आत्मा रंजन के कविता संग्रह ‘पगडंडियां गवाह हैं’ पर अमीर चन्द्र वैश्य की समीक्षा
आत्मा रंजन का
पहला ही कविता संग्रह ‘पगडंडियां गवाह हैं’ अपनी विविधवर्णी कविताओं की वजह से सशक्त एवं
महत्वपूर्ण बन पड़ा है। जनपदीय सुगन्ध के साथ-साथ इन कविताओं में उन लोगों के श्रम का
ताप भी स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है जिनके बिना इस दुनिया की कल्पना ही नहीं की
जा सकती। वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य ने आत्मा रंजन के इस महत्वपूर्ण संग्रह पर
एक विस्तृत आलेख पहली बार के लिए लिख भेजा है। तो आईए पढ़ते हैं यह आलेख ‘कविताएं
पगडंडियों पर।’
कविताएं
पगडंडियों पर
अमीर चंद वैश्य
सानेट-स्रष्टा
कवि त्रिलोचन युवा कवियों से संवाद करते हुए समझाया करते थे कि यदि आप कवि के रूप
में अपनी अलग पहचान बनाना चाहते हैं तो अपनी जन्म भूमि और जनपद के लोक जीवन और
परिवेश का वर्णन चित्रण कीजिए। अनपढ़ लोगों से बोलचाल की भाषा सीखिए और उन स्थानीय
शब्दों का समुचित प्रयोग अपनी काव्य भाषा में कीजिए। त्रिलोचन का काव्य इस
वैशिष्ट्य से युक्त है। उन्होंने अपनी काव्य भाषा को अवधी के अनेकों शब्दों से
समृद्ध किया है। उनका ‘अमोला’ तो अवधी में ही रचा गया है। परम्परागत छंद बरवै का प्रयोग
उन्होंने सबसे अधिक किया है। तुलसी और रहीम के बाद। बरवै छंद में उन्होंने अपने
जनपदीय जन जीवन को अनेक रूपों में प्रत्यक्ष किया है।
समकालीन हिंदी
कविता संसार के जो कवि सर्जना में संलग्न हैं, उनमें अनेक कवि अपने स्थानीय जन जीवन को कविता में रूपायित
कर रहे हैं। वरिष्ठ कवियों में विजेंद्र का नाम अग्रगण्य है, जिनके काव्य में बदायूं जनपद के गांव धरमपुर का
संपूर्ण परिवेश पात्रों के चरित्र के रूप में भी व्यक्त है। राजस्थान का भरतपुर तो
उनके काव्य में सर्वाधिक व्यक्त हुआ है। उसका प्रमाण उनकी चरित्र प्रधान लंबी
कविताएं है। ब्रज जनपद और मरू भूमि की बोलचाल की भाषा के अनेकों शब्दों ने उनकी
काव्य भाषा को अभिनव भंगिमा प्रदान की है।
और समकालीन
कवियों में सुरेश सेन निशांत, केशव तिवारी, महेश पुनेठा, आत्मा रंजन,
रेखा चमोली आदि ने भी अपनी-अपनी कविताओं में
जनपदीय जनजीवन की सक्रियता का निरूपण किया है।
सुरेश सेन निशांत
और आत्मा रंजन हिमाचल प्रदेश के युवा कवि हैं। दोनों ने सहर्ष स्थानीयता का वरण
सर्वप्रथम किया है। आत्मा रंजन का काव्य संकलन ‘पगडंडियां गवाह हैं’ मेरे सामने
है। इस संकलन की सभी कविताएं निश्छंद में हैं। लेकिन लयात्मक हैं। कवि ने
छोटे-छोटे वाक्यों की रचना कर अपने अनुभवों की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति की है।
संग्रह की अंतिम कविता तुम्हारे खिलाफ मित्र रजनीश शर्मा के लिए संबोधित है –
तुम्हारे खिलाफ
सुन नहीं सकता
मैं
एक भी शब्द
सोच भी नहीं सकता
सिर्फ बोल सकता
हूं
जी भर कर
तुम्हारे सामने
तुम्हारे खिलाफ। (पृ.
104)
इस कविता में
प्रयुक्त वाक्यांश सुन नहीं सकता मैं और सिर्फ बोल सकता हूं आत्मा रंजन का प्रगाढ़
मैत्री भाव व्यक्त कर रहे हैं। अन्य व्यक्ति द्वारा की गई अपने मित्र की कटु
आलोचना तो कवि को अत्यंत अप्रिय है। लेकिन वह स्वयं अपने मित्र रजनीश शर्मा के
खिलाफ बोलने का साहस रखते हैं। मित्र की भलाई के लिए। उपर्युक्त दोनों वाक्याशों
में क्रिया पदों का प्रयोग प्रारंभ में करके उन्हें अभीष्ट प्रभाव से अन्वित किया
गया है। यह कविता कवि की निपुणता का अच्छा सबूत है।
एक और छोटी कविता
पढ़िए। ध्यानपूर्वक। कविता का शीर्षक है रास्ते। यह कविता स्थानीयता की ओर संकेत कर
रही है-
डिगे भी हैं
लड़खड़ाए भी
चोटें भी खाईं
कितनी ही
पगडंडियां गवाह
हैं
कुदालियों,
गैंतियों
खुदाई मशीन ने
नहीं
कदमों ने ही बनाए
हैं
रास्ते। (पृ. 36)
इस कविता के
रास्ते मैदानी नहीं अपितु पहाड़ी हैं रास्तों के निर्माण में नाना प्रकार के
उपकरणों और मशीनों का प्रयोग किया जाता है। पहाड़ी रास्तों अथवा सड़कों के निर्माण
में उन श्रमिकों का योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, जो पगडंडियों पर आया-जाया करते हैं। अपने-अपने निवास स्थान
से। कविता में प्रारम्भिक तीन वाक्य क्रियापदों से युक्त हैं। पगडंडी पर बार-बार
चल कर निर्माण स्थल तक पहुंचने में कितना पसीना बहाना पड़ता है, इसका अनुमान अनायास लगाया जा सकता है।
उपर्युक्त कविता में कवि ने श्रम का महत्व व्यक्त किया है। समकालीन कविता में
क्रियाशीलता के वर्णन को वरीयता प्रदान की जा रही है। इसके लिए कर्म सौंदर्य का
निरूपण अनिवार्य है। अब तक जो प्रगति हुई है उसे मानवीय श्रम ने पूर्ण किया है।
मशीनों को चलाने के लिए किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता अनिवार्य है। मशीन सोच विचार
नहीं कर सकती है। लेकिन क्रियाशील श्रमी का मन सोच-विचार कर सकता है।
श्रम का और महत्व
अभिव्यक्त करने के लिए आत्मा रंजन ने अनेक प्रभावपूर्ण कविताएं लिखी हैं। जनपदीय
वैशिष्टय के साथ। संकलन की पहली कविता कंकड छांटती में घरेलू महिला के श्रम पर
ध्यान केंद्रित किया गया है-
अति व्यस्त दिन
की
सारी भागमभाग को
धता बताती
दाल छांटने बैठी
है वह
काम से लौटने में
विलंब के बावजूद
तमाम व्यस्तताओं
को खूंटी पर टांग दिया है उसने। (पृ. 09)
लेकिन पुरूष को
यह कार्य अनावश्यक लगता है और जब वह घर में अनुपस्थित रहती है तो-
उसकी अनुपस्थिति
दर्ज होती है फिर
दानों के
बीचोंबीच
स्वाद की
अपूर्णता में खटकती
उसकी अनुपस्थिति
भूख की राहत के
बीच
दांतों तले चुभती
कंकड़ की रड़क के
साथ....
एक स्त्री का हाथ
है यह
जीवन के समूचे
स्वाद में से
कंकड़ बीनता हुआ।
(पृ. 10)
कविता की अंतिम
पंक्तियों में स्त्री का हाथ अनिवार्य सहयोग के रूप बदल जाता है, जो जीवन के
संपूर्ण स्वाद के लिए कंकड़ छांटती रहती है। यहां कंकड़ पद प्रतीक में
रूपांतरित होकर जीवन के कष्टों की ओर संकेत कर रहा है। मनुष्य मात्र के जीवन में
औरत के प्रेम की आंच से क्या असर पड़ता है, उसे आत्मा रंजन ने औरत की आंच, कविता में निपुणता
से वर्णित किया है और बताया है –
जरूरी है आग
और उससे भी जरूरी
है आंच
नासमझ हैं,
समझ नहीं रहे वे
आग और आंच का
फर्क
आग और आंच का
उपयोग
पूजने से जड़ हो
जाएगी
कैद होने पर तोड़
देगी दम
मनोरंजन मात्र
नहीं हो सकती
आग या आंच
खतरनाक है उनकी
नासमझी। (पृ. 14)
आशय यह है कि औरत
के प्यार की आंच जीवन के लिए अनिवार्य है। उसे पूजना अथवा कैद करना उसकी
क्रियाशीलता को समाप्त करना है। कवि ने इस कविता के माध्यम से नारी की स्वतंत्रता
का समर्थन किया है। ऐसी स्वतंत्रता स्वच्छंदता नहीं है, अपितु कर्मठ आत्मीयता है। उसे नियमों की जंजीर से बांधना
नासमझी है।
लेकिन ऐसा सदैव
होता नहीं है। लड़की के व्यक्तित्व में किसी भी प्रकार की कभी मनोग्रंथि का कारण बन
जाती है। हंसी वह कविता में कवि ने यही वास्तविकता व्यक्त की है। जी खोल कर हंसने
वाली वह लड़की अचानक सहम जाती है। क्यों।
इसलिए कि ऐसे हंसना
नहीं चाहिए था उसे
वह एक लड़की है
उसके उपर के दांत
बेढ़ब हैं
कुछ बाहर को
निकले हुए। (पृ. 16)
लड़की का अचानक यह
सोचना कि वह एक लड़की है, समाज की दुष्ट
प्रवृति की ओर संकेत कर रहा है, जो लड़की के किसी
भी दोष को कुदृष्टि से देखती है। कवि ने कलात्मक ढंग से पुरूष वर्चस्व की आलोचना
की है। श्रमशील जनों की यह विशेषता है कि अपनी पृथ्वी के प्रति उनका स्वाभाविक
अनुराग होता है। वैदिक साहित्य में कहा गया है कि माता मेरी भूमि है और मैं पृथ्वी
का पुत्र हूं। आत्मा रंजन ने पृथ्वी पर लेटना कविता में ठीक कहा है कि पृथ्वी पर लेटना/पृथ्वी
को भेंटना भी है। ऐसी क्रियाशीलता केवल श्रमिकों और कृषकों में लक्षित होती है।
अभिजात वर्ग में कभी नहीं दिखाई पड़ती है। हां, मृत्यु के बाद वो सभी माटी में विलीन हो जाते हैं, परंतु जीते हुए वे ही पृथ्वी पर लेटा करते हैं,
जो धरती पर श्रम करते हैं।
कवि ने पृथ्वी के
प्रति श्रमिकों का ऐसा ही अनुराग व्यक्त किया है –
पूरी मौज में
डूबना हो
तो पृथ्वी का ही
कोई हिस्सा
बना लेना तकिया
जैसे पत्थर
मुंदी आंखों पर
और माथे पर
तीखी धूप के
खिलाफ
धर लेना बांहें
समेट लेना सारी
चेतना
सिकुड़ी टांग के
त्रिभुज पर
ठाठ से टिकी
दूसरी टांग
आदिम अनाम लय में
हिलता
धूल धूसरित पैर
नहीं समझ सकता
कोई योगाचार्य
राहत सुकुन के इस
आसन को। (पृ. 13, 20)
यह विश्राम की वह
अवस्था है, जो कठिन परिश्रम के बाद
अनिवार्य है। कवि की वर्णनात्मकता सहज बिंबों से स्वतः अन्वित हो गई है। उपर्युक्त
कवितांश पढ़कर दुष्यंत कुमार का शेर याद आ रहा है-
कहीं पै धूप की
चादर बिछा के लेट गए,
कहीं पै शाम
सिरहाने लगा के लेट गए।।
रंजन की यह कविता
चार भागों में विभक्त है। अतः अन्य कविताओं की तुलना में कुछ लंबी है। कविता के
तीसरे भाग में कवि ने मुहावरेदार भाषा में अपनी कथन-भंगिमा को आलोचना के सुर से
जोड़ दिया है-
मिट्टी में
मिलाने
धूल चटाने जैसी
उक्तियां
विजेताओं के दम्भ
से निकली
पृथ्वी की
अवमानना है
इसी दम्भ ने रची
है दरअसल
यह व्याख्या और
व्यवस्था
जीत और हार की।
(पृ. 21)
यहां कवि ने
इतिहास की परिघटनाओं पर आलोचनात्मक टिप्पणी की है। साथ ही साथ आज की साम्राज्यवादी
कूटनीति पर भी। कवि ने स्पष्ट शब्दों में यह अभिमत व्यक्त किया है-
कौन हो सकता है
मिट्टी का विजेता
रौंदने वाला तो
बिलकुल नहीं
जीतने के लिए
गर्भ में उतरना
पड़ता है पृथ्वी के
गैंती की नोक,
हल की फाल
या जल की बूंद की
मानिंद
छेड़ना पड़ता है
पृथ्वी की रगों
में जीवन-राग
कि यहां जीतना और
जोतना पर्यायवाची हैं
कि जीतने की शर्त
रौंदना नहीं
रोपना है
अनन्त-अनन्त संभावनाओं
की
अनन्य उर्वरता
बनाए और बचाए
रखना। (पृ. 21, 22)
वस्तुतः यह धरती
या पृथ्वी कामधेनु है, जिसे आत्मीय भाव
से दुह कर मानव अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति करता है और करता रहेगा। लेकिन क्रूर पूँजी
ने अपना पेट अधिक से अधिक भरने के लिए इसका दोहन बेरहमी से किया है। इसका
दुष्परिणाम यह हुआ है कि प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है। प्राकृतिक आपदाएं अचानक
आती हैं और सर्व विनाश करके चली जाती है। पृथ्वी रूपी कामधेनु का विवेकपूर्ण दोहन
पूंजीवादी व्यवस्था में असंभव है। समाजवादी व्यवस्था ही धरती की कामधेनु की रक्षा
कर सकती है।
स्थापत्य कला के
सौंदर्य संवर्धन में निपुण हाथों का योगदान अविस्मरणीय है। प्रख्यात शायर कैफी
आजमी ने मानव को संबोधित करते हुए कहा है –
अपने हाथों को
पहचान
क्योंकि मूरख,
इनमें हैं भगवान
मुझ पर, तुझ पर, सब ही पर
इन दोनों हाथों
का एहसान
अपने हाथों को
पहचान
छेनी और हथौड़ी का
खेल अगर ये दिखलाएं
उभरे चेहरे पत्थर
में, देवी-देवता मुस्काएं
चमकें-दमकें
ताजमहल।
आत्मा रंजन ने
हाथों का महत्व समझकर पत्थर चिनाई करने वाले, शीर्षक प्रभावपूर्ण कविता रची है जो हिमाचल प्रदेश के
स्थानीय वैशिष्ट्य से समन्वित है। पहाड़ी क्षेत्र में इमारतों और सड़कों के निर्माण
में पत्थरों का ही प्रयोग किया जाता है। पत्थर काटने-छांटने में प्रवीण हाथ ही यह
निर्माण कार्य पूरा करते हैं। कवि ने ऐसे शिल्पियों को निकट से का वर्णन
बिम्बात्मक भाषा में किया है –
मिट्टी से सने
हैं पत्थर
मिट्टी से सने
हैं उसके हाथ
और बीड़ी और जर्दे
की गंध से सने
और पसीने की गंध
से सने
और पृथ्वी पर
फूलते-फलते
जीवन की गंध से
सने हैं उसके हाथ
जड़ता में सराबोर
भरता जीवन की गंध
पत्थर चिनाई कर
रहा है वह। (पृ. 26)
जीवन जल के समान
हमेशा गतिशील रहता है। शिल्पी द्वारा निर्मित भवन में जीवन ही निवास करता है। वह
आवाजाही के लिए मजबूत डंगा का भी निर्माण करता है। डंगा एक स्थानीय शब्द है,
जिसका आशय रास्ते के निर्माण से है। यह कठिन
कार्य है। इसे दक्ष श्रमिक ही पूरा कर सकते है। क्योंकि उन्हें तीखी ढलान
की/जानलेवा साजिशों के खिलाफ, अपना काम पूरा
करना होता है। इस प्रकार निर्मित मजबूत डंगा, सभ्यता-विकास के लिए सुगम मार्ग बना रहता है।
रंग पुताई करने
वाले, कविता भी इन पेंटरों के
श्रम का सौंदर्य प्रत्यक्ष करती है। कवि ने ऐसे निपुण पेंटरों का आत्मीय वर्णन
किया है। उनके रहन सहन का। उनकी निपुणता का, उनके हस्त लाघव का, उनके सावधान हाथों का,
कितना है सधा
उनका हाथ
दो रंगों को
मिलाती लतर
मजाल है जरा भी
भटके सूत से
कैसे भी छिंट जाए
उनका जिस्म
उनके कपड़े
सुथरी दीवार पर
मगर
कहीं नहीं पड़ता
छींटा। (पृ. 30, 31)
और आगे उनके
प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए कहता है-
कहां समझ सकता है
कोई
खाया-अघाया कला
समीक्षक
उनके रंगों का
मर्म
कि छत की कठिन
उल्टान में
शामिल है उनकी
पिराती पीठ का रंग
कि दुर्गम
उंचाइयों के कोनों-कगोरों में
पुते हुए हैं
उनकी छिपकली या
बंदर मुद्राओं के
जोखिम भरे रंग
देखना चाहो तो
देख सकते हो
चटकीले रंगों में
फूटती ये चमक
एशियन पेंट के
किसी महंगे फार्मूले की नहीं
इनके माथे के
पसीने पर पड़ती
दोपहर की धूप की
है। (पृ. 31)
ऐसे पेंटरों का
हुनर महंगी कला दीर्घाओं की चार दीवारी तक सीमित नहीं है। उसने तो सभी की
दृश्यावलियों को खूबसूरत बनाया है अपने रंगों से। यह कविता इस वैशिष्ट्य का प्रमाण
है कि आत्मा रंजन की स्वाभाविक संवेदना श्रमशील वर्ग के प्रति है। उपर्युक्त अंश
के अंतिम वाक्य में कवि ने सहज भाव से आकर्षक बिम्ब सृष्टि की है। श्रम करते हुए
माथे पर पसीना झलकना स्वाभाविक है। और उस पसीने पर दोपहर की धूप का पड़ना उसे और
अधिक आकर्षक बना रहा है।
श्रमशील वर्ग के
इस तरह के पात्रों पर आधारित कविताएं अवश्य लिखी जानी चाहिए। बल्कि श्रमशील वर्ग
के प्रतिनिधि सामान्य व्यक्ति को केंद्र में उपस्थित करके उसे विशेष व्यक्तित्व
प्रदान किया जा सकता है; उसे स्वयं बोलने
का अवसर प्रदान कर कवि सूत्रधार की भूमिका में रहे तो नाटकीयता का समावेश संभव हो
पाएगा। इस तरह द्वंद्वात्मक रूप से चरित्र का विकास भी प्रत्यक्ष होगा और सामाजिक
विषमता के चरित्र की अभव्यक्ति थी; समकालीन कविता की
यह एक खास प्रवृति है जिसका संवर्धन युवा कवि ही कर सकते हैं। हिंदी भाषी राज्यों
में ऐसे संघर्षशील व्यक्तियों का अभाव नहीं है। ध्यान रखना चाहिए कि अब प्रबंध काव्यों
की रचनाधारा क्षीण हो गई है। अतएव इसे समृद्ध बनाने के लिए चरित्र प्रधान लंबी
कविताओं की अनिवार्य आवश्यकता है। ऐसी कविताएं सामयिक परिघटनाओं का आलोचनात्मक रूप
प्रस्तुत करके भविष्य के लिए समतामूलक विकल्प भी प्रस्तावित कर सकती है।
सोवियत संघ के
विघटन के बाद वर्तमान विश्व एक ध्रुवीय हो गया है। साम्राज्यवादी पूंजीवाद का
ध्वजवाहक शक्तिमान अमरीका सर्वत्र अपना प्रमुत्व स्थापित कर रहा है। संचार क्रांति
ने संपूर्ण विश्व को ग्राम में बदल दिया है, लेकिन भारत जैसे देश के गांव उपेक्षित होते जा रहे है।
उदारीकरण और निजीकरण ने मालदारों को करोड़पति से अरबपति बना दिया है, लेकिन कृषि-कर्म पर निर्भर गांव अभाव ग्रस्त
होते जा रहे हैं। विदेशी पूंजी और उसके साथ-साथ आने वाली विदेशी भाषा अंग्रेजी एवं
उसकी अपसंस्कृति का दुष्प्रभाव इतना अधिक प्रसारित कर दिया है कि भारत का लगभग
प्रत्येक गांव उसके चक्र में फंस गया है। वह अपनी अच्छी परंपराओं का पालन भी
धीरे-धीरे भूल रहा है। आत्मारंजन ने एक लोक वृक्ष के बारे में शीर्षक कविता में
अपना क्षोभ व्यक्त किया है। यह पहाड़ी पेड़ है, जो बावड़ियों अथवा सार्वजनिक जल स्रोतों के आसपास अधिक पाया
जाता है। यह पेड़ मदनू अथवा मजनू कहा जाता है। लोक गायकी में इसका जिक्र भी होता
है। लेकिन अब आधुनिक परिदृश्य से यह अदृश्य होता जा रहा है। अपने नाम से यह वृक्ष
प्रेम भाव की व्यंजना भी करता है। कवि ने इसकी ओर संकेत भी किया है। कवि को इस बात
पर गहरा खेद है कि हिमाचल प्रदेश में आने वाले पर्यटक अब लोक गीतों में इस पेड़ का
नाम तक नहीं सुन पाते है। यह है आयातित अपसंस्कृति का दुष्प्रभाव। लेकिन अपनी लोक
परंपरा से अभिज्ञ कवि आश्वस्त हैं कि जिसका जिक्र इतिहास में नहीं होता है वह भी
समाज के लिए अच्छा हो सकता है। इसीलिए इस लोक वृक्ष को संबोधित करते हुए वह उसके
प्रति आत्मीयता व्यक्त करते हैं-
उपेक्षित
बावड़ियों के
वीरान किनारों पर
बिलकुल वैसे ही
खड़े हो
तुम आज भी
इस बात की गवाही
देते
कि जो पूजा नहीं
जाता
नहीं होता इतिहास
के गौरवमय पन्नों में दर्ज
वह भी अच्छा हो सकता
है। (पृ. 39)
सामूहिक श्रम से
समवेत गीत-संगीत का सहज संबंध हैं। स्थानीय बोलियों में ऐसे अनेक गीत प्रचलित हैं।
कवि की टिप्पणी के अनुसार हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में कृषि के कार्य मिलजुल कर
किए जाते रहे हैं। ऐसी प्रथा का नाम बुआरा प्रथा है, जिसमें सामूहिक गुड़ाई लोक वादयों के सुरताल की संगत के साथ
संपन्न होती है। यह गायन-शैली जुल्फिया नाम से जानी जाती है। और सामूहिक गुड़ाई के
अवसर पर इसे गाया जाता है। लेकिन मदनू लोक वृक्ष के समान लोग इसे भी भूलते जा रहे
हैं। यह भी उतर आधुनिकता का ही अभिशाप है। बोलो जुल्फिया रे कविता में कवि बुआरा
प्रथा और बोलो जुल्फिया रे का सोल्लास वर्णन करते हैं। अनेक क्रियापदों के
प्रयोगों से सामूहिक उल्लास और समवेत गायन
का प्रभाव अनेक बिम्बों के रूप में प्रत्यक्ष कर देते हैं। लेकिन समय के
दुष्प्रभाव की अभिव्यक्ति क्षोम और वेदना की भाषा में व्यक्त करते हैं-
कहीं नहीं सुनाई
देती
जुल्फिए की
हूकती-गूंजती टेर
खेतों में
अपने-अपने जूझ रहे सब खामोश पड़ोसी को नीचा दिखाते
खींचतान में लीन
जीवन की आपाधापी
में
जाने कहां खो गया
संगीत के उत्सव
का संगीत
कैसे ओर किसने
किया
श्रम के गौरव को
अपदस्थ
क्यों और कैसे
हुए पराजित तुम खामोश अपराजेय श्रम की
ओ सरल सुरीली तान
कुछ तो बोलो
जुल्फिया रे। (पृ. 42, 43)
आत्मा रंजन की
प्रश्नात्मक शैली उनकी स्वाभाविक, संवेदनशीलता
व्यक्त करती है। क्यों, कहां, और, कैसे, प्रश्नात्मक पद पाठक को
सोच-विचार के लिए प्रेरित करते है। पूँजीवादी लाभ लोभ की दुष्ट कुनीति ने व्यक्ति
को समूह से दूर कर दिया है। साथ-साथ चले और साथ-साथ बोलें का विचार आचार से विलग
हो गया है। यह कविता जीवन धारा को द्वंद्वात्मक रूप में चित्रित करती है। लोक-जीवन
के श्वेत श्याम दोनों पक्ष यहां उपस्थित है। कवि की सहज आत्मीयता जीवन के श्वेत
पक्ष के प्रति है। सामूहिक प्रयास से असंभव भी संभव हो जाता है। यही कारण है कि
लोकधर्मी कविता का प्रगाढ़ संबंध सक्रिय सामूहिक श्रम से अनायास जुड़ जाता है।
एक बात और। आजकल
बढ़ते हुए उपभोक्तावाद, अंग्रेजी-अनुराग,
कैरियर-केन्द्रित शिक्षा, विदेश जोने की ललक ने मध्यम वर्ग को अपनी जड़ों
से काट दिया है। और निरंतर बढ़ते हुए भ्रष्टाचार एवं वैभव प्रदर्शन ने सादगी को
अलविदा कहा दिया है। छल-प्रपंच, मिथ्या प्रचार,
लालच ने ईमानदारी को दबा दिया है। संभवतः ऐसा
आभास होने लगा है कि हम अपनी उदात मूल्यों वाली संस्कृति विस्मृत करते जा रहे हैं।
यदि हिमाचल प्रदेश का पहाड़ी संगीत धीरे-धीरे कम हो रहा है तो इसका प्रमुख कारण आज
की सामाजिक गति ही है। ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक प्रदेश की अपनी स्थानीय कला
और संगीत वहां की पहचान होते हैं। इन कलाओं के रक्षक श्रमशील जन ही होते है। हिंदी
कविता इनसे अपना संबंध जोड़कर महत्वपूर्ण काम कर रही है।
लोक में परंपरागत
प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी दोनों प्रवृतियां विद्यमान रहती है। आज भी धर्म
सत्ता के बल ने अनेक अमानुषिक रूढ़ियों को जीवित रखा है। आत्मा रंजन ने ऐसी ही एक
प्रथा देव दोष पर मार्मिक व्यंग्य किया है। इस प्रथा के अनुसार पहाड़ी क्षेत्रों
में रोग आदि का कारण ग्राम देवता, का नाराज होना
माना जाता है। अतः उसे प्रसन्न करने के लिए पशु बलि दी जाती है। इस अकरूण प्रथा की
आलोचना करते कवि ने ठीक लिखा है-
अद्वितीय किस्म
के आस्थावान
और दुर्लभ किस्म
के सुंदर जीवन के बीचों-बीच
साक्षात ईश्वर की
उपस्थिति में
अपने समूचे
भोलेपन के साथ
उन्होंने उड़ा दी
एक मेमने की
गर्दन। (पृ. 40)
ऐसे अंधविश्वास
आजकल के भारत में भी प्रचलित हैं। विज्ञान के अभिनव प्रकाश ने यह अंधकार दूर नहीं
हुआ है। कारण क्या है। उत्तर वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि का न्यूनतम प्रसार। महाराष्ट्र
के डॉ. नरेंद्र दाभोलकर अपनी वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि से अंधविश्वासों के खिलाफ
आंदोलन चला रहे थे। वे पूरे देश के अंधविश्वासों से उत्पीड़ित लोगों के प्रति
व्याकुल रहते थे। कट्टर हिंदूवादी संगठनों ने उनकी हत्या कर दी अथवा करवा दी। आज
देश के लिए बुद्धिजीवियों की नहीं अपितु बुद्धिवादियों की परम आवश्यकता है,
जो तर्कों की तलवार से धर्मसत्ता के प्रति अंध
श्रद्धा को काट सकें। पाखंडी आसाराम बापू जेल में है, फिर भी उसके अंध समर्थक उसे बचाने का प्रयास कर रहे हैं। इस
अभियान में भाजपा भी किसी समर्थक से पीछे नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि वर्तमान
लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजसत्ता और धर्मसत्ता का अपवित्र गठबंधन खूब हो रहा है।
सभी दक्षिणपंथी दलों के साथ-साथ कांग्रेस व सपा भी इस षड़यंत्र में शामिल हैं।
समकालीन हिंदी कविता को इस प्रदूषित प्रवृति का प्रखर प्रतिरोध करना चाहिए;
खतरे का सामना तो करना ही पड़ेगा।
आत्मा रंजन की
कविताएं - हिमपात, बर्फ पर चलता हुआ
आदमी, न हीं सोचता बर्फ पर चलते,
माल रोड टहलते हुए, बेखबर है माल, माल एक अजगर, माल पर बच्चे,
खेलते हैं बच्चे- पढ़कर और समझकर शिमला का
क्रियाशील जीवन, प्राकृतिक
परिदृश्य, जीवन की विषमताएं,
प्रत्यक्ष होने लगती हैं। ये कविताएं कवि के
स्थानीय अनुराग की द्योतक हैं। अघोलिखित अंश पढ़िए और जीवन का अंतर्विरोध समझिए-
बर्फ के आसपास नहीं
है जिसका घर
वह अकसर घर को
बहुत पीछे छोड़कर
आता है
बेफिक्री ओढ़े
मुग्ध और लुब्ध सा
चलता है बर्फ पर
जानलेवा बर्फानी
ठंड की
कहर ढाती ताकत की
समस्त हेकड़ी
और दम्भ का मजाक
उड़ाती है
उसके जेब की
गर्मी। (बर्फ पर चलता हुआ आदमी, पृ. 47)
यह कविता वर्गीय
जीवन दृष्टि से पर्यवेक्षण करके रची गई है। हिमपात के कारण जमी बर्फ गरीबों के लिए
तो जानलेवा है, लेकिन अमीर
सैलानियों के लिए वह मौज-मस्ती का स्थान है। इसी प्रकार माल रोड पर टहलते हुए कवि
को पता चल जाता है कि
माल की तमीज और
तहजीब के साथ
टहल रहे जो शालीन
पोशाकों में
गौर से देखना
उनके चेहरे
समझ जाओगे फर्क
टहलते हुए आदमी
और काम पर जाते
या लौटते आदमी के
बीच। (पृ. 49)
कवि की यह जीवन
दृष्टि उसकी सहृदयता की द्योतक है। आत्मा रंजन अपनी इसी जीवन दृष्टि से सपना,
हादसे, नहाते बच्चे, जैसे हो हैं
बच्चे, भगवान का रूप, उम्र से पहले, नई सदी में टहलते हुए, जो नहीं खेल, इस बाजार समय में, स्मार्ट लोग,
दुकानदार, मोहक छलिया अय्यार, तोल-मोल में माहिर, पुराना डिब्बा,
कटता हुआ बूढ़ा पेड़, रावण दाह, ऐसे चल रहा है
जीवन, चुप्पियों का चीत्कार में
जीवन के समकालीन द्वंद्वात्मक यथार्थ की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति करते हैं। प्रमाण
के लिए ऐसे चल रहा है जीवन का अधोलिखित अंश पढ़िए-
चल रहा है कुछ इस
तरह जीवन
जैसे राजस्व
उगाहने की लालसा और
शराबियों के
निर्लज्ज अट्टहास के बीच
खामोश दुबकी हुई
चेतावनी
कि शराब सेवन
स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है
व्यवस्था की
कालिमा को गाली देते
समूहों में चीख
रहे भद्रजन
भारत माता की जय।
(पृ. 89)
वर्तमान युग में
जीवन इतना अधिक समस्याग्रस्त हो गया है कि कहते तो हैं बड़ी-बड़ी बातें, लेकिन छोटे-छोटे से स्वार्थ के लिए बेईमानी से
समझौता कर लेते हैं। जब समाज में चारों ओर भ्रष्टाचार का साम्राज्य है, तब आम आदमी अथवा मध्यम वर्ग का कोई भी व्यक्ति
आसानी से भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह में फंस जाता है। इसलिए आत्मा रंजन सावधान करते
हैं कि किसी पर विश्वास बिना सोचे-विचारे मत करो। स्वयं पर विश्वास करो। क्योंकि
तुम स्वयं निर्माता हो। अपने ही नहीं ईश्वर के भी। विश्वास को संबोधित पक्तियों
में कवि कहता है –
लोग कहते हैं
सर्वशक्तिमान है
ईश्वर
बड़ा सच यह
कि तुमने ही रचा
है ईश्वर
और तुम ही हो
सारथी जीवन के
रथ भी तुम्हीं
सबसे बड़ी ताकत के
जनक
उदास मत हो मेरे
दोस्त। (पृ. 96, 97)
मनोबल से संपन्न
आत्म-निर्भर कर्मठ व्यक्ति असंभव को संभव एवं असाध्य को साध्य कर सकता है। ऐसा
व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में सदैव सावधान रहता है। वह जानता है कि हर आदमी में
होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना
हो कई बार देखिए। आत्मा रंजन ने भी यही सोचकर बनना नहीं होना कविता में ठीक कहा
है-
हर किसी से
मुखातिब है
हर कोई
शालीन और मोहक
मुस्कान बिखेरता
पूरा दक्षता,
पूरे कौशल के साथ
कुछ ऐसे कि स्वतः
ही, उभर रहे शब्द
अभिनय, रणनीति, हथियार..
और उससे
आगे-शिकार। (पृ. 98)
विषमतामूलक
प्रत्येक शक्तिमान् दुर्बल का शिकार कर रहा है। शराफत का मुखौटा लगाकर। असत्य को
सत्य बोल कर।
कवि विकल्प सोच कर
यह चिंता भी व्यक्त करता है कि-
जाने कब समझेंगे
लोग
कि वास्तव में
फूल को देखने के
लिए
पहले होना पड़ता
है। (पृ. 98)
आशय यह है कि
सामाजिक व्यवहार में व्यक्ति फूल के समान कोमल ओर सहृदय बने। तभी वह दूसरे व्यक्ति
का समादर कर सकता है।
आत्मा रंजन अपनी
विवेकपूर्ण जीवन दृष्टि से अपने स्थानीय जन जीवन, प्रकृति, समकालीन सामाजिक
गतिकी का निरीक्षण परीक्षण करके उसे कलात्मक ढंग से कविता में रचने का सफल प्रयास
करते हैं। उनकी कविताओं की भाषाई संरचना में वर्णनात्मकता है। बिंबों की सृष्टि
है। ध्वन्यार्थ का समावेश है। बोलचाल की हिंदी पदावली में उर्दू और स्थानीय
हिमाचली बोली के शब्दों का सार्थक प्रयोग किया गया है। पगडंडियां गवाह हैं कि
भविष्य में आत्मा रंजन का कविता पथ और अधिक नया और लंबा होगा। और अंत में कहना
चाहता हूं कि आत्मा रंजन की कविताएं सर्वेश्वर की ‘काठ की घंटियां’ से बेहतर है।
समाज को जगाने के लिए काठ की घंटियों ने न तो सन् 1958 में कोई उल्लेखनीय काम किया था और न आज कर सकती है। काठ की
घंटियां व्यर्थ हैं। अब तो घड़ियाल की नाद अनिवार्य है। नवजागरण के लिए। समाज को
बदलने के लिए।
पुस्तक-पगडंडियां
गवाह हैं (कविता संग्रह)
लेखक - आत्मा
रंजन
मूल्य - 200 रू.
पृष्ठ-104
प्रकाशक -अंतिका
प्रकाशन, गाजियाबाद (उ.प्र.)
संपर्क:
अमीर चंद वैश्य
द्वारा कंप्यूटर
क्लीनिक, समीप पंकज
मार्किट
चूना मंडी,
बदायूं (उ.प्र.)
मोबाईल-
09897482597, 08533968269
आत्मा रंजन का कविता -संग्रह 'पगडण्डीयां गवाह हैं' पर अमीर चंद वैश्य का आलेख खूबसूरत है .कवि हिमाचल का है और पहाड़ की बात बेबाकी से करता है. आत्मा रंजन जी जितने बढ़िया कवि हैं ,उतने ही अच्छे जिंदादिल इंसान भी हैं .पहलीबार पर टिप्पणी सुखद अनुभूति है .सबसे बड़ी बात है कि अमीर जी ने आलोचना की है और डंके की चोट पर की है ,वर्ना आजकल की आलोचना तो मात्र चाटुकारिता भर रह गई है या फिर प्रायोजित मात्र .अभिव्यक्ति के खतरे कोई नहीं उठाना चाहता . यहाँ तो कुछ लोग 'साहित्य चोरों' का साथ देने से भी परहेज़ नहीं करते .
जवाब देंहटाएंहाल ही में कुमार अम्बुज - सौरभ प्रकरण पर भी कुछ लोग खामोश हैं .जब भी ऐसी घटना सामने आती है तो खुलकर बात होनी चाहिए ,नाकि दोषी का बचाव करना चाहिए .
- गणेश गनी ,९७३६५०००६९
Bahut achchhi samiksha...Abhaar Ameer Chand jee. Aatm Ranjal jee ko unki shaandaar kavitai hetu Badhai....Santosh jee Dhanyavaad...
जवाब देंहटाएंkavitao ke saath sath sameksha me bhe aj ka yatharth vayakth hua he. padhvane ke liye santosh ji ka dhanyevad. Manisha jain
जवाब देंहटाएंसमीक्षा पढ़ कर अच्छा लगा जो कविताएँ मुझे भी प्रिय थी उसका यहाँ जिक्र है उन पर चर्चा की गयी है जितना मैं समझता था उसमें कुछ और जुड़ सका मेरी समझ का विस्तार हुआ |शुक्रिया |
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