शिवदयाल का आलेख 'भारतीय परम्परा, राष्ट्रवाद और लोकतंत्र'

 

शिव दयाल



भारतीय परम्परा की वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा काफी पुरातन है। इस अवधारणा के समानांतर ही यह एक सुस्थापित तथ्य है कि राष्ट्रवाद की विचाराधारा भी पनप रही थी। विष्णु पुराण (2.3.1) में कहा गया है

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।

वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।।

अर्थात समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो देश है उसे भारत कहते हैं तथा उसकी संतानों (नागरिकों) को भारती कहते हैं। हालांकि राजनीतिक रूप से यह कभी सम्भव नहीं हुआ। अंग्रेजों के आने के बाद ही भारतीय राष्ट्रवाद की भावना धरातल पर आती है। जाने अंजाने अंग्रेजों के विकास कार्यों ने इस अवधारणा को सम्भव कर दिखाया था। धीरे धीरे अंग्रेजों खिलाफ भारतीय जन मानस उद्वेलित हुआ और अंग्रेजों का प्रतिरोध उत्तर से दक्षिण तक शुरू हो गया। गांधी जी की राष्ट्रवाद की विचारधारा उन प्राचीन प्रतिमानों पर टिकी थी जो आदर्श रूप में हिन्दू धर्मग्रंथों में वर्णित हैं। शिवदयाल ने कुछ इन्हीं बिंदुओं के सहारे राष्ट्रवाद की अवधारणा की तार्किक पड़ताल की है। आज गांधी जयंती के अवसर पर हम गांधी जी की स्मृति को नमन करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शिवदयाल का आलेख 'भारतीय परम्परा, राष्ट्रवाद और लोकतंत्र'।



'भारतीय परम्परा, राष्ट्रवाद और लोकतंत्र'

                   

शिवदयाल 


राष्ट्रवाद की हमारी अवधारणा प्रायः राजनीति संदर्भों में ही बनी है, वह भी उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध एवं बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में जबकि हम राजनीतिक रूप से परतंत्र थे। परतंत्र भी ऐसी सत्ता के जिसकी मूलभूमि महासागरों के पार थी। हम उस राष्ट्र द्वारा शासित थे जिसके राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति मूलतः आक्रामक और राजनीतिक थी। यह राष्ट्रवाद ऐसे स्थान से जन्मा था जहाँ प्रकृति कठोर थी, संसाधन सीमित या अपर्याप्त थे। इन्हीं प्रतिकूलताओं में आपस में लड़ते-जूझते, छीनाझपटी करते नस्ली आधार पर जहाँ राष्ट्रीयताएँ विकसित हुईं जो आक्रामक एवं आत्मकेन्द्रित थीं। आगे चल कर यही राष्ट्रीयताएँ राष्ट्र-राज्यों के रूप में अवतरित हुईं और इन्हीं से आधुनिक यूरोप का निर्माण हुआ है।


अपने यहाँ जब भी हम राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद की चर्चा करते हैं, हमारा पैमाना यही यूरोपीय राष्ट्रीयताएँ व राष्ट्रवाद होता है। इन्हीं से तुलना कर हम अपने भारतीय राष्ट्रवाद को कमजोर व कमतर सिद्ध करने की कोशिश करते हैं, क्योंकि हममें न वह ‘नस्ली’ एकबद्धता है न आक्रामकता, न ही आत्मगौरव जो जर्मनों, अंग्रेजों, रोमनों, डचों या यूनानियों में है। वैसे भी यूरोपीय देशों का राष्ट्रवाद विजेता देशों का राष्ट्रवाद है जो हमें कुचल कर खड़े हुए हैं।





और हाँ, राष्ट्रीयता के इसी यूरोपीय पैमाने पर भारत को ‘अनेक राष्ट्रीयताओं का देश’ मानने का आग्रह एक राजनीतिक जमात में बना रहा, बल्कि आज तक है। और इसी आधार पर ‘अनेक राष्ट्रीयताओं वाले देश’ में धर्म को भी राष्ट्रीयता का आधार बना कर दो बड़े, परस्पर विरोधी राष्ट्रों की सैद्धान्तिकी गढ़ी गयी- हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र। इन दो बड़ी ‘पहचानों’ के अंदर बाकी सभी तथाकथित राष्ट्रीयताएँ विलीन हो गयीं और धार्मिक राष्ट्रीयता के आधार पर दो ‘राष्ट्र-राज्य’ बन गए- भारत और पाकिस्तान। भारत ने धर्म को राष्ट्रीयता का आधार नहीं माना और ‘द्विराष्ट्रवाद’ के सिद्धांत को कभी स्वीकार नहीं किया लेकिन पाकिस्तान की संकल्पना में विलीन अनेक राष्ट्रीयताओं में एक बंगाली (भाषाई) राष्ट्रीयता खड़ी हो गयी और एक और राष्ट्र-राज्य ‘बांग्लादेश’ अस्तित्व में आया। यानी मात्रा चौबीस वर्षों के अंदर उपमहाद्वीप में दूसरा राजनीतिक विभाजन हुआ। एक विचित्र विडंबना यह कि ढाका में ही 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई जिसकी विभाजनकारी राजनीति भारत-विभाजन का प्रमुख कारण बनी और पाकिस्तान अस्तित्व में आया। यहाँ तक कि ‘सीधी कार्रवाई’ भी बंगाल में ही शुरू की गयी थी, सिंध, पंजाब या पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत में नहीं। फिर मात्र चौबीस सालों में धार्मिक राष्ट्रीयता पर भाषाई राष्ट्रीयता आखिर क्यों और किस प्रकार इतनी भारी पड़ गयी कि एक और संप्रभु देश का ही जन्म हो गया। एक परिकल्पना है, हाइपोथीसिस कि मान लीजिए बांग्लाभाषियों की एक बड़ी आबादी अगर पश्चिमी पाकिस्तान में भी होती, तब भी क्या बांग्लादेश संभव था या होता? इन पंक्तियों के लेखक को यह लगता है कि बांग्लादेश के निर्माण में ‘मातृभूमि’ की बहुत बड़ी भूमिका थी। पूर्वी पाकिस्तानियों के पास बांग्ला भाषा तो थी, बंग भूमि भी थी- राष्ट्र का यह प्रमुख घटक तत्व, उसका मूलाधार। बंगाली कहीं और जा कर बांग्लादेश का निर्माण नहीं कर सकते थे, बंगाली मुसलमान रहते हुए भी उन्होंने अपनी ही धरती पर पाकिस्तान बनाया था। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश, दिल्ली, बिहार और पंजाब से उत्प्रवास कर मुसलमानों ने पाकिस्तान बनाया। उनमें से अधिकांश ‘मुहाजिर’ ही बने रहे, उन्हें नया देश तो मिला लेकिन मातृभूमि की कीमत पर। पंजाब, सिंध, पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत और बंगाल से भी हिन्दू विभाजित भारत में आए तो, लेकिन उनका देश नहीं बदला। जिस भूमि को वे मातृभूमि मानते थे, उस मातृभूमि का बोध अखंड रहा। उनका उत्प्रवास देश छोड़ने जैसा नहीं था, अपनी मूल भूमि खोने और भयानक ज्यादतियों के बावजूद वे उन्होंने अपनो देश नहीं खोया।




पाकिस्तान में आज राष्ट्रीयता का संकट ज्यादा गहरा है। वहाँ जो राजनीतिक प्रणाली बनी वह विभिन्न राष्ट्रीयताओं को एक पाकिस्तानी राष्ट्रीयता में सूत्रबद्ध न कर सकी। जिस इस्लाम का हवाला दे कर वह कश्मीर पर दावा करता है, वही इस्लाम सिंधी, बलोची, पख्तून आदि क्षेत्रीय राष्ट्रीयताओं को अपनी छतरी के नीचे नहीं ला सका है। इन इलाकों में पाकिस्तान राष्ट्र स्वाभाविक रूप में मातृभूमि का भी बोध नहीं कराता जबकि इन राज्यों में दमन सहित वे सभी कारक मौजूद हैं जो बांग्लादेश के निर्माण में निर्णायक सिद्ध हुए।


वास्तविकता यह है कि भारतीय परम्परा में राष्ट्र का विचार सभ्यता के आरंभिक काल से ही चला आ रहा है। लेकिन इसका आधार नस्ल या जाति नहीं, यानी रक्त की समानता नहीं, बल्कि इसके तीन आधारभूत मान्य तत्व हैं- 

भूमि, बिना भूमि के राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती; 

जन, भूमि पर रहने-बसने वाले, उसके संसाधनों का साझा उपयोग करने वाले मानव-समूह; तथा 

संस्कृति, इस जन, इन मानव-समूहों का आचार-विचार, आस्था-विश्वास, रहन-सहन, अथवा जीवन शैली जो लंबे समय में साथ-साथ रहते विकसित होती है। 


यह जो जन है वह एक ही नृ-समूह समूह हो, यह जरूरी नहीं। अनेक नृ-समूह, जातियाँ व नस्लें एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में मिल-जुल कर एक संस्कृति का निर्माण करती हैं, एक साझा जीवन-दृष्टि विकसित करती हैं, तब एक राष्ट्र का निर्माण होता है। जिस भूमि पर यह राष्ट्र खड़ा होता है वह वंदनीय मातृभूमि है, सबसे पावन तीर्थ है क्योंकि यह साकार ब्रह्म है। मनुष्य-जीवन की उपलब्धि यहीं जन्म ले कर इस दुनिया को देखना-समझना है, जो कुछ उपलब्ध है उसे भोगना है और अंततः इसी मिट्टी का हिस्सा बन जाना है।


राष्ट्र की इस अवधारणा में साक्षात प्रकृति है, उसके उपादान हैं और मानव जीवन है और इनके मेल से बनी और विकसित वह संस्कृति है जो प्रकृति को द्रोह-भाव से नहीं देखती, अनुग्रह-भाव से देखती है, क्योंकि प्रकृति यहाँ कृपण नहीं कृपालु है। इससे कोई प्रतिद्वन्द्विता नहीं, छीना-झपटी नहीं, आधिपत्य की आक्रामकता नहीं। भूमि चूँकि मातृभूमि है तो बसने वाले सभी इसकी संतानें हैं और सहोदर हैं। यहाँ सह-अस्तित्व नहीं, साझा अस्तित्व है। सह-अस्तित्व में एक प्रकार का दबाव है, मजबूरी है, अधिकार का दावा है, प्रत्याशा भी। साझा-अस्तित्व में कर्त्तव्यबोध है, त्याग है, समवेदना और आकुलता है। परिवार में सह-अस्तित्व नहीं होता, साझा अस्तित्व होता है। इसी नैतिक बोध पर अवलंबित जीवन-दृष्टि से भारतीय परम्परा भी विकसित हुई। राष्ट्रवाद, परम्परा, मूल्य-विधान, और धर्म- ये सभी एक ही समुच्चय का निर्माण करते हैं, या उसके अंग हैं जिसे भारतीय संस्कृति कह सकते हैं। ये अंग स्वायत्त हो सकते हैं, स्वतंत्र नहीं। क्योंकि एक के बिना दूसरे का होना कोई अर्थ नहीं रखता।


ध्यान से देखें तो मानव-समूहों का ऐसा ही साहचर्य और नैतिक बोध लोकतंत्र का आधार है। केवल संयोग नहीं कि प्रजातंत्र हमारे लिए उतनी ही प्राचीन अवधारणा है जितनी कि राजतंत्र। भले ही प्रणाली के रूप में प्रजातंत्र हमारे यहाँ कालांतर में विलुप्त हो गए हों लेकिन ऊपरी ढाँंचे में राजा के लिए धर्मानुकूल आचरण एवं प्रजावत्सलता का मूल्य तथा निचले स्तर पर स्वायत्त पंचायतों की आज तक चली आ रही व्यवस्था प्रजातांत्रिक चेतना का प्रमाण है।


राष्ट्रवाद में यदि एक राजनीतिक इकाई की अनिवार्यता को मानेंगे, जैसा कि माना जाता रहा ही है, तो यही निष्पत्ति निकलेगी कि भारत एक राष्ट्र नहीं रहा। उसे एक संपूर्ण राजनीतिक इकाई का स्वरूप तो उपनिवेश काल में मिला, वह भी ब्रिटिश राजसत्ता के सीधे अधिकार में आने के बाद। यही वह दौर था जब यूरोप में राष्ट्र-राज्यों का उदय हो रहा था। नस्ली पहचानें राष्ट्रीयता का आधार बन रही थीं। इसी दौर में जापान का एक सशक्त राष्ट्र के रूप में उदय हुआ- राष्ट्रवाद के उफान ने मात्र पचास सालों में उसे एक मजबूत राष्ट्र बना दिया- एशिया की पहली महाशक्ति। राष्ट्रवादी चेतना और देशभावना दमित समाजों के लिए मुक्ति-पथ तैयार कर रही थी। जर्मनी का एकीकरण और उसके बाद इटली के एकीकरण और इन देशों की उभरती ताकत ने राष्ट्रवाद का एक ज्वार पैदा कर दिया। मैजिनी, इमानुएल और गैरीबाल्डी जैसे नायक कहीं न कहीं पूरी दुनिया में पराधीनता में पिस रहे देशों-समाजों के लिए प्रेरणा बन रहे थे। भारत के पढ़े-लिखे युवा भी इनसे प्रेरित तथा इनके प्रति आकर्षित हो रहे थे।


और इसी दौर में यूरोप औद्योगिक क्रांति का पल भी चल रहा था। वहाँ पूँजीवाद - औद्योगिक पूंजीवाद के चरण में प्रवेश कर रहा था। यूरोप वैभवशाली बन रहा था और इसके पीछे उसकी वैज्ञानिक उपलब्धियों के अलावा उपनिवेशों के संसाधनों की लूट भी थी। लगभग सभी प्रमुख देशों के उपनिवेश थे। राष्ट्रवाद के ज्वार के साथ ही जर्मनी और इटली के उदय ने समूच यूरोप को भीषण असुरक्षाजनित प्रतिद्वन्द्विता में उतार दिया। पूँजीवाद ऐसी गलाकाट प्रतिद्वन्द्विता में और फूलता-फलता है। पूँजीवाद और राष्ट्रवाद - दोनों एक-दूसरे को खुराक देने लगे जिसका परिणाम हथियारों एवं युद्धास्त्रों के बड़े पैमाने पर निर्माण एवं उत्पादन के रूप में सामने आया। इस भयानक असुरक्षा बोध, अविश्वास एवं स्वार्थी प्रतिद्वन्द्विता की परिणति आखिरकार प्रथम विश्वयुद्ध के रूप में हुई जिससे आधी से अधिक दुनिया प्रभावित हुई और करोड़ों लोग मारे गए। इस महायुद्ध में ऑस्ट्रियन साम्राज्य एवं तुर्की के उस्मानी साम्राज्य के साथ ही रूसी एवं जर्मन साम्राज्यों का पतन हो गया और साम्राज्यों के युग का ही अंत हो गया। इसी के साथ लोकतंत्र अनेक देशों के लिए स्वाभाविक विकल्प बना।





लेकिन असुरक्षा से उपजे राष्ट्रवाद का कहीं और भयानक परिणाम आना शेष था- दूसरे महायुद्ध के रूप में। इस प्रकार हम देखते हैं कि यूरोपीय देशों में राजनीति अस्तित्व-रक्षा का औजार बनी, इसीलिए यूरोप में राष्ट्रवाद का स्वरूप राजनीतिक बना, इसी से राष्ट्र-राज्य अस्तित्व में आए और दुनिया में राष्ट्रवाद का अर्थ हो गया राजनीतिक राष्ट्रवाद और यही आज राष्ट्रों की चालक शक्ति है।


उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अंग्रेजों ने भारत का अभूतपूर्व राजनीतिक मानचित्र बनाया। इसका क्षेत्रफल पश्चिम में अपफगानिस्तान से ले कर पूर्व में बर्मा यानी म्यांमार तक और उसके भी नीचे दक्खिन में मलय और हिन्द चीन तक फैला था। सबसे महत्वपूर्ण बात थी कि पूरा का पूरा दक्षिण भारत के राजनीतिक मानचित्र में शामिल था। दक्षिणी राज्य भले ही सांस्कृतिक रूप से अविच्छिन्न रहे हों, राजनीतिक रूप से बिल्कुल स्वायत्त रहे थे। अंग्रेजों की इस देन के बारे में बहुत कम चर्चा होती है। नौवीं सदी में आचार्य शंकर ने जो सांस्कृतिक चौहद्दी खींची थी वह एक वृहत राजनीतिक इकाई का अंग बन गयी और इसे अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक हितों एवं जरूरतों के लिए ही सही, संभव बनाया। अंग्रेजों ने प्रकारांतर से रेल, सड़क और तार यानी टेलीग्राफ की अधिरचना खड़ी कर भारत की सांस्कृतिक एकता को मजबूत ही किया और उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के राष्ट्रवादी उभार का इससे सीधा संबंध बनता है। इसके पीछे औपनिवेशिक दमन के विरुद्ध लगभग पूरे देश में प्रतिरोधों-संघर्षों-विद्रोहों की अटूट परम्परा की पृष्ठभूमि भी रही। इसकी सबसे प्रभावी व सशक्त अभिव्यक्ति राजनीतिक स्वतंत्रत के लिए लंबे संघर्ष की तैयारी और संकल्प के रूप में हुई। 


एक प्राचीन देश और उसके गौरव को पुनर्स्थापित करने, उसके विश्व-बोध, उसकी सांस्कृतिक-सभ्यतागत उपलब्धियों से आधुनिक दुनिया को अवगत कराना और मान दिलवाना, दूसरी ओर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, आचार-विचार और मूल्य बोध से लैस हो कर सैकड़ों वर्षों के पददलित जनगण को स्वतंत्रचेता नागरिक बनाना- यह दोहरा दायित्व उस दौर के भारतीय देसी बौद्धिकों पर था। और उन्होंने इसका निर्वाह भी किया। भारत में सर्वतोन्मुखी प्रतिभा का एक प्रकार का मानो विस्फोट हुआ। राजनीति, धर्म एवं अध्यात्म, दर्शन, साहित्य, कला; साथ ही गणित एवं विज्ञान के क्षेत्र में लगभग समूचे भारत में एक से बढ़ कर एक प्रतिभाएँ सामने आयीं और निश्चय ही राष्ट्र के प्रति गौरव-बोध जगाने और बढ़ाने में उनका ऐतिहासिक योगदान रहा। एक अभूतपूर्व जागरणकाल आ उपस्थित हुआ।


यह वह समय था जब गाँवों की आत्मनिर्भरता टूट रही थी, उद्योग-धंधों का विकास हो रहा था, नये औद्योगिक एवं नगरीय केन्द्र स्थापित हो रहे थे। यदि कामकाजी श्रमिकों का वर्ग बन रहा था तो देसी उद्योगपतियों एवं पूँजीपतियों का भी। भारत की एक सर्वथा नई राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था बन रही थी जिसमें पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्खिन सबकी सहभागिता थी। राष्ट्रवाद की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण परिघटना थी। यह किसानों के मजदूर बनने का समय था और टूटती सामाजिक वर्जनाओं के बीच उत्पीड़ित-दमित तबकों के आत्मचेतस, अधिकारचेतस वर्ग में रूपांतरित होने का भी। इसमें दलित थे तो स्त्रियाँ भी थीं। उपनिवेशवाद और विदेशी शासन से मुक्ति के लिए यदि राजनीतिक संघर्ष तेज हो रहा था तो भारतीय समाज की आंतरिक वर्चस्ववादी संरचनाओं को तोड़ने के  भी सघन प्रयास चल रहे थे, लेकिन इसमें प्रायः सभी जाति-समूहों के आदर्शवादी युवा शामिल थे, कारण यह कि स्वराज्य की अवधारणा और कार्यक्रम में इन्हें शामिल मान लिया गया था। हालाँकि कुछ ऐसी धाराओं का जरूर विकास हुआ जिन्होंने सामाजिक मुक्ति को राजनीतिक मुक्ति से बढ़ कर माना और अपने संघर्ष को मोटे तौर पर सामाजिक बहिष्करण एवं वर्चस्ववाद के विरोध तक सीमित रखा। इस दौर में धर्म-पंथ एवं धार्मिक पहचान के प्रति अत्यधिक आग्रह दिखाई देता है। कांग्रेस और दूसरे संगठनों की समावेशी राष्ट्रीय धारा जाति एवं धर्म-पंथ आधारित संगठनों अथवा इनकी राजनीति को बेअसर या न्यूट्रलाइज नहीं कर सकी। तब भी बंग-भंग विरोधी आंदोलन और क्रांतिकारी आंदोलन से ले कर चम्पारण सत्याग्रह भी भारतीय राष्ट्रवाद की ही अभिव्यक्ति था।


गाँधी जी अपनी तरह का राष्ट्रवाद खड़ा कर रहे थे जिसका बहुलांश भारतीय सनातन परम्परा के तत्वों से मिल कर बना था। उनका आंदोलन राष्ट्रवाद की राजनीतिक अभिव्यक्ति मात्र नहीं था। उनका प्रयास वास्तव में पश्चिमी सभ्यता का ठेठ भारतीय विकल्प खड़ा करने का था। उनका रामराज्य भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समाज को कहीं न कहीं उसकी सदियों की गुलामी से उपजी स्मृतिविहीनता से बाहर निकाल कर आत्मगौरव की उपलब्धि भी कराता था। दूसरी ओर ब्रिटेन के वेस्टमिंस्टर मार्का लोकतंत्र से कहीं अधिक संवेद्य एवं उदात्त राजव्यवस्था के विकल्प के रूप में प्रस्तुत करता था जिसकी स्थापना राजा रामचन्द्र ने उपेक्षित जन समूहों के सहयोग से की थी, और प्रजा का हित और कल्याण ही जिसका एकमात्र लक्ष्य था। राम को गाँधी जी ने भारतीय सभ्यता-संस्कृति के परम शुद्ध और सात्विक तत्व के रूप में तत्कालीन राजनीति में विन्यस्त कर दिया था और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने को भारतीय आम जनों की नैतिक बाध्यता बना दी थी।

      

सबसे विलक्षण बात थी कि गाँधी जी ने भारतीय राष्ट्र को रामराज्य की उपलब्धि के लिए सत्य एवं अहिंसा के शुद्ध साधनों को अपनाने पर जोर दिया। यहाँ पुनः भारतीय परम्परा ही उनका मार्गदर्शन कर रही थी क्योंकि प्रेम, सत्य, शांति और अहिंसा कोई नए प्रत्यय नहीं थे। नया था विरोध-प्रतिरोध का उनका औजार जिसे पहली बार उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में सफलतापूर्वक आजमाया था- सत्याग्रह। सत्याग्रह अन्याय के प्रतिकार के लिए प्रयुक्त एक ऐसे अस्त्र का संधान था जो अहिंसक तो था लेकिन शासकों के लिए असंवैधानिक, यानी गैरकानूनी एवं प्रत्यक्ष था, और खुला था। इसमें गोपन कुछ भी नहीं था। इसका प्रयोग साधारण से साधारण, कमजोर से कमजोर व्यक्ति या समुदाय असहमति या प्रतिकार के लिए कर सकता था। प्रकारांतर से सत्याग्रह भी भारतीय मूल्यों को प्रतिष्ठा दिलाने वाला प्रयोग ही था जिसके उपयोग से गाँधी जी ने भारतीय राष्ट्रवाद में नये, साथ ही हाशियाकृत, बहिष्कृत वर्गों एवं समुदायों को जोड़ दिया या कि उन्हें प्रवेश दिलाया।


वास्तव में स्वतंत्रता आंदोलन का परिपाक काल भारतीय राष्ट्रवाद का भी उत्कर्ष काल था जो भारतीय संस्कृति और परम्परा के तत्वों से जुड़ कर लगातार समावेशी और सर्वग्राह्य होता चला गया। भारतीय जन का शायद ही कोई अंग इससे अछूता बचा था। लगभग हर भारतीय भाषा में, बल्कि स्थानीय भाषाओं एवं बोलियों में भी राष्ट्र-प्रेम की रचनाएँ की जा रही थीं। बांग्ला, हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, सिन्धी, गुजराती आदि भाषाओं में, तो भोजपुरी और बुंदेलखंडी जैसी लोकभाषाओं में मुक्ति के गीत गाए जा रहे थे। महाकवि सुब्रह्मणयम भारती, माध्व पण्णिकर, शंकर पण्णिकर, ‘चंद्रशेखर’ और बाद में कुसुमाग्रज कैसे कवियों ने तमिल, मलयालम और मराठी भाषाओं में राष्ट्रवाद से ओत-प्रोत रचनाएँ कीं। 


सुब्रमण्यम भारती



समय-समय पर चले दमन चक्र ने भारतीय राष्ट्रवाद को और सुनम्य तथा गतिशील ही बनाया। स्वतंत्राता आंदोलन की सभी प्रमुख धाराएँ इससे ओत-प्रोत थीं। यदि यह गाँधी जी के अहिंसक प्रयोगों में अभिव्यक्त हो रहा था तो तिलक, अरविंद, लाजपत राय जैसे नेताओं से प्रेरित क्रांतिकारी आंदोलनों में भी। लेकिन इसकी चरम अभिव्यक्ति रास बिहारी बोस और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के आईएनए एवं आजाद हिंद फौज के रूप में हुई। इतिहास में इसके पहले ऐसी कोई घटना दर्ज नहीं है जिसमें स्वदेश की मुक्ति के लिए परदेस में सेना गठित कर सैन्य अभियान चलाया गया हो। मातृभूमि की मुक्ति ही सेनानियों का एकमात्र लक्ष्य था। उनमें न कोई हिन्दू था, न मुसलमान, न बंगाली, न मद्रासी, न स्त्री न पुरुष; वे केवल और केवल हिन्दुस्तानी थे। यहाँ कोई लेन-देन नहीं था, सौदेबाजी नहीं थी, केवल उत्सर्ग की भावना थी। आजाद हिंद फौज (आई एन ए) अथवा नेताजी सुभाष बोस के ‘दुस्साहसिक’ अभियान के औचित्य एवं उपयुक्तता को ले कर बहस की जा सकती है लेकिन लगभग पच्चीस हजार आजाद हिंद फौजियों के सर्वोच्च बलिदान ने भारतीय राष्ट्रवाद के ‘मिथक’ को वास्तविकता बना दिया। उनकी एक मातृभूमि थी, अलग-अलग क्षेत्रों एवं परिवेशों से आने के बावजूद वे एक ‘जन’ थे और एक ही सामासिक संस्कृति के प्रतिनिधि थे। आकस्मिक नहीं कि नेता जी ने ऐसे प्रतीक दिए जिनसे भारतीय राष्ट्र की पहचान, उसकी अस्मिता, उद्घाटित होती है। उन्होंने ‘जय हिन्द’ का नारा दिया जो हमारे राष्ट्रीय अभिवादन में प्रयुक्त होता है। उन्होंने गाँधी जी को नवोदित देश का राष्ट्रपिता घोषित किया। एक और विलक्षण बात, और दुर्भाग्य से इसकी चर्चा भी बहुत कम होती है, कि उन्होंने हिन्दी को आजाद हिन्द फौज की भाषा बनाया- कामकाज से ले कर बोलचाल तक। स्वयं बंगाली होते हुए भी उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा न केवल माना बल्कि उसका उसी रूप में प्रयोग भी किया। अब इस प्रकरण की तुलना आप संविधान सभा में और बाद में संसद में राष्ट्रभाषा और राजभाषा, और अंग्रेजी की तथाकथित महत्ता पर चली बहसों और उनके परिणामों से कर के देखिए तो आश्चर्य होता है।


हिन्दी भारतीय राष्ट्रवाद की सबसे विलक्षण, सबसे विशेष निर्मिति है। हमारी भाषाएँ और बोलियाँ, हमारे अनुभव, ज्ञान और चिंतन की वाहक तो रही ही हैं, इन्हीं की बदौलत संवाद की हमारी परम्परा भी फूलती-फलती रही है। भाषाओं का वैभव हमारे पास न होता तो सत्यान्वेषण के लिए शास्त्रार्थ संभव नहीं हो पाता। ध्यान से देखें तो शास्त्रार्थ भी समावेशन और सम्मिलन की ही युक्ति थी और है। इससे नए विचारों, सिद्धांतों को हठात् स्वीकार नहीं कर लिया जाता था, उन्हें पहले से प्रचलित सिद्धांतों को निरस्त करने की चुनौती होती थी, उन्हें कसौटियों पर कसा जाता था, तब मान्य किया जाता था। यह सनातन परम्परा में ही नहीं जैन एवं बौद्ध परम्परा के लिए भी इतना ही सच था।          

 

जिस समय हम उपनिवेशवाद के बहाने पश्चिम के मुकाबले खड़े हो रहे थे, हमारी अपनी कोई ऐसी भाषा नहीं थी जिसमें हिन्दुस्तान का समवेत स्वर हो। यहाँ तक कि आपसी संवाद के लिए भी कोई समृद्ध भाषा नहीं थी जिसे हर कहीं बोला-समझा जा सके। इन्हीं परिस्थितियों में हिन्दी का विकास हुआ। मुक्तिकामी जन की मुक्ति की आकांक्षा को स्वर देने के लिए दुनिया की कोई भी भाषा इस प्रकार अस्तित्व में नहीं आई, न ही किसी भाषा ने मात्र सौ साल के अंदर वह मुकाम हासिल किया जो हिन्दी कर पायी। हिन्दी भारतीय राष्ट्रवाद की वाणी है, और इसी कारण से राष्ट्रभाषा है, न कि केवल बोलने-समझने वालों की संख्या के कारण, जैसा कि मान लिया जाता है, विशेषकर गैर-हिन्दी भाषी क्षेत्रों में।


रवीन्द्र नाथ टैगोर 


भारतीय राष्ट्रवाद अपनी राजनीतिक अभिव्यक्ति में भी मुक्तिकामी तो रहा लेकिन यह स्वरक्षा के भाव से ही संचालित रहा है। आक्रमण, अतिक्रमण और अधिकार हरण की इसकी प्रवृति नहीं बन पायी जैसी कि पश्चिमी राष्ट्रों में ही नहीं, पूरब के देशों में भी दिखाई देती है। स्वतंत्रता के सत्तर वर्षों में भी कभी भारत ने किसी अन्य देश पर हमला तो दूर, दूसरे की जमीन के टुकड़े पर भी दावा नहीं किया। ऐसा शायद इसलिए कि भारतीय राष्ट्रवाद की सार्थकता सार्वभौमवाद अथवा अंतरराष्ट्रीयता को साकार करने में है। हमें भारतीय नागरिक होते हुए ‘विश्व नागरिक’ बनना है। हमें अपने परिवेश में रहते, उसका परिमार्जन-परिष्कार करते ‘विश्वप्रकृति’ के साथ एकाकार होना है। हिन्दू अद्वैतवादी, पुनरुद्धारक विवेकानंद और तर्कशील मानवतावादी, चिंतक-सृजक रवीन्द्र नाथ दोनों अलग-अलग विचार-धरातल से वास्तव में यही कुछ संकेत कर रहे हैं। यहाँ उल्लेख करना जरूरी लगता है कि कविगुरु रवीन्द्र नाथ जिस राष्ट्रवाद के विरोधी थे वह पश्चिम का हिंसक, आक्रामक अंधराष्ट्रवाद था जिसक भयानक परिणाम पूरे विश्व को झेलना पड़ा, जिसकी ओर बढ़ने से वे भारत के नवोदित राष्ट्रवाद को रोकना चाहते थे। उनका उचित ही मानना था कि जिस सभ्यता का आधार समाज तथा मानव का आध्यात्मिक आदर्श रहा है वह चिरस्थायी होती है, स्वयं भारत तथा चीन (तब का) इसके उदाहरण हैं। उनकी ‘मातृभूमि वंदना’ तथा ‘जन-गण-मन’ जैसी रचनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि वे भारतीय राष्ट्रवाद को व्यापक संदर्भों से जोड़ कर उसे सर्वहितकामी बनाना चाहते थे। उनका ‘जन गण मन’ हमारा राष्ट्रगान है और इसमें हमारे संघवाद का आदर्श झलकता है। उन्होंने कहीं न कहीं बांग्ला राष्ट्रवाद के भारतीय राष्ट्रवाद में रूपांतरण की प्रक्रिया को मजबूती दी, बल्कि दोनों को एक कर दिया। ‘गोरा’ उपन्यास में तो कविगुरु ने उन लोगों की आलोचना की है जो भारत को एक राष्ट्र के रूप में स्वीकार नहीं करते।


वर्तमान में भारत में राष्ट्रवाद का जो विमर्श सामने आया है वह कहीं न कहीं अस्मिताओं की टकराहट से उपजा है, शायद उसकी प्रतिक्रिया में। ये टकराहटें और संघर्ष कभी-कभी विखंडन को बढ़ावा देने लगते हैं। भारतीय राष्ट्रवाद और उसका सांस्कृतिक बोध इन्हें अपनी परिधि में समेट सकता है। दूसरी ओर लंबे समय से देश बाहरी चुनौतियों से जूझ रहा हे। अपने को एक और अक्षुण्ण रख कर ही भारत शेष विश्व को कुछ दे सकता है। इस एकता के लिए राष्ट्रवाद एक व्यापक आधार प्रदान करता है, और हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली इसके लिए एक उत्तम और सुलभ उपकरण है। वास्तव में लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं में ही हमारा राष्ट्रवाद साकार और सार्थक हो रहा है क्योंकि ये संस्थाएँ किसी एक जाति-धर्म-क्षेत्र का नहीं, समस्त भारतीय जन का प्रतिनिधित्व करती हैं। राष्ट्रवाद की कोई भी व्याख्या या नैरेटिव जो अखंड मातृभूमि, समस्त जनगण, तथा हमारी विविधतापूर्ण सांस्कृतिक विरासत और जन-जीवन में से किसी एक की उपेक्षा करे तो वह भारतीय राष्ट्रवाद की एकांगी व्याख्या होगी। दूसरी ओर हम राष्ट्रवाद को राज्यवाद में घटने, यानी रेड्यूस होने नहीं दे सकते। भारत अब भी एक बनता हुआ राष्ट्र है और समान और साझा तत्वों की खोज आज भारतीय राष्ट्रीयता को मजबूत करने का सबसे बड़ा उद्यम है।



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