अमरेन्द्र कुमार शर्मा का आलेख 'औपनिवेशिक विषाद और वि-उपनिवेशीकरण की आवाजें'

 

फ्रेंज फैनन 


हम भले ही खुद के आधुनिक होने का दावा करें लेकिन हमारी मनोवृत्तियां यह साबित कर देती हैं कि सही मायनों में तो हम सभ्य हुए ही नहीं। रंग भेद ऐसी ही मनोवृत्ति है जो आमतौर पर उन श्वेत चमड़ी वाले लोगों का वह फितूर है जिसके चलते वे खुद को श्रेष्ठ मानते हैं जबकि काले अफ्रीकी लोगों को असभ्य और पिछड़ा मानते हैं। यूरोपीय औपनिवेशिक देशों ने एशिया, कैरेबियाई देशों और अफ्रीकी देशों पर अपने शासन को 'व्हाइट मैंस बर्डन' का भ्रामक टर्म गढ़ कर औचित्यपूर्ण साबित करने की कोशिशें की। लेकिन एक न एक दिन उनका यह भ्रम तो टूटना ही था। अफ्रीकी और एशियाई देशों के लोग जब अपने अध्ययन के क्रम में यूरोपीय देश गए तो वहां भी उनके नस्लीय भेदभाव के शिकार हुए। फ्रेंज ओमर फैनन ऐसे ही विचारक थे जिन्होंने फ्रांस में अपनी पढ़ाई के दौरान अपने साथ होने वाले नस्लीय भेदभाव को महसूस किया। इसी भेदभाव को उन्होंने अपने लेखन में उतारा। अनुभवबद्ध होने के कारण उनका लेखन वैश्विक स्तर पर विश्वसनीय माना गया। अमरेन्द्र कुमार शर्मा ने फ्रेंज फैनन के चिन्तन की एक गहन पड़ताल की है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अमरेन्द्र कुमार शर्मा का आलेख 'औपनिवेशिक विषाद और वि-उपनिवेशीकरण की आवाजें'।




'औपनिवेशिक विषाद और वि-उपनिवेशीकरण की आवाजें'

क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो’



अमरेन्द्र कुमार शर्मा

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा


 

‘उपनिवेश का आदमी अपनी हड्डियों में पैठी आक्रामकता का पहला प्रदर्शन अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ करता है।’[1]

                                            

औपनिवेशिक भूदृश्य में श्वेत वर्चस्व और नस्लीकरण की प्रक्रिया के कारण अश्वेत नागरिकों में धीरे-धीरे विकसित होते चले जाने वाली मनोवैज्ञानिक विषाद की अनेकश: परतों का प्रत्याख्यान करने वाले साइकोपैथ, रेडिकल राजनीतिक बुद्धिजीवी, उत्तर-उपनिवेशवादी अध्येता और वि-उपनिवेशीकरण की आवाजों को रेखांकित करने वाले फ्रेंज ओमर फैनन (20 जुलाई 1925-6 दिसम्बर 1961) को पढ़ते हुए 29 जनवरी 1954 को रावलपिंडी के मोंटगोमेट्री जेल में रहते हुए फ़ैज अहमद फ़ैज की लिखी नज्म की यह पंक्ति बारहा याद हो आती है, 


क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो’[2]। 


असल में, अश्वेतों की जिंदगी औपनिवेशक दुनिया में ‘क़फ़स’ की रही है जिसे बरसों से ‘सबा’ का इंतजार रहा है। भारत में लगभग इसी तरह की जिंदगी स्त्रियों और दलितों की भी रही है बाबासाहेब आंबेडकर का चिंतन सामाजिक संरचना के व्यापक फ़लक पर भारत के दलितों के जीवन में ‘सबा’ बन कर उपस्थित हुआ। अश्वेतों की त्रासद दुनिया में फ्रेंज फैनन का जीवन, चिंतन और लेखन ‘सबा’ बन कर शामिल होता है, लेकिन उपनिवेश की तमाम दृश्य-अदृश्य दुश्वारियों के साथ। फ्रेंज फैनन का जीवन, चिंतन और लेखन इन्हीं दुश्वारियों की गाथा है. यही कारण रहा है कि, फ्रेंज फैनन की ‘द रैचेड ऑफ़ द अर्थ’ की गाथा में अपनी आवाज को शामिल  करते हुए अपने समय को तार्किक और तीख़े ढ़ंग में प्रभावित करने वाले दार्शनिक ज्याँ पाल सार्त्र (1905-1980), प्रस्तावित करते हैं, कि  ‘हमसे उत्पीड़ित लोग हमें अपने जख्मों और बेड़ियों से पहचानते हैं, और यही बात उनकी गवाहियों को अकाट्य बना देती हैं। हमने उनका क्या हश्र कर दिया, इसका हमें उनके द्वारा अहसास कराना ही यह समझने के लिए काफ़ी है कि हमने खुद अपना क्या हश्र कर लिया है।’ फ्रेंज फैनन वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया में हिंसा के गुण-धर्म, देसी व्यक्ति की ताकत और उसकी अनिवार्य कमजोरियाँ, मनोविकारों का अध्ययन करते हुए देसी व्यक्ति में राष्ट्रीय चेतना की भावना के विकास और उसकी खामियों को भी हमारे सामने लाते हैं। वे राष्ट्रीय संस्कृति के विकास में देसी व्यक्ति की भूमिका की सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक तैयारी की रुपरेखा प्रस्तुत करते हुए देसी व्यक्ति के मनोविज्ञान की निर्मितियों में उपनिवेश की भूमिका की व्यापक काट-छाँट करते हैं। ऐसा करते हुए फैनन लोक-कथाओं, कविताओं और जातीय स्मृति की अग्रगामी मूल्यों एवं उसकी ताकतों को याद करते हैं।  

                                          

फ्रेंज फैनन का जन्म मेक्सिको की खाड़ी के कैरेबियन द्वीपसमूह में शामिल एक छोटे से द्वीप एंटीलीज के मार्टिनीक्यू में हुआ था। एंटीलीज के मार्टिनीक्यू का अधिकांश हिस्सा कैरेबियन समुद्र के पूर्वी हिस्से में खुलते हुए अटलांटिक महासागर में विस्तार पाता है।मार्टिनीक्यू फ़्रांस का उपनिवेश था आजकल यह फ़्रांस के ओवरसीज का महत्वूर्ण हिस्सा है। वाशिंगटन के उत्तर पश्चिम में स्थित एक छोटे से स्थान बेथेस्डा में उनकी मृत्यु हुई यहाँ से उनकी मृत देह को अल्जीरिया के एन केरेमा ले जाया गया और वहीं दफ़नाया गया। मृत्यु के कुछ ही दिनों पूर्व 1961 में प्रकाशित फ्रेंज फैनन की सबसे प्रसिद्ध और अपने समय में कई कारणों से विवादित किताब ‘द रैचेड ऑफ़ द अर्थ’ औपनिवेशिक दुनिया की शल्यक्रिया करती है। आज, फ्रेंज फैनन की मृत्यु के साठ साल बाद और ‘द रैचेड ऑफ़ द अर्थ’, जिसके प्रकाशन के भी साठ साल पूरे हुए हैं, से गुजरते हुए औपनिवेशक विषाद की तमाम दुश्चिंताओं तथा हमारे समय की गतिकी में बोई जाने वाली नफ़रत और हिंसा के आह्वान की फ़सल जिसमें भविष्य के लिए ‘नफ़रत और हिंसा का उपनिवेश’ बन जाने की तमाम संभावनाएं हैं। इन सब कारणों से उत्पन्न होने वाले हालात की दुश्चिंताओं के कारण उत्पन्न स्नायु विकार की चिकित्सकीय ढांचें में ‘कम्युनिटी सायकोलोजी’ के न केवल महत्त्व को समझा जा सकता है बल्कि औपनिवेशिक जकड़बंदी के बहुस्तरी ढांचें के विरुद्ध वि-उपनिवेशीकरण की दार्शनिकता को भी समझा जा सकता है। वि-उपनिवेशीकरण की दार्शनिकता के कई आयाम हैं, या यों कहें कि समझे जाने के कई सूत्रीकरण हो सकते हैं, जिसमें से किसी एक का चयन हमेशा समझ को अधूरेपन की तरफ ले जा सकता है। श्वेत वर्चस्व और उसके नस्लीकरण की प्रक्रिया में अश्वेत नागरिकों के हाशिए और कभी-कभी हाशिए से भी बाहर चले जाने को समझने के लिए कई बार अश्वेत नागरिकों की वंश-परम्परा, इतिहास बोध और उसके आत्म-निष्ठ रूपों के अध्ययन की तरफ बढ़ना पड़ता है। इस अध्ययन में मनोविज्ञान की समझ एक आधार भूमि के रूप में उपस्थित हो सकता है, बल्कि होता ही है। बुल्गारियन-फ्रेंच दार्शनिक जूलिया क्रिस्तोवा (1941) वंश-परम्परा, इतिहास बोध और उसके आत्म-निष्ठ रूपों के अध्ययन की पद्धति को ‘सिमएनालाइज’[3] कहती हैं। इस पद्धति में ‘साइकोएनालिसिस’ शामिल है. फ्रेंज फैनन के यहाँ अध्ययन या विश्लेषण की यह पद्धति ‘साइकोपैथ’ के सहारे आगे बढ़ती है। फ्रेंज फैनन के जीवन पर फेड्रिक नीत्से (1844-1900), कार्ल यास्पर्स (1883-1969) के साथ विशेष रूप से ज्याँ पाल सार्त्र, ज़ाक लकां (1901-1981) का प्रभाव तो रहा ही है लेकिन वे अपनी चिंतन-यात्रा की आंतरिक लय में अपने दोस्त और सलाहकार एमे सेजैरे (1913-2008) को याद करते हैं। एमे सेजैरे एंटलिज द्वीपसमूह के छोटे से द्वीप मार्टीनिक, जो फ़्रांस गणराज्य का भाग है के कवि और राजनीतिज्ञ रहे हैं। फ्रेंज फैनन जब तक मार्टीनिक द्वीप पर रहे तब तक एमे सेजैर ही उनके शिक्षक और संरक्षक की हैसियत से रहे थे। अफ्रीकन डायस्पोरा की चिंतनधारा को समझने के लिए फ्रेंज फैनन को पहली बार ‘नेग्रिट्यूड’[4] की धारणा से एमे सेजैर ने ही परिचित कराया था जिसके आधार पर फ्रेंज फैनन ने अश्वेत अलगाववादी संरचना को समझा। विश्व के तमाम उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों, नागरिक अधिकार आंदोलनों और ‘अश्वेत चेतना’ की तरफदारी करनेवालों पर फैनन के चिंतन का असर रहा है। ईरान के अली शरियाती (1933-1977), दक्षिण अफ्रीका के स्टीव बीको (1946-1977) तथा अफ्रीका-संयुक्त राज्य अमेरिका के मैल्कम एक्स (1925-1965) जैसे सामाजिक आंदोलनकर्ताओं ने अश्वेत चेतना पर काम करते हुए एक वि-उपनिवेशिकृत ‘नए मनुष्य’ की धारणा प्रकट कर रहे थे। ब्राजील के शिक्षाविद् पाउलो फेरो (1921-1997) के चिंतन पर भी फैनन के कार्य का  महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है। अमेरिकी मुक्ति संघर्ष के संबंध में जिसे आमतौर पर ‘द ब्लैक पावर मूवमेंट’ के तौर पर जाना जाता रहा है, फैनन के चिंतन और कार्य का विशेष रूप से प्रभाव रहा है। फ्रेंज फैनन ने समकालीन अफ़्रीकी साहित्य की संरचना को न केवल गहराई से प्रभावित किया है बल्कि अफ़्रीकी महादेश के कई साहित्यकारों की चिंतन-दिशा पर भी प्रभाव डाला है।  घाना के आई क्वे अरमाह (1939), सेनेगल के प्रसिद्ध उपन्यासकार ओस्मान सेम्बेन (1923-2007) और सेनेगल की प्रसिद्ध लेखिका केन बुगुल (1947), जिम्बाब्वे की नाटककार, उपन्यासकार और पटकथा लेखिका त्सित्सी डांगारेम्बगा (1959) और केन्या के ख्यात साहित्यकार, भाषाविद न्गोगो वा थिओंगो (1938) जैसे लेखकों की साहित्य-यात्रा पर फ्रेंज फैनन के विचारों की चमक को देखा-परखा जा सकता है. फ्रेंज फैनन की पहली किताब ‘ब्लैक स्किन, वाइट मास्क’ (1952) दूसरी ‘ए डाईंग कोलोनियलिज्म’ (1959) तीसरी ‘द रैचेड ऑफ़ द अर्थ’(1961) है. उनकी मृत्यु के बाद दो किताबें प्रकाशित हुईं। 1964 में ‘टुवर्ड्स द अफ्रीकन रिवोल्यूशन’ और कई वर्ष बाद 2018 में जीन खाल्फा एवं रोबर्ट यूंग द्वारा संपादित ‘एलियनेशन एंड फ्रीडम’. इसके अलावे लगभग दो दर्जन किताबें और कई शोध पत्र फ्रेंज फैनन पर अलग से लिखी गई हैं। नस्लीय श्रेष्ठताबोध, साम्प्रदायिक उन्माद और विकसित होते गैर-वैज्ञानिक बोध के बीच  फ्रेंज फैनन को पढ़ते हुए ‘नया मनुष्य’, ‘अंतिम मनुष्य’, ‘नई भाषा’, अश्वेत कामुकता, अश्वेत चेतना, अश्वेत नैतिकता आदि बंधुता, समानता और वैज्ञानिक चेतना पर आधारित दुनिया के नए दरवाजे दिखलाई देते हैं।


जर्मनी की राजनीतिक, दार्शनिक लेखिका हाना आरेंट (1906-1975) जो होलोकास्ट से बच कर बाहर निकल आई थीं, ने जब यह कहा कि, ‘कोई विचार ख़तरनाक नहीं है सोचना खुद में ही खतरनाक है।’ तब वे यूरोपीय फासीवाद के सबसे नृशंसता प्रारूप को प्रकट कर रही होती हैं। हर सोचने वाले व्यक्ति से किसी भी किस्म के फासीवाद को चाहे वह किसी भी भूगोल में घटित हो रहा हो सबसे अधिक ख़तरा हुआ करता है. तात्त्विक रूप में ठीक इसी तरह से औपनिवेशिक दुनिया भी सोचने-विचारने वालों से परहेज करती रही है। पूँजीवाद अपने शातिर चालों में बड़े ही चालाकी से सोचने-विचारने के प्रारूप को प्रतिरोध के विभिन्न कृत्रिम ढांचों में समायोजित कर लेता है। फ्रेंज फैनन उपनिवेश के तमाम शातिर चालों की शल्य-क्रिया करते हुए वि-उपनिवेश की प्रक्रिया से गुजरने वाले समाजों के मनोविज्ञान की परतें खोलते हुए चलते हैं। वि-उपनिवेशीकरण में दरअसल एक ‘प्रजाति’ के लोग दूसरी ‘प्रजाति’ के लोगों की जगह ले लेते हैं और उनके भीतर सौंदर्य प्रतीति के मानक बदल जाते हैं। ‘क्रिटिक ऑफ़ द पॉवर ऑफ़ जजमेंट’ (1790)  में जब  इमेनुअल कांट (1724-1804) यह प्रस्तावित करते हैं कि, सौंदर्य कल्पना और समझ की संज्ञानात्मक शक्तियों के बीच एक ‘मुक्त खेल’ है। तब वे सभ्यता की निर्मिती में इस खेल के वर्चस्वशाली रूपबंधों की पहचान की प्रस्तावना कर रहे होते हैं। औपनिवेशक संरचना में यह ‘मुक्त खेल’ बहुस्तरी बुनावटों के साथ खेला गया है। वि-उपनिवेशीकरण की चिंतन प्रक्रिया में फैनन का इस ‘मुक्त खेल’ को समझने पर जोर रहा है।                                                

                     



फ्रेंज फैनन की पहली पुस्तक ‘ब्लैक स्किन, व्हाइट मास्क’ (1952) मोटे तौर पर श्वेत वर्चस्व वाली दुनिया में अश्वेत लोगों के अस्तित्व का अध्ययन करती हुई अश्वेतों के जीवन में औपनिवेशिक अधीनता के कारण धीरे-धीरे पसरते नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभावों का विश्लेषण करती है। फैनन की यह पुस्तक मूल रूप से, उनके डॉक्टरेट के लिए प्रस्तुत शोध प्रबंध की पांडुलिपि थी जिसे फैनन ने विश्वविद्यालय में मनोचिकित्सा का अध्ययन करते समय नस्लीय वातावरण में अनुभव किया था। डॉक्टरेट के लिए प्रस्तुत शोध प्रबंध की इस पांडुलिपि को अस्वीकृत किए जाने के बाद फैनन ने इसे एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने का फैसला किया। आगे चल कर अपने डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी की डिग्री के लिए एक अलग विषय पर अपना शोध प्रबंध फैनन ने प्रस्तुत किया था। यह किताब नीग्रो समुदाय की भाषाई संरचना की सतह के नीचे उपनिवेश की गंध की खोज करती हुई यह समझाती है कि किस तरह से अश्वेत व्यक्ति का व्यवहार अपने अश्वेत साथी के लिए अलग और श्वेतों के साथ अलग हो जाया करता है। अश्वेत व्यक्ति के भीतर इस तरह का आत्म-विभाजन उपनिवेशवादी अधीनता के कारण उत्पन्न होता है। फ्रेंच उपनिवेश में रहने के कारण अश्वेत व्यक्ति श्वेतों की भाषा फ्रेंच तो बोलता है और यह बोलते हुए वह श्वेत बनना भी चाहता है लेकिन अपने अश्वेत सांस्कृतिक उपकरणों और ऐतिहासिक स्थितियों में वह अश्वेत ही रहता है। अश्वेतों के इस आत्म-विभाजन को फैनन ने मुक्ति में बाधा की तरह देखा है। इसी किताब में फैनन ‘द फैक्ट ऑफ ब्लैकनेस’ के तहत अश्वेत की शारीरिक संरचना के सहारे अश्वेतों की मानसिक संरचना की बुनावट और उसके संघर्षों के प्रारूप को प्रस्तुत करते हैं। वे यह मानते हैं, कि अश्वेतों के लिए यह आवश्यक है कि वह जितनी जल्दी अपने आत्म-विभाजन से मुक्त हो जाए क्योंकि उपनिवेश के विरुद्ध संघर्ष और अपने भीतर के आंतरिक संघर्ष का रास्ता उसकी अपनी वास्तविक स्थितियों के भीतर से ही निकलेगा न कि श्वेत वर्चस्व की स्वीकृति से। ‘ब्लैक स्किन, व्हाइट मास्क’ में फैनन ने  ‘अश्वेत कामुकता’[5] की धारणा प्रस्तुत की है। हाल ही में नए सिरे से अमेरिका में ‘अश्वेत कामुकता’ की एक राजनीतिक धारणा का विकास हुआ है। फैनन की ‘अश्वेत कामुकता’ की धारणा के भीतर समलैंगिकता, मर्दानगी की विभिन्न मनोवैज्ञानिक और सामाजिक स्थितियों को ले कर कई चिंतकों ने सवाल खड़े किए। उपनिवेशों के भीतर इस प्रकार के चिंतन की जिस शैली का विकास हुआ उससे अलग उत्तर-औपनिवेशिक अध्ययनों में ‘एलजीबीटी’ के साथ ‘अश्वेत कामुकता’ को समझा गया। यूरोपीय और अमेरिकी संस्कृति ‘अश्वेत कामुकता’ को ‘पॉपुलर कल्चर’ के तहत ‘ब्लैक ब्यूटी’[6] के रूप में स्थापित करते हुए ‘अश्वेत सौंदर्य’ का एक नया उपनिवेश निर्मित कर दिया है। ‘अश्वेत सौदंर्य’ को ले कर श्वेतों के मनोविज्ञान को समझने में फ्रेंज फैनन का चिंतन बेहद महत्त्वपूर्ण है। ‘ए डाईंग कोलोनियलिज्म’ किताब की भीतरी दुनिया में फैनन की देशीय यात्रा के अनुभव हैं जो उन्होंने अल्जीरिया के कबाइली क्षेत्रों की थी। फैनन इन क्षेत्रों में रहने वालों देशज लोगों के सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक जीवन का अध्ययन करते हुए उपनिवेशवाद की मृत्यु के पैटर्न को रेखांकित करते हैं। वे देखते हैं कि अल्जीरियाई क्रांति के दौरान किस तरह से अल्जीरिया के निवासियों ने सदियों पुराने अल्जीरिया के सांस्कृतिक पैटर्न को बदल रही थी और अपनी कुछ प्राचीन सांस्कृतिक प्रथाओं का नए सिरे से अनुसंधान कर रही थी जिसे वर्षों से उपनिवेशवादी उत्पीड़कों द्वारा उपेक्षित रखा गया था। अल्जीरिया के लोग अपनी प्राचीन सांस्कृतिक प्रथाओं का इस्तेमाल उपनिवेशवादी अत्याचारियों को नष्ट करने के लिए कर रहे थे। फैनन अल्जीरियाई क्रांति के प्रारूप का इस्तेमाल औपनिवेशिक उत्पीड़न की विभिन्न तहों को समझने में करते हैं।             

                                     




फ्रेंज फैनन देसी व्यक्ति और अधिवासी व्यक्ति की बायनरी में वि-उपनिवेश और उपनिवेश की संरचना के मनोविज्ञानिक पहलुओं को ‘द रैचेड ऑफ़ द अर्थ’ (धरती के अभागे) में समझने के लिए प्रस्तावित करते हैं। यहाँ वे, राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष में वर्ग, नस्ल की भूमिका के साथ-साथ राष्ट्रीय संस्कृति और हिंसा की भूमिका का विश्लेषण करते हुए हिंसा के दर्शन पर ठीक उसी तरह से बात करते हुए दिखलाई देते हैं जैसे भगत सिंह ‘बम का दर्शन’ पर बात करते हैं। उपनिवेशवाद में हिंसा के विचारों पर स्वयं को केन्द्रित करते हुए फैनन यह दावा करते हैं कि उपनिवेशवाद से मुक्ति स्वाभाविक रूप से एक हिंसक प्रक्रिया है, क्योंकि बसने वाले और देसी व्यक्ति के बीच का संबंध विपरीतताओं का एक द्विआधारी है। आखिर वह कौन से कारण हैं जो औपनिवेशिक दुनिया में लोगों के सामने हिंसा का रास्ता खोल देती है। इस मनोविज्ञान को समझे बिना फैनन के ‘हिंसा की बात’ को समझा नहीं जा सकता. किस तरह से उपनिवेश के राजनीतिक दल, औपनिवेशिक बुद्धिजीवी और व्यावसायिक कुलीन वर्ग धीरे-धीरे एक ऐसे परिवेश का निर्माण कर देते हैं जो देसी लोगों में लंबी अवधि तक औपनिवेशिक विषाद बन कर प्रकट होता है। उपनिवेशवाद के खात्मे के संदर्भ में विचार करते हुए फैनन बाइबिल के एक रूपक का सहारा लेते हैं, कि,‘जो आखिरी है वह पहले होगा, और जो पहला है, वह आखिरी होगा।’ असल में, फैनन के चिंतन में इस पहचान को बल मिला है कि, ‘दो खानों में बंटी, दो टुकड़ों में बंटी इस दुनिया में दो भिन्न प्रजातियाँ रहती हैं।’ बाइबिल के रूपक के सहारे ही फैनन के इस विश्लेष्ण को समझा जा सकता है, ‘अगर अंतिम को पहला बनना है तो यह दो नायकों के बीच ख़ूनी और निर्णायक युद्ध के बाद ही होगा।’ महात्मा गांधी के चिंतन में ‘अंतिम आदमी’ की धारणा का परिपेक्ष्य फैनन की धारणा से एकदम विपरीत दिखलाई देता है लेकिन यह भी सत्य है कि दोनों के चिंतन में ‘अंतिम आदमी’ है। फैनन के यहाँ यह ‘अंतिम आदमी’ ही ‘नया मनुष्य’ है। फैनन, धर्म के उस तंत्र का भी पर्दाफ़ाश करते हैं जिसके तहत देसी व्यक्ति में उपनिवेश के प्रति क्रोध और हिंसा पनपती है। वे उन संतों की आलोचना करते हैं जिन्होंने ‘एक गाल पर थप्पड़ के जवाब में दूसरा गाल’ पेश किए जाने की बात कही थी। फैनन वि-उपनिवेशीकरण को ‘दुनिया की व्यवस्था  बदलने का उपक्रम’ मानते हैं। फ्रेंज फैनन का चिंतन एक नई दुनिया के होने का खुला प्रत्याख्यान रचता है। इस खुले प्रत्याख्यान में नए मनुष्य और नई भाषा के होने की घोषणा है। वे यह मानते हैं कि, वि-उपनिवेशीकरण कभी गुपचुप नहीं होता, क्योंकि यह व्यक्तियों को प्रभावित करता है और उन्हें बुनियादी तौर पर बदल देता है. ... यह एक स्वाभाविक लय को जन्म देता है जिसे ‘नया मनुष्य’ शुरू करता है और इसी के साथ एक ‘नई भाषा’ और ‘नई मानवता’ भी आती है।’[7] फैनन इस आविष्कृत ‘नई भाषा’ के तईं बेहद सावधानी से विचार करते हुए, उस परिप्रेक्ष्य को अपनी नजरों से कभी ओझल होने नहीं देते, जिसमें उपनिवेश का देसी व्यक्ति बड़े ही जतन से कोई कृति की रचना करते हुए स्वयं को सांस्कृतिक रूप से संपन्न समझने लगता है लेकिन वह यह नहीं जाना रहा होता है, कि जिस भाषा और तकनीक के सहारे वह यह सब कह रहा है वह श्वेत वर्चस्व वाले एक अजनबी देश से उधार ली गई है। वि-उपनिवेशकरण की आवाजों में देसी व्यक्ति की स्वयं की भाषा की आवाज पर फैनन का  सबसे अधिक जोर रहा है। फैनन भाषा और तकनीक के सहारे विकसित होते देसी साहित्य और उसके राष्ट्रीय स्वरूप  के विकास में रचनात्मकता के तीन चरणों की पहचान करते हैं। ‘पहला चरण में देसी बुद्धिजीवी यह प्रमाण पेश करता है कि उसने आधिपत्य जमाने वाली ताकत की संस्कृति को अनरंग कर लिया है। उसकी रचनाएँ मुद्दा दर मुद्दा संरक्षक देश के उसके विरोधी लेखकों की रचनाओं के सदृश होती हैं। उसकी प्रेरणा यूरोपीय होती है और हम उसकी रचनाओं को संरक्षक देश के साहित्य में चल रही प्रवृतियों से आसानी से जोड़ सकते हैं। यह बिना शर्त आत्मसातीकरण का दौर है. ...दूसरे चरण में हम देसी शख्स को परेशान पाते हैं, वह यह याद करने का फैसला कर लेता है कि वह कौन है। रचनाशीलता का यह दौर करीब-करीब उस समावेशन के साथ-साथ चलता है।  ...तीसरे चरण में, जिसे संघर्ष का चरण कहा जाता है, जनता के बीच और जनता के साथ खुद को समाविष्ट करने की कोशिश कर चुका देसी व्यक्ति उलटे जनता को झकझोर देगा। जनता के आलस को अपने तईं सम्मानित जगह देने की जहग वह खुद को जनता को जागरूक बनाने वाले में परिवर्तित कर लेता है। इस तरह संघर्ष का, क्रांति का सहित्य और एक राष्ट्रीय साहित्य सामने आता है।[8] यही वह जगह है, जहाँ देसी व्यक्ति के सामने यह साफ़ हो जाता है कि फ़िलहाल वह अपने होने का सबूत अपने राष्ट्र की संस्कृति के सहारे नहीं प्रस्तुत कर सकता बल्कि अपने होने को आधिपत्य ज़माने वाले उपनिवेश की ताकतों के खिलाफ़ जनता के संघर्ष में ही दिखा सकता है। दरअसल, वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया में अपनी जड़ों, अपने अतीत बोध, अपनी जातीय स्मृतियों को जिस तरह से याद किया जाता है, बड़ी आसानी से उनके लिए यह कह दिया जाता है कि, यह उन सबकी जकड़बंदियों में फिर से स्वयं को शामिल कर लेना है। जबकि, यह ऐसा नहीं होता, कम से कम फ्रेंज फैनन की धारणा में ऐसा नहीं है। फ्रेंज फैनन की धारणा में ‘वि-उपनिवेशीकरण का मतलब पीछे लौटना नहीं है।’ बल्कि वे जातीय स्मृति के ‘उन गुणों’ पर भरोसा करना हैं जो अपने समय में ‘अच्छी तरह आजमाए जा चुके हैं, मजबूत हैं और बेहद सम्मानित हैं।’[9] वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया का यह एक महत्त्वपूर्ण स्रोत होता है। दरअसल, इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि, कभी-कभी श्वेतों की वर्चस्वशाली संस्कृति से स्वयं को बचाने के लिए देसी व्यक्ति अपनी अज्ञात जड़ों की ओर लौटने लगता है, असभ्य लोगों की झुंड में स्वयं को समाहित कर देता है। वह ऐसा इसलिए करता है कि कहीं वह अपने लोगों से अलग-थलग पड़ न जाए। इसलिए देसी व्यक्ति औपनिवेशिक विषादों से खुद को बचाने के लिए अपने लोगों के बीच जा कर हर चीज को स्वीकारने से नहीं हिचकता है चाहे इस स्वीकार करने के कारण उसे अपनी आत्मा और शरीर को क्यों न खोना पड़ जाए। क्योंकि, उपनिवेश में श्वेत मूल्यों के वर्चस्व को दरअसल, जिस हिंसा के बल पर स्थापित किया जाता है और देसी व्यक्ति की जीवन और विचार शैली पर इन मूल्यों की विजय में जो श्वेत आक्रामकता दिखलाई देती है वह तब तक रहती है जब तक कि अश्वेतों पर श्वेत मूल्यों के वर्चस्व को स्थापित न कर दिया जाए। फ्रेंज फैनन देसी व्यक्ति में पसरे हुए औपनिवेशक विषादों की गहराई से मनोवैज्ञानिक पड़ताल करते हैं। वे उन कारणों की तलाश में जाते हैं जहाँ, ‘मुक्ति और श्वेतों की संस्कृति के वर्चस्व से बचने के लिए देसी व्यक्ति को अपनी अज्ञात जड़ों की ओर लौटने की जरूरत महसूस होती है’। उपनिवेश की लंबी यात्रा में ‘देसी व्यक्ति को चूँकि यह महसूस होता है कि वह अलग-थलग पड़ रहा है. ... वह हर चीज कबूल कर लेता है, सबको स्वीकार कर लेने का फैसला कर लेता है और हर चीज की पुष्टि करता है भले ही उसे अपनी आत्मा और अपना शरीर खोना पड़े। वह न केवल अपने लोगों के अतीत का पैरोकार बन जाता है, खुद को उनमें से एक के तौर पर गिने जाने के लिए राजी हो जाता है।’[10] असल में उपनिवेश की आंतरिक संरचना में, ‘अधिवासी हमेशा शत्रु, प्रतिद्वंद्वी, दुश्मन’ ही बना रहता है इसलिए उसे हर हाल में परास्त किया जाना आवश्यक होता है। वि-उपनिवेशीकरण में अधिवासी व्यक्ति की पराजय से ही देसी व्यक्ति में एकता स्थापित की जा सकती है।

                         




औपनिवेशिक विषाद की जड़ें लंबे समय से चली आ रही आर्थिक-संरचना की तबाही से जुडी हुई होती है। उपनिवेशों की दुनिया में यह आसानी से देखा जा सकता है कि, ‘आप अमीर हैं क्योंकि आप श्वेत हैं, आप श्वेत हैं क्योंकि आप अमीर हैं।’ यह विचार धीरे-धीरे उपनिवेश के संपूर्ण संरचना में शामिल हो जाता है। भारतीय भू-दृश्य में अंग्रेजों द्वारा खेती के प्रारूप से छेड़-छाड़, लघु और कुटीर उद्योगों आदि की भयानक तबाही ने भारतीय आर्थिक-संरचना की कमर किस तरह से तोड़ी थी, इसके कई आंकड़े आसानी से उपलब्ध हैं। उपनिवेशों की मूल्य-चेतना और नैतिकता के द्वैत की काट-छाँट करते हुए फ्रेंज फैनन का अवलोकन बेहद महीन रहा है। एक ओर, मूल्य-चेतना और नैतिकता के नस्लीय रूपबंध के आंतरिक एकत्त्व की महीन बुनावट को फ्रेंज फैनन ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान देख रहे थे, जब युद्ध के दौरान अश्वेत सैनिकों द्वारा मुक्त की गई यूरोपीय महिलाएँ अक्सर इतालवी फासीवादी श्वेत कैदियों के साथ नृत्य करना ज्यादा पसंद करती थीं, बजाय इसके कि वे अश्वेत मुक्तिदाता सैनिकों के साथ भाईचारा निभाएँ। दरअसल, इन महिलाओं में एक खास किस्म से श्वेत यूरोपीय नस्लवाद की मूल्य-चेतना और कथित श्रेष्ठ नैतिकता निवास करती थी। दूसरी ओर, उपनिवेशवादी श्वेत अक्सर देसी व्यक्ति को लक्षित करते हुए यह घोषणा किया करता है कि, ‘वह नैतिकता के प्रति असंवेदनशील है, वह न केवल मूल्यों के लोप का बल्कि मूल्यों के नकार का भी प्रतिनिधित्व करता है। हमें यह मान लेना चाहिए कि वह मूल्यों का शत्रु है और इस नाते वह संपूर्ण बुराई है। वह एक ऐसा तत्त्व है जो अपने संपर्क में आने वाली हर चीज को नष्ट कर देता है। सौंदर्य और नैतिकता से जुड़ी हर चीजों को विकृत कर देता है, वह अशुभ शक्तियों के भंडार है, अंधी ताकतों का अचेतन और कारक औजार है।’ देसी व्यक्ति के बारे में यह एक आम समझ थी जो दुनिया भर के उपनिवेशों की धरती पर पसरी हुई थी। भारत में भी अंग्रेजों द्वारा आम भारतीयों के लिए अपढ़, जंगली जैसे पद के प्रयोग किए जाने के कई उदाहरण हैं।

                        

फ्रेंज फैनन, औपनिवेशिकता के विरुद्ध अश्वेतों में मुक्तिकामिता के प्रश्न को हिंसा के दर्शन के साथ समझने की जद्दोजहद में श्वेत वर्चस्व के कारण अश्वेतों के जीवन में पसरे हुए अलगाव को रेखांकित करते हैं। अश्वेतों के जीवन में ‘अलगाव’ एक बीमारी है। इस बीमारी का कारण उपनिवेशवाद है। इस बीमारी से मुक्ति का रास्ता क्रांति है जिसके माध्यम से अश्वेत अपनी स्वतंत्रता हासिल कर सकते हैं।[11] एक गुलाम अश्वेत की डेस्टिनी स्वतंत्रता हासिल करना ही होता है। अश्वेतों के लिए स्वतंत्रता क्रांति के रास्ते ही संभव है। दरअसल, 1947 में जब फैनन मेडिकल की पढाई के लिए फ़्रांस जाते हैं तब पूरे फ़्रांस में सार्त्र के अस्तित्वादी दर्शन की धूम मची थी। कार्ल मार्क्स और लेनिन के विचारों को अध्ययन करते हुए फैनन ने सार्त्र के चिंतन को भी ठीक से समझा था। 1951 में अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करते-करते और 1953 में अपनी पत्नी के साथ अल्जीरिया लौटते-लौटते फैनन ने फ़्रांस में श्वेत आग्रहों को ध्यान से देखा था। उन्होंने देखा था कि उन्हें कभी भी एक व्यक्ति के तौर पर फ़्रांस में नहीं देखा गया बल्कि एक अश्वेत व्यक्ति के तौर पर देखा गया। वे वहाँ मेडिकल के विद्यार्थी नहीं बल्कि एक अश्वेत विद्यार्थी थे, वे एक डॉक्टर नहीं बल्कि एक अश्वेत डॉक्टर थे। फ़्रांस की सामाजिक संरचना में पैबस्त नस्लीय बोध का गहन असर फैनन के विचार पर हुआ था। इस असर का परिणाम ही हमें ‘ब्लैक स्किन, व्हाइट मास्क’ में दिखलाई देता है। फ़्रांस के श्वेत समाज के आग्रहों ने फैनन को निष्पक्ष रहने नहीं दिया। इसी कारण फैनन, श्वेतों के विरुद्ध हिंसा की धारणा पर चिंतन करते हुए, यह मानने लगते हैं कि, ‘देसी व्यक्ति के लिए, निष्पक्षता हमेशा उसके ख़िलाफ़ होती है।’ वे दुनिया के तमाम उपनिवेशों में पसरी हुई हिंसा की एकरूपता की शिनाख्त करते हैं जिसे ख़ामोशी के साथ उपनिवेशों ने समर्थन दिया है। उपनिवेशों की आपसी रजामंदी की राजनीति की कई परतें होती हैं।[12] अब, जब कि यह साबित हो चुका है कि उपनिवेशवादी देशों ने, युद्ध के क्षेत्रों में देसी लोगों को प्रशिक्षित सैनिक बना कर उसका इस्तेमाल स्वतंत्रता के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों के ख़िलाफ़ करता है और इस तरफ से उपनिवेशवाद देसी व्यक्तियों को स्वयं के विरुद्ध खड़ा हो जाने के लिए बाध्य कर देता है उपनिवेशवाद आजादी की चेतना का हत्यारा होता है। आजादी ही किसी भी देश की संस्कृति के विकास को लोक कल्याणकारी  बनाए रखती है। वि-उपनिवेशीकरण की कोई भी प्रक्रिया तब तक पूरी नहीं हो सकती जब तक की इस प्रक्रिया में शामिल सभी तरह की आवाजों के प्रति समानता का व्यवहार न किया जाए. भारत में उपनिवेश की जड़ें सिर्फ ब्रिटिश संस्कृति से ही जुड़ी हुई नहीं है बल्कि भारतीय जन-मानस में पैबस्त कर दी गई साम्प्रदायिक समझ की अतार्किकता में भी है। भारत में वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया का रास्ता बहुस्तरीय है, इस रास्ते में कई दबी-दबाई-कुचली हुई आवाजें, हाशियों पर स्वप्नों के बिख़र जाने की अनगिनत ध्वनियाँ हैं जिससे गुजरे बिना भारत में किसी भी तरह का वि-उपनिवेशीकरण संभव नहीं है। आज इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक की शुरुआत में जब लोग एक-दूसरे के साथ होने/दिखने से कतराने लगे हैं और एक अनाम किस्म के भय के साए में जीते चले जाने के लिए अभिशप्त होते चले जा रहे हैं, ऐसे में, फ्रेंज फैनन की ‘द रैचेड ऑफ़ द अर्थ’ के उद्धरण के साथ मैं अपनी बात फ़िलहाल यहीं ख़त्म करता हूँ, ‘...आप दुनिया की हर चीज के बारे में बोलिए मगर जब आप मनुष्य के जीवन की उस अनूठी चीज के बारे में बोलने का फैसला करें जो कि अपने देश में रौशनी फैला कर और खुद को और अपने लोगों को पैरों पर खड़ा करके नए क्षितिज खोलने से ताल्लुक रखती है, तब आपको शारीरिक स्तर पर जरुर साथ चलना चाहिए।’   

 

संदर्भ और टिप्पणियाँ :



[1] फ्रेंज फैनन (हिंदी संस्करण 2013),‘द रैचेड ऑफ़ द अर्थ’ (अनुवाद - धरती के अभागे- अशोक कुमार), ग्रंथशिल्पी प्रकाशन, पृष्ठ 42   


[2] क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो

कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले’ 

– फैज अहमद फैज  


[3] ‘सिमएनालाइजके अंतर्गत दरअसल, पाठ के भीतर पैदा होने वाले अर्थ का विमर्श, उसके तत्त्व और उसके नियमों का अध्ययन किया जाता है। मोटे तौर पर यह ‘संरचनावाद’ के सिद्धांतों के साथ समझा गया है।


[4] ‘नेग्रिट्यूड’ पूरी दुनिया में रह रहे अफ्रीकन मूल के लोगों का एक आंदोलन था जो अपनी जड़ों की पहचान और स्मृतियों के संरक्षण से जुड़ा हुआ था। इस आंदोलन की बुनियाद में एमे सेजैर, लियोपोल्ड सेनघोर (1906-2001) और लियोन दामास (1912-1978) के एफ्रो-फ्रांसीसी अनुभव थे जिसमें  नस्लीय असंतोष, घृणा और व्यक्तिगत संघर्ष का त्रासद परिणाम थे। इन तीन चिंतकों ने नस्लवाद और औपनिवेशिक अन्यायों के लिए विद्रोह की व्यक्तिगत भावनाओं को आपस में साझा करते हुए इस बात पर सहमत हुए कि नस्लीय चिंतन को फ्रांसीसी शिक्षा बढ़ावा देती है। वे फ्रांसीसी शिक्षा की  इस धारणा से इंकार करते हैं जिसमें यह कहा गया था, ‘उनकी आत्मा में ईसाई धर्म और सभ्यता का निर्माण करना था जहां पहले केवल बुतपरस्ती और बर्बरता थी।’ ‘नेग्रिट्यूड’ की पारिभाषिकी को The Stanford Encyclopedia of Philosophy (February 24, 2014) में देखा जा सकता है।


[5] ग्वेन बेर्ग्नेर के महशूर लेख ‘हू इस दैट मास्क्ड वीमेन? और, द रोल ऑफ़ जेंडर इन फैनन’स ब्लैक स्किन, वाइट मास्क’ में विस्तार से ‘अश्वेत कामुकता’ पर पढ़ा जा सकता है - https://www.jstor.org/stable/pdf/463196.pdf  10 जनवरी 2022 को देखा गया।


[6] ‘ब्लैक ब्यूटी’ की धारणा को फैनन के चिंतन के सहारे एतेमिया चेला ने अपने शोध पत्र ‘फैनन, ब्लैक फीमेल सेक्सुलिटी एंड रिप्रेजेंटेसन ऑफ़ ब्लैक ब्यूटी इन पॉपुलर कल्चर’ में विस्तार से समझाया है। http://blacklooks.org/2012/12/fanon-the-representations-of-black-beauty-in-popular-culture/ 10 जनवरी 2022 को देखा गया।


[7] धरती के अभागे (2013), फ्रेंज फैनन (हिंदी अनुवाद-अशोक कुमार), ग्रंथशिल्पी, पृष्ठ 30


[8] वही, पृष्ठ 171-172


[9] वही, पृष्ठ 35


[10] वही, पृष्ठ 168


[11] 1976 में घाना विश्वविद्यालय के राजनीतिक विज्ञान विभाग में इम्मानुएल हानसेन द्वारा एक पर्चा ‘फ्रीडम एंड रिवोल्यूशन इन द थॉट ऑफ़ फ्रेंज फैनन’ शीर्षक से पढ़ा गया. इस परचे में विस्तार से फ्रेंज के चिंतन में औपनिवेशिक मुक्ति की धारणा की पृष्ठभूमि को समझाया गया है - https://www.jstor.org/stable/pdf/24486306.pdf 7 जनवरी  2022 को देखा गया।


[12] उपनिवेशों की राजनीति की परतों को समझने के लिए कवामे तुर और चार्ल्स वी. हैमिल्टन (2021) की ब्लैक पॉवर : द पॉलिटिक्स ऑफ़ लिबरेशन इन अमेरिका, विंटेज बुक्स, न्यूयार्क को देखा जा सकता है।

https://archive.org/details/blackpowerpoliti00carm_0/page/n3/mode/2up के साथ लेविस आर गॉर्डोन और कॉर्नेल द्रुसिला (2015), व्हाट फैनन सेड: ए फिलोसोफिकल इंट्रोडक्शन टू हिज लाइफ एंड थॉट लेख को विस्तार से देखा जा सकता है और उसके ऊपर फैनन के वैचारिक संदभों को समझा जा सकता है।



अमरेन्द्र शर्मा


 


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