सुनीता




शिक्षा से कोसों दूर, वंचित परिस्थितियों में, कंकड़-पत्थरों से घिरे घरों के साये में जीते हुए...
12 जुलाई को चंदौली जिले के छोटे से कस्‍बे चकियाँ के पास दिरेहूँ में जन्मीं डॉ.
सुनीता ने ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी पत्रकारिता :स्वरूप एवं प्रतिमान’ विषय पर बी.एच.यू. से पीएच.डी., नेट, बी.एड. की हैं. 


अब तक अमर उजाला, मीडिया-विमर्श, मेट्रो उजाला, विंध्य प्रभा, मीडिया खबर, आजमगढ़ लाइव, संभाष्य, हिन्दोस्थान, मनमीत, परमिता, काशिका, अनुकृति, अनुशीलन, शीतलवाणी,
लोकजंग (भोपाल,अख़बार), नव्या आदि में रचनाएँ लेख, कहानी, कविताएँ प्रकाशित हैं.


ई-पेपर/पत्रिकाएं- शब्दांकन, जानकीपुल, लेखक मंच, नयी-पुरानी हलचल, अपनी माटी, चर्चा में, मधेपुरा टुडे आदि.


तनिष्क प्रकाशन से निकली पुस्तक ‘विकास और मुद्दे’ पुस्तक में शोधपत्र   ‘मीडिया, महिला और ब्लॉग’ के नाम से प्रकाशित हुआ. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सेमिनार,संगोष्ठी में शोधपत्र प्रेषित.
भोजपुरी/मैथिलि अकादमी में मुख्य वक्ता के तौर पर कार्यक्रम में सहभागिता. अकादमिक शिक्षण के दौरान समय-समय पर पुरस्कृत.आकाशवाणी वाराणसी में काव्य वाचन.


तमाम पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशनाधीन हैं. पेशे से हिंदी में सहायक प्रोफ़ेसर, हंसराज कॉलेज, नई  दिल्ली


जीवन की सार्थकता किसी के काम आ जाने में होती है। लेकिन यह प्रक्रिया बहुत यन्त्रणादाई होती है। सबमें यह जज्बा नहीं होता। अक्सर लोग अपने दिखावे के दर्प में चूर रहते हैं। लेकिन एक कवि मन भी अपनी सार्थकता इसी में देखता है। और अगर यह कवि महिला हो तो फिर इस चाहत में राई-रत्ती भी संदेह नहीं किया जा सकता। एक स्त्री रिश्तों के पाट में पिसते हुए भी अपने दायित्व का निर्वहन जिस तरीके से करती है वह अपने-आप में अनूठा है। डाक्टर सुनीता की कवितायें इसी जज्बे से भरी हुई हैं। तो आईये आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर पढते हैं सुनीता की इसी अंदाज की कुछ कवितायें    



विगुल


नन्हें बूँदों ने
बादलों के ख़िलाफ़
विद्रोह का विगुल फूंका है
दरअसल
बूँदों को भय है
अस्तित्व मिट जाने का
वे बादलों में घिरे
संघर्षरत हैं
उन्हें डर है
धरा पर जाते ही
खत्म हो जाएगा
उनका अपना अस्तित्व
नदी में
नालों में
पोखर-तालाबों में
गिरते ही
अवसान हो जाएगा
उनके अपने नाम
जैसे
खत्म हो जाता है
शादी के बाद गुड़िया का
बेटी का
और बहन का
स्थान ले लेता है
एक नया रिश्ता
पत्नी, बहू और देवरानी या जेठानी का
जहाँ से शुरू होता है
एक नया जंग
रिश्तों के मध्य पीसते हुए
या
हँसते जीते हुए


रंग और शब्द

अमावस्या के सघन रात्रि के पश्चात
मध्य प्रहर में
बिखरे काले रंगों ने
शक्ल स्याही की इख्तियार की
आड़े-टेढ़े रेखाओं में गूथे
सृष्टि-सृजन के सारे
रंग-रोगन मौजूद हैं
इस अनूठे कृत्य को
अक्षरों ने नजीर-ऐ-शुक्राने पेश किये
शब्दों ने हौले से
हर्फ़-ब-हर्फ़ पढ़ लिए
दुनिया के चेहरे पर चित्रित
पीड़ा, दर्द,  कसक, कराह और कुँक को
अभाव में जीते
जीवन के युद्ध में संघर्षरत
लूले, बहरे, काने-कुबड़े
जैसे तमाम विसंगतियों और विडम्बनाओं सरीखे
जड़ जमाये
जातिवादी जड़ों और भेदभाव से भरे मरहमों को भी
झुरियों से लिपटे
लहू के तिनकों को भी जज्ब कर लिया
संवेदना में सने वाक्यों ने
कस कर बाजुओं में जकड़ लिया
युगों-युगों से जेहन में बैठे
भय के दरिया छलक उठे
संकोच के बर्फ़ पिघल गए
शब्दों के सफ़र को
बादल पर पड़े काले रंगों के निशान ने
प्रेरणा की परवाज़ दी
दुनियावी
घटित-घटनाओं को इस कदर भींचा
कि
धरती-आसमान की दूरियां मिट गयीं
अबोले भावों ने वेदना के
अदभूत अध्याय लिख दिए
यहीं से रंग और शब्द
अनंत यात्रा पर निकल पड़े


नज़ारे

काले-सफ़ेद चक्षुओं में
जब कभी  
तनहाइयों के मौसम घिरते हैं
एकांत के क्षण बिचलित करते हुए
कुछ और गुनने, बुनने, चुनने लगते हैं
हृदय के घाव
हरे रंगों से मिलते ही
संजीदा हो उठते हैं
ऐसे में नेत्र
प्राकृतिक नज़ारों में डूब जाते हैं
जैसे कोई प्रेमी
अपने प्रेयसी के झील से नैनों में तैरता है
वैसे ही
पहाड़ों से सटा बादल
आलिंगनबद्ध नजर आता है
उसके मेघदूती
छोटे-छोटे रंग-बिरंगे
टुकड़ों में छिटके बादल
हृदय गदगद कर जाते
उनकी आँख-मिचौली भरी हरकतें
ज़रा भी अपरचित नहीं लगतीं
बल्कि
भावप्रवण तन्हाइयों में
अक्सर गुदगुदा जाते हैं
ठीक वैसे ही
जैसे किसी बाँझ स्त्री के सपनों में
एक नन्हें जिश्म का खेलना, मचलना
और निहोरा करना
औचक
आनंदित, प्रफुल्लित और प्रवाहमय बना देता है
वैसे ही बादलों का
पहाड़ों से मिलना
ऊँचे मोटे दरख्तों के ओट में छुपना
पत्तों से लिपटना
और डालियों से उलझना
सब कुछ ही अहलादित करता है
जब हिमालय में इनको देखते हैं
मुझे भी अपने भूले-बिसरे दिनों के
कुछ अनमोल क्षण 
याद आ जाते
वह बसंत के संग-संग पतंग की तरह
पंख पसारे उड़ना 
फिर किसी भय से डर कर रास्ता बदलना
और समय के चित्रों में उभरे रंगों में खो जाना
सब कुछ वर्तमान हो उठा है



हथेली

रात हथेली में
अंगुली के पोरों में
सूरज को दबाए
सोये रहे
सुबह होने के इन्तजार में
जीव-जन्तु मुख पर आवरण डाले
खोये-खोये से
इधर-उधर बेकल, व्याकुल और बदहवास
बार-बार खिड़की, ताखे, अलमारी और चौखट निहारते रहे
खबर किसी को न थी कि
रात चाँद ने
सूरज को कैद कर लिया था


कभी-कभी

मेरा मौन गाता रहा
कभी-कभी
देख के खुशी भरे पलों को
पलकें मूंदें मुंडेर पर
बैठी कबूतर काग के आने से 
कोलाहल मचाये हुए
कभी-कभी
अंदर से विचलित कर देती है
उलहना देते बर्तन
ठनठना उठते
ठुमकती पायलिया
कंगन से उलझ जाती
जरा शोर कम कर
कभी-कभी 
करुणा कौवे के मुख से अच्छी नहीं लगती  
लोक धुनों में खोये
गोरी धान रोपने में मशगूल
उसे ध्यान ही नहीं
उसके बसन तार-तार हैं
कभी-कभी
जिसमें से जिस्म के सितारे दिख जाते 
उन्हीं पर कुछ दरिंदों की
बहशी निगाहें सफर करने लगतीं 
कभी-कभी
लम्हें भर को सुस्ताते हुए
मटकी के पानी झल्ला उठते 
बार-बार के लटकन से
जैसे कोई स्त्री खेत में बीज बोते-बोते
कमर सीधी करने को उठ खड़ी होती
कभी-कभी
चैत के चमकते धूप
घर में जलते चूल्हे
चौके से उलझते बेलन
रोटी से दो-दो हाथ करते हाथ
हरकत करते कर्ण कुंडल
नथुनों तक आके सहम जाते
कभी-कभी
न बोलते हुए
पेड़ भी बोल देते
कहते हट जाओ
हमें ना छुओ
उस तरह जैसे किसी स्त्री के बदन से खेलते हो
हम तो केवल अनफास (हवा) हैं
जिसे महसूस करो
और जिस्म में ज़ज्ब करो



आओगे 

पर्वतों से ऊँचे महलों में
जब आओगे
मुझे खोजते रह जाओगे
ईट-गारे से रंगे-पुते चेहरे
अब पत्थर दिल हो चुके हैं
वह सादापन कहाँ
जिसमें माँ की लोरियां
पिता की गिलोरियां
और परिवार की नटखट चोरियां रहती थीं 
साथ ही
वह झोपड़ी कहाँ
जिसमें बांस-बल्लियाँ और खरपतवार संग
जीवन के सारे संवेदनात्मक उपकरण
एक-एक धागे से बंधे थे
कहाँ आज महलों में मृत पड़े




दर्पण

गर्दन जब झुकाए
जमी-अस्मा को एक पाया 
छनक के टुटा-फूटा
किरचियां
समेटने निकले
हाथ कुछ न आया
क्योंकि
वह दर्पण था
जो जुड़ न सका



इत्तफाकन

एक डोर ने मजबूती दी थी
जिसके बरअक्स बढ़ते रहे
इत्तफाकन वह आज खुद पतंग है
और मेरे पास डोर का कोई सिरा नहीं
कैसे बचाऊ
जिसे खुद मरने का शौक चर्राया है
 

ठिकाना

शब्दों ने आँखों में ठिकाना ढूंढा लिया
बाहों ने बाहों में निशाना खोज लिया
एक हम हैं
जिसे कोंख ने भी रखना
मुनासिब न समझा
बाह रे जमाने की रवायतें
रश्म अदा की और जिश्म को जिन्दा जला दिया
हम जिसे अपना ठिकाना समझते रहे
उन्होंने ही बेघर कर दिया
हद तो तब है कि
ज़माने में खबर फैला दी
बदचलन थी
बदनामियों के डर से मौत के आगोश में मुखड़ा छुपा लिया
भला,वह दुखड़ा सुनाती किसे
कौन है
उसका अपना
जिसे वह अपना कोना कहे
आधी-आबादी के नाम पर चर्चा है
तीसरी दुनिया के बेदखल
किन्नर कानून के दायरे से भी दूर 
बल्कि
धरा का धरा ही उसका है
उसे युगों से भ्रम है 
जो पल में टूट गये
ठिकाने के ठिकाने अब कुछ न रहे


माँ

मेरे आने के इन्तजार में
ऊन की लोई बनाते हुए
मंद-मंद पवन झकोरे सी  
उसके चेहरे पर
असीम संतोषरूपी सूरज की किरणें खेल रही थीं

तन्हाई के पलों में
यादों की गठरी के
एक-एक गांठों को खोलते हुए
बर्तन अबेरते हुए
एक दिन
यू हीं माँ ने सुना दी

मैंने सहेज कर
डायरी के तीखे पन्नों में रख लिए
क्योंकि
माँ ने अकेले संघर्ष की खाँची ढ़ोते हुए 
ऊन के बंडल में ही मेरे सृजन के अस्तित्व गढ़े थे
जिसमें माँ ने बुनी थी
अनुभूतियों की पहेलियाँ, किस्से, कहानियां और कहावतें

जब कभी अतीत के अँगना में उलझती
दौरी बुनते
बेना बनाते हुए
वे कहती-
पालथी मारते ही तू लात मारती
ठेहुने के बल बैठते ही बल खाती
हुमकते हुए होंठो से खेलने लगती
दो दतिया राधा की तरह चमक उठती
ऐसे में मेरे अनामिका से खेलते 
ऊन की लच्छियाँ छुट जातीं

हौले से मैं इधर-उधर देखती
चोरी न पकड़ी जाए के साथ
उसका स्थान लोरियां ले लेतीं
स्वतः
स्नेह की गंगा लहराने लगती
खेत के मेढ पर दूब से खेलते हुए

संध्या-बेला की प्रतीक्षा में
माँ के बोल बड़े ही सुकून देते
कि
मेरे सृजन संकेत ने 
उसे कितना सहज, सलिल और सौहाद्र से भर दिया था
उसके सोच की दुनिया
उदर के आस-पास ही रहती 
किसी अनहोनी के भय से

आगे के बखान में बांखें खिली उठीं
बड़ी तत्परता से बोलीं
मुझे आज भी याद है
चौखट के पार दलान में
जाता पिसते हुए भी बेख्याल न थी

बल्कि
गेहूं के टुकड़े होते
अस्तित्व के मिटते
द्वार पर लगे नीम के 
फूल-पत्तियों  से बातें करती
तुम्हें सघनता से महसूस करती
कभी-हँसती तो लगता मुझ सा सुखी कोई नहीं

थोड़े ही पल में चुप हो जाती
कहीं मेरी अनदेखी परी 
मेरी नजरों का शिकार न हो जाए 
आकृतियों के मनमोहक रूप
ढ़लते-ढ़लते न रह जाए

इन्हीं उधेड़बुन में
बुन डाले तेरे भविष्य के कई
कमरे, इमारते और महल
तुम्हारे पहले इशारे के साथ

करवट लेते धागे से जब तुम घूमती
मुझे गुदगुदा जाती
उस सुखद याद के साए में सोये हुए
संसार के नए मनु-सतरूपा के रूप में खुद को देख रही थी

मेरे तन्हा सफर में
हमसफ़र, हमनवा और हमदर्द तू थी अलबेली
चुलबुली चुहलबाजियाँ करती हुई 
दिन-रात के थकान के बाद
तेरे हलचल से खुद को आह्लादित किया

चैन के नींद में भी तुझे
बाहों के झूले में झुला कर
सुलाते हुए
सोने के अभिनय में गुम रही
जैसे चाँद चकोर के चक्कर में
रात-भर तफरीह करते हुए
बादलों में कसमसाते हुए करवट बदलती रही

प्रसव-पीड़ा के प्रहार को
कामदेव के बाण की तरह
रोम-रोम प्रेम में डूब गये
मेरी व्याकुलता
तेरे अप्रत्यक्ष सवालों से रोमांचित
रूह-रूह मधु मुस्कान से भरे थे
आगमन के आनंद ने
सब कुछ भुला दिया

जो परिस्थितियों के ऊन में दफ्न हैं
ऊन के धागों को उधेड़ने की जरूरत नहीं
नन्हीं जान ने जख्म को भर दिया

डबडबाई आँखें
ख़ुशी के मारे ढुलक गयीं
कुछ समय के लिए
सबको लगा
मैं दुखी हूँ
तेरे आने के आहट से

दर्द के लब खामोश थे
ख़ुशी के तरंग तार छेड़ रहे थे
किसी साजिंदे की तरह
कुछ क्षण के लिए
तू !
निगाहों से दूर थी
मन अंदेश से भरा हुआ
क्या हो गया ?
कोई कुछ बोल,क्यों नहीं रहा
कहीं तेरा ठंढा जिस्म 

ठंढक के मारे कठुवाया तो नहीं है

इन्हें भ्रम हो कि तू
शिव के त्रिशूल के लिए नहीं
कमलनयनी के नैनों की आभा है
तेरे प्राकृतिक पदचाप ने
मुझमें धैर्य, धीरज और धर्म के कई रूप भर दिए
कहीं रुनझुन करते नटवर नन्द किशोर
कहीं पग पायलिया बांधें मीरा
तो कहीं
अपने अदृश्य प्रेमी के याद में
तल्लीन महादेवी की छवि उभरी

एक साथ कई-कई प्रतिभाएं
तेरे छोटे से मांस-मज्जा में बंद
नीले-नीले नसों में दौड़ते रगों में दिखे
असह वेदना के बाद भी
रात के विस्मित पहर में 
मुखमंडल दमक रहे थे
इस उम्मीद में कि जाने कौन हैं ?
इस रूप में...

भ्रमण करते वो ख्याल
कुरुक्षेत्र से इन्द्रासन
पानीपत से हिमालय
मिटटी से जूझते किसान
लकड़ी बांधते लकडहारे
मृदंग बजाते बजनिये
बाँसुरी में बिराजती सरस्वती
और अप्सराओं के पैरों में थिरकते घुंघरू
रुनझुन करती निंदिया सी मृदु

औचक !
तू चीख उठी
फूलों से खेलते माली के हाथों में चूभे काँटें
मगर
खुश्बू के ज़द में ज़ख्म भूले
हिलोर मारते सागर के लहरों की तरह
छलछला उठीं आँखें

प्रसव के पहाड़ी बर्फ़ पिघल गये
तू मेरी ज्योति बन
आ गयी मेरे आँचल में
ऊन-सलाई शर्म से हट गये
माँ-बेटी के मिलन का पहर था
जैसे कभी गौरी शिव
सीता से राम
और राधा से श्याम मिले थे
मगर मीरा को भी समा लिए थे

प्रेयसी और माँ में यही फर्क है
वह किसी को भी अपना सकती है
लेकिन
दर्द देते, सुई चुभोते
नश्तर को परे ही रखती

बादलों ने उमंग के गीत गाये
फुहारें खिड़की,दरवाज़ों को फलांगते हुए
मेरे मासूम कलि के मखमली
सिरहाने के आगे हुमकने लगे

जलन साफ़ दिख रही थी
यह मेरा अहसास था
माँ जो ठहरी
पल में मेरा वहम टूट गया
वह तो
मंगलगान के लिए उतावले थे
 
वीणा के उद्घृत स्वर
ऊँचे-ऊँचे और ऊँचे होने लगे
धरा हरियाली से हरा-हरा
और मैं सुर्ख गुलाब के पंखुड़ियों सी
और तू सरसों के पीले-पीले पुष्पों से मिलती-जुलती

क्या संयोग था
आसमान के नीले रंगों में
सूरज के पीले रंग
धरती के हरियाली में सरसों का फूलना

स्वेटर की बुनाई भूल बैठी
तेरे क्षण-क्षण की हरकतें
छुट न जाएँ
इससे पहले ही त्याज दिया
तेरे-मेरे मध्य आने वाले धागों को

अंकवार में लेने की इच्छा
अनुभूति को तृप्त करते तेरे स्पर्श
तू मृगतृष्णा थी
खुद को यशोदा समझने की कोशिश में कराह उठती
क्योंकि
तेरे आने के ख़ुशी ने कुछ कहा ही नहीं

आने के बाद
चीर-फाड़ के हिस्से
टभकने लगते
उसी टीस  में टूटे रिश्ते जोर मारते
पोर-पोर पिराने लगता
झट
तुझे अपने से परे करती
मगर और तेज
आगोस में भींच लेती

तेरे आने, होने और बनने में 
एक हिस्सा उसका भी है
जो अब नहीं है...

शायद
इसलिए तेरी नन्हीं बाहें राहत दे रही थीं  
तू नहीं समझेगी
मैं समझा नहीं सकती..

मेरे उम्र में आना
फिर
जिस्म के जिस्म को महसूसना
स्वयं में मुझे पाओगी

पलकें उनीदीं हैं
नन्हें कदम कमजोर हैं
साधने की कोशिश में
जूते, चपल्लें और चोटियाँ फंदे गूँथ रही थी
ऊन के उन्हीं धागों से

जिसे तूने ही उठाने को उकसाया
पिता के न होने पर गुदगुदाया
होंठो पर प्रेमगीत सजाया
आँखों में लोरियों के रंग भरे
माँग में भविष्य के मोती पिरोये
उच्चारण के ककहरा सिखाने के प्रफुल्लता ने
सब्र बक्से..
  
स्मृतियों के टुकड़े सम्भालने लगी
सीख के तौर पर सौपने हेतु
अतीत के रंग-बिरंगे
खट्टे-मीठे कतरनों को जोड़ते हुए
हर जरुरी समान जुटा लिए
तुझे समझाने के लिए उदहारण भी रखे
लक्षणा,व्यंजना के भाव गाछे

बकवा बनना  
पैरों पर रेंगना
और फिर दौड़ते जामने के साथ कदम मिलाना
चुन-चुन के संजोये
हर उम्र के चादर

चकोर डिजाइन ने चौदह पार किये
सोलहवें बसंत ने महुआ के रस सौंप दिये
मैं देख रही थी
ऊन के गोले में तब्दील होते
तेरे जिस्म को भी

लड़कपन के अल्हड़ता ने
संजीदगी के उजलेपन में
उद्देश्य की रेखाएं चिन्हित किये
तू खुद से
जिम्मेदारी उठाने के जिद करने लगी

अचानक
मेरे ख्वाब टूटे
जैसे ही तूने कहाँ
माँ घर चलें...

.

टिप्पणियाँ

  1. सार्थक अभिव्यक्ति।
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (9-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  2. सार्थक मुद्दों पर कविता रचने की खास कला है सुनीता जी के पास . हर घटना पर बहुत पैनी नज़र रहती है इनकी जो इनकी कविता में देखी जा सकती है . बधाई .कविता के साथ चित्रों का संयोजन अच्छा हुआ है . सादर .
    -नित्यानंद गायेन

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  3. Ashish Mishra
    सुनीता ! एक वास्तविक कविता का जन्म कंकड़,पत्थर के कठोर रास्ते पर होता है,जिसका हृदय पल-२ विदीर्ण किया गया हो..कंटक का अहसास ही फूल की सच्ची परिभाषा लिख सकता है,सभी रचनाएँ बेहद खूबसूरत हैं,बहुत-२ बधाई..

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  4. Karnveersingh Rathore
    sundar kriti k liye Dhanyawad

    जवाब देंहटाएं
  5. Badhai Suneeta ji, bahut sundar bani hai kavitayein, rango, shabdon ki anant yatra ki baat se main sehmat hoon, chand, sooraj, raat aur din ko lekar bahut khoobsoorat bimb

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