विष्णु खरे की कविताएं

 




स्त्रियों को ले कर हमारे समय और समाज के विचार काफी तंग रहे हैं। यह एक विडम्बना ही है कि पुरुष समाज के बीच स्त्रियों को ले कर तमाम कहावतें किस्से उनकी पुरुषवादी सोच के ही परिणाम होते हैं। वे अपनी सोच के अनुसार ही हर स्त्री के बारे में एक बना बनाया सांचा गढ़ते हैं। 'हर शहर में एक बदनाम औरत होती है' विष्णु खरे की ऐसी ही कविता है जिसमें वह इस तरह के पूर्वाग्रहग्रसित पुरुषवादी सोच को बेबाकी से उद्घाटित करते हैं। आज विष्णु खरे का जन्मदिन है। पहली बार की तरफ से उनकी स्मृति को नमन करते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं विष्णु खरे की चुनिंदा कविताएं।



विष्णु खरे की कविताएं




हर शहर में एक बदनाम औरत होती है 


कोई ठीक-ठीक नहीं बता पाता उसके बारे में

वह कुँआरी ही रही आई है

या उसका ब्याह कब और किससे हुआ था

और उसके तथाकथित पति ने उसे

या उसने उसको कब क्यों और कहाँ छोड़ा

और अब वह जिसके साथ रह रही है या नहीं रह रही

वह सही-सही उसका कौन है

यदि उसको संतान हुई तो उन्हें ले कर भी

स्थिति अनिश्चित बनी रहती है


हर शहर में एक बदनाम औरत होती है

नहीं वह उस तरह की बदनाम औरतों में नहीं आती

वरना वह इस तरह उल्लेखनीय न होती

अकसर वह पढ़ी-लिखी प्रगल्भ तथा अपेक्षाकृत खुली हुई होती है

उसका अपना निवास या फ्लैट जैसा कुछ रहता है

वह कोई सरकारी अर्धसरकारी या निजी काम करती होती है

जिसमें ब्यूटी सैलून नृत्य-संगीत स्कूल रेडियो टी वी, एन जी ओ से ले कर

राजनीतिक तक कुछ भी हो सकता है

बताने की ज़रूरत नहीं कि वह पर्याप्त सुंदर या मोहक होती है

या थी लेकिन इतनी अब भी कम वांछनीय नहीं है


जबकि सच तो यह है कि जो वह वाकई होती है उसके लिए

सुंदर या खूबसूरत जैसे शब्द नाकाफ़ी पड़ते हैं

आकर्षक उत्तेजक ऐंद्रिक काम्या

सैक्सी वालप्चुअस मैन-ईटर टाइग्रेस-इन-बेड आदि सारे विशेषण

उसके वास्ते अपर्याप्त सिद्ध होते हैं

अकसर तो उसे ऐसे नामों से पुकारा जाता है

जो सार्वजनिक रूप से लिए भी नहीं जा सकते

लेकिन बेशक वह जादूगरनियों और टोनहियों सरीखी

बल्कि उनसे अधिक मारक और रहस्यमय

किसी अलग औरत-ज़ात कर तरह होती है

उसे देखकर एक साथ सम्मोहन और आतंक पैदा होते है।


वह एक ऐसा वृत्तान्त ऐसी किंवदंती होती है

जिसे एक समूचा शहर गढ़ता और संशोधित-संविर्द्धत करता चलता है

सब आधिकारिक रूप से जानते हैं कि वह किस-किस से लगी थी

या किस-किस को उसने फाँसा था

सबको पता रहता है कि इन दिनों कौन लोग उसे चला रहे हैं

कई तो अगल-बगल देख कर शिनाख़्त तक कर डालते हैं

कि देखो-देखो ये उसे निपटा चुके हैं

उन उनकी उतरन और जूठन है वह

स्वाभाविक है कि यह जानकारियाँ सबसे ज़्यादा और प्रामाणिक

उन दुनियादार अधेड़ों या बुजुर्ग गृहस्थों के पास होती हैं

जो बाक़ी सब युवतियों स्त्रियों को साधिकार बिटिया बहन भाभी कहते हैं

सिर्फ़ शहर की उस बदनाम औरत को उसके नाम से पुकारते हैं

और वह भी मज़बूरन

और उसकी संतान हुई तो कभी उसके मामा नाना या चाचा नहीं बनते


उस बदनाम औरत के विषय में अकसर इतने लोग बातें करते हैं

खुद उससे इतने लोग अकसर बातें करते या करना चाहते हैं

उसके पूर्व या वर्तमान प्रेमियों से इतने लोग इतना जानना चाहते हैं

उसके साथ इतने लोग संयोगवश दिखना चाहते हैं

उसे इतनी जगहों पर उत्कंठा और उम्मीद से बुलाया जाता है

कि यह निष्कर्ष अपरिहार्य है कि उसका वजूद और मौजूदगी

किसी अजीब खला को भरने के लिए दुर्निवार हैं

जो औरतें बदनाम नहीं हैं उनका आकर्षक दुस्वप्न

और उनके उन मर्दों के सपनों का विकार है वह बदनाम औरत

जो अपनी पत्नियों को अपने साथ सोई देख कर

उन्हें और अपने को कोसते हैं

सोचते हैं यहां कभी वह औरत क्यों नहीं हो सकती थी

उसके सफल कहे जाने वाले कथित प्रेमियों के बारे में सोचते हैं

कि ऐसी सस्ती औरत ही स्वीकार कर पाती होगी इतने घटिया लोगों को

फिर सोचते हैं सब झूठ बोलते हैं कमीने शेखीबाज़

ऐसी चालू औरत ऐसों को हाथ तक नहीं रखने देती

आशंका और आश्वस्ति के बीच वे अपनी सोती पत्नियों को देखते

उसके सद्गुणों से द्रवित बाधामुक्त होते हैं


अध्ययन से मालूम पड़ जाएगा

कि शहरों की ये बदनाम औरतें बहुत दूर तक नहीं पहुंच पातीं

निचले और बीच के तबकों के दरमियान ही आवाजाही रहती है इनकी

न उन्हें ज्यादा पैसा मिल पाता है और न कोई बड़ा मर्तबा

वे मंझोले ड्रांइगरूमों औसत पार्टियों समारोहों सफलताओं तक ही

पहुंच पाती हैं क्योंकि उच्चतर हलक़ों में

जिन औरतों की रसाई होती है वे इनसे कहीं ज़हीन और मुहज्जब होती हैं


ऐसी बदनाम औरत को अलग-अलग वक्तों पर

जिनके साथ वाबस्ता बताया जाता है

क्या वाकई वह उनसे प्रेम जैसा कुछ करती थीं और वे उससे?

क्या उन्होंने इससे फ़ायदा उठाया

या वह भी उतने ही नुक़सान में रहीं?

क्या, जैसा कि एक खास रूमानियत के तहत माना जाता है,

उसे किसी आदर्श संबंध की तलाश है?

या कि उसे फितरतन हर छठे महीने एक नया मर्द चाहिए

या वह अपनी बनावट में के उन संवेगों से संचालित है

जिन्हें वह भी नहीं समझती?


कुछ कह नहीं सकते

ऐसी किसी औरत से कभी किसी ने अंतरंग साक्षात्कार नहीं लिए हैं

न उसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया गया है

और स्वयं अपने बारे में उसने अब तक कुछ कहा नहीं है

उसे हंसते तो अकसर सुना गया है

लेकिन रोते हुए कभी नहीं देखा गया


यह तो हो नहीं सकता कि उस बदनाम औरत को

धीरे-धीरे अपनी शक्तियों का पता न चलता हो

और इसका कि लोग उससे कितनी नफ़रत करते हैं

लेकिन कितनी शिद्दत से वे वह सब चाहते हैं

जो वह कथित रूप से कुछ ही को देती आयी है

बदनाम औरत जानती होगी कि वह जहां जाती है

अपने आसपास को स्थाई ही सही लेकिन कितना बदल देती है

कभी-कभी सार्वजनिक या एकांत उसका अपमान होता होगा

शायद वह भी किसी को तिरस्कृत करती हो

फ़ाहशा कहलाने का जोखिम उठा कर

घर और दफ्तर में उसे घिनौने और डारावने फोन आते होंगे

अश्लील चिटि्ठयों की वह आदी हो चुकी होगी

रात में उसके बरामदे के आगे से फिब्तयां कसी जाती होंगी

खिड़कियों के शीशे पत्थरों से टूटते होंगे

यदि वह रिपोर्ट दर्ज़ करवाने जाती भी होगी

तो हर वर्दी वाला उसकी तरफ़ देख कर मुस्कराता होगा


जो औरतें बदनाम नहीं हैं

उनका अपनी इस बदनाम हमज़ात के बारे में क्या सोच है

इसका मर्दों को शायद ही कभी सही पता चले

क्योंकि औरतें मर्दों से अकसर वही कहती हैं

जिसे वे आश्वस्त सुनना चाहते हैं

लेकिन ऐसा लगता है कि औरतें कभी किसी औरत से

उतनी नफ़रत नहीं करतीं जितनी मर्दों से कर सकती हैं

और बेशक उतनी नफ़रत तो वे वैसी बदनाम औरतों से भी कर नहीं सकतीं

जितनी मर्द उससे या सामान्यत: औरतों से कर पाते हैं

अगर हर फुर्सत में एक नई औरत को हासिल करना अधिकांश मर्दों की चरम फंतासी है

तो बदनाम औरत भी यह क्यों न सोचे

कि अलग-अलग या एक ही वक्फ़े में कई मर्दों की सोहबत भी

एक शग़ल एक खेल एक लीला है

और कौन कह सकता है कि उसमें सिर्फ़ वहीं गंवाती है

संभव है कि औरतों में ही इसे लेकर मतभेद हों

लेकिन यदि मर्द औरत का इस्तेमाल कर सकता है

तो बदले में औरत उसका इस्तेमाल क्यों न करे

और आखिरी बात तो यह

कि यदि मर्द को हर दूसरे दिन एक नया जिस्म चाहिए

तो औरत वह बदनाम हो नेकबख़्त

वैसा ही चाहे तो यह उसका हक़ कैसे नहीं?


शहर की ऐसी बदनाम औरत

यदि वाकई भयभीत और शोकार्त होती होगी

तो शायद उस क्षण की कल्पना कर

जब एक दिन वह अपनी संतान का अपमान जानेगी या देखेगी

या उसे अचानक बदला हुआ पाएगी

उसकी आंखों में पढ़ेगी वह उदासी और हिकारत

देखेगी उसका दमकता चेहरा अचानक बुझा हुआ

समझ जाएगी कि उसके बारे में सही और ग़लत सब जान लिया गया है

कोई कैिफ़यत नहीं देगी वह शायद

सिर्फ़ इंतज़ार करेगी कि उसकी अपनी कोख से बना हृदय तो उसे जाने

और यदि वैसा न भी हुआ

तो वह रहम या समझ की भीख नहीं मांगेगी

सबको तज देगी अपने अगम्य अकेलेपन को नहीं तजती

शहर की वह बदनाम औरत


ऐसी औरत के आख्यान खुद उससे कहीं सर्वव्याप्त रहते हैं

वह कब छोड़ कर चली जाती है शहर

और किस वास्ते किसके साथ यह मालूम नहीं पड़ता

फिर भी उसे जहां-तहां एकाकी या युग्म में देखे जाने के दावे किए जाते हैं

ऐसी औरत की देह के

सामान्य या अस्वाभाविक अवसान का कभी कोई समाचार नहीं मिलता

कभी-कभी अचानक किसी नामालूम रेल्वे स्टेशन या रास्ता पार करती भीड़

या दोपहर के सूने बाज़ार में अकेली वह वाकई दिखती है अपनी ही रूह जैसी

उसकी उम्र के बावजूद उसकी बड़ी-बड़ी आंखों उसकी तमकनत से

अब भी एक सिहरन दौड़ जाती है

उसकी निगाहें किसी को पहचानती नहीं लगतीं

और लोगों और चीज़ों के आर-पार कुछ देखती लगती हैं

शायद वह खोजती हो या तसव्वुर करती हो अपने ही उस रूप का

स्वायत्त छूट कर जो न जाने कहां किसमें विलीन हो चुका ले चुका अवतार

शायद उसी या किसी और शहर की अगली बदनाम औरत बन कर!



अंतिम


क्या याद आता होगा मृत्यु के प्रारंभ में

मर्मांतक वेदना की लंबी मौत

या कृतज्ञ बेहोशी में या उससे कुछ पहले—

एक बहुत नन्ही लड़की अंगुलियां पकड़ती हुई

या पास आती हुई दो दमकती आंखें

या बचपन और पुराना घर और धूप-भरी सुबहें और रेलगाड़ी

या बहुत सूनी गर्मियों की उदास दुपहर अथवा

उससे भी बोझिल शाम के एक-दो पेड़ वाले रास्ते

या चीज़ें जो की नहीं गईं या एक घर जो कभी नहीं बना

या दुःख जो दिए गए

या सुख जिन्हें छुआ नहीं गया

और इन सबके होने और न होने की व्यर्थता

यह सब याद आता होगा और एक पक्षी का उड़ना भी

किसी एक अनाम फूल का हवा में हिलना और

मौसमों की संधि-वेला की गंध का स्पर्श और सूर्योदय और सूर्यास्त

और अंधियारे आकार और रहस्यमय रात्रि

और यह करुण एहसास

कि यह सब अंतिम है—एक पूरे होते हुए जीवन को

बचे हुए कुछ भयार्द्र क्षणों की

डूबती हुई स्मृति में जीना



नींद में


कैसे मालूम कि जो नहीं रहा

उसकी मौत नींद में हुई?

कह दिया जाता है

कि वह सोते हुए शांति से चला गया

क्या सबूत है?

क्या कोई था उसके पास उस वक़्त

जो उसकी हर सांस पर नज़र रखे हुए था

कौन कह सकता है कि अपने जाने के उस क्षण

वह जागा हुआ नहीं था

फिर भी उसने आंखें बंद रखना ही बेहतर समझा

अब वह और क्या देखना चाहता था?

उसने सोचा होगा कि किसी को आवाज़ देकर

या कुछ कह कर भी अब क्या होगा?

या उसके आस-पास कोई नहीं था

शायद उसने उठने की फिर कोशिश की

या वह कुछ बोला

उसने कोई नाम लिया

मुझे कभी-कभी ऐसा लगा है

कि जिन्हें नींद में गुज़र जाने वाला बताया जाता है

उसके बाद भी एक कोशिश करते होंगे

उठने की

एक बार और तैयार होने की

लेकिन उसे कोई देख नहीं पाता है

पता नहीं मुझे ऐसा शक क्यों है

कि कम से कम यदि मेरे साथ ऐसा हुआ

तो मैंने वैसी एक आख़िरी कोशिश ज़रूर की होगी

जब सांस रुक जाने के बाद भी

नाख़ून कुछ देर तक बढ़ते रहते हैं

तो वैसा भी क्यों मुमकिन नहीं होता होगा

क्या जो चीज़ें देखी नहीं जातीं

वे होती ही नहीं?

लिहाज़ा मैं सुझाव देना चाहता हूं

कि अगली बार अगर ऐसा कुछ हो

कि कहना पड़े कोई सोते-सोते नहीं रहा

तो यह कहा जाए

कि पता नहीं चला वह कैसे गुज़रा

जब वह नहीं रहा होगा

तब हम सब नींद में थे

क्या मालूम शायद वह ज़्यादा सही हो?



लड़कियों के बाप


वे अक्सर वक़्त के कुछ बाद पहुँचते हैं 

हड़बड़ाए हुए बदहवास पसीने-पसीने 

साइकिल या रिक्शों से 

अपनी बेटियों और उनके टाइपराइटरों के साथ 

क़रीब-क़रीब गिरते हुए उतरते हुए 

जो साइकिल से आते हैं वे गेट से बहुत पहले ही पैदल आते हैं 

उनकी उम्र पचपन से साठ के बीच 

उनकी लड़कियों की उम्र अठारह से पच्चीस के बीच 

और टाइपराइटरों की उम्र उनके लिए दिए गए किराए के अनुपात में 

क्लर्क टाइपिस्ट की जगह के लिए टैस्ट और इंटरव्यू हैं 

सादा घरेलू और बेकार लड़कियों के बाप 

अपनी बच्चियों और टाइपराइटरों के साथ पहुँच रहे हैं 

लड़कियाँ जो हर इम्तहान में किसी तरह पास हो पाई हैं 

दुबली-पतली बड़ी मुश्किल से कोई जवाब दे पाने वालीं 

अँग्रेज़ी को अपने-अपने ढंग से ग़लत बोलने वालीं 

किसी के भी चेहरे पर सुख नहीं 

हर एक के सीने सपाट 

कपड़ों पर दाम और फ़ैशन की चमक नहीं 

धूल से सने हुए दुबले चिड़ियों जैसे साँवले पंजों पर पुरानी चप्पलें 

इम्तहान की जगह तक बड़े टाइपराइटर मैली चादरों में बँधे 

उठा कर ले जाते हैं बाप 

लड़कियाँ अगर दबे स्वर में मदद करने को कहती भी हैं 

तो आज के विशेष दिन और मौक़े पर उपयुक्त प्रेम भरी झिड़की से मना कर देते हैं 

ग्यारह किलो वज़न दूसरी मंज़िल तक पहुँचाते हुए हाँफते हुए 

इम्तहान के हाल में वे ज़्यादा रुकना चाहते हैं 

घबराना नहीं वग़ैरह कहते हुए लेकिन किसी भी जानकारी के लिए चौकन्ने 

जब तक कि कोई चपरासी या बाबू 

तंग आ कर उन्हे झिड़के और बाहर कर दे 

तिस पर भी वे उसे बार-बार हाथ जोड़ते हुए बाहर आते हैं 

पता लगाने की कोशिश करते हुए कि डिक्टेशन कौन देगा 

कौन जाँचेगा पर्चों को 

फिर कौन बैठेगा इंटरव्यू में 

बड़े बाबुओं और अफ़सरों के पूरे नाम और पते पूछते हुए 

कौन जानता है कोई बिरादरी का निकल आए 

या दूर की ही जान-पहचान का 

या अपने शहर या मुहल्ले का 

उन्हें मालूम है ये चीज़ें कैसे होती हैं 

मुमकिन है कि वे चाय पीने जाते हुए मुलाज़िमों के साथ हो लें 

पैसे चुकाने का मौक़ा ढूँढ़ते हुए 

अपनी बच्ची के लिए चाय और कोई खाने की चीज़ की तलाश के बहाने 

उनके आधे अश्लील इशारों सुझावों और मज़ाक़ों को 

सुना-अनसुना करते हुए नासमझ दोस्ताने में हँसते हुए 

इस दफ़्तर में लगे हुए या मुल्क के बाहर बसे हुए 

अपने बड़े रिश्तेदारों का ज़िक्र करते हुए 

वे हर अंदर आने वाली लड़की से वादा लेंगे 

कि वह लौट कर अपनी सब बहनों को बताएगी कि क्या पूछते हैं 

और उसके बाहर आने पर उसे घेर लेंगे 

और उसकी उदासी से थोड़े ख़ुश और थोड़े दुखी हो कर उसे ढाढ़स बँधाएँगे 

अपनी-अपनी चुप और पसीने-पसीने निकलती लड़की को 

उसकी अस्थायी सहेलियों और उनके पिताओं के सवालों के बाद 

कुछ दूर ले जा कर तसल्ली देंगे 

तू फिकर मत कर बेटा बहुत मेहनत की है तूने इस बार 

भगवान करेगा तो तेरा ही हो जाएगा वग़ैरह कहते हुए 

और लड़कियाँ सिर नीचा किए हुए उनसे कहती हुईं पापा अब चलो 

लेकिन आख़िरी लड़की के निकल जाने तक 

और उसके बाद भी 

जब इंटरव्यू लेने वाले अफ़सर अँग्रेज़ी में मज़ाक़ करते हुए 

बाथरूम से लौट कर अपने अपने कमरों में जा चुके होते हैं 

तब तक वे खड़े रहते हैं 

जैसा भी होगा रिज़ल्ट बाद में घर भिजवा दिया जाएगा 

बता दिए जाने के बावजूद 

किसी ऐसे आदमी की उम्मीद करते हुए जो सिर्फ़ एक इशारा ही दे दे 

ऑफ़िस फिर ऑफ़िस की तरह काम करने लगता है 

फिर भी यक़ीन न करते हुए मुड़-मुड़ कर पीछे देखते हुए वे उतरते हैं भारी टाइपराइटर और मन के साथ जो आए थे रिक्शों पर वे जाते हैं दूर तक 


फिर से रिक्शे की तलाश में 

बीच-बीच में चादर में बँधे टाइपराइटर को फ़ुटपाथ पर रख कर सुस्ताते हुए 

ड्योढ़ा किराया माँगते हुए रिक्शे वाले और ज़माने के अँधेर पर बड़बड़ाते हुए 

फिर अपनी लड़की का मुँह देख कर चुप होते हुए 

जिनकी साइकिलें दफ़्तर के स्टैंड पर हैं 

वे बाँधते हैं टाइपराइटर कैरियर पर 

स्टैंड।वाला देर तक देखता रहता है नीची निगाह वाली लड़की को 

जो पिता के साथ ठंडे पानी की मशीन वाले से पाँच पैसा गिलास पानी पीती है 

और इमारत के अहाते से बाहर बैठती है साइकिल पर सामने 

दूर से वह अपने बाप की गोद में बैठी जाती हुई लगती है



विलोम


कहना मुश्किल है

कि हर वह व्यक्ति

जिसके लिए शोक-सभा की जाती है

उस शोक का हक़दार होता है भी या नहीं

जो शोक उसके लिए मनाया जाता है वह सच्चा होता है या नहीं

और जो उसके लिए शोक मना रहे होते हैं उसमें से कितने वाक़ई शोकार्त होते हैं

और कितने महज़ राहत महसूस करते हुए दुनियादार

बहरहाल, जैसी भी रही हो उस एक ज़िंदगी को डेढ़-दो घंटों में निपटा देने के बाद

दो मिनट का वह वक़्फ़ा आता है जब मौन रखा जाना होता है

मैनें अक्सर देखा है यह एक सौ बीस सेकंड

हर सिर नीचा किए या शून्य में देखते खड़े हुए शोकार्त पर भारी पड़ते हैं

लगता है तभी उनकी आत्मा का साक्षात्कार होता है दिवंगत और मृत्यु से

अपने भीतर की ख़ला से

तुम नहीं जानते थे कि मौत इतने लोगों को तबाह कर सकती है

वे कनखियों से देखते हैं कलाई या दीवाल-घड़ियों को या आस-पास खड़े अपने जैसे लोगों को

या मंच पर खड़े खुर्राट पेशेवर शोकार्तों को

कि वे अपने शरीर की किसी भंगिमा से संकेत दें और अंततः सभा समाप्त हो

जबकि यह दो मिनट का मौन

उन्होंने मृतक के पूरे जीवन भर उसके कहे-किए पर रखा होता है

और अब जब कि वह नहीं रहा

तो सुविधापूर्वक बचे-खुचे इनके जीवनपर्यंत रखा जाएगा

मेरे साथ यह विचित्र है

कि अगर किसी शोक-सभा में जाता भी हूं

तो मंच पर और मेरे आस-पास आसीनों को देखते हुए उन पर

और उनके बीच बैठे ख़ुद पर और दिवंगत आत्मा पर बल्कि सारे ज़माने पर

लगातार खिलखिलाने या कुछ अभद्र कहने की असभ्य इच्छा होती रहती है

जिसे अपने निजी जीवन की चुनिंदा त्रासदियों को सायास याद करके ही दबा पाता हूं

मेरा शोक-प्रस्ताव यह होता है कि

बहुत रख चुके

अब हम इस इंसान की स्मृति में एक सेकंड का भी मौन नहीं

बल्कि चुप्पी के सारे विलोम रखें और वह भी महज़ दो मिनट के लिए और यहीं नहीं

यानी आवाज़ बात बहस ध्वनि कोलाहल शोरगुल रव गुहार आव्हान तुमुलनाद बलवा बगावत चारसू



एक कम


1947 के बाद से

इतने लोगों को इतने तरीक़ों से

आत्‍मनिर्भर, मालामाल और गतिशील होते देखा है

कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है

पच्‍चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए

तो जान लेता हूं

मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्‍चा खड़ा है

मानता हुआ कि हां मैं लाचार हूं कंगाल या कोढ़ी

या मैं भला-चंगा हूं और कामचोर और

एक मामूली धोखेबाज़

लेकिन पूरी तरह तुम्‍हारे संकोच, लज्‍जा, परेशानी

या ग़ुस्से पर आश्रित

तुम्‍हारे सामने बिल्कुल नंगा, निर्लज्‍ज और निराकांक्षी

मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से

मैं तुम्‍हारा विरोधी, प्रतिद्वंद्वी या हिस्‍सेदार नहीं

मुझे कुछ देकर या न दे कर भी तुम

कम से कम एक आदमी से तो निश्चिंत रह सकते हो


(रघुवीर सहाय पता नहीं क्यों इस कविता को साग्रह सुनते थे, इसलिए उन्हीं की स्मृति को समर्पित)



निवेदन


डॉक्टरों मुझे और सब सलाह दो

सिर्फ़ यह न कहो कि अपने हार्ट का ख़याल रखें और

ग़ुस्सा न किया करें आप—

क्योंकि ग़ुस्से के कारण आई मृत्यु मुझे स्वीकार्य है

ग़ुस्सा न करने की मौत के बजाय

बुजुर्गो यह न बताओ मुझे

कि मेरी उम्र बढ़ रही है और मैं एक शरीफ़ आदमी हूं

इसलिए अपने ग़ुस्से पर क़ाबू पाऊं

क्योंकि जीवन की उस शाइस्ता सार्थकता का अब मैं क्या करूंगा

जो अपने क्रोध पर विजय प्राप्त कर एक पीढ़ी पहले

आपने हासिल कर ली थी

ग्रंथों मुझे अब प्रवचन न दो

कि मनुष्य को क्रोध नहीं करना चाहिए

न गिनाओ मेरे सामने वे पातक और नरक

जिन्हें क्रोधी आदमी अर्जित करता है

क्योंकि इहलोक में जो कुछ नारकीय और पापिष्ठ है

वह कम से कम सिर्फ़ ग़ुस्सैल लोगों ने तो नहीं रचा है

ठंडे दिल और दिमाग़ से यह मुझे दिख चुका है

ताक़तवर लोगों मुझे शालीन और संयत भाषा में

परामर्श न दो कि ग़ुस्सा न करो

क्योंकि उससे मेरा ही नुक़सान होगा

मैं तुम्हारे धीरोदात्त उपदेश में लिपटी चेतावनी सुन रहा हूं

लेकिन सब कुछ चले जाने के बाद

यही एक चीज़ अपनी बचने दी गई है

डॉक्टर तो सदाशय हैं भले-बुरे से ऊपर

लेकिन बुजुर्गो ग्रंथो ताक़तवर लोगो

मैं जानता हूं

आप एक शख़्स के ग़ुस्से से उतने चिंतित नहीं हैं

आपके सामने एक अंदेशा है सच्चा या झूठा

चंद लोगों के एक साथ मिल कर ग़ुस्सा होने का



कोशिश

(जगदीश स्वामीनाथन के लिए)


शाम को ख़ुश लौटती हुई चिड़ियों से

मैं पूछना चाहता हूं एक अशुभ सवाल

कि आख़िर वे मरने के लिए कहां जाती हैं

लेकिन वे मेरी तरफ़ उसी तरह देखती या न देखती गुज़र जाती हैं

जिस तरह पार्क की ठंडी बैंच पर बैठे हुए

ख़ाली निगाह वाले बूढ़े के पास से

स्कूल से लौटती हुई लड़कियां चली जाती हैं

चिड़ियों की मृत्यु मेरे लिए एक रहस्य है

और यहां मेरा अर्थ पिंजरों में लटकाए गए पक्षियों की मौत से नहीं है

जिनके पंजों से तीलियों को छुड़ाना कठिन हो जाता है—

और अचानक उड़ान में बिजली के तारों

या मोटर के पहियों में फंस गए कौओं के शरीर से भी

मैं उसे समझने की कोशिश नहीं करूंगा

क्योंकि आदमियों और आदमियों की चीज़ों के संपर्क से

आई हुई चिड़ियों की मृत्यु मेरा विषय नहीं है

नहीं मैं देखना चाहता हूं चिड़िया को उस क्षण में

जब वह आख़िरी उड़ान के पहले

अपने आप निश्चित करती है कि यह उसकी आख़िरी उड़ान है

और बिल्कुल पहले की ही तरह

उठ जाती है घड़ियों और नक़्शों के बाहर

उस जगह के लिए जहां एक असंभव वृक्ष पर बैठकर चुप होते हुए

उसे एक अदृश्य चिड़िया बन जाना है


देखना ही चाहता हूं

क्योंकि न मैं चिड़ियों का संकल्प पा सकता हूं और न उड़ान

मैं सिर्फ़ अपनी मृत्यु में उनकी कोशिश करना चाहता हूं



उसी तरह


कुछ ऐसा है

कि मैं अकेली औरतों और अकेले बच्चों को

ज़मीन पर बैठे खाना खाते नहीं देख सकता

पता नहीं क्यों मैं एक अनाम उदासी

और दुःख से घिर जाता हूं

जबकि वे चुपचाप निवाले तोड़ते हुए या कौर बनाते

सारी दुनिया की तरफ़ पीठ किए हुए

एक अनाम दिशा में तकते जाने क्या सोचते अपना पेट भरते हैं

कभी-कभी एक आदिम लम्हे के लिए अचानक अपने आस-पास देख लेते हुए

मैं इतना चाहता हूं कि वे मुझे अपने पास इतनी दूरी पर इस तरह बैठने दें

जहां से वे मेरे चेहरे पर देख सकें कि मैं अपने मन में उनसे कह रहा हूं

खाओ खाओ कोई बात नहीं

लेकिन मुझे मालूम है कि ऐसी किसी भी हरकत से

शांति से खाने की उनकी एकांत लय में विघ्न पड़ेगा

और वे आधे पेट ही उठ जाएंगे

इसलिए मैं ख़ुद को इसी भरम से बहला कर चला आता हूं

कि जहां ऐसी अकेली औरतें ऐसे अकेले बच्चे अपनी उस जून की कठिन रोटी खा रहे होते हैं

वहां एक वाजिब दूरी पर जो कुत्ते बैठे हुए हैं किसी ख़ुश उम्मीद में बेहद हौले अपनी पूंछ हिलाते हुए

उनमें मैं भी शामिल हूं अपनी वह बात कुछ उसी तरह कह सकने के लिए


डरो


(12 जुलाई 1976)


कहो तो डरो कि हाय यह क्यों कह दिया

न कहो तो डरो कि पूछेंगे चुप क्यों हो

सुनो तो डरो कि अपना कान क्यों दिया

न सुनो तो डरो कि सुनना लाज़िमी तो नहीं था

देखो तो डरो कि एक दिन तुम पर भी यह न हो

न देखो तो डरो कि गवाही में बयान क्या दोगे

सोचो तो डरो कि वह चेहरे पर न झलक आया हो

न सोचो तो डरो कि सोचने को कुछ दे न दें

पढ़ो तो डरो कि पीछे से झांकने वाला कौन है

न पढ़ो तो डरो कि तलाशेंगे क्या पढ़ते हो

लिखो तो डरो कि उसके कई मतलब लग सकते हैं

न लिखो तो डरो कि नई इबारत सिखाई जाएगी

डरो तो डरो कि कहेंगे डर किस बात का है

न डरो तो डरो कि हुकुम होगा कि डर



स्वीकार


आप जो सोच रहे हैं वही सही है

मैं जो सोचना चाहता हूं वह ग़लत है

सामने से आपका सर्वसम्मत व्यवस्थाएं देना सही है

पिछली क़तारों में जो मेरी छिछोरी 'क्यों' है वह ग़लत है

मेरी वजह से आपको असुविधा है यह सही है

हर खेल बिगाड़ने की मेरी ग़ैरज़िम्मेदार हरकत ग़लत है

अंधियारी गोलमेज़ के सामने मुझे पेश किया जाना सही है

रोशनी में चेहरे देखने की मेरी दरख़्वास्त ग़लत है

आपने जो सज़ा तज़वीज़ की है सही है

मेरा यह इक़बाल भी चूंकि चालाकी भरा है ग़लत है

आपने जो किया है वह मानवीय प्रबंध सही है

दीवार की ओर पीठ करने का मेरा ही तरीक़ा ग़लत है

उन्हें इशारे के पहले मेरी एक ख़्वाहिश की मंजूरी सही है

मैंने जो इस वक़्त भी हंस लेना चाहा है ग़लत है



विकल्प


कहीं भी चले जाएँ किन्हीं भी कल्पनातीत यात्राओं पर

लौटें हमेशा इसी घर में

जो इन्हीं चराचर के साथ रहने का है

बल्कि जाएँ तो इसलिए कि यहीं आना है

नहीं तो यूँ कि कुछ भी पीछे न छूटे

इस तमाम होने को जितना संभव हो किसी तरह बचा पाना

हासिल कर पाना कुछ उनके लिए उन्हीं के साथ

जिन्हें उसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत है

यही हो अतीतमोह 

सब कुछ के लिए व्यथा में बदले

आत्मदया

और यदि सभी विकल्प व्यर्थ हो जाएँ

तो सारे मत्सर के विरुद्ध

एक आवाज़ या एक चुप्पी बने

विवश अनंत द्वंद्व की निर्मम शुरुआत


***

टिप्पणियाँ

  1. विष्णु जी के कविताओं का चुनाव बहुत अच्छा हैं. उनकी कविताएं एक पाठ में नहीं समझ में नहीं आती. बार बार पढ़ने पर उसके अर्थ खुलते हैं. उनकी कविताओं में गहरी करूणा हैं

    स्वप्निल श्रीवास्तव

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