विनीता बाडमेरा की कहानी “जाड़े के दिन”

 

विनीता बाडमेरा


कहानी या कविता खालिस कल्पना की उड़ान नहीं होती। उसके पीछे रचनाकार की गहन अनुभूतियां होती हैं। रोजमर्रा का जीवन हो, या प्राकृतिक घटनाएं रचनाकार अपने हुनर से उसे एक कहानी का रूप दे देता है। विनीता बाडमेरा ऐसी ही कथाकार हैं जो अनुभूतियों को कहानी में सफलतापूर्वक ढालने में सक्षम हैं। कहानी पढ़ कर ताज्जुब होता है कि क्या ऐसी भी साधारण घटना कहानी का कथ्य बन सकती है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विनीता बाडमेरा की कहानी “जाड़े के दिन”।


“जाड़े के दिन”


विनीता बाडमेरा


इस बार का जाड़ा उनके लिए हैरान करने वाला है। हाथ कांप नहीं रहे हैं और तो और वर्षों से हर जाड़े में फटने वाली एड़ियों ने इस बार उन्हें जरा भी कष्ट नहीं पहुंचाया यह उनके लिए आश्चर्य की बात है लेकिन इस आश्चर्य की उन्हें जरा भी प्रसन्नता नहीं हो रही है।


“क्या तुम घर में अब भी अलाव जलाते हो?” वे अक्सर फ़ोन लगा कर अपने मित्रों से पूछते।


“अलाव तो नहीं, समय बदल गया है इसलिए। पर हां, हीटर ज़रुर उपयोग में लेते हैं क्योंकि हमारे बनारस में तो  ठंड बहुत बढ़ गयी हैं।” दूसरी ओर से ज़वाब आता।


उनका मायूस मन और मायूस हो जाता। 

“सब जगह भर-भर कर सर्दी आयी है और मेरे शहर में जरा भी नहीं।” यह बात मन ही मन में मन को समझा  मोबाइल में कोई और नंबर तलाशती आंखें।


“इस जाड़े में धूप में बैठा नहीं जा रहा है।” वे कहते।


“हमारे शहर लखनऊ में तो तीन दिन से सूरज के दर्शन ही दुर्लभ है भाई। ठिठुरन बढ़ रही है।” यह उत्तर उनके कानों में  सुई की तरह चुभता। उनकी जिह्वा वहीं रुक जाती आगे कुछ भी कहते नहीं बनता और “बाद में बात करुंगा।” यह कह अपना मोबाइल  टेबल पर रख देते। फिर घंटों उस मोबाइल को छूते भी नहीं। वैसे भी इस तकनीक के युग में मोबाइल का जितना आवश्यक है उतना उपयोग करना तो वे सीख गये यह बड़ी बात ही है लेकिन  घड़ी-घड़ी मोबाइल को ही चेक करते रहे यह उनकी आदत में शुमार नहीं है।


कई बार अपना-सा मुंह ले कर  किताबों में कुछ खोजने लगते पर मिलता कुछ नहीं और कुछ खोजने का सही पता न होने पर वे खीझने लगते। वैसे भी उन्हें लगता कि एक उम्र बाद खीझने और खोजने का सिलसिला बढ़ जाता। कभी वे खोजते हुए खिड़कियों पर लगे मोटे पर्दे हटा बाहर देखते और जैसे किसी का इंतजार कर रहे हो और फिर बहुत देर तक वहीं खड़े रहते तो कई बार छत पर चले जाते और फिर कुछ देर बाद ही लौट आते। उन्हें लगता कि जो लेने गए वह नहीं मिला और वे बिल्कुल खाली हाथ लौटे हैं तत्पश्चात वे अपनी खाली हथेलियों को घूरते रहते जैसे कुछ उनके हाथ में आते-आते फिसल कर गिर पड़ा और वे उसे उठाने में असमर्थ से हैं।


कंबल में पैर दुबका। वे सर्दी का अहसास करना चाहते। इसके लिए खुद ही धीरे से कंबल को ऊपर खींचते और फिर मन ही मन क्रोध से भरना भी चाहते कि “उफ़! यह कंबल कौन खींच रहा है?” वे चीखना चाहते लेकिन यह क्या उनको कंबल हटाने का कोई मलाल नहीं होता। पैर के अंगूठे-अंगुलियों में कोई कंपन नहीं होता। 


कुछ देर बाद गहरी नींद की गिरफ़्त में जाने के लिए वे चेहरे को कंबल से ढक लेते लेकिन नींद उनसे कोसों दूर भागती फिरती। वे उस मरी नींद को तकिए में खोजते लेकिन वह न जाने कौन-सी जगह दुबक कर उन्हें चकमा देती। और जब उस मुई को तलाशते हुए थक जाते तो कभी-कभी अंधेरे में ही कपड़ों की अलमारी के पास जा अपने कोट को छूते, जैकेट को सहलाते और मफलर  से पूछते, “तू तो अभी भी बहुत गर्म है। कितना पुराना है पर मेरा साथ नही छोड़ा तूने अब तक। पुराने दोस्त और पुराने सामान की बात अलग है यार। नये में वह बात  कहां!” और फिर  बिस्तर पर निढाल हो जाते।

 

जब तक नींद न आए तो करें भी क्या, भक्ति में कभी उनका मन इतना रमा ही नहीं । ठीक है पत्नी का मन रखने और खुद को यह समझाते कि कोई शक्ति तो है जिसने इस संसार को रचा है इसलिए शिव, गणेश, राम और दुर्गा  जिन-जिन  की तस्वीर उनके घर के मंदिर में होती उन सभी के आगे दो अगरबत्ती जला कर घूमा देते और दो मिनट के लिए मौन खड़े हो जाते। पर उन्हें आश्चर्य है कि रामचरितमानस और भागवत उन्होंने न जाने कितनी ही  दफ़ा पढ़ ली लेकिन इससे उनके कट्टर हिन्दू होने या बहुत धार्मिक होने का कोई संबंध नहीं। इसलिए हनुमान चालीसा उन्होंने याद कभी की नहीं, भूत-प्रेत में उनका विश्वास नहीं सो वे आंखें मूंदे, बिना कोई मंत्र का जाप किए बस पड़े रहते बिस्तर पर। हां कभी-कभी अपने हाथों को कंबल से बाहर निकाल  हथेलियों को आपस में यूं ही रगड़ते और फिर करवट बदल कर लेट जाते। आधी रात का वह कौन-सा क्षण होता जब सहसा  नींद उनके पास आती, अपना नाजुक हाथ उनके माथे पर रख सहलाती और वे उसकी गोद में चले जाते, यह उनको नहीं पता होता। पर हां, सुबह उनकी हाथ-पैर की कोई अंगुली तक कंबल के बाहर नहीं होती। वे सोचते कि हो न हो उनकी पत्नी सुबह जल्दी जाग जाती है तो वही बिस्तर से उठ कर उन्हें ढंग से कंबल ओढ़ा देती होगी। हालांकि उन्होंने कभी इस का ज़िक्र किया नहीं और पत्नी ने कभी इस तरह का अहसान जताया नहीं।




आज भी सुबह जब वे उठे तो वे चाहते कि खुद से कहें “आज ब्रश करने का मन नहीं है।” मतलब ठंड अधिक है, कैसे वे कुल्ले करेंगे लेकिन वॉशबेसिन के पास जा कर आराम से नल खोल खड़े हो गए और बहुत देर तक नल से उस बहते पानी को अपने हथेलियों पर गिरते देखते रहे। फिर दोनों हाथों में पानी भर आंखों पर छपाक से उछाला और देखा कि उनके चेहरे पर किस तरह के भाव आए लेकिन कोई भाव तक नहीं। उन्होंने फुर्ती से अपने छोटे नेपकिन से चेहरे को पोंछा। जल्द ही नेपकिन ने उनके चेहरे का सारा पानी सोख लिया। वे फिर बड़बड़ाए, ”मन के भीतर जो बहता उसे कौन सोखे, किस तरह सोखे!”


“यह कैसी सर्दियां है?” आस-पास नज़र डाल एक बार फिर वे खुद से बोले। उन्हें लगता कि उनकी यह बेसिर पैर की बातें सुन कोई यह न कह दें, ”पैंसठ साल की उम्र में बुद्धि घास चरने गयी हैं या बूढ़ा सठिया गया है।”  

 

इन दिनों उनकी कोशिश रहती उनका बड़बड़ाना, खुद से प्रश्न करना और उसके उत्तर मांगना “हां-हां” कहना यह सब सिर्फ़ उन तक ही सीमित रहे उनकी पत्नी को हरगिज मालूम नहीं हो। और वे इसमें सफल भी होते। फिर एक बार खुद से कहते-


“तुम  मुझे पूरा जानने का दावा नहीं  कर सकती देवी!”


देवी उनकी पत्नी का नाम नहीं है। पर यह नाम उन्हें बहुत पसंद है और मन ही मन में जब पत्नी को ले कर कोई बात उठती तो  उनकी जिह्वा देवी शब्द ही पुकारती। यह कब से है यह भी तो उन्हें पता नहीं। इसलिए उन्होंने इस शब्द की उत्पत्ति को खोजने के लिए अधिक माथापच्ची भी कभी नहीं की। पर देवी शब्द का उच्चारण करने पर उनके होंठों पर मुस्कान आ जाती। और कई बार तो वे देवी, देवी, देवी की जैसे रट लगा देते। पत्नी पूछती क्या हुआ तो वे बस गर्दन हिला देते।


चाय की तलब हुई वे चाय के लिए पुकार लगाते उसके पूर्व ही उनकी आदत से वाकिफ़ पत्नी ने थरमस में चाय भर, बड़ा-सा मग और अख़बार उनके पास रख दिया।


“चाय के साथ मठरी, बिस्कुट भी रखा है। और कुछ चाहिए तो बता दो मैं नहाने जा रही हूं।”


“नहाने! इतनी ठंड में अभी तो सात ही बजे हैं।” उन्होंने विस्मित हो कहा और चाहा कि उसका ठीक-ठीक प्रत्युत्तर भी मिल जाए।


“ठंड है!” वे फिर मायूस हो गए। पत्नी का विस्मय बोधक चिह्न के साथ बोला गया ठंड शब्द उन्हें जैसे पीड़ा दे गया।


इस विस्मय बोधक चिह्न के साथ बोले ठंड शब्द के उन्होंने तुरंत दो अर्थ निकाले  पहला- ठंड है और मुझे महसूस नहीं हो रही दूसरा कि इतनी ठंड नहीं है।” अनेक प्रश्नों में घूमता उसका मन और मस्तिष्क किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा।


हर बात का कोई अर्थ हो यह ज़रूरी तो नहीं। पर कभी-कभी निरर्थक बात का अर्थ खोजना ज़रुरी क्यों हो जाता है। इसी उधेड़बुन में लगे-लगे ही उन्हें ख़्याल आया कि कुर्ते पर बिना स्वेटर पहने ही वे हॉल में चले आए। इसका मतलब स्वेटर की ज़रूरत ही नहीं है। केवल शॉल से काम चल सकता है। खुद को  आशान्वित करते  हुए उन्होंने सोफे पर रखी  शॉल को अपने कंधे पर डाला और कुर्सी पर बैठ गए। थरमस में रखी चाय को कप में डाल “उफ़ सर्दी” जैसा कोई वाक्य बोलना चाहा लेकिन फिर  लगा गले में कोई गोला-सा बन गया है। नहीं निकला कोई वाक्य।अख़बार पर  एक बार फिर उनकी निगाहें टिक गयी।

 

“पारा गिरा! यहां गिरा, वहां गिरा। ठंड बढ़ी, कोहरा छाया।” इन  शब्दों पर उनकी निगाहें चौकस हो गयी और उन्हें लगा कि अख़बार से ठंड निकल कर उनकी हथेलियों को छू रही है और तुरंत अख़बार को टेबल पर रख दोनों हाथों से कप को पकड़  लिया जिससे उस कप के बाहर की गर्माहट से उनके दोनों हाथ गर्म हो जाएं। पर यह क्या दो मिनट बाद उन्हें यह बच्चों का  खेल-सा लगा।


बाथरूम से नहा कर बाहर निकली पत्नी के भीगे केशों को देख उन्हें लगा अब पत्नी से  फिर एक बार सर्दी के बारे में पूछा जाएं। इस बार तो ज़रुर वह कुछ कहेंगी।


“बाथरूम में तो कंपकंपाहट छूटी होगी!” वह भी विस्मय बोधक चिह्न वाला यह वाक्य पत्नी के सामने छोड़ खुद को व्यस्त दिखाते हुए अख़बार को ऐसे देखने लगे जैसे बहुत रोचक और ज़रूरी जानकारी है और किसी तरह उनसे छूटने न पाए।





“अरे आप भी!” यह कह वह अपने भीगे केशों में तौलिया लपेटने लगी और ऐसा करते समय पत्नी ने भी एक बार भी उनकी ओर नहीं देखा जैसे उसके लिए भी गीले बालों में तौलिया लपेटना इस समय सबसे ज़रूरी काम हो।


उन्होंने फिर से अख़बार से ध्यान हटा पत्नी की तरफ देखा लेकिन अपने प्रश्न का उत्तर उसके चेहरे पर न पा कर उनका क्रोध जैसे बढ़ने लगा, तिलमिलाहट साफ़ चेहरे पर झलक न जाएं उससे पहले, वह बाहर बरामदे से होते हुए बगीचे में चले आए।


“कोहरा छाया है, ठंड बढ़ी है।” पूरे अख़बार की खबरों में से बस उनका ध्यान इन्हीं पंक्तियों पर था इसलिए वह फिर ठंड की तलाश करते, कोहरे को खोजते बगीचे में एक चक्कर लगाने लगे। वे चाह रहे थे कि यदि कोहरा है तो बरामदे में खड़े होने पर उनके बगीचे में लगा आम का पेड़ कैसे नज़र आ सकता है इसके लिए उन्हें ढंग से जांच-पड़ताल करनी चाहिए। पर बगीचे से होते हुए जब लोहे का बड़ा दरवाजा खोल वह बाहर सड़क की ओर ताकते हैं तब भी उन्हें चुभती ठंडी हवा का कोई स्पर्श नहीं होता और वे बाहर सड़क के बीचों-बीच जा खड़े हो जाते हैं।

 

आस-पड़ोस के घरों से इक्के-दुक्के बच्चे स्कूल के लिए निकलते दिखते हैं।  छोटे बच्चों ने कैप पहनी है और वो भी लाल रंग की। सांता क्लॉज जैसे नज़र।आती उनकी शक्लें देख होंठों पर मुस्कान जगह बनाने लगी। ऑटो वाला बच्चों को भर रहा है या भर-भर कर ठूंस रहा है, वे यह दृश्य देखना चाहते हैं। लेकिन जल्द ही  ऑटो को स्टार्ट करने की आवाज़ सुनाई देती है। पर वे वहीं खड़े हो गए क्योंकि उनके नज़दीक ही यहीं-कहीं उनका बचपन उनसे बतियाने के लिए खड़ा हो गया। हालांकि कई बार वे अतीत से पीछा छुड़ाने लगते लेकिन आज बचपन ने आहिस्ता से जो हाथ पकड़ा तो वे भी उसकी हल्की  पकड़ से आजाद नहीं हुए। स्मृतियों की पोटली खुल कर उनके सामने आ खड़ी हो गयी।


मां, उन्हें सर्दियों की सुबह स्कूल के लिए जगाने का बस एक ही उपाय जानती, रजाई को खींचना। जब मां उनकी रजाई को खींचने लगती दूसरी तरफ से वे पूरा जोर लगा कर रजाई खींचते। मां को जब लगता कि अब ‌वे हार रही है तो-


“उठ जा  सुमनेश, देख नहाना मत। हाथ, मुंह धो कर चले जाना स्कूल।” यह बात  धीरे से कहतीं।


मां की यह बात उनके हाथ से रजाई छुड़वा देती। पर मां जब तक दांत मांजने के लिए उन्हें गिलास में गुनगुना पानी नहीं देती वे मोहरी के पास यूं ही बैठे रहते, सी-सी करते हुए। 


“फिर बाथरूम में घुसते और बस बिना साबुन लगाए पानी से मुंह धो कर सी-सी की आवाज़ निकालते बाहर आ जाते। हाथ-पैरों पर तेल लगाते। फटे गाल को चिकना करने वाली वैसलीन मलते और बड़े भाई की पुरानी पैंट पहन मोहल्ले के दूसरे बच्चों के साथ स्कूल पहुंच जाते। 


उन्हें याद आता कि जाड़े के दिनों में पहाड़े, कविता, और श्रुतिलेख की पढ़ाई तो कभी भी उन्होंने क्लास रुम में नहीं की।  बच्चे सी-सी करते और उनकी कक्षाध्यापिका मिसेज माथुर मैदान में चलने का आदेश देती।


“क्या आज भी  कान्वेंट और अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में छोटे बच्चों को मैदान में पहाड़े और कविताएं याद करवाई जाती होंगी? पर इन आजकल के बच्चों को अपनी  यूनिफॉर्म के गंदे होने की फ़िक्र होती हो तो?”


उन्होंने  अपनी जिज्ञासा मन में दबा ली। मन हुआ वे इन जाड़ों के दिनों में एक बार स्कूलों का माहौल  देख आएं लेकिन  कहेंगे क्या और  स्कूल के गेट के बाहर बैठा वॉचमैन बिना काम उन्हें स्कूल में प्रवेश करने देगा भी क्यों। वह तो उन्हें  स्कूल के बाहर ही रोक लेगा। आजकल बच्चों की सुरक्षा को मद्देनजर रखते हुए स्कूलों में हर जगह कैमरे हैं  बिना ज़रूरी काम  हर किसी को स्कूल में आने की साफ़ मनाही है।

 

यह वह समय नहीं है जब मां-पापा, दादा, पड़ोसी कोई भी स्कूल  में आ, क्लास में जा बच्चों को टिफिन पकड़ा देता। ज़रुरी काम हो, कहीं जाना हो तो स्कूल से आधी छुट्टी दिलवा ले भी आता।


वे इन मीठी स्मृतियों से पीछा छुड़ाते शॉल को संभालते गली के नुक्कड़ पर बनी चाय की गुमटी को देखने लगे। उन्हें लगा कि  चाय की गुमटी पर खड़े-बैठे लोग सर्दी के बारे में बात कर रहे हैं।मन हुआ कान लगा कर सुन लें या वहां शायद टीन के बने स्टूलों  के आस-पास लकड़ी और  कचरे को बीन कर जलाए जा रहे कचरें वाले अलाव को ही देख भर लें। लेकिन क्या वाकई वहां कोई अलाव जल रहा होगा।  

 

“स्कूल तो नहीं जा सकता लेकिन चाय की गुमटी तक जाने में क्या हर्ज़?”  खुद ने खुद से ही प्रश्न किया।


‘कोई हर्ज़ नहीं। फिर गुमटी कोई ज्यादा दूर तो है नहीं। यही कोई आधा किलोमीटर पर तो है। और कोई पूछेगा  तो घूमने जाने की बात कह दूंगा। ज्यादा हुआ तो वहां टीन के डिब्बों वाले स्टूल पर बैठ चाय पी लूंगा जिससे जलते अलाव को देखने की साध पूरी  हो सके।” खुद का सफाई से दिया उत्तर उन्हें ठीक लगा और कुर्ते पर ओढ़ा शॉल एक बार ढंग से अपनी बाहों के इर्द-गिर्द लपेट लिया।

 



जैसे-जैसे चाय की गुमटी नज़दीक आने लगती आहिस्ता-आहिस्ता चेहरे पर संतोष झलकने लगता। अगर वह उस अलाव को देख लेंगे तो उनका मन प्रसन्न हो जाएगा। पर यह क्या नज़दीक पहुंचते ही सारा उत्साह ठंडा पड़ गया। अलाव का नामोनिशान तक नहीं और तो और कहीं से भी ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा था कि बीती रात तक भी कोई अलाव जला हो। जलते हुए अलाव को न देख पाने पर उनका मन बुझ गया।

 

कल चौबीस दिसंबर की रात थी, आज क्रिसमस है और इसी क्रिसमस की रात तो ईसा मसीह का जन्म हुआ था। वे भी  मिसनरी स्कूल में पढ़े थे, उन्हें पता है क्रिसमस से दो दिन पहले स्कूल में कार्यक्रम होता था यीशु के जन्म का।  कंपकंपाती ठंड में सुबह बच्चों के हाथ-पैर कांपते लेकिन वे नाचते  चरवाहों  को देखने के लिए कम से कम उस रोज़ तो हरगिज़ छुट्टी नहीं करते ।  


इस कार्यक्रम में अलाव जलाते गडरिये बने बच्चे उनको आकर्षित करते। आकर्षित तो उन्हें तेज़ सर्दी में माता मरियम भी करती जिसका मोटा पेट होता और अपने पति यूसुफ़ का हाथ पकड़ कर आहिस्ता-आहिस्ता किसी सुरक्षित स्थान की खोज में चलती और आख़िर एक गौशाला में जा कर यीशु को जन्म देती। 


नियान लाइटों से जगमगाता चर्च और वहां  बड़ी तादाद  में  तेज सर्दी से बेपरवाह लोग चौबीस दिसंबर की रात को प्रार्थना में लीन होते। कांपती टांगों से वे  घुटनों के बल झुके यीशू को पुकारते या अपने पापों का प्रायश्चित करते नहीं पता। पर उन्हें उन दिनों सब भला लगता सब कुछ।  


यह सब सोचते-सोचते ही वह टिन के डिब्बे को उल्टा करके  बनाए एक खाली स्टूल पर बैठ गये।


“सुमनेश जी, एक चाय दूं आपको भी?” चाय वाले ने बहुत आदर से उनसे पूछा।


“सुमनेश जी” उन्हें यह सुन कर यकायक खुद पर जैसे गर्व हो  आया। चाय की गुमटी वाला उनका नाम और पद जानता है इस बात ने उनके मन में भी चाय वाले के प्रति आत्मीयता का भाव जगाया। वे जैसे अपनत्व से भर गये और उन्होंने चाय वाले की बात का बड़ी गर्मजोशी से ज़वाब दिया।


“हां, कड़क चाय, पर अदरक डाल कर। बढ़ती सर्दी में अदरक  वाली चाय से गला ठीक हो जाएगा।”


“सर्दी!” चाय वाला यह एक शब्द बोल भगोने में उबलती चाय को बड़े चम्मच से हिलाने लगा।


गुमटी पर बैठे लोग उन्हें देख ज़रुर रहे थे लेकिन परिचय के  अभाव में उन्होंने अपनी बातों में  उन्हें शामिल नहीं किया। संवाद के धागे दोनों ओर से पकड़े जाते हैं इसलिए वे उन्हें देखते रहे।उन्हें लगा  अगर उन्हें भी बातों में शामिल किया जाता  तो वे भी  इस बार की इस अज़ीब सर्दी का ज़िक्र ही करते। थोड़ा आगे लाइटों की रोशनी से दमकते चर्च की कोई बात ही छेड़ते।  लेकिन चूंकि उन लोगों के समूह में वे शामिल नहीं थे तो उनकी जिह्वा ने अपना काम स्थगित कर दिया पर कान और आंखें अपना काम करते रहे।


वे संख्या में आठ-दस लोग थे जो कुछ देर चुप रह फिर बोलने लगते। उन्होंने अनुमान लगाया कि यह सब क्रिश्चियन कम्यूनिटी के हैं। रात  भर चर्च में  प्रार्थना करने के बाद अब अपने घरों में लौटने से पहले चाय पी रहे हैं ।   


वे चुपचाप चाय सुड़कते रहे और अंत में खाली मिट्टी का सिकोरा  डस्टबिन में डाल, जेब से बीस रुपए निकाल चाय वाले को दिए।  चाय वाले ने दस रुपए लौटाए तो वे हैरान हो उसे देखने लगे‌। “चाय की इस गुमटी पर दस रुपए की ही चाय है सुमनेश जी।फाइवस्टार होटल या रेस्टोरेंट होता तो चाय....।” यह कह वह फिर चाय छानने लगा।

  

चाय वाले के ‘चाय’ के बाद छूटे शब्द का अर्थ उन्होंने अपने मन में लगा लिया। एक नज़र फिर चाय वाले की उबलती चाय पर डाल उन्होंने कदम बढ़ा लिए और घर की ओर लौटने लगे। 


“सुबह-सुबह ही कहां चले गए थे? पहले तो बगीचे में और फिर यकायक गायब।” पत्नी ने घर के मंदिर में दीपक में बाती  जलाते हुए कहा।


पत्नी का यह कहना उन्हें अच्छा लगा। वह उनका ख़याल रखती है, उनकी आने की प्रतीक्षा कर रही थी मतलब उसे उनकी फिक्र है। यह सब सोच कर मुस्करा दिए। पत्नी ने भी मुस्कुराहट का ज़वाब मुस्कुरा कर दिया और फिर से अपने दीया-बाती के महत्वपूर्ण काम में लग गयी।


वह चाहते कि आज नहीं नहाएं, पर साथ ही यह भी चाहते कि पत्नी उन्हें कम से कम एक-दो बार उन पर नहाने का दबाव ज़रुर डाले। बचपना करते मुस्कुराते, वे एक बार फिर कमरे में रजाई में जा दुबक गए।

 

पत्नी कमरे से लगी बालकनी में जब कपड़े सूखाने आयी तो उन्हें इस तरह देख हैरान रह गयी।


“आप भी बच्चों जैसे...। चलिए उठिए नहा लीजिए।”

 

वह काफी देर तक आना-कानी करते रहे। उन्हें लगा पत्नी कभी-कभी उनकी मां बन जाती है। तो क्या वे पत्नी के इस रुप की लालसा में बच्चा बन जाना चाहते हैं? इसका ज़वाब वे पत्नी से पूछे तो लेकिन पत्नी को इस समय कई काम थे वह उन्हें एक बार उठने के लिए कह फिर किचन में चली गयी।

 

वे मन मार कर उठे और बाथरूम में नहाने चले गए। न जाने क्यों और कैसे एक मगा पूरा ठंडे पानी से भरा और बदन पर डाला।कुछ देर तक सनसनाहट होती रही। फिर गर्म पानी से नहा कर वे तौलिया लपेटे कमरे में आए।


अलमारी खोली और कुर्ता-पायजामे के साथ आधी बाहों का स्वेटर भी निकाल लिया। यह स्वेटर उनका बेटा पिछली सर्दियों में उनके जन्मदिन पर लाया था।


स्वेटर का रंग और डिजाइन उन्हें बहुत पसंद था इसलिए पिछली सर्दियों में इसे खूब पहना। पर इस बार इस स्वेटर के अलावा कितने ही स्वेटर अनछुए रह गए।


उदासी ने एक बार फिर उनके चेहरे पर अपनी जगह बना ली।कुर्ता-पायजामा पहन शॉल कंधे पर डाल बालकनी में बैठ  गए।

   

स्कूल से बच्चे घर लौटने लगे। ऑटो से उतरते लड़ते-झगड़ते बच्चे उन्हें देख रुक गए। वे मुस्कुरा दिए।

 

पत्नी ने कमरे में ही खाना लगा दिया था। खाना खा कर अपनी किताबों की अलमारी से उन्होंने निर्मल वर्मा की “वे दिन” निकाल ली। निर्मल वर्मा उनके पसंदीदा लेखक हैं। हालांकि वे लिखते नहीं हैं पर पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से है। अपने इसी शौक के कारण आजकल बेटे के साथ ऑनलाइन किताबें मंगवाना भी सीख रहे हैं।






    

निर्मल वर्मा की यह किताब कल ही कोरियर वाला दे गया था। उसे पढ़ते-पढ़ते ही उन्हें झपकी आने लगी और वे आराम कुर्सी पर आंखें मूंदे रहे। हाथों से किताब नीचे गिर गई। पत्नी ने उठा कर उसे पलंग पर रख दिया।

   

डोरबेल बजी तो वे चौंक कर उठे। उनकी आराम कुर्सी  के पास ही लगे पलंग पर पत्नी लेटी है। पत्नी के आराम में खलल न हो इसके लिए खुद ही दरवाज़ा खोलने के लिए उठे। दरवाजे पर घरेलू सहायिका तारा थी जो शाम को बर्तन साफ करने आयी थी।


“आज बहुत सर्दी है अंकल जी! आपके घर में गर्म पानी का गीजर है तो आराम है। पर सर्दियों में अंधेरा जल्दी होता है और हाथ तो काम ही नहीं करते। इसलिए मैं जल्दी आयी हूं।” वह अपनी रौ में बोलती रही। जब उसका बोलना रुका तो सी-सी करती हुई सिंक के पास चली गयी। उन्होंने उसे ध्यान से देखा उसने मोजे पहन रखे हैं और स्वेटर के ऊपर शॉल भी डाल रखा जो उसके माथे को छूता हुआ उसके कंधे से लिपट रहा था।

 

उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आने को थी तभी एक बार फिर डोरबेल बजी। इस बार तारा दौड़ कर सी-सी करती हुई गयी।

  

दरवाजे पर बेटा खड़ा था। टोपी मफलर और जैकेट पहने हुए। 

“मम्मा कहां है?”

“बस लेटी ही है।”


“आप अदरक तुलसी वाली चाय पियेंगे? मैं मेरी मम्मा और   तारा के लिए बना रहा हूं।”


उन्होंने बिना कुछ कहे बस गर्दन हिला दी।

 

बेटे ने चाय कपों में छान कर टेबल पर रखी तब तक पत्नी बेड पर पड़ा स्वेटर उठा लायी।

 

“आप भी ना बीमार पड़ जाएंगे। भंयकर सर्दी है और इस सर्दी में सिर्फ़ शॉल लपेटे हैं।”

 

तारा चाय का कप दोनों हाथों से पकड़ कर अभी भी सी-सी कर रही है।

  

उन्हें लगा कि बनारस और लखनऊ से कहीं ज्यादा सर्दी उनके राजस्थान में हैं। 


बेटा हॉल में रखे दीवान पर कंबल में घुसा मोबाइल चलाने में व्यस्त है।


“इस बार की सर्दियों ने तो आफ़त कर दी आंटी। घर से निकलने का मन ही नहीं करता।” तारा सी-सी करती फिर काम में जुट गयी।


“इस सर्दी ने सचमुच बुरा हाल कर दिया। पर क्रिसमस पर तो सर्दी हमेशा इस तरह की होती ही है तारा। फिर सर्दी में सर्दी ने हो तो क्या मजा।” और पत्नी ने यह कह तारा की बात का जैसे ज़वाब दिया हो।

 

उनके हाथ कंपकंपाने लगे उन्होंने बेटा का लाया स्वेटर पहन लिया और कमरे में जा कर हीटर जलाया। कंबल में लिपटे पैर  की अंगुली बाहर निकली तो वे सिहर गए। मुंह से सी-सी की आवाज़  क्यों आयी इसका माकूल ज़वाब ढूंढना उन्हें ज़रुरी नहीं लगा।


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परिचय- 

विनीता बाडमेरा 

जन्म : 20 अगस्त 1977, जोधपुर (राजस्थान)

शिक्षा : हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर।

राजस्थान साहित्य अकादमी के सहयोग से पहला कहानी संग्रह “एक बार आख़िरी बार” 2023 में प्रकाशित।

चार साझा कहानी एवं कविता संग्रहों में रचनाएँ संकलित।

दोआबा, मधुमती, परिदें, आजकल जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ एवं कहानियाँ प्रकाशित।

17 वर्षों तक अध्यापन के बाद सम्प्रति व्यवसाय में संलग्न।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



संपर्क : 

विनीता बाडमेरा

बाड़मेरा स्टोर,

कमल मेडिकल के सामने

नगरा, अजमेर 

राजस्थान -305001


मोबाइल -9680571640

ईमेल-vbadmera4@gmail.com





टिप्पणियाँ

  1. कहानी अच्छी लगी। कहीं कहीं पंक्चुएशन की दरकार है। कहीं कहीं वर्तनी दोष भी है। दुबारा पढ़ने से ये दिख जाएँगे।

    एक जगह कहानी में चूक है। सुमनेश जी को चाय की गुमटी तक जाने, चाय पीने, गप्प सुनने और फिर लौटकर आने में कम से कम आधा-पौने घंटा तो लगा होगा! क्या तब तक उनकी पत्नी नहाने के बाद उतनी देर तक दीया बाती नहीं कीं??

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  2. इंसान के कठिन मनोविज्ञान को सरलता से प्रस्तुत करती सुन्दर कहानी बधाई जी

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  3. बहुत अच्छी कहानी

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  4. भावो का अच्छा विस्तार 👏👏

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  5. कहानी के कथ्य को नहीं संवेदनाओं से बुनती है कहानी..सर्द या अलाव के बहाने जीवन के भीतर से ग़ायब होते मौसम को कथा का नायक बनाया है ..आयु के ढलते समय में चढ़ते सूरज के ताप की खोज करती है कहानी..विशेषकर तब जब पैंसठ वर्षीय नायक पत्नी में माँ और स्वयं में बच्चा खोजने लगता है …
    इधर के वर्षों में कहानी का ट्रीटमेंट बदला है लेकिन अधिकतर कहानीकार इस ट्रीटमेंट की आड़ में अकहानी लिख रहे हैं…यह सच है कि आज कि कहानी में कथानक के लिए कम अवकाश है लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि बिना कथानक कहानी की कल्पना शाब्दिक विलास से ज़्यादा कुछ नहीं …इन अर्थों में कथानक को उसी तरह दबा छिपा होना होता है जैसे मुस्कान के पीछे से झांकता सौंदर्य..इस लिहाज़ से विनीता जी ने अपनी कहानी में कथानक को स्थूल पात्रों में ना ढाल कर मनोविज्ञान से कुछ इस तरह जोड़ा है कि कहानी पढ़ते पढ़ते पाठक के मन रक्त का हिस्सा हो जाती है और वह अपने आस पास वही धूप,वही अलाव ,वही स्वेटर ढूँढने लगता है जो कभी बचपन में स्कूल जाते समय हाथ से छूट कर कहीं गिर गया था ..

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  6. मन की गहराई और मनोदशा को मौसम से साम्यता दर्शाते हुए सुंदर कहन
    कालिंद नंदिनी शर्मा

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  7. इधर जो कहानियाँ पढ़ी हैं, उसमें यह उल्लेखनीय है। संपादकीय टिप्पणी से सहमत हूं कि ऐसी भी घटनाओं से कहानी बुनी जा सकती है! विनीता वाडमेरा तीन-चार कहानियाँ पहले पढ़ी हैं। निम्न मध्य वर्गीय जीवन के अनुभवों की वह सिद्धहस्त कहानीकार हैं। एक खास स्‍थिति के मनोविज्ञान पर केन्द्रित यह कहानी उनके कथा कौशल को दिखलाती है। उन्हें बधाई।

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  8. कहानी बहुत अच्छी लगी.........जीवन की आपाधापी में हम शायद जीवन जीना भूल जाते हैं और जब फुर्सत मिलती है तो जीवन को कुछ यूं भी तलाशते हैं। सर्दियों के मौसम में सर्दी को ढूंढना..........एक खास वय में आकर जब इंसान खुद में खोया रहता है तो शायद यूं ही कुछ निरर्थक सी बातों के जवाब खोजता हुआ खुद को तलाशता है .......सर्दी को खोजता हुआ आखिर में सर्दी मिलती भी है तो घर में काम के लिए आने वाली तारा के माध्यम से.......जब उसके द्वारा सर्दी का जिक्र किया जाता है.....लगता है खोती सी जिंदगी फिर ढर्रे पर आ गई......

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