बसंत त्रिपाठी की कविताएँ
बसंत त्रिपाठी की कविताएँ
घड़ी दो घड़ी
घड़ी दो घड़ी
और बैठो
इसी तरह
सब कुछ भूल कर
कोलाहल के इसी घेरे के भीतर
हम चुन लें
अपना एक अदृश्य कोना
फिर डूब जाएँ उसमें
और पत्तियों के झरने की आवाज़
कानों से पिएँ
तुम बैठो
थोड़ी देर और
पेड़ की परछाई को
पूरब की ओर
थोड़ा और बढ़ने दो
बच्चों को शिक्षा की जेल से
शोर मचा कर निकलने तो दो
पंछी जब
अपने घोंसलों की ओर
लौटने की हड़बड़ी में दिखें तब तुम भी लौट जाना
लेकिन अभी तो बैठो
घड़ी दो घड़ी
और।
गुलमोहर के दो पेड़
गुलमोहर के दो पेड़
लाल नारंगी पीले रंग के दो विशाल छाते
एक दूसरे को छूते
पर अलग अलग
रहते पर साथ ही
मई का जलता महीना
धूप बहुत है तेज
ज़रा देर बस झाँको बाहर
आँख चिलकती है
कुछ दिन बाद
नारंगी छाते हुए बंद
जून जो बीत गया था
अब हरा छाता लिए
झूम रहे
दोनों गुलमोहर
छाया का रंग
लेकिन अब भी वही
वही ज़रा सुस्ताने के आमंत्रण का रंग
और दुनिया भी
ढीठ रंग बिरंगी
तुम्हारी उदासी
तुम्हारी उदासी की मुरझाई कलियाँ
मेरी आत्मा में झड़ती हैं
तुम्हारी आँखों में ठहरी बूँद
मेरी नसों में उतरती है
कभी कभी ख़ामोशी जब
वाचाल शब्दों की दरारों से
रिसने लगती है
मैं रख देता हूँ वहाँ
अपनी नींद का बर्तन
सच है कि दुनिया में
अनगिनत ज़ख्म हैं
गान के भीतर
अनकहे टीस हैं
हर वक्त किसी कबाड़ के उजाड़ में
फँस जाने का भ्रम घेरे रहता है
पर कभी कभी
जब तुम्हारी आँखों की गहराई में
झाँकता हूँ
तो लगता है किसी गहरे कुएँ के ठहरे जल में
देख रहा हूँ
अपनी ही निर्मल धुली परछाई
और यह
मेरी काया की निर्मलता नहीं है यह तुम्हारी आँखों की पवित्रता है .
जैसा भी है
जैसा भी है आधा-अधूरा कटा-फटा उधड़ा तार-तार सिला बार-बार
जीना ही है
इस निर्विकल्प जीवन को
अपने जूतों से बचते-बचाते
प्रलोभनों के तूफान में तिनका सजाते
हर गली में हर संभावनाओं को सनक की हद तक सहजते
प्यार करते
काटनी है यह उम्र
ध्यान बस इतना रखूँ कि मेरे हिस्से की धूप
किसी की छीनी हुई रोशनी न हो
सुख केवल इतना
कि दुखी न हो जाए कोई
मेरे घर में खिली चमेली
सबको बाँटे एक-सा सुगन्ध
मेरे आम के पेड़ पर
पत्थर भी बरसे तो
आम ही मिले
रसीला और महकदार
सबके विरोध में मैं भी शामिल होऊँ अपने ही जीवन का सुलगता सवाल मान
इरोम शर्मिला की फिक्र मुझे हर पल हो
हिमालय के पिघलते ग्लेशियर को
अपना ही संकट जानूँ
इस तरह
इस आधे-अधूरे कटे-फटे जीवन को
बनाऊँ
भरा और पूरा।
आधा अधूरा
इन दिनों
सब कुछ अधूरा छूट जाता है
आधा अधूरा गुस्सा
आधी अधूरी प्यास
बहुत लहक कर जहाँ गया
वहाँ से अधूरे मन लौटा
बीसियों किताबें अधूरी पढ़ी जा कर
रख दी गई
शैल्फ़ की क़ब्रगाह में
हद तो यह कि एक छोटी कविता भी
आधा ही पढ़ पाया
दोष कवि का उतना नहीं था
मेरे भीतर ही
कुछ दरक जाता था बार-बार
लगता है यह जीवन
मुझे आधा ही मिला
आधा शायद किसी तानाशाह ने
अपनी चाकरी में तैनात कर रखा है
इससे पहले मैं जान पाता
कि कहाँ छूट गया आधा जीवन
कहाँ रह गई हथियाई हुई प्यास
और दर्ज करता यहाँ
देखो कि यह कविता भी
अधूरी छूट गई
अक्सर लगता है
अक्सर लगता है
मुझे इस बोलती दुनिया में
अपनी अज्ञात उदासियों के साथ
नहीं होना चाहिए था
हर तरफ उम्मीदें हैं
या नाउम्मीदी
लोग बहुत विश्वास से अपना पक्ष रखते हैं
वे इधर खड़े होते हैं
या उधर
मैं हर बार कहीं खड़े होने की चाह में
औंधे मुँह गिर पड़ता हूँ
और आखिरकार
जब बोलने के लिए मुँह खोलता हूँ
बहुत देर हो चुकी होती
ख़ारिज हो चुके सवालों के
धुँधले दागदार आईने में
जब भी निहारता हूँ अपना चेहरा
लगता है
मुझे इस सुन्दर दुनिया में
अपनी अनाथ उदासियों के साथ
नहीं होना चाहिए था.
रात बहुत है बाकी अभी
रात बहुत है बाकी अभी
अपरिचित आँखों से बरसते आँसुओं से भीगी
बेचैन भारी रात
रेलवे पार पुल पर बैठे
अंधे भिखारी के खाली कटोरे में
पैठे शून्य की तरह
यह सूनी-सूनी रात
चारों ओर हल्का कुहरा
उस पर गिर रही
न जाने किस अनजान नक्षत्र की
नीली शांत रोशनी
बाहर अभी-अभी
एक पंछी चीखते हुए गुज़रा
पंछी दिखा नहीं
पर उसकी चीख
दिखने की तरह सुनाई पड़ी
पारदर्शी काँच में जैसे इस्पाती खरोंच
यह सर्वत्र और सर्वव्यापी रात
पृथ्वी के दूसरे छोर तक फैली हुई रात
धीरे-धीरे घिरती हुई रात
अचानक बहुत तेज़ घिर आई है
झिंगुर थक-हार कर चुप हो गए हैं
चौकीदार भी सोच रहे हैं
ज़माने ने डकैतों से दोस्ती गाँठ ली है
उन्हें आमंत्रित करके उल्लसित हैं अब चोरों और उठाईगीरों के लिए
सीटी बजाने का क्या अर्थ!
और वे अपनी लाठी और सीटी समेत
चुप हो गए हैं
पर मुझे क्यों लग रहा है
कि रात के ठीक इसी क्षण
कोई मेरी तरह ही जाग रहा होगा?
मेरी तरह ही
अवसन्न अगतिक अचिंत्य अतिभार
लेकिन वह कौन?
बहुत सोचने पर भी उसका चेहरा
पकड़ में नहीं आता
मोबाइल बजता है
स्क्रीन पर एक नाम उभरता है
पर बातें उसकी
इतनी अपरिचित, इतनी नृशंस, इतनी निर्द्वंद्व
कि खुद से ही पूछना पड़ता है बार-बार
क्या मैं इसे जानता हूँ?
क्या मैं इसे कभी जानता भी था?
जिन्हें जानना था वे ग़ायब हैं
जिन्हें पहचानता हूँ वे अजीब हैं
उफ्, रात बहुत है बाकी अभी
इस रात को मैं
अपने जागने से काट रहा हूँ
न रात कटती है
न अँधेरा छँटता है
मैं खुद छाँटा जा कर
किसी सूने में
चुपचाप खड़खड़ाता हूँ.
जब मैं किसी
जब मैं किसी पेड़ से मिलता हूँ
उसके फूल सा खिलता हूँ
उसके हरे में भीगता हूँ
डालियों में फुदकती आवाज़ सा
दम दम दमकता हूँ
जब भी मैं किसी पेड़ से मिलता हूँ
पर अब कहाँ मिल पाता हूँ किसी पेड़ से
देखता हूँ दूर से बस
जैसे टेलीविज़न की खिड़की से देखता हूँ भारत
झरने के पास कितना कम जा पाता हूँ अब
नदी की आवाज़ पिछली बार न जाने कब सुनी थी
पैरों में झरने की प्यास जागे भी
तो उसे अपनी काहिली से मारता हूँ
कान चप्पू की आवाज़ को तरसे तो उनमें ठूँस देता हूँ कोई तीखा संगीत
अब तो मनुष्य से भी मिलता हूँ
तो जीतता हूँ या हारता हूँ
कहाँ खुद को वार पाता हूँ
अवांछित
‘हाँ, आया’
कहकर तुरंत दौड़ता हूँ
बाद में पता चलता है
किसी ने पुकारा ही नहीं था मुझे.
भूमिका
इन लिखी हुई
ठहर ठहर कर
सधे हाथों से लिखी हुई
सुचिंतित इबारतों में
अगर ढूँढ़ भी लो मुझे
गलती करोगे
मैं जो हूँ
वह नहीं लिखता
लिख भी नहीं सकता
भला यह भी कभी संभव है
कि बीते हुए या बीत रहे पल का
कोई हूबहू चित्र खींच दे?
मैं वह लिखता हूँ
जो मैं होना
या नहीं होना चाहता हूँ
मैं एक झिलमिलाते भविष्य की
दिखती - गुम होती आभा से पनपे
रोशन ख़याल लिखता हूँ
मैं अपने स्वप्न लिखता हूँ
जो सचमुच की नींद में
सायास उभरते हैं
मैं दुःस्वप्न लिखता हूँ
जो कच्ची नींद में कुलबुलाते हैं
मैं संभावनाएँ लिखता हूँ
जो बुद्धि के दुर्ग में
लहू से सिक्त
दिल के राग छेड़ती है
मैं वह नहीं लिखता
जो कि मैं
अक्सर
होता हूँ।
सम्पर्क
मोबाइल - 09850313062
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