उमा शंकर चौधरी की कहानी 'कहीं कुछ हुआ है, इसकी खबर किसी को न थी'
आज के कहानीकारों में उमा शंकर चौधरी अपने कथक्कड़ी के लिए विशेष तौर पर जाने जाते हैं. हमारे रोजमर्रा के जीवन और घटनाक्रम से कथ्य खोज कर उस के माध्यम से एक नयी कहानी बुन देना उमा शंकर की खासियत है. इस कहानी के माध्यम से भी उमा शंकर ने बाजार और उपभोक्तावाद के हमारे जीवन में विकट हस्तक्षेप के संकट को बारीकी से दर्शाया है. ऐसा लगता है जैसे घटना हमारे सामने घटित हो रही हो. वासुकी बाबू नहीं भुक्तभोगी खुद हमीं हैं. तो आईए पढ़ते हैं उमाशंकर की नयी कहानी 'कहीं कुछ हुआ है, इसकी खबर किसी को न थी.'
कहीं कुछ हुआ है, इसकी खबर किसी को न थी
उमा शंकर चौधरी
वासुकी बाबू ने पदोन्नति की लिस्ट में अपना नाम देखा तो उनकी बांछें खिल गईं। नौ वर्ष से सरकार पर उधार था अब जाकर चुकता हुआ है। यहां एक छोटे से ब्लॉक में छोटे बाबू हैं। अब वे होंगे बड़े बाबू। लोग इज्ज़त से नाम लेंगे। उन्होंने लिस्ट को हाथ में थामे ही अपने मन में बुदबुदाया ‘बड़े बाबू’ और झेंप से गये। मन किया किसी अपने से बता दूं। लेकिन इस ऑफिस में कौन अपना। फिर लगा अरे कैसे से तो हो गए हैं। जीवन में अपना भी कहीं ढूंढना पड़ता है। परिवार से ज्यादा अपना कौन होगा। ऑफिस में रखे एक मात्र सार्वजनिक टेलीफोन की तरफ दौड़े फिर लगा वे इस उत्तेजक क्षण में यूं सार्वजनिक टेलीफोन पर अपनी पत्नी से बात नहीं कर पायेंगे। उन्हें उस ऑफिस में अचानक से बहुत अधिक कोलाहल और घुटन महसूस हुई। वे अपने टेबल पर खुले रजिस्टर को झपटकर बंद कर ऑफिस से बाहर निकल आये। मोबाइल उनकी शर्ट की जेब में था। मोबाइल में लटकी लुत्ती उनकी जेब से बाहर निकल रही थी। उन्होंने उसी लुत्ती को चुटकी से पकड़ा और मोबाइल को जेब से खींच निकाला।
लेकिन इसे कहानी का रोमांच कहिए या यथार्थ, घर के फोन की घंटी टुनटुनाती रही और किसी ने उठाया नहीं। उनके दिमाग ने मिनट के सौवें क्षण में सोचा बड़ी बेटी कॉलेज गयी होगी और छोटी बेटी स्कूल। पत्नी के लिए उनके मन में अचानक से यह पंक्ति अंकित हुई ‘‘औरतें जरूरत से ज्यादा गप्पबाज होती हैं।’’
लेकिन उत्साह अधिक था इसलिए उन्होंने दूसरी बार, तीसरी बार लगातार घंटी बजा दी। तीसरी बार भी जब घंटी बज कर खत्म होने वाली थी तब उधर से उनकी पत्नी की हांफती सी आवाज आयी। लेकिन हांफती सी आवाज में शब्द बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं थे। कोई और होता तो शायद समझ नहीं पाता परन्तु वासुकी बाबू ने उन शब्दों को सही जगह पर बैठाकर समझ लिया। आखिर चौबीस वर्षों का साथ जो है।
‘‘अरे बाहर खाट पर चिप्स पसार रही थी। सुनाई ही नहीं पड़ा।’’
‘‘तीन बार घण्टी बजी है। तुमको सुनाई पड़ती कब है। बाहर गप्प मार रही होगी। कहती है चिप्स सुखा रही थी।’’
‘‘नहीं नहीं सच में बाहर ही थी।’’ पत्नी ने अपनी बात पर बल दिया तो इस बार उनकी सांसें स्थिर हो चुकी थीं।
‘‘ हां तुम्हारा सच तो खैर कितना सच होता है मैं ही जानता हूं।’’ वासुकी बाबू चिढ़ से गए।
फिर अचानक वासुकी बाबू को लगा किस चक्कर में फंस गये कहां तो व्यग्र हुए जा रहे थे और कहां शिकायतों का पिटारा खुल गया।
पत्नी कुछ कह रही थी, अचानक उसको काटकर कहा ‘‘अरे छोड़ो उसको। खुशखबरी यह है कि आपके तो दिन ही फिर गए। अब आप बड़े बाबू की पत्नी कहलायेंगी। एकदम अफसरानी।’’ वासुकी बाबू ने चुहल की।
‘‘झूठ कह रहे हैं आप।’’ पत्नी आनन्दी को अपने पति से ज्यादा सरकार पर भरोसा था शायद इसलिए पति की बात पर विश्वास नहीं हो पा रहा था।
‘‘अरे भाई कुछ बातों पर सीधे भी विश्वास कर लिया करो। प्रमोशन की लिस्ट आज आ गई है। मेरे हाथ में है अभी। देखो।’’ वासुकी बाबू ने उत्साह में अपने हाथ में पकड़ी हुए लिस्ट को दिखाने के अंदाज में ऊपर को उठाया और फिर खुद ही झेंप कर हाथ नीचे कर लिया।
‘‘देखे भगवान ने मेरी सुन ली न। अब जब आरती की शादी का टाइम आया तो देखिये। भगवान ने खुशखबरी दे दी।’’
वासुकी बाबू की पत्नी ने औचक ही आरती का नाम लेकर मन में पाठकों के दिमाग पर इतना भरोसा दिखाया कि बगैर बताये भी पाठक बूझ लेंगे कि आरती सहाय वासुकी नाथ सहाय की बड़ी बेटी है। बड़ी बेटी जो अभी कॉलेज में है और वहां ग्रेजुएशन के दूसरे वर्ष में पढाई कर रही है।
‘‘सब तुम्हारे पूजा-पाठ का ही फल है।’’ वासुकी बाबू के मन में पत्नी के लिए एक आदर सा उत्पन्न हो गया।
‘‘प्रमोशन पीछे से ड्यू है तो एरियर भी मिलेगा। बस यही समझो कि आरती की शादी में बड़ा सहारा हो जायेगा। सब भगवान की कृपा है।’’ उन्होंने ऐसा कहते हुए फोन लगाए हुए अपने कान सहित गर्दन को ऊपर आसमान की ओर उठा लिया। और मन में ही भगवान को कहा ‘धन्यवाद’।
‘‘लेकिन एक बात बताइये प्रमोशन हुआ है तो तबादला भी तो हुआ होगा।’’ पत्नी ने बहुत ही गंभीर प्रश्न पर उंगली रख दी थी। वासुकी बाबू एकदम से झनझना गए। एकदम से उनके दिमाग में शादी के शुरूआती दिनों में उनके पिता के द्वारा कहा जाने वाला एक वाक्य अंकित हो गया ‘तुमसे ज्यादा होशियार तो दुल्हन है।’
‘‘अरे यह तो देखा ही नहीं।’’ यह कहते हुए वासुकी बाबू ने अपनी गर्दन को झुका कर और कंधे का सहारा लेकर मोबाइल को उसमें दबा लिया। दूसरे हाथ को भी फ्री करते हुए अपने हाथ में पकड़ी हुए लिस्ट में अपने नाम के सामने देखा और चैंक गए। लिखा था- ‘कार्यालय मुख्य विकास अधिकारी कानपुर नगर’।’
एक छोटे से गांव के छोटे से ब्लॉक में छोटे बाबू के पद से बड़़े शहर के जिला मुख्यालय में ‘हेड क्लर्क’ पर पदोन्नति होने पर वासुकी बाबू खुश हों या दुखी, एकबारगी वे सोच में पड़ गये। जब तक सिर्फ पदोन्नति की खबर थी वासुकी बाबू का खुशी का ठिकाना नहीं था। लेकिन इन छः शब्दों - ‘कार्यालय मुख्य विकास अधिकारी कानपुर नगर’ ने वासुकी बाबू की खुशी और उत्साह को एकदम थाम सा दिया था।
वासुकी बाबू ने पत्नी को फोन पर इतना तो बता ही दिया था कि यह तबादला कहां के लिए है। परन्तु इस एक वाकये से अचानक दोनो गुम भी हो गए थे। दोनों ने तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और इस तरह संवाद खत्म हुआ था।
वासुकी नाथ सहाय की उम्र पैंतालीस से ऊपर और पचास से नीचे थी। अभी तंदुरुस्त थे इसलिए उम्र का अभी बहुत पता नहीं चलता था। शर्ट पैण्ट पहनते थे, शर्ट को पैण्ट के भीतर कभी खोंसते नहीं थे। उनका शर्ट-पैण्ट पहनना उनके कम उम्र के लगने में मदद ही देता था। चेहरे पर मूंछ थी और मूंछ के बाल अभी पूरी तरह सफेद नहीं हुए थे बल्कि अभी खिचड़ी ही थे। सर के बाल अभी भी घने थे। हां कमीज आधी बाजू के पहनते थे।
वासुकी बाबू अभी जिस गांव में हैं यह एकदम निरा देहात तो नहीं है परन्तु है एक गांव ही। ब्लॉक स्तर का गांव। वासुकी बाबू का पैतृक गांव यह नहीं है परन्तु वे यहां नौकरी के बाद से लगभग बीस वर्षों से यहीं हैं। ऐसा नहीं है कि वासुकी बाबू जिस नौकरी में हैं उसमें तबादला होता ही नहीं है परन्तु इस छोटे से ब्लॉक में कौन आना चाहता है। किसी की नजर थी नहीं तो वासुकी बाबू आराम से यहां पड़े हुए थे। हां यह अलग बात है कि जिस छोटे से गांव-ब्लॉक में कोई आना नहीं चाहता था उसी गांव-ब्लॉक में वासुकी बाबू की आत्मा धंस सी गई थी। उनके लिए एकदम अपना सा हो गया था यह गांव। अब बीस वर्ष कोई कम समय भी तो नहीं होता।
वासुकी बाबू का परिवार जिस घर में रहता है वह घर खपरैल का है आगे अहाता है और पीछे आंगन। आगे के अहाते में बांस की फट्टी से घेरा बनाया गया है और बांस की फट्टी से ही एक दरवाजा भी। उस अहाते में दो नींबू के पेड़ हैं, एक अमरूद का और एक अनार का। बांस की खींमचे से बंद दरवाजे से एक एकपरिया पतला रास्ता घर से दरवाजे तक जाता है जिसमें ईंट बैठाकर उसे बरसात के लिए वाटरप्रूफ बना दिया गया है। उस एकपरिया रास्ते के दोनों ओर लगभग बराबर ही बागवानी है जिसमें वासुकी बाबू काम भर की सब्जी उगा लेते हैं । बैंगन, फूलगोभी, बथुआ का साग आदि। एकदम दरवाजे से सट कर एक छोटी सी क्यारी है जिसमें पुदीना और धनिया के हरे-हरे कोमल पत्ते।
वासुकी बाबू जिस घर में रहते हैं उस घर में रहते हैं सिर्फ इन मीन तीन जन, ऐसा नहीं है। दो प्यारी बेटियों के अलावा इस घर में रहते हैं खुद वे और उनकी पत्नी आनन्दी सहाय। वैसे इतने जनों का तो कहानी में अंदाजा पहले भी लगाया जा सकता है, रोमांचक बात यह है कि इस घर में इन चारों के अलावा रहती है सुनहरी। सुनहरी यानि एक प्यारी सी गिलहरी। पहले उनके पास एक बिल्ली थी लेकिन उस बिल्ली की मृत्यु के बाद घर एकदम सुना हो गया। वह बिल्ली क्या गयी दोनों बेटियों ने लगभग खाना-पीना छोड़ दिया। छोड़ दिया हंसना और मुस्कराना भी। लेकिन तभी इसे महज संयोग कहिये कि उनके अमरूद के पेड़ पर एक दिन दिखी यह गिलहरी और फिर दूसरे दिन भी और फिर तीसरे दिन भी। और फिर उस गिलहरी को इस घर से इस घर के लोगों से प्रेम हो गया। इस घर के लोगों को तो उस गिलहरी से बेइंतहा मोहब्बत हो ही गई थी। और इसी मोहब्बत का नतीजा है कि उसका नाम रखा गया सुनहरी। धूम-2 में ऐश्वर्या राय का नाम सुनहरी ही तो था। यह सुनहरी भी उस सुनहरी की तरह एकदम बिल्लौरी आंखों वाली थी और एकदम कोमल।
इस गांव का नाम क्या है उससे हमें या फिर आपको क्या लेना-देना। लेकिन नाम कुछ अजीब है इसलिए बता ही देता हूं। इस गांव का नाम ही है- भीतरगांव। इसमें कोई शक नहंी है कि कभी जब इस गांव का नाम यह रखा गया होगा तो इसमें यह कारण अवश्य प्रमुख रहा होगा कि यह मुख्य सड़क से कितना कटा हुआ है।
यह गांव मुख्य सड़क से लगभग दो से तीन किलोमीटर दूर है। शहर यानि अपने जिला मुख्यालय के लिए पहले दो से तीन किलोमीटर की पैदल तफरीह। इधर कौन रिक्शे पर रुपये खर्च करता है। रिक्शा पर या तो बीमार चढते हैं, दामाद चढते हैं या फिर इस गांव में आने वाले नये मुसाफिर। इस चार किलोमीटर के रास्ते को तय करने के बाद लगभग 32-33 किलोमीटर के बस के सफर के बाद छोटा सा शहर आता है जो गांव का जिला भी है। यानि कहने का मतलब सिर्फ यह है कि शहर की हवा को इस गांव तक आने में लगभग 35-36 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता। वह भी 32-33 किलोमीटर खटारा बस में और चार किलोमीटर अगर जेब में पैसे रहे तो रिक्शा में नहीं तो पांव-पैदल।
वासुकी बाबू नीम अंधेरे टहलने निकलते तो उधर से रोज नीम के ताजे दातून तोड़ लाते। एकदम नीम की हरी पत्तियों के साथ। फिर सूरज की उगती रोशनी में पलट की दुकान पर ढेर सारे अपने संगी-साथियों के साथ चाय की चुस्की। पलट की दुकान नियमित रूप से साढे-छः बजे खुलती, चाहे कड़ाके की ठंड हो या फिर गर्मी की उमस भरी सुबह। पलट के रेडियो पर तब भक्ति के गाने बजते और पलट अपनी भट्टी को धीरे-धीरे सुलगा रहा होता।
चाय धीर-धीरे पकती और धीरे-धीरे महफिल गरम भी होती।
घर पहुंचते तो वासुकी बाबू बाल्टी लेकर चापाकल की तरफ बढ जाते। चापाकल से पानी की मोटी धार गिरती और वासुकी बाबू जोर-जोर से हनुमान चालीसा के साथ लोटे से पानी उड़ेल रहे होते। नहाना होता तो लुंगी का ढेका पीछे बांध लोटे भर पानी का अघ्र्य सूर्य को देते और फिर जनेउ पर उंगलियां फिरा कर उसका पानी निचोड़ कर उसे तेज झटके के साथ झटक देते। उसी जनेउ में उनकी अल्मारी की चाबी होती जहां आकर उनकी उंगलियों की रफ्तार थोड़ी धीमी पड़ जाती। सब नियमित था-नहाने के बाद पत्नी खाने पर इंतजार करती। वासुकी बाबू एक चौड़े पीढे पर पालथी मार कर बैठ जाते। और फिर गिलास से चुल्लू में पानी लेकर उसे गायत्री मंत्र के साथ-साथ बुदबुदा कर थाली के चारों और छींट देते। पत्नी आनन्दी साये की तरह उनकी थाली पर नजर रखती कि कहीं कुछ कम तो नहीं हो गया।
उस गांव में हटिया दो दिन लगती जिसे उस इलाके में बाजार ही कहा जाता। दो दिन बाजार लगता इसलिए इन दो दिनों में ही सब्जी-मसाले आदि खरीदे जाते। लेकिन वासुकी बाबू की पत्नी को दिक्कत नहीं होती क्योंकि अपने बगीचे में इतनी सब्जियां हो जातीं कि काम चल जाता था।
शाम को ऑफिस से लौटने के बाद वासुकी बाबू अपनी बेटियों को घर में चहकते हुए देखकर खुश होते। शाम को घण्टों वे अपने बगीचे में अपनी खुरपी के साथ होते। चापाकल से सीधा नाला उस बगीचे तक बना हुआ था। कभी खुद और कभी बेटियों को कहते चापाकल चलाने के लिए तब वासुकी बाबू अपनी खुरपी से उस पानी को रास्ता दे रहे होते। पानी बगीचे के कोने-कोने तक पहुँच जाए इसके लिए वे काफी मशक्कत करते।
वासुकी बाबू इस बगीचे को बहुत प्यार करते थे। वे बांस की फरट्टी और सींकचों से मचान तैयार करते और सेम की लत्ती को उस पर चढाते। जब सेम खूब फलता तो तोड़कर खुद भी खाते और दोस्तों को भी बांटते। अमरूद का बहुत बड़ा पेड़ था। जब अमरूद का समय होता तो बाल्टी भर कर अमरूद तोड़ते। वासुकी बाबू खुद पेड़ पर चढ जाते और नीचे उनके बच्चे अमरूद को सहेज कर बाल्टी में रख रहे होते। वासुकी बाबू के मित्र मंडली के सभी सदस्य इन अमरूदों के गजब के दीवाने थे। वासुकी बाबू अपने दोस्तों से कहते ‘‘हम तो ऑफिस में रहते हैं तब भी ध्यान इस बगीचे पर ही होता है।’’ वाकई वे इस बगीचे पर एक खरोंच भी बर्दाश्त नहीं कर पाते थे।
बड़ी बेटी का कॉलेज दूर था। वही रास्ता समझिए रिक्शा वाला और फिर बस से चार-पांच किलोमीटर। गांव की कई लड़कियां साथ थीं तो बहनापा भी हुआ। और इस बहनापे ने रिक्शे की जरूरत को खत्म कर दिया। वे आपस में बतियातीं और रास्ता कट जाता। छोटी बेटी का स्कूल पास में ही था। पास यानि लगभग एक-डेढ़ किलोमीटर। बेटी नवीं में पढती थी और पैदल जाती थी। घर से कुछ ही दूरी पर हटिया की जगह थी जहां सप्ताह में दो दिन सब्जी खरीदने वासुकी बाबू जाते। उन दो दिनों को छोड़ कर वह बच्चों का क्रिकेट मैदान होता। जहां गांव भर के बच्चे क्रिकेट खेलते और अपने हर स्ट्राइक पर धोनी और सहवाग बनने का सपना अपने मन में पालते।
गांव में बिजली तो थी लेकिन रहती कम ही थी। पंखे लगे थे लेकिन चल कम ही पाते थे। गर्मी के मौसम में लोग बाहर घूमते या फिर बाहर खाट पर बैठ कर हाथ से पंखे झलते। लेकिन टेलीविजन और केबल का कनैक्शन लगभग सारे घरों में आ गए थे। जितनी देर बिजली होती लोग अपने काम कम निपटाते न्यूज चैनल पर देश-दुनिया की खबरें ज्यादा लेते। वासुकी बाबू शाम को घर पर होते और बिजली होती तो एन.डी.टी.वी. पर रवीश कुमार और अभिज्ञान प्रकाश से जरूर मुखातिब होते।
लेकिन बेटियों को जूम और चैनल वी बहुत पसंद था। नयी फिल्मों और नये-नये गानों को बेटियां अपने टेलीविजन सेट पर एंज्वाय करतीं। बेटियां करीना कपूर और कैटरीना कैफ को उस छोटे से टेलीविजन सेट पर देखतीं और ये नायिकाएं उनका आदर्श बनती जातीं। वे अपनी अपनी सहेलियों के साथ इन नायिकाओं के आदर्श बनते चले जाने का किस्सा बहुत चाव और उत्साह से करतीं। अक्सर नई फिल्में, चैनलों पर आतीं और बच्चे उनके समय का इंतजार करते। हालांकि ऐसा कम ही हो पाता कि बिजली उनका पूरा-पूरा साथ दे पाए। हां बेटियों ने बाद के दिनों में पिता से जिद करके सीडी प्लेयर खरीदवाया और सीडी की व्यवस्था उन्होंने अपने सहेलियों से की।
कौन सी फिल्में कहां चल रही हैं अखबार में इसकी खबर आती और बच्चे इसे बहुत उत्सुकता से देखते। इन छोटे-छोटे पोस्टरों को देख कर इन बच्चों के मन में रोमांच जगता और ढेर सारे ख्वाब पलते। बड़े-बड़े सिनेमाहाल, बड़े-बड़े मल्टीप्लैक्स में फिल्में चल रहीं होतीं और इस छोटे से गांव में इन लड़कियों के दिल की धड़कनें तेज हो जातीं। ‘बीड़ी जलैले जिगर से पिया जिगर में बड़ी आग है’ जैसे गानों पर मल्टीप्लैक्स में पॉपकार्न खाते हुए दर्शकों ने जितनी आहें नहीं भरी होंगी उससे ज्यादा गांव की इन जवान हो रही लड़कियों ने उन गानों को यहां देखकर आहें भरी होंगी।
इस घर में सबसे प्यारी चीज थी सुनहरी। सुनहरी पिछले छः-सात महीने से साथ थी लेकिन इन छः-सात महीनों में ही वह इस घर की एक अहम सदस्य बन गई थी। वासुकी बाबू ऑफिस से घर आते तो वह दरवाजे पर उनका इंतजार करती। वासुकी बाबू जितनी देर अपने बगीचे में होते सुनहरी उनके साथ इस बगीचे में लगी रहती। चापाकल आंगन में था और बगीचा बाहर। वहां से नाले के सहारे पानी को यहां तक लाया जाता। पानी कब चलाना है और कब बन्द करना है इसकी खबर बार-बार सुनहरी फुदक-फुदक कर दे आती। वासुकी बाबू यहां बगीचे में कहते कि अब नाले का मुंह मोड़ना होगा पानी बन्द करवा दो और सुनहरी आंगन की तरफ दौड़ जाती और फिर अपनी चीं-चीं की आवाज के साथ इशारा कर देती कि अब चापाकल बन्द कर दो।
दरवाजे पर कोई आता तो सबसे पहले सुनहरी ही घर के भीतर खबर देने के लिए दौड़ती।
खैर यह तो हुई वासुकी बाबू की उस गांव में रहने की दिनचर्या। अब फिर से कहानी में उस दिन पर लौटता हूं जब वासुकी बाबू की पदोन्नति हुई और पदोन्नति के कारण उनका स्थानान्तरण भी कर दिया गया था।
शाम को जब ऑफिस से वासुकी बाबू घर की तरफ लौटे तो उनके पांव भारी थे और उनके मन पर एक बोझ था। ऑफिस में प्रमोशन की खबर फैल गई थी, लोग बधाई देते परन्तु वासुकी बाबू चुप रहते। लोग आश्चर्य में थे कि जिस प्रमोशन के लिए वे वर्षों से इंतजार कर रहे थे उस प्रोमोशन को पाकर आखिर वासुकी बाबू इतने चुप क्यों हैं?
ब्लाॅक से लौटते हुए रास्ते में कई लोगों ने वासुकी बाबू को नमस्कार-प्रणाम किया परन्तु वे आज उदास थे। लोगों ने रुक-रुक कर जानना चाहा कि आखिर वे आज क्यों उदास हैं। लोग उनको नमस्कार-प्रणाम करते और उन्हें उदास देख कर उनके पास आकर उनके उदास होने का कारण पूछते और वासुकी बाबू और ज्यादा उदास हो जाते।
ब्लाॅक से लौटते आज वासुकी बाबू को नियत समय से ज्यादा समय लगा। वे कुछ सोचते हुए चल रहे थे, उलझन उनके दिमाग में तारी हो रही थी। उन्होंने ईंट के खड़ंजे वाली सड़क पर चलते हुए अगल-बगल के पेड़-पौधों को देखा और मन उदास सा हो गया। वे उस पोखर के बगल से आज भी गुजरे जहां रोज उसमें तैरने वाली बत्तखों को देखकर खुश होते थे आज उन्हें सारी बत्तखें शांत लगीं। वासुकी बाबू ने सोचा शहर में ये बत्तख, ये पोखर यह हरियाली कहां मिलेगी। उनके मन में तुरंत यह अंकित हुआ कि ‘‘शहर में तो अब पक्षी के नाम पर एक कौआ तक भी नहीं दिखता।’’
जहां 20-22 साल गुजारे उस जगह के छूटने का दुख वासुकी बाबू को बहुत था, क्योंकि अपनी पूरी जवानी अपने बच्चों का पूरा बचपना उन्होंने यहीं गुजारा था। परन्तु वासुकी बाबू को इस दुख के साथ साथ शहर के जीवन और वहां की अजनबीयत से भी बहुत घबराहट हो रही थी। वे ठस्स गांव के आदमी थे और अपने जीवन में वे कभी भी शहर में बहुत दिनों तक रहे तक नही थे और रहना तो क्या बहुत ठीक से शहर को देखा तक नहीं था। अब जवान हो रहे बच्चों के साथ कोई साधारण सा शहर नहीं, सीधे कानपुर जैसे महानगर में रहना उनके लिए घोर चिंता का विषय था।
प्रोमोशन लिस्ट में अपना नाम देखने के बाद पत्नी से जो बात हुई थी और जिसके बाद दोनों अनमने से हो गए थे उसके बाद उनके बीच या घर के किसी सदस्य से कोई बात नहीं हुई थी। आज घर पहुंचने में अपने नियत समय से देर हो रही थी तो उनके दिमाग में यह अंकित हो रहा था कि पत्नी बांस की फरट्टी के दरवाजे को खोल कर उनका इंतजार कर रही होगी और सुनहरी! सुनहरी कूद रही होगी उस बगीचे में। लेकिन घर के अन्य सदस्य यानि बच्चियां उनके इस गांव से शहर के स्थानान्तरण पर क्या महसूस कर रही होंगीं यह वासुकी बाबू के लिए भी एक सवाल था।
जब वासुकी बाबू घर पहुंचे तो आज थक से गए थे। पत्नी सही में दरवाजे पर इंतजार कर रही थी और सुनहरी वाकई यहां से वहां फुदक रही थी। वासुकी बाबू ने अपने कन्धे पर लटकाए बैग को पत्नी को पकड़ाया जिसमें उनके खाने का बाॅक्स भी था और जिसमें आज उन्होंने पत्नी का दिया हुआ खाना आधा छोड़ दिया था। पत्नी ने देखा पति आज अनमने से हैं। वासुकी बाबू ने घर में घुसते हुए अपने बगीचे पर नजर डाली। सारे पौधे सुस्त और निराश थे। पुदीने के पत्तों की खुशबू खत्म सी हो गई थी।
लेकिन बच्चियां काफी खुश थीं। वासुकी बाबू ने दरवाजे पर अभी पांव ही रखा था कि भीतर से बच्चियांे के चिल्लपों की आवाज बाहर आई। बड़ी बेटी बड़ी हो गयी थी इसलिए वह थोड़ी शर्मीली हो गई थी परन्तु छोटी बेटी ने पिता के अन्दर प्रवेश पर उनका स्वागत अपनी चिल्लाहट से किया।
पत्नी चुप थी क्योंकि वासुकी बाबू चुप थे, लेकिन बच्चे खुश थे क्योंकि बच्चों को यह एक रोमांचक बदलाव लग रहा था। वे गांव में रह-रहकर उब चुके थे। उन्होंने शहर को सिर्फ अपने टेलीविजन सेट पर ही देखा था। अब वे शहर में रहेंगे और शहर की जिन्दगी में रंग जायेंगे यह उनके जीवन में एक बहुत बड़ा बदलाव होने वाला था।
वासुकी बाबू ने जब घर में प्रवेश किया तो उनके मन में तनाव था परन्तु उन्हांेने यहां देखा बच्चियों के बीच जश्न जैसा माहौल था। छोटी बेटी प्रीति ने बड़ी बहन से अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग लेकर एक छोटी सी पार्टी जैसा इंतजाम कर रखा था। वासुकी बाबू ने देखा अपने बगीचे से तोड़े गए फूलों से घर को थोड़ा बहुत सजाने की कोशिश की गई थी। मंदिर के सामने दीप जल रहा था और थोड़े से फूल वहां भी रखे थे। वासुकी बाबू कुछ सोच पाते इससे पहले प्रीतिे एक ट्रे में कोल्ड ड्रिंक्स के ग्लास ले आई। प्रीति ने पापा के सामने ट्रे को आगे बढ़ाते हुए पापा को देखा कि पापा उदास हैं।
‘‘अब तो हंस दो पापा। नहीं, पापा नहीं, बड़े बाबू। अब तो हंस दो बड़े बाबू।’’ प्रीति ने एकदम लाड़ में कहा।
वासुकी बाबू के चेहरे पर हंसी की एक हल्की सी रेखा तो खिंच ही आयी।
कोल्ड ड्रिक के बाद जो प्लेट प्रीति ने सजा रखी थी उसमें हलुवा और चिप्स थे। और साथ में एक-एक टाॅफी। पूरा परिवार इस पार्टी में शरीक था परन्तु वासुकी बाबू की पत्नी चूंकि वासुकी बाबू के डर को जानती थी इसलिए उनके दुख को भी जानती थी। चूंकि वे इस दुख को जानती थीं इसलिए यह अजीब भी लग रहा था कि उन्हें यह बुरा न लग रहा हो। परन्तु पता नहीं ऐसा क्या था कि बच्चों के इस उत्साह को देखकर वासुकी बाबू का सारा डर, सारा संदेह हवा हो गया। दो बातें तो तब वासुकी बाबू को लगने ही लगी थी पहली यह कि बेकार ही इस डर में उन्होंने अपने इस बहुप्रतीक्षित प्रमोशन की खुशी को भुला सा दिया है। और दूसरी यह कि अगर बच्चे खुश हैं तो बच्चों की खुशी में ही तो अपनी भी खुशी है।
वासुकी बाबू तब उठ कर खड़े हो गए और अपने बच्चों से कहा कि वे अभी मिठाई की दुकान से कुछ मिठाइयां खरीद कर लाने जा रहे हैं।
वासुकी बाबू को कानपुर नगर के विकास भवन में ज्वाइन तो एक-दो दिन में ही करना पड़ा परन्तु वे अपने परिवार को कम से कम एक महीने बाद ही वहां ले जा पाये। इस बीच उन्होंने अपने लिए घर ढूंढने में खूब मेहनत मशक्कत की।
घर ढूंढ़ने में वासुकी बाबू ने अच्छा खासा वक्त लिया। चूंकि उनकी बच्चियां बड़ी हो रही थीं, इसलिए वे चाहते थे कि किसी ऐसी जगह घर लिया जाए जो कम से कम रहने लायक हो। लेकिन इस शहर में ऐसी जगह घर लेना जहां चैन से रहा जाए उनके वश में था कहां। वासुकी बाबू ने थोड़ा सा नीचे उतर कर वहां घर देखना शुरू किया जहां मिडिल क्लास के लोग ही रहते हों और जहां सुरक्षित भी रहा जाए। वे घर देखने जाते तो बहुत ही बारीक नजर से उस मोहल्ले को देखते। वे अपने मन में लाना चाहें या नहीं लेकिन उनके मन में यह जरूर होता कि उनकी बेटियों के लिए ये मोहल्ला कितना सुरक्षित है। वे दिन भर ऑफिस में रहेंगे और दिन भर परिवार अकेला रहेगा यह सवाल उनके मस्तिष्क में हमेशा तना रहता। जिस भी मोहल्ले में चार लंपट जैसे लड़के घूमते दिख जाते या फिर बाइक की तेज आवाज उन्हें सुनाई पड़ जाती और वे देख लेते कि दो लड़के तेज रफ्तार में बाइक को उड़ा रहे हैं तो वे तुरंत अपने आप को उस मोहल्ले से समेट लेते।
वासुकी बाबू शहर आये तो देखा कि यहां भीड़ बहुत है। ढ़ेर सारे लोग हैं और ढ़ेर सारी गाडि़यां। जितनी जगह है उससे ज्यादा लोग हैं और जितने लोग हैं उससे ज्यादा गाडि़यां हैं। हर तरफ शोर ही शोर। लेकिन इस भीड़ में उन्होंने महसूस किया कि एक गजब का अकेलापन है। भीड़ में लोग चल रहे हैं, गाडि़यां चला रहे हैं, फिल्म देख रहे हैं, शॉपिंग कर रहे हैं लेकिन सब अकेले हैं। वासुकी बाबू इस भीड़ में चलते, टकराते और फिर सहम से जाते। वे उस भीड़ को एक शक की निगाह से देखते।
वे देखते यहां सड़क किनारे ढेर सारे सामानों का विज्ञापन करते बड़े-बड़े होडिंग्स हैं। ढेर सारी सुन्दर लड़कियां दुनिया की ढेर सारे समानों को बेच डालना चाहती हैं। कोई साबुन, तो कोई वाशिंग मशीन, तो कोई पुरुष के दाढी बनाने का रेजर तो कोई पुरुष का अंडरबीयर बेच रही है। वासुकी बाबू उन विज्ञापनों को देखते और उस विडम्बना पर आश्चर्यचकित होते कि पुरुष के रेजर से आखिर इन सुन्दर लड़कियों का क्या वास्ता। वे उन विज्ञापनों को देखते और चकरा से जाते। कोई एक सुन्दर लड़की कहती यह साबुन बेहतर है तो दूसरी लड़की कहती इससे तो बेहतर यह है। ढेर सारे विशालकाय विज्ञापन वासुकी बाबू को चकराने के लिए काफी था। वासुकी बाबू उन विज्ञापनों का कद देखते, उसके नीचे वे खड़े होते और अपने आप को उसके सामने बौना समझते। उनकी सांसें वहां घुटने लगती और वे वहां से भाग खड़े होते।
वासुकी बाबू का नया ऑफिस बड़ा था या नहीं यह तो अलग बात है लेकिन चूंकि वे एक ब्लॉक स्तर के ऑफिस से आये थे इसलिए उनके लिए यह ऑफिस भूलभुलैया की तरह था। इस बड़े से ऑफिस में कुछ जगहों पर एसी लगा हुआ था तो कुछ जगहों पर कूलर। उन्हें यहां भी कोई चैम्बर तो नहीं मिला परन्तु जिस हॉल में उनका टेबल था वह हॉल काफी बड़ा था। उस हॉल को आप आयताकार समझ लें। दोनों लम्बी वाली दीवारों के सहारे टेबल और कुर्सियां लगी हुई थीं उन कुर्सियों पर तरह-तरह के कलर्क। उन कमरे की चैड़ाई वाली दीवार में एक तरफ वासुकी बाबू का कुर्सी और टेबल लगा हुआ था। वासुकी बाबू की टेबल उस कमरे में लगी अन्य टेबलों से आनुपातिक रूप में बड़ी थी। टेबल पर एक कम्प्यूटर था, एक टेलिफोन और टेबल के सामने तीन कुर्सियां। वासुकी बाबू की कुर्सी घूमने वाली थी। जिस पर उन्होंने अपनी ज्र्वाइंनिंग के दूसरे ही दिन अपने पैसों से गुलाबी रंग का एक तौलिया रख दिया था। उस कुर्सी के ठीक ऊपर एक पंखा लगा हुआ था, जिसकी रफ्तार वासुकी बाबू अक्सर कम ही रखते थे। वासुकी बाबू की कुर्सी का मुंह उन टेबल-कुर्सियों की तरफ था जिधर और सारे कुर्सी-टेबल लगे हुए थे। वासुकी बाबू की कुर्सी की बायीं तरफ एक खिड़की थी जिसमें कूलर लगा हुआ था, जिससे गर्मी के मौसम में ठंडी हवा आती थी। ठंड के मौसम में वह कूलर बंद रहता था जिससे वासुकी बाबू को चिढ रहती थी। उन्हें लगता कि अगर यहां कूलर नहीं होता तो खिड़की खुली होती और वे बाहर का दृश्य कुर्सी पर बैठे बैठे ही उस खिड़की से देख सकते थे। उनकी बहुत इच्छा थी कि उस हॉल में भी एसी लग जाए ताकि यह खिड़की खाली हो सके। उस कुर्सी के ठीक बगल में एक डस्टबिन था जिसमें वे रद्दी कागजों को फेंका करते थे।
वासुकी बाबू के दिमाग में इस शहर को लेकर क्या क्या नहीं चलता था। उन्हें लगता कि एक तरफ उनका अकेला परिवार है और दूसरी तरफ शहर का इतना बड़ा अविश्वास। वासुकी बाबू अपने मन में बुदबुदाते ‘‘यह तो शेर के मुंह में उसके जबड़ों के बीच जीवित बचे रहना जैसा है।’’ वासुकी बाबू अपने ऑफिस से लेकर प्रापर्टी डीलर तक को जब अपने घर की जरूरतें बताते तब उसमें इस बात पर खासा बल देते कि ‘‘सुरक्षित जरूर हो।’’ और सभी लोग उनकी यह सुरक्षा वाली जरूरत पर चैक से जाते। डीलर ‘सुरक्षा’ शब्द को दुबारा से दोहरा कर उनकी ओर देखते तो वासुकी बाबू घबरा से जाते। उन्हें लगने लगता कि उन्हांेने इस शहर से कुछ ज्यादा ही मांग लिया है। अंततः एक दिन एक डीलर ने कह ही दिया। ‘‘साहब इस शहर में ऐसा कोई घर होता तो मैं ही नहीं ले लेता।’’
‘‘सुरक्षा! साहब सुरक्षा भी कोई अब ख्वाब देखने की चीज रह गई है।’’ डीलर ने ऐसा कहा तो वासुकी बाबू के चेहरे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा गईं।
खैर काफी माथापच्ची के बाद आखिर वासुकी बाबू ने घर को फाइनल किया। यह उनकी किस्मत ही कहिए कि इस शहर में भी उन्हें ऐसा घर मिल गया जो इस महानगर के हिसाब से बहुत ही बढिया था।
यह तिमंजिला मकान था। जिसमें पहली और दूसरी मंजिल पर भी किरायेदार थे। मकान मालिक वहां नहीं रहते थे। वासुकी बाबू की पहली पसंद ग्राउंड फ्लोर का घर था। गांव में रहने, घूमने की आदत थी इसलिए अभी जमीन का लोभ छूटा नहीं था। नीचे वाले फ्लोर पर एक किनारे से थोड़ा अंदर जाकर ऊपर जाने की सीढी थी। लेकिन वह अंदर जाने का रास्ता दीवार से घिरा हुआ था यानि ग्राउंड फ्लोर अलग-थलग था। एक मुख्य दरवाजा था जिसको बंद करने के बाद पूरा घर बंद हो जाता था।
मोहल्ला बड़ा था। मोहल्ले में घर भी बड़े-बड़े थे। परन्तु जो घर वासुकी बाबू ने लिया था वह छोटा सा ही था। पीछे आंगन नहीं था लेकिन आगे छोटा सा बरामदा था जहां एक-दो कुर्सियां लग सकती थीं। मोहल्ले के लिए जो सड़क थी उससे दाहिने को अंदर जाने पर एक बार फिर से बांयें मुड़ना पड़ता था और फिर लगभग आधा किलोमीटर सीधा चलने पर फिर बायां मुड़ना पड़ता था। इस अंतिम मुड़ने वाली जगह पर एक पंप घर जैसा कुछ कभी रहा होगा जो अब बंद पड़ा हुआ था। उसकी दीवार खाली थी और उस पर यह नहीं लिखा हुआ था कि स्टीक नो बिल्स। इसलिए उस दीवार पर टयूशन क्लासेस के पम्पलेट से लेकर सिनेमा के पोस्टर तक लगे रहते थे। एक तरह से कहिए वासुकी बाबू के घर की यह पहचान थी।
जब पूरा परिवार यहां आ गया तब वासुकी बाबू को थोड़ा आराम मिला। यह घर वासुकी बाबू को एक कैदखाने की तरह भले ही लगता हो परन्तु पूरे परिवार को कोई दिक्कत नहीं थी। सबको लगता था कि अब शहर में कोई बड़े घर में रहना संभव तो नहीं है। वासुकी बाबू को यहां अपनी बागवानी और अपने अमरूद के पेड़ की बहुत याद आती थी। यहां चापाकल नहीं था बल्कि नल लगा हुआ था इसलिए उनको नहाने में अब कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। लेकिन उनकी दिनचर्या बहुत अजीब हो गई थी।
सुबह उठकर वे नियम से टहलने तो यहां भी जाते परन्तु कोई ऐसी जगह नहीं थी जहां बैठकर चाय पी जा सके। धीरे-धीरे दोस्ती तो हुई लेकिन बैठने की कोई जगह नहीं मिल पाई। ऐसा नहीं था कि शहर में कोई पार्क नहीं था लेकिन पार्क इस मोहल्ले से बहुत दूर था और जहां पैदल टहलते हुए तो क्या तेजी से चलकर भी जाना संभव नहीं था। जब टहलने की आदत में लोगों से उनकी दोस्ती हुई तो उन्होंने जाना कि यह दुख सभी को था कि वे पार्क के इतने करीब नहीं रह रहे हैं कि वहां टहलने जाया जा सके। वासुकी बाबू जब अपने ताजा-ताजा छूटे गांव की कहानी सुनाते तो उनके सारे दोस्त नास्टेलजिक हो जाते।
वासुकी बाबू टहल कर आ जाते तब कुछ देर अपनी सुनहरी के साथ खेलते। सुनहरी के पास यहां फुदकने के लिए बहुत जगह नहीं थी। परन्तु वह बहुत उदास नहीं रहती थी। सुनहरी वासुकी बाबू की गोद में तब चढकर बैठ जाती जब वे अखबार पढ रहे होते। वासुकी बाबू देश-दुनिया की खबरों में अपराध और भ्रष्टाचार की खबरें पढकर दुखी हो रहे होते तो सुनहरी उनके दुख को कम करती। वासुकी बाबू को सबसे मुश्किल लगता शाम के समय को काटना। शाम में घूमने के लिए कोई साथी नहीं था। वे ऑफिस से निकलते तो टैम्पो लेकर घर पहुँचते। वे सब्जी ले कर आना चाहते थे लेकिन जहां टैम्पो वाला उतारता वहां से एक किलोमीटर दूर दक्षिण की दिशा में सब्जी की छोटी सी मण्डी थी। बेशक कभी मन करता तो वहां चले जाते अन्यथा थके होते तो छोड़ देते। दिन की दुपहरिया में ठेला लेकर रामवचन आता तो उनसे पत्नी सब्जी खरीदती एकदम अपने दरवाजे पर। वासुकी बाबू की पत्नी सब्जी खरीदती और उसे घुमा फिरा कर उसकी ताजगी की जांच करती। निराश होती और फिर सब्जी खरीद लेती।
शहर में परिवार को लाने के बाद वासुकी बाबू को कुछ दिन लगे पूरे परिवार को व्यवस्थित करने में। दोनों बच्चियों को यहां एडमिशन करवाना पड़ा। छोटी बेटी के लिए स्कूल का रिक्शा आता था। बड़ी बेटी का एडमिशन कालेज में हुआ और वह शहर में चलने वाली छोटी-छोटी बसों में सफर करती थी।
वासुकी बाबू के इस शहर में आने और पदोन्नति को स्वीकार कर लेने के बाद से बहुत सारे फायदे हुए। उनकी तन्ख्वाह बढ गई, उनका ओहदा बढ गया। वे दिन भर व्यस्त रहते। ऑफिस आना-जाना फिर घर की ढेर सारी जिम्मेदारियां। परन्तु वे इस शहर में कभी निश्चिंत नहीं रह पाते। घर से निकलते तो उन्हें पूरे दिन अपने घर की चिंता सताती। कारण था कि जिस मोहल्ले में रहते थे वहां कोई ऐसा नहीं था जिस पर वे भरोसा कर पायें। अगल-बगल के घर हों या फिर ऊपर के दोनों मंजिल के किरायेदार किसी से भी कोई खास बातचीत नहीं। वासुकी बाबू ने मेल-जोल बढाने की कोशिश की थी लेकिन किसी ने बहुत रुचि नहीं दिखायी। कभी घर से बाहर निकल गए तो कोशिश की कि अगल बगल वाले से बात कर लें परन्तु बात हाल-समाचार से आगे नहीं बढ पायी।
सुबह वासुकी बाबू अखबार के नगर संस्करण में रोज हत्या, छीना-झपटी की खबरें पढते और उनका मन डर जाता। बच्चे स्कूल जाते, कॉलेज जाते तो उनके मन में एक डर बैठा रहता। वे रोज ऑफिस से उनके लौट आने की खबर लेते तब जाकर कहीं उनको शांति मिलती। पत्नी कहती - ‘‘आप नाहक इतने परेशान रहते हैं।’’
बच्चे कहते ‘‘पापा आपको तो इस शहर से जैसे फोबिया हो गया है। शहर में भी तो लोग रहते हैं। आप क्यों इतने चिन्तित रहते हैं।’’
परन्तु वासुकी बाबू पत्नी को कहते - ‘‘आनन्दी ये बच्चे क्या जानें। दुर्घटना होने में बस एक क्षण लगता है और जिन्दगी बरबाद। इस शहर में कोई अपना नहीं होता। सब बस पैसों के पीछे हाय हाय करते हैं।’’
लेकिन इस शहर में बच्चे बहुत खुश थे। वे दो-चार बार पिता की इजाजत से मां के साथ सिनेमा हॉल में पिक्चर देख आये थे। कभी-कभार बाजार भी घूम लिया करते थे ये लोग। लेकिन मॉल में जो मल्टीपलैक्स था उसमें जाने की इजाजत बच्चों की जिद के बावजूद पिता नहीं दे पाये थे। एक सौ पचहत्तर रूपये की टिकट। यानि चार आदमी में छः सौ और फिर आना जाना। और फिर उसमें खाना-पीना हुआ तो। वासुकी बाबू कहते ‘‘उसमें फिल्म नहीं देखोगे तो क्या तुम्हारी जिन्दगी नहीं चलेगी। और देख लोगे तो क्या स्वर्ग चले जाओगे। चुपचाप मन लगा कर अपनी पढाई करो। शहर आ कर उसके रंग में उड़ने मत लगो।’’ फिर थोड़ा रुककर धीमे से उन्होंने कहा ‘‘सुनते हैं उसमें तो मक्के का भूंजा ही मिलता है अस्सी रुपये का। वह भी सौ ग्राम।’’
घर के आगे जो छोटा सा बरामदा था उसकी जो चहारदिवारी थी वह इतनी ऊंची थी कि अगर आदमी कुर्सी लेकर बैठे तो पूरी गहराई में धंस जाए और राह चलते आदमी को कुछ दिखे नहीं। वासुकी बाबू ने उस चहारदिवारी पर कुछ गमले रख दिये थे। गमले की देख रेख वे करते और यहां भी उन्हें ऐसा करने में सुनहरी उनका साथ देती। वासुकी बाबू कुर्सी पर खड़े हो कर गमले के पौधों की सिंचाई करते उनकी कंटाई-छंटाई करते। सुनहरी तब नीचे खड़ी उनको बस टुकुर-टुकुर देखती रहती। वासुकी बाबू एक दिन बाजार से एक सीनरी खरीद लाये जिसमें चारों तरफ हरियाली थी और उसी बीच में एक घर बना हुआ था और उस सीनरी की दायीं ओर एक बच्ची बैठी थी अकेली और उदास। वासुकी बाबू ने इसे अपने कमरे में लगाया जो उस घर का पहला कमरा था। वासुकी बाबू अक्सर उस तस्वीर को एकटक देखते और फिर उनकी उदासी उस बच्ची की उदासी में घुलने सी लगती।
पत्नी आनन्दी ने अपने पति की उदासी को देखा और उससे देखा नहीं गया। आनन्दी ने अपने पति से कहा ‘‘आप ज्यादा सोचा मत कीजिए नही तो एक दिन बीमार पड़ जायेंगे।’’
तब वासुकी बाबू ने उदास होकर कहा था ‘‘इस शहर में बहुत अजनबी जैसा हो गया हूं मैं।’’
पत्नी ने कहा ‘‘इतना सोचते हैं क्योंकि आप खाली हैं। अब आरती की शादी के लिए तो तैयारी कीजिए।’’ तब वासुकी बाबू को अचानक लगा कि अवसाद से निकलने का वक्त आ गया है।
परन्तु इस खबर के बच्चों के पास जाते ही उन्होंनें एक नया झमेला शुरू कर दिया। बच्चों की यह जिद पहले तो उन्हें बहुत अटपटी लगी कि हमारे पास भी एक गाड़ी होनी चाहिए, लेकिन आरती की जिद के आगे उन्हें घुटने टेकना पड़ा। जब वासुकी बाबू के सामने यह बात आयी तो एक बारगी लगा जैसे यह सोचा भी कैसे जा सकता है। ‘‘गाड़ी कोई मामूली चीज है क्या।’’ उन्होंने बच्चों को समझाने की पूरी कोशिश की। ‘‘और अगर ले भी लूं तो उसको मेनटेन करना क्या आसान बात है।’’ बच्चों के पास सारी बातों का जवाब तैयार था। ‘‘हम गाड़ी का कम इस्तेमाल करेंगे। सिर्फ तब जब हम कहीं सपरिवार एक साथ जायेंगे।’’ सवाल पैसे का आया तो उनका जवाब था ‘‘आप भी न पापा! कैसी बातें करते हैं। किस जमाने में रह रहे हैं आप। सब ईएमआई पर आ जाता है। अब कौन गाड़ी कैश में खरीदता है।’’ बच्चों को इतनी जानकारी कहां से मिली थी वासुकी बाबू सुन कर हैरान थे। लेकिन वासुकी बाबू टस से मस नहीं हो रहे थे। न तो वे ईएमआई के चक्कर में पड़ना चाहते थे और न ही गाड़ी खरीदने की ही हैसियत में वे अपने आप को देख रहे थे। उन्हें बार-बार लगता कि यह तो खर्च को सब दिन के लिए पालने वाली बात है, जबकि उनके माथे पर दो-दो बेटियों को बोझ है।
गाड़ी के सन्दर्भ में सबसे ज्यादा जिद आरती ने की ‘‘अब गाड़ी तो स्टेटस सिंबल है पापा। गाड़ी रहेगी तो रिश्ते भी अच्छे मिलेंगे।’’ यह आरती का ब्रह्मास्त्र था।
वासुकी बाबू यह तो समझते थे कि इस बड़े शहर में गाड़ी का अपना सुख है। लेकिन वे हिम्मत नहीं कर पा रहे थे। अभी जो भी उनके पास या पीएफ वगैरह में जमा पैसा था उसी से वे शादी निपटाना चाहते थे।
अंततः जिस बात पर सहमति बनी वह यह कि गाड़ी खरीदी तो जायेगी लेकिन सेकेण्ड हैण्ड। यह नया विकल्प भी आरती का ही था। वासुकी बाबू को लगा कि बच्चों की जिद के आगे झुकना तो पड़ेगा ही तो कुछ सरल सा रास्ता निकाला जाए। वैसे तो सैकेण्ड हैण्ड गाड़ी के लिए भी वासुकी बाबू पैसे के स्तर पर मन से तैयार नहीं थे परन्तु यहां समझौते का यह निम्नतम स्तर था।
एक महीने के भीतर एक मारूति ऑल्टो घर के आगे खड़ी हो गई। गाड़ी का कलर सिल्वर था। आगे बोनट पर आनन्दी ने सिन्दूर से स्वास्तिक बनाया और प्रीति ने झट से उसके अन्दर एक टैडी बीयर टांग दिया। एक खिलौना जिसके दोनों पैर अपने आप ही झूलते थे। गाड़ी चलती तो उस खिलौने का मुंह और पैर हिलते रहते।
गाड़ी चलाने में वासुकी बाबू को ज्यादा दिक्कत नहीं हुई क्योंकि उनके पास अपने गांव में ट्रैक्टर चलाने का अनुभव था। थोड़ा समय लगा लेकिन उनका हाथ जल्द ही साफ हो गया। वासुकी बाबू ने अपनी ड्राइविंग सीट पर एक ओरेंज कलर का तौलिया लाकर रख दिया।
गाड़ी जब घर पर आयी तो वासुकी बाबू सहित पूरे परिवार का सीना गर्व से फूल गया। वासुकी बाबू जिस घर से आते हैं उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि एक दिन उनकी जिन्दगी में ऐसा भी आयेगा कि उनके पास अपनी एक गाडी होगी। एकदम अपनी। जब पत्नी आनन्दी उस गाड़ी पर स्वास्तिक बना रही थी तब वासुकी बाबू भावुक हो गए थे। उनकी आखों के कोर भींग गए थे। उनके मन में तब अंकित हुआ था ‘‘अच्छे कर्मों का फल शायद अच्छा ही होता है।’’ उन्होंने अपनी पत्नी के करीब जा कर धीरे से बोला था ‘‘सोचा नहीं था कभी जीवन में कि अपनी गाड़ी होगी।’’ तब आनन्दी ने उनकी ओर एक आश्वस्ति भरी निगाह डाली थी। उस निगाह ने जैसे मौन रहकर ही कहा हो- ‘धन्यवाद’।
जब कभी वासुकी बाबू अपनी गाड़ी से निकलते तो सपरिवार। हाथ साफ होने के बाद पहली बार जब वासुकी बाबू गाड़ी लेकर शहर की तरफ निकले तब उन्होंने अपने परिवार को आइस्क्रीम खिलायी थी। बहुत दिनों तक वासुकी बाबू को गाड़ी को बैक करने में मुश्किल आती रही। वे गाड़ी को जब लेकर आते तो अपने दरवाजे पर दीवार से बहुत सटा कर नहीं लगा पाते। उनके मन के भीतर धुकधुकी होती। गाड़ी दीवार में सटाते हुए उन्हें मन में लगता कि गाड़ी दीवार में अब लगी कि तब। और इस चक्कर में शुरुआत में बहुत दिनों तक गाड़ी उनकी दीवार से थोड़ा हटकर सड़क पर थोड़ा ज्यादा ही खड़ी होती थी।
इस गाड़ी में पांच लोगों के बैठने की जगह थी। इस घर में सदस्य भी पांच ही थे। परन्तु सुनहरी अपनी जगह पर बैठती ही कहां थी। वह गाड़ी में बैठती कम फुदकती ज्यादा थी। वैसे उसकी सबसे प्यारी जगह थी गाड़ी की पिछली सीट के पीछे की जगह जहां स्पीकर लगा होता है। सुनहरी वहां बैठकर पीछे वाली शीशे से पूरी दुनिया को देखती रहती। दुनिया उसके सामने छूटती जाती तो उसे बहुत रोमांच होता। लेकिन वह कई बार गाड़ी मं फुदकती भी थी। हां लेकिन गाड़ी की आगे वाली जगह पर वह कभी भी नहीं जाती जहां से कि वासुकी बाबू को गाड़ी चलाने में दिक्कत होती।
आरती के कहे अनुसार गाड़ी के आने से स्टेटस सिबंल में कोई वृद्धि हुई या नहीं परन्तु हां वासुकी बाबू के छः-सात महीने के अथक प्रयास से आरती की शादी जरूर तय हो गई। वासुकी बाबू ने अपनी पूरी कोशिश की थी कि बेटी को अच्छा घर और अच्छा वर मिले इसके लिए उन्होंने जितनी उनकी हैसियत थी उससे आगे जाकर पैसा खर्च करने के बारे में सोचा था।
लड़का सरकारी दफतर में कलर्क था और शादी दस लाख रुपये में तय हुई थी। इन छः-सात महीनों में वासुकी बाबू लड़का ढूंढने के लिए बहुत भटके। लेकिन बात यही हुई कि बगल में छोरा और शहर में ढिंढोरा। काम आए ऑफिस के श्रीवास्तव साहब। लड़का जिससे बात पक्की हुई थी श्रीवास्तव जी के साले के बेटे थे। अपने हद तक श्रीवास्तव जी ने यह तो कहा कि चूंकि ऑफिस का मामला है तो सस्ते में मामला निपट जाना चाहिए। परन्तु साथ में उन्होंने यह भी कहा कि ‘लेकिन आप तो जानते ही हैं सहाय बाबू कि आजकल पैसों के सामने रिश्ता का कोई माइने नहीं है।’ रात भर हिल हुज्जत के बाद सुबह के नाश्ते पर जाकर बात फाइनल हुई। मांग पंद्रह की थी और साथ में चार पहिया एक गाड़ी। लेकिन इसे श्रीवास्तव जी का ही प्रभाव मानें कि बात दस और एक दोपहिया वाहन पर निपट गई। शादी की तारीख लगभग दो महीने के बाद की रखी गई। यह तय हुआ कि अभी दो-चार दिन में दो लाख देकर लड़के को रोक लिया जाए। और फिर आठ लाख तिलक पर देकर फाइनल कर लिया जाएगा।
वासुकी बाबू दस लाख रुपये कहां से लायेंगे यह बात उन्हें शादी तय करते वक्त भी महसूस हो रही थी परन्तु उन्होंने सोचा बेटी अच्छे घर जा रही है। आदमी और किसके लिए कमाता है अपने परिवार के लिए ही तो।
वासुकी बाबू जब से शहर आये हैं इस बात से दुखी रहने लगे थे कि यहां न चाहते हुए भी खर्च बढ गया है। गांव में जो पैसा आता था उसमें से वे बहुत सा जमा कर लेते थे परन्तु यहां कहां। लेकिन बिटिया की शादी तय होते ही उनके हाथ एकदम से रूक गए। उन्होंने फिर पैसों की फिक्र में भागा-दौड़ी शुरू की। पीएफ के पैसे से लेकर उनके पास जो जहां जमा पूंजी थी सबको उन्होंने अपने हिसाब में ले लिया। तब जा कर कहीं वे पैसा पूरा पाए।
इस शहर और इस मोहल्ले में आये हुए वासुकी बाबू को लगभग डेढ वर्ष हो गए होंगे। परन्तु चाहते हुए भी यहां बहुत सम्पर्क नहीं बन पाया। इसलिए जब उनके यहां इतनी बड़ी खुशी आ रही थी तब भी वे इस बात को उस मोहल्ले में किसी से साझा करने से बच रहे थे। शादी में कुछ लोग इस मोहल्ले से निमंत्रित होंगे ऐसा वासुकी बाबू जानते थे लेकिन वे सोचते थे कि वे शादी के और नजदीक आने पर ही इसे बाहर खुलासा करेंगे। वासुकी बाबू को एक डर इस शहर से भी था। उन्हें लगता था कि शादी विवाह के घर में तमाम सामान-पैसे होते हैं डरना तो चाहिए ही।
इस शहर में वे इस तरह अजनबी की तरह रहते थे कि अपने आॅफिस जाने के बाद के लिए उन्होंने अपने परिवार को सख्त निर्देश दे रखा था कि वे मुख्य दरवाजा किसी के लिए भी नहीं खोलें। चूंकि उनका घर ग्राउण्ड फ्लोर पर था इसलिए रोज एक-दो सेल्स मेन जरूर आते थे। कभी वाशिंग पाउडर बेचने तो कभी हेण्ड ग्राइण्डर बेचने। कभी आरओ की मांग को जरूरी बताने वाले आते तो कभी टूथपेस्ट पर आकर्षक आफर। पत्नी दरवाजा खोलती नहीं अपने जाली के दरवाजे से ही इन्कार में अपने चेहरे को ना में घुमाती और कहती ‘‘वे घर में तो हैं नहीं।’’ हद तो तब हो गई जब उस दिन दो औरतें बरतन चमकाने के लिए एक नया स्कीम ले कर आईं और आनन्दी ने उनके स्कीम को बहुत गहराई से विचार किए बिना ही कह दिया कि अभी वे घर में हैं तो नहीं। तब उन दो औरतों ने आनन्दी के मुंह पर ही कह दिया कि तो क्या बरतन वही मांजते हैं।
आनन्दी ने मजाक में पति के दफ्तर से लौटने के बाद बच्चों के सामने यह चुटकुला कह सुनाया तो वासुकी बाबू को बहुत बुरा लगा। उनके मन में आज फिर बहुत दिनों बाद कुछ अंकित हुआ ‘‘मेरी पत्नी भी अजीब तोतारटंत है।’’ लेकिन उनके पास इसका कोई हल नहीं था। उन्हें इस शहर पर विश्वास करने से बेहतर लगता था अपनी पत्नी की इन बेबकूफियों को झेल लें।
जब लड़के वाले वासुकी बाबू के घर आए तो उन्हें सचमुच सबसे ज्यादा गर्व अपनी गाड़ी पर ही हुआ था। उन्होंने सुबह सुबह उठकर अपने हाथों से गाड़ी को चमकाया था। गाड़ी दरवाजे पर खड़ी थी तो ऐसा लगता था कि उनके दरवाजे पर हाथी बंधा हुआ है। घर के भीतर घुसते और निकलते वक्त वासुकी बाबू ने अपनी कनखियों से लड़के के पिता के चेहरे को पढने की कोशिश की और पाया कि वहां एक अजीब तरह की खुशी थी, एक तरह का संतोष था। लड़के वाले चले गए तो वासुकी बाबू ने अपनी पत्नी ने कहा ‘‘देखो मेरी बेटी कितनी समझदार है। नब्ज को पहचान गई थी। दरवाजे पर गाड़ी खड़ी थी तो उन लोगों ने खूब भाव दिया।’’ वासुकी बाबू जब लड़के को रोकने के लिए गए थे तो अपनी इसी गाड़ी से गए थे। इसी गाड़ी से वे दो लाख रुपये वहां पहुँचा के आये थे।
वासुकी बाबू जब से शहर आये थे उनके मन के भीतर चैन नहीं था लेकिन इधर बहुत दिनों के बाद बेटी की शादी तय होने के बाद से उन्हें एक राहत सी मिली थी। अब इसे उनका इस शहर के प्रति अतिरिक्त किस्म का डर कहिये परन्तु वे इस शहर में इस शादी के ठीक ढंग से निपट जाने के लिए भी डरे रहते थे। वे अक्सर अपनी पत्नी से कहते ‘‘कौन है यहां अपना। वक्त पर कोई काम आने वाला नहीं है यहां। सब के सब अपने स्वार्थ में मरे जाने वाले अमानुष।’’
शादी का घर था इसलिए आये दिन खरीदारी चल रही थी। सोने की कीमत बढती जा रही थी इसलिए वासुकी बाबू ने सबसे पहले बेटी के लिए गहने बनवाये। कपड़ों की खरीदारी, बर्तन की खरीदारी आदि आदि। शादी के घर में सौ काम होते हैं। वासुकी बाबू ने अपने पीएफ वगैरह से लगभग पैसा इंतजाम कर लिया था। दहेज का सारा पैसा घर में था और उसकी चाबी हर वक्त वासुकी बाबू के पास। आये दिन बाजार से सामान लेकर दोनों आते थे लेकिन एक आदमी पूछने वाला नहीं। वासुकी बाबू कहते ‘‘अभी गांव में होते तो पूरे गांव में डंका बज गया होता।’’ यहां बगल का पड़ोसी भी नहीं पूछता कि आखिर क्यों हो रही है इतनी खरीददारी। पत्नी कहती ‘‘आपको तो अजीब समस्या है पूछता है तो आपको दिक्कत है कि क्यों पूछ रहा है कोई और कारण तो नहीं। और नहीं पूछता है तो पता नहीं यहां के लोग कैसे से तो हो गए हैं। पता नहीं आपको क्या हो गया है।’’ तब कई बार वासुकी बाबू भी सोचते थे कि वे सचमुच अजीब से होते जा रहे हैं। लेकिन उनका मन फिर कहता वे गलत नहीं सोच रहे हैं।
वह रात भी ऐसी ही कोई अफरा तफरी वाली रात थी। वासुकी बाबू अपनी पत्नी के साथ बाजार से लौटे तो बड़ी बेटी ने खाना बना रखा था। ऑफिस की कच-कच के बाद बाजार की थकावट। वासुकी बाबू बहुत थके हुए थे। खाना खाकर दस बजे के करीब सो गए थे। ऑफिस में अपनी फाइल को अधूरा छोड़ कर पत्नी के साथ बाजार गए थे। सुबह जल्दी जाकर उसे पूरा करना था। वासुकी बाबू बिस्तर पर गए, उस समय आनन्दी बर्तन मांज रही थी।
कोई आधी रात का समय होगा जब वासुकी बाबू को ऐसा लगा जैसे उनकी गाड़ी को कोई स्टार्ट कर रहा है। वास्तव में वे उस समय इस तरह की गहरी नींद में थे कि उन्हें लगा जैसे यह उनके मन का भ्रम है। लेकिन एक बार मन में खटका हुआ तो नींद उड़ गई। उठ कर बैठे तो पत्नी डर कर उठ कर बैठ गई कि कहीं तबीयत तो खराब नहीं हो गई।
‘‘अपनी गाड़ी की आवाज तुम पहचानती तो हो ना?’’ यह सवाल था। जगने के बाद वासुकी बाबू ने यह पहला वाक्य बोला था, जो सचमुच बहुत अजीब था। जबकि गाड़ी की आवाज अब वहां बिल्कुल भी नहीं थी। आनन्दी को लगा पता नहीं क्या हो गया है उन्हें।
‘‘अभी अपनी गाड़ी की आवाज आ रही थी।’’ इस वाक्य को वासुकी बाबू ने इतने धीमे से बोला जैसे चोर उनके कमरे में घुस आया है।
वे धीमे से पलंग से उतरे। चप्पल नहीं पहनी। रोशनी नहीं जलायी। मोबाइल की धीमी रोशनी में वे धीरे धीरे दरवाजे का ताला खोल कर बाहर आए। मोबाइल की उस धीमी रोशनी में भी उनकी निगाह सुनहरी पर पड़ी और सुनहरी फौरन एक जांबाज सिपाही की तरह उनके साथ हो ली। बाहर स्ट्रीट लाइट से रोशनी थी। बाहर की रोशनी देखकर उनका डर थोड़ा कम हुआ। बाहर सन्नाटा था। दूर कहीं से सिर्फ एक-दो कुत्तों के भौंकने की आवाज आ रही थी। दूर कहीं से एक टैम्पो की आवाज अभी अभी गुजरी थी। वासुकी बाबू ने बाहर की रोशनी में बाहर के लोहे वाले दरवाजे को खोला और वे धक्क से रह गए। गाड़ी वहां नहीं थी। वासुकी बाबू ने देखा कि गाड़ी वहां नहीं थी और गाड़ी की जगह बिल्कुल खाली थी। उन्होंने इस दृश्य को देखा और वहीं धम्म से बैठ गए। उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि बाहर उठ कर आने में पीछे पत्नी भी थी। पत्नी ने भी गाड़ी की खाली जगह को देखा और कुछ कहने की जरूरत नहीं हुई। उन्होंने अपने पति के कंधे पर हाथ रखा तब जाकर कहीं वासुकी बाबू को यह अहसास हुआ कि पीछे पत्नी भी है।
रात के कोई एक बज रहे थे। आनन्दी ने शोर मचाना ठीक नहीं समझा परन्तु उनकी समझ में एकबारगी यह नहीं आया कि वह अपने पति को यहां अकेला छोड़ कर बच्चों को जगाने जाए या यहीं से आवाज लगाये। लेकिन उन्होंने देखा कि दोनों बेटियां खुद ही दौड़ी वहां आ गईं। बेटियों ने हताश यह पूछा कि क्या हुआ। तब आनन्दी ने उन्हें बतलाया कि ‘‘गाड़ी चोरी हो गई।’’ बेटियों को मां की बातों पर अचानक विश्वास नहीं हुआ या यूं ही सामान्य रूप से उन्होंने गाड़ी की जगह को देखा। वहां गाड़ी नहीं थी, गाड़ी की जगह पर उसकी अनुपस्थिति थी। छोटी बेटी के मन में अचानक आया कि उस गाड़ी के साथ उसकी वह बचपन की डाॅल भी चली गयी। उसने अचानक उस डाॅल के रंग को अपने मन में याद करने की कोशिश की।
बड़ी बेटी और पत्नी ने आंखों ही आंखों में इशारा कर कुछ बातें कीं। दोनों के बीच तब कोई आवाज नहीं थी। और फिर दोनों ने वासुकी बाबू को उठाया और लगभग टांग सा लिया। कमरे की बत्ती जलायी गयी। पलंग पर वासुकी बाबू को लिटाना चाहा परन्तु वे उठ कर बैठ गए। उनकी आंखों में तब एक अजीब सी बेचैनी थी। छोटी बेटी पानी का गिलास ले आई। सुनहरी बहुत बेचैन थी। वह अंदर बाहर कर रही थी ऐसे जैसे घटना स्थल पर कुछ सूंघने की कोशिश कर रही हो। वासुकी बाबू ने प्रीति के हाथ से लेकर पानी का पूरा गिलास गले में उड़ेल लिया लेकिन उनकी बेचैनी कम नहीं हुई। गाड़ी चोरी हो गई इस तथ्य को वहां खड़े सभी लोग जान गए थे। परन्तु आगे क्या करना चाहिए यह कोई समझ नहीं पा रहा था।
वासुकी बाबू को शायद ज्यादा घुटन महसूस हो रही थी इसलिए वे लेट गए। पत्नी की घबराहट बढ गई, उसने अपने हाथ को वासुकी बाबू के माथे पर जाने दिया। परन्तु वासुकी बाबू अपनी पत्नी के हाथ के वजन को अपने माथे पर सहन नहीं कर पा रहे थे। फिर वे झटके से उठ कर बैठ गए।
‘‘मैं कहता था न इ जंगल है जंगल। सब सांप हैं यहां सांप।’’ वासुकी बाबू ने यह पहला वाक्य मुंह से निकाला। बेटियों को लगा सीधे न कहते हुए भी पिता उनकी ही बातों को काटने की कोशिश कर रहे हैं। बेटियों ने तब कहा था ‘‘शहर इतना भी बुरा नहीं होता है।’’
‘‘करैत सांप।’’ इस बार वासुकी बाबू के मुंह से निकले ये दो शब्द कांप रहे थे। उनकी आंखों के कोर भीग गए और एक-दो बूंद धीरे से चू भी गए।
‘‘सब बर्बाद हो गया आनन्दी। हम में से कोई नहीं बचेगा यहां।’’ आनन्दी सहित बच्चों को भी लगा अब ज्यादा हो रहा है। आनन्दी यह समझ नहीं पा रही थी कि एक गाड़ी का चोरी होना दुखद है लेकिन एक सैकेण्ड हैण्ड गाड़ी, जिसकी कीमत महज एक-सवा लाख है का जाना क्या वाकई इतना दुखद है।
लेकिन वासुकी बाबू के लिए यह गाड़ी के जाने से ज्यादा उनके डर की पुष्टि होना था। शहर के प्रति जिस अविश्वास की चादर वासुकी बाबू ने ओढ रखी थी आज वह प्रमाणित हो गया था।
‘‘अरे गाड़ी ही तो चोरी हुई जिन्दगी थोड़े ही न चली गई है जो आप इतना तनाव ले रहे हैं। शहर में पुलिस भी काम करती है। आप सुबह पुलिस को कमप्लेन कीजिएगा हमारी गाड़ी हमें जरूर मिल जायेगी। मुझे पूरा विश्वास है।’’ आनन्दी ने अपने पति को सिर्फ ढांढस बंधाने के लिए ऐसी बातें कही थीं।
‘‘पुलिस! पुलिस अगर काम करती तो हमारी गाड़ी चोरी ही क्यों होती।’’ वासुकी बाबू के मुंह से निकले हुए ‘पुलिस’ शब्द में काफी हिकारत का भाव था।
‘‘अब हमारी गाड़ी हमें कभी नहीं मिलेगी। हम अब फिर कभी गाड़ी खरीद नहीं पायेंगे।’’ वासुकी बाबू फफक से गए। उनके मन में तब वे सुहाने सफर जरूर घूम गए होगें जब वह अपने परिवार के साथ बाजार जाते थे। खिड़की से आती हवा के झोंके और सुनहरी का गाड़ी के भीतर यूं फुदकना।
‘‘ईश्वर पर विश्वास कीजिए। कुछ नहीं होगा। सब ठीक हो जायेगा।’’ ऐसा कहकर आनन्दी ने वासुकी बाबू को सुलाने की कोशिश की।
हालांकि वासुकी बाबू को पुलिस पर तनिक भी विश्वास नहीं था परन्तु यह निर्णय लिया गया कि सुबह बच्चियों के स्कूल-कालेज जाने के बाद वासुकी बाबू थाने में जाकर इसकी रिपोर्ट लिखा आयेंगे।
वासुकी बाबू के बिस्तर पर लेटने के बाद पत्नी अंधेरा करने लगी तो उन्होंने आपत्ति की परन्तु पत्नी ने कहा नींद अच्छी आयेगी। बिस्तर पर वासुकी बाबू बहुत देर तक इधर-उधर करवट बदलते रहे। नींद नहीं आ रही थी। उनकी आंखें बंद थीं। कमरे में घुप्प अंधेरा था। उन्होंने उस घुप्प अंधेरे में देखा कि ढेर सारी गाडि़यां चल रही हैं हर तरफ चिल्ल पों मची हुई है बहुत सारे लोग जो इधर जा रहे हैं उधर जा रहे हैं। ठीक उसी समय दृश्य में थोड़ा बदलाव होता है। अब दृश्य में एक सात-आठ साल का बिछुड़ा हुआ बच्चा है जो रो रहा है। उस भीड़ में जो कोलाहल है उसमें उस बच्चे के रोने को कोई सुन नहीं पा रहा है। फिर वह बच्चा बदहवास उस सड़क पर अचानक दौड़ने लगता है। इधर से उधर से गाडि़यां आ रही हैं और बच्चा बदहवास दौड़ रहा है।
वासुकी बाबू की आंखें खुल गईं। उन्होंने महसूस किया कि उनके कान के नीचे से पसीने की बूंदें चूं रही हैं। उनका पूरा शरीर पसीने से लथपथ है। महसूस किया कि पत्नी बगल में सो रही है। उन्होंने पत्नी की तरफ मुँह करके अचानक कहा ‘‘प्रीति जिस रिक्शे से स्कूल जाती है उसका सुबह कोई प्रूफ ले लेना। कहां रहता है कोई खबर तो हो हमारे पास। उसका नंबर तो है ना तुम्हारे पास।’’ पत्नी ने नींद में से ही झांक कर कहा ‘‘हां सुबह सब ले लूंगी।’’
लेकिन वासूकी बाबू चुप नहीं हुए ‘‘सुनहरी बहुत कोमल है उसे कहीं चोट न लग जाए। उसे बाहर मत जाने दिया करो।’’
अब यह सब वासुकी बाबू नींद में कह रहे थे या होश में पता नहीं परन्तु पत्नी नींद में यह महसूस करती रही कि वे बहुत देर तक इस तरह की बातें बड़बड़ाते रहे।
कई बार बहुत तनाव में थककर नींद भी अच्छी आती है। वासुकी बाबू सोये तो एकदम बेसुध। हर रोज वासुकी बाबू घर में सबसे पहले जगते थे। मुंह हाथ धोकर फ्रेश होकर धूमने जाते थे। घूमकर आते तब तक अखबार आ जाता। उनके आने के बाद छोटी बेटी स्कूल के लिए तैयार होकर निकलती।
परन्तु आज वासुकी बाबू की नींद देर से खुली। नींद खुली तो रसोई घर में बच्चों के लंच बाक्स की तैयारी चल रही थी। पत्नी के अलावा बड़ी बेटी भी लगी हुई थी। ऐसा लगा सब जल्दी जल्दी कर रहे थे। वासुकी बाबू ने इतना तो समझ लिया कि आज सभी लोग देर से उठे हैं इसलिए यह अफरातफरी है। छोटी बेटी स्कूल के लिए तैयार हो रही थी। वासुकी बाबू कमरे से बाहर आए तो पत्नी को अच्छा लगा। लेकिन सच यह है कि वासुकी बाबू के सर में अभी दर्द था। चूंकि देर हो चुकी थी इसलिए वासुकी बाबू आज फ्रेश होने से पहले अखबार लेने बाहर की ओर चल दिये। अखबार दरवाजे के भीतर फेंका हुआ था। बाहर आकर वासुकी बाबू को इतनी बात समझ में तो आ गई कि सो कर जगने के बाद अभी तक किसी को बाहर निकलने तक का समय नहीं मिला है क्योंकि मुख्य दरवाजे का ताला अभी तक बंद था।
वासुकी बाबू ने झुक कर अखबार उठाया और चल दिये। लेकिन पता नहीं क्यों एक बार फिर उनको अपनी गाड़ी की अनुपस्थिति को देखने की इच्छा हुई। वे आगे बढकर दरवाजे के पास आए और ताला बन्द दरवाजे से बाहर की ओर झांका और वे चौंक गए। बाहर गाड़ी की अनुपस्थिति नहीं गाड़ी थी। उनकी गाड़ी ठीक उसी जगह पर लगी हुई थी जहां पर लगी होनी चाहिए थी।
वासुकी बाबू को अपने आप पर अविश्वास हुआ। उन्होंने दरवाजे में थोड़ा ज्यादा ही सटकर गाड़ी को देखा, गाड़ी वाकई वहीं खड़ी थी। अब उनको एकबारगी लगा कि कहीं उन्होंने रात में गाड़ी गुम हो जाने का सपना तो नहीं देख लिया था। अचानक उनके दिमाग में रात की सारी घटनाएं क्रमवार दौड़ गईं। उनको लगा वे पागल हो जायेंगे। यह इस मायावी शहर का कौन सा मजाक है। उन्होंने बगैर अगल बगल की चिंता किए जोर से पत्नी को अवाज लगा दी। पत्नी को रात की घटना याद थी इसलिए वे रसोई घर से बदहवास दौड़ कर आई। पत्नी ने उन्हें स्वस्थ लेकिन अचंभित देखा। वासुकी बाबू ने आनन्दी का हाथ पकड़ा और दरवाजे में सटा कर गाड़ी की जगह पर गाड़ी को दिखाया। आनन्दी को पहले लगा कि पता नहीं क्यों गाड़ी की अनुपस्थिति को वे बार-बार दिखाना चाहते हैं परन्तु वह भी गाड़ी की अनुपस्थिति की जगह पर गाड़ी को देखकर चौंक गई।
बच्चियों को जब खबर लगी तो एक उत्सव सा माहौल हो गया। बच्चियों ने स्कूल-कालेज जाने का निर्णय छोड़ दिया। वासुकी बाबू ने दरवाजे की चाबी मंगवायी। वे अपनी गाड़ी को अंदर से देखकर उसे छू कर उसे महसूस करना चाहते थे। दरवाजे खुलने के बाद छोटी बेटी ने सबसे पहले अपनी डॉल को देखा,डॉल सुरक्षित थी, उसे राहत महसूस हुई। वासुकी बाबू ने सबसे पहले अपनी गाड़ी को अपनी गोद में भर लिया। फिर दरवाजे में चाबी घुसाकर घुमाया और दरवाजा खुल गया।
दरवाजा खुलते ही वासुकी बाबू चौंक गए। ड्राइविंग सीट पर एक रंगीन प्रिंटेड लिफाफा, एक कागज जिसे आप पत्र जैसा कुछ कह लें उसे आधा आधा से दो बार मोड़ कर रखा गया था। कागज दूसरी बार के मोड़ से आधा खुला हुआ था उसी के बीच एक लाल गुलाब का फूल रखा हुआ था। लाल गुलाब के फूल में एक लम्बी डंडी लगी हुई थी। वासुकी बाबू ने सबसे पहले उस गुलाब को उठाया और महसूस किया कि उस डंडी में एक भी कांटा नहीं था यानि उसे करीने से छील कर रखने लायक बनाया गया था। वासुकी बाबू के पीछे उनका पूरा परिवार था जो यह सब देखकर भौंचक था लेकिन वासुकी बाबू इस तरह बाहर कुछ भी अजीब सा करना चाह नहीं रहे थे इसलिए वे उस सीट पर रखे हुए सामान को उठाकर अंदर आ गए। फिर उन्होंने सबसे पहले उस पत्र को जोर जोर से पढा ताकि उनके साथ साथ उनका पूरा परिवार भी सुन सके। पत्र शुद्ध हिन्दी में था और कुछ यूं था-
महोदय,
सबसे पहले मैं अपनी हिमाकत के लिए आपसे माफी मांगता हूं। मेरे कारण जो आपको परेशानी हुई मै समझ सकता हूं कि उसके लिए माफी की कोई गुंजाइश होनी नहीं चाहिए। और इस बड़े शहर में जहां आज विश्वास सबसे बड़ा सवाल बन गया है वहां इसकी मांग करना तो और भी अजीब है। परन्तु मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप मेरी परेशानी को सुनकर मुझे माफी के योग्य जरूर समझेंगे।
मैं आपके मोहल्ले या कह लीजिए कि आपके आस-पास का ही रहने वाला हूं। मेरी मां अस्थमा की मरीज है और कल रात के बारह साढे बारह बजे के करीब मेरी मां को अस्थमा का अटैक पड़ा उनकी सांसे लगभग अटक सी गईं। उन्हें सांस लेने में अचानक बहुत दिक्कत हो गई। आप विश्वास कीजिए वह अपने बिस्तर पर एक-एक हाथ उछल रही थी। उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाना बहुत जरूरी था। और मेरे पास कोई साधन नहीं था। और आप तो इस शहर का हाल जानते हैं इस आधी रात को न कोइ टैक्सी न ही कोई टैम्पो। इसलिए मुझे आपकी गाड़ी का इस्तेमाल इस कठिन समय में करना पड़ा।
मैं मानता हूं कि नियम और कानून के आधार पर यह गलत है और शायद मैं इसलिए अपनी पहचान छुपा भी रहा हूं। परन्तु इंसानियत के हक से मैं आपसे माफी चाहता हूं। आपकी गाड़ी की बदौलत ही आज मेरी मां जिंदा है और अभी हॉस्पिटल में सुधार की ओर अग्रसर है। अप्रत्यक्ष रूप से ही लेकिन आपका यह मेरे ऊपर किया गया बहुत बड़ा उपकार है। जिसे मैं ताउम्र भूल नहीं सकता हूँ।
यह गुलाब का फूल अपनी माफी के लिए पेश कर रहा हूं। इस गुलाबी लिफाफे में सिनेमा के चार टिकट हैं। इसे आप मेरी गलतियों के बरक्स उपहार समझें। इसे आप स्वीकार करेंगे तो लगेगा जैसे आपने मुझे माफ कर दिया।
- आपका एक भरोसेमंद पड़ोसी
चिट्ठी खत्म करने के बाद वासुकी बाबू ने गुलाब फूल की तरफ तिरछी निगाह डाली और फिर उस गुलाबी लिफाफे में से सिनेमा के टिकट बाहर निकाले। उस लिफाफे में आज की नाइट शो के मल्टीपलैक्स के चार टिकट थे। 9.30 से 12.30 के। बच्चियों ने मल्टीपलैक्स के टिकट को देखा तो उनकी बांछें खिल गईं। जब से वे इस शहर में आये थे तब से उनकी हसरत थी कि इस मल्टीपलैक्स में फिल्म देख आयें परन्तु पिता कभी इस बात के लिए राजी नहीं हुए। ये मल्टीपलैक्स उनकी ख्वाबों में पल रहे थे।
‘‘देखा पापा शहर इतना भी बुरा नहीं होता है जितना आप सोचते हैं।’’ यह आरती थी।
‘‘यहां भी लोग ही रहते हैं। और लोग कहीं भी अच्छे और बुरे हो सकते हैं। ’’ यह भी आरती ही थी और यह उसकी दलील थी।
‘‘ठीक कह रही हो। पता नहीं रात भर में मैंने क्या क्या नहीं सोच लिया। मेरी भी लगता है अब उम्र होती जा रही है।’’ पहली बार वासुकी बाबू ने इस शहर पर एक अच्छी राय व्यक्त की।
‘‘मैं सठियाता जा रहा हूं क्या ?’’ वासुकी बाबू ने पत्नी से सवाल पूछा। और पत्नी ने इसका जवाब हां में दिया।
‘‘चलो सब अच्छा हो गया। हम और हमारी गाड़ी शहर में किसी के काम तो आये। बेचारे ने अफरातफरी में गाड़ी का इस्तेमाल किया तो माफी भी मांगी।’’ वासुकी बाबू का मन इस शहर, यहां की जिन्दगी और यहां के लोगों को लेकर साफ हो रहा था।
‘‘जब माफी मांग ही ली तो नाम और पहचान बता ही देता कम से कम हमें पता तो चल जाता कि माता जी की तबीयत अब कैसी है।’’ आनन्दी ने वासुकी बाबू की तरफ देख कर कहा।
‘‘नहीं देखो डर तो लगता ही होगा कि हम कहीं नाराज न हो जायें। लेकिन हां तुम ठीक ही कह रही हो ध्यान तो लगा ही रहेगा। वैसे पत्र में लिखा तो है कि अब काफी सुधार है।’’ वासुकी बाबू ने उत्तर दिया। और इस उत्तर से आनन्दी को काफी राहत मिली।
इस पूरे घटना क्रम के समय सुनहरी वहीं टेबल पर चुपचाप बैठी थी और सारी बातों को ध्यान लगा कर सुन रही थी। वासुकी बाबू बात को खत्म करते हुए सुनहरी की तरफ मुखातिब हुए ‘‘अब तुम फिर से गाड़ी में खूब धमाचौकड़ी मचाना मेरी सुनहरी दीदी।’’ और फिर सुनहरी यह सुनकर चहकने लगी।
खैर इस प्रकरण का अंत इस निर्णय के साथ हुआ कि शाम को जल्दी खाना बना कर रख दिया जायेगा ताकि जब रात को फिल्म देखकर वापस आयें तो खाना बनाने का झंझट नहीं रहे।
शाम को जब वासुकी बाबू लौटे तो इस शहर को प्यार करते हुए लौटे। आज उन्होंने अपने झोले से जब पिज्ज़ा का एक पैकेट निकाला तो घर के सारे सदस्य भौंचक रह गए। उस परिवार के लिए यह जीवन का पहला पिज्ज़ा था।
‘‘अरे पता नहीं इसको कैसे खरीदते हैं, उस परचे में कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। मुझे तो बस टोमेटो पता था इसलिए मैंने बस वही ले लिया।’’ उनके चेहरे पर तब एक गजब का भोलापन था जिसे बच्चों ने खूब प्यार किया।
‘‘जाकर देखो कितनी भीड़ होती है ऐसी दुकानों पर, लोग कई-कई पैकेट एक साथ ले जा रहे थे।’’
लेकिन दूसरा आश्चर्य तब हो गया जब वासुकी बाबू ने अपने झोले से एक दो लीटर वाली पेप्सी की बोतल भी निकाल दी। पूरे परिवार के लिए यह एक बेहतरीन और यादगार शाम थी। वासुकी बाबू ने कहा ‘‘यह हमारी प्यारी गाड़ी के वापस मिलने और एक मजबूर आदमी की ईमानदारी के नाम है।’’
मल्टीप्लैक्स की चमक दमक, वहां की व्यवस्था और बेहतरीन समतल पर्दे देखना उस परिवार के लिए एक सपने के पूरा होने जैसा हो गया। हॉल में गूंजने वाली आवाज ने बच्चों के मन को सातवें आसमान पर ला खड़ा किया।
सिनेमा हॉल के भीतर की चमक और गूंजती आवाज ने यह महसूस नहीं होने दिया परन्तु वासुकी बाबू परिवार सहित जब बाहर आये तब उन्हें लगा कि रात गहरी हो चुकी है और इस इतने बड़े शहर में भी एक सन्नाटा पसर चुका है। रास्ते पर स्ट्रीट लाइट लगी हुई थी इसलिए रोशनी की कमी नहीं थी। हां दुकानें बन्द हो चुकी थीं और गाडि़यों की संख्या और भीड़भाड़ में आश्चर्यजनक रूप से कमी आ गई थी। वासुकी बाबू ने गाड़ी चलाते हुए कहा ‘‘यह सन्नाटा भी अजीब चीज है, जब नहीं होता है तब हम उसे ढूंढते हैं लेकिन जब होता है तब हम उससे डरने लगते हैं।’’ लेकिन उनका पूरा परिवार अभी फिल्म की खुमारी में था इसलिए उन्होंने कोई जबाव नहीं दिया। गाड़ी में चूंकि सुनहरी नहीं थी इसलिए यहां शांति कुछ ज्यादा ही थी। फुदकती हुई सुनहरी घर में थी, घर अकेला नहीं था।
वासुकी बाबू ने जब मुख्य सड़क को छोड़ कर अपने मोहल्ले में प्रवेश कर लिया तब निरंतर रोशनी में कमी होती चली गई। जब उन्होंने अपनी गली में प्रवेश किया तब लोगों के घरों के बरामदे में जल रही छोटी-मोटी रोशनी के अलावा गाड़ी की हेडलाइट का ही सहारा रह गया। लेकिन गाड़ी की उसी हेडलाइट में वासुकी बाबू को अपने घर तक पहुंचते ही सबसे पहले दिखा मुख्य दरवाजे का टूटा हुआ ताला और वे सन्न से रह गए। गाड़ी को लगभग बीच सड़क पर ही खड़ी कर गाड़ी से उतर कर वे घर की तरफ दौड़ पड़े। अब तक में कुछ गड़बड़ी का अंदेशा पूरे परिवार को हो चुका था इसलिए आगे पीछे वे भी भाग कर घर की तरफ दौड़े।
वासुकी बाबू ने बाहर बरामदे पर उदास सुनहरी को देखा। सुनहरी जिसे उन्होंने घर के भीतर बन्द किया था के बाहर होने से इतना तो साफ हो गया था कि घर का दरवाजा भी टूट चुका है।
वासुकी बाबू जब तक घर के भीतर पहुंचे तब तक उनका पूरा परिवार भी कमरे में आ चुका था। पूरा घर तहस-नहस था। सुनहरी यहां वहां बचैन सी घूम कर पूरी घटना को बयां करना चाहती थी। वह वहां-वहां जा रही थी जहां जहां से सामान को ढूंढा और लूटा गया था। उसकी बेचैनी उस वक्त देखने लायक थी। ऐसा लगता था जैसे उसके सामने यह सब हुआ और वह कुछ कर नहीं पायी।
वासुकी बाबू ने चूंकि पूरा माजरा समझ लिया था इसलिए वे बीच कमरे में कुर्सी पर बैठ गए थे। आनन्दी ने यहां वहां चक्कर लगाया। सुनहरी बार बार उनके सोने वाले कमरे के बेड का चक्कर लगाती रही तो आनन्दी ने उसे खोला। सब सामान जस का तस था लेकिन उसमें रखे गए सोने के सारे गहने वहां नहीं थे। सोने के सारे गहने, वे गहने भी जो अभी अभी उन्होंने अपनी बेटी के लिए बनवाये थे। सुनहरी बीच वाली खाली जगह में रखी हुई अल्मारी के चक्कर लगाती रही तो आनन्दी ने देखा कि वहां से सारी मंहगी साडि़यां भी गायब हैं। आनन्दी ने बेटी को देने के लिए कई बनारसी और सिल्क की मंहगी साडियां बहुत शौक से खरीदीं थीं।
वासुकी बाबू को जिस बात का डर था और जिस कारण से उनके उठने की हिम्मत नहीं हो रही थी वहां तक पहुंचने में उन्होंने थोड़ा वक्त लिया। उन्होंने बेटी के दहेज के बचे हुए रुपये छः लाख में से पांच लाख रुपये इक्टठा कर के अपने घर में रख रखे थे। थोड़ी देर तक वासुकी बाबू ने अपने मन को समझाया कि उन्होंने अपनी बहुत शातिरपने के साथ उन रुपयों को जहां रखा है वहां तक पहुंचना शायद उनके लिए संभव न हो पाया हो। लेकिन सुनहरी बार-बार उनके कमरे की तरफ बेचैन सी भागा-दौड़ी कर रही थी तो वासुकी बाबू के मन में डर का बैठना लाजिमी था। वासुकी बाबू ने अपने कमरे में इतने रुपये रख रखे हैं यह उनके अलावा घर में कोई भी नहीं जानता था।
वासुकी बाबू का कमरा पहला ही कमरा था। उस कमरे में एक किनारे एक बेड था और ठीक उसकी दूसरी ओर एक छोटा सा टेबल। वह टेबल एक तरफ से दीवार से सटी हुई थी और बाकी तीन तरफ से वह तीन कुर्सियों से घिरी हुई थी। बाहर वाली दीवार पर बड़ी सी खिड़की थी जो उनके उस अहाते की तरफ खुलती थी जिधर उन्होंने गमले लाकर रखे थे और जिधर वे कभी कभार शाम को कुर्सी लगाकर बैठा करते थे। उस खिड़की के ठीक सीध में उनका बिस्तर था। गर्मी के समय में वासुकी बाबू उस खिड़की को खोलकर सोते थे जिससे सीधी हवा उनके बेड पर आती थी। उस खिड़की के ठीक विपरीत वाली दीवार पर दीवार में बने हुए खाने थे। ये खाने नीचे जमीन से लेकर ऊपर छत तक थे। नीचे का खाना बड़ा था और फिर छोटे छोटे। ऊपर का खाना भी बिल्कुल खुला हुआ था एकदम छत में सटा हुआ। ऊपर वाले खाने की ऊंचाई आदमी की सामान्य ऊंचाई से ज्यादा थी इसलिए उसमें सामान रखने और निकालने के लिए कुछ ऊंचाई का बंदोबस्त करना पड़ता था। बीच के छोटे छोटे खानों में कुछ किताबें रखी हुई थीं। कुछ धर्म की और कुछ प्राकृतिक चिकित्सा की। इन खानों के सबसे ऊपरी वाला खाना जो ऊपर छत तक खुली हुआ था में ब्रास के पांच गमले रखे हुए थे जिसमें कृत्रिम लेकिन बहुत जीवंत फूल और पौधे लगे हुए थे। फूल की पंखुडि़यों पर पानी की कुछ कृत्रिम बूंदें थीं और कई जगहों पर कृत्रिम भंवरे भी। उन खानों वाली दीवार के ठीक सामने वाली जो खिड़की थी वह जब खुलती थी तब ब्रास के वे गमले और उन गमलों के फूल पर पानी की बूंदें चमकती थीं। वासुकी बाबू ने अपने पीएफ से लोन लेकर और अपनी सभी जमा पूंजी को निकालकर हजार-हजार के नोट की पांच गड्डियां बनवायी थीं जिन्हें उन्होंने इन्हीं गमलों के भीतर फूल और पौधों के नीचे पालीथीन में लपेट कर रख दिया था।
वासुकी बाबू जब बदहवास अपने उस कमरे में दौड़ कर इन रुपयों की सलामती देखने आये तो उन्होंने देखा कि वे गमले बिल्कुल करीने से जस के तस रखे हुए थे। ऐसा देखकर उन्हें काफी सुकून मिला और अपने शातिरपने पर थोड़ी देर के लिए बहुत गर्व हुआ। लेकिन सुनहरी बहुत बेचैन थी। तब आश्वस्ति के लिए उन्होंने टेबल को खींच कर उस खाने तक पहुंचने की कोशिश की। उनकी पत्नी उनको भौंचक देख रही थी। सुनहरी बार बार उस टेबल पर फांद रही थी। वासुकी बाबू ने एक-एक कर पांचों गमले नीचे उतारे पांचों गमले हल्के थे। उनमें उन कृत्रिम फूलों और पौधों के अलावा अब कुछ भी नहीं था। एक-एक गमले से रुपये निकालकर उन गमलों को करीने से ठीक वहीं पर सजा दिया गया था।
‘‘गमले के फूलों को क्या देख रहे हैं आप? सोना, साड़ी कुछ भी नहीं छोड़ा। अब कैसे होगी मेरी बेटी की शादी।’’ आनन्दी के इस सवाल में जबाव भी था।
लेकिन वासुकी बाबू चुप रहे।
‘‘क्या हुआ?’’
वासुकी बाबू फिर भी चुप रहे।
‘‘अरे क्या हुआ कुछ तो बोलिए।’’ आनन्दी ने उन्हें झकझोर कर कहा।
‘‘अब नहीं होगी आरती की शादी। इस गमले में फूल नहीं पैसा ढूंढ रहा हूं मैं।’’ वासुकी बाबू एकदम से फक्क थे।
‘‘गमले में पैसे आए कहां से और कितने थे।’’ आनन्दी को आश्चर्य हुआ।
‘‘पांच लाख रुपये। मैंने देने वाले सारे पैसे इक्ट्ठा करके इसी में तो रखे थे।’’
इतना तो तय था कि जिस हिसाब से सामान ले जाया गया था वह किसी एक आदमी का काम नहीं था। लेकिन चूंकि सारा वही सामान ले जाया गया था जो काफी मंहगा था इसलिए ऐसा लग रहा था कि वे बहुत ही सभ्य तरीके से आये होंगे। सभ्य तरीके यानि अपनी गाड़ी से आये होंगे और अपनी गाड़ी में सारे सामान को भर कर ले गये होंगे।
वासुकी बाबू अपने वाले कमरे में ही थे जहां से रुपये गायब हुए थे। वहीं से उन्होंने देखा कि जो बीच वाली जगह है उस पर एक कागज का टुकड़ा फड़फड़ा रहा है। यह वही टेबल था जिसकी कुर्सी पर बैठकर उस दिन गाड़ी गुम होने का गम वे मना रहे थे। और यह वह टेबल था जिस पर उन्होंने गुलाबी लिफाफा जिसमें सिनेमा के टिकट थे को रखा था और गुलाब का फूल रखा था। वे वहां से उठकर आए और उस कागज को रोशनी के ठीक नीचे ले गए। उस कागज पर सिर्फ चंद पंक्तियां लिखी हुई थीं।
‘‘आशा है आपने सपिरवार सिनेमा का पूरा लुत्फ उठाया होगा। हां मल्टीप्लैक्स में फिल्म देखने का मजा ही कुछ और है। लेकिन इतना अवश्य समझिये जनाब कि यह चमक-दमक यह भव्यता सब छद्म है। सब धोखा है।’’
यह कहानी यहां खत्म होती है। फिर उस परिवार का क्या हुआ? आरती की शादी हुई या नहीं? अगर हुई तो कैसे? और अगर नहीं हुई तो फिर वासुकी बाबू ने फिर से इतने पैसे कब तक में जुटाए? इस धोखा और फरेब के बाद वासुकी बाबू का परिवार शहर में आगे रह पाया या नहीं? या इस इतने बड़े आघात के बाद वासुकी बाबू अपनी मानसिक स्थिति ठीक भी रख पाये या नहीं। आदि आदि। इन सब सवालों के जवाब यहां नहीं दिये जा सकते हैं। हां अगर कभी इस कहानी की सिक्वल लिखी गई तो इन सवालों के जवाब उसमें दिए जायेंगे, यह तय है।
कहानी में हिदायत के रूप में आती हैं दो बातें -- अब इसे कहानी के अतिरिक्त की ही दो बातें कहें। परन्तु वास्तव में ये दो बातें इसी कहानी की दो कमजोर कडि़यां हैं या कहें असावधानी की मिसाल। कहानी पढते हुए इन दो बातों पर आपका भी ध्यान अटका होगा और अटकना भी चाहिए।
ये दो बातें उस समय की हैं जब वासुकी बाबू की गाड़ी वापस आई और उनका पूरा परिवार अतिउत्साह में आ गया था। हम यह मानकर चलें कि ऐसा करने वाले एक से अधिक थे। तब सवाल उठता है कि वासुकी बाबू अतिउत्साह में इस बात पर ध्यान नहीं दे पाये कि अगर उन लड़कों को अपनी मां को या कहिए बीमार को अस्पताल ले जाने के लिए इतनी जल्दी थी कि वे कोई और सवारी ढूंढ नहीं पाया तब वे इतनी जल्दी इस गाड़ी की चाबी की व्यवस्था कैसे कर पाये।
सवाल दूसरा यह है कि जब वे साढे बारह-एक बजे रात में गाड़ी लेकर गये और सुबह पांच-छः बजे तक गाड़ी वापस कर गये तब आखिर उनके पास इसकी फुर्सत कब और कैसे मिली कि उन्होंने मल्टीप्लैक्स के टिकट खरीद लिए।
ये दो सवाल इस कहानी के वे कमजोर बिन्दू हैं जिन पर अगर वासुकी बाबू के परिवार ने अतिउत्साह को छोड़कर ध्यान दे दिया होता तो शायद आज यह घटना नहीं घटती।
यूं तो यह कहानी यहां खत्म हो चुकी है परन्तु कल्पना के स्तर पर यह सोचा जा सकता है कि इस इतनी बड़ी घटना के बाद उस घर का क्या हुआ होगा। हां यह अवश्य बता दे रहा हूं कि यह इस कहानी का हिस्सा नहीं है इसे सिर्फ यहां कल्पना के सहारे विस्तार दिया जा रहा है।
यह उस घटना के बाद वाली सुबह है। वासुकी बाबू के परिवार ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाने के बारे में कुछ भी नहीं सोचा। सुबह जब वासुकी बाबू घर के बाहर निकले तब दिन एकदम सामान्य था। धूप गुनगुनी थी। सूरज पूरब से निकल गया था और और वह लाल गोले की तरह लग रहा था। गली में कई बच्चे तैयार होकर अपने स्कूल रिक्शा के इंतजार में खड़े थे। एक रिक्शा गली के मोड़ पर अंदर आता हुआ दिख रहा था।
लोगों की गाडि़यां गली में खड़ी थीं जो काफी अलसायी हुई थीं। गाडि़यां इस बात का इंतजार कर रही थीं कि उनको नहलाया जाए तो थोड़ा आलस उतरे। वासुकी बाबू ने देखा कि उनकी गाड़ी भी अलसायी हुई अपनी जगह पर खड़ी थी। उन्होंने भी थोड़ी देर तक अपनी गाड़ी को अलसायी और निराश निगाह से देखा, फिर उनकी आंखें थक गईं। वे अपने हाथ को अपने चेहरे पर ले गये और अपने चेहरे की थकान को उतार देना चाहा। उन्होंने अपने हाथ से अपने चेहरे को लगभग निचोड़ सा दिया। हाथ हटाया आंखें खुलीं तो अचानक ऐसा लगा जैसे गाड़ी फिर से वहां नहीं है। उन्हें लगा कि वहां गाड़ी नहीं फिर से गाड़ी की अनुपस्थिति है। अचानक उनके मन में आया कि अब इस तिजोरी की चाबी किसी और के पास भी है।
उन्होंने वापस होते हुए देखा अगल बगल के सारे घर, सारे लोग सामान्य थे। सबकुछ ऐसा ही चल रहा था जैसा तब तक चल रहा था जब तक यहां कुछ हुआ नहीं था। ऊपर के दो फ्लोर पर रहने वाले परिवार भी अपनी जिन्दगी में लगे हुए थे। सब जगह शांति थी। कहीं कोई हलचल नहीं थी।
यहां कहीं कुछ हुआ है इसकी खबर किसी को नहीं थी। किसी को भी नहीं।
(उमा शंकर चौधरी की यह कहानी नया ज्ञानोदय के दिसम्बर 2013 अंक में प्रकाशित हुई है.)
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उमा शंकर चौधरी
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(कहानी के बीच प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)
kahani achi he. vishye bhe samkaleen he parntu kutch jyada lambi ho gye he. Manisha jain
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