परांस-3
धरती को हृदयाघात से नहीं, हृदयहीनों से खतरा है
कमल जीत चौधरी
विकास डोगरा की कविताएँ दूसरी बार आपके सामने हैं। दूसरी बार भी ये 'पहली बार' पर हैं, और पिछली बार की तरह इस बार भी; पहली बार सामने आई नहीं लगतीं।
दरअसल यह कविताएँ मनुष्य के चिरपरिचित व पसंदीदा इलाकों से आई हैं। यहाँ उपस्थित अपनत्व, धैर्य और इंतिज़ार किसी अन्य का नहीं, उस अपने का है, जो किसी भी सूरत अजनबी नहीं है। इस सहज-सरल कवि का पुनः स्वागत है। इन पर पहले एक छोटी सी टिप्पणी की थी। उसे कुछ विस्तार दे रहा हूँ। इनका लेखन हमारे स्तम्भ के शीर्षक 'परांस' की कसौटी पर खरा उतरता है। यहाँ और इससे पहले छपी इनकी कविताएँ पढ़ कर कहा जा सकता है कि वे भी बसां कर-कर के एक परांस लगा रहे हैं।
विकास डोगरा का सम्बन्ध छम्ब अंचल के ज्योड़ियाँ गाँव से है। इनकी नीवें किसानी में देखी जा सकती हैं। इनके बचपन, किशोरावस्था और यौवन की जो अहम स्मृतियाँ हैं; वे इनके गाँव की देन हैं। आज भी गाँव से इनका आत्मीय नाता है। वे दसेक रोज़ में जम्मू से ज्योड़ियाँ जाते ही हैं। हम इनसे खेत, मौसम, घास, बैल, सांप, पशु, उपले, अलाव, डान, सखले, दंगल आदि पर रोचक बातचीत सुन सकते हैं। इनके जीवन में लोक, बुजुर्गों के किस्से और इनके दूर के रिश्ते-नातेदार एक बड़ी जगह घेरते हैं। कविताओं में इनकी उपस्थिति भले बहुत अधिक साबित नहीं की जा सकती, तो भी यह मूलतः चिनाब, माँ और प्यार के कवि सिद्ध होते हैं। इनकी कविताओं को अग्रलिखित श्रेणियों में विभाजित करते हुए, बात आगे बढ़ाते हैं:
1
'स्पर्श', 'पत्थर बन कर चलते रहना', 'दरिया किनारे रह कर', 'पत्थर-पानी', 'अगर यह दरिया', 'बिंदु', 'पतझड़' और 'एक चिनार' जैसी कविताएँ इनके विशेष मुहावरे की कविताएँ हैं। यह इनकी सिग्नेचर कविताएँ हैं। इनमें इनकी सीमा भी देखी जा सकती है।
''पूरे चाँद की रात में
मुझे आधा छोड़ कर',
'मैं डूबते सूरज के सिरहाने बैठ
दरिया को सहला रहा हूँ',
'चोट खाए पानी की
फिर चाँद सिंकाई करता था',
'अपने साथ नमक रखता हूँ'
आदि काव्य-अंश/बिंब; प्रसिद्ध गीतकार-शायर गुलज़ार की ओर ले जाते हैं। इनकी कविताओं में उर्दू नज़्म सी रवानी और रूमान देखा जा सकता है। इन कविताओं को मधुर कंठ और सुन्दर काव्य-पाठ मिलने चाहिए:
'पूरे चाँद की रात में
मुझे आधा छोड़ के
तुम चली गई थी जब
यह कहते हुए
कि उस पहाड़ से सीखो
इंतज़ार
और सब्र
मैं मन ही मन हँसा था बहुत
और रोया भी
काश! बता पाता तुम्हें
कितना मुश्किल होता है
पहाड़ हो कर बैठ जाने से
पत्थर बनकर चलते रहना ...'
2
'मैं क्यों नहीं', 'धुआँ' और 'अँधेरा' जैसी कविताएँ; माँ के प्रति संवेदना, प्यार और उनके नहीं रहने के रहने को अभिव्यक्त करती हैं। यह कविताएँ भले इनके निजी दुख से सृजित हुई हैं, मगर इनमें अभिव्यक्त ममता और करुणा समष्टिगत है। इस धुएँ को ध्यान से देखें:
'चिता में सब जला
राख के सिवा
राख में सब था
आग के सिवा
माँ के चूल्हे में
अब न आग है न राख
धुआँ सब ले गया...'
3
हृदयाघात' और 'धूल सने जर्जर में एक संवाद' जैसी कविताएँ; इनके सामाजिक सरोकारों को अभिव्यक्त करती हैं। वे सहृदयता का आह्वान करते हैं:
'धरती का दिल
धड़कता है
हर छब्बीस पल बाद
एक कम
न एक ज़्यादा:
धरती को हृदयाघात से नहीं
हृदयहीनों से खतरा है।'
वे प्यार को हर प्रतिरोध से बड़ा मानते हैं। आलोच्य कवि दो स्थितियों से एकदम विज्ञ हैं:
क- जहाँ कुछ भी सम्भव नहीं है,
ख- जहाँ सब कुछ सम्भव है।
और वे; जहाँ कुछ भी सम्भव नहीं है पर नहीं, जहाँ सब कुछ सम्भव है पर अपनी बात ख़त्म करते हैं। यही से दुनिया बदलने की बात शुरू की जा सकती है।
4
'नीचे गिरने से पहले और बाद में' जैसी कविताएँ; इनकी सूक्ष्म दृष्टि की परिचायक हैं। इनकी काव्य-दृष्टि; पेड़ से फूल के नीचे गिरने पर और गिरने से पहले की स्थिति पर कविताएँ सम्भव करती हैं। काव्य-सृजन, काव्य-सौन्दर्य और उत्सवधर्मिता सिर्फ़ संयोग में ही नहीं, विलग होने और नाश होने में भी है। झड़ कर गिर गए सूखे पत्ते और खिले हुए फूल, कला-काव्य में दोनों का महत्व है। मगर यह हासिल हरेक फूल और हरेक पत्ते को नहीं है:
'चिनार का पत्ता
कविता बनता है
पेड़ से गिरने के बाद
पलाश का फूल
कविता बनता है
पेड़ से गिरने के पहले।'
उपरोक्त चार श्रेणियों के आलोक में देखें तो इनकी कविताएँ; जीवन-दायित्व की कविताएँ हैं। यह पलायन नहीं करतीं। यह किसी सधे हुए साधक कवि की नहीं, बल्कि एक कर्मठ घरेलू आदमी की कविताएँ हैं, जो 'पत्थर बन कर चलते रहने' की अनकही छवि निर्मित करता है। निरंतर एक बेचैनी और विवशता सहन करता है। यह संवाद पर भरोसा करने वाले कवि हैं। इनकी कविताओं में कविताएँ भी एक दूसरे से बातें करती हैं। इन बातों में कुछ आवृत्ति देखी जा सकती है, वस्तुतः यह आवृत्ति किसी विशेष बात को पक्की करने की कोशिश, और अकेले बैठे बुज़ुर्ग का स्वगत है।
धुआँ' शीर्षक कविता; बेहद मार्मिक कविता है। सघन और सच्चा दुख ही चिता, चूल्हे और माँ को एक साथ; किसी कविता में ला सकता है। इसे माँ के होने और नहीं होने ने सम्भव किया है। 'धुआं सब ले जाता है' की करुणा हृदयविदारक है। 'अँधेरा' शीर्षक कविता मानवीय दुखों और विवशताओं का कारुणिक गीत कहा जा सकता है। यहाँ मुखाग्नि की रोशनी में माँ का नहाना, और एक रोशनी से अँधेरे का जन्म लेना, निःशब्द कर देता है। यह अँधेरा उस संतान की गोद में आया है, जिसकी गोद में माँ बच्ची की तरह और बेटी माँ की तरह सिर रखती है। माँ पर लिखी एक अन्य कविता, 'मैं क्यों नहीं' पढ़ें:
जब पहली बार मुझे माँ की गोद मिली
माँ बेसुध थी
और मैं भी
जब पहली बार माँ को मेरी गोद मिली
माँ बेसुध थी
मैं क्यों नहीं!
यहाँ एक टीस है। दारुण दुख। ज़रूरी नहीं कि कविता का 'मैं' कवि ही हो, प्रायः यह नहीं ही होता। मगर यहाँ 'मैं' कवि ही है। इस बेहद निजी कविता में कवि ने अपने आप से शिकायत की है, अपनी असहायता प्रकट की है। जन्म-समय कवि को माँ की गोद मिली तो कवि और माँ दोनों बेसुध थे। जन्म समय में नवजात रोता है। यहाँ उसका बेसुध होना इस कविता को विशेष स्थिति या अपवाद की कविता बना देता है। दूसरी स्थिति में बेटे की गोद; माँ की मृत्यु- शैया बन गई है। वह बेसुध नहीं है। यह अपवाद नहीं है। स्वाभाविक सत्य है। कवि इस सत्य को झुठला देना चाहता है, मगर यहाँ सिवाय सत्य के कुछ भी नहीं बचता। कविता की नैतिकता और ताकत यही है।
पत्थर-पानी' स्मृति, प्यार और तड़प की कविता है। यहाँ स्मृति और वर्तमान हैं। यहाँ एक वय बीत गई है, मगर बीत नहीं रही। यह एक कौंध की तरह है। पत्थर यहाँ पारस है, मगर यह सोना नहीं पानी बनाता है। पानी के जगाने में एक चोट है, जिसमें चाँद मरहम बनकर राहत देता है। प्रकृति माँ है। यह यथासमय सिंकाई भी करती है। शीतलता भी देती है। कविता के दूसरे बंध में आते-आते पानी को वे दिन सुलभ नहीं, जो पहले थे। दरअसल पत्थर अब पत्थर नहीं; पानी हो गया है। पानी के हाथ में अब पानी है, जैसे पाठक के हृदय में रसभरा एक और हृदय है। विकास की कविताओं में 'शाम बन गए राधिका और राधा बन गई शाम' वाली अदला-बदली देखी जा सकती है। 'स्पर्श' शीर्षक कविता इसी श्रेणी की है। इसी तरह 'स्पर्श का पानी और पानी का स्पर्श होना', और 'दरिया का समन्दर और समन्दर का दरिया होना', ऐसे ही है जैसे रात का दिन और दिन का रात होना। ऐसी जगहों पर शाश्वत जीवन-सत्य और अद्वैत भाव उद्घाटित होते हैं।
विकास अच्छे फोटोग्राफर हैं। इसका असर इनकी कविताओं में देखा जा सकता है। कविताएँ लिखते हुए भी वे फ़ोटो खींचते नज़र आते हैं। वे एक शानदार क्रिकेटर भी रहे हैं। क्रिकेट की भाषा में कहूँ तो विकास की कविताएँ ग्लेन मैकग्रा, कोर्टनी वॉल्श, शॉन पोलक जैसे गेंदबाज़ों की श्रेणी में आती हैं। यह अपनी लाइन लेंथ बरकरार रखती हैं। वाइड बॉल नहीं फ़ेंकतीं। इनकी कविताई स्थिर लय, गति, मति और निजी शैली में सम्भव होती है। इनका कवि प्रयोगों और जोखिमों से बचता है। मगर इस कारण इन्हें कमतर नहीं आंकना चाहिए। इनके पास फ़िलहाल एक लम्बी काव्य-यात्रा है, जिसे वे यात्राओं में बदलने की सामर्थ्य रखते हैं। अपने लम्बे कद और यॉर्कर पर ही नहीं, वे हल, पंजाली, जोत्तरा, गब्बर बूटों और पैरों पर विश्वास करने वाले कवि हैं। माँ की स्मृतियाँ; इन्हें चिनाब के पानी से सुन्दर बना कर; मिट्टी का डिठौना लगाती रहें। इन्हें स्नेह व अतीव शुभकामनाएँ!
सम्पर्क
कमल जीत चौधरी
मोबाइल : 9682377905
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विकास डोगरा |
कवि-परिचय
विकास डोगरा अपनी फोटोग्राफी के लिए भी जाने जाते हैं। डेढ़ दशक से कविताएँ लिख रहे हैं। कहीं भी प्रकाशित होने का उनका यह दूसरा अनुभव है। कमल जीत चौधरी इनके लिए लिखते हैं: 'ये कविताएँ; एक ऐसे सुन्दर छायाकार और जीव विज्ञान के प्राध्यापक की हैं, जो अच्छी कविताओं को घण्टों सुन सकते हैं। उन पर बड़ी सूक्ष्मता और स्नेह से बात कर सकते हैं। इनका जीवन और स्वभाव इन्हें आराम का अवकाश नहीं देता, मगर फ़ोटो खींचते हुए दम साधे, वे दो-एक घण्टे तक एक ही मुद्रा में रह सकते हैं। यह धैर्य इनके लेखन में भी देखा जा सकता है। वे डेढ़ दशक से लिख रहे हैं, और सिवाय दो-एक दोस्त-हृदयों के; किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशित नहीं हुए हैं, सोशल नेटवर्किंग पर भी नहीं।' विकास के परिचय में एक बात और जोड़ी जा सकती है कि वे अच्छे शिक्षक भी हैं।
विकास डोगरा की कविताएँ
धुआँ
चिता में सब जला
राख के सिवा
राख में सब था
आग के सिवा
माँ के चूल्हे में
अब न आग है न राख
धुआं सब ले गया...
पत्थर-पानी
तुम्हारे हाथ में पत्थर देख
सहसा जाग उठता था पानी
चोट खाए पानी की
फिर चाँद सिंकाई करता था...
कितने बरस बीत गए
चोट की आस में ठहरे पानी ने पूछा :
तुम पत्थर हो गई हो क्या?
उत्तर मिला : पानी।
नमक हमेशा साथ रखता हूँ
बचपन की बरसातों में
खेतों के रास्ते में बहती चोई को पार करने में
मेरे गब्बर बूट बहुत काम आए
जिन्हें मैं पैरों में नहीं
अपने डर पर पहन कर चलता था
मैं नमक साथ रखता था
क्योंकि जोंक से डरता था
चूँकि नमक साथ रखता था
इसलिए बारिश से डरता था
मोम ओढ़ कर चलते हुए
हवा से डरता था...
अब जब बड़ा हो गया हूँ
हवा, बारिश या जोंक से नहीं डरता
लेकिन नमक
हमेशा साथ रखता हूँ...
स्पर्श
मैं डूबते सूरज के सिरहाने बैठ
दरिया को सहला रहा हूँ
मेरा स्पर्श;
पानी हो रहा है,
और यह दरिया समंदर।
तुम उगते सूरज के सिरहाने बैठ
समंदर को अंजुरी में भर लेना
यह पानी;
स्पर्श हो जाएगा,
और वह समंदर दरिया।
पत्थर बन कर चलते रहना
पूरे चाँद की रात में
मुझे आधा छोड़ के
तुम चली गई थी जब
यह कहते हुए
कि उस पहाड़ से सीखो
इंतज़ार
और सब्र
मैं मन ही मन हँसा था बहुत
और रोया भी
काश! बता पाता तुम्हें
कितना मुश्किल होता है
पहाड़ हो कर बैठ जाने से
पत्थर बन कर चलते रहना ...
दरिया किनारे रह कर
दरिया किनारे रह कर भी
मुझे तैरना नहीं आया
गाँव के सब साथी
उफनती लहरों से टकराते,
विस्तार नापते
तैराक बन गए
मैं, लहरों से किनारा कर
किनारे से गहराई नापता
गोताखोर हो गया
मुझे तैरना नहीं आया
लेकिन मैं जानता हूँ
मेरी अस्थियां
इस दरिया की गहराई नापेंगी
मेरी राख
तैर कर यह दरिया पार करेगी।
मैं क्यों नहीं
जब पहली बार मुझे माँ की गोद मिली
माँ बेसुध थी
और मैं भी
जब पहली बार माँ को मेरी गोद मिली
माँ बेसुध थी
मैं क्यों नहीं!
हृदयाघात
धरती का दिल
धड़कता है
हर छब्बीस पल बाद
एक कम
न एक ज़्यादा:
धरती को हृदयाघात से नहीं
हृदयहीनों से खतरा है।
धूल सने जर्जर में एक संवाद
मैं दबे पाँव चल रहा था
उन कतारों और स्तम्भों के बीच
जहाँ धूल सनी
पीले पन्नों की जिल्दबन्द तहें
एक पुरानी लाइब्रेरी की
नीरस दीवारों में चिनी गई हैं।
मैंने इसी जर्जर में कानों-कान
सुना एक संवाद
दो कविताओं के दरमियाँ का:
पहली —
ज़िंदगी की सच्चाइयों से लबरेज़,
बताती है बुरे वक़्त में क्या अच्छा है
अस्तित्व को संभालती
वो सुना रही है दास्ताँ
एक टूटे हुए सपने की
थकी रातों की,
उदास सुबहों की
और उस उजाड़ चाँद की
जहाँ कुछ भी सम्भव नहीं है।
दूसरी —
जिसने प्यार किया
बता रही थी बात कल्पनाओं की
ख्वाबों की
आधी रात की उदासी की
सुबह की रंगतों की
और उस धरती की
जहाँ सब कुछ सम्भव है।
गिरने के बाद और पहले
चिनार का पत्ता
कविता बनता है
पेड़ से गिरने के बाद
पलाश का फूल
कविता बनता है
पेड़ से गिरने के पहले...
अगर यह दरिया
अगर यह दरिया
यूँ ही बहते-बहते किसी रोज़ थम जाए तो?
तो सब पानी हो जाएगा
ये सारे दरख़्त
जो इसके काँधे पे सिर टिकाए बैठे हैं सदियों से
तैरने लगेंगे इस रुके हुए दरिया में, और
आपस में टकराएँगे।
जिस पुल पर हम खड़े हैं अभी,
यह भी डूब जाएगा
हमें भी अपने-अपने किनारे छोड़ने पड़ेंगे, और
हम भी एक-दूजे से टकराएँगे।
लेकिन ये दरिया ऐसे सहसा नहीं थमा करते
अरे! यह दरिया कहीं तो थमता होगा?”
हाँ, बहुत दूर समंदर में जा कर
तो चलो
उसी समंदर में एक पुल बनाते हैं।
(विकास डोगरा एक उम्दा फोटोग्राफर भी हैं। इस पोस्ट में प्रयुक्त चित्र विकास डोगरा द्वारा लिए गए हैं।)
सम्पर्क
विकास डोगरा
मोबाइल : +91 94191 28192
ई मेल : watersofchinab@gmail.com
प्रिय पहलीबार, एक और सुन्दर कवि की; सुन्दर प्रस्तुति के लिए आपको साधुवाद! ज़िंदाबाद रहें!
जवाब देंहटाएंविकास डोगरा जी, बसां (विश्राम) भले कर लें, मगर जोत्तरा और परांसें लगाते रहें। शुभकामनाएँ!
प्रिय पाठको, साथ-स्नेह बनाए रखें। हृदयतल से सलाम!
~ कमल जीत चौधरी
बहुत सधी और सूक्ष्म धारा सी बहती कवितायें... आसपास के परिवेश का दखल कवितायों को प्रभावी बना रहा है.. धन्यवाद.. पढ़ने का अवसर प्रदान करने के लिए..
जवाब देंहटाएंआदरणीया महोदया, प्रणाम! हार्दिक धन्यवाद! आपको शुभकामनाएँ!
हटाएंएक संवेदनशील, लोक-संलग्न और अनुभूति-प्रधान कवि विकास डोगरा की काव्य-भूमि का आत्मीय पाठ है।
जवाब देंहटाएंकमल जीत चौधरी की यह प्रस्तुति साबित करती है कि जब कोई कवि किसी दूसरे कवि को पढ़ता है, तो केवल कविताएँ ही नहीं बल्कि उसकी आत्मा को भी पढ़ता है। यह प्रस्तुति साहित्यिक समर्पण और सौंदर्यबोध का एक सशक्त दस्तावेज है।
भगवती जी, आपकी टिप्पणी को सहेज लिया। हार्दिक धन्यवाद!
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