हरीश चन्द्र पाण्डेय की कविताएँ

 

हरीश चन्द्र पाण्डेय

 


हर शहर में एक बदनाम गली होती है। होती कहना गलत होगा, बल्कि बना दी कहना ज्यादा मुनासिब होगा। हालांकि, उजाले में बदनाम गली कोई जाना नहीं चाहता, लेकिन अधिकांश लोग ऐसे होते हैं जो इसे बदनाम बनाए रखने में कोई कोताही नहीं करते। बदनाम गली में सब बदनाम ही नहीं होता, बल्कि वहां जीवन के खूबसूरत कल्ले भी फूटते हैं। इनके भी अपने कुछ अरमान होते हैं। इनके भी अपने कुछ जरूरी सवाल होते हैं। हालांकि ये जरूरी सवाल अक्सर अलक्षित रह जाते हैं। कवि इस अलक्षित को ही लक्षित करने का प्रयास करता है। और जब यह कवि हरीश चन्द्र पाण्डे हों, तो हमसे कुछ भी अलक्षित नहीं रह पाता। यही तो हमारे इस उम्दा कवि की पहचान है। कवि भरत प्रसाद ने सुदूर शिलांग से 'देशधारा' नामक एक पत्रिका आरम्भ की है जिसके प्रवेशांक में हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं प्रकाशित हुई हैं। आज पहली बार पर हम इन्हीं कविताओं को प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं।



हरीश चन्द्र पाण्डेय की कविताएँ


बदनाम गली में


यह माँओं की गली भी है 

बच्चे गली में खेलते रहते हैं।



कभी उसका बेटा खेल बीच में छोड़ कर 

रोता हुआ चला आता है वापस 

और प्रश्नों की झड़ी लगा देता है।



वह मौन को छतरी बना लेती है। 

अब इतनी बड़ी दुनियाँ में कहाँ से ढूंढ़े वह चेहरा 

जो बेटे के चेहरे से मिलता है।



जो वल्दीयत से ही आँसू पोंछते जाते हों 

वह संदूक के पाताल में नहीं छुपाते अपनी वल्दीयत 

अंधेरे के बारे में पूछे बैठे वे प्रश्न अब 

उजाले के ऐन ओट की लम्बी छायाएँ हो गए हैं।



जब तक अंकुराते से थे उसके प्रश्न तो वह कहती रही 

तू हवा से पैदा हो गया है, गंध से पैदा हो गया है। 

तू एक मिथकीय नदी की तरह आ गया है उतर कर 

तू ईश्वर की तरह आया है। 

इस दुनियाँ में कई ईश्वरों का कोई पिता नहीं



पर शमन नहीं हुआ उसकी जिज्ञासाओं का 

और भी वयस्क हुई जिज्ञासा 

ज्यादा ही जिद करने पर एक दिन उसने 

बाल्टी में हफ्तों से रुके पानी को दिखा दिया 

देख! ये सब कहाँ से आ गए हैं।



बेटे ने अब प्रश्न पूछने बंद कर दिए हैं 

अब उसके प्रश्नों का मुंह बाहर की ओर हो गया है 

माँ ने अपने सपने में कई बार 

उसकी नींद पूरी होती देखी है

 





कोरोना काल और लालटेन


महीनों छत पर घूमते-घूमते 

सड़क पर लम्बी घास उग आई है। 

रोज शाम के छः बजे को सीढ़ी बना लेता हूँ चढ़ने की 

सात बजे उतरने की

संध्या समय में रोज सामने के कच्चे घर में

जल उठती है एक लालटेन



उजाले की अनुषंग वह 

अंधेरे की नायिका



लोप नहीं हुआ था उजाला 

काम पर गया था पश्चिम की ओर 

अयाल लहराते घोड़े सा आ जाएगा पूरब से



लालटेन

पहले अनुषंग भूमिका में लौटेगी 

फिर म्यान से तलवार सी...



पहचान


मेरे दस्तावेजों से गुजरती हुई निगाहों ने मुझसे कहा

तुम हरीशचन्द्र पाण्डे नहीं हो

तुम्हारे गाल पर तिल नहीं है 

मैंने कहा 

बहुत छोटा है लेकिन

क्या छोटा होना होना नहीं?



अब कितनी बार नजदीक से जा कर दिखलाता फिरूँ

कि यह मैं ही हूँ

फैला भी तो नहीं सकता हूँ ऐसे चेहरे पर



इसीलिये कभी-कभी मैं अपने भीतर इसका फैलना 

आदमी होने तक देखने लगता हूँ 

तब यह अपने चारों ओर एक अश्वेत नूर सा फैल रहा होता है। 

फर्राट में हासिल एक वैश्विक अब्बल सा

अपनी पहचान के लिए आमरण अनशन पर बैठा।

 





कठफोड़वा


यह मेरी चोच काठ के लिए बनी है। 

मेरी आँखें काठ ढूंढ़ने में लगी रहती हैं।

ऋतुएं जब शरद् को कांस की दोशाला ओढ़ा रही होती हैं 

और बसंत को छींटदार चुनर 

ग्रीष्म को पलाश के मुकुट और 

अमतलास के कर्णफूल पहना रही होती हैं 

मैं पागल काठ ढूंढने में लगा रहता हूँ।



चोचों से अटी पड़ी इस दुनियां में कोई चोंच

मछली की उछाल देख रही होती है 

कोई डाल पर झूमते हुए फल 

मैं पेड़ के तने में सबसे कठीली जगह ढूँढ़ता फिरता हूँ।



नरम लोगों

मेरा काम काठ से कम में नहीं चलने का 

मैं काठ पर काठ ढूंढूंगा जीवन भर 

उस पर चोंच पर चोंच मारूंगा।



इधर मैंने एक पेड़ के तने पर कई दिनों से काम लगा रखा है। 

उसे जड़ से कोई काटने लगा है। 

मेरी कई दिनों की मेहनत जाया होते देख 

ये बगुला क्यों हँस रहा है। 

वह दिहाड़ी क्यों रो रहा है।



माफ करना


माफ करना। मैं नहीं आ पाया गाँव

मैं घर के आंगन में

आप बहन भाइयों के साथ खड़ा नहीं हो पाया।

आप सब तो वापस आ गए हैं अपनी-अपनी जगह अब 

माफ करना। मैं वहीं रह गया हूँ।



इच्छाएँ


इच्छाओं का कानन है यह संसार 

इसके लेखे में जीने की इच्छा सबसे बड़ी पूंजी है।

न्यूटन नहीं

जिसने इस धरती पर सबसे पहले कहा 'मैं नहीं मरना चाहता'

गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त उसी का दिया जानो 

'मत मारो मुझे' कहता हुआ एक आदमी

भाग रहा है बदहवास

उसके पीछे-पीछे मारने की प्रबल इच्छा दौड़ रही हैं सगर्व 

इच्छाओं का जंगल है यह संसार।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)



सम्पर्क

ए/114, गोविन्दपुर कॉलोनी 

इलाहाबाद 211004

मो.नं. 9455623176

टिप्पणियाँ

  1. अभी-अभी कविताएं पढ़ी। हरीश चन्द्र पांडेय जी को पहले भी पढ़ा हूँ। कविताओं को केवल अच्छी और सुंदर कहना नाकाफी ही नही नाइंसाफी भी हैं। बात गहरी है और मन को उदास करती है। पहचान का संकट बदनाम गली के लड़के को है तो कवि को भी है -छोटे होते तिल को देखकर। वहाँ बदनाम गली में उस माँ के दर्द को कवि के सिवा कौन समझ सकता है।
    - ललन चतुर्वेदी,बेंगलूर

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'