प्रज्वल चतुर्वेदी की कविताएं
प्रज्वल चतुर्वेदी |
कविता मानव मन की वह सघन संवेदनात्मक अनुभूति है जिसे हर समय महसूस किया जा सकता है। हालांकि इस अनुभूति को शब्दबद्ध करने की क्षमता कवियों में ही होती है। एक ही समय में कई पीढ़ियों के रचनात्मक रूप से सक्रिय होना इसका बेहतर उदाहरण है। इलाहाबाद को साहित्यिक राजधानी के रूप में एक लम्बे समय तक देखा गया। हालांकि वह समय बीत गया लेकिन आज भी साहित्यिक जगत की नजरें इलाहाबाद की तरफ लगी रहती हैं। लोग अक्सर ही यह सवाल मुझसे पूछते हैं कि इधर नई पीढ़ी में कौन लिख पढ़ रहा है। जवाब इस दौर के साथ नत्थी मिलता है। इलाहाबाद में कई नए कवि बेहतरीन लिख रहे हैं। प्रज्वल चतुर्वेदी इन कवियों में महत्त्वपूर्ण हैं। भाषा और बिंब के तौर पर प्रज्वल ने कम समय में ही अपनी पहचान बना ली है। उनकी कविताएं ही इस बात की गवाह हैं। अरसा पहले हमने 'वाचन पुनर्वाचन' नामक एक स्तम्भ पहली बार पर आरम्भ किया था जिसमें एक कवि दूसरे कवि पर लिखता है। कुछ कारणवश यह शृंखला आगे नहीं बढ़ पाई थी। लेकिन एक बार फिर हम यह सिलसिला आरम्भ कर रहे हैं जिसमें कुछ नए कवियों पर टिप्पणी करेंगे अग्रज कवि नासिर अहमद सिकन्दर। साथ ही कवि की कुछ नवीनतम कविताएं भी प्रस्तुत की जायेंगी। इस शृंखला को फिर से आरम्भ करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है कवि बसन्त त्रिपाठी ने। संयोजन की जिम्मेदारी ली है प्रदीप्त प्रीत ने। शृंखला का आरम्भ प्रज्वल चतुर्वेदी की कविताओं से की जा रही है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं नासिर अहमद सिकन्दर की टिप्पणी के साथ प्रज्वल चतुर्वेदी की कुछ नई कविताएं।
प्रस्तुति : प्रदीप्त प्रीत
युवा कवि प्रज्वल के बहाने : कविता के नए प्रतिमान वाया मलयज
नासिर अहमद सिकन्दर
मैंने कभी अपने प्रारंभिक लेखन व पठन-पाठन के दौर में हमारे समय के चर्चित और बड़े कवि आलोचक लीलाधर मंडलोई पर 1986-87 के आस-पास, उनके पहले संग्रह ‘घर घर घूमा’ की समीक्षा लिखी थी। यानी इस प्रकार का समीक्षात्मक लेख मैं अपनी 25-26 साल की उम्र में लिख रहा था। इस बीच फिल्मों का शौकीन भी हो चुका था। ‘घर घर घूमा’ की समीक्षा का शीर्षक मैंने किसी सिने गीत की पंक्ति से लिया था- ‘‘सब कुछ लागे नया-नया’’। उक्त संग्रह में अंडमान निकोबार द्वीप के आदिवासी जनजीवन की कविताएं ज्यादा थीं, जिसे पढ़ कर मैं अभिभूत हुआ, और यह अनुभूति हुई कि यह समकालीन कविता का नया भाव-बोध है। इसी नये भाव-बोध के साथ प्रज्वल भी अपनी कविताएं ले कर आते हैं।
कुछ ऐसा ही आस्वाद मुझे श्रीकांत वर्मा के ‘मगध’ काव्य संग्रह को पढ़ कर प्राप्त हुआ। विशेषकर शिल्प-सौंदर्य के नयेपन तथा कथ्य के नये भावबोध को देख कर। ऐसी ही अनुभूति-आस्वाद के क्षण प्रज्वल चतुर्वेदी की कविताओं को, मैंने मनोयोग पूर्वक पढ़ते हुए जिया। कवि प्रज्वल चतुर्वेदी की कविताओं को पढ़ते हुए, यह अहसास भी होता रहा कि ये कविताएं इस दौर की सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक संरचना की, हमारे समय के काव्य परिदृष्य में नये भावबोध की कविताएं हैं। प्रज्वल चतुर्वेदी की कविताओं में हिंदी कविता के भीतर भावबोध, कथ्य, शिल्प के मार्फत अलहदा नयापन दिखाई पड़ता है। इस नयेपन को कवि उपन्यासकार संतोष चौबे के पहले संग्रह पर लिखते हुए मैंने महसूस किया था। कवि की कविताओं से गुजरते हुए यह कहा जा सकता है कि उनकी कविताओं का शिल्प बहुत साधारण नहीं, बल्कि जटिल है, जैसे प्रगतिशील हिंदी कविता के शमशेर और मुक्तिबोध।
प्रज्वल की कविताओं का शिल्प, कथ्य-ब्यौरों के विकास में शिल्प के स्तर पर ऐसा गूँथा हुआ दिखलाई पड़ता है जैसे फूलों की माला या तस्बीह में दाने अथवा लोहार निर्मित जंजीर- कड़ी. . . . कड़ी. . . .कई कड़ी. . . . कई कई कड़ियां जुड़ी हुईं!
समकालीन कविता के भीतर कवि की एक विशेषता यह भी है कि वे नये ब्यौरों, ताजा काव्य बिंबों और नयी काव्य संवेदना के लिए संघर्षरत दिखाई देते हैं। उनकी कविताओं के शिल्प और रचना प्रक्रिया पर बात की जाए तो जैसे किसी फिल्म के निर्माण में अलग-अलग दृश्यों को फिल्मांकित कर एक मुकम्मल फिल्म बनती है उसी प्रकार प्रज्वल की कविताएं अलग-अलग, बहुत देखे भाले जीवन दृष्यों को रखकर सिनमाई अंदाज में बनती हैं। एक फिल्म दर्शक के मन में जो प्रभाव छोड़ती है उसी तरह प्रज्वल की कविताएं पाठक के मन में अपना प्रभाव रखती हैं। हालांकि कभी-कभी उनकी काव्य प्रक्रिया की पटकथा के भीतर ज्ञानात्मक संवेदन के फिल्मांकित दृष्य-बिंब अपनी मुनासिबत (तारतम्यता) खो देते हैं। मसलन ‘इलाहाबाद’ कविता की शुरूआत में कोष्टक में चार पंक्तियों में अपनी बात रखना, कि ‘‘चिंता करता हूं मैं जितनी/ उस अतीत की, उस सुख की/ उतनी अनंत में बनती/ जाती रेखाएं दुःख की’’, इसके बाद अगली पंक्ति में ‘‘घर के बगल एक महाविद्यालय के परिसर में उगे हुए/ तीन लंबे यूकेलिप्टस के पेड़. . . . . . . ’’ तत्पश्चात यूकेलिप्टस और इलाहाबाद का अपने जीवन से सामंजस्य दिखाना।
प्रज्वल की कविताएं उस आख्यानमूलक शिल्प की भी कविताएं हैं जिसका अत्यधिक प्रयोग चंद्रकांत देवताले, सोमदत्त और सुधीर सक्सेना जैसे कवियों की कविताओं में देखा जा सकता। मसलन, कविताओं का उल्लेख करूं तो, देवताले जी की ‘बेटियां’ कविता, सोमदत्त जी की ‘क्रागुएवात्स में पूरे स्कूल के साथ तीसरी क्लास की परीक्षा’ कविता तथा सुधीर सक्सेना की ‘क्या करता दिमित्री इवानोविच्च’। प्रज्वल की कविता ‘एस्थेटिक प्रॉप’, ‘इस मन्वन्तर का कवि’, ‘महाबोधि एक्सप्रेस में लौटना’, ‘नीला’ इसी श्रेणी की कविताएं हैं।
निष्कर्षतः, प्रज्वल की कविताओं को पढ़ते हुए यह कहा जा सकता है कि वे कवि-आलोचक मलयज के काव्य मूल्यों को भी अपनी कविता में तरजीह दे जाते हैं जिसके संदर्भ में मलयज का यह आत्मवक्तव्य दृष्टव्य हैं- ‘‘मैंने जितना इस आधुनिक रचना के भीतर देखना चाहा है उतना ही उसके बाहर भी क्योंकि मैंने देखना चाहा है कि कविता कैसे न सिर्फ अपने भीतर से बल्कि अपने बाहर से भी निर्मित होती है, कि कैसे भीतर का बहुत कुछ सिर्फ बाहर के आलोक में ही छुआ जा सकता है कि कैसे बाहर भी बिना भीतर की आग के महज एक संदिग्ध सत्य बन कर रह जाता है। मैंने देखना चाहा है कि कैसे कविता-आधुनिक कविता-भीतर और बाहर के एक तनाव बिंदु पर संभव होती है।’’ (कविता से साक्षात्कार, मलयज, पृष्ठ 10)
नासिर अहमद सिकंदर
मोगरा-76, ब्लाक-बी, तालपुरी
भिलाईनगर, जिला-दुर्ग (छ.ग.)
पिन 490006
मो. 9827489585
नासिर अहमद सिकन्दर |
प्रज्वल चतुर्वेदी की कविताएं
1. एस्थेटिक प्रॉप
उपन्यासकार!
तुम्हारे नायक के आस-पास ही
मैं भी होता हूं
जिसका मुंह नायक देखता है
और उदासी के नए प्रतिमान ढूंढ़ने में जुट जाता है
तुम्हारे पात्रों के बगल से मैं गुजरता हूं
और सन्नाटा चीरते हुए
टिन के डिब्बे को ठोकर मारता हुआ चलता हूं
मेरी आवाज़ टिन के डिब्बे में खड़खड़ाती है
तुम मेरी आवाज़ नहीं लेना चाहते
जैसे एक छोटी बच्ची सड़क और चौराहों पर
गुब्बारे बेचती है
जिसकी फोटो तो सौन्दर्य- बोध की सम्पन्नता से लबरेज होती है
लेकिन उससे गुब्बारा खरीदने कोई नहीं आता
एक बदसूरत-सी शक्ल
जिसकी उम्र के बारे में तुम ठीक अंदाज़ नहीं बता पाते
मैं वो एक आदमी हूं जो तेज़ कदमों से
सड़क पार कर जाता है
और कोई नहीं जान पाता कि वह गया कहां?
उसको क्या जल्दी थी?
जिसकी तेज़ चलने की ज़रूरत
शहर के भाग-दौड़ में बदल जाती है
तुम्हारे उपन्यास में
गुलदान की तरह नहीं सजना है मुझे
एस्थेटिक प्रॉप की तरह मेरा इस्तेमाल मत करो
मुझे तुम्हारे महान उपन्यासों में नहीं रहना है
जिसका मुंह और नाक और आंख और कान
सामान्य न लगे तुमको
फिर भी जिसका चेहरा देख कर
तुम एक दार्शनिक संलाप में खो जाओ
मैं तुम्हारे महान पात्रों के चरित्र विकास की खाद हूं
पर मैं सड़ूंगा नहीं
मैं तुम्हारे नायक के ठीक पहले-पहले ही
अपनी प्रेमिका के लिए फूल लेकर जा चुका हूं
मेरे इर्द-गिर्द भी घूमती हैं कहानियां
2. इलाहाबाद
(चिंता करता हूँ मैं जितनी,
उस अतीत की, उस सुख की;
उतनी ही अनंत में बनतीं
जाती रेखाएँ दु:ख की।)
घर के बगल एक महाविद्यालय के परिसर में उगे हुए
तीन लंबे यूकेलिप्टस के पेड़
लम्बी गर्मियों की छुट्टियों की किसी शाम को आई आंधी की उग्रता के आवर्धक थे
उनकी पत्तियां जब ज़ोर ज़ोर से कांपती थीं तो धूल खूब उठता था
और प्लास्टिक की पन्नियां जीवित हो उठा करती थीं
उनकी गिरती पत्तियों में न तो नश्वरता थी न ही पतझड़ का रंज
और जब लगता था कि वे इतने झुक गए हैं कि टूट ही जाएंगे
तभी टूटने का इरादा छोड़ कर वे सीधे तन खड़े होते थे
आंधियों के वे लंबे इकहरे चारण काट दिए गए
लोग ऊब चुके थे उनके टूट कर गिर जाने की धमकियों से
और डरते थे किसी दिन शायद वे गिरेंगे बिजली के तारों पर
और पानी नहीं आएगा हमारे घरों में चार पांच दिन तक
मुझे याद है उनको ऊपर से काटना शुरू किया गया था
एक के बाद एक
तीनों यूकेलिप्टस के पेड़ छूट गए मुझसे
उधर का आसमान धीरे-धीरे सामान्य हो गया देखने वालों के लिए
तीन लंबे यूकेलिप्टस के पेड़ छूट ही गए और मैं उनके छूटने से दुःखी हूं
कभी उत्साहित हुआ था देखने के लिए उनको आंधी में टूट कर गिरते
कभी-कभी याद आते हैं वे तीनों यूकेलिप्टस जिन पर पतंगों की बलि चढ़ी थी
जैसे जो छूट गया है वो टटोलने के बाद याद आता है
आखिरी यूकेलिप्टस काट दिया गया था
जब मैंने इलाहाबाद रहना शुरू किया
और अब इलाहाबाद पहले याद आता है मुझे
जहां पर भैंसें और गाएं प्रथम नागरिक हैं और
कुत्ते सबसे पहले विश्वविद्यालय के कमरों में दाखिल होते हैं
जहां प्रेम में पड़ने का मेरा कोई इरादा नहीं था
क्योंकि ये शहर सुबह दोपहर शाम सिर्फ़ सोता है या बर्तन घिसता है
छूटने में एक दोहराव का क्रम है
और किसी घटना की बारंबार आवृत्ति
उसके सही होने की प्रायिकता को कम करती चली जाती है
छूटने के घटनाक्रमों में मैंने जाना
जहां दुःखी होना शर्म की बात है वहां मैं
दहाड़ मार कर रो पड़ता हूं
तीन लंबे यूकेलिप्टस के पेड़ छूट गए हैं मुझसे
कहीं न कहीं मैं भी चाहता रहा हूं कि चारणों की विरुदावली हो
कहीं न कहीं मैं भी देखना चाहता था कि आंधी में गिरते हुए
कैसे लगेंगे ये लंबे लंबे यूकेलिप्टस
और इलाहाबाद...
सोने और बरतन घिसने से आखिरी प्यार था मेरा
3. इस मन्वन्तर का कवि
ढूंढना मुश्किल है नया प्रेम
पूरे का पूरा वैसे ही है
दोहरा दिया जाता वायदों को
एक ही कवि है धारण किए रहता
साहित्य-मन्वन्तरों की धुरी को
मौसम हैं एक जैसी ही उपमाओं के ज़खीरे
क्योंकि जानता नहीं कोई
क्या नहीं किया जा सकता है
तुम कोई ऐसा मसला थीं नहीं स्पर्धा के लिए
मैं ही इतना अवनत होता चला गया कि
गिरते गए सब सिरचढ़े
माथे के पसीने-से
चांदनी चौक के किसी बेदम रिक्शे वाले की कमर के बलबूते पर बनी स्मृति
प्रेम के अनुस्मरण को नृशंस बनाती थी
तुम्हारी खिलखिलाहट उसकी पोपली खांसियों की कब्र
और हर बार रिक्शे में ब्रेक लगाना उसका अदम्य जीवट
जानने के खतरे से बेखबर बूढ़ा वह
खुरदुरा बेढब था इतना
जैसे उसकी रह चुकी हो कविताओं से पुरानी रंजिश
और उसकी देह से उपमाएं उधेड़ ली गई हों
उसके गालों के गड्ढे रह चुके हों कई अतातायी तानाशाह मौसमों के कब्र
उधर से आता है देखो हमारी जैसी नृशंसता लादे हुए वापस
तुम पूछोगी?
हो न हो मौसमों के नए बिम्ब इसके गमछे की आखरी तारों में हैं
यह सारे नए प्रेमों को ढोता हुआ वह कवि है
जिसने थामे रखा है मन्वन्तरों की धुरियों को
इसकी जली धमनियों का काला रक्त बिलकुल जानता होगा
क्या-क्या नहीं किया जा सकता
इसकी जर्जर कमर बची खुची शक्ति झोंक कैसे
उस पर अवरोध लगाती चलती है!
निकल गया है आगे वह
छोड़ो उसे
उससे किसी की कोई स्पर्धा नहीं
4. महाबोधि एक्सप्रेस में लौटना
लौटता हुआ देखता हूं—
पांवों के उल्टे निशान ठोकर हो चुके हैं
एक राह लौट रही है बुढ़ाती आंखों में
एक शहर जहां साथ फूलते थे
पलाश गुलमोहर और अमलतास
वहां कविता बेतरह कम हो गई है
लौटता हूं तो देखता हूं
एक बूढ़ा आदमी आहिस्ता-आहिस्ता
एक रास्ते में तब्दील हो रहा है
उस पर लात धर कर लोग आगे निकल रहे हैं
लौटता हूं कि फिर से लौट सकूं
कहते हुए कि
चांद मेरे साथ चल रहा है
लौटता हूं नाखूनों और बालों की तरह अकारण
अमरता की परवाह किए बगैर
किसी दुरदुराए कुत्ते-सा
थका-हाँफता हुआ
एक सूखी रोटी के लिए
मुंह बाए
पूंछ हिलाते
लौटता हूं
लौटता हूं
ताकि मरने के पहले
मर सकूं
मैं लौटने की जद्दोजहद करता हूं
महाबोधि एक्सप्रेस में
जो दिल्ली से गया जाती है
मैं देखता हूं
मज़दूरों का लौटना
और अपने लौटने पर
शर्मिंदगी से
पछताता हूं
5. नीला
मेरे पानी के बोतल की ढक्कन
लगभग एक महीने से लापता है
कोई बाहर पड़ी हुई नई चप्पलें उठा ले गया
मैं इतना लापरवाह हूं कि
मैं किसी भी तरह से सही आदमी नहीं हो सकता
किसी भी काम के लिए
मुझे अख़बार पढ़ना भारी लगता है
सच खोजना दुरूह होता जा रहा है मेरे लिए
मैं सही आदमी नहीं हूं
इसलिए हमेशा मुझे सही व्यवहार बताया जाता है
उसके लिए कानून है
समाज है
परिवार है
सरकार है
प्रेमिका है
मुझे बताया जाता है कि सही आदमी का मुंह
किसी भी चेहरे के सामने गुस्से से लाल नहीं होता
सही वही है जो सही भावनाओं को छिपा ले जाए
अन्दर भले जले
लेकिन चेहरा उसका नीला होना चाहिए
मुर्दे की तरह
सरकार ने तो आदेश दिया है कि
मुंह अगर नीला नहीं हो रहा है
तो उसपर नीला रंग पोत लो
या मर जाओ
प्रेमिका कहती है
तुम सही आदमी नहीं हो
तुम नहीं याद दिलाते हो अपना प्रेम
और इस नीले चेहरे का रंग बैगनी होता जाता है
मैं तो मुर्दा होने के लिए भी
सही आदमी नहीं हूं
मुझे याद मत दिलाओ
मैं सही चीजें नहीं जानना चाहता
मुझे ये बताओ कि मौत का नीला होना कितना सही है
कितना अच्छा होता कि दुःख से प्रेम बचाता है
इसका हवाला देते हुए
मेरा चेहरा नीला न होता
6. खारिज़
क्या तुम सचमुच उत्ताल महासागर को—
निर्दयी और मदान्ध कहोगे
अगर मैं एक
कविता की रूमानियत के बहकावे में आकर
टूटी नाव में बैठकर
उसकी गर्जनाओं के सामने चला जाऊं
जबकी कविता बृहदारण्यक का ब्रह्मा है
अगर मैं तुमको बताऊं कि
गांव के धूल-धक्कड़ में कोई नोस्टाल्जिया नहीं—
बल्कि एक आदिम कुचक्र के कण बसते हैं
बाभन ठाकुर लाला और नाऊ धोबी आदि के बच्चे
जब खेल-खेल में शोर मचाते हैं
तो उनके सयाने उन्हें
चमरौट मचाने से मना करते हैं
जैसे शोरगुल उन्हीं तथाकथितों की
असभ्यता का कॉपीराइट हो
और ऐसा ही सयाने को किसी तथाकथित बच्चे/बच्ची को
दस रुपए दे कर
अपने आंगन के कोनों पर उगी दूब छिलवाता दिखा दूं
तो क्या तुम मुझ पर आरोप नहीं लगाओगे
कि मैंने कई कविताओं को सिरे से नकार दिया है
और अगर मैं कहूं कि—
आंख झुका कर चुप रहना कोई अनुशासन नहीं है
अपने बच्चे को
पलट कर सही सवाल करना सिखाओ
तो क्या तुमको नहीं लगेगा
कि मैं तुम्हारे समाज के लिए एक बड़ा खतरा हूं?
अगर तुमको मेरी सारी बातें ठीक लगें—
तो क्या तुमको नहीं लगता
कि तुम्हारे पास अपनी कोई बात नहीं है?
7. गिरे पेड़ पर तूफ़ान
एक तूफ़ान की तरह किसी के गुज़र जाने के बाद
अकेले पड़ जाने की विकलता के अलावा
एक तबाह मंजर साथ रह जाता है
जो रुकता नहीं है वही
सबसे अधिक नुकसान पहुंचा सकता है
रुकने वाला तूफ़ान कुछ नहीं बिगाड़ सकता
जो चला गया है ऐसे— वही जो रुका नहीं
वो एक संतोष दे कर जाता है
अब फ़िर से नुकसान नहीं पहुंचेगा
खुश हो कि
गिरे पेड़ों का तूफ़ान क्या बिगाड़ सकता है
तबाह होने के तुरंत बाद—
तुम्हारे न होने की विकलता से बड़ी है
एक बेचैनी
कहीं लौट न आओ तुम—
8. ऋषभ भट्ट के लिए
अक्सर ही आशान्वित देरी से
मिला करता है मुझसे
ऋषभ भट्ट अपनी देर का पाबंद है
वह देर कर के
मिलने की उत्सुकता को
बढ़ा देता है
कविताएँ उसे झंकृत कर
देती हैं
उसकी गहराई में
एक गहराई है
हँसता हुआ ऋषभ भट्ट
पागल लगता है
छोटी चीजों में खुश हो कर वो
बड़ी-बड़ी हंसी हंसता है
हँस हँस कर
उसने अपनी आत्मा
धो डाली है
सोता हुआ ऋषभ भट्ट
पाप से मुक्त लगता है
नींद उसे अंधेरे से मुक्त रखती है
आने में देर करता हुआ
कविताएँ सुन कर रोता हुआ
हँसता हुआ
सोता हुआ ऋषभ भट्ट
मेरा मित्र है
9. आप अपना ज्ञान लेते जाइए
वे टेढ़ी उपेक्षा का मुंह बनाए मुझे देखते हैं
जैसे मेरी साइकिल जिससे मैं चलता हूं बहुत पुरानी पड़ गई हो
और मैं किसी से विवाह योग्य न होऊं क्योंकि साइकिल के कैरियर पर
दबी रहती है एक कॉपी जो गिर जाती हो
उनके घर के सामने से गुजरने वाली उस सड़क पर
जो हर छः महीने में एक बार बन्द होती है फ़िर से शुरू होने के लिए
बारिश का पानी सड़क से उनके घर में फिर घुसता आता हो देखुहार जैसे आते हों
मैं ये सब देख कर एक छद्म आवेश में पैडल पर दुगना ज़ोर देते हुए
सरसराते हुए चला जाता हूं फिर मैं हंस देता हूं हल्के से
लौट कर वापिस उनके सामने अपनी गिरी हुई कॉपी को उठा कर
हल्के से चपत लगाते हुए कहता हूं बड़ी भुलक्कड़ कॉपी हो यार
कहता हूं आगे, "चल अब" और दबाता हुआ उसे अपने करियर के पीछे
लज्जित पराजित धीरे-धीरे पैडल मारता हुआ चलाता हूं साइकिल
हवा वैसी ही टंच रहती है टायर में कभी कभी मैं पंचर हो जाता हूं
(आप का काम है ज्ञान देना, तो दीजिए न कि पंक्चर होता है
लेकिन मैं पंचर ही मानूंगा, होता तो मैं हूं न)
और उन्मादी की तरह चिल्लाता जाता हूं बेधड़क बिना ब्रेक मारे इधर उधर
"अमल धवल गिरि के शिखरों पर.."
(आप पूछिए कि पहाड़ तो यहां कहीं हैं नहीं, तो ये क्यों
पूछिए मत यार ऐसे ही है सब कुछ)
कभी-कभी छटपटाती तपती दोपहर में सुनसान चौराहों से गुजरते हुए
रवि हुआ अस्त, ज्योति के पत्र पर...खिसिया जाइए पर कविता नहीं मिलेगी आपको
जहां आप उसे इस वक्त ढूंढ रहे हैं जैसे कि मैं दोपहर में ढूंढ रहा हूं इस वक्त
कर्ज़न ब्रिज के ऊपर से थूक रहा हूं नीचे... देखुहार जा रहे हैं... सड़क के नीचे
मेरी साइकिल बहुत पुरानी पड़ गई है बाप-दादे की है न
खरीद की रसीद मेरे पास नहीं है पर मेरे बाप और ददा को देखा है इससे उतरते
आधी रात को अस्पताल, बाज़ार, गांव से हाँफते हुए आते थे साइकिल और ददा दोनों
और कॉपी को ध्यान से देखिएगा तो उसमें कहीं बोरी के रेशे फंसे मिलेंगे
फूल कहां यार, बोरी के रेशे यही बपंसी है अपनी
बीस बोरी गेहूं में तीन हिस्से होते हैं और तीन बराबर हिस्से होते हैं
लेकिन यार अब खरीद की पर्ची कहां से लाऊं कमाल करते हो
हां तो मैं सूखते गले में जान डालने के लिए खखारता हूं और पिच्च से थूकता हूं
कर्ज़न पुल के नीचे और देखते ही देखते मेरी साइकिल धूल में सनी हुई है
पुरानी हो गई है न मेरे बाप ददा की है इसलिए
और बहुत सारी कविताएं ऐसे ही गूंजती हैं कानों में जब मैं सवार होता हूं
मॉडिफाइड हैं मेरे पैर कैसा मस्त इंजन का काम करते हैं
और इतनी तपती दोपहर को जब मैं साइकिल पर बैठता हूं जलाता हुआ चूतड़ों को
और कहता हूं "एप्रिल इस द क्रूअलेस्ट मन्थ" और उसी सड़क के सामने से
जब फरफराता हुआ निकलता हूं तो
वो टेढ़ी उपेक्षा का मुंह बनाए मुझे देखते हैं जैसे पुरानी साइकिल चोरी की हो
मेरे बाप दादा की नहीं पर कहां गिरती है कॉपी मैं देखता नहीं हूं
मैं बस उपेक्षा का मुंह देखता हूं टेढ़ी निगाह से ऊपर की तरफ बालकनी में टांगे
गुलमेंहदी के फूलों की तरफ़
फिर "शैल आई कम्पेयर दी टू अ समर्स डे" और धीरे धीरे खखारता हूं
और थूक देता हूं जिसके कुछ छींटे इंजन पर गिरते हैं कुछ कविता पर
और देखुहार के मुंह से लार चूता है
और एक छूटने के क्रम में हड़बड़ी होती है शायद सुना हो आपने
क्रमानुसार छूटता जाता है सब कुछ जैसे चैन उतर जाने पर रफ़्तार छूट जाती है
मरनी जियनी के बाद बाप ददा भाई बंध सब छूटते हैं अपनी साइकिल से
कविता छूट जाती है साइकिल से उतर कर उसको खड़ा करता हूं जब कॉपी खींचता हूं कैरियर से और ताला मारता हूं तो उससे स्थगन रद्द नहीं होता
कल ही मेरी भतीजी का जन्म हुआ मुझे फोन नहीं आया
देखिए न अब ऐसे ही मरनी जियनी में परिवार छूटता जाता है और साइकिल है
कि
ससुरी बुढ़ाती चली जा रही है छूटने का नाम नहीं ले रही है
आप का ज्ञान रह गया लेते जाइए... मैं पंचर होता हूं…हां यहां पहाड़ नहीं हैं
राम दोपहर में नहीं कर रहे होंगे शक्ति पूजा दोपहर में या तो साइकिल चलती है
या पत्थर टूटते हैं सड़क के किनारे
हां हां पथराव करने के लिए भी अभी अभी मुझे बताया गया
टेढ़ी उपेक्षा का मुंह बनाए देखते हैं वे मुझे
और जब मेरा मुंह देखते हैं तो खुल कर हंसते हैं मैं भी हंस देता हूं
और साइकिल से कहता हूं लगभग रोते हुए
कम ग्रो ओल्ड विथ मी...
साइकिल चूं चूं करती है जैसे हमेशा पहले करती थी पता नहीं कहां तेल लगाना था उसे
अच्छा मैं ही नहीं सुन पाया बूढ़ा गई है न थोड़ा पोपला बोलती है धीरे-धीरे
लेकिन गुरु अभी भी मैं पंचर ही होता हूं
अपना ज्ञान आप लेते जाइए दूर कहीं जहां पहाड़ों के बगल में ही कहा जाता हो
अमल धवल गिरि के शिखरों पर…
10. भविष्यानुगता
वो एक लंबी परछाई थी
जिसके सिर और गर्दन दीवार पर पड़ते थे
वक्ष एक मेज़ पर
और कमर से नीचे का हिस्सा फर्श पर
कितनी रोशनी ने इसे परछाई बना दिया होगा
उसके पीछे गौर से देखा मैंने
कहीं नहीं दिखाई दिया कुछ—
परछाई तो बहुत मजबूत है
एक साथ कई धरातलों पर गिर कर भी
वो टूटती नहीं
मैंने बहुत धीरे से छुआ उसे—
और वह निस्तब्ध रही
मैंने जल रहे दीये की ओर
एक लंबी सांस छोड़ी
वह स्थिर रही
आंसू या ठहाके—
उसके पास क्या थे?
वो कह रही थी—
उसने अपने जीवन को
आंसुओं में फींचा
ठहाकों में झाड़ा
और ऐसे डारे पर सूखने के लिए डाल दिया कि
सब हवा हो गया
वो
एक लंबी परछाई थी
जिसका सिर
मेरी भविष्य की गोद में था
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
प्रज्वल चतुर्वेदी
परास्नातक, अंग्रेजी साहित्य, इलाहाबाद विश्वविद्यालय।
युवा कवि, कथाकार हैं। हिंदवी, सदानीरा, तद्भव, समकालीन जनमत, कृति बहुमत, वागर्थ, इंडिया टूडे आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हैं।
सम्पर्क
भरुहना चौराहा,
वृंदावन गार्डन के सामने गली में,
मिर्ज़ापुर, 231001
मोबाइल : 06393196884
परिपक्व और मार्मिक कवितायें।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर।
हटाएंप्रज्ज्वल की कविताये अनुभवों के संस्तरों पर टिकी हुई कविताएं हैं। कभी कभी इतनी तीक्ष्ण प्रक्रियात्मक डिजाइन का निर्माण करती हैं कि आप उनसे निकल नहीं पाते और बार बार आप उस डिजाइन के akant में खुद को लहूलुहान करने लौट आते हैं। मेरे लिए यह कविताएं कुछ ऐसी ही हैं, जिनके पास बार बार लौट आता हूं। यह ऐसे ही लेट पड़ने के दौरान की गई टिप्पणी🥰
जवाब देंहटाएंधन्यवाद प्रतीक भाई
हटाएं