रणविजय सिंह सत्यकेतु का आलेख 'सृजन की ऊर्जा के संपूर्ण सौंदर्य का सस्वर गायन'
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शालिग्राम |
कहानीकार परिचय
शालिग्राम
1934 में बिहार में अकाल पड़ा। उसी साल 21 मई को कथाकार शालिग्राम का जन्म हुआ। नई कहानी के ठीक बाद वाली पीढ़ी के रचनाकार हैं शालिग्राम। धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती ने देशभर के जिन 17 नए रचनाकारों को एक शृंखला के तहत छापा, उनमें ज्ञानरंजन, मेहरुन्निशा परवेज और शालिग्राम शामिल थे। इसके अलावा साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, दिनमान, नई कहानियां में उनकी रचनाएं प्रकाशित होती रहीं। इजोतिया, नटुआ दयाल, पाही आदमी, बासमती, राकस, साफा, केंचुल आदि उनकी चर्चित कहानियां हैं। पहला कहानी संग्रह 1963 में पाही आदमी नाम से आया जिसकी रेणु और नागार्जुन ने भी मुक्तकंठ से प्रशंसा की। उनकी अन्य रचनाओं में किनारे के लोग, कित आऊं कित जाऊं, मैलो नीर भरो (सभी उपन्यास) के अलावा संघाटिका, आंगन में झुका आसमान (कविता संग्रह) और घोघो रानी कित्ता पानी (रिपोर्ताज), देखा दर्पण अपना तर्पण (आत्मकथा) शालिग्राम की आंचलिक कहानियां शामिल हैं। 1971 में भारत-नेपाल पर आधारित सांस्कृतिक रिपोर्ताज 'अटपट बैन मोरंगिया रैन' राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम में शामिल हुआ। लंबे समय तक अपने गांव पचौत (मुंगेर) के निर्विरोध मुखिया रहे। 93 साल की उम्र में शालिग्राम एक नया उपन्यास लेकर आ रहे हैं जो उनकी जिजीविषा का प्रमाण है।
हिन्दी साहित्य की अपनी समृद्ध विरासत रही है। अनेक रचनाकारों ने अपने लेखन से इस समृद्धि में अपना योगदान दिया है। यह योगदान इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि रचनाकारों ने अलग पृष्ठभूमि, अलग परिवेश के साथ साथ अपने शिल्प से इसे बहुआयामी बनाया है। कई एक लेखक ऐसे हैं जिन्हें महत्त्वपूर्ण योगदान देने के बावजूद वैसी चर्चा नहीं मिल पाई, जिसके वे वास्तविक हकदार रहे हैं। शालिग्राम का लेखन बहुविध तो है ही सत्यकेतु के शब्दों में कहें तो उनकी रचनाएं 'जीवन के पक्ष में खड़ी, लयबद्धता से भरपूर। प्रेम से प्रवाहमान, वैचारिकी से लबालब। ये मुकम्मल कहानियां हैं, प्रतिनिधि आख्यान हैं जो शालिग्राम की रचनाशीलता का सस्वर गायन करती प्रतीत होती हैं। तरन्नुम भरी इन कहानियों में जीवन की रफ्तार है, नदी सा प्रवाह है। सृजन की ऊर्जा से संपृक्त अपनी कहानियों के जरिए शालिग्राम ने वृहत्तर मनुष्यता का प्रतिसंसार रचा है।' सत्यकेतु ने शालिग्राम के लेखन पर एक मुकम्मल आलेख लिखा है जिसके आलोक में कहानीकार को समग्रता से जाना जा सकता है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रणविजय सिंह सत्यकेतु का आलेख 'सृजन की ऊर्जा के संपूर्ण सौंदर्य का सस्वर गायन'।
'सृजन की ऊर्जा के संपूर्ण सौंदर्य का सस्वर गायन'
रणविजय सिंह सत्यकेतु
जीवन रफ्तार मांगता है जैसे नदी प्रवाह चाहती है। नहीं मिलेगा तो अनुशासन भंग हो जाएगा, किनारे टूट जाएंगे। ये नैसर्गिक व्यवहार हैं, इसे बदलने या रोकने की कोई भी कोशिश नाकाम तो होगी ही, विप्लव की भी वजह बनेगी। रफ्तार या प्रवाह को नियंत्रित नहीं किया जा सकता, उसके मुताबिक सेल्फ कंट्रोल किया जा सकता है। इस तथ्य को समझ कर और स्वीकार कर जो आगे बढ़ते हैं, वह जीवन का आनंद उठाते हैं। जो इस स्वाभाविकता को झुठलाने में लगे रहते हैं, वो निरर्थक भावुकता में धंस कर व्यर्थ दिमागी कसरत करते हुए अंतत: बेबस अंत का शिकार होते हैं।
ऊर्जा रोकी नहीं जा सकती। अधिक से अधिक डायवर्ट की जा सकती है, वह भी बहुत निचले स्तर पर। ऊर्जा खर्च होगी। हर हाल में होगी। अपनी दिशा और दशा भी तय कर लेगी। छोटी मोटी बाधाएं उसके ताप से भस्म हो जाएंगी या झुलस जाएंगी। रुकावट बड़ी हुई तो विस्फोट हो जाएगा। खामियाजा रुकावट को ही भुगतना होगा, ऊर्जा अपना काम कर गुजरेगी। जो ऊर्जा को बगैर रोके उसका सदुपयोग कर लेते हैं, वह जीवन का सुख हासिल करते हैं। जो इस कुदरती ताकत के रोड़े बनते हैं, उनके हाथों को संताप और ग्लानि की पोटली का ही साथ रह जाता है।
रफ्तार, प्रवाह या ऊर्जा अपनी स्वभाविकता में सर्वथा सकारात्मकता होती हैं क्योंकि उनमें अबाधित लय होता है। लय वह व्यापक नियम है जिससे सृष्टि कायम है, संपूर्ण ब्रह्माण्ड संचालित है। अविराम, अविकल, अनवरत। अमूमन यह लय भंग नहीं होती है। होती है तो विध्वंस होता है। किसी का अस्तित्व समाप्त होता है, कोई नया अस्तित्व सामने आता है। कोई काला पहाड़ बन जाता है, कोई अंगुलीमाल साबित होता है। जो लय और तरन्नुम का आदर करते हैं, उनका जीवन सौंदर्य संगीतमय हो जाता है। जो इस नियम को भंग करते हैं, उनकी धड़कनें प्रतिरोध और अवहेलना के पत्थरों से टकरा कर पस्त हो जाती हैं।
प्रेम सृजन का आधार है, संरचना की बुनियाद है। प्रेम में नमी होती है, इसलिए उसकी आवाजाही सरल होती है। वह सहज होता है, इसलिए तुरंत स्वीकार कर लेता है। हां को भी, ना को भी। प्रेम संप्रदान भाव से भरा होता है, आपादान क्रिया पर भी ममत्व लुटाता है। एक्सेप्टेंस क्वालिटी और कन्सीवनेस की वजह से प्रेम सैद्धांतिक रूप में भी सुंदर है और उसका व्यावहारिक पक्ष तो खूबसूरती से भरा है ही। जिसके जीवन में प्रेम का प्रवाह है, भौतिक कमियां उसे दुखी नहीं कर पातीं। जो प्रेम के विलोम खड़ा है, ऐश्वर्य के सारे संसाधन भी उसे आनंद नहीं दे सकते।
मन की चंचलता को विवेक सही दिशा देता है। हृदय की संवेदना को विचार उचित व्यवहार की ओर प्रेरित करता है। मन, मस्तिष्क और हृदय के संतुलन से विवेकशीलता आती है। समाजोपयोगी, विकासवादी और प्रगतिशील व्यवहार फलित होता है। इनका विचलन विभेदकारी होता है। वैचारिक क्षरण का कारक होता है। द्वेष और कुंठा को विस्तार देने में सहायक होता है। विचार और विवेक के सायुज्य होने से कर्म में लयबद्धता आती है। इनका विकर्षण और अलगाव असभ्य, अशिष्ट और अविनय का संरक्षण एवं पोषण करता है। दुनिया में जो अच्छा है वो विचार के विवेकसम्मत होने से है, जो बुरा है वो सब इनमें दुराव के कारण।
शालिग्राम की कहानियां उपरोक्त वास्तविकताओं से सुवासित हैं। जीवन के पक्ष में खड़ी, लयबद्धता से भरपूर। प्रेम से प्रवाहमान, वैचारिकी से लबालब। ये मुकम्मल कहानियां हैं, प्रतिनिधि आख्यान हैं जो शालिग्राम की रचनाशीलता का सस्वर गायन करती प्रतीत होती हैं। तरन्नुम भरी इन कहानियों में जीवन की रफ्तार है, नदी सा प्रवाह है। सृजन की ऊर्जा से संपृक्त अपनी कहानियों के जरिए शालिग्राम ने वृहत्तर मनुष्यता का प्रतिसंसार रचा है।
'नटुआ दयाल' और 'पाही आदमी' जीवन की रफ्तार, मनुष्य की जिजीविषा और प्रेमोत्सर्ग को बड़ी खूबसूरती से चित्रित करती हैं। नैसर्गिक प्रवाह से भरी ये कहानियां प्रेम के स्वाभाविक उड़ान और सही दिशा में ऊर्जा के सदुपयोग का मुकम्मल वितान रचती हैं। मन की चंचलता पर विवेक की विजय का अद्भुत विवेचन करती इन कहानियों में शालिग्राम के सृजन की बुनियाद की गहराई अपने संपूर्ण सौंदर्य के साथ उपस्थित है। आकर्षण और उत्सर्ग भरा प्रेम अपने अलहदा किंतु सहज रूप में 'केंचुल' और 'राकस' में भी तबीयत से प्रवाहित है। स्थिर विवेक, नियंत्रित हृदय और भावुक मन के मेल से लिए गए निर्णयों से ये कहानियां पाठक को स्पंदित करती हैं। तरंगित यात्रा के सुखद अहसास को आत्मसात करने का हिलोरों भरा किनारा मुहैया कराती हैं।
आस जगाने वाली चिन्गारी के राख हो जाने की हकीकत
'इजोतिया' छोटे कलेवर में बड़े कैनवास की कथाकारिता का उल्लेखनीय उदाहरण है। संघर्षपूर्ण और अभावग्रस्त जीवन की निरंतरता को उम्मीद की आग से बदलने की कोशिशों के नाकाम होने की कहानी। भीतर की आग को बाहर के ताप में रिफ्लेक्ट करने की कहानी। आस जगाने वाली चिन्गारी के राख हो जाने की हकीकत से भरा आख्यान। देह के दबाव और मन के मल्हार को उस रेत में उतारने की विवशता की कहानी जहां सालों से संजो कर रखी गई आन को उत्खनित करने का लोलुप कारोबार चालू है। जब उम्मीद का सूरज कलुषित बादलों की घेरेबंदी में फंस जाता है तो हवा भी बेधक बाना धारण कर लेती है। सुलगती आग बार बार ठंडी पड़ जाती है। हरी लत्तियों पर उगी बतिया मटमैली रोशनी और नासूर नमी के दरम्यान ही मुकम्मल कद्दू बन जाती है। खाने के लिए जी मचलने योग्य। लेकिन बादलों की टिप-टिप और हवाओं की बेहयाई से मारक बना शीत मन मारता है। कदम रोकता है।
इजोतिया अरमानों के इक्कीस बसंत तक श्रम के सौष्ठव से गरीबी को शान से गुजार देती है। बूढ़े बाप जीबू के निकम्मेपन को हौसले से पाटती घर में भोजन-पानी की गर्माहट बनाए रखती है। गलत प्रस्ताव के लिए रामेसर जैसे दलाल को गालियां देकर चुप करा देती है। हाथ में हंसिया लिए बहादुर बेटी का तमगा हासिल करती है। लेकिन सुधार की कोई गुंजाइश न पाकर अंतत: खीझने-टूटने लगती है। इस कदर कि खटिया पर पड़ा बाप नासूर नजर आने लगता है। उसकी उपस्थिति और बोली दोनों उसे काटने लगती है। अपनी खुशी की खातिर जवान बेटी के अरमानों को बोरसी की आग और चीलम के ताप में स्वाहा कर रहा बाप भला कब तक प्यारा लग सकता है। उसकी सेवा के बदले आनंदमय जीवन का आशीष देने वाले पिता के बोल उसे सांप के उगले जहर प्रतीत होते हैं। उसका मन करता है कि बोरसी की आग बाप की देह पर उड़ेल दे ताकि निकम्मेपन की नाखत्म बीमारी हमेशा के लिए जल जाए।
इजोतिया का गुस्सा और नाराजगी बिला वजह भी नहीं। उसकी उम्र की सारी लड़कियां ससुराल बस गईं। गांव में अकेली वही है जो बाइसवां लगने के बावजूद बाप की तीमारदारी में खेत और घर के बीच यौवन की लौ को बुझती लुत्ती में तब्दील होती देख राख हुई जा रही है। वो फागुन अब तक नहीं आया जिसमें उसके हाथ पीले करने का भरोसा जीबू देता आया है। वह उधेड़बुन में है। असमंजस से घिरी है। बाप नाम के बीमार नाग के जहर को ही जीवन की नियति मान ले या अपने अरमानों को देह की दहलीज लांघ लेने दे।
सप्ताहांत में भी शीतलहर बरकरार है। बादल अब भी टिपटिपा रहे हैं। हवा की चुभन देह को बराबर सिहरा रही है। लेकिन इजोत अब पहले से ज्यादा स्पष्ट है। बिना खेतों में काम किए रामेसर की बहू के कानों में कनफूल लटक सकते हैं, देह पर रेशमी पटोर झूल सकते हैं। हाथों में बाला और गले में सिकुड़ी झूल सकती है तो...क्यों नहीं ब्लॉक के कर्मचारी रूपी उजले फूल की सुगंध से बनाई दूरी खत्म कर अपनी देह को भी प्रसाधनों का सुख लेने दिया जाए। फैसला आसान नहीं। कचिया हाथ में है, लेकिन खेत की ओर उसके कदम नहीं उठ रहे। देह का दुख संतुलन के लिए उसे बोरसी तक ले जाता है, लेकिन दिमाग की उष्णता उसे खंभा पकड़ कर सोचने पर मजबूर कर देती है। विचारों के स्याह सफेद बियाबान में चकरघिन्नी इजोतिया अंतत: एक फैसले पर आती है.. उसके कदम ब्लॉक कर्मचारी के क्वाटर की सीढ़ियां चढ़ने लगते हैं। देह की दुर्दांत जीत के साथ संकल्पित दिमाग हार जाता है। सुख के प्रलोभन के द्वार पर दस्तक देते ही हवस का क्रेन अभावों की मारी आकांक्षा को अंधेरे में खींच लेता है।
भ्रष्टाचार, अनाचार की ईंटों से चमचमाती ब्लॉक कर्मचारियों की कॉलोनी किस तरह प्रलोभनों के प्रहार से गरीब और जरूरतमंदों को अनैतिकता की सीढ़ियां चढ़ने के लिए बेबस करती हैं, शालिग्राम ने बहुत सधे अंदाज में इसे चित्रित किया है। श्रम के औदात्य से इतराती इजोतिया की यह परिणति कहानी को नकारात्मक अंत जरूर देती है लेकिन विपन्न बस्तियों की मजबूरियां भी शिद्दत से सामने रखती है। इजोतिया रामेसर की बहू के रास्ते पर चलने से बच भी सकती थी, यह वैचारिक पक्ष है। जीबू जैसे करमघट बाप की वजह से कायम अंतहीन दुख के दलदल से निकलने और सुख के कुछ लम्हे हासिल करने के लिए अवांछित सीढ़ियां चढ़ना एक व्यावहारिक पक्ष। फैसला गलत हो सकता है, मगर मजबूरी संकल्प पर कायम रखने लायक कहां छोड़ती है। दुखद अंत के बावजूद कहानी समाज में मानवीय मूल्यों के क्षरण का तिलमिलाने वाला सच सामने लाती है।
दुश्वारियों के दरम्यान स्पंदित जीवन की बहुरंगी बानगी
'राकस' बाधाओं में फंसे प्रेम और लगाव की कहानी है। दियारा/ बहियार की बसावट संकटों भरा होता ही है। अधिक श्रम और कम प्रतिफल भरी जिंदगी का बारहमासा लगा रहता है। खासकर बारिश और बाढ़ के दिनों में जीवन की कठिनाइयों की इंतहा हो जाती है। सुख और तृप्ति की रोशनी राकस की रोशनी जैसी होती है, जो अपनी ओर खींचती है लेकिन कभी आच्छादित नहीं करती। ठीक रेगिस्तान की मरीचिका की तरह। लगता है नजदीक है लेकिन उसका कभी सामना नहीं होता।
दियारा या बहियार इलाके में मुख्यत: खेतिहर, हरवाहे, चरवाहे रहते हैं या विचरण करते हैं। खेतिहरों में जो सीमांत होते हैं वे वहां वास करते हैं, मजबूत जोतदार अपने कारिंदे या बटाईदार रखते हैं जो हरवारे-चरवाहे ही होते हैं। खेती करने और खेतों में काम करने के अलावा गाय-भैंस, बकरी पालना मुख्य रोजगार में शामिल रहता है। रमदुखिया, मटरू और सोनमतिया ऐसे ही युवा चरवाहे हैं जो रोज अपनी गायें ले कर कास और पटेर से भरे जंगल में पहुंचते हैं। कोसी नदी में सालाना कटान की वजह से किनारे के जंगलों और बहियारों में भारी नुकसान होता है। कोसी निरंतर रास्ता बदलती है, तदनुरूप बस्तियों और दियारा क्षेत्र की बसावट भी बदलती रहती है। कटान में सालाना गांव, मकान, खेत-खलिहान, माल-मवेशी बाढ़ की भेंट चढ़ जाते हैं।
रमदुखिया की गाय गोरिया कास और पटेर के जंगल में गुम हो गई। उधर कोसी में कटान की भयानक आवाजें आती रहीं। गोरिया को ढूंढते ढूंढते शाम हो गई। बाकी चरवाहे अपनी गायों को लेकर घर लौटने लगे। हताश रमदुखिया को मटरू घर जाने और दूसरे दिन ढूंढने की सलाह देता है। गोरिया की जोड़ीदार भुटिया बची है, उसे देख कर ही रमदुखिया को संतोष करना पड़ता है। भुटिया अच्छी है, लेकिन गोरिया से उसे बहुत लगाव है। मन मारकर वह जंगल से लौटता है।
गाय चराने के दरम्यान ही दिल्लगी करते रमदुखिया को सोनमतिया भा जाती है। लगाव की कतली पर हंसी-बतकही, बनाव-सिंगार, पसंद-प्रशंसा के रेशे जुड़ते जुड़ते प्रेम की डोर में तब्दील हो जाते हैं। बिसु राउत के थान में भोज वाले दिन भंडारी बनी सोनमतिया से उसकी हमजोली पर सार्वजनक मुहर लग गई। सोनमतिया रमदुखिया के बांसुरी वादन पर फिदा है। वैसे तो बस्ती-बहियार के सभी लोग रमदुखिया की बांसुरी की तान से परिचित हैं, लेकिन सोनमतिया के लिए वह प्रणय आनंद से कम नहीं। सोनमतिया कहती है, 'तुम्हारी बांसुरी में गुनमंतर भरा है, गुनमंतर। सुनते ही दिल की पुरइन खिल उठती है।' (पृष्ठ 36)
दूसरे दिन फिर रमदुखिया अपनी खोयी गाय गोरिया को ढूंढने नदी किनारे किनारे काफी दूर तक भटकता रहा। अंत में थक हारकर पीपल के नीचे बैठ गया। यह सोच कर कि सोनमतिया के आने पर साथ साथ गोरिया को ढूंढेगा। लेकिन उस दिन सोनमतिया नहीं आई..और ऐसा पहली बार हुआ था। सांझ की बेला में पीपल के नीचे अघोरी की तरह बैठा रमदुखिया जितना गोरिया के नहीं मिलने से आकुल है, उतना ही सोनमतिया के नहीं आने से आक्रोशित। इसी बीच तेज आंधी आ जाती है। वह भुटिया को आवाज देता है कि कहीं दूसरी गाय भी न साथ छोड़ दे। आंधी गुजर जाती है और भुटिया उसके पीछे सींग हिलाती खड़ी मिलती है। उसे थोड़ी राहत मिलती है।
भुटिया के साथ गांव की ओर बढ़ते ही उसकी नजर लाल साड़ी पहने सोनमतिया पर पड़ती है जो रामलगर वाले के पीछे पीछे जाती दिखाई देती है। उसका दिल बैठ जाता है। वह आगे बढ़ कर पूछना चाहता है कि कल तक तो कहती थी कि उसकी बहन रमरतिया का नेही रामलगर वाला उसे चील की तरह देखता है, लेकिन आज उसके पीछे कहां चली जा रही है? लेकिन वह पूछ नहीं पाता। लगा जैसे उसके आगे राकस खड़ा हो। कास की खूंटी खच-खच उसके पांव में गड़ने लगी... उसकी आंखें चौंधिया गई। गोरिया और सोनमतिया दोनों राकस की रोशनी साबित हुई। आखिर तक अपना होने का भरम देती दोनों उसे छोड़ गई। आंखों की लोर को गमछी से पोंछता रमदुखिया भुटिया के साथ घर लौट जाता है।
कोसी के उपद्रव के बीच कास-पटेर के जंगल में अंकुरित हुई, परवान चढ़ी और बिखर गई प्रेम कहानी को शालिग्राम ने पूरे देसी ठाठ और आत्मीयता से चित्रित किया है। दियारा की दुश्वारियों के दरम्यान स्पंदित जीवन की बहुरंगी बानगी पेश की है। सुख-दुख, प्रेम-बिछोह, उत्सव-उल्लास से गुजरते हुए संकटग्रस्त जीवन और मोहभंग की स्थितियों की गुनमंतरी तान छेड़ी है।
खेती-किसानी में ऊंच-नीच और शोषण के रेशे उधेड़ती कहानी
ग्रामीण जीवन में भोलापन, अपनत्व और साहचर्य ही नहीं बसते, शोषण भी तबीयत से तारी होता है। बड़े काश्तकार और जोतदार या जिनके परिवार में सरकारी आमद वाले लोग होते हैं, गांवों में उनकी तूती बोलती है। उनका कहा ही कानून होता है, उनकी नाफरमानी दंडकारक। छोटे खेतिहर, मजदूर और हरवाहे-चरवाहे उनकी नजरों में बेकार होते हैं। छोटी छोटी जरूरतों के लिए कर्जदार बनाते हैं और फिर खत्म न होने वाली बेगारी में जोतते रहते हैं। श्रम करवाकर भी प्रतिदान नहीं देते। विरोध पर कुटम्मस करते हैं। रोकने वाला कोई नहीं। न्याय की आवाज कहीं से नहीं आती।
अब जमाना बदल गया है। गांव अब पहले जैसा नहीं रहा। हरवाहे चरवाहे भी अब बाहर निकलने लगे हैं। नियम-कानून जानने लगे हैं। राजनीतिक चेतना ने आत्मविश्वास बढ़ाया है लेकिन शोषण का पंजा बिलकुल सिमट गया हो, ऐसा भी नहीं है। अब भी गांवों में गरीबी गम में डूबी रहती है, बस्तियों में बेचारगी बिसूरती है। शालिग्राम ने जिस दौर में 'बासमती' कहानी लिखी, तब के गांवों में लच्छो बाबू जैसों का राज था। उनका मानना था कि घोड़े पर सवार और लबार एक नहीं हो सकता। जो घोड़े पर सवार है, सारे संसाधनों पर उसका अधिकार है। जो लबार (बेकार) है, सेवा और श्रम ही उसका संसार है।
अजबलाल गांव का हंसोड़ आदमी है। मेला-तमाशा, नाटक-नौटंकी में करतब दिखाकर अपना पेट पालने वाला। ब्रह्म स्थान से लेकर बहियार तक हर कहीं उसकी मौजूदगी रहती है। बड़ों के बीच, बच्चों के साथ, युवाओं संग हर कहीं अजबलाल देखा जाता है। कहीं बतकही करते, कहीं चौकड़ी जमाए। जहां हाजिर, वहीं पेट भर लिया। चार जगह बैठता है तो बीड़ी-चिलम, भांग-गांजे से यारी है। इसी तरह उसकी जिंदगी गुजरती है। इसी बीच पत्नी बसमतिया के प्रस्ताव और नेताजी के भाषण से वह खेती करने का संकल्प लेता है। घर में एक गोला बाछा है, बसमतिया अपने मायके से कैला बाछा ले आती है। दो बैलों की जोड़ी और हल तैयार।
लच्छो बाबू से बंटाई पर दो बीघा जमीन लेकर अजबलाल सपरिवार अगहनी फसल से खेती की शुरुआत करता है। समय से बारिश हुई और बिचरा तैयार। अजबलाल और बसमतिया ने पूरे दस कट्ठा खेत में बासमती धान का बिचरा लगाया और डेढ़ बीघा खेत में मोटा धान बरोंगर बोया। भाई-भाभी के साथ दुलारी ने भी खेत में जी-तोड़ मेहनत की। फसल लहलहा उठी। अजबलाल को लगा अब वह सफल खेतिहर बन गया। लेकिन बात फिर वहीं लौटकर आती है कि लबार और घोड़े पर सवार एक नहीं हो सकते। बासमती धान से कोठी भरने की खुशी तब काफूर हो गई जब लच्छो बाबू ने हिसाब किताब के बाद सिर्फ दो मन धान छोड़ा अजबलाल के लिए, वह भी मोटा बरोंगर का। उसने सवाल किया और थोड़ा बासमती धान की मांग की। दुलारी के पाहुन को खिलाने के लिए। लेकिन लच्छो बाबू से दुत्कार के सिवा और कुछ न मिला।
अपनी मेहनत के अपमान से आहत और परिवार के अरमानों पर पलीता लगने से गुस्साया अजबलाल सिर तानकर खड़ा हो गया कि वह अपने हिस्से का सारा बासमती धान लेगा। क्योंकि उसे उगाने में उसका खून-पसीना बहा है। फिर क्या था, लच्छो बाबू ने उसकी जमकर कुटम्मस की। कोई बचाने नहीं आया। किसी ने आवाज नहीं उठाई। सारे देवता चुप्पी साध गए। ब्रह्म बाबा के नौ के नौ घोड़े काठ के साबित हुए। खिलौनों की तरह। समर्थ लच्छो बाबू ने मेहनतकश अजबलाल के अरमानों को रौंद दिया। और साबित किया कि लबार और घोड़े का सवार एक नहीं हो सकता।
'बासमती' कोसी क्षेत्र की नहीं, देश की ही नहीं, दुनियाभर के मेहनतकश लोगों की कहानी है। जो जबर है, वह दुब्बर की कबर खोद रहा है। जो निरीह है, वह ताकतवरों का निवाला बन रहा है। पद और पैसा से मजबूत लोग गांव में रहें या शहर में, सिक्का उन्हीं का चलता है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था का ताना-बाना ही ऐसा है कि राजनीतिक चेतना और नियम-कानून के बावजूद मालिक-मुख्तार घोड़े पर सवार है, मजदूर-बनिहार रहमोकरम का मोहताज। शालिग्राम ने 'बासमती' पर अधिकार की हकीकतबयानी से खेती-किसानी में ऊंच-नीच के चलन के रेशों को उधेड़ दिया है।
गंवई स्वाद के साथ कस्बाई अंदाज का बेहतर नमूना
'मरद की बात' और 'केंचुल' हैं तो ग्रामीण हलकों की ही कहानियां, मगर इनमें कस्बाई टच है। यहां हाट-बाजार है तो स्टेशन भी। फैक्ट्री है तो पटरियों से गुजरती रेलगाड़ियां भी। पूंजी का जोर है तो ग्राहकों को फौरी सेवा देने की तत्परता भी। देह का बांकपन है तो मन का काइयांपन भी। घर की मुर्गी को दाल बराबर समझने की प्रवृत्ति है तो हकीकत से पर्दा हटाने की कोशिश भी। कुल मिलाकर गंवई स्वाद के साथ कस्वाई अंदाज का बेहतर नमूना हैं दोनों कहानियां।
'मरद की बात' रेलवे स्टेशन के आसपास की कथा कहती है। चार आढ़तनुमा दुकानों का सिलसिला और एक मंदिर है वहां। आसपास के किसान अपना कच्चा माल लेकर इन दुकानों पर पहुंचते हैं, ट्रेन से आने वाले व्यापारी या महाजन इन्हें खरीद कर ले जाते हैं। बगल में ही साप्ताहिक हाट लगता है जहां हर तरह के सामान की खरीद बिक्री होती है। कहानी के केंद्र में सिमरी वाली मोदियाइन की दही-चूड़ा की दुकान है। इसलिए कि पैसे से मजबूत रघुबाबू हर हफ्ते हाट करने बारह बजे रात वाली घाटगाड़ी से स्टेशन उतरते हैं और मोदियाइन की दुकान पर ही ठहरते हैं। इसलिए कि पानवाली, परचून और पटुए की दुकानों में बैठने वालों के बीच चर्चा मोदियाइन की ही होती है। इसलिए कि मंदिर के पुजारी देवन महाराज रोज ही प्रसाद के लिए बताशा खरीदने मोदियाइन की दुकान पहुंचते हैं। इसलिए कि रघुबाबू के लिए मोदियाइन स्पेशल व्यवस्था करके रखती है। इसलिए कि हाट के दिन रघुबाबू दिल खोल कर मोदियाइन को बनाव-सिंगार की खरीदारी करवाते हैं। इसलिए कि सहयोगी गणपत से बाकी लोगों को मोदियाइन की दुकान के हर वाकये की खबर मिल जाती है और खूब चटखारे लिए जाते हैं।
रघु बाबू रात के बारह बजे की ट्रेन से आकर मोदियाइन के मेहमान बनते हैं। सुबह के नाश्ते के बाद दिनभर हाट-बाजार, खरीद-बिक्री करते हैं। रुकना हुआ तो फिर रात में ही मोदियाइन के यहां लौटते हैं और खाने-ठहरने के खास इंतजाम का सुख प्राप्त करते हैं। सालों से दुकान के सारे काम का बोझ उठाने वाले ठिगना गणपत की अहमियत मोदियाइन की नजर में कुछ भी नहीं। वह उसे मरद में गिनती ही नहीं।
इस दैनन्दिनी में तब बड़ा उलटफेर होता है जब एक रात घाटगाड़ी बहुत लेट हो जाती है। रघुबाबू की प्रतीक्षा में मोदियाइन की नींद उचट जाती है। वह कभी वाहर तो कभी भीतर टहलती है। ऐन वक्त गणपत के भीतर का मरद जागता है। उसे खयाल आता है कि दुकान में मरद तो वही है तो उसका हक भी उसे ही मिलना चाहिए। रघुबाबू के इंतजार में बेजार मोदियाइन का हाथ पकड़कर गणपत कहता है, 'अबे चल उठ मोदियाइन। रात बहुत बीत गई। हम साथ सोएंगे।' (पृष्ठ 16) मोदियाइन हक्का-बक्का। गणपत के मुंह से अपने लिए रानी शब्द सुन तमकती, गरियाती है। सालों से दुकान में खट रहा ठिगना गणपत आज अजनबी मरद दिखाई देता है। उसे भ्रम होता है कि वह अपनी ही दुकान में है या गलती से दूसरे की दुकान में पहुंच गई है। वह अपनी देह का कपड़ा ठीक करती है। ऐसे में गणपत को देख मोदियाइन को पुराने दिनों का नाच याद आता है जिसमें नचनिया बना छोकरा ढोलक की थाप और हारमोनियम की धुन पर थिरकता है। पट्रोमैक्स की रोशनी में उसका चेहरा दमकता है। नाच का लबार कहता है, 'रानी पिरितिया तोहार...रानी।' इस वक्त मोदियाइन को गणपत में वही छोकरा नजर आया। रूपवान और पूर्ण मरद। रात भर गर्मी महसूस करने वाली मोदियाइन को मौसम बदला नजर आया। वह लजायी, अंगिया ठीक किया और साड़ी को संभाल कर पहना।
लगभग भोर में आने वाली ट्रेन से उतरे रघु बाबू उस दिन मोदियाइन की दुकान पर नहीं, अपने गांव वाले पुजारी देवन महाराज के मंदिर पर ठहरने चले जाते हैं। जिस मोदियाइन ने रात भर रघु बाबू का इंतजार किया, वह उनके मंदिर की ओर बढ़ जाने पर अचकचाई नहीं, बल्कि गणपत को देख कर मुस्कुरा उठी।
शालिग्राम यहां लगाव के दो रूप सामने रखते हैं। पहला जो मोदियाइन और रघुबाबू के बीच है जो विशुद्ध व्यापारिक है। लेन-देन पर आधारित। और दूसरा मोदियाइन और गणपत के बीच जो सामंजस्य का आकांक्षी है। यहां प्रेम का अभाव है, समर्पण कतई नहीं है। प्राप्ति की प्रतीक्षा है लेकिन प्रणय की प्रेरणा बिलकुल नहीं। स्टेटस की चिंता है, उपकार का सम्मान नहीं। निचले दर्जे की चुहलबाजियां हैं, अच्छा सोचने की चाहत नहीं। 'मरद की बात' का मुख्य फोकस कस्बाई चलन पर है जिसे शालिग्राम ने चुटीले अंदाज और सटीक प्रतीकों से उभारा है।
लगाव का एक अंदाज 'केंचुल' कहानी में भी है। बचकाना है लेकिन 'मरद की बात' की तुलना में स्वाभाविक और शुद्ध। चाय-नाश्ते की दुकान पर काम करने वाला सिद्धेसरा और कोयला बीनने वाली पियरिया के बीच का लगाव उस भरोसे पर आधारित है जो बालपन की आवारगी के बीच कायम होता है। लोकोशेड और रेलवे लाइन के किनारे कोयला बीनने के दौरान बनी हमजोली एक दूसरे का सहयोग करने किंतु हंसी-ठट्ठा में रमी है।
फ्लावर मिल और बुड्ढे की चाय की दुकान में काम करने से पहले सिद्धेसरा भी उस टोली का हिस्सा था जो कोयला बीनती थी। एक दूसरे की मदद करने के कारण दोनों में अपनत्व बढ़ा था। एक बार गर्म कोयला उठाने से पियरिया का हाथ जल गया था। पीड़ा से छटपटाती पियरिया के हाथ को अपने हाथ में दबाते हुए तब सिद्धेसरा ने ही उसे राहत पहुंचाई थी।
गरीबी और परिवार की जरूरत को पूरा करने के लिए सिद्धेसरा बचपन से ही खटता रहा है। पहले फ्लावर मिल में काम किया। मिल मालिक राय साहब का खौफनाक अंदाज और मोटी छड़ी वह भूला नहीं है। मिल के बड़े बड़े पिलर और चिमनी से निकलता काला धुआं उसके जेहन को जब तब सिहराती रहती। फिर उसने बूढ़े की दुकान संभाली। दिन-रात खटते हुए ग्राहकों की सेवा करता रहा लेकिन बूढ़े ने गालियों और घुड़कियों के अलावा राहत के एक पल भी नहीं दिए। इसी दुकान पर एक दिन पियरिया आई और उसे पहचान कर उससे चुहल करने लगी। अंदर बैठे बूढ़े को दोनों के बीच का अपनापा अच्छा नहीं लगा। उसने दोनों के बीच संवाद में विघ्न डालते हुए सिद्धेसरा को सुबह से पछिया हवा तेज होने और कौवे के कांय कांय करने की बात कहकर जल्दी से हांडी चढ़ाने को कहा ताकि अंधड़ न फंस जाए। पियरिया को इस पर हंसी आ जाती है। बूढ़े को यह हंसी कड़की। जैसे बिजली का झटका लगा हो, वह ऊपर से नीचे तक झनझना उठा। उसे शक हो गया कि कहीं यह लड़की सिद्धेसरा को भगा न ले जाए। लेकिन दोनों के बीच आत्मीय संवाद को देखकर चुप्पी साध ली। मन ही मन दोनों की बातचीत और झुकाव की तासीर तौलता रहा।
इसी बीच पियरिया ने सिद्धेसरा से एक कप चाय मांगी। सिद्धेसरा ने तुरंत चाय दे दी लेकिन जब पियरिया बिना पैसा चुकाए जाने लगी तो विशुद्ध दुकानदार की तरह फटकारा। पियरिया को सिद्धेसरा के दुकानदार वाले अंदाज पर हंसी आई और उसने ताने भी मारे। फिर जाहिर किया कि उसकी डलिया तो अभी भरी नहीं है। ट्रेन गुजरेगी और कोयला गिरेगा तो उसकी डलिया भरेगी। लेकिन सिद्धेसरा ने एक नहीं सुनी। उसने पियरिया की डलिया छीन ली। पियरिया का चेहरा फक्क रह गया। अपने संगी से उसे ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं थी। मुंह लटकाए वह वहां से चली गई। लेकिन अपने सहायक की इस अदा पर दुकान वाले बूढ़े को राहत भरी हंसी आई। वह लड़के की ईमानदारी से खुश हुआ।
बूढ़े की बकबकी और तीखी नजर से तंग सिद्धेसरा को अपने रवैये पर पाश्चाताप हुआ। कोयला पसारते हुए उसे पियरिया का उदास चेहरा याद आने लगा। यह भी ध्यान आया कि इसी कोयले के लिए वह दिन-दिनभर रेलवे लाइनों की खाक छानती रही होगी। इसी डलिया भर कोयले से उसके घर की जरूरतें पूरी होतीं। उसने विचारा, पियरिया से कोयला छीन कर दुकानदार को मुनाफा तो करा दिया लेकिन एक गरीब के श्रम का अपमान कर दिया। इस घटना ने उसे एक फैसले पर आने की राह दिखाई। अब उसे न फ्लावर मिल का वह पिलर डरावना लगा जो बनमानुष नजर आता था और न ही चिमनियों का उगलता धुआं जो हमेशा दहशत पैदा करता था। रौबदार मिल मालिक राय साहब की मौत की खबर ने उसे अलग तरह की राहत दी। उसका विश्वास जागा और वह आहिस्ते आहिस्ते केंचुल बदलते सांप की तरह दुकान छोड़ आगे सड़क पर निकल गया।
गुलमोहर और नीम के पेड़ के प्रतीकों से शालिग्राम ने 'केंचुल' कहानी में जीवन के सुंदर-असुंदर पक्ष को सामने रखा है। दोनों ही पेड़ों को निहारते निहारते सिद्धेसरा अलहदा भावों से भर उठता है। नीम की फली सड़क पर गिरती है उसे कोई नहीं उठाता, बल्कि पैरों से रौंदी जाती है। गुलमोहर के लाल लाल फूलों के गुच्छे झड़ते हैं जो सुंदर होते हैं और सबको भाते हैं। एक बच्चे के मन में सौंदर्य बोध का प्रतीकात्मक निरूपण बढ़िया प्रयोग है। दूसरा प्रतीक रामलीला का है जो कथा के साथ साथ चलता है उसकी संवेदनाओं को स्पष्ट करने में सहायक होता है। खरदूषण वध होते होते सुबह का तारा निकल आया था। तब का सोया सिद्धेसरा दिन चढ़ने पर बूढ़े दुकानदारी की गालियों से जागता है। कोयला बीनने के दौरान चुहलबाजी के बीच ड्राइवर के सीटी बजाने से हुई भाग दौड़ में पियरिया की डलिया ट्रेन के इंजन के पास ही छूट जाती है। सिद्धेसरा साहस के साथ डलिया उठा लाता है। तब पियरिया बहुत खुश हो जाती है। उसके होठों पर हंसी दौड़ आती है। ठीक वैसी जैसी रामलीला में राम को देख कर सीता जी मुस्कुरा पड़ी थीं।
पियरिया के अपमान के बाद जब सिद्धेसरा दुकान छोड़ने का मन बना लेता है, उस दिन रामलीला में सीता हरण के मंचन का ऐलान होता है। लेकिन इस घोषणा से सिद्धेसरा के मन में उत्सुकता नहीं होती है, बल्कि उसके दिल को चोट लगती है। रावण सीता मैया को हर ले जाएगा। नहीं, वह नहीं देख पाएगा सीता हरण। राम का विलाप उससे न देखा जाएगा, न सुना जाएगा। गुलमोहर की सघन पत्तियों के ऊपर आकाश में टिमटिमाते एकल तारे को देखकर सिद्धेसरा अनुमान लगाता है कि इस वक्त पियरिया कहां होगी। उस दिन कस्बे की सारी गतिविधियों को तज कर सिद्धेसरा नई राह पर निकल पड़ता है।
वाह के साथ आह दर्शाने वाली बड़े फलक की कहानी
'नटुआ दयाल' लोक नृत्य पर आधारित बेहतरीन कहानी है जो मंच के सरगम को जितनी तत्परता से अभिगूंजित करती है, उतने ही महारत से नेपथ्य का तिलिस्म भी तोड़ती है। नटुआ दयाल, उसकी पत्नी चंपिया और मनमोहन मास्टर का त्रिकोण कहानी को कई त्रिभुज से गुजारता है। नाच मंडली, उसके किरदारों, उनके परिवारों के देखे-अनदेखे, कहे-अनकहे को सामने रखता है। शालिग्राम अपने गांव 'पचौत' के मुखिया रहे हैं। आयोजनों, उसकी कठिनाइयों, उसके सकारात्मक-नकारात्मक पहलुओं से वाकिफ रहे हैं। उन्हें पता है कि मंच पर यदि सब कुछ ठीक है तो इसलिए कि नेपथ्य दुरुस्त है और दर्शक माकूल। हारमोनियम के सुर यदि सधे हुए हैं तो इसलिए कि मास्टर का मन आशंकाओं से दूर है। घुंघरुओं की खनक यदि मनभावन है तो इसलिए कि उसका धारक दुविधाओं से विरत है। लेकिन यदि पांव की गति तबले की थाप और हारमोनियम के सुर से तालमेल नहीं खा रही हो तो घुंघरू के बोल का कोई मोल नहीं। फिर लाख कोशिश कर लें, दर्शकों के दिल में उतर नहीं सकते।
'नटुआ दयाल' कहानी से गुजरते हुए भिखारी ठाकुर बरबस याद आए। विसंगतियों और गलत रिवाजों पर प्रहार करने, सच को करीब से देखकर प्रदर्शित करने की ईमानदार कोशिश उनकी खूबी थी। बिदेसिया को जिस तरह उन्होंने आम जीवन से जोड़ दिया था, वैसे ही नटुआ दयाल की संरचना में शालिग्राम का लोक प्रेम गहरे लगाव के साथ नजर आता है। साथ ही स्टेज के पीछे के अनर्गल व्यवहार और कलाकारों की मानसिकता की भी बखिया उधेड़ते हैं। कहानी की प्रस्तुति बताती है कि लोक संगीत का उन्हें पर्याप्त ज्ञान है। नाच की बहुरंगी छटा और उसके असर से वह खूब वाकिफ हैं। इसलिए बेहद रमनीयता के साथ कथासूत्र को बुनने और गुनने में सफल होते हैं।
बिहुला बिसहरी अंग महाजनपद और कोसी अंचल की प्रसिद्ध लोक कथा है। बिसहरी के दंश से मृत बाला लखिंदर को दोबारा जिंदा कर लेने की पत्नी बिहुला के प्रताप पर आधारित इस लोकनृत्य की गहरी पैठ जनमानस के दिलोदिमाग पर है। क्या गांव क्या कस्बा, अंग और कोसी के शहरी क्षेत्र में भी सती बिहुला का मंचन खूब किया जाता है। भागलपुर की मंजूषा कला या पेंटिंग तो पूरी तरह बिहुला बिहसरी कथा पर आधारित है। भागलपुर शहर के परबत्ती इलाके में बाकायदा सती बिहुला का मेला लगता है, कला प्रदर्शनी सजती है। सोचा जा सकता है कि जिस कथा से घर घर के लोग सुपरिचित हों, उसे अगर त्रुटिरहित प्रस्तुत नहीं किया जाए तो मंडली को कितनी नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है।
नटुआ दयाल नाच में सती बिहुला का रोल अदा करता है। दृश्यों के बीच रंग जमाने वाले और ऐंद्रिक गीतों पर नृत्य भी करता है। हारमोनियम पर मनमोहन मास्टर संगत करते हैं और ढोलक पर सहदल की थाप पड़ती है। तीनों की जुगलबंदी से स्टेज पर समां बंध जाता है। नटुआ हारमोनियम मास्टर मनमोहन गुरुजी का शागिर्द है और नाच का नायक भी। उसकी अदायगी और भंगिमाओं में इतनी जीवंतता होती है कि दर्शक सती बिहुला की जयकार कर उठते हैं। नटुआ दयाल का नाम बिहुला नाच के सफल होने की गारंटी मानी जाती है। दर्शक टूट पड़ते हैं नाच देखने, लेकिन खुद नटुआ दयाल की पत्नी चंपिया इस सुख से वंचित रहती है। उसका मन बहुत करता है लेकिन नटुआ दयाल ने मना कर रखा है। वह नहीं चाहता कि चंपिया उसे स्त्री रूप में देखे। बनाव सिंगार से लकदक जिस रूप पर दर्शक ही नहीं मंच और नेपथ्य के किरदार भी लहालोट हो जाते हैं, उसका साक्षात्कार नटुआ की पत्नी ही नहीं कर पाती है। नटुआ जानता है कि मंच पर उसकी बांक अदाएं कातिल होती हैं। खुद मनमोहन गुरुजी कई बार घायल दशा को प्राप्त हुए हैं। गुरुजी का उसके घर आना जाना है। प्रकारांतर से चंपिया को बतकही में घसीट भी लेते हैं। इसलिए नटुआ नहीं चाहता कि नाच के किसी पक्ष से चंपिया का वास्ता रहे। वह नाच मंडली और घर के संबंधों को अलग अलग खांचे में रखना चाहता है।
नटुआ की लोकप्रियता से चंपिया अचंभित है। जिस दिन चांदो सौदागर के सातवें बेटे बाला लखिंदर पर देवी बिसहरी का कोप पड़ने और नाग के डसने की कथा दिखाई जानी है, उस दिन भीड़ उमड़ पड़ती है। शाम से ही दर्शकों की लंबी कतार से भरी सड़क और पगडंडियां देख चंपिया दंग रह जाती है कि उसका नटुआ इतना बड़ा लोग हो गया है। यह क्या बात हुई कि जिसे देखने दुनिया उमड़ पड़े, उसकी औरत घर में अकेली बैठी रहे। अचानक उसके भीतर कंपन होने लगता है। लगता है जैसे सारी औरतें उसे पछाड़ने के लिएउसकी तरफ ही आ रही हैं। उसके अंदर का नाग फुफकार उठता है। वह डस लेगी सबको ताकि कोई जा नहीं पाए उसके नटुआ के रूप को चुराने के लिए। चंपिया के भीतर तूफान उठ खड़ा होता है। वह विद्रोह भाव से भर उठती है। नटुआ क्या उसे बिलकुल माटी की मूरत समझता है। निरा खिलौना। नटुआ की सारी हिदायत, निगरानी और गिरगिराती आरजू को चंपिया चकनाचूर करने पर आमादा हो जाती है। चाहे नटुआ ठीक से अपना रोल अदा कर पाए या उसका रूप मिट्टी हो जाए, लेकिन आज वह अपने मरद की सूरत देखकर रहेगी। और पूरी साज-संवर के साथ चंपिया नाच में पहुंचकर दर्शकों के बीच बैठ जाती है।
बिहुला बने नटुआ का शृंगार देख चंपिया आनंद से गदगद हो जाती है। वह गौरव बोध से भर उठती है कि महफिल में जिसकी जय-जयकार हो रही है, वह उसका मरद है। लेकिन वही हुआ जिसका डर था। बिहुला का रोल अदा करते नटुआ की नजर एकाएक दर्शकों के बीच बैठी चंपिया पर पड़ जाती है। वह चिहुंक उठता है। एकाएक उसके भाव और नृत्य का पटाक्षेप हो जाता है। गुस्से से उसकी आंखें निकल आती हैं, सांसें फूलने लगती हैं। मनमोहन गुरुजी की लाख कोशिश के बाद भी नटुआ संभल नहीं पाता। झटके से उठ चंपिया की ओर झपटता है। चंपिया घर भागती है। गालियां देता नटुआ घर पहुंचता है और चंपिया को लात-घूंसों से जानवरों की तरह थुर देता है।
नाटक-नौटंकी और नाच-खेला के प्रति यह धारणा आम पुरुषों की है। लोग अपने घर की ्त्रिरयों को ऐसी जगहों पर जाने से रोकने की भरसक कोशिश करते हैं। वे अमूमन मानते हैं कि दर्शक सिर्फ खेला नहीं देखते, छिछोरपना भी खूब करते हैं। ्त्रिरयों की टोह लेने और उनके नजदीक आने की फिराक में रहते हैं। चंपिया को पीटते हुए जो कुवचन नटुआ निकालता है, वह उसी मानसिकता को उजागर करता है, 'स्साली रंडिया कहीं की, नाच देखने गयी थी नाच! परेमी सब से सिनेह जोड़ने, सेंट-इत्तर लगाकर फुलपरी बनने...विष-विषी उठ गयी है देह में- मरद सब से बदन घिसवाती है..हरामजादी, छिनार की जात, छिनरझप्प खेलती है-झूठ बोल कर दूसरे का मूठ पकड़ती है।' (पृष्ठ 7)
नाच रुक जाता है। दर्शक तितर-बितर हो जाते हैं। गुरु-चेला के बीच अबोल की स्थिति हो जाती है। नटुआ नाच से दूर हो जाता है। मनमोहन गुरुजी नए सिरे से बिहुला तैयार करते हैं। डुमरिया को बिहुला बनाते हैं। लेकिन कहां नटुआ का सधा अंदाज और कहां डुमरिया का लचर हाल। मनमोहन मास्टर के लाख कोशिश के बाद भी सुर और ताल का मेल नहीं हो पाता। दर्शक बिहुला बने डुमरिया में वह साधना और तरन्नुम नहीं पाते जिसे देखने वे रतजगा करते रहे हैं।
मनमोहन मास्टर परेशान हैं लेकिन डुमरिया की बीवी मेघिया खुशी में फूहड़ बनी इधर से उधर फिरती है। वह तो बस इसी बात से फूलकर कुप्पा है कि उसका मरद नाच का सरगना बना हुआ है। बिहुला की गोद में लेटे बाला लखिंदर को नाग के डसने वाले प्रसंग की पुनरावृत्ति के दिन नटुआ दयाल दर्शक बनकर आया है। नाच की गहनता में कमी पाकर उसके मन में टीस होती है कि क्यों उसने उस दिन मंच छोड़ दिया था। क्यों उसने मनमोहन गुरुजी से नाता तोड़ लिया। इसी उधेड़बुन में नटुआ भीड़ से उठकर स्टेज के पीछे चला आता है। और वहां जो कुछ वह देखता है, उससे न सिर्फ उसके पैरों के नीचे धरती खिसक जाती है, बल्कि अपनी औरत चंपिया लाखों में एक नजर आने लगती है। वह देखता है कि बाला लखिंदर बना बदमिया का बेटा बिलसवा नाग के डसने का दृश्य खत्म होने और पर्दा गिरने के बाद स्टेज के पीछे आ जाता है और अपने मरद डुमरिया का विलाप देख रही मेघिया को अपनी बांहों में भर लेता है। हाथों से उसका मुंह बंद कर देता है ताकि वह चीख नहीं सके। स्टेज पर डुमरिया की भूमिका में कोई बाधा न पहुंचे, इसलिए मेघिया चुप्पी साध लेती है बल्कि गांव के लफंगे के रूप में मशहूर बिलसवा से चिपक जाती है।
नटुआ नाच से निकल कर सीधे अपने घर लौट आता है जहां चंपिया अपने पति दयाल को खिलाने के लिए मछलियां तल रही होती है। नटुआ गुमान से भर उठता है। उसे लगता है उसकी चंपिया दुनिया की सबसे सुंदर और लाजवाब स्त्री है। स्टेज का नाच तो केवल ढकोसला है, महज स्वांग। असल बिहुला तो उसकी चंपिया है। सबसे शुद्ध, सबसे अलग। बिलकुल निश्छल।
मन साफ होते ही नटुआ के भीतर बिहुला नाच की नई शुरुआत हो रही है जिसमें न कोई परदा है और न स्टेज। दर्शकों के बीच नटुआ और नटुआ के बीच दर्शक। मनमोहन गुरुजी आंखें फाड़-फाड़कर देखते हैं, नटुआ दयाल बाला लखिंदर की तरह बिहुला बनी चंपिया की गोद में लेटा हुआ है। सती बिहुला से बाला लखिंदर तक के इस मन परिवर्तन के पीछे रचनाकार शालिग्राम का मंतव्य वास्तव में पुरुषवादी सोच में बदलाव की जरूरत को इंगित करना है। जाहिर है, जिस वक्त शालिग्राम ने नटुआ दयाल को रचा होगा, निश्चय ही ्त्रिरयों के प्रति पुरुषों की सोच संकीर्ण और प्रतिबंधकारी रही होगी। ऐसी स्थिति यदि आज भी कायम है जैसा कि हम रोजमर्रा की जिंदगी में पाते हैं तो निश्चय ही इस उल्लेखनीय, प्रगतिशील और कालातीत रचना के लिए शालिग्राम बधाई के पात्र हैं।
कई कारणों से संगठन, मंडली और समुदाय में मनमुटाव और दूराव की स्थिति पैदा होती है। घनिष्ठता और सक्रियता के बावजूद। ऐसे में सामूहिक कार्य बाधित होता है, नई मुसीबतें सामने आती हैं। उम्र का फासला होने के बावजूद मनमोहन मास्टर और नटुआ के बीच मित्रता जगजाहिर थी। उनके बीच के सामंजस्य से ही नाच मंडली सफल थी लेकिन जब दोनों अलग हुए तो स्टेज की रौनक ही खत्म हो गई। दर्शकों का उत्साह जाता रहा, जैसे तैसे काम चलाने की विवशता नेपथ्य में अनैतिकता की वजह बनने लगी। नाच-नौटंकी की बाहरी-भीतरी सच्चाई से वाकिफ शालिग्राम वाह के पीछे की आह को उद्घाटित करने और बड़े फलक की कहानी लिखने में सफल हुए हैं। कहानी में प्रयुक्त गीतों के विविध बोल दर्शाते हैं कि आसपास के परिवेश से लेखक का जमीनी जुड़ाव काफी गहरा है। कहानी में प्रयुक्त भाषा कथा के अनुकूल और संवेदनाओं का संधान करने वाली है। कलाकारों के मनोजगत को पकड़ने में सक्षम कहानीकार पठनीयता को बरकरार रखने में कामयाब हैं।
समर्थ और बहुआयामी लेखन का श्रेष्ठ उदाहरण
'पाही आदमी' शालिग्राम के समर्थ और वजनदार कथा लेखन का श्रेष्ठ उदाहरण है। जीवन के हर रस, हर छंद और हर अलंकार से सजी उदात्त कहानी। उस मजबूत नाव की तरह जो पानी के बहाव में अपना पताका फहराती हर घाट से गुजरती है। तमाम ऊंच-नीच, ज्वार-भाटा से भरी उस यात्रा की तरह जिसमें जीवन चक्र अपनी सतरंगी छटा बिखेरता चमकीले तारे सा नजर आता है। प्रेम-प्रबंधन, भरम-भरोसा, उम्मीद-उल्लास, आचार-आक्रोश, आवेग-आखेट, समर्पण-प्रतिगमन, संकल्प-संतुष्टि, निर्णय-निरूपण के सभी भावों-संवेदनाओं से सजी 'पाही आदमी' कर्मनिष्ठ और ऊर्जावान जीवन के पक्ष में खड़ी बहुत बड़ी कहानी है।
हम सभी जानते हैं कि धरती का तीन चौथाई हिस्सा पानी से भरा है। एक चौथाई हिस्से में जमीन है वह भी बिखरी हुई। धरती पर अब तक प्राप्त जीवों में मानव जीवन ही तरतीब भरा है। ध्येय और विविधता से संपन्न। बुद्धि-विवेक से लबरेज। जरूरत मानव रक्षा की है ताकि विप्लव और ध्वंस के बाद भी जीवन स्पंदित होता रहे। जाहिर है, विषम परिस्थितियों में उसकी ही रक्षा हो पाएगी या वही बच पाएगा जो नए सृजन में सक्षम होगा। ताजा और तप्त होगा। संतुलित गुणों से संपन्न होगा। 'पाही आदमी' में जल प्लावन आने पर साहसी लछमन का जीवन सूत्र हिलसा को लेकर नाव से निकल जाना बीज रक्षा के इसी भाव से भरा है जो नए सृजन का आधार होगा। साक्षी के तौर पर मूक-बधिर बलेलवा को डोंगी पर बैठा लेता है जो नाहक बोलने-सुनने वालों से कहीं अधिक जीवन के पक्ष में खड़ा है। घाट पर डूब रहे लोग बूढ़े थे, शिथिल थे, नियति के मारे थे, प्रतिगामी थे, संकल्पहीन थे। इस सच को घटवार राम सकल सिंह और बूढ़े मल्लाह अजोधी समझ रहे थे, इसलिए लछमन और हिलसा के लिए उनके मुंह से दुआएं ही निकलती हैं।
कोसी का कहर बसावट बर्बाद कर देती है। कुछ देर तक तो लछमन ने लोगों को नाव पर ढो-ढोकर ऊंचे स्थान पर पहुंचाया लेकिन जब लगा कि अब कोई कहीं नहीं बच पाएगा तो फिर वह एक फैसला करता है और हिलसा को डोंगी पर बैठाकर कोसी के खतरनाक प्रवाह में उतर जाता है। इससे तिलमिलाए कमरुआ की पीठ पर हाथ रखते हुए घटवार रामसकल सिंह कह उठते हैं, 'मन छोट मत कर जुआन। कोसी के पेट में हम सब पाही हैं - चाहे घाट मरैया का बैठार हो या ऊंचे-ऊंचे बंगले का पठार, इसके उफान से कोई नहीं बच सकता है। तू अपन दिल के मैल हटाब...हिलसा को अच्छा संगी मिल गैल...काहे को सियाह बनत बा?' (पृष्ठ 59)...अपने गाल पर के लुढ़कते आंसू को पोछते हुए हिलसा का बूढ़ा बाप अजोधी कह उठता है, 'सकल बाबूजी! अब ई बुढ़वा का सब सुगारथ पूरा हुआ। इस जिनगी का कोई मोल नहीं बाबू। माटी देह को लेले कोसिका। आंखें जुड़ा गईं - कोख भरे हिलसा का...युग युग जीए सकल दोनों जोड़ी।' (पृष्ठ 59)
'पाही आदमी' एक प्रेम कहानी है। दो युवाओं के बीच स्वाभाविक आसक्ति से ऊपर एक-दूसरे की सीरत में उतर जाने के स्तर का प्रेम। गुणवत्ता से युक्त अधिकतम निश्छलता से लबालब प्रेम। भरोसा करने और उसे निभाने का संकल्प भरा प्रेम। बाकी सारी भावनाओं को भुलाकर एकाग्र हो जाने वाला प्रेम। गीतों में गूंजते जीवन की डोर को थामने के लिए तत्पर प्रेम। सृजन की ऊर्जा को आत्मसात करने से उपजी मुस्कान से संतृप्त प्रेम। लछमन और हिलसा के बीच अटूट प्रेम और भरोसे के कई दृश्य लेखक ने अंकित किए हैं। कोसी की पुरानी धारा सोनबगहा में डोका-सीपा चुनने के बाद सब सारी सखी-सहेलियां घर जाने लगती हैं तो हिलसा इसलिए रुक जाती है क्योंकि उसने लछमन को डोंगी नाव लेकर आने कह रखा है। शाम हो गई, सहेलियों ने लछमन को लेकर उससे चुहल भी की लेकिन वह सोनबगहा से हिली नहीं। उसे विश्वास था कि लछमन जरूर आएगा। अंधेरे-सूनसान छारन में अकेली बैठी रही। लछमन की जगह कमरुआ के आने की आशंका भी मन में आई और डर भी गई। लेकिन तभी लछमन को डोंगी लेकर आता देख उसकी सारी नाराजगी खत्म हो गई। कमरुआ की आशंका से कास के फूल की तरह डोलने वाली हिलसा लछमन को देखकर कमल के फूल की तरह खिल उठी, 'सून-सपाटा छारन जैसे कोलाहल से गूंज उठा हो- इस जवां मर्द के साथ अब वह हिरणी नहीं, शेरनी बन गई...आए, अब कमरुआ उसके सामने।' (पृष्ठ 44) देर से पहुंचने की गलती सुधारने के लिए लछमन डोंगी से हाथ बढ़ाकर लंबे डंठल वाला सफेद कोका का फूल उखाड़ लेता है। उसे माला बनाकर हिलसा के गले में डाल देता है। इस छुअन से हिलसा का बदन गुदगुदा उठता है। उसका रहा-सहा गुस्सा काफूर हो जाता है और वह खिलखिला उठती है, 'तू बड़ा दिलमोहना है रे! जादू का जाल फेंकनेवाला...' (पृष्ठ 47) फिर हिलसा की इच्छा पर लछमन गीत के तान छेड़ता है जिसे सुनकर भावातुर होकर वह कहती है, 'तू मांझी है कि नटुआ दयाल रे लछमन!...वाह रे मनमोहना!' (पृष्ठ 48) बीच नदी बह रही नाव पर हिलसा लछमन के बदन से लुढ़क जाती है और लछमन उसे अपने भुजपाश में बांधता निहाल हो उठता है।
इसी तरह, सालाना उत्सव में जब लछमन नाव की रेस जीत लेता है तो हिलसा का सहेजा सिंदूर बिसहरी मैया के पिंड पर लगाता है। बिसहरी मैया को सिंदूर का यह प्रतिदान हिलसा की मन्नत पूरा होने पर देवी को आत्मिक नमन ही नहीं, इस बात का सुकून भी कि उसका मांझी अब उसे अपनाने के सर्वथा योग्य है। विजयी होकर लौटे लछमन के स्वागत में खड़ी हिलसा के लजाकर कमरे की ओर भागना प्रेम की स्वीकृति की तस्दीक है। ..और जल प्लावन में हिलसा के लिए जग छोड़ देने के लछमन के कदम ने तो इस प्रेम कहानी को मुकम्मल कर दिया, तोरे लेके राज बनवास।
'पाही आदमी' एक घटना प्रधान कहानी है। कोसी के जल प्लावन में डुमरी घाट और मलहटोली के डूब जाने की सबसे बड़ी घटना तो है ही। सैकड़ों असहाय लोगों की अनिच्छित जल समाधि की भी घटना है। सामर्थ्यवान घटवार रामसकल सिंह के कारोबार के विनष्ट होने की घटना है। बूढ़े मल्लाह की बेटी के बिदेसिया प्रेमी के साथ बिदा हो जाने की घटना। मांझियों के सालाना उत्सव में पाही लछमन के चैंपियन होने की घटना। सूनसान सोनबगहा कछार में अकेली बैठी हिलसा को डोंगी से घर ले आने की घटना। शाम के धुंधलके में नदी की छाती पर भरोसे का प्रेम में परिवर्तित होने की घटना। अजोधी के घर से ईष्र्यालु कमरुआ के रुखसत होने की घटना। लछमन को मलहटोली से भगाने के कमरुआ के बहुस्तरीय प्रयासों से भरी घटना।
'पाही आदमी' एक व्यावहारिक कहानी है। शुरू से आखिर तक कहानी में जीवन व्यवहार का विविध पक्ष प्रदर्शित होता है। घाट की व्यवस्था, नावों का प्रबंधन, सवारियों की आवाजाही, कारोबार की निरंतरता, मछली पकड़ना, डोका-सीपा चुनना, किसी एक को तवज्जो मिलने से असंतोष उभरना, पंचायत करना, उत्सव मनाना, शक्ति प्रदर्शन करना, श्रेष्ठ और संकल्पवान का विजयी होना सब जीवन व्यवहार के स्वाभाविक पक्ष हैं। बेटी के लिए योग्य वर की संभावना देखकर उनकी निकटता को अनदेखा करना, घाट शुल्क के अलावा मल्लाह को मिलने वाली बख्शीश को नजरअंदाज करना, उत्सव के समय लाभ-हानि की चिंता छोड़कर घटवार का दिल खोलकर खर्च करना व्यावहारिक जीवन के संजीवनी सूत्र हैं।
'पाही आदमी' एक भावना प्रधान कहानी है। बाहर से आए लछमन के लिए अजोधी के मन में पहले दिन से उठा ज्वार कभी खत्म नहीं हुआ, बल्कि उसकी कर्मठता, जुझारूपन, ईमानदारी और स्वाभिमान के कारण समय के साथ भरोसा बढ़ता ही चला गया। उसे बच्चे की तरह पाला, उसे शिष्य की तरह प्रशिक्षित किया और हर तरह की छूट दी। मल्लाही का सारा काम सौंपकर न केवल अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया, बल्कि अपनी बेटी हिलसा के लिए योग्य वर के रूप में स्वीकार कर लिया। दोनों को हिलते-मिलते पाकर, एक-दूसरे पर भरोसा करते देखकर खुश ही हुआ, कोई बाधा उत्पन्न नहीं की। अजोधी की इस पितृभावना का लछमन ने भी खूब मान रखा। उसे पूरी तरह आराम देकर सारी मल्लाही अपने सिर उठा ली। जल प्लावन के दौरान हिलसा को नाव पर बैठाकर बीच नदी में पहुंचे लछमन ने पलट कर मलहटोली पर नजर दौड़ाई तो वह भावुक हो उठा। उसे बचपन से अब तक के सफर की सारी स्मृतियां हो आईं। जिस धरती ने उसे स्थान दिया, जिस मल्लाह ने पहचान दी उसे डूबते देख उसकी आंखें भर आईं। उसने आवाज देकर सबसे क्षमा मांगी। खुद घटवार राम सकल सिंह लछमन के प्रति स्नेह से भरे हुए थे। उसकी ईमानदारी, कर्मठता और सहयोगी भावना के वह कायल थे। मल्लाही के सालाना उत्सव में लछमन के खिलाफ भड़काई जा रही भावनाओं को उन्होंने बुद्धिमत्ता के साथ ठंडा किया। हिलसा से लछमन के विवाह के खिलाफ कमरुआ के प्रयासों से बुलाई गई पंचायत को उन्होंने तेवर दिखाकर मकसदहीन कर दिया। यही नहीं, नाव की रेस जीतने पर देवी बिहसरी के गहवर में ही चांदी का तमगा पहनाकर रामसकल सिंह ने लछमन को बड़ा मांझी करार दिया। आनंद विह्वल होकर उसे अपनी छाती से लगा लिया। कमरुआ से बार-बार अपमानित किए जाने के बावजूद लछमन ने उसके मूक-बधिर भाई बलेलवा को न केवल साथ रखा, बल्कि उसे स्नेह और भरोसे से भर दिया। एक ऐसा क्षण भी आया जब नींद में बेसुध हिलसा के युवा शरीर को देखकर जवान लछमन की इंद्रियां भड़क उठीं। उसकी कर्मेंद्रियों और अंत:करण के बीच रस्साकशी हुई। लेकिन हिलसा के भययुक्त इनकार और लछमन की ग्लानि ने मिलकर उस क्षणिक आवेग का पटाक्षेप कर दिया। वाकिफ अजोधी ने भी इस नैसर्गिक आकर्षण को संतुलित भाव से वैवाहिक रुख में तब्दील कर दिया।
'पाही आदमी' एक वैचारिक कहानी है। पाही यानी बाहरी। डुमरी घाट में बाहरी कौन हैं?-राम सकल सिंह और लछमन जो सर्वाधिक भरोसेमंद और मददगार हैं। क्या डुमरी घाट पर जल परिवहन को सुगम और व्यवस्थित करने वाले राम सकल सिंह को इसलिए बाहरी मान लिया जाए कि वह भोजपुरी इलाके से आकर यहां कारोबार कर रहे हैं और मल्लाह जाति के नहीं हैं? या मलहटोली में ही रच-बस गए लछमन को इसलिए बाहरी करार दिया जाए कि वह आठ साल की उम्र में कहीं से भटकता आ गया था। क्या सिर्फ जन्म या पैतृक बसावट से ही कोई स्थान विशेष का सच्चा वाशिंदा कहा जा सकता है? यदि हां, तो बात बात पर जाति और स्थान के लिए विघ्न खड़ा करने वाले कमरुआ जैसे लोगों को क्या कहा जाए? भारतीय ही नहीं, कोई भी समर्थ समाज अपने विकास क्रम में बाहर से आए लोगों को आत्मसात करता है। बाहर से आए लोग कई मायनों में स्थानीय लोगों से ज्यादा उपयोगी और तरक्कीपसंद साबित होते हैं। समाज को विकास के विविध पक्षों से रूबरू कराते हैं। लेकिन कुछ लोग भीतरी-बाहरी की बीमारी से हमेशा तपते रहते हैं। मूढ़ताओं का मोतियाबिंद उन्हें तथाकथित बाहरियों के अवदान को देखने नहीं देता। मल्लाहों के सालाना उत्सव में भी जब लछमन की भागीदारी को लेकर ना-नुकुर शुरू हुई तो घटवार रामसकल सिंह की त्योढ़ी चढ़ गई। फिर ऐसा डांटा कि सबकी बोलती बंद हो गई, 'को लबर-लबर बोलता है रे-ए-ए!...अकलुआ! भदैया! कबैया! स्साला अक्किल का दुश्मन- बोलता है पाही! आ-हा-हा-हा पाही!! ए में कौन सब पाही नहीं बा? बताब... सामने आके, अंगौछा उतार के- तू पाही, वह पाही, हम पाही, सब पाही, सगरन लोग पाही!' (पृष्ठ 54) वास्तव में, रामसकल सिंह यह समझाना चाह रहे थे कि जो काम में बाधक हो, वह पाही है। जो विकास में रोड़ा बने, वह पाही है। जो अभियान अटकाए, वह पाही है। जो उत्सव-उल्लास में खलल पैदा करे, वह पाही है। अगर बसावट के आधार पर भी देखा जाए तो कोसी नदी ने किसको स्थायी रहने दिया है। हर कोई कभी न कभी अपनी जगह से दूसरी जगह शिफ्ट हुआ है। इसलिए बाहरी का हंगामा बेमानी है। दरअसल, पाही आदमी के जरिए शालिग्राम ने क्षेत्रीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर चलने वाली स्थानीय बनाम बाहरी की निरर्थक बहस का बढ़िया जवाब दिया है।
आंचलिक जागीर, वैश्विक तासीर
ये अंचल विशेष की कहानियां हैं, किंतु मैं इन्हें महज आंचलिक नहीं कह सकता क्योंकि इसकी तासीर वैश्विक है। जिन दिनों शालिग्राम ने इन कथाओं को रचा होगा, आंचलिक कहानियां फैशन में रही होंगी। शायद उसके वशीभूत ही आंचलिकता का ठप्पा सिर की पगड़ी जैसा लगता होगा। और इसलिए संग्रह का नाम 'शालिग्राम की सात आंचलिक कहानियां' रखा गया होगा। विशेष ध्यानाकर्षण के लिए। मगर इस तरह की कवायद मुझे किसी संभावनाशील और प्रतिभावान कथाकार को मुख्य धारा से हटाकर लूप लाइन में डालने जैसा लगता है। नहीं तो भला कौन ऐसा बड़ा लेखक हुआ जिसने अपने अंचल या जनपद को तवज्जो नहीं दी। लोक और मंडल का रचाव यदि आंचलिकता है तो भूलोक और भूमंडल का रचाव अलौकिक कैसे? जो लेखक नगरीय क्षेत्र को अपनी रचना का आधार बनाता है वह मुख्य धारा का साहित्यकार और जो ग्रामीण परिवेश को रिफ्लेक्ट करता है वह ग्रामांचल का लेखक कैसे? वातावरण तो एक विषय के तौर पर आता है, वह चाहे नगरीय हो या ग्रामीण या अंचल विशेष। मुख्य तो लेखकीय संदर्भ है, उसकी भाव भूमि है। व्यक्ति, संस्था या परिवेश को बरतने का उसका अनुशासन है, उचित अनुचित को व्याख्यायित करने की उसकी पक्षधरता है।
उच्च वर्ग के भीतर की टूटन या खोखलापन और मध्यवर्ग की घुटन या बिखराव का वर्णन यदि मुख्य धारा के लेखन के वृत्त में है तो निम्न वर्ग और माटी के लोगों का आलोड़न किसी हिसाब से परिधि से बाहर? हंटर फैक्ट्री में चले या खेत में, उसकी मार बराबर असर डालती है। हादसा ओवरब्रिज पर हो या टीले पर, मंजर एक जैसा होता है। फिर क्षेत्र विशेष की संस्कृति, संस्कार, शब्द और सामर्थ्य को सामने लाना कमतर कैसे? पहाड़ का लेखक पहाड़ी जीवन को जरूर लिखेगा। घाटी का लेखक घाटी को और तराई का लेखक तराई को अवश्य चित्रित करेगा। पठार का लेखक पठारी जीवन को और मैदानी लेखक मैदान को व्याख्यायित करेगा। यह अगर स्वाभाविक है तो आंचलिक कौन नहीं है? मेरे हिसाब से आंचलिकता का घेरा डालना अगर रणनीति है तो उसमें प्रवेश करना भी किसी व्यामोह से कम नहीं।
आंचलिकता का ठप्पा लगने के बाद आलोचक भी लेखक को दरकिनार ही कर देता है। नहीं तो क्या वजह है कि धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, नई कहानियां, दिनमान, लहर जैसे बड़ी पत्रिकाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले शालिग्राम आलोचना में लगभग अनुपस्थित हो जाते हैं। नटुआ दयाल, पाही आदमी, केंचुल, बासमती और राकस जैसी दमदार कहानियों के लेखक से नई पीढ़ी अनभिज्ञ रह जाती है। इसलिए न कि प्रकाशन के समय वाह-वाह करने वालों और आंचलिकता का शॉल ओढ़ाने वालों ने फिर लंबी चुप्पी साध ली। उन्हीं विषयों और कथानक पर कलम चलाकर कई परवर्ती लेखक गद्दीनशीन हो गए, जिन्हें शालिग्राम ने दशकों पहले रचा था। कम लिखना गुनाह नहीं, उसका संज्ञान न लेना गैरमुनासिब है। अंचल विशेष के दुख-दर्द और उत्सव-उल्लास का चित्रण जरूरी जेवर है जो लेखन के सौंदर्य को और भी निखार देता है। अपने कहन को लयबद्धता और उच्च स्वीकार्यता के साथ कंसीव कराने में शालिग्राम सिद्ध हैं। यह कला उन्हें बड़ा लेखक बनाती है। दृष्टिसंपन्न रचनाकार सिद्ध करती है।
शालिग्राम की कहानियों में कोसी की विभीषिका है, उससे उपजी पीड़ा भी लेकिन जीवन के रंग कहीं अधिक मजबूती के साथ उभर कर सामने आए हैं। कोसी की सर्पीली चाल के बरक्स उसके किनारे बसे लोगों की इच्छाशक्ति जीवटभरी है। बाढ़ के दिनों के तमाम झंझावातों के बावजूद बाकी के मौसम को हंसते-गाते बिताते हैं। जल की चादर उतरते ही धरती के आंचल को फसलों की सौगात से भर देते हैं। फिर शादी-ब्याह, नाच-नौटंकी, खेल-तमाशों के उल्लास में मशगूल हो जाते हैं। शालिग्राम जमींदारों, व्यापारियों, अफसरों, नेताओं को अपनी कहानी की ड्राइविंग सीट नहीं देते, उनकी कहानियों के मुख्य और अधिकांश पात्र निम्न और अकिंचन वर्ग के हैं। यह उनकी किस्सागोई की बड़ी खासियत है कि वह समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति की चिंता ज्यादा करते हैं। उनके दुख-दर्द, उनकी व्यथा-पीड़ा, मुश्किलों और दुश्वारियों को सामने लाते हैं। उनके मन की उड़ान, हृदय की पहचान और मस्तिष्क के वितान को वैश्विक लोक के समकक्ष खड़ा कर देते हैं। लोक की शक्ति और सौंदर्य का सस्वर गायन कर शालिग्राम की रचनाशीलता उस मुकाम को हासिल करती है जिस कारण कोई भाषा अपने लेखक पर गुमान करती है।
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रणविजय सिंह सत्यकेतु |
सम्पर्क
मोबाइल : 9532617710
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