अनिल कुमार सिंह की कविताएं

 

अनिल कुमार सिंह 



मुहावरे गहन अनुभवों से निःसृत होते हैं। ये अनुभव खास के नहीं बल्कि आम जन के होते हैं इसीलिए एक बड़े समुदाय से शीघ्र ही जुड़ जाते हैं। फिर इनका जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता है। तूती की आवाज ऐसा ही मुहावरा है जो उस जन के लिए इस्तेमाल किया गया जिसकी समाज में सामान्य सी हैसियत होती है। इस सामान्य को अक्सर ही दबा दिया जाता है। विशिष्ट अपनी ऊंची आवाज में हर जगह नजर आते हैं। वे ऐसे काम करते भी नजर आते हैं जो उनकी दिनचर्या में शामिल नहीं होता। लेकिन कवि की संवेदना तो उस आम जन से ही जुड़ती है जो प्रताड़ित होने के लिए अभिशप्त ही होता है। वह तूती की आवाज को भी रेखांकित करने का दम रखता है। अनिल कुमार सिंह ने एक समय में उम्दा कविताएं लिखीं। पहला उपदेश नामक उनका संग्रह भी आया। लेकिन यह कवि अपनी काव्य यात्रा इसलिए आगे नहीं बढ़ा पाया क्योंकि वह इस बात से परेशान था कि शब्द किताबों में दब कर रह जाते हैं। असल काम तो हमें समाज में जा कर ही करना होगा। आज जन्मदिन के मौके पर पहली बार की तरफ से अनिल को जन्मदिन की बधाई एवम शुभकामनाएं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अनिल कुमार सिंह की कविताएं।



अनिल कुमार सिंह की कविताएं



पुरानी शर्म


मैं चाहता हूँ कि भूल जाएँ लोग मुझे 

सुखद आकांक्षा की तरह 

नहीं आऊँ उनकी स्मृति में 

और मिटा डालें वे अपनी 

चेतना की स्लेट से मेरे 

कर्मों-दुष्कर्मों का लेखा-जोखा 

चाट जाएँ दीमक मेरे पार्थिव यश 

जिन्हें मैंने नहीं इकट्ठा किया 

मैं चाहता हूँ कि भूल जाऊँ ख़ुद को ही 

कि शायद इसी तरह झुठला सकूँ 

विरासत में मिली 

हज़ारों साल पुरानी शर्म। 



शोक-प्रस्ताव की तरह एक कविता

(लाल जी के लिए)


तुम्हारी माँ की आँखों में थरथराते ये आँसू

सिर्फ़ तुम्हारे लिए नहीं


हज़ारों माँओं का दुख है उनमें

हज़ारों कलेजे के टुकड़ों के लिए

जो पिसते जाते हैं

दिन-ब-दिन

सुख-सुविधा की अंधी दौड़ में


तुम्हारे लिए मौत ने सिर्फ़

पच्चीस साल इंतज़ार किया

तुम्हारे पिता को उसने पैंतीस वर्ष दिए थे


तुम्हारा मरना सामान्य नहीं

इतना मैं जानता हूँ


मैं जो कि याद करता हूँ तुम्हें

अपने साथ खेलते हुए

स्कूल में और पेश करता हूँ

शोक-प्रस्ताव की तरह एक कविता


भूख से ऐंठती आँतों का अनुभव

नहीं है मुझे और चाँद तो अभी भी

प्यारा लगता है

पूस की रातों में उसकी

शीतलता ने मेरा कलेजा नहीं

दहलाया कभी


खेतों में काम किया है मैंने भी

पर तुम्हारी तरह पराए खेतों में नहीं


तुम जो कि मिट्टी में मिल गए हो अब

ज़मीन के एक टुकड़े के लिए तरसते रहे

अपने बाप की तरह ता-उम्र


तुम जो कि लुहारी करते थे और

औज़ार बनाते थे ज़मीन

जुताई करने वाले

अब मिट्टी में मिल गए हो


ज़िंदगी का ऊसर नहीं तोड़ पाए तुम


पृथ्वी तुम्हारे लिए झूठी नहीं थी

तुम उसी में पैदा हुए थे और

बढ़े थे मौत की गलबहियाँ थामे


मृत्यु नियति नहीं थी 

तुम्हारे तईं वह सच्चाई थी

छाती में गड़ी कील की तरह जिसे

उखाड़ कर फेंक देने का सपना

तुमने पाला था


तुम जो कि मिट्टी में मिल गए हो अब।





अभी शाम होना बाक़ी है


पश्चिम के आसमान का सोना पिघल रहा है 

अप्रैल की इस चटख शाम में 

धूप अपने आँचल को समेटती 

पूरब की ओर जा रही है 

एक विस्तृत छाया है जो 

अपने आगोश में लिए जा रही है सब कुछ 

यहाँ से वहाँ तक 

अभी शाम होना बाक़ी है 

अभी पृथ्वी का अंधकार में डूबना बाक़ी है 

अभी अखिल का आँख खोलना बाक़ी है। 



तूती की आवाज


नकार का ठंडा 

प्रलाप हो या 

नक़्क़ारख़ाने का गर्मागर्म शोर 

दबा ही दी जाती है 

आवाज़ तूती की! 



लय


एक लोमड़ी चौकन्नी है 

एक बिल्ली रास्ता नहीं काटती 

एक कुत्ता ख़ूब रोता है 

लेकिन सबसे ज़्यादा उड़ती हैं तितलियाँ 

और इन सबमें एक लय है 

जिसमें मैं रहता हूँ।






पहाड़ पर जाना


अपनी बस्ती से गुज़रते हुए 

मुझे याद आया कि 

पहले मैं पहाड़ों पर जाना चाहता था 

‘पहाड़ पर जाना' महज़ एक वाक्य नहीं 

एक झूला था 

जो मुझे घंटों झुलाता था 

पहाड़, घाटियाँ और परिंदे 

सिर्फ़ संज्ञाएँ नहीं हैं 

आप एक बार ज़ोर से चिल्लाइए—पहाड़ 

आपके अंदर से प्रतिध्वनियाँ आएँगी— 

पहाड़... पहाड़... पहाड़! 

कुछ चीज़ें ज़िंदगी में ऐसी ही होती हैं 

जिनके बारे में 

फ़िलहाल सोचा ही जा सकता है।



मेरा कवि


धूप, हवा और पानी से दूर 

खिड़कीविहीन दफ़्न हूँ मैं 

अपनी इस कोठरी में 


मकड़ियों ने जाले बुन दिए हैं 

मेरी पलकों पर 

समय के खुरदुरे हाथों से दूर 

फिर भी नज़दीक ही कहीं 

जम रहा हूँ मैं अपने माथे 

कंधों और गर्दन से झाड़ता हुआ 

भुरभुरी मिट्टी की परतें 


बंद आँखों में उभरता है 

अँधेरे का गुंबद धीरे-धीरे 


हवा है अवसन्न 

दीवारों से टकरा कर लौटती हुई 

बासी गंध 

चूहों, झींगुरों और मच्छरों की 

भिनभिनाहट के बीच सड़े 

पसीने की तीखी दुर्गंध 


यह कबीर की दुनिया 

नहीं है और न ही ख़ाला का घर 

यह मेरी अपनी दुनिया है जिससे 

बाहर है मेरा कवि 


धूप, हवा और पानी से दूर 

खिड़कीविहीन दफ़्न हूँ मैं 

अपनी इस कोठरी में।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)




सम्पर्क


मोबाइल : 8188813088


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