जयश्री रॉय
जन्म : 18 मई, हजारीबाग (बिहार)
शिक्षा : एम. ए. हिन्दी (गोल्ड मेडलिस्ट), गोवा विश्वविद्यालय
प्रकाशन : अनकही, ...तुम्हें
छू लूं जरा, खारा पानी (कहानी संग्रह),
औरत जो नदी है, साथ चलते हुये (उपन्यास),
तुम्हारे लिये (कविता संग्रह)
प्रसारण : आकाशवाणी से रचनाओं का नियमित प्रसारण
सम्मान : युवाकथा सम्मान (सोनभद्र), 2012
जयश्री रॉय ने हिन्दी कहानी में इधर बड़ी पुख्तगी के साथ अपनी जगह बनायी है। उनकी कहन की शैली जैसे हमें अपनी और अनायास ही आकृष्ट कर लेती है। जयश्री का शिल्प भी औरों से कुछ अलहदा किस्म का है। तो आईये इस अलहदा किस्म की बानगी से रू-ब-रू होते हैं जयश्री की नवीनतम कहानी 'अपनी कैद' के साथ।
अपनी क़ैद
किचन का पिछला
दरवाज़ा खुलते ही हवा में ब्रोकोली सूप की सौंधी गंध फैल गई थी और इसके साथ ही जो चेहरा
चमका था, मैंने उसे उसी गन्ध के घेरे में
पहचान लिया था. यह मां की जाति की महिला है! इसकी देह से लालित्य नहीं, स्नेह रिसता है. एक बच्चा जो अपनी मां की मौत के
बाद अरसे से अपने भीतर दुबका पड़ा था, यकायक
धूप की सुनहरी हरारत से भर कर बाहर निकल आया था - पंखुरी-पंखुरी खिलते सूरजमुखी की तरह
- उतना ही ताज़ा और चमकीला.
मेरे पूरे वज़ूद से छ्लकती हल्की मुस्कुराहट उसकी
मटमैली नीली आंखों में तत्क्षण प्रतिविंबित हुई थी - उसने मुझे पहचान लिया था, और उसकी अदृश्य बांहें सम्पूर्ण अपनत्व के साथ मेरे
इर्द-गिर्द सहसा घिर आई थीं.
वह छोटा-सा क्षण किसी जादू की तरह था. एक नन्हीं-सी
परिधि में मेरा गत-आगत अनायास सिमट आया था, ममता की
गोद में सुरक्षित बच्चे की तरह. राहत की उस गहरी अनुभूति में होते ही मुझे ख्याल आया
था, कितना थका हुआ हूं मैं... महीनों की जगार, दुख में घुली शून्यता और बरसे न बरसे आंसू मुझे
एकदम से घेर लेते हैं.
मैंने उससे लकड़ी काटने का बिजली से चलने वाला औजार
उधार मांगा था और उसने दिया भी था, मगर उससे
पहले अपनी किचन में बुलाकर बैठाया था.
वह हमारी नई पड़ोसन थी. पिछले हफ्ते ही वे लोग इस
किराये के मकान में रहने के लिये आये थे. लोग इस मकान को भूतहा कहते थे. दो साल पहले
यहां एक विधवा ने आत्महत्या की थी. उसके बाद यहां कोई किरायादार नहीं आया था. पर जैसा
कि अक्सर होता है, उस खाली मकान में भी एक अदद भूत
रहने लगा था. मगर आज यहां किसी भूत की बासी बोसीदा गंध नहीं, गर्म खून इंसानों की महक थी और ज़िंदगी की चहक भी.
मैं रोज सोचता रहा कि आकर इनसे मिलूं, मगर हो न सका. मां की मृत्यु के बाद विगत एक वर्ष
से मैं बिल्कुल असामाजिक होकर जी रहा हूं. मां दुनिया और मेरे बीच एक कड़ी थीं. जो था
उनसे था. अब जब वे नहीं रहीं तो कुछ भी नहीं.
आज अपने बगीचे के जंगलात साफ करने गया तो याद आया
हमारा शॉ मशीन महीनों से खराब पड़ा था. वही मांगने के लिये आज सुबह के समय यहां अपने
नये पड़ोसी के घर चला आया था.
वह घर में अकेली थी शायद. छोटे से किचन टेबल पर
बैठ कर मैं खिड़की पर उड़ती धूप की तितलियों की ओर देखता रहा था. लेस के पर्दों के पीछे
दिसम्बर का गहरा नीला आकाश ठिठुरा-सा प्रतीत हो रहा था. हवा में पाईन की ताज़ी गंध थी
- एक ताज़ा और कच्चे रेशम-सा उजला, चमकीला
दिन!
इस घर में ज़िंदगी है - हर तरफ - पारे की छोटी-छोटी
चमकदार बूंदों की तरह - स्टोव पर उबलते सूप की देगची में, मेज पर पसरी गर्म धूप के टुकड़े मेँ, उसकी कलाई में कभी-कभार बज उठती चूड़ियों की ठुनक
में गुनगुनाती थियराती.. मैंने एक गहरी सांस ली थी,
दोनों
फेफड़ों में भर कर - आह...! सुकून... घर... औरत... मां !
वह सामने बैठकर जिंजर केक का एक टुकड़ा काटती है, मेरे छोटे-से चौकोर प्लेट में परोसती है -
"आज ही बेक किया है... आर्ची - मेरे बेटे को पसंद है! स्कूल से आते ही देखना टूट
पड़ेगा..."
केक के हल्के गर्म टुकड़े में चम्मच चलाते हुये मैं
उसकी फीकी, हडियल उंगलियां देखता हूं. उंगली
में घिस कर बेजान पड़ गई शादी की अंगूठी दुबली उंगली में ढीली हो कर निरंतर घूम रही है.
छंटे हुये रंगहीन नाखून के नीचे की त्वचा हल्की पीली है.
क्या कुछ कहती रही थी वह - हल्के बजते जलतरंग की
तरह उसकी आवाज़- मीठी और ठुनक भरी. मेरी कॉफी
में क्रीम डाल कर वह शुगर क्य़ूब के टुकड़े उठाते-उठाते ठहर गई थी. मैंने मना कर दिया
था - "नहीं मैं नहीं लेता. वैसे मैं क्रीम और दूध भी नहीं लेता कॉफी में.."
"बहुत अच्छा
करते हैं. मैं भी परहेज करती हूं, मधुमेह
है."
लकड़ी की बोर्ड पर सब्जियां काटते हुये उसकी रीढ़
की हड्डियां गाउन के ऊपर चमकने लगी थीं. वह मेरी मां की तरह ही दुबली थी. वैसा ही पानी
में घिस गये चिकने पत्थर-सा चेहरा और उस पर उभरी गाल की हड्डियां - हमेशा खुबानी की
तरह दहके हुये, जैसे ज्वर में हो. पनियायी
आँखोँ मेँ तैरती धूप और बादल के साँवले टुकरे...
उस दिन उसके घर से बहुत भारी और बहुत हल्का होकर
लौटा था. लगा था जो खो गया था वह वापस मिल गया है. यह मिलना एक दूसरी तरह का अभाव मेरे
भीतर पैदा कर गया था. अपना सूना घर और सूना लगा था. अनायास सबकुछ खो देने की प्रतीति
मुझे अवसन्न कर गई थी. लगा था मेरे घर की ज़िंदगी मेरे पड़ोस में चली गई है. मेरी मां...
शैरोन... दो गड्डमड्ड चेहरे जल में हिलते सेवार
की तरह धीरे-धीरे मेरे अंतस में डूब गये थे. उस दिन घर लौटकर मैंने देर तक पानी नहीं
पीया था. मैं अपने मुंह में उस जिंजर केक के तीखे-तीते स्वाद को बचाये रखना चाहता था.
मां के बाद हमारी रसोई का पारंपरिक तंदूर और सूप
बनाने की कांसे की भारी पेंदी वाली केतली ठंडी पड़ी थी. गले तक राख मेँ मूँदी कमरे की
अंगीठी का भी यही हाल था. मैं सर्दी की ठिठुरती रातें स्टोव के किनारे कंपारी, सटोरी पीते
हुये ऊंघ और नींद के बीच बिता देता था. अपने बिस्तर में नहीं लेटता था. वहां मां की
लोरियां, स्नेह भरी थपकियां स्मृतियों
में कौंधकर मुझे सोने नहीं देती थीं. क्यों खुशी की यादें एक दिन अंतत: दुख बन जाती
हैं. क्यों सुखद अतीत पीड़ा का उत्स बनकर हर बार घर लौटता है...! मेरे भीतर छाई धुंध
में रह-रहकर ये प्रश्न चमकते हैं और मैं और-और दिशाहारा हो उठता हूं. पहले मां थीं
तो दुनिया थी, अब जो वे नहीं तो बस वे ही हैं, दुनिया नहीं.
आज एक अरसे बाद शैरोन को देखकर दुनिया की याद हो
आई थी. मां की स्मृतियों से परे होकर, जो रहकर
भी कहीं नहीं रह गई थी. स्थूल होना, स्पर्श
में होना ही हमेशा होना नहीं होता. होते वे भी हैँ जो कहीँ नहीँ होते...
बचपन में पोलियो में मेरा दांया पैर कमज़ोर पड़ गया
था. मां कहती थीं सालोँ पहले किसी ट्रॉपिकल देश में हम क्रिसमस का अवकाश मनाने गये
थे. वहीं यह रोग लगा होगा. मुझे भी उसकी धुंधली-सी याद थी. बर्फिले पहाड,
रेगिस्तान और समंदर का देश, सांपोँ और साधुओँ का देश, भूख
और अमीरी का देश... अब भी मेरी नींद मेँ गुलाल के रंग उडते हैँ,
संपेरे की बीन बजती हैँ! जब मैं रुक-रुककर हिचकोले खाता हुआ-सा चलता, मां मेरी तरफ देखने से बचतीं. क्या होता था उनकी
आंखों में उस समय मेरे लिये, मैं सोच
नहीं पाता था और जो महसूस करता था, उन भावों
को व्यंजित करने के लिये शब्द नहीं मिलते थे. मुझे बस गिरजाघर के प्रार्थना कक्ष की
दीवार पर बनी वह तस्वीर याद आती थी जिसमें सलीब पर लटके यीशु के जिस्म की ओर मरियम
देख रही है. उनके दोनों हाथ सीने पर हैं और आंखें... हां! वही आंखें - मेरी मां की
आंखें... उनमें शब्द, ध्वनि से परे की वही मूक भाषा...
हर मां की आंखें एक जैसी होती हैं - मरियम जैसी! दुनिया भर के वात्सल्य, करुणा को इकट्ठाकर उसका स्थूल अनुवाद मां के रूप
में ही होता है.
मुझे स्कूल में बच्चे डोनाल्ड डक कहकर चिढ़ाते थे.
मैं खेलना चाहता था, मगर बच्चे मुझे अपने साथ नहीं
लेते थे. कभी लिया भी तो अड़ंगा लगाकर फेंक दिया. सबकी तरफ हिचकोले लेकर दौड़ता हुआ मैं
किसी बिफरे बत्तख की तरह दिखता होऊंगा. बच्चे तालियां बजाते, मेरे सर पर इधर-उधर से चपत लगाते और मैं आंखों में
आंसू लिये उनके पीछे जिद्द से भरा दौड़ता-भागता रहता.
एक बार इसी तरह बच्चों से पिट कर मैं खेल के मैदान
में खड़ा था. स्कूल के गेट के पास जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी. मेरा यूनिफॉर्म फट
चुका था और चेहरा धूल से सना हुआ था. घुटनों पर खून के धब्बे थे. गेट के पास मुझे न
पाकर मां ढूंढते हुये वहां आई थीं. उनके पास आते ही मैं फट पड़ा था और उन्हें दोनों
हाथों से पीटने लगा था.
मां ने कुछ नहीं कहा था. मुझे अपने सीने में समेटे
चुपचाप बैठी रही थीं. मैं उन्हें पीटते-पीटते आखिर थक गया था और एक समय के बाद निढाल
हो कर उनकी गोद में ढह गया था. मां ने तब भी कुछ नहीं कहा था. मुझे याद है, उस दिन मेरी पीठ पर उनकी हथेलियां कबूतर के सीने
की तरह नर्म और हरारत भरी थी. बाद में कहा था उन्होंने, जब भी तुम्हें कोई दुख दे, इसी तरह ला कर मुझ पर उड़ेल देना बीली. सुन कर मैं और
रोया था.
बचपन से ले कर जब तक मां रहीं, मैंने यही किया - दुनिया भर के दुख, संत्रास - जहां जो मिला, लाकर उन पर उड़ेलता रहा. बदले में वह मुझे खुशियों
की गुलाबी कैंडियां थमाती रही. कभी कुछ भूल जाता तो मां ही याद दिला कर मुझसे वसूल
ले जातीं, बाकायादा तलाशी लेकर. कितनी सूक्ष्म
थी उनकी दृष्टि - छोटा से छोटा दुख, बात भी
उनसे नहीं छिपती - आंखों में टंका दुख का कोई मटमैला पैबंद, हंसी का कहीं से फीका हो गया रंग, चेहरे पर ठिठका हुआ एक ज़र्द मौन...
मुझे अपने कैशोर्य का चेहरा याद आता है - शीशे पर
दहकता हुआ लाल-लाल, गुस्सैल मुहांसों से भरा. कहीं
से पीप, कहीं से खून,
ओह ! कितना
गंदा दिखता था मैं खुद को ही. अपना चेहरा छिपाने के लिये संदूक, अलमारी ढूंढ़ता था. आवाज़ भी फटकर एकदम कर्कश और बेसुरी.
न बच्चा, ना जवान, बीच की कोई चीज़... बेढंगी, बदसूरत...
सोचते हुये मैं अपनी खाली बोतल टटोलता हूं, वह दूर कोने में लुढ़की पड़ी है. आंखों के आगे गुलाबी
तितलियां उड़ रही हैं, गले की एक नस धड़क रही है रह-रह
कर. पूरे कमरे में अंधकार पसरा है, उल्टी
पड़ी दवात की तरह... मैं सोफे पर लेटा-लेटा देख सकता हूं मेरी खिड़की के ठीक सामने रोशनी
से भरी शैरोन की खिड़की, उसपर नाचतीं खुशरंग परछाइयां, हंसी के खनखनाते टुकड़े, खाने की सुगंध... अरसे बाद मुझे भूख लग आई है. खयाल
आ रहा है, मैं बहुत भूखा हूं बहुत दिनों
से ! मुझे थैंक्स गीविंग पार्टियां याद आ रही हैं... तंदूरी टर्की, गर्म मक्खन आलू,
लेटस, चीज़ और चेरी टमाटर का सलाद... मेरे मुंह में पानी
भर आया है और आंखों में भी.
ऐसी ही एक पार्टी में मैंने लीज़ा के सामने प्रेम
प्रस्ताव रखा था. लीज़ा - संदली त्वचा और अखरोट की रंगत जैसे बालोंवाली दुबली पतली लड़की...
जो लहराकर चलती थी तो उसके सीने में भंवर से पड़ जाते थे. उसके पके जंगली बेरी जैसे
लाल होंठों को सोचकर सर्दी की रातों में मै झुलसा करता था. ज़िंदगी की पहली कविता भी
मैंने उन्हीं होठों पर लिखी थी. रविवार की सुबह की प्रार्थना के लिये चर्च जाती हुई
वह अपने लाल सुनहरे फ्रॉक में दहकते चिनार की तरह दिखती थी. कौंध और लहक से भरी. मैने
उसे एकबार एक जख़्मी कबूतर की टांग में पट्टी करते हुये देखा था. ना जाने क्यों उस समय
वह मुझे मेरी मां जैसी लगी थी-स्नेह, ममता से
भरी हुई. बहुत कोमल, निर्मल...
थैंक्स गीविंग की उस रात मैंने लीज़ा को प्रोपोज़
किया - धड़कते दिल और पसीने से भींगे माथे के साथ. सीने में धड़कनों का शोर बढ़ रहा था, जैसे पसलियों पर दिल टूटा पड़ रहा हो.
मगर, सुनते
ही लीज़ा की फिरोज़ा नील आंखों में व्यंग्य कटार की तरह कौंधा था. कैसी हिकारत भरी आंखों से घूरा था उसने मुझे. ओह!
सोचता हूं तो आज भी रगों में दौड़ता खून पानी बन जाता है. वाईन की लाली उसके होठों पर
थी, ठीक जैसे अनार का रस फल के दरारों से टपकता है.
वह नशे में थी उस समय, दिख रहा था. अपनी ऊंची सैंडिल
उतार कर पंजों के बल लॉन की घास पर चल रही थी - ठीक किसी नृत्यरत राजहंसिनी की तरह.
मैं उसकी सुर्ख एड़ियां देख रहा था जब उसने कहा था - तुम मुझे ठीक ठाक लगते हो, बस तुम्हारी नाक... थोड़ी ज्यादा मोटी है, बट ए नोज वर्क कैन बी डन... एंड दैट शुड टेक केयर
ऑफ द प्रॉब्लेम. और ये जो तुम्हारी चाल है.. खैर...! बट तुम्हारी मां इज़ द रीयल प्राब्लेम!
यू आर अ ममाज़ ब्वाय. वी ऑल नो दैट... कभी उनको छोड़कर जी पाओगे... सोच लो, हमदोनों के बीच मुझे कोई तीसरा नहीं चाहिये...
अपने सीने की जकड़न को महसूसता हुआ मैं वहां खड़ा
था - बुझते हुये अलाव के पास. आग की सुनहरी लपटें देर हुई सुर्ख टुकड़ों में तब्दील
हो गई थीं. माथे पर मैपल बृक्ष के कासनी पत्ते हजारों जुगनू की तरह झिलमिला रहे थे.
हवा चलती तो लगता तेज़ बौछार के साथ पानी बरसने लगा है. लीज़ा की आंखों में धधकती वितृष्णा
मुझे नील कर गई थी. मैं सोचना चाहता था, मगर शून्य
हो कर रह गया था. मां शब्द का उच्चारण उसने जिस हिकारत के साथ किया था, मेरे भीतर जहां जो कुछ भी अच्छा और कोमल था उसके
लिये एकदम से मर गया था - ठीक जैसे कोई प्रांजल नदी यकायक रेत की ढूहों में तब्दील
हो जाय.
मेरे जीवन में किसी औरत के प्रति आकर्षण का वह आखिरी
दिन था. बहुत त्रासद भी. रात भर रोया था मां की गोद में छिपकर. उनका एप्रन भींग गया
था पूरी तरह. थपकती रही थी वे मुझे बिना एक शब्द कहे. बहुत देर बाद एक ही बात कही थी-
ये सब बड़ा होने का ही हिस्सा है बीली... एक दिन तो यह सब होना ही है... सुनकर मै बिफरा
था- तो फिर मुझे कभी बड़ा ही नहीं होना है... इसके बाद अपनी ज़िंदगी की डिक्शनरी से मैंने
लड़की शब्द को हमेशा के लिये मिटा दिया था. औरत का अर्थ मेरी मां है - मेरी मां जैसी
होना है. जो उनकी तरह नहीं वह औरत नहीं. और उनकी जैसी कोई नहीं, कोई भी तो नहीं.
मैं किचन में स्टोव के किनारे ही सारी रात सोया
रह गया था. सुबह नींद खुली तो दिसम्बर की नर्म खुशनुमा धूप ने स्वागत किया. छत की मुंडेर
पर बुलबुल का जोड़ा चहक रहा था. हवा में पाईन की गंध आज भी तेज़ थी.
आज शुक्रवार था,
कचड़े की
गाड़ी कचड़े की थैलियां इकट्ठा करने आनेवाली थी. कचड़े की थैली कचड़ा पेटी में डालते हुये
मैंने शैरोन को देखा था उसके किचन गार्डेन में. धूप का शामियाना लगा कर बैठी थी. उसकी
पीठ मेरी तरफ थी, छांव से बाहर, धूप से भरी हुई.
मैं जानता था,
सुबह का
यही समय शैरोन का निहायत अपना होता है. पति और बच्चों के जाने के बाद वह एक कप काली
कॉफी और सिगरेट लेकर थोड़ी देर के लिये अपने किचन गार्डेन में बैठती है. बिल्कुल शांत
और निश्चिंत, धीरे-धीरे कॉफी की घूंट लेती
हुई और सिगरेट पीती हुई. एक पूरे दिन की भाग-दौड़ और मेहनत की तैयारी में.
उसे इस तरह से बैठी हुई देखना मुझे गहरे सुकून से
भर देता है. मैं मन ही मन इस प्रार्थना में होता हूं कि यह शांति और फुर्सत के दुर्लभ
क्षण उसके जीवन में बने रहें. मां भी इसी तरह रोज बैठती थीं, मगर रातों को. सारे काम निबटा कर वह ड्रिंक का ग्लास
और सिगरेट लेकर अपने बेडरूम में बैठती थीं, अपने सिरहाने
वाली खिड़की खोलकर, हर मौसम में. चाहे बर्फ झड़ रही
हो या बासंती हवा चल रही हो. वे गर्म करके लाल वाईन पीती थीं- ग्लुवाइन ! मां को उन
क्षणों में देखना एक सुखद अनुभूति हुआ करता था. सिगरेट की कश लगाती हुई वे कितनी समर्थ, कितनी शक्तिसम्पन्न लगती थीं... सारे दिन सख़्त जूड़े
में बंधे उनके गहरे नश्वार रंग के बाल उस समय उनके कंधों पर अलस बिखरे रहते. मैं अक्सर
मां के खूबसूरत पैर अपनी गोद में लेकर बिस्तर के पायताने बैठा रहता था. मगर मां मुझे
देख कर भी नहीं देखती थीं. उनका ध्यान न जाने कहां होता था. ऐसे समय में उनकी आंखों
में अजीब-सी चमक और खोयापन होता था.
सर्दी की रातें खिड़की के नीचे खिलने वाले जंगली गुलाबों
की खुश्बू से तर होती थीं. कुहासे में लिपटा चांद बगीचे के छोटे से तालाब की सतह पर
चमकता रहता. घर के पिछवाड़े ओक के बूढ़े, घने पेड़
की डाल पर उल्लू बोलता तो मैं सिहर-सिहर जाता. मगर मां का ध्यान नहीं टूटता.
पापा का चेहरा मुझे याद नहीं. मां कहती थीं, मैं ही तुम्हारा मां-बाप - जो भी कहो, हूं बीली ! मुझे भी ऐसा ही लगता था. मां के रहते
मुझे किसी और रिश्ते की कमी महसूस नहीं हुई. हर संबंध की पूरक थीं वे, हर रिश्ते का मुकम्मल चेहरा!
दिसम्बर की हवा में जादू होता है. नीले आकाश में
मन्त्र-सा गुंजारता कुछ, ज़मीन, हरियाली पर पवित्र जल का-सा स्वर्गिक छिड़काव. प्रभु
यिशु के आगमन का शुभ संदेश आकाश - बताश में.
सब धुल पुंछ कर साफ, स्वच्छ.
ईस्टर के अंडों पर रंग भरती मां कहा करती थीं, ये अंडे जीवन और सृजन के प्रतीक हैं. हालोवीन के
त्योहार में कोंहड़े पर चाकू से नाक मुंह के चित्र उकेरते भी उनकी कहानियां जारी रहती
थीं. कितना कुछ बनाती थीं मां क्रिसमस में. तरह-तरह के पारंपरिक केक, मिठाइयां. पूरे घर में रोशनी, रंगीन झालरें,
दरवाज़े
पर झाऊ के पत्तों और सूखे फूलों का गोलाकार सजावट. ड्राइंग रूम में क्रिसमस का ताज़ा
नन्हा पेड़! साथ ही घर-घर में कैरोल के गीत, कांच की
खिड़कियों पर रंग बिरंगी चित्रकारी, बाज़ार
के नाकों, दुकानों के सामने बारहसींगे पर
उपहारों का थैला ले कर सवार बहुत बूढ़ा सैंटा क्लॉज... और क्रिसमस की सुबह अंगीठी के
पास लटके मोजों में भरे उपहार... उन्हें खोलकर देखने की उत्तेजना में मैं रात भर सो
नहीं पाता था. हमारे घर के बरामदे में नन्हें यीशु का क्रिव सजता था.
फिर वे सांध्य प्रार्थनायें, गिरजे के घंटे की गंभीर ध्वनि, कॉयरस में प्रभु की महिमा के गीत गाते सैकड़ों सम्मिलित
कंठ और गिरजे की ऊंची मीनारों में ध्वनित-प्रतिध्वनित उनकी आवाज़...
आज भी क्रिसमस है और सुबह से चर्च की घंटियां रह-रह
कर बज रही हैं. शैरोन की रसोई की खिड़की भी सुबह से लजीज पकवानों की खूश्बू से महक रही
है. शैरोन के तीन बच्चे हैं. दो भूरी आंखों वाले शैतान बेटे और एक मक्खन के बट्टे पर
उकेरे गये चित्र की तरह बेटी, गुड़िया
जैसी. उसका पति किसी सुपर मार्केट में ट्रक ड्राइवर है. मोटे पेट और चुंधी आंखों वाला
- निहायत कुरूप और स्वभाव से अशिष्ट. चर्बी से ठसाठस भरा चेहरा, गला, गर्दन
एक हुआ, माथे का सामने का हिस्सा उजड़कर एकदम नंगा मैदान...
वह मुंह खोलकर चप-चप खाता है और बार-बार बिना माफी मांगे डकारें लेता है. उसे सबके
सामने अपनी गुद्दी खुजाने की भी बुरी आदत है. ऐसा करते हुये वह बेहद अश्लील प्रतीत
होता है. हंसता है तो छोटी-छोटी आंखें मुंदकर पूरा चेहरा बंद गोभी-सा दिखता है.
उस दिन मैंने उसे देखा था गली के नुक्कड़ पर शराब
पीकर बार के काउंटर पर बैठी औरत से बदतमीजी करते हुये. बाद में वहां बैठे दो अन्य लोगों
ने उसे उठाकर बाहर गली में फेंक दिया था. वहां धूल में लोटते हुये वह कोई गीत गा रहा
था. उस दिन मैं उसे उसके घर पहुंचा आया था. अपने पति को कंधे से पकड़कर संभालते हुये
शैरोन ने जाने मुझे किस दृष्टि से देखा था. उसमे कृतज्ञता थी या गहरा संकोच... उसकी
लज्जा के क्षणों में मैने उसे अकेली छोड़ देना ही उचित समझा था.
उस रात शैरोन की खिड़की स्याह, बदसूरत परछाइयों से घिर गई थी. कांच के बरतनों के
टूटने की आवाज़. उसके पति के चीखने चिल्लाने की आवाज़ों के साथ शैरोन की दबी-दबी सिसकियां
और मिन्नतें... सुनते हुये न जाने मैं कैसी यातना में हो आया था. अपनी मां की तस्वीर
के सामने अपनी मुट्ठियां भींचे बैठा रहा था. मां कहती थीं जब भी गुस्सा आये या भावनायें
निरंकुश होने लगे, गहरी-गहरी सांसे लेना. खून में
कार्बन की मात्रा घटकर ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती है और रक्तचाप सम पर आ जाता है. जिस
ट्रॉपिकल देश से मुझे पोलियो की बीमारी मिली थी,
वही से
मां योग का यह चमत्कार सीख आई थीं.
एक समय के बाद शैरोन की हिचकियां बंद हो गई थीं, मगर तबतक मेरे हाथ में थमी वाईन की नाजुक गिलसिया
टूटकर रेज़ा-रेज़ा हो चुकी थी और उसके चमकीले टुकड़ों में मेरी हथेली के जख़्म से टपके
ख़ून का रंग जामुनी पड़ गया था.
सोपां कहते हैं संगीत और अनुभूति का कोई सिद्धान्त
नहीं होता! मेरी अनुभूतियां भी सारे सिद्धान्तों से परे अराजक हुई जा रही थीं. एक नियम
का टूटना ही दूसरे नियम को जन्म देता है. मैं भी न जाने क्या तोड़कर क्या गढ़ना चाहता
था. उस रात मैं सो नहीं पाया था.
रात के नीले आंचल में कुहासा कपास की ढेर की तरह
सिमट आया था. धुंए में डूबी गलियां सड़कों के किनारे जलते लैम्प की पीली रोशनी में एकदम
गुम और सुनसान. कैसी उदासी में लिथड़ी रात थी... मकानों के सघन छज्जों के बीच फंसा एक
टुकड़ा आकाश कटी पतंग की तरह कांप रहा था. दूर बहुत दूर कपडा मील की बेडौल
आक्रितियोँ के ऊपर खुरदरे कंबल-से काले आकाश में ज़र्द तारे पैबंद की तरह टंके थे.
ठिक जैसे किसी भिखारी का कोट! उतना ही बदरंग, बदहाल!
वीलो के जाफरानी पत्तों के नीचे उस रात हवा और परछाइयां
बेचैन लोटती रही थीं. दूर ओक के ऊंचे, प्राचीन
पेड़ पर कोई रेवन रह-रह कर बोलता रहा था. उल्लू की आंखों की तरह वह रात अनझिप बीती थी.
सुबह होते-होते मेरी आंखों के पपोटों पर जैसे कांच की महीन किर्चें बिछ गई थीं. उस
सुबह कॉफी की प्याली के पीछे शैरोन की दो आर्द्र आंखें दर्द के पिघले दरिया-सी फैली
थीँ. उतनी ही बोझिल, उतनी ही गहरी, भरी-भरी... मैंने नर्गिस का पीला गुच्छा उसके सामने
की मेज पर रखा था. उन फूलों को देखकर उस दिन बहुत-बहुत रोई थी वह. कॉफी की गंध और अखबार
के पन्नों की ताज़ी महक से तर वह पारे-सी चमकीली सुबह उस दिन हमदोनों को एक अनाम संबंध
में बांध गई थी. एक कच्चा धागा, जितना
कमज़ोर, उतना ही मजबूत !
इसके बाद हम दोनों अपने-अपने घर में एक दूसरे के
साथ जीते रहे थे. एक मौन संवाद हम दोनों के बीच बना रहता. वह कुछ नहीं कहती, और मैं सब सुनता. मैं बोलता और वह उनमें मेरी अनकही
ढूंढ़ लेती. उसकी आंखों की तरलता और गीली चमक में मेरे लिये मूक स्वीकार होता. खास मौकों
पर उसके घर से आये पकवानो में उसकी कृतज्ञता व्यक्त होती रहती. मैं कुकीज़ के खस्ता
टुकड़ों से आती दालचीनी की गंध में उसकी खुशी महसूसता और एक अनाम स्वाद में डूब जाता.
उसके लिये छोटे-छोटे काम करते हुये मुझे जैसे कोई बड़ा ईनाम मिल जाता था - उसके बच्चों
के साथ छुट्टी के दिनों में मछली पकड़ने जाते हुये,
उसके शराबी
पति को किसी गली नुक्कड़ से उठा कर लाते हुये, उसकी लॉन
की घास साफ करते हुये...
इन सारे कामों का पुरस्कार वे दो आंखें थीं जिनकी
दृष्टि में मेरी मां की स्मृति समाई हुई थी. मैं उसके लिये हर वह काम करने की कोशिश
करता जो मैं अपनी मां के लिये नहीं कर पाया था. मां कहती थी - बीली तब बड़ा होगा जब
मैं मर जाऊंगी... अब जब मैं बड़ा हो गया हूं, मैं चाहता
हूं मां फिर से न मर जाये.
अब मैं बहुत शराब नहीं पीता, सुबह उठ जाता हूं, नहाता हूं, दाढ़ी बनाता
हूं, साफ-सुथरे कपड़े पहनता हूं और इस प्रतीक्षा में बैठ
जाता हूं कि शैरोन के किसी काम आ सकूं और मेरा दिन बन जाये. शहर में हमारी एक दुकान
है, उसके किराये से मेरा गुजारा हो जाता है. मां के
बाद दुबारा काम में लौटने की मन:स्थिति में अभी तक नहीं हो पाया था.
इस बरस का पतझड़ भी अजीब था. एक साथ इतने सारे रंग...
जैसे वन प्रांतर में रंगों की पिचकारियां छूट रही हों. धूसर होती धूप में किसी गीली
पेंटिंग की तरह फागुन के दिन देर तक चमकते.
मैं शैरोन और उसके बच्चों तथा उनके झबड़ैले कुत्ते
के साथ शाम को जंगलों में दूर-दूर तक निकल जाता था. शुगर मेपल के पत्ते इन पच्चीस दिनों
तक पीले, नारंगी, लाल रंगों में नहा जाते. पहाड़ी झरने के आसपास फैले
ऐश के पेड़ पीले के साथ गाढ़े बैंजनी में डूबे होते. हाई वे के किनारे का सघन वन - कितने
तरह के पेड़ वहां - एल्म, बीच, बर्च, पॉपुलर, सिल्वर मेपल,
वीलो, माउन्टेन ऐश और स्ट्राइप्ड मेपल - बासंती, ज़ाफरानी पत्तों से लदे खुश्क हवा में टूट पड़ने की
तैयारी में. एक आत्महंता उत्सव... ख़त्म होने का,
क्षरने
का, एकदम से शेष हो जाने का भी शायद एक अपना ही आनंद
होता है. मृत्यु के स्वागत में जीवन की ऐसी उछाह,
बांध टूटी
उमंग... अपने होने का एक सर्वथा अलग अर्थ, स्वाद,.. न होने में सब कुछ है... साइंस और अध्यात्म- दोनों
यही कहता है. अणु का महत्व तो हम देख ही चुके हैं- निर्माण में में भी और विनाश में
भी...
रेड मेपल और स्कार्लेट ओक की डालों पर अंगार से
दहकते पत्ते, जैसे आग लगी हो. गहरे पतझड़ में
सुर्ख, सुनहरी आंच में तब्दील होने से पहले पेड़ों के अनोखे
रंग - दूर-दूर तक जहां तक नज़र जाये - बासंती, नारंगी, बैंजनी, जामुनी, केसरी, बादामी, सिंदूरी... रंगों के दंगे में छिपी फगुनाहट का खुनक
भरा आभास... मौसम का यूं हर रोज़ कपड़े बदलना - गरम रंगों से ठंडे और फिर ज़र्द रंगों
तक का एक उत्सव भरा सफर!
रंगों की होली में शैरोन का मिजाज भी बदल जाता था.
वह एकदम से बच्ची हो जाती थी. दौड़ती, हंसती, किलकती... तितली की चंचल झुंड की तरह मां और बच्चे
यहां-वहां उड़ते फिरते. ब्लैक ओक के बादामी, नारंगी, लाल धूप-छांही तल में दिन के डूबते आखिरी उजाले
में शैरोन का वह रूप मुझसे नहीं भूलता - चेहरे पर घुला केसर और आंखों में चमकती पारे-सी
खुशी की अनगिन बूंदें... तितली के परों को छूने से जैसे अंगुली के पोर रंग जाते हैं, मौसम की मेहंदी शैरोन पर भी गहरे चढ़ी था. बुझने
से पहले के मोम की तरह वह तेज़ शिखा में एकदम से जल उठी थी. उसका दिपता रुप मुझे खुशी
के साथ कही एक अनाम डर से भी भर गया था. उसका बुझना मेरा अंधकर होगा, असीम अंधकार!
ऐश के बैंजनी पीले पत्तों की कालीन पर बैठ कर वह
कागज़ के प्यालों में थरमस से कॉफी उड़ेलती थी. शाम की हवा उसकी गंध मे भींग कर तर हो
जाती थी. साथ ही मेरा मन भी. शुगर मेपल का इन्द्रधनुष क्षितिज पर छाया रहता... एक देहातीत
स्वप्न में जीवन के कठोर यथार्थ डूब कर स्वप्नमय प्रतीत होते. लगता अगर ये सब झूठ है
तो इसी झूठ में जीवन गुज़र जाये. प्रकृति के इस रंग भरे उत्सव में इस बरस हम सब भूल
कर शरीक हो गये थे. इन सब में मेरा एक मात्र पावना शैरोन की खुशी थी. वह मुस्कुराती
और मैं ज़िंदगी से भर जाता.
इधर शैरोन के पति माईक की शराब की लत बढ़ती ही जा
रही थी. उसके साथ ही शैरोन पर उसके अत्याचार भी. वह दिनों तक काम पर नहीं जाता, जिस-तिस के साथ झगड़ा करता, गालियां बकता.. आखिर एक दिन उसे काम से निकाल दिया
गया. मैं देख रहा था, शैरोन के घर अब दूध, अंडे, ब्रेड
और दूसरे सामानों की गाड़ियां नहीं रुकतीं. उसके किचन की खिड़की से लजीज़ पकवानों की खुश्बूदार
लपटें नहीं उठतीं, उसके लॉन की घास बेतरतीब और ऊसर
होती जा रही थी.
शैरोन जंगली बेरियों के जैम बनाती, पड़ोसियों के बागानों से कच्चे-पक्के सेब चुन लाती, खुरदरे अनाजों की पोरीज़, दलिया बना कर अपने बच्चों को मान मनुहार से खिलाने
का प्रयत्न करती.
मैं कभी अपना फ्रीज़ खराब होने या तबीयत ठीक न होने
के बहाने बनाकर उसके दरवाज़े पर दूध, फल, ब्रेड, मक्खन
की टोकड़ी रख आता. ऐसे मौकों पर न वह मेरी तरफ देखती न मैं उसकी तरफ. मैं उसकी लज्जा
और स्वाभिमान को बहुत एहतियात से ढंके रहता, बदले में
उसकी आंखें कृतज्ञता में छलछलाती रहतीं. वह मां थी,
इसलिये
बहुत विवश थी. ममता के आगे स्वाभिमान को भी अक्सर हार जाना पड़ता है.
शैरोन ने बताया था वह अनाथ है. एक अनाथ आश्रम में
उसकी परवरिश हुई थी. उसे नहीं पता था, संबंधों का स्वाद कैसा होता
है, ममता का माधुर्य कैसा होता है. इतनी बड़ी दुनिया
में उसका कोई नहीं, यह ख्याल उसे दहशत से भर देता
था. उदास और निस्संग जीवन के लम्बे सफर में अगर उसने अपने भगवान से हर रोज़ कुछ मांगा
था तो वह था एक परिवार का सुख! उसे दौलत, शोहरत
की भूख नहीं थी, बस संबंध की चाह थी. कोई उसका
हो, वह किसी की हो. प्यार दे सके वह खुद को उढेलकर, किसी से स्नेह पाये चुटकी भर.
माइक से उसका परिचय उन्हीं दिनों हुआ था. उसके स्कूल
के सामने माइक कैन्डी और हवाई मिठाई का छोटा सा केऑक्स चलाता था. एकाध मुफ्त की कैंडी, दो-चार मीठे बोल और प्रेम, अपनेपन के लिये जन्म से भूखी शैरोन उसकी हो ली थी.
थोड़े ही दिनों में ऊपर का आवरण हटा कर माइक का कुरूप चेहरा बाहर निकल आया था. जिसे वह
प्रेम समझती थी, वह रेगिस्तान में जल के भ्रम
के सिवा और कुछ न था. मगर एक जहाज के पंछी की तरह हर रिश्ते से महरूम शैरोन उड़ना चाह कर
भी बार-बार अपने नर्क में लौटने के लिये बाध्य और अभिशप्त थी.
अचानक मैं बहुत जिम्मेदार हो उठा था. अरसे बाद सिगरेट
शराब छोड़ कर काम की तलाश में निकल पड़ा था. मुझे लगने लगा था, शैरोन को मेरी जरूरत है. मैं उसकी किस तरह से मदद
कर सकता था मैं नहीं जानता था. मगर मुझे तैयार रहना था - शैरोन के लिये, उसके बच्चों के लिये. न जाने कब, न जाने कैसे वह क्षण आ जाये. थोड़े दिनों की कोशिश
के बाद एक सूअर के फार्म में मुझे नौकरी मिल गई थी. सूअरों की देखभाल करना मेरी ड्यूटी
थी. मैंने यह काम सहर्ष स्वीकार लिया था, हालांकि
मुझे सूअरों की चिंयार से सख्त नफरत थी.
...और फिर
अचानक एक दिन वह हादसा घटा था. माइक बहुत शराब पी कर शाम को घर लौटा था और शैरोन को
बुरी तरह पीटा था. शैरोन के एक कंधे की हड्डी उतर गई थी और पूरा जिस्म बेल्ट के प्रहार
के लाल-नीले धब्बों से भर गया था.
उसे पीटते-पीटते माइक खुद बेदम हो कर गिर पड़ा था
और उसे खून की उल्टियां आनी शुरू हो गई थीं. उसका लीवर फट गया था. शराब की वजह से उसे
शिरोसिस था.
शाम को काम से लौटते हुये मैं शैरोन के परिवार के
लिये सूअर का ताज़ा मांस और खुबानी का टोकड़ा ले आया था. उन्हें पहुंचाने शैरोन के घर
गया तो वहां दोनों को फर्श पर अचेत पाया. बच्चे ट्यूशन से तब तक लौटे नहीं थे.
वह रात बहुत भारी थी हम सब पर. अस्पताल में डाक्टरों
ने बता दिया था माईक के बचने की कोई उम्मीद नहीं. उसका लीवर पूरी तरह से नष्ट हो चुका
था. अब बस कुछ ही समय की बात थी.
बच्चे घर में अकेले थे अत: शैरोन को घर लौटना पड़ा
था. वैसे भी उसकी हालत वैसी नहीं थी कि वह अस्पताल में रुक सके. उसे उसके घर पहुंचाने
मैं साथ गया था. उस दिन शाम से बारिश हो रही थी. पूरा आकाश स्लेटी चट्टान में तब्दील
हो गया था. गीली सर्द हवा में घास और काई की गंध भरी थी. सांवले दिन पर शाम का नील
बहुत जल्दी उतर आया था. एक हाड़-मज्जे तक उतर कर शून्य करता अवसाद भरा दिन...
शैरोन के तीनों बच्चे एक दूसरे से लिपटे अपने कमरे
में पड़े थे - डरे हुये पपीज़ की तरह. शायद सो गये थे. शैरोन ड्राइंग रूम के काउच पर
निढाल पड़ी थी. अंगीठी की बुझती-बुझती आग में उसका चेहरा राख की ढेर-सा लग रहा था. बस
दो आंखें थीं जो जिंदा थीं, दर्द से
लिथड़ी हुई. रो-रो कर उसने अपना हाल बुरा कर लिया था. बहुत मुश्किल से मैंने उसे थोड़ा
बंद गोभी का ठंडा सूप पिलाया था. जख्मी होठों से वह कुछ भी गर्म या तीखा खा नहीं पा
रही थी.
मैं घर जाने के लिये उसके सिरहाने से उठने लगा तो
उसने मेरा हाथ पीछे से पकड़ लिया था. उफ कितना ठंडा था उसका हाथ, पानी जैसा! मैंने उसे मुड़कर देखा था. क्या था उस
रात शैरोन की आंखों में ! कुछ ऐसा जो मैंने पहले कभी नहीं देखा था... एक तरल ऊष्मा, अनुनय, वर्ज्य
की ग्लानि... मेरा दिल एकदम से बैठ गया था. तुम्हे इनसब से ऊपर होना है शैरोन! यह तुम्हारा
मुकाम नहीं... गलतियां हम इंसान करते हैं, भगवान
नहीं!
"तुम बिना
मांगे मुझे बहुत कुछ देते आये हो, और मैं
लेती भी रही हूं... मगर आज मुझे मेरे मन की एक चीज़ दे दो... ये रात... दे दो..."
कहते हुये शैरोन के गीले चेहरे पर उसकी आंखें बही जा रही थीं. वह गल रही थी सर से पांव
तक गर्म मोम की तरह. इतनी दयनीय, इतनी करुण, इतनी वल्नरेबल वह पहले कभी नहीं लगी थी मुझे. मेरे
अंदर एक साथ न जाने क्या-क्या झनाके से टूटा था. मैं एक ही पल में जैसे किर्चों में
तब्दील हो गया था. इस दुर्दांत समय की चपेट में वह किस तरह आ गई थी... मूरत थी, मिट्टी बन गई थी... किसी परदेश में बचपन में देखा
एक दृश्य याद आया था- पानी में गलती देव मूर्तियां... कीचड़ में तब्दील होती आस्थायें, भगवान! भीतर कुछ असहनीय-सा घटा था. लगा था कोशिकाओं, शिराओं और रक्त के संजाल में दर्द की नीली नदी अनायास
बह आई है... पहली बार उसने मुझसे कुछ मांगा था और मेरे पास देने के लिये कुछ नहीं था
- वह सब जो वह मांग रही थी!
मां ने कहा था,
जिस ट्रॉपिकल
देश में हम बहुत पहले घूमने गये थे, वहां लोग
मंदिरों में जूते उतार कर जाते हैं. मैं भी अपना जिस्म उतार कर अब तक उसके पास आता
रहा था - निरावरण, विशुद्ध मन हो कर... वह मेरा
मंदिर थी, भगवान थी! अपने देवता से अर्पण
नहीं लिया जाता, मैं सिर्फ अर्पित हो सकता था, वह भी जमीन पर गिरे फूल की तरह नहीं, पवित्र निर्मल सुगंध की तरह... और यह सुगंध मेरा
प्यार है. मै देहातीत हो कर उसतक पहुंचा था, मगर मेरी
भगवान अशरीरी नहीं, एक मानवी थी, धड़कती हुई, सांस लेती
हुई... प्रेम दे कर सोच लिया था, सब दे
दिया है. मगर अब लग रहा है, यह देना
ही तो शायद सब देना नहीं है... मै होम हो गया, मगर पूजा
पूरी नहीं हुई... अनुष्ठान पूरा नहीं हुआ... मेरे भीतर की नर्म प्रार्थनायें कांटों
में तब्दील हो गई थीं. सूनी हथेलियों में बस उसांसें थीं, कुछ अंतिम सांसे...
शैरोन का हाथ छुड़ा कर मैं अपने घर लौट आया था. कितना
कठिन था उससे इस तरह हाथ छुड़ाना... जैसे ज़िंदगी से बिलग रहा हूं... घर आकर देर तक पीता
रहा था. मगर, एक बार भी अपनी मां की तस्वीर
की तरफ देख नहीं पाया था. शैरोन को कुछ न दे पाने का दुख और अपने भीतर की सबसे खूबसूरत
चीज़ को बचा ले जाने के सुख में टूट-टूट कर रोता रहा था.
जब वहां भी रहना कठिन हो गया तो उठ कर अपने गॉड फादर
के घर चला गया. मां के बाद यही मेरा एकमात्र आश्रय था. नब्बे साल का मेरा गॉड फादर
जॉन आंखों से प्राय: अंधा और अपाहिज था, मगर उसकी
हथेलियों में मेरे लिये थोड़ी छांव और स्नेह की ऊष्मा अब भी शेष थी.... कभी-कभी जब अकेलापन
बर्दास्त से बाहर हो जाता था, मै यही, उनके पास चला आता था.
अपने गॉड फादर के घर सुबह से पहले जब तंद्रालस पड़ा
था मुझे लगा था सपने में जैसे मां कह रही हों, मेरा बीली
तब बड़ा होगा जब मैं मर जाऊंगी...
दो दिन बाद मै ज़रा होश में आया था और बड़ी हिम्मत
करके अपने मुहल्ले लौटा था. वहां आकर लोगों से सुना था, माईक उसी रात मर गया था और शैरोन अपने इस किराये
के मकान को छोड़कर बच्चों के साथ कहीं चली गई थी.
सुनकर मै चुप खड़ा रह गया था. मेरे अंदर जैसे सबकुछ
शून्य और भोंथरा हो गया था. मै कुछ सोच समझ नहीं पा रहा था. एक बार फिर शैरोन अनाथ
हो गई थी, एक बार फिर मेरी मां मर गई थीं.
उस किराये के खाली मकान में फिर से भूतों का बसेरा हो गया था और मैं अपने प्यार के
साथ हमेशा की तरह अकेला रह गया था, क्योंकि
मैं आज भी बड़ा नहीं हो पाया था - मां का बीली बड़ा नहीं हो पाया था. अपनी ही क़ैद में
रह गया था वही छोटा-सा बच्चा बनकर!... उसे बड़ा होने में आज भी बहुत डर लगता है...
संपर्क :
तीन माड, मायना,
शिवोली,
गोवा
- 403 517
मो. : 09822581137
एक सम्वेदनशील कहानी , शब्दों का चयन बहुत सुंदर है . सादर
जवाब देंहटाएं-नित्यानंद गायेन
Sushant Roy Chowdhary ·
जवाब देंहटाएंBahut hee khoobsoorat kahani! prem ke bilkul hee anchhuye pahaloo ko pooree samvedana se shabdbaddh karatee hui. Badhaee
Renu Khushi Pari ·
जवाब देंहटाएंbhavook abhivayakti..
श्याम गोपाल श्यामल
जवाब देंहटाएंमैंने इनकी कहानी- काली -कलूटी पढ़ी है बहुत अच्छी है| यह कहानी नया ज्ञानोदय अंक104 में प्रकाशित हुई थी
Rakesh Bihari
जवाब देंहटाएंDo-char din pahle hi yah kahani Kathakram ke prem vishank me padhi thi. Ek achhi kahani sajha karne ke liye santosh ji ka aabhar! Lekhika ko badhai
अद्भुत! प्रेम का एक सर्वथा अलग रंग रचती, उसे एक नए धरातल पर उठाती - बहुत ही स्पर्शी और मार्मिक कहानी। जयश्री रॉय जी को अशेष बधाई और पहली बार को धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंराजीव रंजन (सतना)