मार्कंडेय जी से अनुराग की बातचीत

मार्कंडेय जी जनवरी 2010 में दूसरी बार अपने गले के कैंसर के इलाज के लिए जब दिल्ली गए तो हममें से किसी ने यह सोचा नहीं होगा कि दादा अपने प्रिय शहर इलाहाबाद से आख़िरी बार जा रहे हैं। जब भी उन्हें इलाहाबाद से बाहर जाना होता वे कई बहाने ढूँढते बाहर न जाने के। बहरहाल इलाज के क्रम में ही दादा जब दिल्ली में रोहिणी के राजीव गांधी कैसर इंस्टीटयूट के पास किराए पर फ़्लैट ले कर रुके हुए थे, उसी समय दैनिक जागरण नोयडा के हमारे पत्रकार मित्र और 'लेखक मंच' जैसे चर्चित ब्लॉग के संचालक अनुराग जी ने दादा से बातचीत की इच्छा जाहिर की। दादा इस समय ठीक से बोल नहीं पा रहे थे और जब कभी उन्हें बोलना पड़ता उन्हें बहुत असुविधा होती। फिर भी हम सब के अनुरोध पर दादा इस बातचीत के लिए तैयार हो गए। यह उनका आख़िरी साक्षात्कार साबित हुआ। पहली बार पर विशेष प्रस्तुति के अंतर्गत प्रस्तुत है मार्कंडेय जी यह आख़िरी साक्षात्कार। 
 

समय की सच्चाई की तलाश करें नए लेखक: मार्कण्डेय


प्रेमचंद के बाद हिंदी कथा साहित्य में ग्रामीण परिवेश को पुनर्स्थापित करने वालों में मार्कण्डेय प्रमुख कथाकार हैं। वह दोबार कैंसर की चपेट में आ गए हैं। इन दिनों इलाज के लिए दिल्ली आए हुए हैं। उन्हें बोलने में दिक्कत हो रही है। इसके बावजूद उन्होंने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को साझा किया और लेखन से जुड़ी योजनाओं के बारे में बताया। उनसे बातचीत के अंश-     
    
जब आपने लिखना शुरू किया, उस दौरान ग्रामीण परिवेश की कहानियां नहीं लिखी जा रही थीं। प्रेमचंद के बाद अंतराल आ गया था। इसे शिवप्रसाद सिंह और आपने खत्म किया। पाठकों की कैसी प्रतिक्रिया रही?
पाठकों ने बहुत प्रसन्नता से अपनाया और तुरंत ही ‘कल्पना’ में कहानियां छपने लगीं। उन्होंने कुछ ज्यादा पैसे मुझे देने शुरू किए और कहा कि आप लगातार हमारे लिए लिखिए। मैं 1951-52 में एमए का छात्र था। उन्होंने मुझे बुलाया और कहा कि हमारे यहां जो कहानियां छपी हैं, उनका संकलन छापना चाहते हैं।  ‘पान फूल’ उन्होंने, नवहिंद पब्लिकेशन छापा। इसकी चर्चा खूब हुई। उस दिनों इलाहाबाद में साहित्यकारों के दो गुट थे। एक परिमल और दूसरा प्रगतिशील लेखक संघ। मैं प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ा था। परिमल वाले भी उन कहानियों की तारीफ करते थे। प्रगतिशील संघ ने तो उसे हाथों हाथ लिया।

उन दिनों प्रगतिशील लेखक संघ में विचारधारा का वर्चस्व था। रामविलास शर्मा इसके कट्टर समर्थकों में से थे। आपकी पीढ़ी ने साहित्य में वैचारिक कट्टरता के खिलाफ लिखा। पुरानी पीढ़ी को क्या आप इस बात के लिए मना पाए कि साहित्य में कट्टरवाद नहीं चलेगा?
कई गोष्ठियों में चर्चा हुई और ‘प्रतिबद्धता’ उसके लिए सही शब्द है। यह तय हुआ कि प्रतिबद्धता आवश्यक नहीं है। जरूरी है संवेदना और अपने समय का सत्य। अगर वह कहानी में आ रहा है तो कहानी प्रगतिशील है। उसी को लेकर चारों ओर चर्चा होने लगी। ‘नई कहानी’ आंदोलन शुरू हो गया। उसमें कमलेश्वर, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, राजेंद्र यादव आदि बहुत से लेखक आ गए। ये सब नई कहानियों के लेखक हैं। पूरे देश में नई कहानियां चर्चा का विषय बन गईं।
अब हुआ यह कि भैरवप्रसाद गुप्त, जो विचारधारा के मामले में कट्टर थे, उन्होंने इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली ‘नई कहानियां’ को काफी प्रोत्साहित किया। भीष्म साहनी, अमरकांत आदि की कहानियां प्रकाशित कीं। धीरे-धीरे ये लेखक भी लाइम लाइट में आ गए। इनके बारे में चर्चा होने लगी। प्रतिबद्धता का सूत्र वहीं से टूट गया।

आपने साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’ में ‘साहित्यधारा’ कॉलम भी लिखा। इस बारे में बताएं।
‘कल्पना’ वालों ने मुझे एक स्तंभ लिखने के लिए कहा। लिखा-पढ़ी में तय हुआ कि वह नाम का खुलासा नहीं करेंगे और न ही मैं बताउंगा कि कौन लिखता है। स्तंभ का नाम ’साहित्यधारा’ था और मैं चक्रधर के नाम से लिखता था। जब ‘कल्पना’ आती थी, लोग पहले ’साहित्यधारा’ पढ़ते थे। परिमल वाले भी और प्रगतिशील वाले भी, सब लोग उसमें देखते थे कि मेरी रचना का उल्लेख है या नहीं। नतीजा यह हुआ कि स्तंभ बहुत पापुलर हो गया।
प्रभाकर माचवे नागपुर में रहते थे। उन्होंने बहुत भद्दी टिप्पणी हिंदी के बारे में लिखी। चक्रधर ने उसकी आलोचना की कि हिंदी की कमाई खाने वाले, हिंदी की रोटी पर जीने वाले, हिंदी के बारे में इस तरह की बातें करते हैं। प्रभाकर माचवे इससे बहुत नाखुश हुए। उन्होंने ‘कल्पना’ वालों से पूछा कि यह स्तंभ कौन लिखता है? प्रभाकर माचवे ने बद्रीविशाल पित्ती को बाध्य कर दिया कि वह नाम का खुलासा करें। उन्होंने बता दिया। मैंने उन्हें लिख दिया कि अब मैं नहीं लिखूंगा, क्योंकि नाम डिसक्लोज न करने का हमारे-आपके
बीच का समझौता टूट गया। मैंने स्तंभ लिखना बंद कर दिया। स्तंभ लिखने के 200 रुपये मिलते थे। उन दिनों 200 रुपये का बड़ा महत्व था।

आप जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से हैं। इसकी स्थापना कैसे हुई?
उस समय बीटी रणदिवे बहुत बड़े नेता थे। प्रगतिशील लेखक संघ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन था। जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बनी तो हम लोगों ने तय किया कि अलग संगठन बनाना है। जगह-जगह पंद्रह-सोलह मीटिंग हुईं। कलकता में भी मीटिंग हुई। रणदिवे बहुत सख्त आदमी थे। एक लड़के ने पूछा कि प्रेम कहानियों के बारे में आपकी क्या राय है? उन्होंने इसके उत्तर में एक घंटे भाषण दिया। परिमल वालों की भी तारीफ की, जो मार्क्सवादियों के अगेनस्ट थे।
सर्वेष्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय की तारीफ की क्योंकि चीन का आक्रमण हुआ था तो रणदिवे कलकता अंडरग्राउंड हो गए थे। हमारे मित्र की बहन उनकी कांटैक्ट थी। वह ही खाने-पीने, रहने की व्यवस्था कराती थी। वह बताती थीं कि इस तरह की रचनाएं अब वह पसंद नहीं करते, जिनमें प्रतिबद्धता जरूरी है। उन्होंने उदाहरण दिया कि परिमल वालों में कई अच्छे लेखक हैं। धर्मवीर भारती, सर्वेष्वर दयाल सक्सेना आदि उन्हीं में थे।
हम सबको दिल्ली बुलाया गया। चंद्रबली सिंह और भैरवप्रसाद गुप्त पार्टी के सदस्य थे। मैं पार्टी का सदस्य नहीं था। ये लोग तैयार होकर मीटिंग के लिए चले गए और मुझसे कहा कि तुम आराम से आना। मैं नहीं समझ पाया कि मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं?
जब मैं पहुंचा तो देखा कि मीटिंग चल रही है। रणदिवे ने सरला माहेष्वरी से कहा कि मार्कण्डेयजी आ रहे हैं। तुम उन्हें लेकर जाओ और सामने के किसी होटल में चाय-वाय पिलवाओ। रोके रहो काफी देर। अब हम मीटिंग कन्क्लूड करने वाले हैं। नियम होता है कि कार्ड होल्डर मेंबर ही मीटिंग में बुलाए जाते हैं। सब तय हो गया, तब सरलाजी मुझे लेकर पहुंची। हम लोग बैठे रहे। कम्युनिस्ट पार्टी के कम्यून में चाय-नाष्ता, खाना-पीना सब मिलता है। खाने-पीने, रहने की व्यवस्था पार्टी करती है। अपने बर्तन खुद धोकर रखने पड़ते हैं। ज्योति बसु, नंबूरदीपाद आदि सब अपने बर्तन धोते थे। आज भी यह प्रचलन बरकार है।
मैं संस्थापक सदस्य चुना गया। नियम होता है कि मान लीजिए आप तख्त पर बैठे हैं तो आपके पीछे दूसरे लोग बैठे रहते हैं; वे कार्ड होल्डर होते हैं। जिस किसी का नाम आप बुलाना चाहते हैं, वे बाधा पहुंचाते हैं कि उनका नाम न बुलाया जाए। सुधीश पचौरी बड़-बड़ कर बोल रहे थे। वह भैरवप्रसाद गुप्त की बहुत निंदा कर रहे थे। बीटी ने उन्हें डांटा, क्या लिखा है तुमने। क्या किया है तुमने। ऐसे आदमी से तुम बात कर रहे हो, जिसके आठ उपन्यास छप चुके हैं। नतीजा यह है कि उनकी सचिव बनने की कामना पूरी नहीं हो पाई। इस तरह जनवादी लेखक संघ की संस्थापक टोली में मैं शमिल हो गया।

रचनाकार के लिए लेखक संगठन की क्या उपयोगिता है?
जब सब मिलकर बातें करते हैं तो उसमें से कई नई बातें निकलती हैं। इसलिए रचनाकार के लिए लेखक संगठन बहुत जरूरी हैं। प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ की मीटिंग होती थी। उनमें विचार-विमर्श और कई मुद्दों पर बहस होती थी। इनसे कई नई बातें निकलती थीं, जो आज नहीं हो रहा है।

क्या आज की तारीख में लेखक संगठनों की भूमिका से आप संतुष्ट हैं?
नहीं। लेखकों में बहुत बिखराव है। इस बात की बहुत जरूरत है कि रचनाकार अपने समय को, अपनी सच्चाई को तलाश करें। उदाहरण के तौर पर होरी को ही ले लें। उसका नाम लेने पर समस्त किसान समुदाय का खयाल आ जाता है। उस टाइप को खोजना बहुत कठिन है। नतीजा यह है कि आज नया लेखक आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है, लेकिन वह व्यक्तिगत रूप से कोई उत्तर नए सवालों का नहीं दे पा रहा है।

आपने कोई नौकरी नहीं की। आप मसीजीवी रहे और ‘नया साहित्य प्रकाशन’ की शुरुआत की। किताबों की बिक्री कैसे करते थे?
मैं किताब छापता था, लेकिन डिस्ट्रीब्यूशन नहीं करता था। किताब लोक भारती प्रकाशन वाले बेचेते थे। चालीस प्रतिशत वह रखते थे और बाकी साठ हमें देते थे।

आप कुशल संपादक माने जाते हैं। ‘कथा’ इसका प्रमाण है। आपने ‘माया’ का महाविशेषांक भी संपादित किया था, जो काफी लोकप्रिय हुआ। आपकी संपादकीय दृष्टि क्या है।
‘माया’ में कहानी पर लेख लिख रहा था। उन्होंने कहा कि विशेषांक निकाल दीजिए। विशेषांक निकला। उसमें लेख तो थे ही, नए लेखकों मसलन रविंद्र कालिया आदि की रचनाएं भी छापी। वह विशेषांक बहुत बिका। माया प्रेस वालों को लगा कि यह बहुत अच्छा हुआ। फिर एक और विशेषांक उनके लिए निकाला। वह था महाकुंभ विशेषांक। उसमें देश की राजनीति, लेखन और विभिन्न समस्याओं पर लेख दिए गए थे। मैंने रचनाकार के चयन में पार्टी को आधार नहीं बनाया। जैसे- नेमिचंद जैन भी हमारे संपादकत्व में लिखते थे, रवींद्र कालिया भी लिखते थे। इन दोनों का संबंध जनवादी लेखक संघ से नहीं था, लेकिन मैं निडर-निष्पक्ष होकर सभी रचनाएं लेता था। यहां तक कि मैंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेता गोलवरकर को भी आमंत्रित किया। विशेषांक में जो शीर्षक बना धर्म, उसमें सुमित्रानंदन पंत, संपूर्णानंद, गोलवरकर आदि ने लिखा।
मैं बेहिचक अच्छे लेखकों की रचनाएं प्रकाशित करने में दिलचस्पी लेता था और सभी को पत्रिका में एक मंच देने की कोशिश करता था। आज भी ‘कथा’ पाइंटिड मैगजीन है। जो कोई नहीं करता, वह हम करते हैं। हम ‘पूर्व संपादकीय’ नाम से स्तंभ चलाते हैं। नए अंक में मीरा ‘पूर्व संपादकीय’ में आ रही हैं। अब मीरा का क्या संबंध है कम्युनिज्म या जनवादी लेखक संघ से।

नव लेखन के बारे में आपका क्या नजरिया है?
वे एक लेखन के दौर में शामिल हैं। ऐसा नहीं लगता किसी में कि वह भारतीय स्वीकृति प्राप्त कर सकें।

आपकी अगली योजनाएं क्या हैं?
कई उपन्यास थोड़े-थोड़े लिखे हुए हैं। उन्हें पूरा करना चाहता हूं। जैसे, ‘अग्निबीज’ का दूसरा पार्ट लिखना चाहता हूं। ‘फादर पॉल’ नाम का एक छोटा उपन्यास लिखना चाहता हूं। फादर पॉल ब्रिटिश काल में चीफ पादरी थे, उनके ऊपर मैंने काम शुरू किया था। एक-दो अंक में सामग्री छपी भी थी, लेकिन वह रुका हुआ है। ‘बवंडर’ नाम का महाक्रांतिकारी उपन्यास लिखना चाहता हूं। इसका एक-दो अध्याय लिख चुका हूं।

एक दौर था, जब इलाहाबाद में साहित्यकारों का मिलना-जुलना होता था। दिल्ली में भी काफी हाउस साहित्यकारों का अड्डा रहा करता था। अब न यहां काफी हाउस रहे और न ही इलाहाबाद की वे बैठकें होती हैं। इसकी क्या वजह मानते हैं?

इसका कारण बाजारवाद है। अपनी-अपनी सीमाओं में ग्रस्त हैं लोग। उनके पास फुर्सत नहीं है बैठने की, बहस-चर्चा करने की। कुछ फाउंड करने की, कुछ नया करने की तमन्ना नहीं है। व्यक्तिगत अनुभवों में ही वे सीमित हैं। हमारा समाज क्या है, उसके क्या संदर्भ हैं और उन संदर्भों में उनकी क्या बात बनती है, वह काम नहीं कर पा रहे हैं। बस सीमित अनुभव वाली रचनाएं आ रही हैं।





अनुराग जी दैनिक जागरण नोयडा के हमारे पत्रकार मित्र और लेखक मंच जैसे चर्चित ब्लॉग के संचालक हैं।

मोबाईल- 09871344533

E-mail: anuraglekhak@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही सार्थक एवं संग्रहणीय साक्षात्कार . अनुराग जी यह बहुत अनोखा काम किया है . सादर
    - नित्यानंद गायेन

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  2. सार्थक आलेख ...
    आभार अनुराग जी...

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