प्रज्ञा की कहानी 'दाग-दाग उजाला'

 

प्रज्ञा


बात आमतौर पर हम मनुष्यता की करते हैं, लेकिन कई ऐसी दिक्कतें सामने आती हैं जिससे यह मनुष्यता अक्सर शर्मसार होती है। प्रगतिशील माने जाने वाले पाश्चात्य जगत में नस्लवाद की समस्या है तो हमारे भारत में यह समस्या जातिगत है। नस्ल और जाति का अहंकार मनुष्य को वैचारिक तौर पर निकृष्ट बना देता है। हम सोच विचार के स्तर पर संकीर्णता के इस कदर शिकार हो जाते हैं कि अन्य मनुष्यों को हेय नजरिए से देखने लगते हैं और पशुवत व्यवहार करते हैं। नस्लवाद और जातीयता का आग्रह इतना प्रबल होता है कि पढ़ा लिखा एक बड़ा तबका इसका न केवल समर्थन करता है बल्कि व्यवहार भी करता है। प्रज्ञा ने अपनी कहानी 'दाग-दाग उजाला' में इस मुद्दे के रेशे खोलने का सफल प्रयास किया है। प्रज्ञा हमारे समय की समर्थ कहानीकार हैं। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं प्रज्ञा की कहानी 'दाग-दाग उजाला'। 



'दाग-दाग उजाला'



प्रज्ञा



‘‘हैलो ... हैलो आप... रोहित के घर से बोल रहे हैं?’


‘‘आं आं ...जी आप कौन? हां रोहित के घर से... मैं उसकी मम्मी..., रोहित कहां है?’’


‘‘देखिए मैं हैरिस जनरल हॉस्पिटल सेनफ्रांसिस्को से बात कर रहा हूँ। आपका बेटा रोहित यहां एडमिट है...। उसकी हालत सीरियस है। आपको फौरन यहां... आना पड़ेगा।’’


‘‘क्या हुआ है उसे? कैसा है मेरा बच्चा? बात कराइए अभी मेरी उससे।’’


‘‘रोहित की कंडीशन सीरियस है आप जितना जल्दी हो सके फौरन आ जाइए। हॉस्पिटल का दूसरा फोन नंबर और पता आपको इसी फोन पर व्हाट्सप कर दूंगा। ही इज़ क्रिटिकल।’’


‘‘बताइए तो सही उसे क्या हुआ है?’’


‘‘कांट से राइट नाओ ... ही मे हैव.... उसने कुछ ऐसा खाया है कि... बस आप देर नहीं करें जल्दी यहां पहुंचने की कोशिश करें।’’


‘‘सुनिए.. सुनिए नहीं-नहीं.... मेरा रोहित.... ऐसा कैसे हो सकता है..?’’


बेटे की खबर देने वाली दूसरी आवाज़ खामोश हो गई। मोबाइल को हाथ में कस कर दबाए सुधा हतप्रभ-सी वहीं खड़ी रह गई। आँखों के आगे छा रहे अंधेरे को उसने अपनी ओर बढ़ने से रोकते हुए मोबाइल की कांटैक्ट लिस्ट में तेजी से नंबरों को टटोला। उंगलियां नंबर टटोल रही थीं और मन एक ही बात दोहरा रहा था-ऐसा नहीं हो सकता। अभी कल ही तो रोहित से बात हुई थी। सब ठीक था। कहीं कोई उलझन नहीं थी अचानक आज ये कैसे हो गया? जरूर किसी ने भद्दा मज़ाक किया है। रोहित ऐसा कर ही नहीं सकता। बेटे के साथ काम करने वाले एक लड़के गौरव का नंबर फोन में सुरक्षित था। आड़े वक्त में जरूरत पड़ने पर यह नंबर रोहित ने ही भेजा था। सुधा की दो बार कोशिश के बाद नंबर लग पाया-


‘‘गौरव बोल रहे हैं... गौरव मैं इंडिया से रोहित की मम्मी बोल रही हूं।’’


‘‘जी कहिए’’ दूसरी तरफ से गौरव का स्वर उत्साहजनक नहीं था।


‘‘रोहित आस-पास है तुम्हारे? अभी तो ऑफिस टाइम है।’’


‘‘रोहित आज आया नहीं है।’’ सुधा के सवाल के जवाब में गौरव ने कहा।


‘‘रोहित ठीक तो है न?’’ खुद को भरसक संयत रखते हुए सुधा ने फिर सवाल किया।


‘‘आंटी वो दरअसल बात ऐसी है कि... मैं कहना चाह रहा था कि रोहित... कुछ ठीक नहीं है आंटी। उसे कोई दिक्कत है शायद।’’ गौरव का एक भी वाक्य पूरा नहीं था।


‘‘दिक्कत मतलब?’’ सुधा के सवाल अब भी जारी रहे।


‘‘कुछ ठीक नहीं है आंटी... मैं ज्यादा नहीं जानता पर रोहित हॉस्पिटलाइज़्ड है। मुझे बस इतना ही पता है।’’ 


‘‘कौन से हाॅस्पिटल में है?’’ 


‘‘ऑफिस में ही किसी को कहते सुना था मैंने जनरल हॉस्पिटल...। बट आय एम नॉट श्योर आंटी।’’


गौरव ने बात पूरी होने से पहले ही फोन काट दिया। इस समय सुधा के हाथ-पैर में जैसे कोई जुम्बिश नहीं थी। हलक बेतरह सूख चला और इंद्रियां जड़ होने लगीं। आंखों के सामने तेजी से घिरते अंधेरे और खुद को संभालने के लिए उसने दीवार का सहारा लिया। भीतर से उठती तेज़ रूलाई को बड़ी मुश्किल से उसने रोका फिर भी आंखों की कोर भीग गईं और आंसू गालों पर ढुलक गए। बेटे के फोन पर पहले एक अनजान आवाज़ सुन कर ही सुधा संशय से भर उठी थी उस पर गौरव ने भी हॉस्पिटल वाली बात दोहराई। रोहित के सीरियस होने की खबर से उसके होश उड़ गए। ऐसा क्या हो गया कि रोहित ने कुछ गलत खा लिया पर रोहित ऐसा क्यों करेगा? ज़रूर किसी ने रंजिश में कुछ खिला दिया होगा।  पराए देश में उसका बेटा अनजान लोगों के बीच कहीं अकेला पड़ा है। कौन होगा उसके पास? कब तक ठीक होगा? या रोहित अब कभी... सवालों के तेज उठते बंवडर को सुधा ने मुश्किल से रोका। ऐसे में हिम्मत और धैर्य के सिवाय कोई चारा भी नहीं था। इस मुश्किल घड़ी में उसे एक साथ कई काम अंजाम देने थे। घर में रोहित के पिता स्टोन का ऑपरेशन करवा कर अभी दो दिन पहले ही तो अस्पताल से लौटे हैं। उनकी स्थिति ऐसी नहीं है कि उठ कर भागदौड़ कर सकें। बेटी रागिनी बारहवीं में पढ़ रही है। समझदार है पर ऐसे में उसे भेजना भी ठीक नहीं। सुधा को साफ समझ आ गया कि इस हालत में उसे ही ये जिम्मेदारी उठानी होगी।


‘‘तुम कुछ बताती क्यों नहीं सुधा? आखिर रोहित.. नहीं... उम्मीदों से भरा लड़का है हमारा... मेरा मन नहीं मानता इस बात को।’’ सुभाष का मन फोन पर बताई गई बात को मानने को तैयार नहीं था।


‘‘जो कुछ मुझे बताया मैंने सब बता दिया तुम्हें... तुमसे क्यों छिपाऊंगी भला?’’ परेशानहाल सुधा ने सफाई देते हुए कहा। 


‘‘देखो, मुझे लग रहा है बात कुछ और ही है। तुम परेशान नहीं हो... अकेले कैसे करोगी सब? अच्छा मैं भाई से कह देता हूं वह तुम्हारे साथ चला जाएगा... एक से दो भले।’’ परेशानी में खुद को बेहद लाचार पाते हुए सुभाष ने सुधा की मदद का रास्ता सुझाया।


‘‘नहीं, किसी को खामखां क्यों परेशान करना फिर भैया खुद अपनी समस्याओं में घिरे रहते हैं और अभी इस बारे में किसी से कुछ भी कहना-सुनना नहीं है। आई विल मैनेज।’’ भरसक संयत रहते हुए सुधा अपना सामान पैक करने लगी। सुभाष ने एजेंट के जरिए टिकिट बुक कर दी और वीजा़ आदि की व्यवस्थाएं भी करने लगे जितनी बिस्तर पर लेटे रहने की हद में संभव थीं। रागिनी, सुधा के साथ पूरी भागदौड़ कर रही थी। सब ऊपर से सामान्य दिखते हुए तीनों एक-दूसरे का हौसला बढ़ा रहे थे पर भीतर-भीतर सभी आशंकाओं से घिरे थे।


सुभाष ने खुद को इतना बेबस कभी नहीं पाया था जितना आज पा रहे थे। दोनों बच्चों पर जान छिड़कने वाला पिता उनकी एक आवाज़ में जमीन-आसमान एक किए देता रहा था। आज बीमारी ने उसे शिकस्त दे दी। ऐसे समय में जब बेटा जिंदगी के भंवर में पड़ा है उसका अपना शरीर अशक्त है। उधर मन बार-बार उस कारण को ढूंढ रहा है जो रोहित के अस्पताल में होने की वजह बना। कुछ दिन पहले ही खबर आई थी कि किसी कंपनी ने एक ही झटके में अपने सॉफ्टवेयर इंजीनियर्स की छंटनी कर डाली। कारण की पड़ताल करते सुभाष को पहली नज़र में यही कारण सही लगा पर अगले ही क्षण इस कारण से आत्महत्या का रोहित का कदम सरासर गलत लगा। क्या एक नौकरी ही जीवन का सरमाया थी? उनका बेटा जीवन के जोखिमों से इतनी जल्दी हार मान लेगा? रोहित जैसा हिम्मती लड़का? रोहित कभी भी ऐसा कदम नहीं उठा सकता। ज़रूर कुछ और बात है। इधर सुधा अपने मन के अंधड़ से अलग ही तरह से जूझ रही थी। कहीं किसी लड़की की वजह से तो नहीं कि रोहित ने... हाँ यह हो तो सकता है। इसका संकेत कुछ माह पूर्व रोहित ने बातों ही बातों में दिया तो था। ऐसी बातें कहने में वह मां से जितना खुला हुआ था पिता से ऐसा था जैसे बरसों से बंद पड़े दरवाजे के पल्ले जो खोल दिए जाने पर भी खुलने में भरपूर आनाकानी करें। सुधा ने दिमाग पर जोर मारा तो उसे याद आया उस लड़की का नाम जिससे मिलने पर पहली बार रोहित को बेहद सुकून मिला था। उदिता..., हां, यही नाम था उसका। रोहित की आवाज़ और अंदाज़ उदिता के बारे में बात करते हुए एकदम चहकने लगते। कितनी बार वीडियो कॉल पर ये सब सुधा ने महसूस किया था। हालांकि रोहित ने कुछ भी निश्चित नहीं बताया था पर सुधा को यही लगा हो न हो इस दुर्घटना के सारे तार उदिता से जुड़े हैं। अपने अनुसार कारण की बुनियाद टटोलती सुधा फिर भी ये सोच कर मायूस थी कि उनका बेटा इस कदर कमज़ोर निकला। पर उसके मन को एक कोना अभी यह मानने को तैयार न था।


रागिनी भी घर की जिम्मेदारियां संभालते हुए एकांत में भाई के लिए तड़प उठी। उसकी रूलाई रोके नहीं रूक रही थी। बड़े भाई से उसका दोस्ताना रिश्ता ये समझ पाने में लड़खड़ा रहा था कि ऐसी कौन सी बात हुई कि भाई ने जिंदगी के खिलाफ निर्णय लिया। अपनी सब बातें वह रागिनी से करता रहा था। दो छोटे बैडरूम के घर के एक कमरे में दोनों भाई-बहन ने बरसों सुख-दुख बांटे थे। मम्मी-पापा को नहीं पर रागिनी को तो कारण बता देता। जब सुधा ने उदिता की बात की तो रागिनी ने माँ से कहा ‘‘माँ, हो सकता है कि आप सही हों पर एक बात बताऊं कि एक दिन फोन पर भैया ने कहा था- ‘‘रागिनी यहां ऊपर से सब बहुत अच्छा लगता है। खूब चकाचौंध है पर भीतर-भीतर नफरत पल रही है। हम भारतीय यहां अधिक संख्या में हैं इसलिए यहां हमें उस डाकू की तरह देखा जाता है जो दूसरे के ज़मीन पर कब्ज़ा कर रहा है और इसके लिए हमारे प्रति उनकी घृणा दबी-छिपी नहीं है। वह रास्तों में, पार्कों में, क्लब, वर्कप्लेस और शापर्स हैवन जैसी सार्वजनिक जगहों पर खुल कर आती है। वहां के नागरिक अनेक नौजवान हमें एक बड़े खतरे की तरह देखते हैं कि हमारे पेट का कुंआ उनके हिस्से की सारी नौकरियां हड़प कर जायेगा।’’ रागिनी बताते-बताते यह कयास लगाती रही कि भाई को किस दर्जे की घृणा का शिकार होना पड़ा होगा। कहने को ये एक ही परिवार के लोग थे पर अपने चिंतन और परेशानी में तीन जुदा व्यक्तित्व। 


अलमारी की दराज़ से अपना पासपोर्ट निकालते समय रोहित की आवाज़ सुधा के कानों में गूंज गई।


‘‘मम्मी! देख लो सबके पासपोर्ट यहां रख रहा हूं। जल्दी ही आप तीनों भी प्लान करना वहां आने का। कुछ दिन साथ रहेंगे तो बहुत मज़ा आएगा।’’


‘मज़ा तो तब आता जब तू यहीं हमारे साथ, हमारी आंखों के सामने रहता बेटा’- ये शब्द उस समय सुधा की जबान पर आए तो थे पर रोहित की खुशी को देखते हुए संकोच से भर कर बाहर नहीं निकल पाए। क्या खनक थी रोहित की आवाज़ में। पूरा घर उस खनक से गूंज रहा था। घर भर तमाम तैयारियों में उसके हर जगह बिखरे सामान को सूटकेस में जमाने में लगा था। एयरपोर्ट पर रोहित को विदा करके आने के बाद अपना ही घर सुधा को घर जैसा कहां लग रहा था। उस दिन के बाद आज फिर से घर का वजूद टूटा-बिखरा था। उसे समेटने की कोशिश में सुधा ने कदम एयरपोर्ट की तरफ बढ़ाए। लगभग साल भर बाद वो फिर एयरपोर्ट पर थी। सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद जब गेट नम्बर चार के पास लगी कुर्सियों के बीच उसने अपनी जगह ली तो लगा जैसे कंधों में एक तीखा-असहनीय दर्द हो रहा है जो रीढ़ की हड्डी में समा कर फैलता चला जा रहा है। दर्द के कारण कुर्सी पर बैठना उसके लिए मुश्किल हो रहा था। सांस जैसे पूरी नहीं आ रही थी। बड़े से ग्लास पैनल के बाहर खड़ा प्लेन उसकी एकमात्र उम्मीद था। चैक इन के बाद अपना सामान रख कर सुधा ने सीट ली। गुजरता हुआ हर मिनट भारी था। खिड़की से बाहर के सारे नज़ारे जैसे आज उसके लिए बेमायने थे। सुधा ने आंखें बंद कर लीं। अतीत की छवियां गड्डमड्ड हो कर बंद आंखों में तैरने लगीं। उन सबमें वो दोपहर भी नमूदार हुई जब कैलिफोर्निया के सेन फ्रेनसिस्को में माउंटव्यू शहर में नौकरी करते हुए उसका रोहित पहली बार अपने स्वभाव के विपरीत बहुत अनमना-सा लगा था। 

 

उस दिन फोन पर रोहित की चुप्पी भांप कर दोपहर से ही परेशानी ने सुधा को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। वैसे कोई सीधा कारण तो नहीं बताया था रोहित ने अपनी परेशानी का लेकिन जो साफ-साफ बताया जाए क्या कारण वही होता है? मन की आंखें चाहिए जिनसे उदासी की तस्वीर और थकन के रंग छिप नहीं पाते। रोहित ने उसे सीधे तौर पर कुछ भी नहीं कहा था पर आज उसकी आवाज़ में न मिश्री घुली हंसी थी और न था दिन भर में घटी घटनाओं की पड़ताल करती उसकी किस्सागोई का अंदाज़। वर्ना अपनी कंपनी न्यूटैक सोल्यूशंस के अनेक किस्से उसके पिटारे में रहते। पर उस दिन एकदम सपाट-सी बात की उसने जैसे फोन करने की एक रस्म अदा कर रहा हो। एकबारगी सुधा ने अपने मन को धिक्कारा। उसके भीतर की स्त्री ने समझाया- ‘‘क्यों इतना सोचना सुधा... काम का प्रेशर या कोई और चिंता होगी। अकेली जान और पराया देश। इंसान को रोज सौ झंझटों से गुजरना होता है। अब क्या एक-एक बात बताता फिरेगा?’’ खुद को चेता कर सुधा ने परेशानी से मुंह भी फेरा पर अपने भीतर की स्त्री की आवाज़ सुन कर भी सुधा मन के भीतर बैठी रोहित की बेचैन मां को समझाने का कोई हुनर अब तक सीख नहीं पाई थी। यों उसे रोहित और रागिनी दोनों से बेहद प्यार था पर रोहित पहलौठी की संतान थी और इस समय वह सात समंदर पार था। इस दूरी को सुधा अपने चौगुने लाड़ से पाटने की कला सीख रही थी।


अचानक उसकी आंखों के सामने उस दिन का आकाश घूम गया जब सुभाष और सुधा, रोहित को एयरपोर्ट छोड़ने जा रहे थे। सुधा का बेचैन चेहरा पढ़ कर रोहित उदास न हो जाए इसलिए उसने कार की खिड़की से बाहर दिख रहे आकाश की तरफ अपनी निगाह लगा ली थी। आकाश उस दिन भी इतना ही सुंदर था पर उस दिन सुधा के मन का झंझावात वह सुंदरता देख नहीं पा रहा था। उसकी आंखों में उस दिन भी रोहित की अनेक स्मृतियां कौंध रही थीं। छुटपन से रोहित उसके साथ रहा था। बच्चों को सीने से सटाए रहने वाली गौरैया थी सुधा। रोहित बारहवीं के बाद ही हाॅस्टल गया लेकिन ग्रेजुएशन के बाद अचानक ही रोहित ने बेहतर नौकरी और भविष्य के लिए बाहर जाने की जिद पकड़ ली। सुभाष, बेटे के निर्णय के साथ थे। 


‘‘सुधा! आखिर कब तक बच्चों को सीने से दुबकाए रखोगी? इनकी अपनी परवाज़ है क्यों रोक रही हो उसे?’’ बात बेहद सीधी थी पर सुधा को चोट-सी लगी।


‘‘मैंने कब रोका है किसी को? जाएं जहां जाना है। मैंने तो जहां तक हुआ बच्चों का साथ ही दिया पर भविष्य क्या अपने देश मे नहीं बन सकता? बाकी और बच्चे भी तो हैं रोहित जैसे। वो भी यहां रह कर काम रहे हैं और क्या हमने अपना भविष्य किसी और देश में खोजा?’’ सुधा के पास अपने तर्क थे।


‘‘हमारे समय में कहां थी ऐसी सहूलियत और कहां था बच्चों के लिए कुछ सोचने का खुलापन? फिर दुनिया अब इस कदर खुल कर बड़ी हो चुकी है कि बच्चों को कई विकल्प दिखने लगे हैं। इतना आसान था क्या ये सब पहले?’’ इस बार सुभाष ने सवाल का जवाब सवाल से दिया।


‘‘तो क्या हम बेकार निकले? यहां पढ़-कमा कर भी हम कायदे का जीवन जी रहे हैं कि नहीं? घर में जीने की सब सुविधाएं हैं कि नहीं? और क्या चाहिए?’’ सुधा ने बिफरते हुए कहा।


‘‘देखो, सुधा तुम सब जानती हो... चलो तुम्हारी बात मान कर मैं रोहित को रोक भी लूं और वो रूक भी जाए तो क्या रोहित अब यहां खुश रह पाएगा? बताओ? और क्या मैं बहुत खुश हूं उसे दूर भेज कर?  देखो! हमारा बच्चा नादान नहीं है। अपनी जिंदगी का ये पहला बड़़ा निर्णय उसने हंसी-खेल में नहीं लिया है तो हमें उसका सम्मान करना चाहिए। नाराज़ रह कर, अबोला ठान कर तो तुम अपने बेटे से ही खुद को दूर कर लोगी। रोज़-रोज़ इसी तरह की बातों से न रोहित ठीक रह सकेगा न हम लोग। सोच लो अब क्या करना है तुम्हें?’’


सुधा के तर्कों का तरकश एकदम खाली-सा हो उठा था। मन की कसक को दबाते हुए उसने ठंडी सांस ली और रोहित के कमरे की ओर चल दी। कुछ देर बाद सुभाष ने दोनों को हंसी-खुशी आगे की प्लानिंग करते सुना तो जान में जान आई। बहुत दिन से थर्राई घर की दीवारें इस समय शांत हो चलीं।


सुधा देर तक अतीत की गलियों में घूमती रही। स्मृतियां उसे चक्करदार गलियों के मोड़ों पर बेतहाशा, बेसिलसिलेवार दौड़ती रहीं। सुधा के लिए आज यात्रा का ये समय काटना किसी अजाब को झेलने जैसा था। सुधा जानने में असमर्थ थी कि आखिर उसने ऐसा क्या गलत किया अपने जीवन में जो उसके बेटे को यह पीड़ा भोगनी पड़ रही है। 





यात्रा चाहे कितनी लंबी हो एक समय बाद उसका अंत निश्चित है। लैंडिंग से ठीक पहले सुधा ने नीचे देखा तो अपार जलराशि उसे दिखाई दी। सैनफ्रैंसिस्को की जमीन का वह हिस्सा सबसे पहले आंखों के आगे आया जो खाड़ी का हिस्सा था। सुधा उसे देख कर सोचने लगी कि उसके मन के सैलाब के विपरीत ये महासागर कितना शांत था। एयरपोर्ट पर उतरते ही अपना सामान लिए वह तुरंत जनरल हॉस्पिटल  की ओर रवाना हुई। इस पूरे समय आंखें या तो रास्ते पर लगीं रहीं या फिर मोबाइल पर। हर बार मोबाइल पर रिंगटोन बजते ही एक ही धड़का लगता कि कहीं रोहित को कुछ हो तो नहीं गया। कोई और समय होता तो इस अपरिचित देश से पहली बार मिलने का सुधा का अंदाज अलग होता। जनरल हॉस्पिटल पहुंच कर उसने रोहित के विषय में पूछताछ की तो उसे इंतज़ार करने के लिए बिठाया गया। हर घड़ी सुधा एक नई परीक्षा से गुजर रही थी। रोहित को बाहर अकेले भेजने के खतरे भी उसे अब सही रूप में समझ आ रहे थे। थोड़ी ही देर में एक नर्स सुधा को डाॅक्टर के कमरे की ओर ले चली। डॉक्टर  को देख कर सुधा की जान में जान आई। 


‘‘रोहित अब कैसा है डॉक्टर?’’ पूरे रास्ते अपने मन में अभिवादन और सवालों का बेहतर क्रम तैयार करती सुधा जैसे सब भूल गई।


‘‘रोहित अभी होश में नहीं है। हालत अभी भी क्रिटिकल ही बनी हुई है।’’ डॉक्टर ने सुधा से कुछ नहीं छिपाया।


‘‘रोहित ठीक तो हो जाएगा न डॉक्टर?’’ सुधा को किसी करवट चैन नहीं था।


‘‘देखें..’’ डॉक्टर उसे किसी मुगालते में रखना नहीं चाहता था।


उसे क्या हुआ है डॉक्टर?


ओवरडोज़ ऑफ मेडिसिन्स’’ डॉक्टर ने उत्तर दिया।


ओह नो! सुधा की चीख़ निकल गई।


‘‘क्या मैं उससे मिल सकती हूं?’’ सुधा से अब रहा नहीं जा रहा था।


‘‘ही इज़ इन आई.सी.यू.... आप उसे देख सकती हैं।’’ डॉक्टर ने नर्स को बुला कर कुछ समझाया। नर्स ने सुधा को इशारे से आने को कहा। सुधा के लिए एक-एक कदम उठाना भारी पड़ रहा था। हॉस्पिटल के फ्लोर, गलियारों से गुजर कर अब वो आई. सी. यू. के ठीक सामने थी। नर्स उसे भीतर की ओर ले गई। वहां रास्ता फिर अनेक गलियारों में बंटा था। एक गलियारे के बाहर ग्लास डोर से नर्स ने एक बैड की ओर इशारा किया। उंगली की दिशा में सुधा ने देखा पर साफ देख नहीं पाई। उसकी आंखें डबडबा गईं। हॉस्पिटल में सभी पेशेंट एक-से रंग वाले कपड़ों में  थे। रोहित को पहचान पाना आसान नहीं था। सुधा ने आंखें पोंछ कर देखा तब रोहित को उसने पहचान लिया। अपनी उत्साहित मुद्रा से एकदम परे रोहित अचेत था। जवान बेटे को कई मशीनें घेरे थीं। सुधा ने देखा उसके स्वस्थ बेटे की देह गठरी-सी बनी बिस्तर पर पड़ी है। सुधा की हिम्मत टूटे आईने की किरचों की तरह बिखर गई। पहली बार उसे अपना दम घुटता हुआ लगा। थोड़ी देर बाद जब कुछ स्थिर हुई तो अपलक रोहित को देखती रही। नर्स ने हथेली पर बंधी घड़ी की ओर इशारा करके सुधा को चेताया कि मिलने का वक्त पूरा हो गया है। क्या इसे मिलना कहेंगे- यही सवाल लिए सुधा हॉस्पिटल की इमारत के बाहर लॉन के बेंच पर बैठ गई। इतने में फोन घनघनाया। फोन घर से ही था।


‘‘रोहित से मिली लीं सुधा? कैसा है?’’ सुभाष ने पूछा।


‘‘पता नहीं सुभाष इसे मिलना कहेंगे या नहीं। हां, पर मैंने उसे देख लिया।’’


‘‘डॉक्टर क्या कह रहे हैं?’’ सुभाष की चिंता फिर सवाल की शक्ल में उभरी।


‘‘कुछ नहीं कह रहे हैं। अभी तक बेहोश पड़ा है।’’ कहते कहते सुधा का गला रुंध गया।


‘‘मैं बहुत लाचार महसूस कर रहा हूं सुधा...। मुझे इस समय उसके पास होना चाहिए था। तुम्हारे साथ होना चाहिए था। तुम भरोसा रखो सुधा, सब ठीक होगा।’’ सुभाष ने एक बार फिर सुधा की बिखर गई हिम्मत को समेटने की कोशिश की।


‘‘सुभाष! ऐसा दिन किसी मां-बाप के हिस्से में न आए।’’ कहते हुए सुधा एक बार फिर भावुक हो गई। 


हॉस्पिटल के उस लॉन में अकेली बैठी सुधा को इससे आगे की राह सूझ नहीं रही थी। यहां उसे कहां रहना है? रोहित के साथ ऐसा किसने किया, उसका कैसे पता लगाना है? मानसिक उधेड़बुन में पहले उसने सोचा गौरव से ही दोबारा बात करे पर फिर अचानक उसे याद आया रोहित बार-बार अपने एक दोस्त बैंज़ी का नाम लिया करता था। बैंज़ी.. बैंजी पूरा नाम क्या था? सुधा को जब याद नहीं आया तो उसने व्हाट्सप पर रोहित की चैट टटोली। पूरा नाम था बैंज़ामिन ओकुलो। सुधा ने चैक किया बैंज़ी का नंबर भी चैट में शामिल था। अंधेरे को चीरती उम्मीद की एक किरण जैसे उसके सामने थी। उसने एक क्षण में बैंजी का नंबर लगा डाला।


‘‘बैंजामिन ओकुलो... बैंज़ी बोल रहे हैं। मैं मिसेज़ सुधा, रोहित की मदर। आप रोहित के दोस्त हैं। रोहित के साथ न्यूटैक सौल्यूशन में हैं। मुझे आपसे जरूरी बात करनी है।’’


‘‘पर मैं तो छह महीने पहले कंपनी छोड़ चुका हूं। अब दूसरी स्टेट में हूं और लंबे समय से रोहित से नहीं मिला। कैसा है रोहित?’’


‘‘रोहित हॉस्पिटल में है। बहुत सीरियस है। क्रिटिकल केयर यूनिट में है। मैं इंडिया से आई हूं। अब क्या करूं? कहां जाऊं? रोहित के घर जाना चाहती हूं।’’ सुधा ने जल्दी-जल्दी अपनी बात पूरी की।


‘‘ओह! दैट्स वेरी सैड। व्हाट हैपन्ड टू हिम? 


‘‘आई डोंट नो बैंजी! ही एक्सीडेंटली टुक समथिंग।’’ सुधा ने कहा।


मैं जल्दी आऊंगा रोहित से मिलने। पर उसका अपार्टमेंट मिल्टन स्ट्रीट पर है। मैं उसके साथ अपार्टमेंट शेयर करता था। अब वो वहां अकेला रहता है। वहां लैंड लेडी है वो आपको बता देगी। उसके अपार्टमेंट का नंबर है आपके पास? नहीं है तो मैं भेज दूं  क्या?’’ बैंजी ने पूछा।


‘‘हां, नंबर तो है...चलो जा कर देखती हूं।’’ सुधा का स्वर एक बार फिर मंद पड़ गया।


‘‘सॉरी ...आई कांट हैल्प यू राइट नाऊ।’’ बैंज़ी दुख के साथ बोला।


‘‘इट्स ओके बैंज़ी।’’ सुधा को ढूंढे से भी कोई सहारा नहीं मिल रहा था। रोहित के अपार्टमेंट पहुँच कर उसे और भी निराशा हाथ लगी क्योंकि लैंड लेडी ने बताया कि उसके अपार्टमेंट को पुलिस ने सील किया था। पुलिस केस होने से वहां इन्वेस्टिगेशन चल रही है। लंबी यात्रा की शारीरिक थकान के साथ जिंदगी से जद्दोजहद करती मानसिक थकान ने सुधा को बेतरह घेर लिया। उसका शरीर बुरी तरह टूट रहा था। घंटों से सामान को लिए हुए वह भटक रही थी। अपार्टमेंट के पास पहुंच कर एक आस बंधी थी लेकिन पुलिस की कार्यवाही के चलते वह भी मिट चली। अब देर करना सुधा ने मुनासिब नहीं समझा और हॉस्पिटल के पास ही एक होटल में ठहर गई। थक कर चूर हुई सुधा की देह बिस्तर पर एक ही मुद्रा में देर तक पड़ी रही। 


अगला दिन सुधा के लिए फिर से कई सवाल ले कर शुरू हुआ। हॉस्पिटल में रोहित से मिलने में अभी समय था। इसलिए सुधा एक नई तैयारी के साथ पुलिस स्टेशन की ओर चल दी। पुलिस स्टेशन का पता उसे लैंड लेडी ने दे ही दिया था। रोहित से जुड़ा केस देखने वाले ऑफिसर से जब सुधा ने रोहित के केस के बारे में जानना चाहा तो बदले में बेरूखी ही पाई। पुलिस वाला किसी भी तरह रोहित को निर्दोष मानने को तैयार नहीं था। उसने जैसे बिना कार्यवाही के रोहित को दोषी मान लिया था। उसने सुधा को जैसे अपना फैसला ही सुना दिया- ‘‘यहां आ तो जाते हैं इंडियंस पर जानते क्या हैं यहां के बारे में? हमारे यहां का वर्क कल्चर अलग है। यहां काम के प्रेशर्स अलग हैं जिन्हें झेल नहीं पाते। लौट कर जाना मुश्किल होता है और पड़ जाते हैं नशे के चक्कर में।’’ इससे पहले कि पुलिस अफसर आगे बोलता सुधा ने उसकी बात काट दी- ‘‘नहीं, मेरा बेटा ऐसा बिल्कुल नहीं है। लगभग साल भर से वो यहां अच्छी तरह काम कर रहा था। उसके बॉस उससे काफी खुश थे। रोहित भी खुश था। नहीं मेरा बेटा ऐसा नहीं है जैसा आप कह रहे हैं।’’


‘‘एक साल से आप उससे दूर हैं और आप वही कह रहीं हैं जो उसने आपको बताया होगा। पर सच इतना ही कहां होता है?’’ अफसर भी जल्द हार मानने वालों में से नहीं था।


‘‘मैं सही कह रही हूं आप मानिए मेरी बात... रोहित... मेरा बेटा.. वाकई ऐसा नहीं है। वो खुश था। मुझे लगता है किसी ने उसे कुछ गलत खिला-पिला दिया है। मैं चाहती हूं आप उस दोषी का पता लगाएं। उसे सजा मिले।’’ सुधा ने अपनी मंशा जाहिर कर ही दी।


‘‘आप ऐसा कैसे स्पैक्यूलेट कर रही हैं। अभी इन्वेसिगेशन जारी है। हम ऐसे कैसे किसी को भी उठा कर जेल में डाल दें। आपके चाहने से कुछ नहीं होगा यहां के अपने कुछ प्रोसीज़र्स हैं जिन्हें हमें फौलो करना पड़ता है।’’ ऑफिसर का स्वर इस बार तल्ख था। सुधा कुछ नहीं बोली पर उसकी निगाहें ऑफिसर को देखती रहीं।


‘‘आप अपना नंबर दे दीजिए। कोई बात होगी तो आपको बता दिया जाएगा।’’ ऑफिसर  खानापूर्ति-सी करके किसी और काम में व्यस्त हो गया। 


सुधा पुलिस स्टेशन से बाहर आ गई। बाहर मुख्य सड़क पर तेज रफ्तार वाहन थे। अब उसे कहां जाना है- जटिल सवाल का जवाब खोजते हुए सुधा ने सोचा हो न हो रोहित के ऑफिस से ही इस पूरे मामले का कोई सुराग मिल सकता है। उसने सुभाष से रोहित के ऑफिस का पता ले लिया था। न्यूटैक सोल्यूशन के ऑफिस के पास पहुंच कर सुधा ने पाया यहां सूचना, तकनीक से जुड़े अनेक ऑफिस कतार से लगे हैं। एक व्यस्त शहर का मिज़ाज भांपते हुए सुधा, रोहित के ऑफिस पहुंची। वहां पूरी पूछताछ हुई उसके बाद ही वह अंदर जा पाई। ऑफिस में सुधा को एक जगह बिठा दिया गया। वहां से ऑफिस के भीतर दूर तक सारे सेक्शंस दिखाई दे रहे थे। सुधा ने गौर से देखा वहां कई देशों के लोग काम कर रहे थे जो अपनी खासियत से पहचाने जा रहे थे। वहां के स्थानीय नौजवानों के साथ कई अन्य देशों के नौजवान भी थे। भारतीय भी अधिक संख्या में थे। रोहित के सहकर्मी सभी अपने कामों में व्यस्त थे। एक-दो से उसे मिलवाया गया। सुधा ने बात करने की कोशिश भी की पर जैसे ही रोहित से अपना संबंध बताती पता नहीं लोग एक खास तरीके से उसे घूरने लगते। वहां उसे गौरव भी मिला। सुधा को आशा थी कि गौरव भारतीय होने के नाते और रोहित के करीब होने के नाते उससे बात करेगा। उसकी बात सुनेगा पर गौरव ने कोई खास तवज्जो सुधा को नहीं दी। बल्कि यह और कहा कि मैं कंपनी में नया हूं और मेरा रोहित से कोई गहरा रिश्ता नहीं था। वैसा ही रिश्ता था जैसे दो काम करने वाले लोगों के बीच एक औपचारिक रिश्ता होता है। ऑफिस के माहौल में ऐसा कुछ जरूर था जो सामान्य नहीं था। सुधा को शिद्दत से महसूस हुआ कि लोग जैसे रोहित के बारे में बात करने से कतरा रहे हैं। खासतौर पर गौरव का व्यवहार उसे बेहद नागवार गुजरा।


निराश कदमों से सुधा ऑफिस से निकली। सुभाष से बात करते हुए उसकी और रागिनी की हिम्मत बंधाते हुए सुधा ने स्वयं को भी हिम्मत बनाए रखने के लिए चेताया।  घड़ी देख कर वह  हॉस्पिटल की ओर बढ़ गई। किसी से पूछ कर हॉस्पिटल जाने वाली बस में बैठ गई पर अपनी उलझनों में सही स्टॉप पर उतरना भूल गई। हॉस्पिटल तक जाना उसके लिए मुश्किल-सा हो रहा था। गलत बस में चढ़ जाने पर बार-बार वह खुद को धिक्कार रही थी कि एक छोटा-सा काम भी वह सही तरह नहीं कर पा रही। सड़क के किनारे लगे बैंच पर उसने अपनी बेजान देह को सौंप दिया। देर तक वाहन उसके सामने से गुजरते रहे। सुधा संज्ञाशून्य बैठी रही। अचानक दोनों हाथों में अपना चेहरा थामे वो बहुत तेज़ी से रोने लगी। बेगाने मुल्क में अजनबियों के बीच जहां सहारा देने वाला कोई नहीं था सुधा जार-जार रोए जा रही थी। मन के तहखाने में बैठा दुख अब बाहर निकलने को छटपटा रहा था। सुधा ने महसूस किया कि इस पूरे घटनाक्रम में परिस्थितियों के मुताबिक खुद को संभालते हुए वह अभी तक ठीक से रो भी नहीं पाई है। आस-पास से लोग गुजरते रहे। सुधा रोती रही। धीरे-धीरे रूदन हिचकियों में बदल गया। फिर हिचकियां संयत हो कर जैसे उसे उसकी जिम्मेदारियों की याद दिलाने लगीं। अपनी चरमराई हिम्मत को फिर से खड़ा करते हुए सुधा ने खुद से  कहा कि किसी भी लड़ाई में निराशा महसूस करना हार को पुख्ता कर देता है। ऐसा सोच कर सुधा को दिली सुकून मिला। सुधा को उम्मीद को सहलाती हुई सुधा जैसे-तैसे हॉस्पिटल पहुंची। रोहित को ग्लास डोर से देखना उसके लिए कष्टकारी था। क्रिटिकल केयर में अकेले अचेत बेटे को वह अपनी निकटता, अपने स्पर्श और अपने शब्दों की आत्मीयता से उठ खड़ा करने को छटपटाने लगी। जिंदगी के प्रति रोहित को भरोसा देने के लिए उसके शब्द बेचैन हो उठे पर ग्लास डोर दो दुनियाओं को बाँटता रहा। थोड़ी देर बेटे को निहार कर वह डॉक्टर  के केबिन की ओर चल दी। अपनी बारी आने पर जब सुधा ने डॉक्टर से रोहित के बारे में पूछा तो कोई संतोषजनक जवाब उसे नहीं मिला।


‘‘देखिए रोहित अब तक ठीक से रिस्पौंड नहीं कर रहा है... आप हिम्मत रखिए।’’


‘‘डॉक्टर, रोहित ठीक तो हो जाएगा न?’’ उम्मीद को हिम्मत से जिला कर यहां तक लाई सुधा की हिम्मत फिर पस्त हो चली।


‘‘वी आर ट्राइंग हार्ड... रोहित के मैडिकल बिल्स भी बन रहे हैं। ये अच्छा है कि रोहित का इंश्योरेंस है।’’


‘‘डॉक्टर! क्या रोहित की कंपनी से कोई यहां आया था?’’ सुधा के मन में फिर से सवाल उठा।


‘‘नहीं..., मुझसे तो पहली बार आप ही मिलने आईं। हो सकता है स्टाफ से कोई मिला हो या ऑफिस में। आप बाहर नर्सिंग स्टाफ से पूछ सकती हैं।’’ डॉक्टर ने अपनी अनभिज्ञता जताई।


‘‘डॉक्टर एक बात कहूं मैं जानती हूं अपने बेटे को वह कभी ऐसा कुछ करने की कोशिश नहीं सकता मुझे लगता है कि ज़रूर किसी ने कुछ दे नहीं दिया होगा?’’ डॉक्टर ध्यान से सुन रहा था। सुधा हैरान थी कि कोई भी ये मानने को तैयार क्यों नहीं है कि रोहित को किसी ने कुछ दिया है। रोहित जैसा हंसता-खेलता और जिंदगी को प्यार करने वाला लड़का ऐसा कदम कैसे उठा सकता है?


‘‘देखिए, कई बार जिंदगी में हालात ऐसे बनते हैं कि इंसान सोसाइड करने पर मजबूर हो जाता है। रोहित के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा। सही तस्वीर तो उसके ठीक होने पर ही सामने आएगी।’’ डाॅक्टर के लिए यह सब रूटीनी कार्यवाही थी पर उसके भीतर एक हमदर्द इंसान भी था जिसने सुधा के सवालों को टाला नहीं। हौसला देती डॉक्टर की बातों के बावजूद सुधा अब भी अपने तर्क पर दृढ़ता से टिकी रही। उसके भीतर से उठती आवाज़ ऑफिस के लोगों, पुलिस स्टेशन के ऑफिसर और डॉक्टर की बात को सिरे से झुठला रही थी। सुधा ने ठान लिया वह अपनी इसी आवाज़ के पीछे चलेगी और इस दुर्घटना की सही तस्वीर खोज कर ही मानेगी। 


अगला दिन फिर एक अबूझ पहेली की तरह उगा। सुधा के दिमाग में भारी हलचल थी। दिशाएं सम्भ्रम लिए उसके सामने थीं पर उस संशय के पार जाना फिलहाल एकदम असंभव था। ऐसे में सुधा को फिर से बैंजामिन का ख्याल आया। बैंजामिन ने सुधा से कहा था कि वह रोहित को देखने आएगा। एक गहरी आश्वस्ति उसे बैंजामिन के स्वर से मिली थी। सुधा ने बैंजामिन को फोन मिलाया। रोहित के स्वास्थ्य का चिंताजनक समाचार सुन कर बैंजामिन परेशान हुआ। सुधा ने ऑफिस जाने वाली बात भी बैंजामिन से साझा की तो उसने सवाल किया- ‘‘वहां कुछ पता चला आपको? किसी ने कुछ कहा आपसे?’’


‘‘वहां मुझसे किसी ने बात ही नहीं की। गौरव मिला था मैंने सोचा वह तो बात करेगा पर उसने कहा कि वो कंपनी में नया है और रोहित के बारे में ज्यादा नहीं जानता।’’


‘‘ऐसा कहा गौरव ने आपसे? नहीं, ऐसा तो नहीं है। गौरव तो रोहित को बहुत अच्छी तरह जानता था। वो ऐसा क्यों कहा रहा है? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। आप दोबारा बात करें गौरव से।’’ बैंजामिन चिंतित-सा बोला।


‘‘बैंजामिन तुम्हारे पास गौरव का पता होगा क्या? वो कहां रहता है? मुझे उससे बात करनी है। वह रोहित को अच्छी तरह जानता था, मुझे रोहित ने ही उसका नंबर दिया था। किसी अनजान का नंबर रोहित मुझे क्यों देगा भला?’’ सुधा के पास अंतहीन सवाल थे।


‘‘मैं जल्दी ही पता कर के आपको बताता हूं।’’


सुधा चाहती थी इस पूरे मामले की तह तक जा कर पड़ताल हो। उसे कुछ भी ठीक नहीं लग रहा था न रोहित के ऑफिस में और न ही पुलिस स्टेशन में। सुधा का मन बार-बार चाह रहा था एक बार उसे रोहित के अपार्टमेंट में जाने की इजाजत मिले ताकि वह देख-समझ सके सही क्या है? पर वहां पुलिस ने किसी के भी आने से रोक लगा दी थी। कुछ दिन बाद हिम्मत कर के सुधा फिर पुलिस स्टेशन गई। उसने सोचा था कि मामले की छानबीन आगे बढ़ी होगी पर वहां पहुंचने पर सुधा की मौजूदगी को उपेक्षा के साथ अपमान भी मिला-


‘‘आप रोज़-रोज़ क्यों चली आती हैं यहां?’’ आंखें तरेर कर पुलिस ऑफिसर ने सुधा से सवाल किया।


‘‘देखिए! मेरा बच्चा हॉस्पिटल में बेहोश पड़ा है। मैं इतने दिन से यहां-वहां कोशिश कर रही हूं कि उसकी इस हालत का कारण जान पाऊं। उसके ऑफिस वाले मुझसे ढंग से बात तक नहीं कर रहे और इधर आप लोग हैं कि मानने को तैयार नहीं कि उसकी इस स्थिति का जिम्मेदार कोई और ही है। अजीब माहौल है। मैं बस इतना ही तो चाहती हूं आप इन्वेस्टीगेट करें और सही कारण ढूंढ निकालें।’’ सुधा तेज़ आवाज़ में बोली तो उसकी आवाज़ में रूलाई फूट पड़ी। यह देख कर पुलिस वाले का स्वर थोड़ा धीमा हुआ पर उसने किसी भी तरह की सांत्वना दिए बिना केवल इतना ही कहा- ‘‘वी आर डूइंग अवर जॉब।’’





एक विचित्र भंवर से जूझती सुधा भंवर के चक्रों में धंसती चली जा रही थी। भंवर का हर चक्र उसे नीचे की तरफ धकेल रहा था। उससे उबरने की हर सूरत धुंधली हो चली थी। सुधा के लिए यहां रहना आसान नहीं था। न मानसिक दृष्टि से न ही आर्थिक दृष्टि से। भंवर में धंसते हुए भी सुधा ने हिम्मत नहीं खोई । उसे लग रहा था हो न हो रोहित के ऑफिस से ही कुछ पता चलेगा। उसके मन में एक सवाल फांस की तरह अटका हुआ था क्यों गौरव ने सच नहीं बताया? दिमाग में एक बार फिर रोहित के प्रेम में निराशा वाली बात आई। दिमाग हर तरफ से जैसे वाजिब वजह तलाशने में जुटा था। इन सवालों के बारे में सोचते ही सुधा के बेजान पैरों ने रफ्तार पकड़ी। ऑफिस में रोहित के मैडिकल बिल के बारे में बात करने के लिए उसे अकाउंट सैक्शन की एक लड़की के पास भेज दिया गया। सुधा ने पहले इंश्योरेंस आदि की बात विस्तार से करके लड़की का भरोसा जीता। लड़की जब सामान्य तरीके से उससे बात करने लगी तो सुधा ने आत्मीय अनुरोध से उसकी हथेली पर अपनी हथेली रख दी। लड़की चौंक गई।


‘‘देखो! मैं रोहित के बारे में जानना चाहती हूं। क्या हुआ था उसके साथ? क्या उसकी कोई गर्ल फ्रेंड थी?’’ लड़की ने बालों को ठीक करते हुए कनखियों से इधर-उधर देखा। अपनी हथेली को झटके से पीछे सरकाया और फुसफुसाई- ‘‘देखिए! मैं आपसे इस बारे में कोई बात नहीं कर सकती।’’ लड़की सचेत हो कर अपने काम में लग गई पर सुधा उसके आगे गिड़गिड़ाती ही रही। अचानक एक आदमी फाइल ले कर लड़की के पास आया। लड़की इत्मीनान से उससे बात करने लगी। सुधा वहां से उठी नहीं। आदमी के जाने पर वह लड़की से दोबारा इसरार करने लगी। 


‘‘मैं आपके बॉस से मिलना चाहती हूं।’’ सुधा ने एक बार फिर कोशिश की।


‘‘देखो, मैं इंडिया से आई हूं। रोहित के बाॅस भी तो इंडियन हैं। तुम उनसे कहो तो। मैं बहुत परेशान हूं। प्लीज़ हैल्प मी। प्लीज़।’’ 


‘‘ऐसे कैसे? पहले बॉस का एपाइंटमेंट लेना पड़ता है।’’ लड़की ने समझाने की कोशिश की फिर चोर नज़र से आस-पास देखा और सबकी नजर बचा कर कागज की एक पुर्जी पर कुछ लिख कर सुधा की हथेली में दबा दिया। सुधा की हथेली में दबी कागज की पुर्जी उसके कई दिनों के अनथक इंतजार का फल था। उसने मुट्ठी कस कर भींच ली। ऐसा लग रहा था मुट्ठी में बंद पुर्जी में उसकी मुक्ति का मंत्र है। सुधा उठी उसकी भीगी आंखों ने लड़की का शुक्रिया अदा किया और बाहर निकल आई। खतरे की हद को पार कर सुधा ने मुट्ठी खोली। धड़कते दिल से कागज की पुर्जी की तहें खोलीं। लड़की ने समझदारी से उसमें एक नंबर लिखा था। जाहिर है ये उसी का फोन नंबर था। सुधा ने समझ लिया था अभी लड़की से बात करना उचित नहीं होगा। ऑफिस में होने के कारण शायद खुल कर बात नहीं कर पाए। सुधा ने संयम और समझदारी बरती। हालांकि ये उसके लिए आसान तो नहीं था। हाॅस्पिटल में रोहित को देख कर जब सुधा वापिस होटल पहुंची तो फोन घनघनाया। फोन बैंजी का था। भले ही सुधा बैंजी से कभी नहीं मिली थी पर उससे बात हो पाना किसी सहारे से कम नहीं था। सुधा ने लपक कर फोन उठाया। बैंजी ने रोहित के बारे में पूछताछ की पर यह जान कर उदास हो गया कि रोहित की हालत अब तक नाजुक बनी हुई है। पराए देश में हमदर्द के मिलने पर सुधा ने अपनी परेशानियों की गठरी बैंजी के आगे खोल डाली। बैंजी ने सुधा से फिर कहा कि रोहित उसका अच्छा दोस्त रहा है पर जॉब का ऐसा झंझट है कि उसे फुर्सत नहीं मिल रही। फोन रखने से पहले बैंजी ने सुधा को यकीन दिलाया कि वह जल्द आएगा। सुधा को लगा जैसे लड़की का टेलिफोन नंबर और बैंजी से हुई बात कई दिन के अंधेरे को चीरने वाली किरणें हैं। सुधा ने ऑफिस बंद होने और लड़की के अपने गंतव्य पर पहुंच जाने का अनुमान लगा कर उसे फोन किया। लड़की उसे पहचान गई पर उसने फोन पर बात करने की बजाय सुधा से मिलना ठीक समझा। सुधा को उसने अगले दिन एक रेस्त्रां में बुलाया। प्रतीक्षाओं के लंबे अंतराल सुधा के लिए उन छोटे-छोटे द्वीपों में बदलते जा रहे थे जिनके अंत के बाद ही उसे धरती पर कदम रखना था। लेकिन फिलहाल धरती कहीं बहुत दूर थी।


तय समय से पूर्व सुधा रेस्त्रां पहुंच गई। लड़की ने भी देर नहीं लगाई। सुधा को पहचान कर वह उसकी टेबल पर आई। लड़की वहां की स्थानीय निवासी थी। सुधा जानती थी लड़की ने उसके लिए जोखिम उठाया है। सुधा ने खड़े हो कर दोनों हाथ जोड़ दिए। लड़की और नजदीक आई और अपनी दोनों हथेलियों में उसके हाथों को भर लिया। बिना कोई भूमिका बनाए सुधा ने रोहित के बारे में पूछना शुरू किया। लड़की ने खुलासा किया- ‘‘देखिए! जिंदगी में हमें जो कुछ भी सामने दिखता है या दिखाया जाता है असलियत में सब कुछ वैसा होता नहीं है। रोहित का मामला भी कुछ ऐसा ही है। कुछ और चीजें भी उसके साथ चल रही थीं। ये उसके हाॅस्पिटल में पहुंचने से पहले की बातें हैं। रोहित ने जबसे कंपनी ज्वाइन की तबसे ही वह सबका चहेता था। बेहद हंसमुख और काबिल। उसका बाॅस भी उससे बेहद खुश था बल्कि कितनी ही जिम्मेदारियां उसे सौंपी गईं। लेकिन न जाने बाद में ऐसा क्या घटा कि बाॅस ने रोहित से बोलना बंद कर दिया। यही नहीं कुछ महीने पहले रोहित को मेमो मिलने शुरू हो गए फिर काम में देरी और लापरवाही के चलते शो कॉज नोटिसिस मिलने शुरू हुए। रोहित की शिकायतें आने लगीं। बाॅस ने सरेआम उसका मजाक उड़ाना शुरू कर दिया था।’’


‘‘पर रोहित तो बहुत ही ईमानदार और मेहनती रहा है।’’ सुधा को लगा ये बातें उसके रोहित के बारे में नहीं हो सकतीं। 


‘‘मैं जानती हूं। रोहित बहुत अच्छा था। उसके काम में कोई कमी भी नहीं थी। पहले तो उसे बड़े अच्छे एपरेज़ल्स मिल रहे थे लेकिन न जाने क्यों बाद में सब उल्टा हो गया। इस कदर रोहित के खिलाफ कि उसे नौकरी से निकालने की बात चलने लगी। बाॅस ने उसे तरह-तरह से परेशान करना शुरू कर दिया। काफी दिनों तक रोहित सब सहता रहा पर सहने की भी एक सीमा होती है। बॉस से एक बार उसकी लड़ाई भी हुई जिसके बाद उस पर तरह-तरह की ज्यादतियां हुईं और बात बहुत खराब हो गई फिर भी रोहित काम पर आता रहा। वह काम करता था लेकिन एकदम चुप-सा हो गया था। 


‘‘आखिर किस बात पर? ऐसा क्यों कर रहा था बॉस? कोई कारण? इसकी वजह क्या थी?’’


‘‘मैंने सिर्फ बॉस को उसका मजाक उड़ाते देखा था। मुझे कारण नहीं पता। और हां उसका कोई अफेयर नहीं था। वह सबसे मिलजुल कर रहता था।’’ लड़की जितना जानती थी उसने सब सुधा को बता दिया।


‘‘किसी ने तुमसे कुछ कहा हो? कुछ बताया हो?’’ सुधा ने जानना चाहा।


‘‘नहीं, मुझे तो नहीं पर हां एक लड़का है इंडियन ही है... गौरव। वो सब कुछ जानता है। वो उस दिन वहां था।’’


‘‘पर गौरव ने तो कहा वह कुछ नहीं जानता।’’

 

‘‘नहीं, वो सब कुछ जानता है। आप किसी तरह उससे बात करने की कोशिश करें।’’ लड़की ने सुधा के कंधे पर हाथ रख कर उसे ढाढस बंधाया। सुधा ने उसकी हथेली पर अपना गाल टिका दिया। किसी शून्य में ताकती सुधा को सारी बातें किसी भी ठोस कारण तक पहुंचाने में विफल थीं। हॉस्पिटल में आने से पहले जिन हालात से रोहित दो-चार हो रहा था उसके बारे में सोचने भर से सुधा को अपना ब्लड प्रेशर बढ़ता हुआ मालूम होने लगा। लड़की के जाने के बाद देर तक वह रेस्त्रां में बैठी रही। दुनिया के सारे तमाशे उसके सामने अपनी गति से चल रहे थे पर सुधा उस गति में एक ठहरा हुआ विराम थी। सुधा न जाने और कितनी देर वहां बैठी ही रहती यदि उसका फोन न बज उठता। इस बार फोन हॉस्पिटल से था। सभी बुरी सूचनाओं के बीच हॉस्पिटल से फोन आने पर सुधा ने थरथराते हाथों से फोन उठाया। वह कुछ बोली नहीं केवल सुनती रही। बहुत दिनों के बाद जो खबर उसे मिली वह यह थी कि रोहित की हालत कुछ स्टेबल हुई लग रही है। डॉक्टर ने खुद फोन किया था। सुधा के मन में उठ रहे अनेक तूफान कुछ देर को ठहर-ठिठक गए। पूरे शरीर में दौड़ती संतोष की एक लहर को सुधा ने महसूस किया। एक गहरी सांस ली और आसमान को देखा। हॉस्पिटल जा कर रोहित को देखा तो उसे कोई अंतर महसूस नहीं हुआ। रोहित अब तक अचेत ही था। दवाओं और चिकित्सा से घिरा वह हर दिन जैसा ही लग रहा था लेकिन डॉक्टर के आश्वासन ने रोहित के नजदीक पसरे खतरों के जंजाल को भेद डाला था। सुधा ने आज सुभाष और बेटी रागिनी से बात की तो उसका स्वर शांत था। यह शांति हाल ही में मिले गहरे सुकून से उपजी थी और कई दिन बाद घर में रोहित से जुड़ी सकारात्मक खबर देने से भी।


जिंदगी का अपना ही ढब है जब दहलाती है तो आग के दरिया खड़े कर देती है और जब सहलाती है तो थपकी के लिए एक नहीं कई हाथ उगा देती है। पिछली रात कई दिन बाद सुकून की एक नींद सुधा ने ली। सपने में देखा रोहित संग पूरा परिवार किसी पहाड़ी यात्रा पर निकला है। बच्चों की मस्ती से सारा आलम रौशन है। सुबह उठने पर भी सुधा के कानों में रात के सपने की गूंज बाकी थी। ये सुबह भी और दिनों की सुबह से अलग थी। तैयार हो कर सुधा सबसे पहले पुलिस स्टेशन पहुंची। रोहित से जुड़े सच को जानने के लिए उसे दो जगहों की पड़ताल बेहद जरूरी लग रही थी एक रोहित का ऑफिस और दूसरा रोहित का अपार्टमेंट। पुलिस स्टेशन में रोहित के केस से जुड़े ऑफिसर ने सुधा के फिर से चले आने पर मुंह बनाया। सुधा ने उसकी हरकत को पूरी तरह नज़रअंदाज करते हुए कहा-


‘‘ऑफिसर  मुझे कई दिन हो गए यहां। मुझे बेटे का अपार्टमेंट देखना है। मैं चाहती हूं उसका एक्सेस आप मुझे दे दें।’’


‘‘जैसे ही हमारा काम हो जाएगा दे देंगे। प्रोसीज़र तो पूरा होने दें।’’ ऑफिसर ने बिना लाग-लपेट सुधा से कहा। 


‘‘आप प्लीज़ मेरी मदद करें। अपनी कार्यवाही जल्द पूरी कर लें।’’ सुधा के शब्द न जाने कलेजे की किस भाप से उठे कि ऑफिसर ने पहली बार उसे नरमदिली से देखा। 


पुलिस स्टेशन से सुधा हॉस्पिटल की ओर निकल पड़ी। वहां पहुंचने पर क्रिटिकल केयर के बाहर ही बैंजामिन उसके इंतज़ार में मिला। बैंजामिन उर्फ बैंजी ये जान कर खुश हुआ कि रोहित की हालत अब पहले से बेहतर है। रोहित को देख कर,  डॉक्टर से बात करके बैंजी हास्पिटल की केंटीन की तरफ सुधा को ले गया। दोनों पहली बार जरूर मिले थे पर दोनों को ही महसूस हो रहा था कि उनके बीच एक मज़बूत कड़ी है। रोहित ही वह मजबूत कड़ी था जिससे दोनों के बीच बहुत अपरिचय अब नहीं रह गया था और दोनों एक दूसरे की उपस्थिति में सहज थे। बात सुधा ने ही शुरू की। ऑफिस की लड़की से हुई सारी बातें उसने बैंजी को बताईं और अपनी चिंता भी जाहिर की।


‘‘जीवन की सच्चाई अनेक परतों में छिपी होती है। इंसान कई बार छिपी हुई अनेक परतें देख नहीं पाता।’’ बैंजी समस्या की पेचीदगी को समझना चाहता था।


‘‘एक दिन बातों-बातों में रोहित ने मुझसे जॉब छोड़ने की बात कही तो थी...। मैंने कारण पूछा भी पर उसने टाल दिया उसके बाद पता नहीं क्यों उसने जॉब नहीं छोड़ी।’’ बैंजी ने कहते हुए सुधा की ओर देखा।


‘‘वो कुछ पेरशान था ये बात मैंने भी महसूस की थी पर वो जॉब क्यों छोड़ना चाह रहा था... बेंजामिन तुम किस कंपनी में हो? तुमने यहां से जॉब क्यों छोडी?’’ रोहित से चली बात का सिरा बैंजी के नौकरी छोड़ने पर आ कर ठहरा।


‘‘न्यूटैक सोल्यूशंस.., इस कंपनी का जो स्ट्रक्चर है वो बहुत खराब है। कम से कम मैंने अपने लिए तो ये जरूर महसूस किया। मैं बहुत अच्छा काम करता था पर न मुझे प्रेज़ मिलती थी न एपरेज़ल।’’ 


‘‘ऐसा क्यों बैंजी?’’ सुधा ने जिज्ञासा व्यक्त की।


‘‘वजह मेरा रंग।’’ कहते हुए बैंजी व्यंग्य से मुस्कुराया।


‘‘बैंजी! यहां अभी भी ऐसा होता है? मैंने तो सुना था कि अब तो बहुत सारी पालिसीज़ बन गई हैं।’’ सुधा ने अपनी हैरानी को राह दी।


‘‘पालिसीज तो कागज पर होती हैं रीयल वर्ल्ड में कुछ और ही घटता है। फ्री अमेरिका... फ्री अमेरिका पर ये फ्री किसके लिए? ये चमक ये रोशनी ये उजाला आप देख रहीं हैं सब का सब दाग़दार है। यहां ये सब होता ही है न... आप जानती हैं जब भी कोई अपराध होता है उसकी जिम्मेदारी हम ब्लैक्स पर ही छोड़ी जाती है। एक बार हमारे ऑफिस में चोरी की वारदात हुई तो मुझे और मेरे दोस्तों को फ्रेम करने की कोशिश हुई। हमारे सुपर बॉस जो रोहित के बॉस विजय सर से भी ऊपर हैं- मिस्टर थामस वो मेरे साथ यही कर रहे थे। मैंने सोचा इट्स बैटर टू लीव दिस कंपनी और लीव दिस स्टेट और मूव टू अनदर कंपनी। मैंने ठीक फैसला लिया था। जहां मैं काम कर रहा हूं वहां ऐसा नहीं है। मेरी योग्यता को मेरा रंग वहां धुंधला नहीं करता। मेरा समय, मेरी ऊर्जा बार-बार खुद को बेगुनाह साबित करने में नहीं जाते।’’ सुधा ने देखा बैंजी के चेहरे पर एक साथ कई रंग आ-जा रहे थे।


‘‘बैंजी, क्या तुम एक बार मेरे साथ अपनी पुरानी कंपनी न्यूटैक सोल्सूशंस में चल सकते हो? मैं जानती हूं तुम्हारे लिए ये आसान नहीं होगा पर तुम रहोगे तो गौरव झूठ नहीं बोल पाएगा।’’ सुधा ने अनुरोध किया।


‘‘मैं जरूर चलूंगा। आप बेफिक्र रहें।’’ बैंजी ने भरोसा दिलाया। दोनों बात कर ही रहे थे कि पुलिस स्टेशन से फोन आया। सुधा ने पुलिस आफिसर की आवाज़ पहचान ली। उसने सूचित किया कि अब सुधा, रोहित का अपार्टमेंट देख सकती है। साथ ही इस केस में जो रिपोर्ट आई है उसके मुताबिक रोहित ने सुसाइड करने की कोशिश की है और इसके लिए उसके सिवाय कोई और दोषी नहीं है। सुधा ने यह बात बैंजी को बेहद तकलीफ से बताई। वह किसी भी तरह मानने को राजी नहीं थी कि उसके बेटे रोहित ने खुद को मिटाने की कोशिश की है। बैंजी भी सुधा के साथ रोहित के अपार्टमेंट पर चलने के लिए तैयार था। सुधा और बैंजी अभी रास्ते में ही थे कि इतनी देर में सुधा का फोन फिर बज उठा। इस बार फोन हाॅस्पिटल से था।


‘‘मिसेज सुधा, रोहित की तबीयत ठीक नहीं लग रही।’’ हाॅस्पिटल से नर्स का स्वर घबराया हुआ था।


‘‘पर... पर कल रात ही आपने कहा था वो स्टेबल है और सुबह भी ऐसी कोई बात नहीं थी। मैं कुछ देर पहले ही तो हास्पिटल से चली हूं ...ये अचानक क्या हो गया?’’ सुधा बेचैन हो उठी। 


‘‘हो सके तो आप आ जाइए यहां...’’  डॉक्टर ने कुछ और नहीं कहा। सुधा और बैंजी उलटे पैर वापिस लौटे। रोहित के बिस्तर के पास हलचलों का एक पूरा संसार था। सुधा बेटे के कष्ट और अपनी उम्मीदों को चुकते देख कर रो पड़ी। बैंजी ने उसे सहारा दे कर बेंच पर बिठाया। डॉक्टर , रोहित के उपचार में लगे रहे। समय बीतता रहा। एक-एक पल सुधा के लिए भारी था। बुरी खबर की आशंका से उसका दिमाग घिरा था। बैंजी रात तक सुधा के साथ रहा। रोहित को शायद कुछ आराम आ गया था उसके बिस्तर के पास चिकित्सकों और मशीनों की हलचलें अब कम थीं। बैंजी को वापिस लौटना था। आज सुधा के साथ आफिस और रोहित के अपार्टमेंट न जाने का उसे मलाल रहा पर सुधा को इत्मीनान रहा कि मुसीबत की घड़ी में बैंजी उसके साथ था।


सुधा के दिमाग में लगातार गौरव का नाम दस्तक दे रहा था। थकान, निराशा और अपनी तरफ बढ़ रहे अंधेरे का भयानक चेहरा देखते हुए सुधा को गौरव एक आखिरी उम्मीद सरीखा लगा। उसने तय कर लिया कल सुबह ही आफिस जाकर गौरव से सच पता करना ही है। अगले दिन सुधा अपनी तय की गई दिशा की ओर बढ़ चली। गौरव ने मिलने में पहले आनाकानी की पर अंततः सुधा से मिला।


‘‘गौरव! तुम रोहित के दोस्त रहे हो मुझे बताओ क्या हुआ उसके साथ? किसी ने उसे कुछ दिया है जिससे उसकी ये हालत है। कितने दिनों से वो बेहोश पड़ा है। तुम उसके दोस्त रहे हो गौरव... कुछ तो बोलो... बताओ मुझे।’’ सारे दबाव झेलती सुधा रो पड़ी। वह खुद नहीं जान पा रही थी कि जीवन की परेशानियों का डट कर मुकाबला करने वाली सुधा क्यों हारा हुआ महसूस कर रही है। दोस्ती का वास्ता और सारे अनुरोधों के बावजूद गौरव ने केवल यही कहा- ‘‘रोहित के साथ किसी ने कुछ नहीं किया है। आपको कोई गलतफहमी है आंटी। सीधी बात ये है कि वो ठीक काम नहीं कर पा रहा था और बहुत टची हो गया था। बॉस से झगड़ा करने लगा था।’’


‘‘नहीं, गौरव बात कुछ और ही है। तुम चाहे जितना छिपा लो मैं पता कर के ही रहूंगी।’’ इस बार सुधा का आक्रोशित स्वर बेहद दृढ़ था। गौरव ढीठ बन कर खड़ा रहा। सुधा ने फोन पर बैंजी को सारी बात बता दी। बैंजी को उम्मीद थी गौरव, रोहित के बारे में सुन कर पिघल जाएगा पर वो पत्थर की तरह जड़ ही रहा। नाउम्मीदी से लड़ती हुई सुधा को बैंजी ने ऑफिस में काम करने वाले आर्थर का नाम सुझाया। आर्थर एक लंबी छुट्टी के बाद ऑफिस लौटा था। सुधा ने आर्थर तक पहुंचने की सूरत निकाल ही ली। पहले तो आर्थर ने भी सभी की तरह चुप्पी साध ली पर सुधा के तर्कों और एक परेशान स्त्री की तकलीफ को जान कर उसकी चुप्पी अंततः पिघल गई। जिस वजह को जानने की कोशिश में सुधा इतने दिन से हलकान थी आज वो सच उसके सामने आया।


‘‘देखिए पहले ही बता दूं कि मैं इसमें बिल्कुल भी शामिल नहीं हूं। आप यकीन जानिए मैंने उस बात का विरोध भी किया पर मुझे भी धमकाया गया कि तुम्हारी नौकरी चली जाएगी। हमारे बॉस मिस्टर विजय भारद्वाज शुरू में रोहित को बहुत क्लोज़ रखते थे। हर नए टास्क में रोहित उनकी पहली पसंद था। दोनों के बीच अच्छा समय गुजर रहा था। एक दिन मेरे ही सामने की बात है उन्होंने रोहित की पीठ पर हाथ फिराया। दो-तीन बार ऐसा करने के बाद उन्होंने कहा- तुम जनेऊ नहीं पहनते? आप सोच रही होंगी मुझे कैसे पता पर इतने इंडियंस के साथ रह कर मैं जान गया हूं कि वो कोई सैक्रेड थ्रेड होता है। रोहित शायद उसे पहनना पसंद नहीं करता था या शायद आप लोग उसे नहीं पहनते हैं?’’ आर्थर ने सवाल किया।


‘‘हां, हम नहीं पहन सकते...। नहीं पहनते वी आर नॉट एन्टाइटल्ट टू।’’ अंतिम शब्द सुधा ने धीमे से कहे।


‘‘शायद इसीलिए। बाॅस उससे नाराज़ हुआ पर रोहित ने एक शब्द नहीं कहा। बॉस ने कुछ देर बाद उसे जाने के लिए कहा लेकिन उस दिन के बाद से बॉस का व्यवहार बदल गया। उसने बात-बेबात रोहित को जलील करना शुरू कर दिया। बॉस की नाराज़गी दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी। वो रोहित से सवाल करता-  पता नहीं तुम यहां तक पहुंच कैसे गए? तुम लोगों में इतनी काबिलियत तो नहीं होती। रोहित ने ही मुझे बताया था कि एक दिन बॉस ने कास्टिस्ट रिमार्क भी किया। रोहित के सरनेम को ले कर बॉस पूछता, उसे तंग करता। शायद रोहित ने शुरू में उसे अपना गलत सरनेम बताया था। बाद में बात खुल गई। कुछ दिन सब शांत रहा पर बाद में तो हद ही हो गई। बॉस रोहित से छोटे-छोटे काम करवाने लगा। उससे कॉफ़ी मंगवाने लगा। अक्सर कहता- जाओे क्लाइंट के लिए कॉफ़ी ले लाओ जबकि हमारे पास स्टाफ था। पर बॉस कहता कंपनी की तरक्की के लिए छोटे से छोटा काम सीखो। मैंने भी इस बात का विरोध किया था। एक दिन दोनों के बीच बहुत बड़ा झगड़ा हुआ उसके बाद मुझे कुछ भी पता नहीं क्या हुआ फिर मैं भी छुट्टी पर चला गया।’’ सुधा, आर्थर की बात सुन कर दहल गई। आखिर इस पूरे मामले की यह वजह निकली। बात से जुड़े कुछ सवाल सुधा को  व्यथित करने लगे कि क्यों इतना सब सहन किया रोहित ने? क्यों अपने परिवार को कुछ नहीं बताया। अपनी मां को कुछ नहीं बताया। क्या केवल इसलिए कि जो एजूकेशन लोन हमने उसकी पढ़ाई के लिए लिया था उसे चुकाने की जिम्मेदारी उस पर थी। इसलिए कि उसका काम करना जरूरी था। भले ही कितना अपमान हो। सुधा सोच रही थी क्यूं बार-बार हमारी काबिलियत कठघरे में खड़ी की जाती है। हम लोग शिक्षा और मेहनत के दम पर ही तो आगे बढ़ते हैं। हमारे पास और कोई रास्ता है भी नहीं। इन्हीं दो तरीकों से तो रोहित भी आगे बढ़ रहा था पर वह तरीके भी आंखों में खटकने लगे। सुधा के लिए यह सब जानना एक गहरे धक्के की तरह रहा। वह महसूस कर पा रही थी कि आर्थर की बातों से जब उसकी हालत इतनी खिन्न है तो उस पूरे हादसे को झेलने वाले रोहित की हालत कैसी रही होगी। आर्थर का नाम कहीं नहीं आएगा ऐसा वायदा करके सुधा ऑफिस से निकली तो पहला फोन उसने बैंजी को किया। सब कुछ जान कर बैंजी ने यही कहा- ‘‘ मैं जब बड़ा हो रहा था और जब कुछ समझने लायक हो गया था तब पहली बार डिस्क्रिमिनेशन को देख कर लगा कि ये सारी दुनिया में ये हमारे ही साथ होता है पर... ये तो..’’ बैंजी काफी देर तक बोलता रहा। सुधा को लग रहा था जैसे आज बैंजी नहीं रोहित उससे बात कर रहा है।





सुधा के कदम अनायास पुलिस स्टेशन की तरफ बढ़ने लगे। रोहित के साथ आफिस में घटी अपमान से भरी घटनाएं कल्पना के जरिए सुधा की आंखों के सामने साकार होती जा रही थीं। उनमें कुछ चेहरे थे- हिंसक। उन चेहरों पर खेल रही थी भयानक हंसी। हंसते हुए नुकीले दांत बेहद क्रूर लग रहे थे। सुधा ने महसूस किया रोहित की उन भिंची हुई मुट्ठियों को, सीने की आग और कुछ कर नहीं पाने की बेचारगी को। उसकी बेचारगी ने हिंसक चेहरों की विद्रूपता को और बढ़ाया होगा, यह भी सुधा की कल्पना से परे नहीं था। आज पुलिस ऑफिसर से मिलते ही सुधा ने उसे सबसे पहले बताया कि रोहित की हालत नाजुक है। सुधा कुछ नहीं जानती थी कि रोहित के साथ अगले पल क्या होने वाला है पर उसे यह बहुत अच्छी तरह पता था कि रोहित की लड़ाई उसे हर हाल में लड़नी है। आफिसर ने अपनी संवेदना प्रकट करते हुए रोहित के बेहतर होने की दुआ की। सुधा को बैठने का इशारा किया। सुधा बैठी और एक चुप्पी के बाद बोली- ‘‘आपने अपनी रिपोर्ट तो सौंप दी ऑफिसर पर इस मामले की एक पड़ताल मैंने भी की है। मैं सही थी रोहित को उसकी कंपनी में टॉर्चर किया जा रहा था। मुझे अब भी लगता है उसे जरूर किसी ने कुछ दिया है। मेरी दरख्वास्त है आप इस केस को बंद मत कीजिए। इन्वेस्टिगेट तो कीजिए।’’ किसी भी तरह अन्याय न सहने की जिद से निकले सुधा के ठोस शब्दों ने आफिसर को सावधान किया। बिना कोई प्रतिवाद किए उसने- ‘ठीक है हम देखेंगे पर सब कुछ रोहित के स्टेटमेंट पर डिपेंड करता है।’ ऐसा कह कर आफिसर ने इस समय मामले को विराम दिया।


तनावों की स्याह परतों को चीरती सुधा के प्रतिकार की धार ने उसे साहस दिया। वह खुद को हिल्सा की तरह महसूस कर रही थी जिसे विपरीत धारा में न केवल तैरना था बल्कि किनारे भी पहुंचना था। सुधा को अब रोहित के अपार्टमेंट पहुंचना था। इतने दिनों से जिस अपार्टमेंट पर सुधा ने ताला जड़ा देखा था आज वहां ताला नदारद था। लैंड लेडी ने सुधा के लिए दरवाज़ा खोल दिया और उसे अकेला छोड़ कर चली गई। 


खुले दरवाजे से भीतर जा कर सुधा ने देखा रोहित की कहानी कहने वाला सामान हर जगह बिखरा पड़ा है सिवाय रोहित के। उसकी आंखों ने पूरे कमरे की परिक्रमा की। एक नहीं दो नहीं कई-कई बार। रोहित के डेस्क पर रखी चीजों को सुधा ने सहलाया। उसकी किताबों पर हाथ फिराया। कागजों के ढेर को सुधा ने टटोला, समेटा तो उसमें एक कागज़ पर रोहित के लिखे शब्द आंखों से टकराए- ‘‘इट्स नॉट डिफरेंट हियर टू। इट्स सेम। एग्जैक्टिली सेम।’’ सुधा ने इन शब्दों को पढ़ा। सुधा के सामने रोहित का अब तक का जीवन तैर गया। उसे याद आई वह घटना जब रोहित ने देश छोड़ कर यहां कैलिफोर्निया में नौकरी करने का निर्णय लिया था। उस तार से अनेक तार जुड़े थे। अतीत के सब तार जुड़ कर एक जी हुई कहानी को फिर से सुधा के मन में रचने लगे। 


समय हवा के पंखों पर सवार पलक झपकते ही दरिया, पर्वत, मैदान पार कर जाता है। इनके पार पहुंच कर जब पीछे देखता है जो अनेक वर्ष, उसके माह, माह के अनगिनत दिन और दिन के असंख्य घंटे अतीत का बही-खाता खोले जिंदगी की जमा-घटा, गुणा-भाग सामने ला देते हैं। तब ही पता चलता है पलक झपकने के पीछे अतीत एक लंबी कार्यवाही समेटे खड़ा है। कौन कह सकता था ये कल का नाक सुड़कता, तुतलाता रोहित आज इंजीनियरिंग की परीक्षा पास कर गया। लंबी कठिन साधना के तमाम ऊबड़-खाबड़ रास्ते जैसे आज समतल हो गए थे। तमाम झंझावात आज शांत हो चले थे। समुद्र के ज्वार-भाटों से परे अठखेलियां करती एक सुन्दर नदी दीखने लगी। आज घर किसी त्यौहार की रौनक-सा गुलज़ार था। जिस परिणाम के लिए मां-पिता की जेब और मेहनत दुआओं में घुली लंबी यात्रा करती चली आई थी आज उसकी खुशियों का ओर-छोर नहीं था। रोहित से ये खबर सुनते ही मम्मी-पापा मारे खुशी के ताली बजा कर, शोर मचा कर एक दूसरे के हाथों में हाथ थामे कूदने लगे थे मानो मुसीबतों के सारे पहाड़ इसी कुदान में लांघ जाएंगे। छोटी बहन रागिनी को मम्मी की बात का भरोसा आज जाकर हुआ था- ‘मेहनत कभी बेकार नहीं जाती।’ भाई की मेहनत की वह साक्षी थी। खुशी में डूबा पूरा घर आज एक-एक करके अतीत के पन्ने खोल कर एक-दूसरे को ही बांचने में लगा था।  वे पन्ने जो सबने कभी साथ बैठ कर रचे थे।


‘‘कुछ भी कहो रोहित ने दिन-रात एक कर दिए इस एंट्रेस के लिए।’’ बेटे की पीठ ठोकते हुए सुभाष का चेहरा गर्व से चमकने लगा।


‘‘दो साल, केवल दो साल कोचिंग ली होगी आठवीं-नवीं में और उसके बाद बिना कोचिंग के खुद-ब-खुद सारी पढ़ाई की लड़के ने। आसान बात है क्या? कोई करके दिखाए तो मानूं।’’ सुधा ने पति के नहले पर दहला मारते हुए कहा।


‘‘एक मिनट एक मिनट सारा क्रेडिट क्या सिर्फ भैया का है मैंने जो त्याग किया है उसका कुछ नहीं। रात में कमरे की लाइट जले और मैं कभी चिल्लाई हूं इन पर...। इनके साथ जागी और सोई हूं। उसका कुछ भी नहीं?’’ एक हाथ कमर पर और एक हाथ की तर्जनी से सबको सावधान करती रागिनी कहां खामोश रहने वाली थी।


‘‘हां-हां, त्याग की देवी रागिनी तेरी जय हो।’’ रोहित ने रागिनी के सिर पर प्यार से मुक्का मारा।


रौशनी से जगमगाते वो लम्हे रोहित की यादों की पोटली के हवाले हुए। जिन्हें साथ ले कर वह देश के नामी संस्थान का हिस्सा हुआ। पहली बार घर से दूर अपने सपनों में रंग भरने की धुन में रोहित को लग रहा था बड़ी-सी इस दुनिया में एक छोटी-सी खिड़की उसने अपने लिए खोल ली है। खिड़की से दूर तक की राहें उसे उजली दीख रही थीं। नाक बंद करके एक गहरी सांस खींची तो उसमें आज कोई भारीपन नहीं था। देश के कोने-कोने से उसके जैसे अनेक नौजवान भविष्य बनाने की राह पर पहला कदम रख रहे थे। सबके पास हंसी के झरने थे। पर्वत को कूट-पीस कर छान देने का जज़्बा था। हिम्मत थी। मेहनत की एक डगर पार करके आए रोहित के आगे अब एक और डगर खुल गई थी इसके लिए रोहित एकदम तैयार था। जी-जान से वह अपनी पढ़ाई में जुटा था। इस सत्र के लिए प्रोजैक्ट का चयन भी हो गया। 


‘‘बड़े खुश लग रहे हो? मिल गया प्रोजैक्ट?’’ क्लास में पढ़ने वाले एक साथी ने रोहित से अटपटा-सा सवाल किया। रोहित सवाल की रंगत भांप गया था इसलिए सवाल की टोन के अनुरूप उसने भी लट्ठमार जवाब दिया- ‘‘तुम्हें नहीं मिला क्या?’’


‘‘हमें तो मिला है। मिलता रहा है आधा-अधूरा पर किस्मत के धनी तो तुम हो। तुम जैसे हैं। तुम्हारी डगर तो शुरू से ही मक्खन-मलाई है। मुश्किल तो हम जैसों के साथ है। भगवान ने योग्य लोगों के नसीब में कड़ी मेहनत लिख डाली है और तुम्हारे हिस्से में तमाम सुख।’’ सहपाठी रोहित के सवाल से तनिक नहीं घबराया बल्कि और शेर हो गया। उसके शेर होते ही कुछ और लड़के भी पूरी बेशर्मी के साथ मामले का मज़ा लेने लगे।


सहपाठी के सरल शब्द भीतर से बेहद खूंखार थे। रोहित सोचने लगा मेहनत, योग्यता- इन सबके लिए उसने इतने साल दिए हैं। यहां से आगे जिस मंज़िल पर पहुंचना है उसे भी वह अपने खून-पसीने से सींच रहा है फिर मेहनत और योग्यता को आज उसके पाले से क्यों खारिज किया जा रहा है। जिस बात को रोहित कभी-कभी नज़रअंदाज़ करता चला आया था उसे आज सरेआम कह कर रोहित को अपमान के चाबुक से उधेड़ा-छीला जा रहा था। रोहित की नर्म खाल पर यह पहला सामूहिक हिंसक वार था जिसे पूरे साहस से उसने झेला था। सबके सामने रोहित ने जिस हिम्मत से इस बात को संभाला वही रोहित सेमेस्टर ब्रेक में जब घर लौटा तो मम्मी-पापा के सामने बच्चों की तरह बिलखने लगा। 


‘‘नहीं, मम्मी! मैं वहां नहीं जांऊंगा। वहां का माहौल ठीक नहीं है।’’


‘‘कहां-कहां का माहौल दुरूस्त करोगे रोहित? तुम देख लो तुम्हें इन बातों में पड़ कर अपना भविष्य चौपट करना है या मंजिल को पाना है?’’

 

लंबी समझाइश के बाद रोहित ने कई उतार-चढ़ाव देखते हुए अपनी पढ़ाई पूरी लगन से की पर नौकरी के लिए बाहर जाने का फैसला उसी दिन पक्का कर लिया। पढ़ाई के बाद वह अमेरिका, कनाडा, यूके में नौकरी के लिए आवेदन देता रहा। सुधा ने मनाने की काफी कोशिश की पर सुभाष ने भी बेटे का पक्ष लिया। न्यूटैक सोल्यूशंस रोहित की चुनी हुई मंजिल थी। जिसके बारे में रोहित की मान्यता थी- एक ऐसे मुल्क की कंपनी जहां जाति की कोई बंदिश नहीं होगी। जाति के नाम पर उसका अपमान नहीं होगा। सुधा अब समझ पा रही थी कि नौकरी से पहले की रोहित की वह धारणा यहां आकर चकनाचूर हुई जिससे रोहित की चेतना भी घायल रही।


रोहित ने यहां रहते हुए जिस पीड़ा का सामना अकेले किया और जिस अपमान का घूंट पिया वह सब सुधा के सामने बेनकाब हो चला। सुधा जिसने बड़ी दृढ़ता से अब तक सब कुछ का सामना किया था अब बिखरने की कगार पर पहुंच गई और फफक कर रोने लगी।  जीवन के सम्मान के जिस भरोसे को ले कर रोहित यहां आया था वह चिंदी-चिंदी हो कर ज़मीन पर बिखरा पड़ा था। सुधा ने उस कागज़ को अपने सीने से सटा लिया जैसे बेटे को गले लगा रही हो। जैसे दिलासा दे रही हो तुम अकेले नहीं हो रोहित। जैसे हिम्मत दी हो हम लड़ेंगे रोहित।


काफी देर सुधा उस कमरे में एक ही मुद्रा में बैठी रही फिर उठी और रोहित का बिखरा सामान समेटने लगी। खाने-पीने की सुधबुध से एकदम परे। कमरा सफाई के बाद कुछ निखर-सा गया। थककर बिस्तर पर लेटी सुधा को कब नींद ने अपनी आगोश में ले लिया पता ही नहीं चला। वह उठती ही नहीं यदि उसका फोन नहीं बजता। सुधा चौंक कर उठी। फोन हास्पिटल से था। सुधा ने फोन उठाया। दूसरी तरफ से डॉक्टर का स्वर था- ‘‘रोहित को होश आ गया है। ही इज़ कम्प्लीटली आउट ऑफ डेंजर। वो आपसे मिलना चाहता है।’’ फोन बंद हुआ तो सुधा उठने को हुई। जमीन पर पैर रखे तो लगा पैरों में कोई जुंबिश ही नहीं। इतने दिनों से रोहित को खतरे से बाहर देखने की उम्मीद  वह धम्म से बिस्तर पर बैठ गई। दो पल रूकने के बाद उसने पैरों को मजबूती से उठाया। कमरे का ताला बंद किया और बेटे से मिलने चल दी।


आज रोहित को मिनी आई. सी. यू. में शिफ्ट किया गया। वहां मरीज़ को देखने उसके परिवार के लोग आ सकते थे। इतने दिनों से बेटे को ग्लास डोर से देख कर सब्र करने वाली सुधा ने बेटे को करीब से देखा। शब्द गले में ठहरे रहे और दिल की भाप आंखों में उतर आ कर बह गई। सुधा ने हौले से रोहित के सिर पर हाथ फेरा। रोहित के बदन में सिहरन-सी दौड़ गई। दोनों एक-दूसरे के गले लग कर रोने लगे। रोहित के रोने में उसकी शर्मिंदगी घुली थी। रोहित रोते-रोते बोला 'सॉरी मम्मी मेरी वजह से आपको कितना कुछ झेलना पड़ा होगा। सॉरी.... मम्मी’। सुधा ने रोहित का चेहरा ऊपर उठाया। हथेलियों से उसके आंसू पोंछे, अपने हाथों में उसका चेहरा थाम कर, आंखों में डबडबाई आंखें डाल कर उसने कहा- ‘‘बेटा तूने मुझे?? मुझसे कुछ कहा क्यों नही? ऐसे कौन करता है बेटे? मुझे लगा कि हमने तुझे खो दिया। मेरी तो जान ही निकल गई थी। रोहित रो रहा था।  सुधा ने आगे हाथ बढ़ाकर रोहित के आंसू पोंछते हुए कहा बेटा तू चिंता मत कर अब सब ठीक होगा।  हम लोग घर चलेंगे ’’


जवाब में रोहित इतना ही कह पाया- ‘‘हां, मम्मी।’’

रोहित बहुत दिनों बाद आज अपने अपार्टमेंट में आया था। शरीर में अभी कमज़ोरी थी पर मां के साथ ने जिंदगी को एक नई करवट दी थी। उसने देखा उसके कमरे में मां का होना एक सुकून, एक भरोसे का होना है। घर को हिम्मत देती मां की अनेक छवियां उसकी स्मृति में थीं पर ये छवि सब स्मृतियों पर भारी थी। सुधा के भीतर से फूटती खुशी और मन का संतोष उसके हर काम में साफ दिख रहा था। रोहित उठा और सामान समेटने-पैक करने में व्यस्त सुधा की मदद को आगे आया। सुधा ने उसके हाथ से सामान ले लिया और मुस्कुराई। रोहित अपलक मां को देखता रहा। थोड़ी देर बाद उसने सुधा के दोनों हाथ अपनी हथेलियों में लिए और एक ही शब्द उसके मुंह से निकला- ‘सॉरी’ मम्मी। दोनों कुछ पल स्थिर मुद्रा में रहे पर दोनों की आंखों ने कितना कुछ कह-सुन डाला। सुधा ने प्यार से रोहित को देखा और इशारे से उसे आराम करने को कहा। रोहित बिस्तर से उठ कर अपने डेस्क तक आया। बहुत दिनों बाद उसने अपना लैपटॉप चार्जर पर लगाया। उसे खोला। ईमेल में जा कर पहले ड्राफ्ट किया हुआ अपना एक लैटर निकाला। उसने अपने बॉस के खिलाफ जातिगत भेदभाव और अपमान का कच्चा चिट्ठा मैनेजमेंट को लिखा था। अंतिम लाइन को फिर से पढ़ा जहां उसने लिखा था ‘देयरफोर आई क्विट’ उसने बैकस्पेस देकर उसे बदल कर लिखा ‘बट आई विल नॉट क्विट’। रोहित ने ड्राफ्ट के हर शब्द को ठहर कर पढ़ा और दृढ़ निश्चय से उसे मेल किया। दो घड़ी बैठा रहा। खिड़की से बाहर आसमान में सूरज चमक रहा था।


(इस कहानी को हमने परिकथा के हालिया अंक से साभार लिया है।)



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क


प्रज्ञा 

एच-103, सेकेंड फ्लोर, 

साउथ सिटी - 2

सैक्टर-50, गुरूग्राम, 

हरियाणा-122018


टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छी कहानी। आदमी के पूर्वग्रह नहीं बदलते, चाहे वह कहीं भी पहुंच जाए। रंग, जाति, देश, धर्म के आधार पर भेदभाव सारी दुनिया में हैं। दुख इस बात का है कि पढ़ाई लिखाई से अधिकांश की सोचे कोई अंतर नहीं आया है।

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  2. डाॅ डी एम मिश्र2 जून 2025 को 10:22 am बजे

    बहुत अच्छी एपीलिंग कहानी। हार्दिक बधाई

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  3. एक शानदार कहानी।इतने धैर्य से कही और बुनी गई कि प्रज्ञा जी हार्दिक बधाई की पात्र हैं। उन्होंने अपने को बखूबी डी-क्लास किया है और यह बात मायने रखती है।

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  4. प्रज्ञा जी ने अनूठी कहानी बुनी है। देश हो या परदेश संकीर्ण मानसिकता कहीं नहीं बदलती।

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