सूरज पालीवाल का संस्मरण 'ज्ञानरंजन होने के मायने'

 

ज्ञानरंजन


हिन्दी साहित्य में कुछ ही ऐसे व्यक्तित्व हैं जो अपने स्पष्ट विचारों के लिए जाने जाते हैं। ज्ञानरंजन ने लेखन से कभी समझौता नहीं किया। कम लिख कर भी हिन्दी कहानी की दुनिया में उन्होंने अपना समादृत स्थान बनाया है। यह स्थान उन्होंने खुद अपने दम पर हासिल किया। प्रख्यात रचनाकार श्री रामनाथ सुमन जी के पुत्र होने के बावजूद उन्होंने लेखकीय संघर्ष किया और अपनी दुनिया खुद बनाई। उन्होंने देश की बेहतरीन हिन्दी पत्रिका पहल का सम्पादन किया जिसमें छपना हर छोटे बड़े लेखक का सपना हुआ करता था। यही नहीं उन्होंने हर जेनुइन लेखक को प्रोत्साहित करने का काम भी किया। उनका कद आज भी  ऊंचा है। किन्तु परन्तु का सामना उन्हें भी करना पड़ा फिर भी यह कहा जा सकता है कि वे हिन्दी साहित्य के निर्विवाद लेखक हैं। कथाकार योगेंद्र आहूजा तो ज्ञान जी को ‘हिंदी कहानी का आखिरी उस्ताद’ घोषित करने से नहीं चूकते हैं।’ आलोचक सूरज पालीवाल ने ज्ञान जी के विविध पक्षों को उजागर करते हुए एक बेजोड़ संस्मरण लिखा है। यह आलेख धरती के हालिया अंक में प्रकाशित हुआ है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सूरज पालीवाल का संस्मरण 'ज्ञानरंजन होने के मायने'।


'ज्ञानरंजन होने के मायने'


      

सूरज पालीवाल 


हिंदी के अनूठे कहानीकार और अप्रतिम संपादक ज्ञानरंजन कम बोलने, कम लिखने, कम मंचों पर बैठने और बहुत कम बाहर जाने के लिये विख्यात हैं इसलिए यह जिज्ञासा और बलवती हो जाती है कि फिर वे क्या कारण हैं, जिनकी वजह से बहुत बड़ा पाठक समुदाय उन्हें पढ़ना, उन्हें सुनना और उन्हें अपने निकट पाना चाहता है। वे अभेद्य दुर्ग नहीं हैं, कई बड़े लोगों की तरह कुंठा का रूप ले चुका दंभ भी उनके अंदर नहीं है फिर क्या वजह है कि दूर बैठे पाठकों के मन में तरह-तरह की व्यग्रताएं हैं। पाठकों की ये व्यग्रताएं ही ज्ञान जी को योगेंद्र आहूजा के शब्दों में ‘हिंदी कहानी का आखिरी उस्ताद’ बनाती हैं।’ 

 

यह महज संयोग नहीं है कि ज्ञान जी अपने समय और बाद के यानी समकालीन लेखकों पर बात करते हैं तो खुल कर करते हैं, न कोई पोलिमिक्स और न कोई राग-द्वेष। मैं उनके दो वक्तव्यों की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा- एक ‘विकास की अवधारणा में गांव कहां हैं?’ तथा दूसरा, ‘परसाई और परसाई की टेजेडी’। पहले वक्तव्य की शुरूआत ही वे इस वाक्य से करते हैं ‘अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल विशुद्ध में ग्रामीण पृष्ठभूमियों में प्रचुर लेखन करने वाले कथाकार नहीं हैं।’ सवाल यह है कि वक्तव्य की शुरूआत में ही इस प्रकार की घोषणा करने की आवश्यकता उन्हें क्यों हुई? कहना न होगा कि यह आवश्यकता इसलिए हुई कि 2009 का ज्ञानपीठ पुरस्कार अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रूप से मिला था। दोनों लेखक अलग-अलग धारा और अलग-अलग प्रवृत्ति के लेखक हैं लेकिन ज्ञानपीठ इस प्रकार के कौतुक करता रहा है। इसी श्रेणी का एक और कौतुक गुरदयाल सिंह और निर्मल वर्मा को एक साथ पुरस्कार दे कर किया था। ज्ञान जी की चिंता यह है कि जो ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय भाषाओं में नोबल पुरस्कार जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त है, वह इस प्रकार की हास्यास्पद स्थितियां क्यों पैदा करता रहता है? ज्ञान जी को यह बुरा लगा इसलिए वे दोनों लेखकों का अंतर स्पष्ट करते हुए लिखते हैं ‘अमरकांत में जो अद्वितीय विनोद था वह ग्रामीण समाज और मनुष्य से आया था। उनकी कहानियों के विषयों में गांव, कस्बे और शहर की मिली-जुली अवस्था है। सब एक-दूसरे को ओवर लैप करते हुए। अपनी कहानियों, केवल कहानियों के बल पर वे हिन्दी के थोड़े बहुत चेखव थे।’ और श्रीलाल शुक्ल के बारे में कहा ‘श्रीलाल शुक्ल नौकरशाह थे। निपुण, बुद्धिमान, शीन काफ दुरुस्त, उच्च सामाजिक प्रतिष्ठावान तो थे ही उनकी सामाजिक बुनावट भी ऐसी ही थी। अमरकांत शुरूआती दिनों से कम्युनिस्ट थे, ‘कम्युनिस्ट’ कहानी लिखी थी, छोटी-मोटी नौकरियां करते रहे, जीवन कठोर था पर उनमें गिला-शिकवा नहीं रहा। यह उनकी विचारधारा का आचरण था, जीवन भर यह बना रहा। श्रीलाल शुक्ल हिंदी में उस गुट के प्रिय रहे जो वामपंथ विरोधी रहा या जिसका अस्तित्व ही वामपंथ की खिलाफत से बना। वे ‘परिमल’ में अमूर्त रूप से सक्रिय रहे। उनका दोस्ताना वहीं था। उन्हें समाजवादियों का लाभ मिला। ब्राह्मण होने का भी। बहुत दिनों तक उनके नाम के साथ पंडित शब्द भी लोग लगाते रहे। पर श्रीलाल शुक्ल अपने दमखम, शराफत, हाजिरजवाबी के बाद भी और ‘राग दरबारी’ जैसी चर्चित कृति के बाद भी बड़े लेखक नहीं हैं। बड़े शब्द पर मेरा दबाव है कि इसे सही अर्थ में समझा जाये। परिमल के साथी होने के बावजूद परिमल के दिग्गजों ने उन्हें बड़ा लेखक नहीं माना। परिमल के नियंता व्यंग्य को उपहास से देखते थे और इसे ऊंचा दर्जा नहीं देते थे। इस पर कॉफी हाउस की अनेक बहसों का मैं युवा श्रोता भी इलाहाबाद में रहा हूं।’ ज्ञान जी का यह वक्तव्य उनके साहस को बताता है, इस प्रकार के वक्तव्य या टिप्पणियों से समझदार लोग बचा करते हैं इसलिए नामवर जी कहते थे कि लिखने से हाथ कट सकते हैं लेकिन कहने भर से कोई जीभ थोड़े ही काट लेगा। पर ज्ञान जी तो ‘आ बैल मुझे मार’ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुये अपना मंतव्य खुल कर देते हैं। कहना न होगा कि अमरकांत को भी उन्होंने ‘हिंदी के थोड़े बहुत चेखव’ कहा है और श्रीलाल जी को बड़ा लेखक मानने से साफ इंकार किया है। वे अपनी बात को और स्पष्ट करते हुएये कहते हैं ‘श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी में प्रहसन, मखौल, किस्सा और हास्य का झरना फूटता है। वे मज़ामत के उस्ताद हैं पर उनका सारा किया-कराया क्षणभंगुर है। अगर सूक्ष्मता से श्रीलाल शुक्ल की मीमांसा की जाये तो उनमें अर्बन लेखक की आधुनिक प्रवृतियां नहीं हैं। वे ओवरडेटेड लेखक हैं, परसाई जैसे श्रेष्ठ और देश के बड़े लेखक के साथ भी उन्हें खड़ा किया गया। खड़ा करने वाले का उद्देश्य केवल उन्हें खड़ा करना था, प्रगतिशील विचारधारा के परसाई को कम करने के लिए। श्रीलाल शुक्ल सदा जगमगाती दुनिया में रहे, जबकि अमरकांत के चारों तरफ एक गोबर से बनी कच्ची कोठरी का अंधेरा था। ढिबरियां जल रही हैं चारों तरफ और अमरकांत लिख रहे हैं। अमरकांत बड़े लेखक इसलिए भी हैं कि उन्हें कभी गिला-शिकवा नहीं रहा। उन्होंने जिस लेखकीय जीवन को और उत्तर भारतीय समाज को स्वीकार किया उससे उन्हें गहरा प्यार था। उनकी चाल साफ-सुथरी थी। वे खुशदिल रहे और एक बड़े रचनाकार की स्थिरता और तटस्थता उनमें है। अपने समकालीनों की वे गहरी इज्जत करते हैं और गुलगुले से अमरकांत में विचारों का पत्थर बिल्कुल ग्रेनाइट का है। उन्हें दूर किनार में, अपने चुने हुये एकांत में रहना पसंद था। यह सही है कि श्रीलाल शुक्ल के आतिशबाज लेखन और अमरकांत के अंधेरों को एक जगह रख कर पुरस्कृत करना अपमानजनक भी है और एक हद तक कारिस्तानी भी। मेरी समझ यह है कि श्रीलाल जी की गांव के जीवन से क्या शहरवासियोें से भी यारी नहीं है।’ 


ज्ञान जी इस प्रकार के तुलनात्मक वक्तव्य से बच सकते थे, चालाक लोग इस प्रकार के प्रहसन दिन में कई बार करते हैं लेकिन ज्ञान जी तो बचना ही नहीं चाहते थे बल्कि वे जोर दे कर अपनी बात कहना चाहते थे इसलिए वे बार-बार दोनों लेखकों की विचारधारा तथा उनके लेखकीय सरोकारों के साथ दोनों की जीवन स्थितियों पर भी प्रकाश डालते हैं। यही नहीं वे गुरदयाल सिंह और निर्मल वर्मा को संयुक्त रूप से मिले ज्ञानपीठ पुरस्कार पर भी प्रश्न उठाते हुए कहते हैं ‘अंतर्विरोधी चीजें इसके पहले भी हुई हैं जब निर्मल वर्मा और गुरदयाल सिंह को ज्ञानपीठ दिया गया। यहां पर भी एक कम्युनिस्ट रचनाकार और एक कम्युनिस्ट विरोधी रचनाकार की कूटनीति स्पष्ट है। एक बात पर ध्यान दें कि ऐसा नामवर सिंह जैसे जूरी सदस्य के खेल से संभव हुआ। नामवर सिंह ज्ञानपीठ के लिये एक मुफीद वज़ीर हैं। जैसा मैं पहले एक बार अपने एक व्याख्यान में बांदा में भी कह चुका हूं कि असली खेल जूरी की नियुक्ति है। इसकी नियुक्ति के पहले ही सालों-साल यह क्रियाकलाप चलता रहता है। यही विभाजन फिर दोहराया गया-अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल के साथ। ज्ञानपीठ गुरदयाल सिंह और अमरकांत को स्वतंत्र ज्ञानपीठ देने की बेवकूफी कभी नहीं कर सकता। यह केवल बड़े लेखकों को विभाजित और कमतर करने की तकनीक है।’ ज्ञान जी की चिंता में वे बड़े लेखक हैं जिन्होंने अपने विचार से जीवन-भर कोई समझौता नहीं किया, ऐसे बड़े लेखकों को कमतर आंकने का प्रयास वह संस्था कर रही है जिसकी ‘स्थापना में शोध, मीमांसा, क्लासिकी चेतना का प्रकाशन और आयोजन उसकी गतिविधि का प्रमुख हिस्सा था। ज्ञानोदय में मांस, मदिरा, लहसुन, प्याज का उल्लेख कहानी, कविता में आने पर उसे संपादित कर दिया जाता था। यह धर्मवीर भारती और रमेश बक्षी जैसे संपादकों के जमाने में बचा हुआ था। फिर 2010 आते-आते स्त्रियों पर कुत्सित टिप्पणी भी छपने लगीं। आप देखिए कि कैसे ज्ञानपीठ की यात्रा समसामयिक बाजार की तरफ रेंग रही है। आधुनिकता और लोकप्रियता और प्रिंट आर्डर की ललक, बाजार की तरफ उन्मुख होना, उसका तर्क देने लगना ज्ञानपीठ की महत्वाकांक्षा का हिस्सा हो गया है। इसीलिए ज्ञानपीठ में देश के सबसे मंहगे सेल्समैन और अभिनेता अमिताभ बच्चन का प्रवेश विचारणीय है। यह न तो अकारण है और न ही बुद्धूपना।’ ज्ञान जी की यह चिंता दुतरफी है, एक ओर वे बड़े लेखकों को कमतर आंकने पर चिंता व्यक्त करते हैं तो दूसरी ओर वे ज्ञानपीठ जैसी बड़ी संस्था के पतन को भी रेखांकित करते हैं। यह बाज़़ारवाद का समय है इसलिए हर चीज जिस तराजू पर तौली जा रही है वह तराजू लाभ-लोभ और लूट की संस्कृति पर आधारित है। विडंबना यह है कि ज्ञान और ज्ञान के प्रसार-प्रचार के लिये स्थापित संस्थाएं भी बाज़ारवाद के प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकी हैं। दुर्भाग्य है कि सुदूर बैठा हिंदी का पाठक इस कुचक्र को कम समझ रहा है और वह पुराने पवित्रता बोध जैसे भावुक समय में खोया रहता है इसलिए वह उन मुद्दों पर कोई विचार नहीं करता जो मुद्दे उसके सााहित्य को पतन की ओर ले जा रहे हैं। ज्ञान जी ‘पहल’ में जीवन और जगत के इन मुद्दों को गंभीरता से उठाते रहे हैं साथ ही जहां संवाद की स्थितियां बनती हैं, वहां और मुखर हो कर अपनी बात कहते रहे हेैं। कहना न होगा कि ज्ञानपीठ और उसके पुरस्कारों के अंतर्विरोधों पर लोग पीठ पीछे कहते और सुनते रहते हैं लेकिन सार्वजनिक रूप में कहने से बचने की चालाकी भी करते रहते हैं। 


ज्ञान जी अपने प्रिय लेखकों पर किस प्रकार अपना पक्ष रखते हैं इसे और देखने के लिये परसाई जी के जन्म दिन के अवसर पर उनके इस वक्तव्य को जरूर पढ़ना चाहिए, जिसकी शुरूआत परसाई जी और उनके बाद व्यंग्य के क्षेत्र में उभर रहे ज्ञान चतुर्वेदी से हुई है ‘मित्रो, ज्ञान चतुर्वेदी से हम इस उम्मीद में थे कि वे परसाई के बाद व्यंग्य की दशा के बारे में हमें अवगत करायें लेकिन दुर्भाग्य से वे नहीं आ सके और हम नये तरह से सोचने विचारने से वंचित रह गये हैं। फिर भी इतना तो हम सामान्य तौर पर समझ ही रहे हैं कि परसााई के बाद वैसी धातु की निरंतरता का कोई ग्राफ हमारे सामने नहीं है।’ ज्ञान जी ने अपने इस वक्तव्य में यह चिंता व्यक्त कीे है कि परसाई जी के बाद उनकी तेजस्वी परंपरा में कोई दूसरा व्यंग्यकार क्यों नहीं हुआ? परसाई जी के पास तीखे जीवनानुभवों के साथ राजनीतिक समझ भी थी जिससे वे सामान्य-सी स्थितियों में भी मारक व्यंग्य निकाल कर लाते थे। बाद के व्यंग्यकारों के पास न तो जीवनानुभव हैं और न राजनीतिक विचारधारा इसलिए उनका व्यंग्य ढुलमुल हास्य बन कर रह जाता है। जबकि व्यंग्य का निशाना मारक होता है, वह नश्तर चुभोता है, इसलिए गुदगुदाना व्यंग्य का लक्ष्य कभी नहीं रहा। वे परसाई जी का महत्व बताते हुए कहते हैं ‘परसाई मुख्यतः साहित्य और जीवन निर्माता रहे। उन्होंने पता नहीं कितनों का निर्माण किया। बहुत से यह बात जान ही नहीं सकते कि उनकी बुनियाद में कौन छुपा हुआ है। असल में व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया बहुत ही जटिल तथा अमूर्त भी होती है। यह केवल खुली सामाजिकता के दम पर नहीं काम करती। परसाई का समग्र रूप अनूठा था। उनमें चपल विनोदवृत्ति थी और ठाठदार हास्य। हिंदी साहित्यकारों की सुदीर्घ मनहूसी का गुण नहीं था परसाई में।’ यह वक्तव्य बताता है कि एक लेखक अपने जीवन में अपने सार्थक और महत्वपूर्ण लेखन तथा सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों के बल पर कितने नये लेखकों और पाठकों को संवारता है, उन्हें न केवल साहित्यिक संस्कार देता है अपितु राजनीतिक रूप से सक्रिय भी करता है। ‘इस पृष्ठभूमि में आप परसाई जी की रचनाओं को देखेंगे तो पता चलेगा कि वे इस सबको देख रहे थे, रच रहे थे। उनकी रचनात्मक प्रेरणा ही भारत देश की उपरोक्त विडंबनाएं थीं। अपनी रचना का जोखिम उन्होंने शारीरिक क्षति की कीमत तक पर उठाया। इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि व्यंग्य की उत्पत्ति और महान रचना की उत्पत्ति के ये जो कारण हैं इनसे गुजरे बिना परसाई या परसाई जैसे किसी भी रचनाकार का निर्माण नहीं हो सकता। मीडियाक्रिटी परसाई के पास फटक नहीं सकती थी। और अब परसाई का यश इतना है कि उनके निकट मीडियाक्रिटी ही मंडरा रही है। राजनीतिक विचार, साहित्य विवेक, नया सौंदर्यशास्त्र और पचास साल में बदल गई देश की नब्ज, सचेत पाठक और क्रांतिकारी शक्तियां ही परसाई को बचा सकती हैं। परसाई पर व्यंग्यवादियों के खतरे और हिंदी अध्यापकों के पाठ्यपुस्तकीय खतरे मंडरा रहे हैं।’ वक्तव्य परसाई पर है, उनके जन्म दिन के अवसर पर है इसलिए केवल परसाई जी के गुणगान से भी संभव हो सकता था, अधिकांश लोग ऐसे अवसरों पर ऐसा ही करते हैं और ऐसा करना उन्हें निष्कंटक भी जान पड़ता है लेकिन ज्ञान जी ऐसा नहीं करते। वे परसाई के बहाने व्यंग्य की धार और देश की राजनीति का विश्लेषण करते हुये उनका महत्व निरूपित करते हैं। वे वर्तमान व्यंग्य के उन खतरों से भी सचेत करते हैं जो लगातार लिखे जा कर भी कोई प्रभाव नहीं छोड़ पा रहे हैं और उन खतरों की ओर भी संकेत करते हैं जिन्हें हिंदी के अध्यापक अपनी नासमझी के कारण रोज-रोज उत्पन्न करते हैं। अपने समय के बड़े लेखक पर कितनी तैयारी के साथ अपनी बात कहनी चाहिए यह ज्ञानजी से सीखना चाहिए। इसलिए वे यह कहना भी नहीं भूलते कि ‘मित्रो, हमारे पास महान रचनाकारों को याद करने, उनको समझने और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के कुछ बहुत ही पारंपरिक और सीमित तरीके हैं। गोष्ठी, व्याख्यान और किताब या फिर कोई ट्रस्ट, नाम से कोई पुरस्कार या एक निरंकृत मूर्ति। इन रास्तों से हम अपने अद्वितीय रचनाकारों को याद करते हैं। बड़े और लोकप्रिय लेखकों को जिंदाबाद तो बहुत मिलता है पर प्रायः रिवाजी स्मरणों से आगे उनके भीतर संसार की महानताओं तक पहुंचना कई बार ज्यादा कठिन हो जाता है। जैसे मैं स्वयं अगर परसाई जी पर कुछ मनचाहा लिखना चाहूं तो कई बार लिखना पड़ेगा और अगर मैं दस बार लिखूंगा तो परसाई की तात्विकता का स्पर्श मात्र कर सकूंगा।’ ज्ञान जी तो स्वयं बड़े रचनाकार हैं, परसाई जी के जबलपुर में उन्होंने अपने इलाहाबाद की स्मृतियों को जीवित रखते हुए नायाब काम किये जिनमें ‘पहल’ का संपादन मील का पत्थर था। दुर्भाग्य से ‘पहल’ बंद हो गई लेकिन जबलपुर, ‘पहल’ और ज्ञानरंजन तीनों एक दूसरे से इतने मिल-जुल गये हैं कि तीनों को अलग करके देखना किसी के लिये संभव नहीं है।


परस्पर ईर्ष्या और द्वेष के इस समय में जब एक लेखक दूसरे लेखक को न पढ़ना चाहता है और न उसकी प्रशंसा सुनना चाहता है तब ज्ञान जी को अपने समकालीनों के बारे में पढ़ना और सुनना यह आश्वस्ति देता है कि बड़े लेखक केवल अपने लेखन से ही बड़े नहीं होते बल्कि मन का औदार्य भी उन्हें बड़ा बनाता है। अमरकांत, परसाई और गुरदयाल सिंह को उन्होंने न केवल बड़ा लेखक माना है अपितु यह भी माना है कि ऐसे बड़े लेखकों की छाया में एक नहीं कई पीढ़ियां तैयार हो रही थीं। इसी क्रम मेें वे अत्यंत आदर के साथ मुक्तिबोध को याद करते हैं। वे उन्हें महाकवि मानते हैं और उनकी उपस्थिति को अपरिहार्य। ज्ञान जी ने मुक्तिबोध को पहली बार इलाहाबाद में ही देखा था तब वे आकाशवाणी के ऐतिहासिक काव्य पाठ के साक्षी बने थे और मुक्तिबोध ने ‘औरांग उटांग’ कविता का पाठ किया था। वे उस क्षण को याद करते हुये लिखते हैं ‘काव्य पाठ खुले लॉन में था। हम आमंत्रित नहीं थे। हमें इलाहाबाद का आवारागर्द समझा जाता था। तो हम 'फेंस के बाहर' थे और सुन रहे थे। मुक्तिबोध ने अपनी प्रसिद्ध कविता औरांग उटांग’ पढ़ी। उनके हाथ में कविता का कागज कांप रहा था, संभवतः ऐसे भद्रलोक में मुक्तिबोध पहली बार आये थे। वे ऊबड़-खाबड़ लगते थे। नख शिख पोशाक कवियों जैसी तो नहीं थी। साधारण थे और सादे कुछ-कुछ शमशेर के करीब। वे दिन ऐसे थे जब हिंदी में मुक्तिबोध का होना लगभग अंधेरे में होने जैसा ही था। यह नामालूम-सा कवि अपनी भाषा में भूमंडल के अंधेरों को देख रहा था। वे आभिजात्य ओढ़े एक सेलेब्रेटी कवि नहीं मामूली मनुष्य लगते थे। औरांग उटांग समझ में नहीं आई थी, अधूरी ही बूझी पर लगता था कि यह कविता कुछ भिन्न है और हलाल कर रही है, बेचैन कर रही है और सर से भी ऊपर जा रही है।’ मुक्तिबोध से ज्ञान जी की यह पहली भेंट थी लेकिन जिस सघन मन से वे मुक्तिबोध की स्मृति का चित्र निर्मित करते हैं, वह असाधारण है। मुक्तिबोध से दूसरी भेंट राजनांदगांव में हुई परसाई जी के साथ। राजनांदगांव साहित्य में मुक्तिबोध के कारण अब बड़ा तीर्थ जैसा बन गया है, ज्ञान जी उस यात्रा के बारे में लिखते हैं ‘इलाहाबाद के काव्य संसार में जो गुटबाजी थी उसमें तार सप्तक का जोर था, परिमल का जोर था। इसके बाद मैं जबलपुर आ गया। आने के साल भर बाद मैं मुक्तिबोध से फिर मिला। इस बार राजनांदगांव में हरिशंकर परसाई के साथ। राजनांदगांव के तालाब में उन दिनों स्वर्ण कमल का प्रतिबिंब था, मुक्तिबोध अपनी पूरी स्फूर्ति और जागरण में थे। वे अद्भुत दिन थे। परसाई की उपस्थिति में मुक्तिबोध चहकने लगते थे, उत्तेजित हो जाते थे, राहत और आश्वस्ति पनपने लगती थी। इन दिनों की कोई चमक नहीं थी, भरपूर जिज्ञासाएं और कौतूहल के दिन थे। मैं सीख रहा था और सीखते व्यक्ति को उन दिनों शर्म से नहीं देखा जाता था। मेरी एक कहानी भी मुक्तिबोध ने पढ़ी जो ज्ञानोदय में छपी थी।’ राजनांदगांव की भुतही कोठी जो महाविद्यालय के पिछले दरवाजे के ऊपर और तालाब के सामने बनी थी, मेें मुक्तिबोध रहते थे, जिसे अब मुक्तिबोध की स्मृति में सजा-संवार दिया गया है लेकिन वे गोल सीढ़ियां अभी भी वहां हैं और वह खिड़की भी वहीं है, जिसमें से तालाब के पानी से भीगी हुई हवा मुक्तिबोध को सहलाती रहती थी।  इन दोनों उद्धरणों में मुक्तिबोध से मिलने और उनके प्रभाव की स्मृतियां हैं लेकिन ज्ञान जी का मन यह सब बताने के बाद भी तृप्त नहीं हुआ इसलिए वे विेशेष रूप से इस बात का उल्लेख करते हैं कि ‘मैंने अंधेरे में कविता के पचास वर्ष का उल्लेख किया है। यह कविता आधुनिक हिंदी कविता का सबसे बड़ा उजाला है। यह उल्लेख इसलिए भी कर रहा हूं कि इस कविता के आसपास ही हम अपना कहानी का संसार बुन रहे थे। इसलिए ‘अंधेरे में' कविता के नये खुलते पाठों से मुझे बहुत कुछ मिला जिसका उल्लेख कठिन है। मेरी रचना प्रक्रिया में हर कहीं इस कविता ने आग रोशन कर दी है। इसके बिंब भीतर काम करते रहे। एक लेखक दूसरे लेखक को किस तरह स्पर्श करता है इसे बताना कठिन ही नहीं असंभव ओैर अधूरा है।’ एक नया लेखक बाद में अपनी प्रसिद्धि के चरम उत्कर्ष काल में भी अपने पूर्वज लेखक को किस शिद्दत से याद करता है, यह वक्तव्य इसका नायाब उदाहरण है। 



ज्ञान जी ने अपने समकालीनों पर ही उदार मन से नहीं लिखा बल्कि वे नये से नये लेखक को भी उतना ही महत्व देते हैं, जिसका प्रमाण ‘पहल’ में प्रकाशित नये लेखकों की रचनाएं और उन पर ज्ञानजी की संक्षिप्त-सी टिप्पणियां हैं। मैंने 2015 से लेकर 2020 तक  ‘पहल’ में समकालीन उपन्यासों पर समीक्षा सीरीज लिखी, मेरा अनुभव है कि जो लेखक फोन पर यह कहते हैं कि ज्ञान जी तो उनसे नाराज हैं इसलिए उनके उपन्यास पर आपका लिखा छापेंगे नहीं, उनकी यह धारणा स्वतः ही समाप्त हो जाती है जब ज्ञान जी को उपन्यास के बारे में बताया जाता था। उस समय ज्ञान जी का कहना होता था कि व्यक्तिगत नाराजगी का कृति से कोई संबंध नहीं है, यदि उपन्यास अच्छा है और आपको पसंद है तो लिखिए ‘पहल’ में छपेगा। मैंने इन पांच वर्षों में ज्ञान जी को कितना समझा है यह दावा तो मैं नहीं कर सकता लेकिन यह जरूर कहना चाहता हूं कि ‘पहल’ की प्रतिष्ठा और ‘पहल’ में छपने वाली रचना और रचनाकारों को ले कर ज्ञान जी के मन में किसी प्रकार के पूर्वाग्रह नहीं पलते। उनकी यह उदारता ही नये से नये लेखकों को पढ़ने, प्रकाशित करने और उनकी प्रशंसा करने में पीछे नहीं रहती। ‘बाज़ार में रामधन’ कहानी से चर्चा में आये कैलाश बनवासी को प्रेमचंद पुरस्कार मिला तो वे बांदा गये और बड़े मन से कैलाश बनवासी के लिये यह कहा ‘कैलाश बनवासी को दुर्ग, भिलाई, राजनांदगांव, बस्तर छोड़ कर कहीं नहीं जाना है। मुक्तिबोध वहीं रह गये, ‘अंधेरे में’ जैसी अद्वितीय कविता लिखी और भी अनेक यादगार कहानियां। केदार जी कहीं नहीं गये, अपना श्रेष्ठतम बांदा में लिखा। कैलाश बनवासी एक अत्यंत मूल्यवान गठरी पर बैठे हैं। छत्तीसगढ़, बस्तर, सरगुजा के अंधेरों में एक ऐसा मनुष्य करवट ले रहा है जिसका बीज मुक्तिबोध ने बोया था। एक खूंखार लड़ाई वहां है, इसका सृजनात्मक उपयोग एकांत श्रीवास्तव ने अपनी लंबी कविताओं और गद्य में किया है। विनोद कुमार शुक्ल की अपनी अमूर्तताओं के पीछे छत्तीसगढ़ के आदिवासी, उनकी शारीरिक भाषा, मानसिक तड़प और व्यापक संस्कृति की परख आप देख सकते हैं। तो कैलाश बनवासी से हमें उम्मीदें इसी तरह से बनती हैं। कैलाश एक छोटी-सी जगह का उभरता हुआ लेखक है। उसमें गजब की शांति और प्रसन्नता है।’ उम्र में बहुत छोटे लेखक के लिये प्रशंसा और उम्मीद के इस प्रकार के शब्द और वाक्य दुर्लभ हैं लेकिन जो ज्ञान जी को जानते हैं वह उनसे यह आशा भी करते हैं। ज्ञान जी की दुनिया बहुत बड़ी है जिसमें तरह-तरह के लोग, कलाकार, लेखक और रंगकर्मी शामिल हैं, ज्ञान जी सभी को मन से प्यार करते हैं।  ‘रंगकर्मियों के जत्थे उदास हैं’ शीर्षक से रंगकर्मी अलख नंदन पर उन्होंने संस्मरण लिखा, जिसकी शुरूआत में वे लिखते हैं ‘रंगकर्मी, निर्देशक और कवि अलख नंदन ने चार दशकों तक निरंतर रंगकर्म करते हुए अनेक बेजोड़ नाटकों की प्रस्तुतियां देश भर में की हैं। उन्हें संगीत नाटक अकादमी का सर्वोच्च सम्मान भीे मिला जो इसी वर्ष मार्च में दिल्ली में दिया जाना था पर मृत्यु ने इसे संभव नहीं होने दिया।’ और अंत इन पंक्तियों के साथ करते हैं ‘अलख नंदन को शिखर सम्मान, संगीत नाटक अकादमी का शीर्ष राष्ट्रीय सम्मान, हबीब तनवीर सम्मान, स्पंदन पुरस्कार और नरसी सम्मान आदि अनेक सम्मान मिले। पर उसका वास्तविक सम्मान रंग जनों के भीतर था। कहते हैं कि वह भोपाल शहर में होने वाला, भरसक हर नाटक देखता था। भारत भवन में उसके लिये एक कुर्सी सदैव खाली रहती थी। वह नाटक देखता और चुपचाप लौट जाता था। वह तत्काल प्रतिक्रिया नहीं देता था। जिस दिन यह कुर्सी खाली रह जाती थी इसका मतलब होता कि अलखनंदन भोपाल में नहीं है। अब यह कुर्सी सदैव खाली रहेगी।’ पूरे संस्मरण में अलख नंदन जी के संघर्ष और रचनाशीलता को ज्ञान जी ने एक-एक कर छुआ है और उसमें उनकी विशेषताओं का भरपूर उल्लेख किया है। इस प्रकार के वक्तव्य, संस्मरण या टिप्पणियां ज्ञान जी की उदारता का परिचय देने के लिये काफी हैं। 


अच्छी रचनाओं, अच्छे लेखकों और अच्छे कलाकारों पर रीझने वाले ज्ञान जी नये लेखकों को अनुभवजन्य सलाह देने में भी पीछे नहीं रहते। कहना न होगा कि उर्दू में अभी भी उस्तादों की परंपरा है पर हिंदी का नये से नया लेखक किसी उस्ताद या सलाहकार की जरूरत महसूस नहीं करता। कोई कितना भी प्रतिभाशाली हो, उसे अपनी परंपरा से कुछ सीखना और जानना चाहिये। ‘नानी की कहानी’ शीर्षक से ‘कहानी मंच’ जबलपुर में बाईस वर्ष पहले कहानीकारों को संबोधित करते हुये ज्ञान जी ने कहा था ‘अगर आप स्वप्न नहीं देख सकते, आप फेंटेसी नहीं देख सकते तो आप कहानी नहीं लिख सकते। आप यथार्थ नहीं लिख सकते।’ उन्होंने आगे कहा ‘हमें इस टेक्नोलॉजी को कोसने से या इसका विरोध करने से कोई फायदा नहीं। अमरीका के अंदर अनेक लोगों ने अपने घरों में टी. वी. बंद कर दिये। टी. वी. से ऊब चुके हैं लोग। ये ऊबा हुआ पूंजीवादी समाज है। ये हर दस मिनट के बाद ऊब जाता है। ये हर चार दिन के बाद अपनी कार का मोडल बदल देता है। ये हर दस दिन के बाद अपना सूट बदल देता है। ये अपना कलम बदल देता है। ये ऊबे हुये लोगों का समाज है। ये जो ट्रेजेडी है यही हमारे लिखने का विषय है।’ मुक्तिबोध और परसाई ने इसी समाज पर लिखा था, जहां सीधे-सीधे बात बनती नहीं दिखी तो फेंटेसी और व्यंग्य में लिखा लेकिन लिखा मजबूती से और डूब कर। जो लोग समाज की परेशानियों और मध्यवर्गीय लोगों के दुहरेपन को देखकर दुखी हो जाते हैं, उन्हें निराश न हो कर उसी समस्या पर लिखना चाहिए ताकि समाज का सच सामने आ सके। अक्सर लेखक दुखी हो कर कहते पाये जाते हैं कि हम जो लिख रहे हैं, उसका कोई असर समाज पर नहीं हो रहा है इसलिए लिखने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। निश्चय ही यह चिंताजनक स्थिति है जिसका जवाब ज्ञान जी ने कहानीकारों के बीच दिया ‘ये चिंताएं जो लोग करते हैं कि साब अब क्या करें कि हम लिखते हैं लेकिन कोई हमारी सुनता नहीं। तो संसार का कोई भी लेखक इन चिंताओं से नहीं लिखता। उसके लिखने की चिंताएं दूसरी हैं-उसके पास मनुष्य के पक्ष में रहने, उसके सुख-दुख में शामिल होने, उसके मौलिक मुद्दों का सृजन करने और उसकी खोज करने की चिंताएं हैं और देखिये हम अपना दुख रोते रहते हैं। आप ये देखिए कि एक वैज्ञानिक है जो जीवन भर काम करता है और उसे कोई नहीं पूछता। उसे अमरीका से निकाल दिया जाता है। एक चित्रकार है जो सारा जीवन चित्र खींचता बनाता है लेकिन उसको कोई नहीं पूछता। जितने भी सर्वोत्तम और सर्वोत्तम किस्म के प्राणी हमारी इस पृथ्वी पर हैं वे सब हाशिये पर हैं। सब उपेक्षित हैं। केवल मीडियाकर्स हैं वही आज सबसे प्रमुख रूप से सामने हैं। इसीलिए यह दुख केवल हमारा दुख नहीं है, ये दुख अनंत लोगों का है। वह चाहे ब्राडकास्टिंग में, चाहे पेंटिंग में, चाहे कविता में, चाहे विज्ञान में, चाहे राजनीति हो-जो सच्चा आदमी होगा, वह दुखी हो जायेगा।’ ज्ञानजी ने सार्वभौम सच से रूबरू करा कर यह संदेश देना चाहा है कि यदि आप कोई महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं तो पूरी जिम्मेदारी से कीजिए क्येांकि वह महत्वपूर्ण काम है जिसे आप ही कर सकते हैं। विज्ञान में और अन्य कलाओं में कितने लोग रात दिन लगे रहते हैं लेकिन उन्हें कोई नहीं जानता, एक दिन जब किसी को नोबल प्राइज मिलता है तो वह रातोंरात प्रसिद्ध हो जाता है लेकिन उसी के असंख्य साथी जो अब भी अपना काम कर रहे हैं वे कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। इसके साथ ही मैं यह भी जोड़ना चाहूंगा कि हर लेखक को यह भी सोचना चाहिए कि वह किसके लिए लिख रहा है, उसका पाठक समूह कौन-सा है जो उसके लिखे की प्रतीक्षा कर रहा है और कौन उसका आलोचक है जो आलोचना के प्रतिमानों पर उस पर लिखने के लिये तैयार बैठा है। हिंदी में यह प्रवृति कमजोर है इसलिए हिंदी प्रदेशों की सामाजिक राजनीतिक हलचलों से लेखकों का कोई लेना देना नहीं है। अभी ऐतिहासिक भारत जोड़ो यात्रा सम्पन्न हुई थी, जो देश की आवाज को कोने-कोने में पहुंचा रही थी पर हिंदी के कितने लेखक थे जो भौतिक रूप से न सही मानसिक रूप से जुड़े, अभी भारतीय अर्थव्यवस्था को चकमा दे कर दुनिया का ताकतवर व्यापारी मध्य वर्ग की सीमित पूंजी को दांव पर लगाये बैठा है पर हमारे लेखक अपनी प्रशंसा में मगन है, इन्हीं दिनों ‘गांधी गोड़से-एक युद्ध’ फिल्म के माध्यम से हमारे जनवादी साथी कठघरे में हैं लेकिन कुछ लेखक हैं कि लोभ मोह के चक्कर में उन्हें निर्दोष सिद्ध करने के लिये शर्मनाक उदाहरण दे रहे हैं। ऐसे लेखकों को ज्ञान जी सचेत करते हुए कहते हैं ‘संसार के सभी छोटे-बड़े लेखक जो लेखन के लिये न्योछावर हैं, प्रतिबद्ध हैं, इस लंबे रास्ते को चुनते हैं, वे पुरस्कार के हकदार हैं। दरअसल, वे उसी दिन पुरस्कृत हो जाते हैं जिस दिन लोक उन्हें प्यार करने लगता है, उनको खोजने लगता है और वे हमारे खयालों में बस जाते हैं। एक हद तक प्रकाशित होना ही पुरस्कृत होना है। कई सीढ़ियां चढ़ कर, दौड़ कर सांस्कृतिक जनता और सामान्य पढ़े-लिखे लोग लेखक पर विभोर हो जाते हैं तो किसी न किसी सूची, किसी न किसी शीर्षक में आपको पुरस्कृत करते हैं। सृजनात्मक साहित्य के साथ तो यही नियम चलता है।’ ज्ञान जी को जहां भी अवसर मिला उन्होंने दो टूक शब्दों में अपनी बात कही, वे लेखकों को जितना चाहते हैं, जितना प्यार करते हैं उतना ही उनसे यह अपेक्षा भी रखते हैं कि वे अपना सर्वोत्तम दें ताकि उनके पाठक, संपादक और आलोचक उनकी रचनाओं पर गौरवान्वित हो सकें। 


कहना न होगा कि ज्ञानजी ने 16 साल हिंदी के शीर्षस्थ रचनाकारों को ‘पहल सम्मान’ दिये और मानक स्थापित किये कि जिस लेखक का हम सम्मान कर रहे हैं, वह वास्तव में बड़ा लेखक है। जबकि हिंदी में यह प्रवृति आम है कि एक ओर लेखकों को सम्मानित कर रहे हैं तो दूसरी ओर उन्हें अपमानित भी कर रहे हैं। इसलिए हिंदी में कोई पुरस्कार ऐसा नहीं है जो विवादों से बचा रहा हो और हिंदी लेखकों की स्थिति यह हो गई है कि शायद ही कोई बायोडेटा बचा हुआ हो जिसके साथ पुरस्कारों की लंबी सूची न जुड़ी हो। पुरस्कार मिलना अच्छी बात है लेकिन पुरस्कारों के साथ विवादों का जुड़ना कतई अच्छी बात नहीं है। शायद इसीलिए जब ‘पहल सम्मान’ को लेकर प्रवाद फैलाये जाने लगे तो उन्होंने इसे स्थगित कर दिया और अपनी नाराजगी स्पष्ट करते हुए कहा कि ‘खुद मुझे ‘पहल सम्मान’ सोलह वर्ष तक चलाने के बाद कठिन, बल्कि असंभव लगने लगा। इसलिए नहीं कि साधन नहीं जुट पाते थे और इसलिए भी नहीं कि बड़े शानदार लेखकों का अभाव था, बल्कि इसलिए कि न्याय की तराजू पतनोन्मुख समाज की बाढ़ के कारण कंपित होने लगी थी, मिथ्या कारणों से लांछित होने की चुनौतियां और खतरे पैदा होने लगे थे। विजेंद्र, कामता नाथ, कुमार विकल, हृदयेश, विद्यासागर नौटियाल, शेखर जोशी, ऋतुराज, आलोक धन्वा, स्वयं प्रकाश, राजेश जोशी, मंजूर एहतेशाम, ज्ञानेंद्रपति, मंगलेश डबराल, संजीव, उदय प्रकाश, चंद्रकांत देवताले, नरेश सक्सेना आदि को पहल सम्मान दिये गये। छोटी-सी कथा है-रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, कृष्णा सोबती, नामवर सिंह, मन्नू भंडारी, राजेंद्र यादव, भगवान सिंह, श्रीलाल शुक्ल, महाश्वेता देवी, तस्लीमा नसरीन, भीष्म साहनी, कुंवर नारायण, मार्कंडेय, नारायण सुर्वे, सुरजीत पातर, गुरदयाल सिंह, रंगनाथ पठारे, सतीश कालसेकर-हिंदी, बंगला, मराठी, पंजाबी, तेलगु साहित्य की हस्तियां मंच पर रहती थीं-प्रायः किसी ने यात्रा भत्ता नहीं लिया। लेकिन लिख कर राजेंद्र यादव के ‘हंस’ में यह आरोप लगाया गया कि पहल सम्मान कायस्थों को दिया जाता है। यही बात वाचिक श्रेष्ठ नामवर सिंह ने दबी जुबान में फैलायी। मित्रों, यह कालिख हमारी भाषा में प्रचुर आवारा पूंजी के आ जाने से लगी है। पहल सम्मान के 90 प्रतिशत लेखकों की जातियां उनके नाम से जुड़ी नहीं हैं। मेरे बाबा, मेरे लेखक पिता, मैंने, मेरे बेटे-बेटियों और नाती-पोतों ने कभी अपने नाम के आगे जातीय संबोधन नहीं लगाये-हमारे घरों में विवाहों द्वारा आने वाली स्त्रियां कर्नाटक, केरल, राजस्थान, पंजाब और महाराष्ट्र से हैं, लेकिन राजेंद्र यादव के गुप्तचरों ने मेरी जाति का कैसे पता लगा लिया?’ यह जवाब पूरे तथ्यों के साथ तो दिया ही गया है साथ ही भाषा की तुर्शी और उसकी संवेदनशीलता को भी कायम रखा गया है। जाहिर है कि इस प्रकार के आरोप हिंदी लेखकों, संपादकों और आलोचकों को बड़ा नहीं बनाते पर जब कोई किसी पर आरोप लगा कर ही बड़ा बनना चाहता हो तब आप, हम या ज्ञान जी क्या  कर सकते हैं? इसलिए ज्ञान जी ने कहा है कि पुरस्कारों को भी अपनी विश्वसनीयता बनानी चाहिए। जाहिर सी बात है कि विश्वसनीयता पर बराबर हमले होंगे पर वह इतनी मजबूत और पारदर्शी हो कि उस पर कोई कितना भी प्रहार करे वह न झुके और न टूटे। हिंदी के लेखकों और पाठकों का बहुत छोटा-सा समाज है इसी समाज में परस्पर गुत्थमगुत्था होती रहती है, एक दूसरे से महान बनने और महानता को कायम करने की कुश्ती लगातार चलती रहती है जिसकी वजह से साहित्य में सामाजिक सरोकार और राजनीतिक दृष्टि गायब होती चली जा रही हैं। किसी भी स्वस्थ समाज और उसके साहित्य के लिये यह अच्छा संकेत नहीं है। 


ज्ञान जी को पढ़ते हुए, उन्हें सुनते हुए और उनसे बातचीत करते हुए अपनेपन का अहसास हमेशा होता है, वे अपनी अमिट छाप छोड़ते हैं और सदाशयता की चादर ताने रहते हैं। अपने घर पर हर आने वाले का वे जिस गर्मजोशी से स्वागत करते हैं, वह उनकी उम्र को बहुत पीछे छोड़ देता है। वे और उनकी सुलक्षणा पत्नी सुनयना जी का आतिथ्य अनमोल है। हिंदी में ज्ञान जी जैसे आत्मीय और भावप्रवण लोग बहुत कम है, अधिकांश अपनी लोभमोह की अंतहीन ईर्ष्याओं में डूबे रहते हैं और खुद को महान साबित करने के लिये मकड़ी जाला बुनते रहते हैं। 



सम्पर्क

आई 17, अक्षत मीडोज, 

हाथोज मोड़, सिरसी रोड, 

जयपुर 302041, 


मोबाइल - 8668898600

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