्याग करके अपना सम्पूर्ण जीवन काव्य-सर्जना के लिए
समर्पित कर दिया है। अपनी प्रत्येक साँस कविता के लिए अर्पित कर दी है। अपने
समय-समाज की गहरी पीर आत्मसात करके कहा है-
‘‘अकेला, बिल्कुल
अकेला
समूह
में बजती हैं एकान्त की सुनें
सुनता
हूँ अपने अन्दर बजती
धातुक
खनक
समुद्र-लहरों
में हिलती-डुलती प्रवाल भित्तियाँ
गहरे
त्रास का ध्रुपद
दुखती
उदासी का मालकोश
शोकाकुल
उठते हैं चाहे जब दर्द के
तिरछट
आरोह-अवरोह
जलतरंग
ढलते सूर्य का
सुनता
हूँ अँधेरे गर्त में।’’ (वही, पृ0 93)
यह काव्यांश पढ़ कर
पाठक अनायास समझ सकता है कि कवि विजेन्द्र ने दलित-शोषित मानवता की वेदना आत्मसात
कर ली है। अपने अभिजात व्यक्तित्व का रूपान्तरण कर लिया है। वह स्वयं को ‘नदी का द्वीप’ न मानकर जन-गण की दुख-धारा में प्रतिपल बहना चाहते हैं।
अन्य सत्तामुखी कवियों के समान वह प्रदूषित धारा में बहना नहीं। अपने बारे में वह
लिखते हैं-
‘‘ यंत्रणाएँ झेलने से ही बनी है
मेरी
चित्त भूमि उर्वर
$ $ $ $ लाल पत्थरों की खदानों के खाली
पेट
शाम
के झुटपुटे में
लौटते
खनिक बुझी-बुझी आँखें लिये
पत्थरों
की खुरदरी देह पर
खिंची-तिरछी
गहरी खपारें
कहाँ
हो तुम
आओ
मेरे पास साम्राज्य का खुलना जबड़ा
निगलना
चाहता है मेरे देश को
राजभवन
से उतर कर
इन्हें
देखो
यहाँ
आओ जनता के बीच।’’ (पृ0 95)
फिर एक और सवाल
सामने आकर खड़ा होता है। आखिकर ‘साम्राज्य का
खुला जबड़ा’ का बिम्ब किसकी ओर संकेत
कर रहा है। अमरीकी साम्राज्यवाद की ओर? हाँ, अमरीका ही सम्पूर्ण विश्व
पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है।
इसीलिए विजेन्द्र
अपनी कविता में साम्राज्यवाद का मुखर विरोध करते हैं। ऐसा प्रखर प्रतिरोध उनके हम
उम्र बड़े कवियों के काव्य में लक्षित नहीं होता है। हाँ, इतना ज़रूर है कि विनोद कुमार शुक्ल अपनी कुछ कविताओं में
श्रमशील जनों के पसीने पर दृष्टिपात अवश्य करते हैं, लेकिन मुक्ति-संग्राम के हेतु उन्हें संगठित होने के लिए
प्रेरित नहीं करते हैं। शुक्ल-काव्य में अमूर्तन और कलात्मक चमत्कार भी कम नहीं
हैं। आचार्य शुक्ल कविता में चमत्कारवाद का विरोध किया करते थे। यदि आचार्य शुक्ल
हमारे मध्य में होते तो वह विजेन्द्र-काव्य के पक्ष में खड़े होते। क्यों। इसलिए कि
विजेन्द्र काव्य की प्रधान भावना मानवीय करुणा है, जो लोक की रक्षा करती है। शुक्ल जी के प्रिय कवि तुलसी के
लोक-नायक राम की करुणायतन हैं। ‘खिन्न’ जन उन्हें परमप्रिय हैं। लोक-मंगल की स्थापना
के लिए वह प्रबल खलनायक का संहार करते हैं। उनका सात्त्विक क्रोध कालाग्नि के सदृश
हैं।
आज के कवि
विजेन्द्र अपनी उपर्युक्त परम्परा का अनुसरण समकालीन वर्गीय जीवन-दृष्टि से करते
हैं। सामाजिक गतिकी की आलोचना करके श्रमजीवी वर्गों के प्रतिनिधि साधारण
जनों-श्रमिकों-कृषकों को अपना काव्य-नायक मानकर उन्हें रूपायित करते हैं। वह मानते
हैं कि संस्कृति का सौन्दर्य श्रम पर निर्भर हैं। उन्हें यह धरती ‘कामधेनु’ से भी अधिक प्यारी लगती है। अतः वह कहते हैं-
‘‘जहाँ भी गया धरती ने बुलाया
बड़े
दुलार से
बीज
बोने को
रोपने
को धान
जब
हल ने उसके वक्ष को चीरा
वह
न कराही
न
चीखी, न चिल्लाई
अँधेरे
में फाड़ती रही अपने रोयें
$ $ $ $
देखा
तपते किसान का कठोर तँबई चेहरा
जल, हवा,
हिम, धूप, छायाएँ
जोतते
रहे वे घटित गोखरू क्षण
मेरे
चित्त के दोआबा को।’’ (पृ0 96)
यह है सच्चा और
निश्छल अनुराग अपनी धरती के प्रति कवि का।
विजेन्द्र की मान्यता है कि समुद्र की अथाह
गहराई और धरती के गर्भ में जो अपार सम्पदा विद्यमान है, उसकी खोज श्रमीजन ही करते हैं। लेकिन लोभी पूँजी उसका
विदोहन अपने स्वार्थ के लिए करती है। अतः वह आत्मविश्वास भरे सुर में कहते हैं-
‘‘अधिरचना में खोजता हूँ रजकण, रेखे, पुंसकेसर
में झाँकता भविष्य
सुन्दर
विश्व का स्वप्न
बिना
जनता के बल सम्भव कहाँ
समुद्र
की कोख में छिपी
अंतरंग
जलधाराएँ
फणिधर
लहरें पटकती सिर
आदिम
विशाल चट्टानों पर
$ $ $ $ सत्य की शक्ल क्या देखी तुमने
उसका
रंग जागते अफ्रीका जैसा
उसका
चेहरा
धमनपट्टी
के आगे खड़े श्रमी का
उस
की चमकी आँखें
उसे
ढका है झूठे पाखण्ड से।’’ (पृ0 97)
प्रबल जन-शक्ति के प्रति आस्थावान् विजेन्द्र
अपने जनपद- अपने देश, अपने प्राकृतिक
परिवेश के प्रति अनुरक्त रहते हुए शोषण से पीड़ित विश्व के अन्य देशों के प्रति
अपनी हार्दिक संवेदना व्यक्त करते हैं। उनकी उर्वर चित्त-भूमि अत्यंत्य व्यापक है।
अतः अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए वह कहते हैं-
‘‘जलता है मध्य पूर्व
लीबिया
का विक्षोभ
सिर
उठाता नव फासीवाद योरुप में
ओह
क्यों चुप हैं
जल-विज्ञानविद्
क्यों
नहीं रोक पाते
नदियों
का प्रदूषण
सूखते
जाते उनके स्रोत
क्यों
बनती जातीं
रक्तवाहिकाएँ
गन्दी नालियाँ।’’ (पृ0 98)
कहते की आवश्यकता नहीं है कि उपर्युक्त ज्वलंत
प्रश्न विजेन्द्र की कविता को समय-समाज और जीवन के बड़े सरोकारों से जोड़ते हैं।
उनकी चिन्ता स्वाभाविक है। मानवता के मंगल के लिए।
विजेन्द्र की यह सुदृढ़ मान्यता है कि अब 21वीं सदी मार्क्स की है। लोग वर्तमान दौर के
शोषक पूँजीवाद और साम्राज्यवाद से ऊब गए हैं। वे बदलाव चाहते हैं। इसलिए अब विरोध
में आवाज़ बुलन्द होने लनगी हैं। विरोध करने के लिए हाथ एक साथ उठने लगे हैं। भारत
में बुनियादी परिवर्तन के लिए मजदूरों और किसानों के मजबूत गठबंधन की परम आवश्यकता
है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि विजेन्द्र की कविता के केन्द्र में यही दोनों
उत्पादक वर्ग हैं। केदारनाथ अग्रवाल ने एक कविता में डंके की चोट पर यह घोषणा की
है कि यह धरती उस किसान की है, जो इसे जोतता है।
बीज बोता है। और फसल उगाता है। विजेन्द्र ने अपने इस अग्रज कवि की मान्यता
स्वीकारते हुए लिखा है-
‘‘ओ जलधर
किया
है तुझे किस ने नग्न भूमिहीन
बोलो, बोलो, बोलो
संगठित
जवान बोलो
कौन
छीनता है
तुम्हारा
आत्मीय भेस
कौन
हड़पता है
तुम्हारी
भूमि
पहचाना
उसे हिये आँख से भी
कौन
छीनता तुम से
तुम्हारी
मातृभाषा
जनपदों
की रससिक्त अनुगूँजें।’’ (पृ0 98)
उपर्युक्त काव्यांश में ओजपूर्ण प्रश्नात्मक
शैली के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लूट एवं अपसंस्कृति की प्रखर आलोचना
की गई है। विदेशी पूँजी ने स्वदेशी वस्तुओं और स्वदेशी भाषाओं को किनारे कर दिया
है। बड़े-बड़े कारखानों के निर्माण अथवा भवन-निर्माण के लिए किसानों की भूमि मिट्टी
के भाव खरीद कर सोने के भाव बेची जा रही है। भारत में भूमि अधिग्रहण का वही कानून
काम कर रहा है, जो ब्रिटिश
शासकों ने पारित किया था। अब प्रखर विरोध के बाद वह पुराना कानून समाप्त करने की
बात की जा रही है। देखना तो यह कि नया कानून कब और केसे लागू किया जाएगा। यहाँ यह
बात याद रखना अनिवार्य है कि जब तक सम्पूर्ण भारत में भूमि-वितरण न्याय संगत ढंग
से नहीं होगा, तब तक किसान
बदहाल रहेगा। याद कीजिए कि बिहार में भूमि-हीनों को कितनी बार भूस्वामियों की सेना
ने मौत के घाट उतारा है। समाज में समानता का प्रसार करने के लिए ‘सम्पत्ति’ पर नियंत्रण परम अनिवार्य है।
वर्तमान पूँजीवाद का विरोध उस अमरीका में भी हो
रहा है, जो सम्पूर्ण विश्व को ‘एक ध्रुवीय’ बनाना चाहता है। वहाँ के लोग भी अब बेहतर व्यवस्था की कामना
करने लगे हैं। मंदी के दौर ने वहाँ हजारों लोगों को बेरोजगार कर दिया। और अब तो
अमरीका और बड़े संकट से गुज़र रहा है।
विजेन्द्र शोषित
जनों से खिन्न होकर पूछते हैं-
‘‘क्यों, क्यों, क्यों
नहीं
बोल पाते खरी भाषा
अमरीका
की जनता प्रदर्शन करती है वालस्ट्रीट पर
क्यों
डरते हो सत्य बोलने से, बोलो
पथरीला
सन्नाटा टूटता है
बोलने
से।’’
कौन नहीं जानता है कि विश्व में शान्ति और
सौहार्द परम अनिवार्य है। यदि ऐसा नहीं है तो प्रत्येक वर्ष अक्टूबर महीने में ‘शान्ति’ के लिए नोवोल पुरस्कार की घोषणा क्यों की जाती है। ‘शान्ति’ को खतरा है ‘परमाणु युद्ध’
से। ऐसा युद्ध सम्पूर्ण विश्व विनष्ट कर देगा।
कौन है वह जो ‘युद्ध’ के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है। उत्तर है
आयुध-व्यापारी साम्राज्यवादी राष्ट्र, जिनमें अमरीका अग्रगण्य है। अपार धनराशि विनाशक अस्त्रों के निर्माण पर व्यय
की जाती है। यदि ‘एशिया’ संगठित हो जाए तो आयुध-व्यापार पर अंकुश लगा
सकता है। विश्व मानवता की सुरक्षा के लिए यह सामूहिक प्रयास अनिवार्य है। कवि
विजेन्द्र कविता के माध्यम से यही संदेश देना चाहते हैं-
‘‘विश्वविनाशक आयुधों का व्यापारी
थोपना
चाहता है युद्ध
शान्तिप्रिय
देशों पर
पहचानो
एशिया की शक्ति का तुमुल घोष
पहचानो
साम्राज्य के ऋण में छिपी
संज्ञामारक
कूटनीति
$ $ $ बढ़ते जाते हैं अमरीकी सामरिक
अड्डे हर जगह।’’ (पृ0 99, 100)
इतिहास साक्षी है कि भारत में जन्मे महात्मा
बुद्ध के शिष्यों ने दक्षिण एशिया में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया था। चीन
और जापान बौद्ध धर्म के प्रमुख अनुयायी हैं। भारत ने ही शान्ति-सन्देश विश्व के
कोने-कोने तक फैलाया है। मानवता का यह उज्ज्वल इतिहास पुनः दुहराया जा सकता है।
वास्तविकता तो यह है कि आदिमानव ने जांगलिकता से मांगलिकता की ओर प्रयाण किया है।
आर्थिक विषमता शक्तिशाली राष्ट्र को प्रेरित करती है कि वह अपने स्वार्थों के लिए
दुर्बल राष्ट्रों को गुलाम बनाए अथवा अपना उपनिवेश। इसी भाव-भूमि से सम्बन्धित एक
कविता गिरिजाकुमार माथुर ने भी लिखी है- ‘एशिया का जागण’। 24 मई, 1946 को रची गई इस लम्बी कविता में माथुर जी ने अपना आक्रोश इस
प्रकार अभिव्यक्त किया है-
‘‘मेरी छाती पर रखा हुआ
साम्राज्यवाद
का रक्त कलश
मेरी
छाती पर फैला है
मन्वन्तर
बनकर मृत्यु दिवस।’’
उस समय ब्रिटिश साम्राज्य का वर्चस्व छाया हुआ
था। कहा जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था। लेकिन
काल-चक्र ने उसका सूर्यास्त कर दिया। अतः माथुर जी ने कविता के अन्त में कहा है-
‘‘मुड़ गए समय के चपल चरण
आया
कृतान्त बन मुक्ति काल
मिट्टी का हर कन सुलग उठा
जल
उठी एशिया की मशाल।’’
(मुझे और अभी कहना है, पृ0 78)
जागरूक कवि
विजेन्द्र आज के सम्पूर्ण विश्व का परिदृश्य देखकर श्रमजीवियों को उद्बोधित करते
हैं-
‘‘अनुप्राणित हैं अरब देश
देख
कर
मिस्र
और ट्यूनिशिया के जनविद्रोह
जागो
कोलम्बिया, जागो
लैटिन
अमरीका का नया सूर्योंदय देखो।’’ (पृ0 101)
इस उद्धरण से स्पष्ट है कि विजेन्द्र की कविता
राजनीति-सापेक्ष है। हिन्दी के अन्य कवियों के समान राजनीति-निरपेक्ष नहीं है। वह
तटस्थ कवि नहीं हैं। हिन्दी के तथाकथित बड़े कवियों के समान। वह विदेशों के
जन-विद्रोहों का स्वागत करते हैं। और अपने जनपदीय श्रमजीवियों को, जो पत्थर तोड़ा करते हैं, निकट से देखकर उनके जीवन की व्यथा-कथा अंकित करते हैं-
‘‘अतीत का पका खनिज
मेरी
रिक्त निर्जनता कभरता रहा है
मैंने
देखे बंधबरौठा की
लाल
पत्थर खानों के खाली पेट
बुझी
आँखें
इन्होंने
पी ली हैं श्रमियों की सृजन शक्ति
ये
हर रोज़ माँगती हैं नया खून
नया
पसीना।’’ (पृ0 101,
102)
विजेन्द्र उस ‘पस्तहिम्मत कवि’ को समझाते हैं कि वह साम्राज्यवादियों के कुचक्र और षडयंत्र समझे। वह अपनी
कविता में श्रम-सौन्दर्य की सृष्टि करे। इतिहास हमें यही सिखाता है कि श्रम-बल से
सभ्यता और संस्कृति का क्रमशः विकास हुआ है। मानव ने सामूहिक रूप से सतत संघर्ष
किया है। वस्तुतः इतिहास वर्ग-संघर्ष की उज्ज्वल गाथा है, जो आज भी गूँज रही है।
सभ्यता संस्कृति के विकास-क्रम में मानवीय श्रम
की भूमिका अविस्मरणीय है। श्रम से ही भाषा का विकास हुआ है। यदि भाषा का प्रकाश
नहीं होता तो मनुष्यता अँधेरे में भटक रही होती। दक्षिण हस्त से काम करते-करते
मानव दक्ष हुआ है। उसने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नाना प्रकार के
उपकरणों-औजारों का आविष्कार किया है। और वह आज भी कर रहा है। श्रम को सर्वोपरि
मानने वाले विजेन्द्र ठीक कहते हैं-
‘‘करोड़ों धड़कनों से निर्मित हुए
हैं शब्द
खनकती
क्रियाओं के रजत सिक्के हैं।’’ (पृ0 104)
दूसरी पंक्ति में
प्रशंसनीय ध्वनि बिम्ब हैं, जो ‘खनकती’ क्रियापद से कर्णगोचर होता है।
यह महिमा है मानव के हाथों की, जो मस्तिष्क से प्रेरित होकर और उसे प्रेरित
करके नाना प्रकार के आविष्कार करते रहे हैं। धरती पर गंगा की धारा उतार लाए हैं।
खेत लहलहाएँ हैं। वनों को उपवन बनाया है तो हाथों ने। कलाओं का सम्पूर्ण सोन्दर्य
निपुण हाथों का ही तो कमाल है। मुझे कैफ़ी आज़मी की
कविता याद आ रही है, जिसमें हाथों की
महिमा समझाई गई है-
‘‘मूरख, इनमें
हैं भगवान मुझ पर, तुझ पर, सब
ही पर, इन दोनों हाथों का एहसान।’’
लेकिन सबसे अधिक दुखद सत्य यही है कि क्रूर
व्यवस्था ने ‘हाथों’ का महत्त्व इतना घटा दिया है कि उन्हें अपना
पूरा पारिश्रमिक मिल ही नहीं पाता है। ऐसे ‘हाथ’ रात-दिन पसीना
बहा कर भी अपने परिवार का पेट मुश्किल से भर पाते हैं। इसके विपरीत ‘प्रभु लोक’ धन-बल से सब कुछ अनायास प्राप्त कर लेता है। यह व्यवहार ‘सामाजिक सुषमा’ का हनन करता है। इसीलिए वर्गों का द्वन्द्वात्मक संघर्ष
इतिहास का परम सत्य है।
विजेन्द्र ने अपने काव्य में इसी वर्ग-संघर्ष
का रूपायन कर के उसे परिवर्तन के अनिवार्य बताया है। दूसरी ओर बुद्धि-विरोधी
तथाकथित कवि-लेखक और इतिहासकार इतिहास के अन्त की घोषणा कर चुके हैं। यह सब मिथ्या
प्रचार है। काल का प्रवाह कभी रुकता है ? वह अपने साथ सारा कचरा बहा कर ले जाता है। भविष्य के लिए नई उर्वरता अपने पीछे
छोड़ जाता है।
इस लम्बी कविता में विजेन्द्र काल-प्रवाह को
इसी रूप में देखते हैं। अतः वह वर्तमान से अतीत की ओर यात्रा करते हुए
श्रम-सौन्दर्य के प्रति आज के मानव की आस्था जगाते हैं। एशिया को ‘महाशक्ति’ के रूप में देखने के लिए वह कहते हैं-
‘‘जागते देश की उभरती जनशक्ति को
देखता
रहा हूँ
$ $ $ यहाँ से वहाँ तक फैली हैं
भावों
की आकाश गंगाएँ
एशिया
महाद्वीप का उदित होता
नव
जागरण का नया क्षितिज
खोजता
हूँ उन शिल्पियों को
जिन्होंने
बनाये पहली बार कुल्हाड़े
हथौड़े, निहाई, बसूले
बनाया
कड़ा नाथने को
काल
का अनड्वान
कहाँ
गए वे सब
दुखी
हैं उनके अनुज।’’ (पृ0 104)
विजेन्द्र का कथन सत्य है। आज भारतीय समाज का
कड़वा यथार्थ है कि अधिसंख्य श्रमजीवी रात-दिन भूख की ज्वाला में जल रहे हैं। तुलसी
ने ठीक लिखा है कि पेट की अग्नि बड़वाग्नि से अधिक प्रबल होती है। भारत में आज तक
यह आग शान्त नहीं की गई है। अब भोजन की गारंटी के लिए सरकार द्वारा अधिकार प्रदान
किया गया हे। भविष्य बताएगा कि यह अधिकार जनता को सस्ता अनाज कैसे पहुँचाएगा।
करोड़ों निरन्न जनों तक।
विजेन्द्र
श्रमजीवी जनों के कल्याण के बारे में पूछते हैं-
‘‘उजले-धुले गवाक्ष
स्वर्ण
जड़ित द्वार
इस्पात
ढाल कर
जो
रचते हैं समय का स्थापत्य
सुन्दर
भविष्य के कँगूरे
उनसे
पूछता हूँ कैसे बनता जा रहा सुरक्षा परिषद् संत्रास-घर
उनके
अग्रज कहाँ है
जिनकी
हड्डियों से चुने गये
भव्य
भवन।’’ (पृ0 105)
ऐसे श्रमजीवियों में अपार जिजीविषा होती है। वे
जीवन भर श्रम ही करते हैं। श्रम ही उनके जीवन का आधार होता है। ऐसे श्रम-निर्भर
श्रमजीवियों के प्रति विजेन्द्र की आस्था अडिग है। अपनी पूर्ववर्ती लम्बी कवितआों-
‘जन-शक्ति’ और ‘कठफूला बाँस’ में भी ऐसी ही
आस्था व्यक्त हुई है। हाँ, यह दूसरी खेदजनक
बात यह है कि हिन्दी के मूर्धन्य नामवर आलोचकों ने इन लम्बी कविताओं की उपेक्षा
अधिक की है। डा0 जीवन सिंह के
अलावा डा0 कमला प्रसाद, डा0 रेवती रमण एवं युवा कवि अच्युतानन्द मिश्र ने ‘जन-शक्ति’ की सार्थकता
बताने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। लेकिन ‘कठफूला बाँस’ आलोचकों की आँखों से ओझल रही है।
‘ओ एशिया’ कविता में भी विजेन्द्र ने श्रम-शक्ति की अदम्य
जिजीविषा का उल्लेख किया है-
‘‘ओह! वे समर से थक कर भी थके नहीं
उनकी
जिजीविषा- लपटें शान्त नहीं
यहाँ
आया उनके बीच
सुनने
उनकी कराहटें बे-आवाज़
जानने
लकड़ी और धातु के द्वन्द्वमय अन्तर को
देखो
इतिहास का फूटता नया
लाल
अंकुर
विजय
नहीं
अपराजेयता
का शिरोभूषण ही सच है
जो
पहने खड़े हैं वे आज तक
रचकर
श्रम से सौन्दर्य।’’ (पृ0 105)
‘सौन्दर्य’ क्या है? कैसा है? उसकी रचना कैसे होती है? अनेक प्रश्न
हैं। उनके उत्तर भी अनेक हैं। प्रकृति स्वयं सौन्दर्य रूपा है। प्रत्येक पौधे अथवा
पेड़ में अपना निजी संतुलन होता है। उसी में सौन्दर्य निहित रहता है। हरे-भरे खेत
दूर से कितने आकर्षक लगते हैं। लगभग एक बराबर लम्बाई की बालियाँ अपने सौन्दर्य से
किसका मन मुग्ध नहीं करती हैं। पतझर के बाद प्रकृति पुनः नवयौवना हो जाती है। मानव
भी सौन्दर्य की सृष्टि करता है। कलाओं के रूप में। प्रत्येक कला में संतुलन
अनिवार्य है। सोचिए विश्वविख्यात इमारत ‘ताजमहल’ के चारो कोनों पर
चार मीनारें नहीं बनाई जातीं, तो वह दर्शकों के
लिए आश्चर्यजनक कला का स्मारक महसूस होता ? शायद नहीं। उत्कृष्ट कविता का सौन्दर्य उसमें विन्यस्त
क्रियाशील बिम्बों में निहित होता है।
लोकधर्मी
सौन्दर्यशास्त्र के मर्मज्ञ विजेन्द्र श्रम से सौन्दर्य का अटूट सम्बन्ध जोड़कर
कहते हैं-
‘‘मुझे देखने दो
पहले-पहल
कुम्हार को
पकाते
कच्चे बर्तन अवाँ में
कितनी
सुन्दर है कलाकृति
रची
गई सधे हाथों से
ओ
कवि, यह भी जानो
पहले
मिट्टी भीगकर गारा बनी
अब
पानी सेंतने को चित्रोपम घड़ा
खून
चूसने वालों को
सुन्दर
कृति दिखाई देती है।
उसमें
रचा गया श्रम नहीं
कैसे
किया है काबू में
मिट्टी
और आँच को
यह
नहीं है कोई जादू टोना
मैंने
ही दी हैं नई-नई शक्लें श्रम से
हर
बार मिट्टी को
लोहे
को
मिश्र
धातुओं को
जाने
कितनी बार झुलसा है हाथ
भभकती
आँच में
किसी
ने जाना नहीं
भीगा
है अंग-अंग पानी में
तिरछी
मेह बौछारों में।’’ (पृ0 108)
यह अंश पढ़ कर आभास होता है कि विजेन्द्र के कवि
ने स्वयं को श्रमीजनों से एकात्म कर लिया है। उनका ‘मैं’ ‘हम’ में बदलता रहता है। निराला के समान। वह भी
निराला के समान ‘देखना’ क्रिया का प्रचुर प्रयोग करते हैं। इससे उनके
सजग इन्द्रिय-बोध का प्रमाण मिलता है। निरीक्षण-परीक्षण के उपरान्त अनुभव की राशि
समृद्ध होती है। बाहर की दुनिया का सम्बन्ध कवि के मानस से जुड़ता है। और ‘मानस’ की सीपों में अनुभव काव्य-मोतियों के रूप में परिवर्तित होते हैं। सम्पूर्ण
जगत् कवि के मानव-जगत् में विचरण करता है।
पहले संकेत किया जा चुका है कि इस कविता में
मानवीय सभ्यता और संस्कृति की प्रदीर्घ-कथा लयात्मक रूप में वर्णित की गई है। इस
कथा का प्रमुख नायक श्रमशील जन है, जिसने अपने
सामूहिक प्रयास से विश्व को अभिराम कृति का रूप प्रदान किया है। उसी ने अपनी
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ‘अग्निदेव’
का आविर्भाव किया, जिन्होंने दुनिया का रूप ही बदल दिया। उनके ताप से कच्चा
माल पक कर ठोस रूप में सामने आया। मानव ने उसका सदुपयोग किया। और यह भी सत्य है कि
मानव-इतिहास वर्ग-संघर्ष की गौरव गाथा है। इतिहास का पहिया हमेशा आगे की ओर बढ़ा
हे। बढ़ता रहेगा। अपने इस इतिहास-बोध को कविता की प्रभावपूर्ण भाषा में अभिव्यक्त
किया है-
‘‘पहली बार अवतरित हुआ
शब्द
कागज़ पर
यही
था मेरी यात्रा का पुनर्जागरण महाकाल
स्पात
को गला देख
हुई
है रीढ़ मजबूत
रसायन
चख इन्द्रियाँ सजग
हाँ, वही
पहला कुम्हार है
जो
बना था साक्षी
अग्नि
देव का।’’
और
‘‘अब चकमक की कुदाल कहाँ
इस्पात
की तेज धार देख
अन्न
पीसने की हथचक्की छोड़
बिजली
से घूमते बड़े-बड़े पाट देख
ओह, कहाँ
से कहाँ आ गया।’’
लेकिन
‘‘देखता हूँ आज भी
मछुवारे
जागते हैं रात-रात भर
समुद्री
मणिधर लहरों पर
आज
भी वे पीसती हैं चक्कियाँ गाँव में
लापता
होते हैं मछुवारे अंधड़ तूफान में
आदिवासियों
के वनों में आखेटक।’’ (पृ0 112)
मानव-इतिहास साक्षी है कि आदि मानव निरन्तर
विकास करते हुए आज की आश्चर्यजनक दुनिया तक पहुँचा है। अब जल-थल-नभ और अन्तरिक्ष
में मानव का विजय-केतु लहरा रहा है। लेकिन वैश्विक समाज में सुषमा नहीं हे। समानता
नहीं है। आज भी श्रमी जन अभावग्रस्त जीवन बिता रहे हैं। भाग्य और भगवान के सहारे।
लेकिन भगवान न तो देख रहा है और न ही सुन रहा है। धरती पर विनाश का ताण्डव हो रहा
है। कौन करेगा रक्षा। कोई दैवी शक्ति। नहीं। केवल जनशक्ति मानव को संकट-मुक्त कर
सकती है। यही सोचकर विजेन्द्र का श्रम का गुण-गान करते हुए लिखते हैं-
‘‘हाथ मेरी आँख भी है
आँखें
हाथ हैं
ओ
अन्न देवता
अब
मैं प्रार्थना कर
तुझे
धरती में दफनाता नहीं
ट्रैक्टर
की ली से
बोता
हूँ कूँड में
तू
किसी परलोक का देवता नहीं है
मेहनत
से कमाया श्रीफल है
भारतीय
किसान का लाड़ना शिशु
एशिया
का महाबली हाथ
पकती
फसल का सिरमौर
असंख्य
कर्मठ भुजाओं का
जन-शक्ति
ही लोक की आत्मा है।’’ (पृ0 112, 113)
हमारे मनीषियों ने अन्न को ब्रह्म माना है। उसी
से मानव का पोषण होता है। अन्न उत्पादक किसान यदि अभावों से ग्रस्त रहे तो क्या
देश को खुशहाल कहा जाएगा।
उपर्युक्त प्रश्नों का एक उत्तर है समतामूलक
समाज का गठन, जिसमें प्रत्येक
श्रम का समुचित पारिश्रमिक प्राप्त हो और जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति
सम्भव हो सके। पूँजीवादी व्यवस्था में न तो सभी को रोजगार प्राप्त हो सकता है। न
महँगाई कम हो सकती है। न भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकता है। सभी को स्वास्थ्य सेवाएँ
उपलब्ध नहीं हो सकती हैं। और न ही विद्युत का प्रकाश। अतः सुखद व्यवस्था के लिए
वर्तमान व्यवस्था का समापन अनिवार्य है। सम्पूर्ण सम्पत्ति का राष्ट्रीकरण परम
अनिवार्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति जन-शक्ति ही कर सकती है।
इस कविता के अन्तिम अंश में विजेन्द्र ने
सौन्दर्य से श्रम का रागात्मक सम्बन्ध कलात्मक ढंग से रूपायित किया है-
‘‘बनाये हैं मैंने अपने घर में
सूर्योन्मुख
नये द्वार
नई
खिड़कियाँ, गवाक्ष
नये
मेहराब, नये गुम्बद
इसी
तरह खड़ा हुआ है
नये
स्थापत्य का ढाँचा
वास्तुशिल्प
संरचना में
दमकता
है उँगलियों का सौन्दर्य।’’
और
‘‘नयापन, मुक्तिसंग्राम
लड़ने का
नये
मनुष्य के मान का।’’ (पृ0 114)
उपर्युक्त काव्यांश पढ़ कर राजस्थानी स्थापत्य
कला के रूप प्रत्यक्ष होने लगते हैं। और मुक्ति-संग्राम हेतु प्रक्रियाएँ भी।
विजेन्द्र ने पद-प्रतिष्ठा और पुरस्कारों के
लिए जोड़-तोड़ छोड़ कर काव्य-सर्जना को साधा है। बड़े प्रयत्न से। बड़े सरोकारों की
अभिव्यक्ति के लिए। उनकी कविता वैयक्तिक भी है और निर्वैयक्तिक भी। ‘दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।’ यह उक्ति विजेन्द्र के कवि रूप का वैशिष्ट्य
है। कविता रच कर व बड़े-से-बड़ा और गहरे-से-गहरा दर्द भुलाया करते हैं। इसीलिए वह
कहते हैं-
‘‘अग्नि-परीक्षा है हर क्षण कवि की
हर
साँस आहुति है जीवन-यज्ञ में
ओ
हठी समय
तू
भी हो ले क्रूर चाहे जितना
नहीं
छोडूँगा उम्मीद फिर भी
अच्छे
भविष्य की
एशिया
में उगते नये सूर्य की।’’
और
‘‘कहूँगा नहीं जीवन भार है
इसी
गाढ़े अँधेरे में
ओ
मेरे दर्द!
सुनने
दे अतल से उठी मर्माहत आहटें।’’ (पृ0 115)
अब समय आ गया है कि विगत वर्षों में और वर्तमान
काल में अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर व्यवस्था-विरोधी जन आन्दोलन हुए हैं
और हो रहे हैं, उन पर गम्भीरता
से सोच-विचार किया जाए। वैश्विक शान्ति और सद्भाव के लिए एशिया महाद्वीप सभी
राष्ट्र आपस में संवाद करें। स्वयं को एकजुट करें। अपने ही संसाधनों का ही प्रयोग
करके लोक-कल्याण के लिए विकास-कार्य विवेक से करें। पर्यावरण की सुरक्षा को
दृष्टिगत रखते हुए। यह सुनिश्चित है कि अब लोकतांत्रिक व्यवस्था ही रहेगी। लेकिन
उसका रूप अवश्य बदलेगा। लोकतंत्र को ‘धनतंत्र’ बनने से रोकना
होगा। दबंग और बाहुबलियों का सामाजिक बहिष्कार कराना ही पड़ेगा। सवाल खड़ा होता है
कि ये नियंत्रण कौर लगाएगा। जवाब है जनशक्ति। जनशक्ति को संगठित और जागरूक कैसे
किया जाएगा। किस भाषा में किया जाएगा। उत्तर है कि श्रमजीवी वर्गों के नेता अपने
सार्थक बल पर नेतृत्व करें और ढुलमुल चरित्र वाले मध्यम वर्ग के बुद्धिवादियों को
अपने नेतृत्व से जोड़ें। गाँधी जी के समान जन-गण-मन को जन-भाषा में संबोधित करें।
अँग्रेजी के प्रति अंध अनुराग को त्यागना होगा। भारत की वामपंथी पार्टियों की अपनी
भाषा-नीति पर पुनः विचार करना होगा।
हिन्दी भाषा और कविता के लिए समर्पित कवि
विजेन्द्र भी यही सोचते हैं। रंग-भेद के विरोधी नेल्सन मंडेला अपने नेतृत्व से
अश्वेतों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे। और विजेता भी हुए; गाँधी के समान महात्मा भी। विश्व-विख्यात नेता
के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। एशिया के नेता भी ऐसा कर सकते हैं। जन-गण को अपने
पक्ष में कर सकते हैं। आतंकवाद पर अंकुश लगा सकते हैं। अल्पसंख्यकों के अधिकारों,
महिलाओं के संरक्षण, दलित-शोषित जनों का जीवन-स्तर ऊँचा उठा सकते हैं। यही सब
सोचकर विजेन्द्र श्रमशील लोक से एकात्म होकर कहते हैं-
‘‘जाना होगा मुझे
कोत
गलियों गलियारों में
वहीं
मिलेगी मुझे नये पथ की
नव
आँख, नव जल, नव पाँख
नया
लोक, नई आँच।’’
अपनी बेचैनी भी
व्यक्त करते हैं-
‘‘ओ प्रजापति
मेरे
काव्य-मन
मुझे
बता कैसे सिरज पाऊँगा
मनुष्य
का अजेय संघर्ष
अदम्य
इच्छाएँ नये मानव की।’’ (पृ0 116, 117)
मुझे कृपया समझाइए कि आजकल के हिन्दी कवियों
में ऐसे और कवि कितने हैं जो ‘मनुष्य का अजेय
संघर्ष’ का अपना प्रयोजन बना रहे
हैं।
प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ में लिखा है कि ‘विजयिनी
मानवता हो जाए।’ गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ऐसे लोक की कल्पना की थी कि
जहाँ एक भी व्यक्ति भय से संत्रस्त न हो। मस्तिष्क भय रहित हो। विभेद तिरोहित
रहें। विजेन्द्र भी ऐसा ही सोचते हैं लेकिन वह यथार्थ और इतिहास-बोध से प्रेरित
होकर यह भी कहते हैं-
‘‘रोटी और समर का रिश्ता अटूट है
वही
रहेगा कविता के केन्द्र में।’’
अपने ढलने जीवन
की सूर्य-आभा निरख कर भी वह अपनी अदम्य सिसृक्षा के प्रति भी आस्थावान् हैं।’’
(पृ0 118)
‘ओ एशिया’ की काव्य-भाषा कथ्य के अनुरूप है। लोक-जीवन के निकट है।
अर्न्तवस्तु के अनुरूप रूपतामक और इन्द्रिय-बोध से संवलित नाना प्रकार के बिम्बों
से युक्त। तुलसी की भाषा के समान रूपकात्मक। सम्पूर्ण कविता निश्छंद में है। लेकिन
वाक्य-रचना में आन्तरिक लय आदि से अन्त है। मंथर गति से पाठ करते समय लय का आभास
होने लगता है। कथ्य के अनुरूप भाषा में उद्बोधन और सम्बोधन अनायास आए हैं। ओज से
संयुक्त हो कर। ‘ओ एशिया’ का स्थापत्य ‘कठफूला बाँस’ से बेहतर है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि यह लम्बी कविता विजेन्द्र की
प्रारम्भिक कृति है। कोई भी कृति निर्दोष नहीं होती है। वस्तुतः विजेन्द्र की
कविता तुलसी का अनुसरण करती है। अपने युग-बोध के अनुरूप। ‘भनिति भदेस वस्तु भल बरनी’ विजेन्द्र का काव्यादर्श है। लोक-मंगल उनकी काव्य-सृष्टि का
प्रमुख प्रयोजन है।
एक और वैशिष्ट्य भी उल्लेखनीय है। कविता में
जनपदीयता की प्रमुखता रचने वाले विजेन्द्र ने ‘ ओ एशिया ’ का प्रारम्भ इस
प्रकार किया है-
‘‘ओ एशिया महाद्वीप महान
तुझे
अपने जनपद की धरती से देखता हूँ
देखता
हूँ हर साँस
सुनता
हूँ धड़कने
हर
रोयाँ, जल की दमकती बूँद दूर्वा की नोक पै
आकाश
का टुकड़ा एक
ओ
हिन्द महासागर में होता सूर्यास्त
सूर्योदय
देखूँगा नया तेरी धरती से।’’ (पृ0 91)
यह काव्यांश विजेन्द्र के प्रकृति-अनुराग का
द्योतक है। वैदिक वाङ्मय में प्रार्थना की गई है कि हम सौ शरदों तक जीवित रहें।
सविता देव का तेज धारण करें। वह हमारे लिए वरेण्य है। उक्त अंश का अन्तिम वाक्य
विजेन्द्र के अभीष्ट भविष्य की ओर संकेत कर रहा है। प्रतिदिन सूर्योदय नया संदेश
और नई प्रेरणा लेकर आता है। विजेन्द्र को भी अपने अभिनव सूर्य-सन्देश की आशा और
विश्वास दोनो है।
इस कविता के मध्य भाग में वर्तमान काल की
सामाजिक गतिकी के निरूपण के साथ-साथ मानव के श्रम-सौन्दर्य का विकास कलात्मक ढंग
से वर्णित किया गया है। इतिहास-सम्मत दृष्टि से। सम्पूर्ण कविता में बाहरी जगत् के
साथ-साथ निजी संघर्ष एवं संकल्प की भी अभिव्यक्ति की गई है। और कविता का समापन
अपनी सतत काव्य-साधना, सिसृक्षा और
अदम्य जिजीविषा के आत्मीय निरूपण से सम्पन्न हुआ है-
‘‘वे मनुष्य मेरी लड़ती हुई जनता
यदि
खोऊ भरोसा उसमें
सबसे
बड़ी पराजय है कवि की
क्या
करूँगा उनके साथ का
जो
हैं निरे जड़-हीन
रीढ़
हीन
जो
सह नहीं पाते बलाघात जीवन के
ओ
ढले सूर्य की
पंख
छितराई साँझ
अभी
रूक
टहनियों
के अमलतास के छोरों पर
रूक
ठहर
जिजीविषा
का शतदल
मुरझाने
में अभी देर है।’’ (पृ0 118)
उद्धत अंश की रेखांकित पंक्तियों में उकेरे गए
चाक्षुष बिम्ब विजेन्द्र के चित्रकार कवि व्यक्तित्व को उजागर कर रहे हैं।
साथ-ही-साथ उनकी आश्वस्त सर्जना को भी। उद्धृत अंश पढ़ कर निराला याद आ रहे हैं-
‘‘मैं अकेला
देखता
हूँ
आ
रही मेरे दिवस की सांध्य वेला।’’
ध्यान देने की
जरूरत है कि निराला के गीत में नैराश्य की अधिकता है, लेकिन विजेन्द्र के यहाँ इसका अभाव है। यह विजेन्द्र की
निजता है।
संक्षेप में बेहिचक घोषित किया जा सकता है कि
लोकधर्मी वरिष्ठ कवि विजेन्द्र यह कविता अद्वितीय कृति, जिसमें स्थानीय वैशिष्ट्य के साथ-साथ वर्तमान काल की
स्वदेशी-विदेशी प्रतिरोधमूलक घटनाओं के अनेक प्रसंग विकासशील इतिहास-दृष्टि से
वर्णित किए गए हैं। मांगलिक भविष्णु विकल्प की प्रस्तुति सहित। ‘ओ एशिया’ विजेन्द्र की सर्जना का ऐसा शतदल कमल है, जो श्रम-सुगन्ध से सुवासित है। यह ऐसी कृति है
जो सहृदय पाठक को राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय सरोकारों से अनायास जोड़ती है। यह इस
कृति की बहुत बड़ी उपलब्धि है।
यह कविता पढ़ते हुए एक कविता बार-बार याद आती
रही है। ‘अम्न का राग’। कवि शमशेर की श्रेष्ठ कृति। छह पृष्ठों वाली
महान कृति में शमशेर ने अपनी व्यापक जीवन-दृष्टि से सम्पूर्ण विश्व में अम्न का
राग प्रतिध्वनित कर दिया है। अपनी जादुई कल्पना से एशिया, यूरोप, अमरीका को महान्
कवियों और कलाकारों के सांस्कृतिक सम्बन्धों से विश्व को एकता के सूत्र में बाँध
दिया है। वैश्विक शान्ति की सुरक्षा के लिए मैं शमशेर की इस कृति को उनकी
सर्वश्रेष्ठ रचना मानता हूँ, जिसमें कोई उलझाव
नहीं है। कवि ने अपनी उदात्त और अभिनव भाषिक संरचना से गद्यात्मकता को उच्च काव्य
के स्तर पर प्रतिष्ठित कर दिया है। लेकिन इस कविता की सबसे बड़ी सीमा यह है कि
इसमें साम्राज्यवादी विरोधी सुर कहीं भी मुखरित नहीं हुआ है। साम्राज्यवादी
वर्चस्व के मध्य विश्व-शान्ति कैसे सम्भव हो सकती है। इस कमी को विजेन्द्र ने ‘ओ एशिया’ में पूरा किया है। अमरीकी साम्राज्यवाद की आलोचना करके।
संघर्षशील जनों के प्रतिरोध का उल्लेख करके। सन् 1945 में रचित ‘अम्न का राग’
की विश्वव्यापी अनुगूँज ‘ओ एशिया’ (2012) के तुमुल घोष से मिलकर अधिक प्रभावपूर्ण प्रतीत होती है।
‘ओ एशिया’ ऐसी कृति भी है, जो ‘अम्न का राग’
से चार कदम आगे है।
सम्पर्क -
चूना मण्डी, बदायूँ
मो0
नं0- 8533968269
विजेन्द्र जी की लम्बी कविताओं पर यह लेख बहुत महत्वपूर्ण है। विजेन्द्र और उनकी कविता का संसार लोक से जुड़ा है। विजेंद्र विरल रचनाकार हैं उनका पूरा जीवन कविता के लिए समर्पित रहा है।" ओ एशिया " सम्राज्यवाद के विरोध का स्वर बुलंद करती है।
जवाब देंहटाएंशाहनाज़ इमरानी