स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएं

 



आम आदमी का संघर्ष रोजमर्रा का संघर्ष होता है। उसे मनचाही चीजें कभी नहीं मिलती। जो मिलती हैं उसके लिए भी काफी जद्दोजहद करना पड़ता है। सहज चीजों के लिए भी लम्बी प्रतिक्षाएं करनी पड़ती हैं। स्वप्निल श्रीवास्तव इस आम आदमी के ही पक्षधर कवि हैं। वे स्वयं ही एक आम आदमी हैं। ये अनुभव उनके निजी हो कर भी आम आदमी के अनुभव हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कवि स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएं।



स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएं


दिखना


दिखना ठीक है, तुम कहीं भी दिख जाना

लेकिन हत्यारे के घर के सामने कभी मत दिखना

वरना तुम्हारा दिखना संदिग्ध हो जाएगा


दिखना एक कला है

डिजाइनर कपड़ों में दिखना अत्याधुनिकता


विचार बड़े ही फूहड़ हों

लेकिन ठीकठाक कपड़े पहना हुआ आदमी

एक बार तो धोखे में डाल ही देता है


ज्यादा दिखना पैदा करता है ऊब

इसलिए कभी कभार दिख जाना

जैसे बारिश के दिनों में दिख जाते हैं इंद्रधनुष


दिख जाना आंखों में आईने में

सपनों के दिख कर मुझे कर देना विस्मित


बहुत विरल हुआ है हमारा दिखना

दिख जाना भरी दुनिया में कहीं न कहीं

लेकिन उस आदमी के पास कभी मत दिखना

जो अभी अभी रिहा हुआ हैं जेल से 



बुनकर स्त्रियां

 

एक दो तीन नही कई स्त्रियों ने

मिलकर बुना है यह जीवन


किसी ने इकट्ठा किया कपास

किसी ने बनाए धागे

कोई बाजार से ले आया सुई


बुनने के पहले बनाया गया

ताना बाना

गाए गए थे कबीर के पद

और मुझे बुना गया


मुझे चांद की रोशनी और घनघोर अंधेरों में

बुना गया

जब भी सीवान उधड़ी इन्ही स्त्रियों ने

किया दुरूस्त


बुनकर स्त्रियों ने कठिन परिस्थितियों में

मुझे निर्मित किया

वे मेरे लिए बनी रही कवच


मैं इन स्त्रियों, कपास, धागों तथा सुई का

आभारी हूं

सबसे ज्यादा ऋणी मैं कबीर के पदों का हूं

जिन्होंने मुझे मनुष्य बनाया 



घुड़सवार

 

जहां जहां पर पहुंचा घोड़ा

घुड़सवार का बजा हथौड़ा।


चारागाह पर पाया कब्जा

चरवाहों को नाथा जोड़ा।


जिसने कभी नानुकुर की

उसको तो जी भर कर तोड़ा।


जिसने उसकी बात न मानी

उसका वंश हुआ निहोड़ा।


पांव जमे हैं रकाब पर

और हाथ में चमके कोड़ा।


बड़े बड़ो को डंस जायेगा

विषधर हैं यह सांप का जोड़ा।


किसी किसी की मूडी दाबी

और किसी की बाह को मोड़ा।


बटवृक्ष गमले में आए 

पर्वत पर्वत हो गए लोड़ा।

बड़े सूरमा हो गए पतई

काल नेमि ने किसको छोड़ा।





काठ के उल्लू


काठ के उल्लू काठ पर बैठे

कुर्सी पर वे ठाठ से बैठे।


चारों ओर घुमाते मूड़ी

जंगल में या हाट में बैठे।


दिन भर सोए रात में जागे

कर्मकांड के पाठ में बैठे।


सुना रहे हैं अहम फैसला

वे पत्थर की लाट में बैठे।


भक्तजनों को भीड़ लगी है

प्रवचन दे रहे खाट में बैठे।


जगा रहे अपनी कुंडलियां

प्रभु जी है उचाट पर बैठे 


गिलास


आधी भरी हुई है

और आधी खाली है गिलास


गिलास के चारों ओर झुके हुए हैं

उनके होठ

हाथो में हो रही है हरकत

आंखों में बाला की चमक है


अभी थोड़ी देर में उठायेंगे गिलास

और एक घूंट में खाली कर देंगे


मेज पर छूट जायेगी गिलास

भूल जायेगे वे नैतिकता

खालीपन से भर जाएगा कमरा


थोड़ी देर में आयेगी एक लम्बी गाड़ी

उसमें बैठ कर वे शिकार पर चले

जायेंगे

 

राजधानी में


अच्छे से अच्छे लोग राजधानी में पहुंच कर

बदल जाते हैं

पहले वे अपने आपको धोखा देते हैं

फिर दोस्तों की बारी आती है


उनका चाल चलन बदल जाता है

अपने कस्बे से आए हुए लोगों को

या तो कम समय देते हैं

या पहचानने से इंकार कर देते हैं


उनकी दाढ़ी बढ़ जाती है

कंधे पर टांग जाता है एक झोला

जिसमें ज्ञान का अंधेरा भरा होता है


उनकी बातचीत में बहुत से शहरी शब्द

आ जाते हैं

धीरे धीरे वे अपनी मातृभाषा भूलने

लगते हैं


वे चलते हैं तो लगता है कि वे

हवा में उड़ रहे हो

उड़ना वे राजधानी में सीखते हैं

लेकिन कहिए ..बहुत उड़ रहे हो

तो बुरा मान जाते हैं


भले ही समझ में न आए लेकिन

शास्त्रीय संगीत समारोह में जरूर

जाते हैं

बेवजह हिलाते रहते है मूडी

जैसे संगीत उनके रक्त में प्रवाहित

हो रहा हो 


कला पर लिखते हैं लम्बे लम्बे लेख

वे संग्रहालयों में घूमते हुए किसी मृतक से

बातचीत करते हुए पाए जाते हैं


एक दिन वे मुझे श्मशान में दिखाई दिए

बताया कि वे यहां अपने अज्ञान को

दफनाने आए हैं


उन्हें भूलने का ढंग आता है

आप सामने बैठे हो तो वे भूल जाएंगे कि

सामने कोई बैठा है


वे बहुत कम हंसते हैं

बल्कि जब हंसना चाहिए तब भी

नही हंसते


ऐसे लोगों के बारे में हरिशंकर परसाई लिखते हैं

.. जो हँसते नही हैं वे बच्चे कैसे पैदा

करते हैं






किश्तें


मेरे पास मूल पूंजी बहुत कम थी

इसलिए जो कुछ मिला वह किस्तों

में मिला


मकान खरीदा तो गाड़ी खरीदने की

हैसियत न रही 


प्रेम भी मुझे मुफ्त में नही मिला

उसके किये भी मुझे किश्तें

अदा करनी पड़ी थी

जिस माह विलम्बित हो जाती थी किश्तें 

बढ़ जाता था ब्याज

कभी कभी किश्ते दुगुनी हो

जाती थी


यह सब संगदिल महाजन का कमाल था

वह मुझे जरा सी भी रियायत नही

देता था


जो चींजें मुझे सहज मिल जानी थी

उसके लिए लम्बी प्रतीक्षाएं करनी पड़ी

वे समय के बाद मिली और उनका

लुत्फ जाता रहा


मनचाही चीजों का मिलना एक सपना था

इसलिए जो कुछ भी मेरे पास था

उसी से काम चलाना पड़ा


जीवन में बढ़ता गया उधार

मैं कई लोगों का ऋणी होता गया

मूल से भी ज्यादा हो गया था ब्याज


ऋणमुक्त होने के लिए खर्च हो जाती

है जिंदगी लेकिन मैं निर्ब्याज होने की

कोशिश  में लगा हुआ हूँ

खुदा मुझे तौफ़ीक़ दे।



हमें जमीन पर रहने दो


हमें हवाई जहाज की यात्राओं में

 कत्तई कोई दिलचस्पी नही है

अतः उसके रोचक आख्यान सुना कर

मुझे चमत्कृत करने को कोशिश न करो

तुम जितना ऊंचा उड़ना चाहते हो उड़ो

लेकिन हमें जमीन पर रहने दो


हम पगडंडियों के लोग हैं

जब कभी कभार किसी जरूरी काम से

शहर जाना पड़ता है तो सड़के हमसे

हहा कर मिलती हैं


इस सड़कों को हमने बनाया है

हमारे कदमों के निशान यहां दर्ज हैं


मुझसे मत करो दिलफ़रेब शहरों की बातें

हम जानते है कि वहां किस तरह के लोग

रहते हैं


वे हमें मैले-कुचैले कपड़ों में देख कर

हिकारत से मुंह फेर लेते हैं

जैसे हम उनके लिए कोई अजूबे हो


उन्हें पता नहीं ये शहर हमारे बनाये हुए हैं

जिसमें वे रहते हैं





पक्ष-विपक्ष


वे जिस चीज का विरोध करते हैं

बाद में उसी के पक्ष में आ जाते हैं


कभी उन्होंने कहा था -यह सांप है

बाद में संशोधन आया कि इसे रस्सी

समझा जाय 


समय के साथ उनके कथन बदलते रहते है

कभी वे शेर को बिल्ली और गदहों को

घोड़ा कहने लगते थे


जिधर पलड़ा भारी रहता उधर वे

बैठ जाते थे


वे स्थायी प्रकृति के व्यक्ति नही थे

जिधर हवा चलती थी उस दिशा में

पतंग की तरह उड़ जाते थे 



 बेगानगी


जो शहर अपनी आवारगी के लिए मशहूर था

वहां ग़ज़ब की बेगानगी है


जो लोग शहर को जिंदा रखे हुए थे

वे बूढ़े हो चुके हैं

कुछ लोगों ने स्वर्ग का रास्ता तय

कर लिया है


उनकी संततिया पूंजी के खतरनाक खेल

में उलझ चुकी है

कलाएं उनके लिए वक्त बरबाद करने

के अलावा कुछ नही है


इस शहर के लिए बेचैन नही होती है

उनकी आत्मा

वे इससे बड़े किसी शहर का सपना

देखते हैं


जिनका इस शहर से कोई वास्ता नही

वे इस शहर के शासक बने हुए हैं



भीगना


मैं तुमसे मिल कर अपनी कमीज

भिगोना चाहता हूँ 

बहुत दिनों से ताप में रहते हुए

यह कमीज प्यास से भरी हुई है


जब तक तुम नही मिलोगे यह कमीज

देह की खूंटी पर टँगी रहेंगी

मैं इसे उतार कर विवस्त्र नही होना

चाहता


लम्बा है इस कमीज का सफर

कपास के खेतों से ले कर दर्जी के

सिलाई मशीन तक फैली हुई है

इस कमीज की कथा


बटन होल बनाते हुयर कई बार कांपी

होगी बूढ़े दर्जी की उंगलियां

कई बार ग़फ़लत में चुभ गयी होगी

सुई


जैसे मैंने इस कमीज को पहना था

तो लगा था कि मैं उड़ जाऊँगा


यही वह क़मीज़ है जो तुम्हारे साथ

प्रेमरस में भीगना चाहती है



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 

  

510, अवधपुरी कालोनी 

अमानीगंज

फैज़ाबाद -224001


मोबाइल  09415332326

टिप्पणियाँ

  1. मेरे प्रिय कवियों में है स्वप्निल श्रीवास्तव जी
    कमाल की कविताएं लिखते हैं
    आपको और उनको
    अच्छी कविताओं के लिए बधाई

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'