मोहन राकेश की कहानी 'मलबे का मालिक'


Mohan Rakesh



विभाजन भारतीय इतिहास की एक बड़ी त्रासदी थी। इस परिघटना से अरसे से साथ रह रहे हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच वह दरार पड़ गई जो आज तक भरी नहीं जा सकी है। लेकिन उस लगाव का क्या किया जा सकता है जो अपनी मिट्टी से स्वाभाविक तौर पर सभी को होता है। विभाजन जैसी घटना भी उस लगाव का कुछ भी नहीं कर पाई। 'मलवे का मालिक' मोहन राकेश की एक अप्रतिम कहानी है। शिल्प की बारीकी इस कहानी में सहज ही महसूस की जा सकती है। कहते हैं इतिहास में जो दर्ज़ होने से छूट जाता है, साहित्य उसे दर्ज़ करता है। इस कहानी ने भी उन मनोभावों को दर्ज़ किया है, जो किसी इतिहास में दर्ज़ नहीं हो पाई। गनी मिया जब विभाजन के बाद लौट कर अपने पहले के शहर अमृतसर के बांसा बाजार गए तो अतीत की स्मृतियों में जैसे खो गए। हालांकि यहीं पर गनी के पुत्र चिरागदीन और उसके पुत्र को दंगाइयों ने मार डाला था लेकिन वह मिट्टी से उस जुड़ाव का क्या करे जो उसके अंदर गहरी पैठी हुई थी। यह कहानी हमने शांडिल्य सौरभ के धागा व्हाट्सएप ग्रुप से साभार लिया है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं मोहन राकेश की चर्चित कहानी मलबे का मालिक'।



मलबे का मालिक


मोहन राकेश


पूरे साढ़े सात साल के बाद लाहौर से अमृतसर आए थे। हाकी का मैच देखने का तो बहाना ही था, उन्हें ज्यादा चाव उन घरों और बाज़ारों को फिर से देखने का था, जो साढ़े सात साल पहले उनके लिए पराए हो गये थे। हर सड़क पर मुसलमानों की कोई न कोई टोली घूमती नजर आ जाती थी। उनकी आँखें इस आग्रह के साथ वहाँ की हर चीज़ को देख रही थीं, जैसे वह शहर साधारण शहर न हो कर एक खास आकर्षण का केन्द्र हो।


तंग बाज़ारों में से गुज़रते हुए वे एक-दूसरे को पुरानी चीज़ों की याद दिला रहे थे-- देख, फतहदीना, मिसरी बाज़ार में अब मिसरी की दुकानें पहले से कितनी कम रह गई हैं। उस नुक्कड़ पर सुक्खी भठियारन की भट्ठी थी, जहाँ अब वह पान वाला बैठा है। यह नमक मण्डी देख लो, खान साहब! यहाँ की एक-एक ललाइन वह नमकीन होती है कि बस!


बहुत दिनों के बाद बाज़ारों में तुर्रेदार पगड़ियाँ और लाल तुर्की टोपियाँ दिखाई दे रही थीं। लाहौर से आए हुए मुसलमानों में काफ़ी संख्या ऐसे लोगों की थी, जिन्हें विभाजन के समय मजबूर हो कर अमृतसर छोड़ कर जाना पड़ा था। साढ़े सात साल में आए अनिवार्य परिवर्तनों को देख कर कहीं उनकी आँखों में हैरानी भर जाती और कहीं अफ़सोस घिर आता-- वल्लाह, कटड़ा जयमल सिंह इतना चौड़ा कैसे हो गया? क्या इस तरफ़ के सबके सब मकान जल गए? यहाँ हकीम आसिफ़ अली की दुकान थी न? अब यहाँ एक मोची ने कब्जा कर रखा है।


और कहीं-कहीं ऐसे भी वाक्य सुनाई दे जाते -- वली, यह मस्जिद ज्यों की त्यों खड़ी है? इन लोगों ने इसका गुरूद्वारा नहीं बना दिया?


जिस रास्ते से भी पाकिस्तानियों की टोली गुजरती, शहर के लोग उत्सुकतापूर्वक उसकी ओर देखते रहते। कुछ लोग अब भी मुसलमानों को आते देख कर शंकित-से रास्ते हट जाते थे, जबकि दूसरे आगे बढ़ कर उनसे बगलगीर होने लगते थे। ज्यादातर वे आगन्तुकों से ऐसे-ऐसे सवाल पूछते थे कि आजकल लाहौर का क्या हाल है? अनारकली में अब पहले जितनी रौनक होती है या नहीं? सुना है, शाहालमी गेट का बाज़ार पूरा नया बना है? कृष्ण नगर में तो कोई खास तब्दीली नहीं आई? वहाँ का रिश्वतपुरा क्या वाकई रिश्वत के पैसे से बना है? कहते हैं पाकिस्तान में अब बुर्का बिल्कुल उड़ गया है, यह ठीक है? इन सवालों में इतनी आत्मीयता झलकती थी कि लगता था कि लाहौर एक शहर नहीं, हज़ारों लोगों का सगा-सम्बन्धी है, जिसके हालात जानने के लिए वे उत्सुक हैं। लाहौर से आए हुए लोग उस दिन शहर-भर के मेहमान थे, जिनसे मिल कर और बातें करके लोगों को खामखाह ख़ुशी का अनुभव होता था।


बाज़ार बाँसा अमृतसर का एक उपेक्षित-सा बाज़ार है, जो विभाजन से पहले ग़रीब मुसलमानों की बस्ती थी। वहाँ ज्यादातर बाँस और शहतीरों की ही दुकानें थीं, जो सबकी सब एक ही आग में जल गई थीं। बाज़ार बाँसा की आग अमृतसर की सबसे भयानक आग थी, जिससे कुछ देर के लिए तो सारे शहर के जल जाने का अन्देशा पैदा हो गया था। बाज़ार बाँसा के आसपास के कई मुहल्लों को तो उस आग ने अपनी लपेट में ले ही लिया था। ख़ैर, किसी तरह वह आग काबू में आ तो गई, पर उसमें मुसलमानों के एक-एक घर के साथ हिन्दुओं के भी चार-चार, छह-छह घर जल कर राख हो गए। अब साढ़े सात साल में उनमें से कई इमारतें तो फिर से खड़ी हो गई थीं, मगर जगह-जगह मलबे के ढेर अब भी मौजूद थे। नई इमारतों के बीच-बीच में मलबे के ढेर अजीब ही वातावरण प्रस्तुत करते थे।


बाज़ार बाँसा में उस दिन भी चहल-पहल नहीं थी, क्योंकि उस बाज़ार के ज़्यादातर बाशिन्दे तो अपने मकानों के साथ ही-शहीद हो गए थे और जो बच कर चले गए थे, उनमें शायद लौट कर आने की हिम्मत बाक़ी नहीं रही थी। सिर्फ़ एक दुबला-पतला बूढ़ा मुसलमान ही उस वीरान बाज़ार में आया और वहाँ की नई और जली हुई इमारतों को देख कर जैसे भूल-भुलैया में पड़ गया। बाएँ हाथ को जाने वाली गली के पास पहुँच कर उसके क़दम अन्दर मुड़ने को हुए, मगर फिर वह हिचकिचाकर वहाँ बाहर ही खड़ा रह गया, जैसे उसे निश्चय नहीं हुआ कि वह वही गली है या नहीं, जिसमें वह जाना चाहता है। गली में एक तरफ़ कुछ बच्चे कीड़ी-काड़ा खेल रहे थे और कुछ अन्तर पर दो स्त्रियाँ ऊँची आवाज़ में चीख़ती हुई एक-दूसरी को गालियाँ दे रही थीं।


-- सब कुछ बदल गया, मगर बोलियाँ नहीं बदलीं! -बुड्ढे मुसलमान ने धीमे स्वर में अपने से कहा और छड़ी का सहारा लिये खड़ा रहा। उसके घुटने पाजामे से बाहर को निकल रहे थे और घुटनों के थोड़ा ऊपर ही उसकी शेरवानी में तीन-चार पैबन्द लगे थे। गली में एक बच्चा रोता हुआ बाहर को आ रहा था। उसने उसे पुचकार कर पुकारा-- इधर आ, बेटे, आ इधर! देख तुझे चिज्जी देंगे, आ। -और वह अपनी जेब में हाथ डाल कर उसे देने के लिए कोई चीज़ ढूँढ़ने लगा। बच्चा क्षण भर के लिए चुप कर गया, लेकिन फिर उसने होंठ बिसूर लिए और रोने लगा। एक सोलह-सत्रह बरस की लड़की गली के अन्दर से दौड़ती हुई आई और बच्चे की बाँह पकड़ कर उसे घसीटती हुई गली में ले चली। बच्चा रोने के साथ-साथ अपनी बाँह छुड़ाने के लिए मचलने लगा। लड़की ने उसे बाँहों में उठा कर अपने साथ चिपका लिया और उसका मुँह चूमती हुई बोली-- चुप कर, मेरा वीर! रोएगा तो तुझे वह मुसलमान पकड़ कर ले जाएगा, मैं वारी जाऊँ, चुप कर!


बुङ्ढे मुसलमान ने बच्चे को देने के लिए जो पैसा निकाला था, वह वापस जेब में रख लिया। सिर से टोपी उतार कर उसने वहाँ थोड़ा खुजलाया और टोपी बगल में दबा ली। उसका गला ख़ुश्क हो रहा था और घुटने ज़रा-ज़रा काँप रहे थे। उसने गली के बाहर की बन्द दुकान के तख़्ते का सहारा ले लिया और टोपी फिर से सिर पर लगा ली। गली के सामने जहाँ पहले ऊँची-ऊँची शहतीरियाँ रखी रहती थीं, वहाँ अब एक तिमंज़िला मकान खड़ा था। सामने बिजली के तार पर दो मोटी-मोटी चीलें बिल्कुल जड़ होकर बैठी थीं। बिजली के खम्भे के पास थोड़ी धूप थी। वह कई पल धूप में उड़ते हुए ज़र्रों को देखता रहा। फिर उसके मुँह से निकला -- या मालिक!

 


 


एक नवयुवक चाबियों का गुच्छा घुमाता हुआ गली की ओर आया ओर बुड्ढे को वहाँ खड़े देख कर उसने रूक कर पूछा-- कहिए मियाँ जी, यहाँ किस तरह खड़े हैं?


बुड्ढ़े मुसलमान की छाती और बाँहों में हल्की-सी कँपकँपी हुई और उसने होंठों पर जबान फेर कर नवयुवक को ध्यान से देखते हुए पूछा-- बेटे, तेरा नाम मनोरी तो नहीं है?


नवयुवक ने चाबियों का गुच्छा हिलाना बन्द करके मुट्ठी में ले लिया और आश्चर्य के साथ पूछा-- आपको मेरा नाम कैसे पता है?


-- साढ़े सात साल पहले तू बेटे, इतना-सा था। -- यह कह कर बुड्ढे ने मुस्कराने की कोशिश की।


-- आप आज पाकिस्तान से आए हैं? -- मनोरी ने पूछा।


-- हाँ, मगर पहले हम इसी गली में रहते थे, --बुड्ढे ने कहा -- मेरा लड़का चिरागदीन तुम लोगों का दर्ज़ी था। तक़सीम से छह महीने पहले हम लोगों ने यहाँ अपना नया मकान बनाया था।


-- ओ, गनी मियाँ। -- मनोरी ने पहचान कर कहा।


-- हाँ बेटे, मैं तुम लोगों का गनी मियाँ हूँ। चिराग और उसके बीवी-बच्चे तो नहीं मिल सकते, मगर मैंने कहा कि एक बार मकान की सूरत ही देख लूँ। और उसने टोपी उतार कर सिर पर हाथ फेरते हुए आँसुओं को बहने से रोक लिया।


-- आप तो शायद काफ़ी पहले ही यहाँ से चले गए थे? -- मनोरी ने स्वर में सम्वेदना ला कर कहा।


-- हाँ, बेटे, मेरी बदबख़्ती थी कि पहले अकेला निकल कर चला गया। यहाँ रहता, तो उनके साथ मैं भी...। और कहते-कहते उसे अहसास हो आया कि उसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए। उसने बात मुँह में रोक ली, मगर आँख में आए हुए आँसुओं को बह जाने दिया।


-- छोडिए, गनी साहब, अब बीती बातों को सोचने में क्या रखा है? -- मनोरी ने गनी की बाँह पकड़ कर कहा -- आइए, आपको आपका घर दिखा दूँ?


गली में ख़बर इस रूप में फैली थी कि गली के बाहर एक मुसलमान खड़ा है, जो रामदासी के लड़के को उठाने जा रहा था उसकी बहन उसे पकड़ कर घसीट लाई, नहीं तो वह मुसलमान उसे ले गया होता। यह ख़बर पाते ही जो स्त्रियाँ गली में पीढ़े बिछा कर बैठी थीं, वे अपने-अपने पीढ़े उठा कर घरों के अन्दर चली गईं। गली में खेलते हुए बच्चों को भी उन स्त्रियों ने पुकार-पुकार कर घरों में बुला लिया। मनोरी जब गनी को ले कर गली में आया, तो गली में एक फेरी वाला रह गया था या कुएँ के साथ उगे हुए पीपल के नीचे रक्खा पहलवान बिखर कर सोया दिखाई दे रहा था। घरों की खिड़कियों में से और किवाड़ों के पीछे से अलबत्ता कई चेहरे झाँक रहे थे। गनी को गली में आते देख कर उनमें हल्की-हल्की चेमेगोइयाँ शुरू हो गईं। दाढ़ी के सब बाल सफ़ेद हो जाने के बावजूद लोगों ने चिरागदीन के बाप अब्दुल गनी को पहचान लिया था।


-- वह आपका मकान था। -- मनोरी ने दूर से एक मलबे की ओर संकेत किया। गनी पल-भर के लिए ठिठक कर फटी-फटी अँखों से उसकी ओर देखता रह गया। चिराग और उसके बीवी-बच्चों की मौत को वह काफ़ी अर्सा पहले स्वीकार कर चुका था, मगर अपने नये मकान को इस रूप में देख कर उसे जो झुरझुरी हुई, उसके लिए वह तैयार नहीं था। उसकी जबान पहले से ज्यादा ख़ुश्क हो गई और घुटने भी और ज्यादा काँपने लगे।


-- वह मलबा? -- उसने अविश्वास के स्वर में पूछा।


मनोरी ने उसके चेहरे का बदला हुआ रंग देखा। उसने उसकी बाँह को और सहारा दे कर ठहरे हुए स्वर में उत्तर दिया -- आपका मकान उन्हीं दिनों जल गया था।


गनी छड़ी का सहारा लेता हुआ किसी तरह मलबे के पास पहुँच गया। मलबे में अब मिट्टी ही मिट्टी थी, जिसमें जहाँ-तहाँ टूटी और जली हुई ईटें फँसी थीं। लोहे और लकड़ी का सामान उसमें से न जाने कब का निकाल लिया गया था। केवल जले हुए दरवाजे की चौखट न जाने कैसे बची रह गई थी, जो मलबे में से बाहर को निकली हुई थी। पीछे की ओर दो जली हुई अलमारियाँ और बाकी थीं, जिनकी कालिख पर अब सफेदी की हल्की-हल्की तह उभर आई थी। मलबे को पास से देख कर गनी ने कहा-- यह रह गया है, यह?


और जैसे उसके घुटने जवाब दे गए और वह जली हुई चौखट को पकड़ कर बैठ गया। क्षण-भर बाद उसका सिर भी चौखट से जा लगा और उसके मुँह से बिलखने की-सी आवाज़ निकली-- हाए! ओए, चिरागदीना!


जले हुए किवाड़ की चौखट साढ़े सात साल मलबे में से सिर निकाले खड़ी तो रही थी, मगर उसकी लकड़ी बुरी तरह भुरभुरा गई थी। गनी के सिर के छूने से उसके कई रेशे झड़कर बिखर गए। कुछ रेशे गनी की टोपी और बालों पर आ गिरे। लकड़ी के रेशों के साथ एक केंचुआ भी नीचे गिरा, जो गनी के पैर से छह-आठ इंच दूर नाली के साथ बनी ईंटों की पटरी पर सरसराने लगा। वह अपने लिए सूराख ढूँढता हुआ ज़रा-सा सिर उठाता, मगर दो-एक बार सिर पटक कर और निराश हो कर दूसरी ओर को मुड़ जाता।





खिड़कियों में से झाँकने वाले चेहरों की सँख्या पहले से कहीं बढ़ गयी थी। उनमें चेमेगोइयाँ चल रही थीं कि आज कुछ न कुछ ज़रूर होगा। चिराग़दीन का बाप गनी आ गया है, इसलिए साढ़े सात साल पहले की सारी घटना आज खुल जाएगी। लोगों को लग रहा था जैसे वह मलबा ही गनी की सारी कहानी सुना देगा कि शाम के वक़्त चिराग़ ऊपर के कमरे में खाना खा रहा था जब रक्खे पहलवान ने उसे नीचे बुलाया कि वह एक मिनट आकर एक ज़रूरी बात सुन जाय। पहलवान उन दिनों गली का बादशाह था। हिन्दुओं पर ही उसका काफ़ी दबदबा था, चिराग़ तो ख़ैर मुसलमान था। चिराग़ हाथ पर कौर बीच में ही छोड़ कर नीचे उतर आया। उसकी बीवी जुबैदा और दोनों लड़कियाँ किश्वर और सुलताना खिड़कियों में से नीचे झाँकने लगीं। चिराग़ ने डयोढ़ी से बाहर क़दम रखा ही था कि पहलवान ने उसे कमीज के कालर से पकड़ कर खींच लिया और उसे गली में गिरा कर उसकी छाती पर चढ़ बैठा। चिराग़ उसका छुरे वाला हाथ पकड़ कर चिल्लाया-- न, रक्खे पहलवान मुझे मत मार! हाय मुझे बचाओ! जुबैदा! मुझे बचा...! और ऊपर से जुबैदा चीख़ती हुई नीचे डयोढ़ी की तरफ भागी। रक्खे के एक शगिर्द ने चिराग़ की जद्दोजहद करती हुई बाँहें पकड़ लीं ओर रक्खा उसकी जाँघों को घुटने से दबाए हुए बोला -- चीख़ता क्यों है, भैण के... तुझे पाकिस्तान दे रहा हूँ, ले!


और जुबैदा के नीचे पहुँचने से पहले ही उसने चिराग़ को पाकिस्तान दे दिया।


आसपास के घरों की खिड़कियाँ बंद हो गईं। जो लोग इस दृश्य के साक्षी थे, उन्होंने दरवाज़े बन्द कर के अपने को इस घटना के उत्तरदायित्व से मुक्त कर लिया था। बन्द किवाड़ों में भी उन्हें देर तक जुबैदा, किश्वर और सुलताना के चीख़ने की आवाज़ें सुनाई देती रहीं। रक्खे पहलवान और उसके साथियों ने उन्हें भी उसी रात पाकिस्तान दे कर विदा कर दिया, मगर दूसरे तबील रास्ते से। उनकी लाशें चिराग के घर में न मिलकर बाद में नहर के पानी में पाई गईं।


दो दिन तक चिराग के घर की ख़ाना-तलाशी होती रही। जब उसका सारा सामान लूटा जा चुका तो न जाने किसने उस घर को आग लगा दी। रक्खे पहलवान ने कसम खाई थी कि वह आग लगाने वाले को ज़िन्दा ज़मीन में गाड़ देगा, क्योंकि उसने उस मकान पर नज़र रख कर ही चिराग को मारने का निश्चय किया था। उसने उस मकान को शुद्ध करने के लिए हवन-सामग्री भी ख़रीद रखी थी। मगर आग लगाने वाले का पता ही नहीं चल सका, उसे ज़िन्दा गाड़ने की नौबत तो बाद में आती। अब साढ़े सात साल से रक्खा पहलवान उस मलबे को अपनी जागीर समझता आ रहा था, जहाँ न वह किसी को गाय-भैंस बाँधने देता था ओर न खोंचा लगाने देता था। उस मलबे से बिना उसकी अनुमति के कोई ईंट भी नहीं उठा सकता था।


लोग आशा कर रहे थे कि सारी कहानी ज़रूर किसी न किसी तरह गनी के कानों तक पहुँच जाएगी जैसे मलबे को देख कर उसे अपने-आप ही सारी घटना का पता चल जाएगा। और गनी मलबे की मिट्टी नाख़ूनों से खोद-खोद कर अपने ऊपर डाल रहा था और दरवाज़े की चौखट को बाँह में लिए हुए रो रहा था-- बोल, चिराग़दीना, बोल! तू कहाँ चला गया, ओए! ओ किश्वर! ओ सुल्तान! हाय मेरे बच्चे! ओएऽऽ! गनी को कहाँ छोड़ दिया, ओएऽऽ!


और भुरभुरे किवाड़ से कड़ी के रेशे झड़ते जा रहे थे।


पीपल के नीचे सोए हुए रक्खे पहलवान को किसी ने जगा दिया, या वह वैसे ही जाग गया। यह जान कर कि पाकिस्तान से अब्दुल गनी आया है ओर अपने मकान के मलबे पर बैठा है, उसके गले में थोड़ा झाग उठ आया, जिससे उसे खाँसी हो आई और उसने कुएँ के फ़र्श पर थूक दिया। मलबे की ओर देख कर उसकी छाती से धौंकनी का-सा स्वर निकला और उसका निचला ओंठ थोड़ा बाहर को फैल आया।


-- गनी अपने मलबे पर बैठा है।


उसके शागिर्द लच्छे पहलवाने ने उसके पास आ कर बैठते हुए कहा।


-- मलबा उसका कैसे है? मलबा हमारा है!


पहलवान ने झाग के कारण घरघराई हुई आवाज़ में कहा।


--मगर वह वहाँ पर बैठा है ।


लच्छे ने आँखों में रहस्यमय संकेत ला कर कहा।


-- बैठा है, बैठा रहे, तू चिलम ला।


उसकी टाँगें थोड़ी फैल गईं और उसने अपनी नंगी जांघों पर हाथ फेरा।


-- मनोरी ने अगर उसे कुछ बताया-उताया तो...।


लच्छे ने चिलम भरने के लिए उठते हुए उसी रहस्यपूर्ण दृष्टि से देख कर कहा।


--मनोरी की शामत आई है!


लच्छे चला गया।


कुएँ पर पीपल की कई पुरानी पत्तियाँ बिखरी थीं। रक्खा उन पत्तियों को उठा-उठा कर हाथों में मसलता रहा। जब लच्छे ने चिलम के नीचे कपड़ा लगा कर उसके हाथ में दिया तो उसने कश खींचते हुए पूछा -- और भी तो किसी से गनी की बात नहीं हुई?


-- नहीं।


-- ले।


और उसने खाँसते हुए चिलम लच्छे के हाथ में दे दी। लच्छे ने देखा कि मनोरी मलबे की तरफ से गनी की बाँह पकड़े हुए आ रहा है। वह उकड़ू हो कर चिलम के लम्बे-लम्बे कश खींचने लगा। उसकी आँखें आधा क्षण रक्खे के चेहरे पर टिकतीं और आधा क्षण गनी की ओर लगी रहतीं।

 


 


मनोरी गनी की बाँह पकड़े हुए उससे एक क़दम आगे चल रहा था, जैसे उसकी कोशिश हो कि गनी कुएँ के पास से बिना रक्खे पहलवान को देखे ही निकल जाय। मगर रक्खा जिस तरह बिखर कर बैठा था, उससे गनी ने उसे दूर से ही देख लिया। कुएँ के पास पहुँचते न पहुँचते उसकी दोनों बाँहें फैल गईं और उसने कहा-- रक्खे पहलवान!


रक्खे ने गर्दन उठा कर और आँखें जरा छोटी करके उसे देखा। उसके गले में अस्पष्ट-सी घरघराहट हुई, पर वह बोला कुछ नहीं।


-- रक्खे पहलवान, मुझे पहचाना नहीं?


गनी ने बाँहें नीची करके कहा-- मैं गनी हूँ, अब्दुल गनी, चिराग़दीन का बाप!


पहलवान ने सन्देहपूर्ण दृष्टि से उसका ऊपर से नीचे तक जायजा लिया। अब्दुल गनी की आँखों में उसे देख कर चमक आ गई थी। सफ़ेद दाढ़ी के नीचे उसके चेहरे की झुरियाँ ज़रा फैल गई थीं। रक्खे का निचला होंठ फड़का, फिर उसकी छाती से भारी-सा स्वर निकला -- सुना गनिया!


गनी की बाँहें फिर फैलने को हुई, परन्तु पहलवान पर कोई प्रतिक्रिया न देख कर उसी तरह रह गईं। वह पीपल के तने का सहारा लेकर कुएँ की सिल पर बैठ गया.....


ऊपर खिड़कियों में चेमेगोइयाँ तेज हो गईं कि अब दोनों आमने-सामने आ गए हैं, तो बात ज़रूर खुलेगी। फ़िर हो सकता है, दोनों में ग़ाली-गलौज भी हो। अब रक्खा गनी को कुछ नहीं कह सकता, अब वो दिन नहीं रहे। बड़ा मलबे का मालिक बनता था! असल में मलबा न इसका है, न गनी का। मलबा तो सरकार की मिल्कियत है। क़िसी को गाय का खूँटा नहीं लगने देता। मनोरी भी डरपोक है। उसने गनी को बताया क्यों नहीं कि रक्खे ने ही चिराग़ और उसके बीवी-बच्चों को मारा है? रक्खा आदमी नहीं है, सांड है। दिन भर सांड की तरह गली में घूमता है। ग़नी बेचारा कितना दुबला हो गया है। दाढ़ी के सारे बाल सफ़ेद हो गए है!


गनी ने कुएँ की सिल पर बैठ कर कहा-- देख, रक्खे पहलवान, क्या से क्या रह गया है? भरा-पूरा घर छोड़ कर गया था और आज यहाँ मिट्टी देखने आया हूँ। बसे हुए घर की यही निशानी रह गई है। तू सच पूछ, रक्खे, तो मेरा यह मिट्टी भी छोड़ कर जाने को जी नहीं करता।


और उसकी आँखें छलछला आईं।


पहलवान ने फैली हुई टाँगें समेट लीं और अँगोछा कुएँ की मुंडेर से से उठा कर कन्धे पर डाल लिया। लच्छे ने चिलम उसकी तरफ बढ़ा दी और वह कश खींचने लगा।


-- तू बता, रक्खे, यह सब हुआ किस तरह?


गनी आँसू रोकता हुआ आग्रह के साथ बोला-- तुम लोग उसके पास थे, सबमें भाई-भाई की-सी मुहब्बत थी, अगर वह चाहता तो वह तुममें से किसी के घर में नहीं छिप सकता था? उसे इतनी भी समझ नहीं आई!


-- ऐसा ही है ।


रक्खें को स्वयं लगा कि उसकी आवाज़ में कुछ अस्वाभाविक-सी गूँज है। उसके होंठ गाढ़ी लार से चिपक-से गए थे। उसकी मूँछों के नीचे से पसीना उसके होंठों पर आ रहा था। उसके माथे पर किसी चीज़ का दबाव पड़ रहा था और उसकी रीढ़ की हड्डी सहारा चाह रही थी।


-- पाकिस्तान के क्या हाल हैं?


उसने वैसे ही स्वर में पूछा। उसके गले की नसों में तनाव आ गया था। उसने अंगोछे से बगलों का पसीना पोंछा और गले का झाग मुँह में खींच कर गली में थूक दिया।


-- मैं क्या हाल बताऊँ, रक्खे!


गनी दोनों हाथों से छड़ी पर जोर देकर झुकता हुआ बोला-- मेरा हाल पूछो, तो वह ख़ुदा ही जानता है। मेरा चिराग़ साथ होता तो और बात थी। रक्खे! मैंने उसे समझाया था कि मेंरे साथ चला चल। मगर वह अड़ा रहा कि नया मकान छोड़ कर कैसे जाऊँ । यहाँ अपनी गली है, कोई ख़तरा नहीं है। भोले कबूतर ने यह नहीं सोचा कि गली में ख़तरा न सही, बाहर से तो ख़तरा आ सकता है। मकान की रखवाली के लिए चारों जनों ने जान दे दी। रक्खे! उसे तेरा बहुत भरोसा था। कहता था कि रक्खे के रहते कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मगर जब आनी आई, तो रक्खे के रोके न रूक सकी।


रक्खे ने सीधा होने की चेष्टा की, क्योंकि उसकी रीढ़ की हड्डी दर्द कर रही थी। उसे अपनी कमर और जाँघों के जोड़ पर सख़्त दबाव महसूस हो रहा था। पेट की अन्तड़ियों के पास जैसे कोई चीज़ उसकी साँस को जकड़ रही थी। उसका सारा जिस्म पसीने से भीग गया था ओर उसके पैरों के तलुवों में चुनचुनाहट हो रही थी। बीच-बीच में फुलझड़ियाँ-सी ऊपर से उतरतीं और उसकी आँखों के सामने से तैरती हुई निकल जातीं। उसे अपनी जबान और होंठों के बीच का अन्तर कुछ ज़्यादा महसूस हो रहा था। उसने अंगोछे से होंठों के कोनों को साफ़ किया और उसके मुँह से निकला--


--हे प्रभु! सच्चिआ, तू ही है, तू ही है, तू ही है!


गनी ने लक्षित किया कि पहलवान के होंठ सूख रहे हैं ओर उसकी आँखों के इर्द-गिर्द दायरे गहरे हो आए हैं, तो वह उसके कन्धे पर हाथ रख कर बोला-- जी हल्कान न कर, रक्खिया। जो होनी थी, सो हो गई। उसे कोई लौटा थोड़े ही सकता है। ख़ुदा नेक की नेकी रखे और बद की बदी माफ करें। मेरे लिए चिराग़ नहीं, तो तुम लोग तो हो। मुझे आ कर इतनी ही तसल्ली हुई कि उस ज़माने की कोई तो यादगार है। मैंने तुमको देख लिया, तो चिराग़ को देख लिया। अल्लाह तुम लोगों को सेहतमंद रखे। जीते रहो और खुशियाँ देखो!


और गनी छड़ी पर दबाव दे कर उठ खड़ा हुआ। चलते हुए उसने फिर कहा-- अच्छा रक्खे पहलवान, याद रखना!


रक्खे के गले से स्वीकृति की मद्धम-सी आवाज़ निकली। अंगोछा बीच में लिए हुए उसके दोनों हाथ जुड़ गए। गनी गली के वातावरण को हसरत भरी नज़र से देखता हुआ धीरे-धीरे गली से बाहर चला गया।


ऊपर खिड़कियों में थोड़ी देर चेमेगोइयां चलती रहीं कि मनोरी ने गली से बाहर निकल कर जरूर गनी को सब कुछ बता दिया होगा। ग़नी के सामने रक्खे का तालू किस तरह खुश्क हो गया था! रक्खा अब किस मुँह से लोगों को मलबे पर गाय बाँधने से रोकेगा? बेचारी जुबैदा! बेचारी कितनी अच्छी थी! कभी किसी से मंदा बोल नहीं बोली। रक्खे मरदूद का घर, न घाट । इसे किस माँ-बहन का लिहाज था?


और थोड़ी ही देर में स्त्रियाँ घरों से गली में उतर आईं, बच्चे गली में गुल्ली-डण्डा खेलने लगे और दो बारह-तेरह बरस की लड़कियाँ किसी बात पर एक-दूसरी से गुत्थमगुत्था हो गईं।


रक्खा गहरी शाम तक कुएँ पर बैठा खँखारता और चिलम फूँकता रहा। कई लोगों ने वहाँ से गुज़रते हुए उससे पूछा-


-- रक्खे शाह, सुना है आज गनी पाकिस्तान से आया था?


-- आया था। रक्खे ने हर बार एक ही उत्तर दिया।


-- फिर?


-- फिर कुछ नहीं, चला गया।


रात होने पर पहलवान रोज़ की तरह गली के बाहर बाईं ओर की दुकान के तख़्ते पर आ बैठा। रोज़ अक्सर वह रास्ते से गुज़रने वाले परिचित लोगों को आवाज़ दे-दे कर बुला लेता था और उन्हें सट्टे के गुर और सेहत के नुस्खे बताया करता था। मगर उस दिन वह लच्छे को अपनी वैष्णो देवी की यात्रा का विवरण सुनाता रहा, जो उसने पन्द्रह साल पहले की थी। लच्छे को विदा करके वह गली में आया, तो मलबे के पास लोकू पंडित की भैंस को खड़ी देख कर वह रोज़ की आदत के मुताबिक उसे धक्के दे-दे कर हटाने लगा-- तत्-तत्...तत्- तत्...


और भैंस को हटा कर वह सुस्ताने के लिए मलबे की चौखट पर बैठ गया। गली उस समय बिल्कुल सुनसान थी। कमेटी की कोई बत्ती न होने से वहाँ शाम से ही अन्धेरा हो जाता था। मलबे के नीचे नाली का पानी हल्की आवाज़ करता हुआ बह रहा था। रात की ख़ामोशी के साथ मिली हुई कई तरह की हल्की-हल्की आवाज़ें मलबे की मिट्टी में से निकल रहीं थीं। एक भटका हुआ कौआ न जाने कहाँ से उड़ कर कड़ी की चौखट पर आ बैठा। उससे लकड़ी के रेशे इधर-उधर छितरा गए। कौए के वहाँ बैठते ने बैठते मलबे के एक कोने में लेटा हुआ कुत्ता गुर्रा कर उठा और ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगा-- वउ-अउ अऊ-वऊ। कौवा कुछ देर सहमा-सा चौखट पर बैठा रहा, फिर वह पंख फड़फड़ाता हुआ उड़ कर कुएँ के पीपल पर चला गया। कौए के उड़ जाने पर कुत्ता और नीचे उतर आया और पहलवान की ओर मुँह कर के भौंकने लगा। पहलवान उसे हटाने के लिए भारी आवाज में बोला-- दुर् दुर् दुर् दुरे।


मगर कुत्ता और पास आ कर भौंकने लगा-- वउ-अउ-वउ-वउ-वउ।


--हट हट, दुर्रर्र-दुर्रर्र दुरे


वऊ-अऊ- अऊ-अउ-अउ।


पहलवान ने एक ढेला उठा कर कुत्ते की ओर फेंका। कुत्ता थोड़ा पीछे हट गया, पर उसका भौंकना बन्द नहीं हुआ। पहलवान मुँह ही मुँह में कुत्ते की माँ को गाली दे कर वहाँ से उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे जा कर कुएँ की सिल पर लेट गया। पहलवान के वहाँ से हटने पर कुत्ता गली में उतर आया और कुएँ की ओर मुँह करके भौंकने लगा। काफ़ी देर भौंक कर जब गली में उसे कोई प्राणी चलता-फिरता दिखाई नहीं दिया तो वह एक बार कान झटक कर मलबे पर लौट आया और वहाँ कोने में बैठ कर गुर्राने लगा।

 


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)               

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