प्रीता माथुर ठाकुर से प्रतुल जोशी की बातचीत
प्रीता माथुर ठाकुर |
भारत के नामचीन और पुराने थियेटर ग्रुप में मुम्बई के 'अंक' थियेटर ग्रुप का स्थान अग्रणी है। इसकी स्थापना दिनेश ठाकुर ने 1976 में की थी। प्रीता माथुर विख्यात थियेटर अभिनेत्री हैं। पहले पहल उन्होंने इप्टा से जुड़ कर अभिनय की बारीकियां सीखी। आगे चल कर अंक थियेटर ग्रुप से जुड़ाव के पश्चात नीता जी ने दिनेश ठाकुर के साथ काम किया। बाद में नीता जी ने दिनेश ठाकुर के साथ शादी कर ली। थियेटर, थियेटर से जुड़े मुद्दों और चुनौतियों को ले कर नीता माथुर ठाकुर से एक खास बातचीत की है प्रतुल जोशी ने। यह विस्तृत बातचीत नीता जी के आवास पर सम्पन्न हुई। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं मुम्बई के "अंक" थियेटर की ग्रुप की प्रमुख एवं प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता स्व. दिनेश ठाकुर की पत्नी श्रीमती प्रीता माथुर ठाकुर से प्रतुल जोशी की एक खास बातचीत।
श्रीमती प्रीता माथुर ठाकुर से प्रतुल जोशी की बातचीत
प्रतुल - प्रीता जी, शुरू में आप ए. सी. सी. सीमेंट के वित्त विभाग से जुड़ी थीं। तो आप जब बम्बई में आयीं उस वक्त एक स्ट्रगलर के तौर पर नहीं, बल्कि एक कंपनी के साथ काम करते हुए आपने समय निकाला। यह जो शुरूआत है आपकी थियेटर में कहाँ से हैे, बताएँ?
प्रीता - देखिए, मुझे लगता है कि आप देश में किसी भी शहर में नाटक करना चाहते हो या नाटक कर रहे हो तो वह आपकी जीविका का साधन तो नहीं बन सकता। आपके पास कुछ और होना चाहिए जिससे आप अपनी जीविका चला सकें। वास्तव में बाम्बे में इस तरह की परंपरा रही है कि बहुत सारे मराठी रंगकर्मी, गुजराती रंगकर्मी किसी-न-किसी ऑफिस में खास कर बैंक में जॉब करते थे। और एक समय तो ऐसा था कि बैंक वाले विशेषकर नाट्यकर्मियों को अपने यहाँ रोजगार देते थे। बैंकों के अपने थियेटर ग्रुप होते थे। थियेटर प्रतियोगिताएँ होती थी। मुझे तो ऐसे ही लगता था कि आपके पास रोजगार का कोई-न-कोई साधन होना चाहिए तभी आप खुल कर नाटक कर सकोगे। नहीं तो आपको यही जद्दोजहद रहेगी कि खाना-पीना, मकान भाड़ा जैसी चीज कहाँ से व्यवस्था कर सकें?
प्रतुल : बम्बई कैसे आना हुआ?
प्रीता : मेरी पढ़ाई-लिखाई अजमेर में हुई। मैं जब 10वीं कक्षा में पहुॅंची तो मैंने तय कर लिया था कि मुझे अभिनय के क्षेत्र में जाना है। मैं शुरू से ही थियेटर करना चाहती थी। जिस स्कूल में थी, मैं अजमेर में, वहाॅं बहुत सारी सम्भावनाएं थी। बहुत प्रोत्साहित किया जाता था। अच्छे अध्यापक थे, थियेटर पे। नियमित रूप से हमारे यहाँ नाटक की प्रतियोगिताएं होती थीं। मैंने सोफिया स्कूल और काॅलेज दोनों से पढ़ाई की थी। स्नातक की पढ़ाई के बाद मैंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ज्वाइन करने का मन बनाया था। लेकिन परिवार वालों ने समझाया कि एक्टिंग के क्षेत्र में बहुत अनिश्चितताएं हैं। मुझे भी लगा। फिर मैंने जयपुर से एम. बी. ए. किया लेकिन मेरे दिमाग में यही था कि करना है थियेटर। इसीलिए मैंने बाम्बे में नौकरी की, ताकि मैं थियेटर कर सकूॅं। मुझे मालूम था कि यहाॅं पर थियेटर ऐसा होता है, सहूलियत है कि अकेली औरत यहाँ आराम से रह सकती है।
प्रतुल : तो बाम्बे कब आयीं आप?
प्रीता : मैं बाम्बे 1986 में आयी। मुझे ए. सी. सी. कम्पनी में एक जाॅब मिल गया था। देश की प्रीमियर सीमेन्ट कम्पनी थी।
प्रतुल : आपका पहला एसोसियेशन इप्टा से हुआ। उस वक्त इप्टा में काफी मशहूर लोग जुड़े थे जैसे- ए. के. हंगल, एम. एस. सथ्यू या फिर जावेद सिद्दीकी।
प्रीता : क्या हुआ कि आते ही, जब मैंने जाॅब ज्वाइन किया तो मैंने पता किया कि मैं यहाॅं कहाॅं थियेटर कर सकती हूँ। तो ए.सी.सी. के पब्लिक रिलेशन्स में एक सज्जन थे जिन्होंने कहा कि हाॅं, मैं जानता हूँ रिजर्व बैंक आफ इण्डिया में कुछ लोग हैं जो इप्टा से जुड़े हुए हैं। ले गये वह मुझे मिलाने। तो उन्होंने कहा कि बिल्कुल तुम इप्टा में आ जाओ। रमेश राजहंस थे इप्टा में। मैंने इप्टा ज्वाइन कर ली। हंगल साहब से भी मुलाकात हुई। हम उनको कहते थे ओल्ड यंग मैंन। वह ऐसे ड्रेसअप करते थे जैसे कोई आफिसर आया हो। उन्होंने हम नवजवानों की बहुत मदद की। इप्टा में उस वक्त बहुत सारे लोग थे। इतने सारे लोगों को चांस मिलना बहुत मुश्किल था। क्योंकि एक नाटक होगा तो कई कई दिनों तक चलेगा। फिर दूसरा नाटक दिखाया जायेगा। आपको एक मौका मिलना मुश्किल था। लेकिन नवजवानों को प्रोत्साहित किया जाता था कि आप आइये, जिस दिन रिहर्सल चल रहा है, बैठिये। देखिये। तो वह तीन साल मैंने इप्टा में गुजारे उन तीन सालों में मैंने मुश्किल से चार नाटक किये। लेकिन सीखने को बहुत सारा इसलिए मिला क्योंकि ऑब्जर्वेशन से। हम हर रिहर्सल में मौजूद होते थे। आफिस जहाॅं खत्म हुआ पांच बजे। भागे-दौड़े। रिहर्सल शुरू होता था छः सवा छः बजे से, सांताक्रूज में। मेरे साथ बहुत सारे नये लोग जुड़े थे। अब जब रिहर्सल खत्म हो जाती, उसके बाद हम लोग बैठते थे। किसी चाय के ढाबे पर बैठ गये और विचार विमर्श करते थे। उसने ऐसा किया, उसने ऐसा कहा। फिर उन्होंने नवजवानों का एक अलग ग्रुप भी बनाया। चलो नवजवानों के साथ काम किया जाय। जो थियेटर नहीं प्रस्तुत कर सकते थे, लेकिन इप्टा की जो रिहर्सल की जगह है, वहाॅ प्रस्तुत कर सकते थे।
प्रतुल : कौन सी जगह थी वह?
प्रीता : म्यूनिसपैल्टी का एक स्कूल था। मुख्य बाजार जो सांताक्रूज पश्चिम में है वहाँ जमाने से इप्टा रिहर्सल करती रही है। जब महामारी फैली तो वहाॅं रिहर्सल बंद करना पड़ा, क्यूकि वहाॅं एक अस्पताल बनाया गया था। उसके बाद से इप्टा का नाता उस स्कूल से टूट गया। लेकिन सालों से मुझे लगता है 40-50 वर्षों से वहाॅं पर रिहर्सल कर रहे थे।
प्रतुल : आपको क्या लगता है कि इप्टा जो एक जमाने में पायनियर संस्था भी थी नाटकों की, बल्कि वहाॅं पर कम्यून वगैरह भी हुआ करते थे जिसमें कैफी आजमी, शौकत आपा वगैरह थे। वह इप्टा आज उतनी मजबूत नहीं है?
प्रीता : मुझे तो तब लगता था जिसकी वजह से मैंने इप्टा छोड़ा, वह आज भी लगता है जो एक नवजवान ग्रुप को आपको प्रोत्साहित करना पड़ता है, Motivate करना पड़ता है। अभी जो लोग हैं, वो Older लोग हैं। जो अभी भी संभाल रहे हैं, वह पुराने ही लोग हैं। एक यंग जनरेशन को आपने प्रोत्साहित नहीं किया कि वह बागडोर सम्भाले। और नये तरह के नाटक लाये। हो सकता है खुद ही लिखे हुए नाटक लाये। या ऐसे नये दूसरे । Adaptations लाये। और तो हमारे यहाॅं कहानियों का ढेर है। पहले भी था, लेकिन हम लोग उतने डवजपअंजमक नहीं थे। उतने Motivated नहीं थे कि हम कहानियों का रंगमंच में ।Adaptations करें। वह सब भी सम्भव है। लेकिन यह जो बुजुर्ग लोग हैं जो इप्टा संभाल रहे हैं, उनकी सोच थोड़ी सी अलग है। नाटक तो कर रहे हैं और नाटक में लोग आ भी रहे हैं। लेकिन आपको थोड़ा सा नवोन्मेष करना जरूरी है, वह नहीं हो पा रहा है।
प्रतुल : प्रीता जी, 1986 में आप मुम्बई आयीं और इप्टा से जुड़ गयीं। फिर 1991 में आप ‘‘अंक‘‘ से जुड़ी। यह जो शिफ्ट है, इप्टा से अंक में, यह कैसे हुआ?
प्रीता : जाहिर था मुझे इप्टा में ऑन स्टेज काम कम मिलने वाला था। उस समय सथ्यू साहब एक सीरियल कर रहे थे ‘‘कायर‘‘, जिसमें मैं भी एक्टिंग कर रही थी। वहाॅ पर मैं ऐसे बहुत से लोगों से मिली जो 'अंक' में काम कर रहे थे। उस समय मैं एक और सीरियल कर रही थी दूरदर्शन के साथ। उसमें जो चीफ प्रोडक्शन असिस्टेन्ट थीं, 'अंक' में काम कर चुकी थीं। उसने मुझे बताया था कि उन्होंने दिनेश जी के नाटक देखे थे। मैं समझ गयी थी कि 'अंक' में ज्यादा काम हो रहा है और वहाॅं ज्यादा सम्भावनाएं हैं आगे बढ़ने की। मुझे मालूम था कि मेरी कमजोरियां क्या हैं। पर इप्टा में क्या हो रहा था कि कमजोरियां तो पता चल रहीं थी लेकिन उन कमजोरियों को किस तरह से सुधारना है, वह समझ में नहीं आ रहा था। क्योंकि उस तरह का उनका काम करने का ढंग नहीं था कि एक नवोदित अभिनेता को समझा सकें, बता सकें कि अपने विकास पर ध्यान दो।
प्रतुल : प्रोफेशनलिज्म नहीं था उस तरीके का?
प्रीता : Growth पर। आपके पास नवजवान अभिनेता हैं।You have to growth them, You have to Cultivate. आप सम्भावना देखते हो, आपको Groom करना पड़ता है अभिनेता को। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से अभिनेता नहीं आया है, किसी ड्रामा स्कूल से अभिनेता नहीं आया है तो वह बिल्कुल Raw है, सम्भावना है उसमें, लेकिन तकनीक तो विकसित करनी पड़ेगी तो वहाॅं पर ग्रूम करने वाला कोई नहीं था और मुझे लगा कि दिनेश जी बहुत अच्छा Groom कर सकते हैं। दिनेश जी का तो यह रेपुटेशन था कि उनके पास जादू की छड़ी है, वह घुमाते हैं और व्यक्ति एक्टर बन जाता है। आफकोर्स उसका अलग कारण था कि वह समझते थे कि एक्टर में क्या कमजोरी है। इस कमजोरी को कैसे छुपाया जा सकता है और कम किया जा सकता है। दूसरी एक्टर की जो ताकत है, उसको कैसे उभारा जा सकता है। रोल में वह बिल्कुल फिट बैठता है, ऐसा लगता है कि यह तो इसी रोल के लिए बना है। वह तो बाद में समझ में आया। यह तो समझ में आ गया कि मुझे अंक ज्वाइन करना है और दिनेश जी से तालीम हासिल करनी है।
प्रतुल : ‘अंक‘ का प्रादुर्भाव होता है 1976 में। ऐसा माना जाता है कि उस समय बम्बई में हिन्दी थियेटर देखने वालों की संख्या उतनी बड़ी नहीं थी। दूसरी बात है कि 1978 में पृथ्वी थियेटर अस्तित्व में आता है और पृथ्वी थियेटर के आने से बम्बई के हिन्दी थियेटर को काफी सपोर्ट मिलता है। तीसरी बात है कि रजनीगंधा और दूसरी फिल्मों के चलते दिनेश ठाकुर जी की एक्टर के तौर पर अच्छी छवि थी। यह कहा जा सकता है कि एक लम्बे समय तक बम्बई हिन्दी रंगमंच पर दिनेश ठाकुर का परचम लहरा रहा था। आप उनके सम्पर्क में 1990 में आयीं। बाद में आपने उनसे विवाह किया। तो आपने उनसे जानकारी ली होगी कि ‘अंक‘ के प्रारंभिक वर्ष किस तरीके के थे?
प्रीता : दिनेश जी दिल्ली में ओम शिवपुरी के साथ नाटक कर रहे थे। उस समय मोहन राकेश लिख रहे थे ‘‘आधे अधूरे‘‘। मोहन राकेश ने ‘‘आधे अधूरे‘‘ ओम शिवपुरी को करने के लिए दिया। यहाॅ तक कि मोहन राकेश ‘‘आधे अधूरे‘‘ के रिहर्सल में भी आते थे। रिहर्सल के दौरान उन्होंने संवाद भी दुरस्त किये। दिनेश जी उस पहले प्रोडक्शन का हिस्सा थे। तो ‘‘आधे अधूरे‘‘ बड़ा कामयाब रहा। क्योंकि ‘‘आधे अधूरे‘‘ उस दौर का एक प्रतिनिधि नाटक था। उस पर फिल्म बनने लगी। बासु भट्टाचार्या थे बाम्बे में। उन्होंने उस पर फिल्म बनानी चाही। नाटक की पूरी कास्ट के साथ। उस कास्ट को बुलाया बाम्बे। पुणे में उन्होंने उसकी शूटिंग भी की थी। एफ. टी. आई. आई. में।
प्रतुल : बनी नहीं लेकिन?
प्रीता : बनीं। पूरी फिल्म बनीं। लेकिन वह क्यों रिलीज नहीं हुई, इसके कई कारण हैं। वास्तव में सुधा शिवपुरी जी ने एक बार मुझसे पूछा था कि तुम पता करो। मैंने कहा मैं कहाॅं पता करूॅं, दिनेश जी भी नहीं रहे। बासु भट्टाचार्या भी नहीं रहे। उस फिल्म से जुड़े अधिकांश लोग नहीं रहे। दिनेश जी उस फिल्म के लिए बम्बई बुलाये गये। यहाॅं पर बासु भट्टाचार्या से वह बहुत करीब हो गये। बासु भट्टाचार्या ने तय किया कि जो अगली फिल्म उनकी थी ‘‘अनुभव‘‘, जो एक स्वतंत्र निर्देशक-प्रोड्यूसर उनकी पहली फिल्म थी। उसमें वह उनको लेना चाहते थे। फिर गुलजार साहब की ‘‘मेरे अपने‘‘। ‘‘अनुभव‘‘की वजह से दिनेश जी का बम्बई आना जाना लगा रहा। उन्होंने यहीं पर रहना शुरू कर दिया। फिल्में तो मिलती रहीं, काम इधर-उधर मिलता रहा। लेकिन थियेटर का जो कीड़ा था, वह किस तरह से तृप्त होता तो उन्होंने यहां पर एक थियेटर ग्रुप शुरू किया। कई लोग जो उनके साथ दिल्ली में थे, वह भी बम्बई आ गये थे। जैसे बृज भूषण साहनी थे, नरेश सूरी थे। सब ने मिल कर एक संस्था बनाई ‘‘अंक‘‘ और जो सबसे पहला नाटक उन्होंने किया था, यह जो दुर्गा पूजा में स्टेज होता है, उसमें किया था सबसे पहला प्रोडक्शन। उस वक्त जो थियेटर उपलब्ध थे, बाम्बे में, उसमें या तो मराठी थियेटर होता था या गुजराती। हिन्दी थियेटर करने वाले कम थे, इप्टा ही था उस वक्त। उसके बाद आयीं हैं नादिरा जी, उसके बाद ओम कटारिया जी का ग्रुप बना है ‘‘यात्री‘‘। बाद में नसीरूद्दीन शाह और ओम पुरी ने मिल कर एक ग्रुप बनाया था। उस समय यह छोटे मोटे ग्रुप थे। जब ‘‘पृथ्वी‘‘ का आगमन हुआ 1978 में तब छोटे मोटे ग्रुप्स को जगह मिली। शशि जी ने और जेनिफर जी ने यह थियेटर बनाया और जेनिफर जी बहुत स्पष्ट थी कि यह जगह हिन्दी थियेटर के लिए होगी। हिन्दी थियेटर का अब पता था ‘‘पृथ्वी थियेटर‘‘। उन्होंने पूरी तरीके से हिन्दी थियेटर को प्रोत्साहित किया। एक समय ऐसा था कि पृथ्वी थियेटर में ‘‘महाभोज‘‘ हो रहा है। 15 लोग स्टेज पर हैं। दर्शकों में केवल पांच लोग। उन पांच लोगों में भी जेनिफर जी, शशि जी और संजना। दो लोग किसी तरह टिकट ले कर आ गये। टिकट नहीं लेते थे लोग। दिनेश जी ने तो ट्रेफिक सिग्नल पर खड़े हो कर टिकट बेचे हैं। जाना पहचाना चेहरा, लोग रूक जाते थे। टिकट खरीद भी लेते थे। लेकिन आते नहीं थे।
जेनिफर जी, दिनेश जी को, नादिरा जी को, इप्टा को सबको एक ही बात कहती थीं कि ‘‘करते रहो‘‘ नुकसान हम भी उठा रहे हैं, आप भी उठाओ, पर रूको मत। एक न एक दिन यह फलेगा। आज देखिये आप अगर वीकेण्ड में एडवांस बुकिंग न करें तो शायद पृथ्वी में आपको टिकट न मिले। आज यह स्थिति है।
प्रतुल : अच्छा कोई अभिनेता है, उसको लगातार सफलताऐं मिल रही हैं। बालीवुड में पैसा भी ठीक ठाक मिलता है। टाॅप में रहने के बावजूद दिनेश जी का रंगमंच के लिए क्या ऐसा जोश था कि उन्होंने फिल्मों को अलविदा कह दिया।
प्रीता : मेरा ख्याल है कि ऐसा Exactly हुआ नहीं। फिल्म इण्डस्ट्री एक अलग तरीके की जगह है। जहां आपको सबकी खुशामद करनी पड़ती है। आप कितने ही प्रतिभाशाली क्यों न हों? आपकी फिल्में हिट हो चुकी हों, फिर भी आप अगले के पास जाओगे कि देखिये आप ही हैं सर्वे सर्वा। आप ही हैं अन्नदाता। आप हमें काम देंगे तो मेरी जिंदगी होगी कुछ। नहीं तो कुछ नहीं। यह एक अजीब तरह की मानसिकता है इस इण्डस्ट्री में कि अगर आप सामने वाले को यह नहीं एहसास दिलायें कि आपके बिना मैं जीरो अण्डा हूँ, वह आपको काम नहीं देगा। और फिर कितने सारे कैम्प्स में आपको जुड़े रहना पड़ता है। उनके साथ खाओ पिओ। खिलाओ पिलाओ। बहुत सारा Interaction आपको करना पड़ता है। दिनेश जी का स्वभाव उस तरह का नहीं था। उनको लगता था कि मैंने अच्छा काम किया है, उसके चलते मुझे अच्छा काम मिलना चाहिये। अच्छा काम मिला भी और वह बासु भट्टाचार्य के साथ उनके जीवन के अंत तक जुड़े रहे। और बासु दा की हर फिल्म से वह सम्बद्ध रहे। काम आ रहा है, लेकिन उस तरह का काम नहीं आ रहा है जिसमें आपकी रूचि है तो फिर काम करने में आपकी रूचि कम होती जाती है। एक तो वह वजह थी फिर थियेटर उनका जो था वह बढ़ रहा था। तो इन दोनों चीजों के चलते, मुझे लगता है उन्होंने थियेटर को ज्यादा महत्व देना शुरू कर दिया।
प्रतुल : ‘‘हाय मेरा दिल‘‘ इस नाटक ने ‘‘अंक‘‘ को काफी गति प्रदान की। ‘‘हाय मेरा दिल‘‘ एक अंग्रेजी नाटक का रूपान्तर है।
प्रीता : वास्तव में एक अंग्रेजी फिल्म थी Send me no flowers जिससेे प्रेरित हो कर रणवीर सिंह ने नाटक लिखा ‘‘अफसोस हम न होंगे‘‘। उस समय जो हिन्दी नाटक हो रहे थे ‘‘कागज की दीवार‘‘, बादल सरकार के नाटक ‘‘एवं इन्द्रजित‘‘, ‘‘पगला घोड़ा‘‘ यह सब काफी गरिष्ठ नाटक थे। अब जो नाटक देखने आ रहा है, उसको थोड़ी कॉमेडी भी चाहिए। मुंबई का दर्शक थोड़ा कमर्शियल भी है। रेपुटेशन यह बन गया कि जो हिन्दी थियेटर है, वह बहुत बोझिल चीज है। उसमें दिमाग में बोझ लेकर आप जाते हो और निकलते हो तो दिमाग में बड़ा बोझ होता है। क्या था? बहुत गहराई में सोचने वाली चीज है। दिनेश जी ने यह सोचा कि पहले दर्शकों को अंदर तो लाओ। हिन्दी बोलने वाला, हिन्दी समझने वाला, हिन्दी जानने वाला अंदर तो आये पहले। तो सोच समझ कर उन्होंने यह ‘‘हाय मेरा दिल‘‘ नाम दिया रणबीर सिंह के नाटक को। ‘‘हाय मेरा दिल‘‘ Catchy Name है। ‘‘हाय मेरा दिल‘‘ और ‘‘अफसोस हम न होंगे‘‘ में एक अंतर है। ‘‘हाय मेरा दिल‘‘ कॉमेडी का अहसास दिलाता है। कुछ हल्की-फुल्की चीज तो होगी। ‘‘हाय मेरा दिल‘‘ उन्होंने किया ताकि लोग थियेटर के अंदर तो आयें। और मैं आपको बता दूँ ‘‘हाय मेरा दिल‘‘ ने ‘‘अंक‘‘ के लिए बहुत अच्छा काम किया। ‘‘हाय मेरा दिल‘‘ की वजह से हम लोग ‘‘कन्यादान‘‘ कर सके। ‘‘आत्मकथा‘‘ कर सके। विनय तेंदुलकर के और नाटक कर सके। जो लोग ‘‘हाय मेरा दिल’’ देखने आए, वह और नाटक भी देखने आये। और Humour का दिनेश जी के नाटकों में एक विशेष स्थान हमेशा से रहा है। ‘‘कन्यादान‘‘ जैसा गंभीर नाटक में भी बहुत सारे Portions हैं जहाँ पर हंसी है। इस तरह से Humour को जगह देते हुए। दूसरे नाटकों में बड़ी जगह, कई नाटकों में थोड़ी जगह। ‘‘बीबियों का मदरसा‘‘ भी किया उन्होंने। ‘‘भागमभाग‘‘ जैसे नाटक भी किये ताकि दर्शक आते रहें। ‘‘हाय मेरा दिल‘‘ ने पृथ्वी थियेटर को सबसे पहला Housefull दिया। उस समय Housefull बोर्ड ही नहीं था पृथ्वी थियेटर में। अब क्या करें? तो एक गत्ते के टुकड़े पर लिख कर बाहर टाँगा गया।
प्रतुल : प्रीता जी आप तो Finance की विशेषज्ञ रहीं हैं। ‘‘अंक’’ का वित्तीय पक्ष क्या रहा? क्या शो करने से इतने पैसे मिल जाते थे कि अभिनेताओं का खर्चा निकल जाता था और यह ग्रुप चलता रहता था।
प्रीता : ‘‘वित्तीय पक्ष‘‘ जैसा मैंने पहले भी कहा और आज तक है कि आप थियेटर से अपनी जीविका नहीं चला सकते। At the most आपको अपनी जेब से पैसे नहीं डालने पड़ेंगे। अभी थोड़ी बेहतर स्थिति हुई है कि एक दो महीना अपना घर भी चला सकें। राशन पानी का खर्चा निकल आये। उससे क्या है कि थियेटर आप कहाँ करते हैं बाम्बे में भी आप थियेटर कहाँ करते हैं? ‘‘पृथ्वी‘‘ में कर रहे हैं। ‘‘NCPA में कर रहे हैं। इससे ज्यादा जगह है ही कहाँ? लोग आते कहाँ हैं? पृथ्वी को अभी 45 साल होने वाले हैं। हम एक दूसरा पृथ्वी थियेटर नहीं खड़ा कर पाए। इतने सारे मल्टीप्लेक्स सिनेमा बनते हैं, उनमें से एक जगह भी एक थियेटर के लिए नहीं है। और आरामनगर में छोटे-छोटे हॉल हैं। वहाँ कितना कर पाते हैं। इसकी क्या Economics होती है। उसमें तो अभिनेता का भी खर्चा नहीं निकल पाता। हिन्दी कमर्शियल थियेटर की जो आज हालत है, वह भी वही है। नाटक दिखा कर बाक्स आफिस कलेक्शन से आप अपना ग्रुप नहीं चला सकते। अच्छा आपका नाटक चल गया तो पब्लिसिटी का खर्चा निकल जाए, किराये का खर्चा निकल जाए लेकिन अभिनेताओं का जो भुगतान है। और अगले नाटक में आपको जो डालना है, वह कहाँ से निकलेगा? यह कैसे चलेगा? इसका अर्थशास्त्र अलग है। आपको कुछ Sold Out Show मिलने चाहिए। आप किसी कंपनी के लिए कर लेंगे। या एक शो हो जो आपने नेहरु सेंटर में किया। किसी कंपनी के लिए कर लिया। जैसे हमने ‘‘जिन लाहौर नहीं वेख्या‘‘ किसी कम्पनी के लिए कर दिया। उसमें कुछ अच्छे संदेश हैं साम्प्रदायिक सौहार्द के। तो बहुत सारे प्रायोजक मिल जाते हैं। प्रायोजक मतलब जो Sold Out हैं। हमने आदित्य बिरला ग्रुप के लिए कर लिया। तो वह जो पैसे हमें मिलते हैं उसी से काम चलता है। तो हमको क्या करना है, इस युग में। जो निजी कम्पनियां हैं, उन्हें Involve करना है। आप हमें सहायता करें। आपका इतना स्टाफ है। आपके इतने डीलर्स हैं। सबके लिए एक शो रखिए। थियेटर को भी प्रोत्साहन मिलेगा। आपके डीलर्स भी आपसे खुश होंगे। यह मुझे लगता है एकमात्र तरीका है जिससे हम थियेटर को बिना सरकारी अनुदान के जीवित रख सकते हैं। सरकारी अनुदान, जो बहुत सारे थियेटर ग्रुप्स को मिल रहा है, उससे आज अपने अभिनेताओं को एक सम्मानजनक धनराशि दे सकते हैं। और काम जारी रह सकता है। लेकिन कोई बड़ा प्रोडक्शन आप करना चाहें, जैसे अभी हम लोग योजना बना रहे हैं ‘‘वीर रानी अबक्का‘‘ पर एक नाटक। मैं लिख रही हूँ। वह बड़ा प्रोडक्शन होगा। कुछ Sold Out Shows मिल जायें तो उससे एक बड़ा प्रोडक्शन कर सकते हैं। अभी जो अभिनेता जुड़े हैं, वह केवल थियेटर नहीं कर रहे हैं। वह कहीं न कहीं और लगे हुए हैं। जो सिर्फ नाटक कर रहा है, उससे मैं पूछती हूँ कि तुम्हारा घर कैसे चल रहा है।
प्रतुल : आप की दिनेश जी से जब शादी हुई वर्ष 1996 में, उस वक्त आप ए. सी. सी. सीमेंट कंपनी में काम भी कर रही थीं और नाटक भी कर रही थीं। पहले दिनेश जी के ग्रुप की आप सदस्य थीं। फिर पत्नी हो गईं। तो एक अभिनेत्री के तौर पर दिनेश जी से आपके संबंधों में कोई परिवर्तन हुआ?
प्रीता : एक अभिनेत्री के तौर पर मैं थियेटर ग्रुप के संचालन से ज्यादा जुड़ गई। मुझे यह समझ में आने लगा कि एक थियेटर ग्रुप को चलाने में कितनी परेशानियाँ हैं। इसमें मैं भागीदार बन गई। एक अभिनेत्री के तौर पर कुछ नहीं। एक अभिनेत्री के तौर पर जब हम रिहर्सल कर रहे हैं तो दिनेश जी एक निर्देशक हैं। घर में जो होना है वह घर में होना है। यहाँ आप अभिनेता हैं, आपको निर्देशक की बात सुननी है। आप निर्देशक से तर्क-वितर्क कर सकते हैं। चूँकि वह आपके पति हैं तो हो सकता है वह आपकी बात थोड़ी और तसल्ली से सुनें। बस उससे ज्यादा कुछ नहीं। आर्थिक और दूसरी समस्याएँ, जिन्हें एक थियेटर ग्रुप को सामना करना पड़ता है, उसकी मैं भागीदार बनी। मैंने भी अपनी तरफ से जितना कुछ हो सकता था, जितनी सहूलियतें हो सकती थीं, जितने सिस्टम को और दुरस्त किया जा सकता था, जैसे Back Stage का सिस्टम है, प्रोपर्टीज का सिस्टम है, उसको थोड़ा दुरस्त करने में मैंने भी मदद की। उससे मुझे बहुत फायदा मिला। दिनेश जी के जाने के बाद थियेटर ग्रुप को सँभालने में वह जो प्रारंभिक सीख थी, उससे मुझे बड़ा फायदा हुआ। क्या-क्या चीजें आपको ध्यान में रखनी पड़ती हैं, मैंने अकाउन्ट्स भी सँभाले। क्यूँकि Finance में थी तो Accounts को Stream Line किया। कि सिस्टम में डालो, कम्प्यूटर में डालो।
प्रतुल : 2012 में दिनेश जी की असामयिक मृत्यु हो गई, उसका एक बड़ा शॉक आपके जीवन में आया क्यूँकि आपने या किसी ने भी नहीं सोचा था कि ऐसा दिन भी देखना पड़ेगा। तो उस शॉक से उबरने में कितना वक्त लगा?
प्रीता : दरअसल क्या है दिनेश जी चार साल से बीमार थे। कभी ज्यादा तो कभी कम। उन्हें किडनी की समस्या थी। बाईपास हार्ट सर्जरी जो उनकी हुई, उसके चलते एक स्ट्रोक पड़ गया। तो स्ट्रोक से जब उबर रहे थे तो उनको कुछ समस्या हो गई गले में। उसके चलते उनको कुछ और छोटी-छोटी सर्जरी करनी पड़ी, इसको ठीक करने के लिए। एक ऐसी ही सर्जरी में ऐनेस्थिसीया देने वाले की लापरवाही के चलते उनकी छाती जल गई। उससे उनको बहुत ज्यादा निमोनिया हो गया। इतना ज्यादा हो गया कि उनको एंटिबायटिक की उच्च डोज देनी पड़ी। जिससे किडनी पर बहुत बुरा असर हुआ। किडनी फेल हो गई। फिर डायलिसिस पर रहना पड़ा। बहुत सारे लोग हैं जो दस-पंद्रह साल डायलिसिस पर रह चुके हैं। लेकिन दिनेश जी को डायलिसिस से उतनी ऊर्जा नहीं मिली। किडनी फेल होना ही वास्तव में मुख्य कारण था। उस बीच में स्ट्रोक से रिकवर हुए, फिर निमोनिया से रिकवर हुए। वह बार-बार रिकवर होते रहे। जब सुधार होता, वह वापस थियेटर में पहुँच जाते। अभिनय नहीं कर पा रहे थे लेकिन निर्देशन कर रहे थे। नये नाटक लिख भी रहे थे, निर्देशित भी कर रहे थे। उन चार वर्षों में, मुझे ही हैंडिल करना पड़ा सब कुछ। वह मेरे लिए बहुत अच्छा प्रशिक्षण था। उन्होंने बताया कि ऐसा करो, अब यह करना। अब यह नहीं करना। एक नया नाटक उन्होंने निर्देशित किया। मैंने कहा आप एक महिला शो कीजिए। मैं करती हूँ। आपके लिए आसान होगा कि एक जन को आप निर्देशित करें। तो हमने सुनीता बुद्धिराजा का लिखा हुआ काव्य ‘प्रश्न पांचाली‘ का शो किया। एक पात्रीय नाटक था। जिसमें मैं अलग-अलग शो करती थी। कुंती से ले कर गांधारी से ले कर, कृष्ण से ले कर, दुर्योधन, अर्जुन, भीम। द्रौपदी तो आती ही है। बार-बार आती है। यह पूरा एक पात्रीय नाटक था। मैंने कहा यह आप करिये। आप केवल मुझे निर्देशित करेंगे। इसमें आप की ऊर्जा कम जायेगी। एक घंटे का शो था। वहाँ से फिर उन्होंने थोड़ी ऊर्जा अब बेहतर होती गई तो नाटक Revive किये। ‘‘खामोश अदालत जारी है‘‘ को रिवाइव किया और नाटक रिवाइव किये। पूरे समय चाहते थे कि स्टेज पर एक अभिनेता के तौर पर पहुँच जाऊँ, वह नहीं हो पाया।
प्रतुल : आपने बहुत सारे नाटक किये। कुछ उन नाटकों के बारे में बताएँ। कौन सा ऐसा किरदार है, जिसने आपको काफी प्रभावित किया।
प्रीता : मैं आपको अगर शुरू से बोलूँ तो ‘‘कन्यादान‘‘ मेरा पहला बड़ा नाटक था। उससे पहले मैंने यद्यपि ‘‘रंग बजरंग‘‘ किया जो एक अंग्रेजी नाटक का रूपांतरण था। ‘‘हाय मेरा दिल‘‘ भी किया। ‘‘हाय मेरा दिल‘‘ मुझे चार दिन में तैयार करना पड़ा। कोलकाता का शो था। अभिनेत्री ने अचानक आने से मना कर दिया। तो मुझे ‘‘हाय मेरा दिल‘‘ तैयार करना पड़ा। ‘‘बीवियों का मदरसा‘‘ मैंने ट्रेन में तैयार किया। क्यूंकि फिर कलकत्ता का शो था क्यूँकि हम लोग कलकत्ता में के. के. बिरला समूह के लिए काफी नाटक करते थे। जैसा मैंने कहा You have to tap these Private People क्यूँकि आपको वहीं से फंड मिल सकते हैं कि आप बड़े प्रोडक्शन कर सकते हैं। तो उसको भी हमने ट्रेन में तैयार किया। तो इस तरह के नाटक किए मैंने ‘‘अंक‘‘ ज्वाइन करने के बाद। जहाँ मैंने इप्टा में तीन साल में चार नाटक किये थे, ‘‘अंक‘‘ में मैंने एक वर्ष में चार नाटक कर लिए थे। निर्देशक को भी लगता है न जब आप के पास ऐसे अभिनेता हों जो अपना पूरा समय देने को तैयार हों, उसको लगता है देखो मैं यह थियेटर करना चाहता हूँ, यह थियेटर करना चाहता हूँ, वह रिवाइव करना चाहता हूँ, यह सब हो सकता है। तो वह सब अभिनेताओं को काम पर डाल देता है। और अभिनेता इच्छुक हैं, तो काम हो जाता है। एक वर्ष में मैंने चार नाटक कर लिए दिनेश जी के साथ। और सबसे प्रभावपूर्ण नाटक तो ‘‘कन्यादान‘‘ था। विजय तेंदुलकर का लिखा नाटक मराठी में तो हो चुका था लेकिन हिन्दी में नहीं हुआ था। दिनेश जी ने कन्यादान उठाया और उनको लगा कि मेरे पास है कास्ट जो यह नाटक कर सकती है। और मेरे लिए कन्यादान मेरा पहला महत्त्वपूर्ण नाटक था। मैं यह कह सकती हूँ कि कन्यादान के पहले तक मैं मांटेसरी, केजी में थी। यह मेरा हाईस्कूल था। जो Pauses जो Intensity जो आँखों में भाव, एक्सप्रेशन स्पीच स्पीच, The base, speech का इस्तेमाल। सब कुछ मुझे Introduce हुआ कन्यादान में। मेरे लिए कन्यादान बहुत-बहुत महत्त्वपूर्ण नाटक था। और उसके हमने बहुत सारे शोज किए। कन्यादान को इतना Appreciation मिला कि विजय तेंदुलकर को बिरला वालों अवार्ड दिया। दिनेश जी ने विजय तेंदुलकर के पाँच-छः नाटक किए। एक और महत्त्वपूर्ण नाटक विजय तेंदुलकर का ‘‘अंजी‘‘ बन्द पड़ा था क्यूँकि एक्टर नहीं थे दिनेश जी के पास। तो दिनेश जी ने मुझे शामिल किया। ‘‘अंजी‘‘ में एक लड़की ग्वालियर की रहने वाली, ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं, स्कूल किया होगा। हाँ बीए किया उसने। अब शादी नहीं हो रही उसकी तो उसने जॉब ले लिया। अब माँ-बाप उस पर आश्रित हैं कि यह कमा रही है और हम खा रहे हैं। अब उन्होंने उसके लिए लड़का भी ढूँढना बंद कर दिया तो इस तरह का एक चरित्र जो बहुत पॉजिटिव है। क्यूँकि उस वक्त की मानसिकता है कि शादी तो होनी चाहिए क्यूँकि शादी के बिना कुछ नहीं है और उस माहौल में लड़की काम करती है और पॉजिटिव सोचती है कि मेरे बारे में माँ-बाप अब नहीं सोच रहे हैं। लड़का नहीं ढूँढ़ रहे हैं। मैं उनतीस साल की हो गई हूँ मैं ढूँढ़ूगी अपने लिए लड़का। तो किन परिस्थितियों से गुजरती है। उसमें रेप का भी मसला था। तेंदुलकर साहब ने उठाया था कि उस लड़की का रेप हो चुका है। तेंदुलकर साहब ने दिनेश जी से कहा कि मजाकिया है, हँसी मजाक है इस नाटक में। हँसी मजाक से करो। लेकिन दिनेश जी को तो महत्त्वपूर्ण संदेश देना था क्यूँकि उनका इस नाटक में महत्त्वपूर्ण संदेश देना बहुत जरूरी था। तो उन्होंने उसको ऐसा बनाया। ‘‘अंजी‘‘ के लगभग 34-35 शो हुए। ‘‘बीवियों का मदरसा‘‘ के भी काफी शोज हुए। लगभग पाँच सौ। मेरे लिए ‘‘अंजी‘‘ दूसरा महत्त्वपूर्ण कदम था। कन्यादान के पश्चात। विजय तेंदुलकर जी मेरी थियेटर लाइफ के एक बहुत महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। उनके नाटक और दिनेश जी का निर्देशन। फिर हमने उनके और भी नाटक किए। ‘‘आधे-अधूरे‘‘ एक और महत्त्वपूर्ण नाटक। फिर ‘‘आत्मकथा‘‘ फिर दो किरदार का नाटक दिनेश जी ने उठाया ‘‘हम दोनों‘‘। यह दिनेश जी का लिखा हुआ था।
वास्तव में ‘‘हम दोनों’’ से पहले हमने ’’हमेशा’’ किया। ’’हमेशा’’ दो चरित्रों वाला नाटक था। दो चरित्र जो शुरू होते हैं 25-28 वर्ष से और जाते हैं 75-80 तक। और सबसे महत्त्वपूर्ण बात कि दो लोगों को सँभालना है पूरा नाटक। ‘‘हमेशा‘‘ जावेद सिद्दीकी का लिखा हुआ था। जो Bernard Slade के नाटक Same time next year का रूपांतरण था। यह मेरे लिए बेहद महत्त्वपूर्ण नाटक था क्यूँकि आपको अपने को पूरी तरह नियंत्रित रखना है दिनेश ठाकुर जैसे एक बड़े अभिनेता के समक्ष। फिर हम लोगों ने एक और नाटक किया ‘‘हम दोनों‘‘। यह भी Adaption एक रूसी नाटक का। Aleksei Arbuzov के One Word का। यह जो दो Chapter Play मैंने किए, यह बहुत चुनौतीपूर्ण थे। और उसके बाद सबसे चुनौतीपूर्ण रहा ‘‘जिन लाहौर नहीं देख्या‘‘। हिन्दी थियेटर मुम्बई में गुजरातियों की बदौलत है। क्यूँकि वह लोग हैं जो थियेटर देखना चाहते हैं और जिनके पास पैसा है टिकट खरीदने का। जो टिकट खरीदने के लिए पैसा खर्च करना चाहते हैं। जो हिन्दी समझने-बोलने वाला आदमी है, वह फ्री में देखना चाहता है। गुजराती है वह टिकट खरीद कर देखेगा। गुजरातियों की वजह से ही तो चल रहा है मुम्बई का हिन्दी थियेटर।
प्रतुल : आपके थियेटर ग्रुप में कितने सदस्य हैं?
प्रीता : देखा जाए तो 40-45 सदस्य हैं। लेकिन कोर सदस्य आप कहें तो 10-12 सदस्य हैं जो एकदम पूरी निष्ठा के साथ जुड़े हैं। इनकी वजह से है जो मुझे पूरी तरह सपोर्ट करते हैं। हमारे ग्रुप में ऐसे लोग हैं जो पच्चीस तीस वर्षों से ग्रुप के साथ हैं और उन्होंने बेझिझक अपना पूरा सहयोग दिया है।
प्रतुल : मैं आपसे अंत में यह प्रश्न पूछना चाहूँगा कि जो नवजवान लड़कियाँ या फिर थोड़ी उम्रदराज महिलाएँ रंगमंच की दुनिया में आना चाहती हैं, उनके लिए किस तरह की चुनौतियाँ हैं, किस तरह की संभावनाएँ हैं और उन्हें किस तरह की सावधानियाँ बरतनी चाहिएँ?
प्रीता : लड़कियों से तो कहूँगी कि अगर वह थियेटर करना चाहती हैं तो करें लेकिन यह समझ कर कि आप जहाँ से आ रही हैं या तो आप ट्रेनिंग हासिल करें उसके लिए। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तो है लेकिन दूसरे शहरों में जैसे भोपाल में, लखनऊ में सरकार के द्वारा चलाए जा रहे नाट्य विद्यालय भी हैं। हो सकता है कि इन स्कूलों में आपको प्रवेश न मिल पाए। तो आप अगर मुंबई आना चाहते हैं तो वहाँ बहुत से लोग हैं जो वर्कशॉप करते हैं और अच्छा वर्कशॉप करते हैं। तो अपने आपको Enroll करिए और ट्रेनिंग हासिल करिए। उसके लिए आपको मुंबई में रहना पड़ेगा। आपको ट्रेनिंग करना जरूरी है। कई लोग आते हैं मुंबई में, स्टूडियो के चक्कर लगाते हैं। प्रोडक्शन हाउस के चक्कर लगाते हैं कि कहीं-न-कहीं काम तो मिल ही जाएगा। और उनको काम मिल भी जाता है। लेकिन क्या यह काम टिकेगा? And you will be taken advantage because you don't have craft. आपको योग्यता नहीं है। आपके पास चेहरा है लेकिन योग्यता नहीं है। योग्यता और चेहरा दोनों होगा तब आप कहोगे कि ऐसे करूँगी, यह मैं करूँगी, यह नहीं करूँगी और आप में न कहने का सामर्थ्य होना चाहिए कि आज जो काम मिल रहा है, वह पता नहीं आगे मिलेगा या नहीं। बहुत सारी लड़कियों को मैंने देखा है आज आपको काम मिल रहा है, आप उसके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। मुझे आगे मिलेगा या नहीं। क्यूँ नहीं मिलेगा? क्यूँकि आप प्रशिक्षित नहीं हो, इसलिए आप असुरक्षित हो। तो आप ट्रेनिंग हासिल करें।
प्रतुल - जैसे अन्य प्रोफेशन में करते हैं।
प्रीता - जैसे किसी अन्य प्रोफेशन में हासिल करते हैं। आपको डाॅक्टर बनना है, आपको इंजीनियर बनना है, आपको एकाउंटेन्ट बनना है तो आपको ट्रेनिंग की जरूरत होती है कि नहीं? पर यहां पर क्या होता है कि आपको बाॅडी और चेहरे की बिना पर जाॅब मिल सकता है, क्योंकि लोगों की जरूरत है। लोगों को नवजवान लोगों की जरूरत है। कोई किसी किरदार जैसा दिखता है, इसलिए जरूरत है। आपको शुरू में जाॅब तो मिल जायेगा। लेकिन आप टिक कैसे पाओगे। और फिर आपका फायदा लिया जायेगा। इसलिए ट्रेनिंग हासिल करना बहुत जरूरी है। फिर ऐसी भी बात है कि सिर्फ एक्टिंग ही करना नहीं है, आप अलग तरीके से डिजायन में, निर्देशन में, प्रोडक्शन में इन सबसे भी तो जुड़ सकते हैं। तो आप किसी प्रोडक्शन हाउस में प्रोडक्शन असिस्टेन्ट बन सकते हो, डायरेक्टशन असिस्टेन्ट बन सकते हो। तो आपको अपने विकल्प खुले रखने चाहिये। यह नहीं कि मुझे सिर्फ एक्टिंग करनी है, मैं और कुछ नहीं करूंगी। आप अपने विकल्प खुले रखो, अवसर आयेंगे।
सम्पर्क
प्रतुल जोशी
मोबाइल : 8736968446
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