दुर्गा प्रसाद सिंह






मार्कण्डेय जी की पुण्यतिथि पर विशेष प्रस्तुति के क्रम में आज प्रस्तुत है दुर्गाप्रसाद सिंह का आलेख 'प्रेमचंद की परम्परा के विस्तार हैं कहानीकार मार्कण्डेय.' दुर्गाप्रसाद मार्कण्डेय जी के आत्मीय रहे हैं और इन दिनों उनके अप्रकाशित कार्यों के प्रकाशन का दायित्व निभा रहे हैं.  
 
प्रेमचंद की परम्परा के विस्तार हैं कहानीकार मार्कण्डेय

आज जबकि गाँव और किसान दोनों बाजारवादी प्रसार के बीच बेतरह पीछे छूटते जा रहे हैं और विकास की वेदी पर उनको होम किया जा रहा है मार्कण्डेय को याद करना ज्यादा मार्के का काम लगता है। क्योंकि मार्कण्डेय की कहानियों के केन्द्र में यही गाँव और किसान हैं। मार्कण्डेय का जन्म खुद एक किसान परिवार में १९३० ईस्वी में हुआ था। जो जौनपुर जिले के बराई गाँव में पड़ता है। छठवीं कक्षा के बाद वे अपनी बुआ के यहाँ प्रतापगढ़ चले गये जहाँ इण्टर तक की पढ़ाई के बाद उच्चशिक्षा के लिए इलाहाबाद पहुँचे और वहीं जीवनपर्यन्त रहे। इस किताबी ज्ञानशालाओं की यात्रा के साथ-साथ मार्कण्डेय एक और ज्ञानशाला में बचपन से ही अपने बाबा की अँगुली पकड़ कर दाखिल हो चुके थे जो देश और समाज की थी। यानी, ब्रिटिश सामाजी हुकूमत के खिलाफ कांग्रेस की किसान सभाओं में जाना। किसानों से शुरू हुआ वह जुड़ाव प्रतापगढ़ में जा कर और गहरा हुआ जब वे वहाँ आचार्य नरेन्द्र देव और किसान आन्दोलनों के सीधे सम्पर्क में आये। यहीं पर नरेन्द्र देव द्वारा चलवायी जाने वाली कक्षाओं में मार्क्सवाद से परिचय हुआ और यही उनका विश्व दर्शन बना। मार्कण्डेय ने इन्हीं जीवन अनुभवों और विचारों की सम्पदा के साथ साहित्य में प्रवेश किया। मार्कण्डेय के लेखन की शुरुआत प्रतापगढ़ में ही हो गयी थी। उन्होंने अपनी पहली कहानी १९४८ में साम्प्रदायिक दंगों परगरीबों की बस्तीनाम से लिखी। तेलंगाना के किसान संघर्ष १९४८ में हीरक्तदान कहानी लिखी, इसके अलावाखोया स्वर्ग’, ‘आम का बागीचा’, ‘शहीद की माँ’, नामक कहानियाँ लिखी थी लेकिन साहित्य जगत् में एक कहानीकार के रूप में उनकी चर्चागुलरा के बाबा  नामक कहानी से हुई यह कहानी १९५१ . में तब की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाकल्पनामें छपी। १९५४ . में उनका पहला कहानी संग्रहपान फूनवहिन्द प्रकाशन हैदराबाद से आया। १९६० . तक उनके नाम सेहंसा जाई अकेला’, ‘महुए का पेड़’, ‘सहज और शुभ’, ‘भूदानकहानी-संग्रह, ‘सेमल के फूउपन्यास, ‘सपने तुम्हारे थेकविता-संग्रह, ‘पत्थर और परछाइयाँएकांकी-संग्रह और एक खुद का प्रकाशन नया साहित्य नाम से जुड़ चुके थे। इसके बाद उनके अन्य कहानी-संग्रहमाही’, ‘बीच के लोगतथा उपन्यासअग्निबीजआते हैं। मार्कण्डेय नेकहानी की बातनाम से एक आलोचनात्मक किताब भी लिखी। कल्पना पत्रिका में १९५४ से १९५९ . के बीचचक्रधरनाम सेसाहित्य-धारास्तम्भ भी लिखा। १९६९ . मेंकथानाम की पत्रिका का सम्पादन शुरू किया। उनका एक कहानी संग्रहहलयोगकहानी-आलोचना की किताब, नयी कहानी : यथार्थवादी नजरिया, काव्य-संग्रहयह पृथ्वी तुम्हें देता हूँतथा चक्रधर के नाम से लिखी टिप्पणियों का संकलनसाहित्य-धाराप्रकाशित हो चुका है। इसके अतिरिक्त उनके बहुत सारे लेख अभी संकलित होने बाकी हैं।


  मार्कण्डेय ने अपनी कहानियों में आ़जादी के बाद के बदलते गाँव को चित्रित किया है। ये गाँव कोई रोमानी गाँव नहीं हैं बल्कि विविध स्तरों में विभाजित अपने माहौल में पहचाने जाने वाले ठोस गाँव हैं। इन गाँवों में व्याप्त पिछड़ेपन, विषमता, शोषण, गरीबी को वे अपनी कहानियों का केन्द्रीय तत्त्व बनाते हैं और इसी के इर्द-गिर्द चरित्र र्निमित करते हैं। कुछ लोग गाँव का नाम आते ही अहा..भाव से भर जाते हैं। मार्कण्डेय के यहाँ गाँव इस अहा...भाव से अलग हैं इसके उन्हीं की कहानी कल्यानमन में मंगी के इस कथन ‘‘जानता नहीं है कि यहाँ भूंय के लिए मूंडी काट लें लोगसे समझा जा सकता है। अर्थात् ऐसे जो जीवनगत स्वार्थ, छल, प्रपंच, लालच से भरे हुए हैं। लेकिन ऐसे गाँव में ही मार्कण्डेय उन चरित्रों की शिनाख्त भी करते हैं जो मानवीय मूल्यों तथा जिजीविषा की भावभूमि पर अडिग अपराजेय खड़े हैं। इसे उनकी कहानी प्रलय और मनुष्य में बखूबी देखा जा सकता है जहाँ लोभ, लालच में डूबे हुए सारे मनुष्य जलजीवों में रूपान्तरित हैं तो मनुष्य के रूप में सिर्फ बसता राउत है जो नदी की हरहराती लोभ लालच की धारा से संघर्ष करता है। कुल मिला कर उनकी कहानियों में तमाम निराशाजनक स्थितियों के बावजूद प्रतिरोध की चेतना मिलती है। 
मार्कण्डेय की कहानियों में सचेत वर्ग विभाजित गाँव नहीं है सिर्फ बीच के लोग कहानी में ही वह है लेकिन अधिक विश्वसनीय नहीं क्योंकि हिन्दी प्रदेशों में सचेत वर्ग विभाजित गाँव अपनी पूरी विशेषताओं के साथ तब तक अस्तित्व में नहीं आये थे इसीलिए मार्कण्डेय के यहाँ भूमि समस्या से जुड़ी हुई कहानियाँ तो हैं लेकिन उसका राजनीतिक स्वरूप स्पष्ट नहीं है या दबा-सा है। ऐसा इसलिए भी है कि चूंकि नयी कहानी अपने पीछे की बनावटी या झूठे परिवेश की कहानियों से विद्रोह करके ही अस्तित्व में आयी थी अर्थात् परिवेश की प्रामाणिकता उसका एक प्रमुख तत्त्व था। इसलिए वे अपनी कहानियों का केन्द्रीय तत्त्व ग्रामीण समाज की विषमता और अंतर्विरोध को बनाते हैं जो आजादी के बाद की सत्ता की नयी र्निमितियों के सम्पर्क और द्वन्द्व से उभर रही थी। परिवेश की प्रामाणिकता के साथ-साथ मार्कण्डेय अपनी कहानियों में घटना के बजाय चरित्रों पर अधिक ध्यान देते हैं। एक प्रमुख चरित्र के सहारे वे कहानी में प्रवेश करते हैं और उसी के सहारे घटनाओं तक पहुँचते हैं और उनका यह चरित्र अन्त में कोई ऐसा निर्णय लेता है जिसका आभास पहले से नहीं रहता। गुलरा के बाबा, कल्यानमन, महुए का पेड़, हंसा जाई अकेला, कहानी के लिए नारी पात्र चाहिए, प्रिया सैनी, माही, सूर्या, मधुपुर के सीवान का एक कोना, बीच के लोग-जैसी कई कहानियों में इसे देखा जा सकता है। उनके समकालीनों में एक प्रमुख चरित्र के साथ कथा तत्त्व विकसित करने की खूबी निर्मल वर्मा में अधिक है लेकिन उनके चरित्र मनोजगत् से गहरे सम्पृक्त रहते हैं इसलिए एक अनिर्णय और रहस्य की स्थिति वहाँ रहती है। अन्य लगभग सभी उनके समकालीनों में घुटनाओं और प्रसंगों के सहारे कथा बुनने की खासियत अधिक मिलेगी। मार्कण्डेय के यहाँ ऐसा इसलिए भी है क्योंकि वे जीवन स्थितियाँ, घटनाओं, प्रसंगों के साथ तटस्थता का रिश्ता रखने की बजाय पक्ष लेते हैं, हंसा, गुलरा के बाबा, दुखना, मंगी, बसंता, वचन, फौदी दादा, बुझावन और हलयोग का दलित मास्टर इसकी ताकीद करते हैं।

मार्कण्डेय अपनी कहानी गुलरा के बाबा से पहली बार चर्चा में आते हैं यह कहानी १९५१ में कल्पना में छपी थी जो हैदराबाद जैसे गैर हिन्दीभाषी जगह से निकलती थी और जहाँ उसी वक्त तेलंगाना का किसान संघर्ष नये-नये आजाद भारत के नेहरू सरकार द्वारा बर्बर दमन का शिकार हुआ था और कम्युनिस्ट पार्टी हथियारबन्द किसान संघर्ष से सिद्धान्तत: पीछे हट गयी थी कल्पना बदरीबिसाल पित्ती निकालते थे जो लोहिया के घनिष्ठ मित्र थे और समाजवादी भी समाजवादियों ने बाद में हालाँकि  जो जमीन सरकारी है वो जमीन हमारी है का नारा दिया जरूर लेकिन अपनी रणनीति में वे वर्ग सहयोग के सिद्धान्त को ही मानते थे यह सब इसलिए कि यह कहानी इन सब बातों से गहरे जुड़ी है। १९४८ में मार्कण्डेय एक कहानी लिखते हैं रक्तदान यह कहानी तेलंगाना के किसान संघर्ष को केन्द्र में रखकर लिखी गयी है और सिद्धान्तत: हथियारबन्द किसान संघर्ष को मानती हुई कहानी है यह कहानी कहीं छपी नहीं और कहानी के रूप में यह एक प्रारम्भिक प्रयास है लेकिन मार्कण्डेय की चेतना में किसान समस्या को लेकर जो चल रहा था वह इस कहानी में है तब वे प्रतापगढ़ में थे जहाँ जमीन का पूरा संकेन्द्रण था तालुकेदारी प्रथा थी विषमता बहुत ज्यादा थी और किसान आन्दोलन भी था नरेन्द्र देव इस आन्दोलन के विचारक और अगुवा थे। थे तो कांग्रेस के वाम धड़े के नेता लेकिन मार्क्सवाद की कक्षाएँ प्रतापगढ़ में चलवाया करते थे। मार्कण्डेय इन कक्षाओं को अटेण्ड करते थे और उन्होंने रियलाइज कर लिया था कि किसान समस्या का हल नरेन्द्र देव के पास नहीं तेलंगाना के रास्ते ही है और रक्तदान कहानी इसी की अभिव्यक्ति है। लेकिन १९५१ तक बहुत कुछ बदल चुका था वे इलाहाबाद गये और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गये बाकी ऊपर बताया जा चुका है। प्रगतिशील लेखक संघ में भी यह बहस थी क्रान्ति कैसे  होगी और कौन करेगा मार्कण्डेय इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे और इस बात पर जोर देने लगे थे कि हमें किसान और जमींदार के सम्बन्ध को समझने की जरूरत है। उनका मानना था कि जो भूमिहीन गाँव के जमींदारों के आतंक और शोषण से भाग कर मिल, फैक्ट्री कारखाने में काम करने जाता है वह वापस आता है तो उसी जमींदार के लिए गिफ्ट भी लाता है अर्थात् भूमि से जुड़े उत्पादन सम्बन्ध मिल के मजदूर मालिक सम्बन्ध से जटिल होते हैं। गुलरा के बाबा मार्कण्डेय के इस नये रियलाइजेसन की कहानी है और आगे मार्वâण्डेय भूमि उत्पादन सम्बन्ध की इसी जटिलता को कई कोनों से अलग-अलग कहानियों में देखते हैं। जैसे कल्यानमन घुन घूरा सवरइया महुए का पेड़ बादलों के टुकड़े मधुपुर के सिवान का एक कोना आदि। लेकिन यह जटिलता किसान संघर्षों के रास्ते का रोड़ा नहीं है इसे तो तेलंगाना की लड़ाई ने सिद्ध ही कर दिया था बल्कि इसका भी हल उसी में निहित था। फिर आता है १९६९ का नक्सलबाड़ी किसान संघर्ष और मार्कण्डेय वापस रक्तदान वाली पोजीशन में पहुँच जाते हैं और बीच के लोग कहानी १९७२ में लिखते हैं जिसमें वर्ग सहयोग की धारणा को वे त्याग देते हैं।
बीच के लोग कहानी में फउदी दादा कहते हैंहम लोग चलते हैं, अब से मोर्चे पर कभी नहीं आयेंगे, शरीर बहुत थक गया है।

इस पर लाल झण्डा पाल्टी का मेम्बर और फउदी दादा के हलवाहे रहे बुझावन का बेटा मनरा कहता हैजरूरत तो ऐसी ही है। अच्छा हो कि दुनिया को जस-की-तस बनाये रहने वाले लोग अगर हमारा साथ नहीं दे सकते तो बीच से हट जायें, नहीं तो सबसे पहले उन्हीं को हटाना होगा, क्योंकि जिस बदलाव के लिए हम रण रोपे हुए हैं, वे उसी को रोके रहना चाहते हैं।


भूमि संघर्ष जितना तीखा होता है उतना ही उसका वर्गीय रूप स्पष्ट और पहचान में आता जाता है। बीच के लोग कहानी में भूमि संघर्ष का वह रूप नहीं है। वह है उन्हीं की कहानीबवण्डरमें जो अबहलयोगसंग्रह में संकलित है। इसे उपन्यास के रूप में ड्राफ्ट किये थे लेकिन लिख नहीं पाये फिर भी जितना है उसमें स्पष्ट है कि अपने अन्तर्वस्तु और विचार में वह बीच के लोग से आगे बढ़ी हुई कहानी है। उसमें भूमि संघर्ष का तीखा रूप मिलता है। वहाँ किसी केआने-जानेऔरहटानेकी गुंजाइश नहीं है। इस कहानी में जमींदारों द्वारा खेत मजदूरों की बस्ती जला दी जाती है, औरतों के साथ बलात्कार किया जाता है। जमींदारों की क्रूरता और अमानवीयता का जो रूप इस कहानी में मार्कण्डेय ने उपस्थित किया है वह संभवत: मैला आँचल में भी नहीं है।

'बीच के लोग' के प्लाट और 'बवण्डर' के प्लाट में इतना अन्तर अचानक नहीं था बल्कि उसकी पृष्ठभूमि थी।बीच के लोगकहानी भूमि संघर्ष के सचेतन वर्ग-विचार के सिद्धान्त के प्रभाव में लिखी गयी है जबकिबवण्डरउस विचार के व्यावहारिक परिणति के रूप में लिखी गयी है अर्थात् बिहार के प्रसिद्ध बेलछी नरसंहार काण्ड (1977) की छाया इस पर है। भोजपुर के किसान आन्दोलन ने बहुत सारे अब तक के अनचीन्ही वास्तविकता को लेखकों के सामने उपस्थित किया। विचार और सिद्धान्त के जो रूप साहित्य में रहे थे वह जब वास्तविकता के रूप में जमीन पर उपस्थित हुआ तो वह साहित्य के उपस्थिति से बहुत भिन्न था। भूमि सम्बन्धों के पितृवत् आधार और उसकी रूमानियत जो खुद मार्कण्डेय की कहानियों में थी वह छिन्न-भिन्न हो चुका था। 'बवण्डर' कहानी इसी की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करती है।बीच के लोगकहानी में भूमि-संघर्ष केन्द्रीय विचार (सेण्ट्रल आइडिया) के रूप में तो है लेकिनप्लाटबहुत कुछ केन्द्रीय विचार के सापेक्ष प्रामाणिक नहीं है। यह प्रमाणिकता तो हिन्दी पट्टी में भोजपुर किसान आन्दोलन से ही आती है नागार्जुन की कविता हरिजन गाथा की जो ऊर्जा और ताप है वह कविता के सिद्धान्त से सम्भव होती तो पहले ही लिखी जा चुकी होती।बवण्डरकहानी के साथ भी वही है जहाँ 'बीच के लोग' की तरह सिर्फ परिवेश ही प्रामाणिक नहीं है बल्कि घटना, पात्र सब प्रमाणिक हैं। मार्कण्डेय चूँकि यह मानते हैं कि ग्रामीण यथार्थ बिना भूमि समस्या को समझे पूरा नहीं होता। और ग्रामीण यथार्थ बिना आम किसान के जीवन की समस्या के बिना पूरा नहीं होता। प्रेमचन्द इसीलिए ग्रामीण यथार्थ में बड़े कथाकार हुए हालाँकि उनके यहाँ भूमि-समस्या उतनी नहीं है जितनी भूमि-सम्बन्धों पर लिखी ग्रामीण सांस्कृतिक स्थिति सिर्फ 'पूस की रात' ही भूमि समस्या के रूप में देखी जा सकती है। या मुक्तिधन या मुक्तिमार्ग। बाकी 'सवा सेर गेहूँ', 'सद्गति' आदि ग्रामीण यथार्थ के सांस्कृतिक पक्ष से ज्यादा जुड़ी हैं। फिर भी उसकी जो प्रामाणिकता है वह आम किसान-जीवन से ही आती है। मार्कण्डेय निरन्तर इसी तरफ बढ़ते  हैं।महुए का पेड़’, ‘सवरइया’, 'घुन', 'कल्यानमन', 'मधुपर के सिवान का एक कोना', 'दौने की पत्तियाँ' आदि ऐसी ही कहानियाँ हैं जो भूमि-सम्बन्धों, भूमि-समस्या और आम किसान-जीवन की सांस्कृतिक स्थिति को लेकर बुनी गयी हैं लेकिन बवण्डर या बीच के लोग जैसी कहानी समय की एक खास स्थिति में ही सम्भव हो पायी। वह प्रेमचन्द के समय में नहीं लिखी जा सकती थी। मार्कण्डेय इसीलिए प्रेमचन्द की परम्परा के विस्तार हैं और नये आयाम भी हैं।

दुर्गा प्रसाद सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 'मार्कण्डेय और शिवप्रसाद की कहानियों का तुलनात्मक मूल्यांकन' विषय पर शोध कार्य पूरा कर चुके हैं. आजकल जन संस्कृति मंच की 
इलाहाबाद इकाई के संयोजक हैं.

 

संपर्क-
मोबाईल-09451870000
ई-मेल: durgasingh1977@gmail.com
 
   (मार्कण्डेय जी के साथ दुर्गाप्रसाद सिंह)

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