उषा बनसोडे का आलेख 'मार्कण्डेय के कथा-साहित्य में चित्रित ग्रामजीवन'
उषा बनसोडे
जन्म - औरंगाबाद (महाराष्ट्र)
शिक्षा - एम. ए. (हिन्दी) स्वर्णपदक
प्राप्त, एम. फिल., पी-एच. डी.,
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित।
मार्कण्डेय जी की पुण्यतिथि (18 मार्च 2013) पर हम पहली बार पर कुछ विशेष
प्रस्तुति करने जा रहे हैं। इसी क्रम में प्रस्तुत है उषा बनसोडे का आलेख ' मार्कण्डेय के कथा साहित्य
में चित्रित ग्राम जीवन'।
'मार्कण्डेय के कथा-साहित्य में चित्रित ग्रामजीवन'
उषा बनसोडे
नई कहानी के सशक्त हस्ताक्षर मार्कण्डेय एक
सजग, सचेत,
प्रगतिशील रचनाकार है । 2 मई
1930 में जौनपुर उत्तर
प्रदेश में एक
किसान परिवार में
जन्मे मार्कण्डेय बचपन से ही संवेदनशील
मन के थे।
गाँव में प्राथमिक शिक्षा पूर्ण
करने के
पश्चात् आगे
की शिक्षा
के लिये
वे प्रतापगढ
अपने संबंधी
के यहाँ
रहे ।
वहां किसानों
पर होने
वाले अन्याय,
अत्याचार एवं
निर्मम शोषण
ने उनके
मन को
व्यथित किया
। शोषितों
के दुख
दर्द और
गुलामी की
पीडा के
अनुभव ही
आगे चल
कर उनकी
रचनाशिलता का प्रमुख आधार बने।
सन् 1954 मे प्रकाशित प्रथम कहानी
संग्रह “पानफूल" से ले कर सन्
1975 मे प्रकाशित
अंतिम कहानी
संग्रह “बीच के
लोग" में मार्कण्डेय
ने अनवरत
रुप से
स्वातंत्र्योत्तर ग्राम-जीवन
की समस्याओं
का चित्रण
किया है।
मार्कण्डेय की कहानियॉं आजादी के
बाद के
बदले हुए
गॉंवो की
प्रामाणिक तस्वीर प्रस्तुत करती है।
मार्कण्डेय ने अपना
लेखन तब
शुरु किया
जब देश
आजाद हुआ
था। जमींदारी
प्रथा का
कानून बना
कर उन्मूलन
कर दिया
गया था,
लेकिन गॉंव
में जमींदार
ठाकुरों का
दबदबा पूर्ववत
कायम था।
ग्रामीणों के आर्थिक जीवन में
विशेष परिवर्तन
नही हुआ
था। मार्कण्डेय
ने अपनी
कहानियों में
गॉंवो मे
व्याप्त गरीबी,
भूख, अकाल,
जमींदारों, ठाकुरों द्वारा शोषण का
यथार्थ वर्णन
किया है।
मार्कण्डेय की ‘महुए
का पेड’ कहानी
जमीदार की
शोषणवृत्ति का चित्रण करती है।
बुढिया दुखना
के पास
एक झोपडी
और उसके
सामने एक
महुए का
पेड है।
यहीं उसकी
संपत्ति है।
सामने का
खेत पहले
दुखना का
था लेकिन
उसे नहर
ने हडप
लिया था।
महुए का
पेड दुखना
की जिंदगी
था। ठाकुर
की नजर
उस पेड
पर थी
इसी कारण
वह घर
छोड कर
कहीं जाती
नहीं थी
। हरखू
की माई
उसे गंगा
स्नान के
लिए चलने
को कहती
है। जैसे
ही दुखना
तीरथ जाने
के लिए
पैसे मॉंगने
के लिए
अपने रिश्तेदार
के यहॉं
जाती है,
तुरंत ठाकुर
अपने आदमी
भेज कर
महुए के
उस विशाल
पेड को
कटवा देता
है। पेड
के गिरने
से झोपडी
भी ध्वस्त
होती है।
तीन दिन
बाद वापस
आने पर
दुखना अपना
कटा हुआ
पेड और
झोपडी देख
कर हरखू
की माई
के साथ
तीर्थयात्रा के लिए निकल पडती
है। अब
पेड का
मोह नही,
न ही
झोपडी का।
और वह
किसी से
इन्साफ भी
मॉंग नही
सकती। गरीब
का अस्तित्व
ही मिटा
देने की
ठाकुर की
चाह तथा
दुखना की
विवशता को
यह कहानी
व्यक्त करती
है।
इसी कुटिल वृत्ति
को मार्कण्डेय
ने “कल्यानमन“
कहानी में
अभिव्यक्त किया है। विधवा मंगी
के पास
“कल्यानमन" नामक एक पोखरी है
जो उसकी
जीविका का
एकमात्र साधन
है। किंतु
जमींदार उसे
हस्तगत करना
चाहता है
इसलिए मंगी
गहरी असुरक्षा
की भावना
से ग्रसित
है। जमींदार
पटवारी को
कभी धमका
कर तो
कभी पैसे
का लालच
दे कर
पोखरी हस्तगत
करने के
लिए कहता
है। मंगी
ने सुना
था, “जिसकी
जोत होगी,
भूय उसी
की हो
जाएगी।“ इसलिए
अनंत परेशानियॉं
सह कर
उसने कल्यानमन
अपने नाम
करवा लिया
था। लेकिन
वह जानती
थी कि,
“सभी तो
खेत जोत
रहे थे
लेकिन किसी
के पास
एक हिस्सा
भूय भी
बची नही
थी। कोई
मार खा
कर इस्टीपा
लिख गया
तो किसी
ने बहका
कर सादे
कागज पर
अँगूठे की
टीप ले
ली, इन
लोगों ने।
किसी को
सौ-दो
सौ रुपये
देकर टरकाया।“1 वह “कल्यानमन“ बचाने
की हरसंभव
कोशिश करती
है। पटवारी
कल्यानमन हथियाने
मे कामयाब
न होने
के कारण
ठाकुर का
लडका एक
नयी चाल
चलता है।
मंगी और
उसके बेटे
में फूट
डाल कर
पनारु को
माँ के
विरुद्ध भडकाता
है। मंगी
का बेटा
ठाकूर के
बहकावे में
आ कर
माँ के
ही विरोध
में खडा
होता है।
मंगी की
दृष्टि मे
ठाकूर एक
फन काढे
हुए सॉंप
की तरह
है जिसके
कारण जीवन
कभी भी
समाप्त हो
सकता है।
’महुए का पेड’, ’कल्यानमन’ कहानियॉं
जमीदारों की
वास्तविकता को अभिव्यक्त करती है।
स्वतंत्रता के बाद जमीदारों ने
नये हथकंडे
अपना कर
गरीबों का
शोषण जारी
रखा था।
जमींदारी उन्मूलन
कानून लागू
होने के
पश्चात् भी
उनके पुराने
रवैये में
कोई अंतर
नहीं आया
था। ’ये
लोग जमीन
के लिये
आदमी की
गर्दन भी
काट सकते
थे।’
मार्कण्डेय की “बादलों
का टुकडा“
कहानी खेतिहर
मजदूर की
विवशता को
व्यक्त करती
है। गॉंव
में खेतिहर
मजदूर महाजन
से लिया
हुआ पचास
रुपये कर्ज
आजीवन चुका
नही सकता।
गरीबी के
कारण उसे
अपना संपूर्ण
जीवन कर्ज
चुकाने में
ही व्यतीत
करना पडता
है। ’पचास
रुपये कर्ज
क्या लिया
मानो सारी
जिंदगी ही
बेच दी।’
क्योंकि महाजन
’मूर में
बकरी और
उसका बच्चा
हथिया लेता
है और
सूद में
काम करवा
लेता है।’
घर में
बच्चा बीमार
हो, भूख
से बेहाल
हो, महाजन
अपना कर्ज
वसूलना नहीं
छोडता। इस
अनवरत शोषण
के कारण
ग्रामीण मजदूर
की स्थिति
इतनी दयनीय
होती है
कि उसे
दो जून
की रोटी
भी नसीब
नहीं होती।
केवल लपसी
का घोल
पी कर
दिन गुजारने
पडते है।
मार्कण्डेय ने अपनी
ग्राम कहानियों के माध्यम से
स्पष्ट किया
है कि
स्वातंत्र्योत्तर काल में महाजन, जमींदार
ने नये
हथकंडे अपना
कर गरीब
ग्रामीणों का जीवन त्रासद बनाया
था। साथ
ही ग्रामविकास
के लिये
निर्मित विकास
योजनाओं का
लाभ भी
संपन्न लोगों
को ही
मिला है
और गरीब
और गरीब
बन गये
है। मार्कण्डेय
की ’दौने
की पत्तियॉं’ कहानी
इसी यथार्थ
को अभिव्यक्त
करती है।
भोला ने
पॉंच बरस
में आधे
पेट खा
कर एक
खेत खरीदा
था जो
उसके परिवार
की जिवीका
का प्रमुख
साधन था।
एक खेत,
साफ सुथरी
झोंपडी और
नीम का
एक पेड
यही भोला
की संपत्ति
थी जिसपर
वह खुशी
से अपने
दिन गुजारता
है। लेकिन
पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत गॉंव
में नहर
निर्माण का
काम शुरु
होता है।
और काम
गॉव के
प्रतिष्ठित साधन-संपन्न तिवारीजी के
खेत में
आ कर
रुक जाता
है। तिवारीजी
अपने खेत
से नहर
कैसे जाने
देते? मिनिस्टर
की सिफारिश
और इंजिनियर
को रिश्वत
दे कर
वे नहर
को भोला
के खेत
में मुडवा
देते है।
उनके खेत
के बदले
भोला का
खेत नहर
की चपेट
में आता
है। भोला
विवश हो
कर अपने
हरे भरे
खेत को
उजडते हुए
देखता है।
वह समझ
नही पाता
कि उसकी
बर्बादी का
जिम्मेवार कौन है? तिवारी को
जिम्मेदार मान कर वह उसे
मारने का
निश्चय करता
है, परंतु
दूसरे ही
क्षण सोचता
है कि
अन्याय तो
इंजिनियर ने
किया है।
वह समझ
नहीं पाता
कि दोषी
कोन है?
तिवारी, इंजिनियर
या सरकार?
और अंत
में खुद
को हिरासत
में पाता
है। लेखक
स्पष्ट करता
है कि
संपन्न लोग
पैसे के
बल पर
गरीब का
जीवन अस्तव्यस्त
कर स्वयं
सुख से
जीते है।
और गरीब
विवश होने
के सिवा
कुछ नहीं
कर सकते।
ग्रामों के पुनर्निर्माण के लिये
विनोबा भावे ने
सन 1951 में भूदान
आंदोलन किया था।
यह आंदोलन
केवल धनवान
एवं सामंत-वर्ग के
लिए ही
लाभदायी साबित
हुआ है।
“भूदान“ कहानी
मे मार्कण्डेय
ने इसी
तथ्य को
अभिव्यक्त किया है। रामजतन हलवाहा
इस आंदोलन
से प्रभावित
होकर अपनी
एक बीघा
उपजाऊ जमीन
दान देता
है। बदले
में उसे
भूदान में
पॉंच बीघे
तरीवाली जमीन
मिलती है।
वह खुश
होता है
लेकिन उसकी
यह खुशी
ज्यादा दिन
नहीं टिकती।
जब उसे
पता चलता
है कि
“ठाकुर ने
जिस दान
से उसे
भूँय मिली
थी, वह
केवल पटवारी
के कागज
पर थी।
असल में
तो वह
कब की
गोमती नदी
के पेट
में चली
गयी थी।“2 रामजतन की अपनी
जमीन चली
जाती है
और वह
ठगा जाता
है। भूदान
गॉंव के
नये विकास
के स्वप्न
भंग की
कथा है।
भूदान गांव
वालो के
लिए मात्र
एक सुनहरा
धोखा है।
भूदान से
किसानों को
लाभ नहीं,
हानि ही
हुई है।
भूमिहीन फिर
भी भूमिहीन
ही रहे।
मार्कण्डेय ने स्पष्ट किया है
कि स्वतंत्रता
के पहले
गॉंव की
मुख्य समस्या
भूमि तथा
जमींदार से
संबंधित थी
और स्वतंत्रता
के बाद
जमीदारी उन्मूलन
कानून बनने
के पश्चात्
भी गॉंव
में ठाकुर,
जमींदारो का
दबदबा पूर्ववत
कायम था।
जमींदार प्रथा
का उन्मूलन,
भूमिसुधार, पंचवर्षीय योजनाएँ आदि की
तमाम घोषणाओं
के बावजूद
गॉंव के
गरीब किसान
खतिहार मजदूरों
के आर्थिक
जीवन में
कोई परिवर्तन
नहीं हुआ।
“परंतु स्वतंत्रता
के बाद
जो एक
नई लोकतंत्रीय
चेतना का
विकास हुआ
उसके प्रभाव
से गॉंव
भी अछूते
नहीं रहे।
फलस्वरुप ग्रामीण
जीवन में
दो प्रकार
की शक्तियॉं
क्रियाशील दिखाई देने लगी। एक
तो सामंती
संस्कारों से ग्रस्त प्रतिक्रियावादी शक्ति और दूसरी नई
चेतना से
संपन्न प्रगतिशील
शक्ति जो
परिवर्तनकामी होने के कारण एक
संघर्षशील भूमिका लिए हुए है,
पूरी सक्रियता
के साथ
दिखाई पडने
लगी। वस्तुतः
इसी प्रगतिशील
शक्ति ने
ग्रामीण जीवन
में नर
संदर्भों तथा
नई वास्तविकताओं
केा जन्म
दिया और
गॉंव का
एक बदला
हुआ यथार्थ
दृष्टिगोचर होने लगा।“3
मार्कण्डेय की 'बीच
के लोग’ कहानी
गॉंव के
बदले हुए
यथार्थ को
अभिव्यक्त करती है। इस कहानी
मे लेखक
ने प्रतिक्रियावादी
और प्रगतिशील
ताकतों के
बीच टकराहट
का वर्णन
किया है।
इस कहानी
में युवा
शक्ति गॉंव
में परिवर्तन
चाहती है।
लेकिन प्रतिक्रियावादी
शक्तियॉं बीच
में है।
जरुरत है
दुनिया को
जस की
तस बनाये
रखने वाले
लोगों को
बीच में
से हटाने
की। क्योंकि
मनरा जानता
है कि
’क्रांति के बिना
न्याय नही मिलने
वाला।’ मनरा जिस
जमीन को
वर्षो से
जोत रहा
था उस
पर हरदयाल
अपना हक
जताता है।
मनरा शोषण
सहने को
तैयार नहीं
है। क्योंकि
वह जानता
है कि
तीन साल
खेत जोतने
पर सिकमी
हक हो
जाता है
किसान का।
गाँव के
सामंत हरदयाल
की नजर
उसी खेत
पर थी।
रामबुझावन और हरदयाल के स्वार्थ
टकराते हैं।
ठाकुर हरदयाल
और महाजन
मिल कर
बुझावन का
खेत हडपना
चाहते है।
बुझावन जब
यह बात
फउदी दादा
से कहता
है तो
वे नीति-अनीति की
बाते करके
उसे समझाने
का प्रयास
करते है।
वे बीच
के लोग
है जो
संसार को
जस की
तस बनाये
रखने वाले यथास्थितिवादी
लोग है।
मनरा और
बचवा के
क्रांतिकारी तेवर को देख कर
फउदी दादा
जब बुढापे
का वास्ता
दे कर
अब मोर्चे
पर कभी
न आने
की बात
कहते है
तो मनरा
उत्तर देता
है - “जरुरत
तो ऐसी
ही है।
अच्छा हो
कि दुनिया
को जस-की-तस
बनाये रखने वाले
लोग अगर
हमारा साथ
नहीं दे
सकते तो
बीच से
हट जाएँ,
नहीं तो
सबसे पहले
उन्हीं को
हटाना होगा,
क्योंकि जिस
बदलाव के
लिए हम
रण रोपे
हुए है,
वे उसी
को रोकना
चाहते है।“4 लेखक ने स्पष्ट
किया है
कि ग्रामीण
किसान समय
के बदलाव
को समझ
रहे हैं
और अपने
अधिकारों के
प्रति सचेत
हो रहे
हैं।
मार्कण्डेय गॉंव में
पैदा हुए,
पले बढे।
उनकी संपूर्ण
चेतना का
निर्माण, संवेदनाओं
का सृजन
सब कुछ
गॉंव के
आचार व्यवहार
व सांस्कृतिक
जीवन के
बीच ही
बना। यहीं
कारण है
कि वे
अपने ग्रामीण
पात्रों से
इतनी निकटता
का अनुभव
करते है
और उनके
साथ अपनी
रचनाओं में
जीते है।
दुखी व
त्रस्त किसानों
के दुख-दर्द को
उन्होंने हमेशा
अपने सीने
से लगाया
रखा है।
बचपन में
प्राप्त अनुभवों
के कारण
वे शुरु
से ही
जानते थे
कि किसानों
की मेहनत
क्या होती
है, जमीदारों
का लालच
क्या होता
है और
अकाल के
दिनों में
गॉंव की
हालत क्या
होती है।
मार्कण्डेय अपने परिवेश से गहरे
जुडे रचनाकार
है। साथ
ही एक
जागरुक व्याख्याता
भी। उन्होंने
अपने आसपास
जो भी
अनुभव किया
वही साहित्य
के माध्यम
से अभिव्यक्त
किया। “उनके पास
ग्राम्य जीवन का
प्रत्यक्ष अनुभव है
और उन्होंने ग्राम्यजीवन की समस्याओं और वास्तविकताओं को समझने
का प्रयत्न भी
किया है, लेकिन
ग्राम्य जीवन के
परिवर्तित संदर्भो को
अपने दृष्टिकोण से देखने के कारण
मार्कण्डेय की कहानियॉं
फणीश्वरनाथ रेणु और
शिवप्रसाद सिंह की
ऑंचलिक कहानियों से भिन्न रुप में
उपस्थित होती है।“5
हिंदी कथा-साहित्य जब
अवास्तविक और कल्पनाजीवी कथानकों में
उलझ कर
निष्प्राण हो चुका था तब
मार्कण्डेय ने ग्रामीण जनजीवन को
अपनी रचनाशीलता
का विषय
बना कर
हिंदी कथा-साहित्य को
एक नई
दिशा प्रदान
की है।
प्रेमचंद के
पश्चात् मार्कण्डेय
ही प्रमुख
लेखक है
जिन्होंने ग्रामीण जनजीवन को अपनी
रचनाशीलता का प्रमुख आधार बनाया।
यह महत्वपूर्ण
तथ्य है
कि ग्रामीण
अर्थव्यवस्था का सीधा संबंध भूमि
से होता
है। ऐसे
मे कोई
भी ग्रामीण
व्यवस्था भूमि
से अलग
नहीं की
जा सकती।
एक के
बगैर दूसरे
के अस्तित्व
की कल्पना
भी नहीं
की जा
सकती। भूमि
का असमान
वितरण ही
गॉंव की
प्रमुख समस्या
रही है।
और इसी
कारण आजादी
के बाद
भी गॉंव
में आम
आदमी के
लिये ’रोटी’
एक सपना
बन कर
रह गयी
है। मार्कण्डेय
ने अपनी
कहानियों में
सामंती परिवेश
की दुरावस्था
और भूमिसंबंधो
के कारण
उत्पन्न गरीब
किसानों के
अंतर्द्वंद को चित्रित किया है।
आर्थिक अभाव,
भूख और
गरीबी से
संघर्षरत ग्रामीण
पात्रों के
जीवन का
लेखक ने
यथार्थ वर्णन
किया है।
यह कहानियॉं
स्वतंत्रता के बाद के ग्रामजीवन
के यथार्थ
की तस्वीर
प्रस्तुत करती
है। यह
कहानियॉं उन
मनुष्यों के
संघर्ष को
हमारे सामने
लाती है
जो आजादी
के बाद
एक बेहतर
जिंदगी के
सपने अपनी
ऑंखो में
संजोये हुए
है। उत्पीडित
व शोषित
जनता को
न्याय दिलाने
का इरादा
लेकर ही
मार्कण्डेय रचनाशीलता की जमीन पर
उतरे है।
क्योंकि वे
चाहते है
कि ग्रामीण
समाज से
गरीबी हटे,
शिक्षा का
प्रचार-प्रसार
हो। भुमि-व्यवस्था में
आमुलचूल परिवर्तन
हो। ऐसा
नही की
किसी के
पास तो
सैकंडो एकड‐ जमीन हो
और किसी
के पास
पॉंव रखने
तक के
लिए किसी
बडे भूमिधारी
का हल
चलाने के
अलावा दूसरा
उपाय ही
न हो।
शोषितों के
पक्षधर कथाकार
मार्कण्डेय के विचार आज भी
प्रासंगिक है।
संदर्भ:-
(1) मार्कण्डेय - मार्कण्डेय की कहानियॉ
- कल्यानमन पृ. 197.
(2) मार्कण्डेय - मार्कण्डेय की कहानियॉं - भूदान पृ. 278.
(3) मार्कण्डेय - मार्कण्डेय की कहानियॉं - बीच के लोग
पृ. 495.
(4) मार्कण्डेय - मार्कण्डेय की कहानियॉं - बीच के लोग
पृ. 495.
(5) डॉ.गोरधनसिंह शेखावत- नई कहानी
उपलब्धि और सीमाएँ
- पृ. 303.
सम्पर्क
डॉ. उषा बनसोडे
सहायक प्राध्यापिका
कला वरिष्ठ महाविद्यालय
सिडको एन-11, औरंगाबाद
(महाराष्ट्र)
ई-मेल :
ushabansode32@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स गूगल से साभार ली गयी हैं।)
Bahut accha aalekh. markandya ji ke grambodh ko salaam. usha ji ko badhai . abhaar santosh jee. - kamal Jeet Choudhary ( j n k )
जवाब देंहटाएंमार्कण्डेय जी पर एक अच्छा एवं संग्रहणीय आलेख . पहलीबार का एक अनोखा एवं सराहनीय प्रयास .
जवाब देंहटाएंसादर - नित्यानंद गायेन
Aatmiy lekh gramin jeevan par badhai . abhaar sir.
जवाब देंहटाएंAatmiy lekh gramin jeevan par.sarahniy prayas. badhai . abhaar sir.
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