दीबा नियाज़ी की कविताएं
दीबा नियाज़ी |
दीबा नियाज़ी की कविताएं
आज़ादी एक मोहक शब्द है
आज़ादी नाम की गलतफहमी सबने पाली है
यह आज़ादी तो आज की सबसे बड़ी गाली है
जब तुम कहते हो आज़ादी मुबारक
तो मेरी आँखों मे एक ख़ालीपन आ जाता है
कंपकपाते हैं होंठ मेरे
और दिमाग में लगातार हथोड़े मारता कोई मुझे वो सारे दृश्य दिखाता है
जिन्हें देख मैं चीख़ती हूँ कि आज़ादी एक गाली है
हां, हां गाली है
खून से लथपथ छोटी छोटी बच्चियां मुझे दिखती हैं
मुझे संघर्ष करती वो तमाम लड़कियां दिखती हैं
जिन्हें तुमने वेश्या कहा था
मुझे वो वेश्याएं भी दिखती हैं
जिनके लिए आज़ादी एक मोहक शब्द है महज़ शब्द
मेरे दिमाग में प्रेम में दुत्कारी हर वो लड़की आती है
जो ख़ुद से नफ़रत करने लगी है
मेरे दिमाग मे हर वो औरत आती है जो दिन रात
न जाने किसे पूजती रहती है
ताकि उसका मर्द ज़िंदा रहे
मेरे सामने वो तमाम औरतें आ जाती हैं
जिनके लिए आज़ादी भोजन की मिली झूठी थाली है
सुनो आज़ादी एक बहुत बड़ी गाली है
एक लड़का मुसलमान कह कर मारा गया
एक आदमी दलित कह कर जलाया गया
आज़ादी मांगती एक लड़की को
बलात्कार करके चुप कराया गया
कोई बोलने की आज़ादी मांगते हुए मरा
कोई आज़ादी से लिखते हुए मारा गया
एक को तुमने मारा क्यों कि
उसको तुम्हारी आज़ादी झूठी लगती थी
और जब मुझे याद आता है वो
जिसे महज़ मनोरंजन के लिए तुमने मारा था
तब मुझे यह आज़ादी सबसे बड़ी गाली लगती है
तुमने वो सारे शब्द मिटा दिये हैं जो आज़ादी का अर्थ बताते थे
जो आज़ादी को महसूस करना चाहते थे
तुमने उन सारे लोगों को चुप कर दिया है
इस देश का संविधान
जो आज़ादी की आख़िरी आस थी
तुमने उसे भी जला दिया है
और इस तरह अब आज़ादी एक गाली है
एक गलतफहमी है जो सबने पाली है........
मैं एक औरत हूँ
मैं एक औरत हूँ
ज़ोर से चीख़ना तुम और बता देना
जब वो पूछें
कि किसकी बेटी हो तुम
कौन है पति तुम्हारा
वो पूछेंगे कि मां हो तुम
कैसी मां हो तुम
हो भी या नहीं हो?
बताओ इस बच्चे का बाप कौन है
वो तुम्हारी उठती आवाज़ों को
वेश्या वेश्या चीख कर दबाएंगे
वो तुम्हारी बेबाकी पर
संस्कृति का बड़ा सा ठप्पा लगाएंगे
वो तुम्हारे चरित्र को
इश्तेहार की तरह गाएंगे
वो आएंगे अकेले
तो कभी झुंड में आएंगे
और तुम्हारे हौसले
को कुचल जाएंगे
पर डिगना मत तुम
एक झटके में नकार देना
सारे ठप्पे
दनदनाती हुई ऐसी चलना
कि पैरों की धूल से अपनी
उड़ा देना सारे सवाल
इतनी ज़ोर से चीख़ना तुम
कि उसके बाद न उठे कोई
भद्दी आवाज़
और कहना
कि लड़ने के लिए चाहिए हौसला
लड़ने के लिए चाहये साहस
लड़ने के लिए चाहये विश्वास
लड़ने के लिए चाहये उठती आवाज़
और मेरे पास सब है यह
क्योंकि मैं एक औरत हूँ
औरतों के आंसू
औरतें हमेशा हंसती-मुस्कुराती
सजी-संवरी अच्छी लगती हैं
लड़के ने कहा
उसको लगा यह तारीफ़ है और बहुत ही ख़ुश हो गयी
उसकी ही तरह दुनिया की तमाम औरतें
इस तारीफ़-नुमा बोझ के नीचे दबती-मरती रहीं हमेशा
दर्द, कराह
आंसू, पीड़ा
सब के सब इसी तारीफ़ के नीचे
धुंधले पड़ते रहे हमेशा
सदियां गुज़र गयीं
पर दर्द हमेशा
तारीफ़ के झंडे के नीचे फहराया जाता रहा।1
पड़ोस वाली भाभी का सातवां महीना था
तभी पति ने आ कर कहा
तुम्हें पता है मेरे दोस्त की वाइफ़ भी प्रेग्नेंट है
पर उसे देख कर लगता ही नहीं यार कि वो बीमार है
ख़ुश रहती है हरदम
तुम भी रहा करो न यूँ ही ख़ुश
वो समझ गयी ख़ुश रहने का मतलब था दर्द न कहा करो न
और उसने गांठ बांध ली
फिर तो डिलीवरी पेन में भी मुंह सिले रही
सारे लोगों ने तारीफ़ की
फ़लाने की बहू तो बहुत सब्रीली है।2
पिछले दिनों बस्ती में काम करने वाली ममता
पिट कर आई थी पति से
दर्द के निशान बहुत लंबे रहे थे
शरीर पर
मैंने कितना दर्द समेट कर पूछा था उससे
बहुत दर्द होता होगा न ममता
तो उसने हंस कर कहा अरे नहीं रे पति ही तो है दीदी
इससे पहले मैं कुछ बोल पाती
बूढ़ी अम्मा ख़ूब चहक गईं और बोलीं
यही तो है पति-धर्म
बहुत अच्छा बेटा।
सदा सुहागन रहो
मैंने देखा था ममता को वो आशीर्वाद थोड़ा चुभ गया था
बदले में वो केवल मुस्कुराई भर थी। 3
इस बोझ ने औरतों को विकलांग कर दिया
शरीर सलामत, दिमाग विकलांग
चुप्पी के अंदर रिसता-सड़ता दर्द
आत्मसम्मान विकलांग
जीवन सलामत
पर जीना विकलांग
अब तो नई उम्र की लड़कियां भी इस गाने पर नाचने-झूमने लगीं हैं
'दिल पर पत्थर रख कर मुंह पर मेकअप कर लिया'
जैसे दर्द की दीवाली मना रही हों
आंसुओं की होली खेल रही हों
अब दर्द ही गाना हो गया है
जिस पर नाचा जा सकता है
मेकअप के नीचे
गहरे दर्द के निशानों को छुपाया जा सकता है
यह बोझ क्या है मैडल हो जैसे
जिसे हर कोई पहन लेना चाहता है
गांव में चाची की बहू काम करते करते बेहोश हो गयी,
उसे उठा कर कमरे में डाल दिया गया इस ताने के साथ
कि आजकल की लड़कियों से काम नहीं होते
दो दिन पहले उसने यह किस्सा
ख़ूब हंस-गा कर बताया था अपनी सहेली को
उफ़्फ़ अपमान को भी कोई जश्न की तरह मनाता है क्या? 4
हमने अम्मा
ख़ाला, चाची, मामी
भाभी, बहन
और अमूमन सब औरतों को
हंसते देखा हमेशा
दर्द में भी हंसते
ख़ुद को बेशर्म और ढीठ कह कर
ख़ुद का ही मज़ाक़ उड़ाते
पर कभी इस बोझ से निकलने की कोशिश करते नहीं देखा 5
स्कूल, कॉलेज की लड़कियां
महीने के दिनों में भी ख़ुश रहती हैं
उन्हें किसी ने कहा था
लड़कियां हंसती- मुस्कुराती अच्छी लगती हैं
रोने-धोने, दर्द गाने वाली लड़कियां मनहूस होती हैं
अब एक तो लड़की
वो भी मनहूसियत फैलाती रहे तो अच्छी लगती है क्या भला
मैं सोचती हूँ
जिस दिन दुनिया की तमाम लड़कियां
तारीफ़ को नकार देंगी
छुपाने के बजाए दर्द बताने लगेंगी
अपने स्वामियों के सीने पर चढ़ कर
सवाल करने लगेंगी
दर्द की हीनता से मुक्त हो जाएंगी
तब क्या होगा
क्या यह दुनिया कब्रिस्तान की तरह मनहूस हो जाएगी?
क्या हर घर से औरतों की सामूहिक रुदाली सुनाई देगी?
क्या हर तकिए के नीचे से
सुनाई देगा सिसकियों का शोर?
क्या दुनिया की हर इमारत
मनहूसियत की गवाह बन जाएगी
जहां सदियों तक छुपा कर रखे गए
औरतों के आंसू?
उफ़्फ़ कितना भयानक होगा
अगर ऐसा होगा.....
मेरा मकान नहीं, घर टूटा है
भाई अक्सर लड़ते लड़ते कहता था
देखना मैं तो अमेरिका चला जाऊंगा
तब तू अकेली आया करना घर
बहन भी चिढ़ कर कह देती मैं ही रहूंगी इस घर में
तू वहीं सड़ना अमेरिका में
छुटकी थोड़ी ज़्यादा भावुक थी
हंसी-खेल के इस मज़ाक़ में अक्सर
शून्य में तकने लगती थी और हल्के से कहती
पता नहीं हम लोग बड़े हो कर कहां-कहां चले जायेंगे न
इतने में ही अम्मा की आवाज़
'खाना खा लो' से सबका ध्यान टूट जाता
और महफ़िल बर्खास्त।1
अब्बा फिर आज कुछ पैसों का हिसाब लगा रहे हैं
यह उनका रोज़ का मामूल है
पैसे गिनना, हिसाब लगाना और अम्मा से कहना
इस बार तुम्हें किचन में पत्थर लगवा दूंगा
अम्मा मुस्कुराती और कहतीं
नहीं जी कोई ज़रूरत नहीं है
मेरा काम चल रहा है
आप देखिये न पहले और ख़र्चे
हम सब यह बातें सुनते-सुनते बड़े हुए
एक दूसरे को विश्वास के साथ देखते
आंखों में कई सपने बुनते-बुनते बड़े हुए।2
इस तरह अंब्बा के रोज़ के हिसाब
अम्मा की अनगिनत इच्छाओं के त्याग
और हमारे चमकीले सपनों से बना था यह घर।
एक ड्राइंग रूम को हमारी पसंद का बनवाने में
अब्बा की कमर टूट गयी थी
पड़ोस की आंटी, रिश्ते की भाभी, चाची, मामी किसी की भी तरह
सुंदर नहीं थे अम्मा के कपड़े
पर हम बहनों को एक सुंदर कमरा ज़रूर बनवाया था उन्होंने
भैया की टेबल घर के जिस कोने में पड़ी रहती थी
उस कोने ने अनगिनत भावुक पल देखे थे
वो पढा, इंजीनियर बना
और चला गया
पर घर का कोना आज भी उसकी याद में वैसा ही है
छोटी बहन ने कमरे के किवाड़ के पीछे छिप कर
एक शीशा लगाया हुआ था
जिसे वो अपना पर्सनल स्पेस कहती थी
वो भी चली गयी
पर वो पर्सनल स्पेस आज भी उस शीशे के रूप में मौजूद था। 3
जिस आंगन में पड़ी रहती थी अब्बा की कुर्सी
वो आंगन अब पूरा अब्बा हो गया है
अब्बा नहीं रहे
पर आंगन अब्बा के होने का एहसास कराता है
वो पेड़ जिस को रोज़ पानी दे कर
बच्चे की तरह पाला था अब्बा ने
वो अब अब्बानुमा आंगन को पूरी छाया देता है
सब कुछ एक एहसास के धागे से सिला
अभी तक नया-नया है
यह एहसास ही तो है जिससे इस घर का
कोना कोना महकता है
मेरा बचपन
हमारी लड़ाइयां
अम्मा के आंसू
अब्बा की मेहनत
हमारी छोटी-छोटी खुशियां
और
और हमारे चमकीले सपने
यह सब मकान नहीं
घर थे
मेरा घर
ईंट पत्थर थोड़ी टूटे हैं
मेरा घर टूटा है
कई सपनों का क़त्ल हो गया है
कहते हैं क़त्ल की सज़ा तो है क़ानून में
पर दुनिया की कौन सी किताब
एहसासों के क़ातिल को मुजरिम मानती है?
कौन सा क़ानून
सबूतों के अभाव में
केवल
एहसास पर टिका है?
मेरा मकान नहीं, घर टूटा है
हिसाब कौन देगा
जब पीढियां पूछेंगी
तो जवाब कौन देगा???
तुम आओगे
मेरी आत्मा के मित्र
हमारे बीच कुछ भी नहीं था
फिर भी कितना कुछ था
जो सँभाल के रखा है अभी तक मैंने यूँ ही
हमारे बीच बस हम तुम कहां थे
एक पूरी दुनिया थी
मज़दूर थे, किसान थे
दुनिया के तमाम मेहनतकश लोग थे हमारी बातों में
तभी हमने इरादा किया था कि मिल कर बदले देंगे इस दुनिया को
ओ मेरी आत्मा के मित्र
यह इरादा अभी तक सँभाल के रखा है मैंने यूँ ही
हम कितने तो अलग थे
हमारी देह, हमारी उम्रें अलग थीं
पर एक ही विचार को थाम
वादा किया था हमने
कि जब तक नहीं आएगी सुबह
जब तक नहीं आएगा इंक़लाब
जब तक सूख नहीं जाएगा हर आंख का आंसू
तब तक अलग नहीं होंगे हम
यही वादा मैंने सँभाल के रखा है अब तक यूँ ही
तुम भूल गए क्या?
कैसे बिना कुछ कहे ही
तुमने मुझे प्रेम सिखाया था
तुमने बतलाया था मुझे
कि प्रेम कोई लैला मजनू की कहानी थोड़ी न होती है पागल
हर नम आंख को ज़रूरत है प्रेम की
हर थकते हाथ को
हर मरते मिटते ख़्वाब को,
हर भूखे से कटते पेट को
हर चुप पड़े मज़लूम को
ज़रूरत है हमारे प्रेम की
तब याद है तुम्हें?
हमने वादा किया था बांटने का प्रेम सब जगह मिल कर
यही प्रेम बचा कर रखा है अभी तक मैंने यूँ ही
मेरी आत्मा के मित्र
अभी तो न ग़ुलामी की बेड़ियां टूटी हैं
न आज़ादी की सुबह आयी है
न खुशी ही है हर आंख में
न हर पेट मे पहुंचा है अन्न
अभी वो दुनिया ही नहीं आयी
जिसको बनाने का वादा किया था हमने
इसीलिए मैं वहीं खड़ी हूँ
तुम्हारी राह तकती
मुझे पता है कि तुम आओगे
फिर से इस दुनिया को बदलने
यूँ ही मेरे साथ.....
क्यो के हमारे बीच कुछ भी नहीं था
फिर भी कितना कुछ था....
तुम आओगे मेरी आत्मा के मित्र......... तुम ज़रूर आओगे
लड़कियों की डायरी
मेरी डायरी में
कितने ही ऊटपटांग किस्से दर्ज हैं
कितनी ही अधूरी ख्वाहिशें
कितने ही अनकहे किस्से दफ़्न हैं
कितनी राज़ रह गईं मुस्कुराहटों को
पन्नों ने उसके चूमा है
कितने ही आंसुओं को
बार बार उसने सोखा हैज
जन्म लेते ही मर गए प्रेम हैं उसमें
कितने प्रेमी सांस लेते हैं उसमें
मेरे अंतहीन सपने
पल पल बदलती ख्वाहिशें
सवाल और उलझनें हैं उसमें, डर, जज़्बा, हिम्मत
कितना कुछ तो है उसमें महफूज़
मेरी डायरी क्या है जैसे मेरा आईना है वो
सोचती हूँ गर किसी के हाथ लग गयी मेरी यह डायरी
तो कितनी आसानी होगी उसे
मुझे पागल घोषित करने में
फिर सोचती हूँ मेरी ही क्यों
दुनिया की तमाम लड़कियों की डायरी
एक भारी सबूत सा होती है उनके ख़िलाफ़....
इसीलिये छुपा छुपा के रखती हैं लड़कियां उसे किसी गुनाह की तरह....
(इस पोस्ट
में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेंद्र जी की हैं।)
दीबा जी की कविताएं पढ़के बहुत अच्छा लगा, उनकी कविताओं के माध्यम से समाज के जो मुद्दे होते हैं विशेष रूप से महिलाओं के गहरी समझ पैदा होती है मैं दीबा जी को उनकी इन शानदार कविताओं के लिए बहुत बहुत मुबारकबाद पेश करता हूं . ्
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविताएं। औरतों के आँसू मुझे संवेदना के स्तर पर सर्वश्रेष्ठ लगी।
जवाब देंहटाएंशुरू की तीन कविताएं पढ़ी हैं अभी। अच्छी कविताएं हैं। बाकी ठहरकर पढूंगा...
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23.6.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4469 में दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति चर्चाकारों का हौसला बढ़ाएगी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबाग
दिल को छूने वाली सुंदर कविताएँ
जवाब देंहटाएंदीबा नियाज़ी की सभी कविताएं बहुत अच्छी लगी, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंदीबा की कविताएं अच्छी लगीं।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएं
जवाब देंहटाएंAmazing wowwwm
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