यतीश कुमार का संस्मरण स्मृतियाँ : अस्पताल तक जाती नदी

 

यतीश कुमार


किसी भी व्यक्ति के जीवन पर उसके बचपन का गहरा प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति के रहन सहन से ले कर उसकी वेदना और संवेदना तलक में इन स्मृतियों की हिस्सेदारी होती है। यतीश कुमार एक बेहतरीन किस्सागो भी हैं। उनके लेखन में यह किस्सागोई स्पष्ट दिखायी पड़ती है। यतीश पहली बार के लिए अपने संस्मरण लिख रहे हैं। उसी कड़ी में आइए पहली बार पर पढ़ते हैं यतीश कुमार का संस्मरण 'स्मृतियाँ: अस्पताल तक जाती नदी'।

 


स्मृतियाँ : अस्पताल तक जाती नदी


यतीश कुमार


(अस्पताल की खोह में अटका हुआ बचपन और घास पर बिखरी सफेद यादें)



इस अनन्त के अचिर जाल में अभिनव कौन, कौन प्राचीन-


मैं हूँ, तेरी स्मृति है, और विरह-रजनी है सीमा-हीन!
- अज्ञेय


बचपन की स्मृतियों से ज़्यादा बढ़िया मलहम उम्र के चढ़ते पायदान पर दूसरी नहीं होती, आपके जड़ों में ही सनी हुई  समय-समय पर संचरित कर शक्ति प्रदान करती हैं; और अगर गलती से दृष्टिभ्रम हो जाए तो वाइपर की तरह पूरा शीशा साफ कर देती है। इसके बाद आप अपनी गाड़ी सुरक्षापूर्वक चला सकते हैं।


जाने-अनजाने उन लम्हों को अवचेतन से चेतन में बार-बार ले आता हूँ और बचपन की मिश्री और नमकीन हलवे भी यूँ ही चख लेता हूँ। ज़िंदगी फिर से ताज़ा-तरीन लगने लगती है। बचपन की यादें अब भी बिल्कुल साफ, चमकदार, नीले और पारदर्शी आसमान की तरह है। स्मृतियाँ दृश्यों को वैसे ही दर्ज कर रहा है जैसा हम अपनी कहानियों में दर्ज करते हैं। कल्पना के बारीक और मुलायम धागों से बुना आकाश, गहरे सुख-दुःख और पीड़ा के रंग से रंगा हुआ है। कविता लिखने के लिए कवि दूसरों के दुःख में किस कदर घुल-मिल जाता है और किस कलात्मक ढंग से उस अनुभव को अभिव्यक्त करता है, पर जो बरसों बरस उसकी स्मृतियों में अक्षुण्ण रह जाता है वहाँ से जन्म लेता है संस्मरण...


राज्य- बिहार, जिला- मुंगेर और स्थान- किऊल नदी के तट पर बसा अनुमंडल लखीसराय (उस समय का सब-डिविजन जो अब जिला बन चुका है) और वहाँ का अनुमंडलीय अस्पताल जो मेरी ज़िंदगी की किताब में विशेष स्थान रखता है। जिसके पन्ने बार-बार फड़फड़ाते रहते हैं और मेरे चेतन में हाजिरी लगा जाते हैं।


वह जगह जिसे अनुमंडलीय अस्पताल लखीसराय कहते थे, उसने समय से पहले मुझे बड़ा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा। बहुत कुछ सिखाया, बहुत कुछ समझाया। ज़िंदगी के मायने, दोस्ती का मतलब, बहन का होना और भाई का हो कर भी नहीं होना (हमेशा बाहर रहने के कारण)। भाई, बहन, माँ और अस्पताल बस इतनी छोटी सी दुनिया थी। पिता जी स्मृति के अलग हिस्से में हैं, उनको इसमें शामिल नहीं किया है। बड़ा भाई शुरू से बोर्डिंग स्कूल के जीवन में प्रवेश कर गया और जब भी लौटता तो सारा परिवार नाना जी के संग छुट्टियां मनाने ननिहाल चला जाता। अस्पताल की ज़िंदगी, जो कि हमारी जिंदगी थी, को हम तीनों ने ही एक साथ जिया।


अस्पताल के सामने विस्तृत एक मैदान हुआ करता था और जिसकी बाहरी बनावट ज़रूर किसी दिमाग़ वाले अभियंता ने बनाई होगी पर अस्पताल अंदर से अंधेरे की चपेट में ही हमेशा दिखा, अंदर घुप्प गलियों जैसा वातावरण रहता था। वार्ड की तरफ थोड़ी-थोड़ी रौशनी फैलती थी जो खिड़कियों या रोशनदानों से सिर्फ़ दिन के वक़्त ही आती थी। सामने के गेट से वार्ड तक जाना तीसरे पहर के सफ़र के समान लगता था। अंधेरे से उजाले की ओर के सफ़र में एक अजीब सी कुलबुलाहट मची रहती थी। स्पिरिट की महक और तरह- तरह की दवाइयों की उपस्थिति का हवा में व्याप्त मिश्रण, हमेशा भ्रमित करता था कि साँस लेना बेहतर है या हानिकारक। अँधेरा का वह माहौल और नमी की चिपचिपाहट जिंदगी का हिस्सा बन गई थी। दीवारों पर नमी मानो सिसक-सिसक कर दु:ख और व्यथा सुनाना चाहती हो, अपनी परतों में कितनी ठंडी कहानियाँ छुपाए सफ़ेद नज़रों से घूरती रहती थीं। ठंडी लाश की तरह बेजान ठंडी दीवारें कुछ नहीं बोलती बस सुनसान में किसी रोती हुई औरत की तरह रहस्यमयी डराती रहती थी। बारिश के दिनों में अँधेरा और बारिश की बौछार मिल कर अपने साथ-साथ वार्ड के रास्तों में छप-छप करती। कुल मिला कर बच्चों के लिए वह बहुत ही रहस्यमयी दुनिया थी। 




स्टाफ क्वार्टर के नाम पर अस्पताल के ही कुछ हिस्से को कर्मचारियों ने घेर रखा था। सिर्फ़ प्रभारी ज़िला चिकित्सक  को अलग से बंगला मिला हुआ था वह भी झूले के साथ; और वह झूला मेरी नज़रों में हमेशा से चुभता रहा। झूले पर बैठ कर अंगूर खाता हुआ उनका लड़का अपनी संपन्नता के दर्पण में मानो हमारे अस्तित्व को बौना बनाते हुए चिढ़ाता नजर आता था। अंगूर उन दिनों हमारे लिए ज्यादा खट्टे फल होते थे।


लगभग स्टेडियम जितना बड़ा पूरा मैदान बिना एक भी पेड़-पौधे के। पूरा खुला-खुला आसमान लगता जहाँ हमेशा से आमंत्रण था, झूमती हवाओं के साथ उड़ने का, उन्हीं झूमती हवाओं में मैं पला-बढ़ा। माँ स्टाफ नर्स थीं और ठीक अस्पताल के पीछे वाले वार्ड के एक छोटे से हिस्से पर हमारा कब्जा था। माँ के आने और जाने की कोई समय सीमा तय नहीं थी। वस्तुतः हम दोनों भाई-बहन एक दूसरे के राज़दार थे। सारी शैतानियां, बदमाशियाँ और अय्यारियाँ सब दीदी को ही पता होती। माँ की नज़रों ने मुझमें कभी कोई ऐब देखा ही नहीं। वह मेरी झूठ को भी आसानी से सच मान लेतीं और अस्पताल के हर उस स्टाफ से बिना कुछ सोचे लड़ आती थी जो मेरी शैतानियों की फेहरिस्त ले कर घूमता था। कालांतर में यह अटूट विश्वास मेरे बदलाव का कारण भी बना!


उन दिनों निरोध निःशुल्क बाँटा जाता था। अस्पताल में, शायद कोई नियमित संख्या भी निर्धारित की गई होगी जिसे पूरा करना निहायत ही अनिवार्य रहा होगा सरकारी कर्मचारियों का। कई-कई बार पूरा का पूरा पैकेट ही मैदान में फेंका मिल जाता। हम बच्चों के लिए तो वो फ़्री का गुब्बारा था जो मैदान पर घास को छूते ही फट जाता है। हम इसकी असल उपयोगिता के बारे में तो जानते नहीं थे, बेखबर मासूम निरोध के गुब्बारे उड़ाते-उड़ाते अस्पताल के अंदर घुस जाते। सब के सब दबी हुई हँसी में खिलखिलाते, एक दूसरे को केहुनिया मारते और कभी-कभी हँसते हुए डाँट-फटकार भी लगा देते, पर कभी किसी ने सही बात समझाया नहीं। कई बार तो हम लोग ग़ुब्बारे के लिए कंपाउंडर चाचा के पास भी जा कर जिद करने लगते कि हमें निरोध गुब्बारा चाहिए। चाचा इधर-उधर देखते, हमसे नज़रें बचाते और फिर चुपके से हमें हमारा गुब्बारा दे देते। ऐसी कई जानी-अनजानी शरारतों से भरा बचपन अपने ही सलीके से गुज़र रहा था।


माँ को हर जगह किसी के भी रिप्लेसमेंट के लिए उपयुक्त और ज़िम्मेदार माना जाता। कंपाउंडर नहीं आया है, दवाइयाँ बाँटनी हो या सर्जन का सहयोगी नहीं आया तो ऑपरेशन थियेटर में काम करना हो या फिर किसी गांव में कैम्प के लिए जाना हो, मतलब कहीं भी।


“ऑपरेशन थिएटर को थिएटर क्यों कहते हैं” - कभी समझ नहीं सका पर वहाँ घटित होने वाली ढेरों सच्ची कहानियाँ हमेशा बड़ी दिलचस्प लगीं। ऑपरेशन थिएटर के ठीक पीछे हमारा छोटा सा हासिल (कब्ज़ा) किया हुआ घर था। ऑपरेशन के दौरान अक्सर हम बड़ी बहन (दीदीया) के साथ भीतर झाँकते रहते और कई बार दृश्य भी ऐसे होते जो साधारण बाल मस्तिष्क को कौतुहल और भय से भर देते।


ऑपरेशन थिएटर की पिछली खिड़की हमारे दरवाजे के ठीक सामने खुलती और उस खिड़की से चाय और पकौड़े की दरख्वास्त और आदेश समय-असमय मिलता रहता, जैसे फ़्री का होटल चल रहा हो और हमसे चाय और पकोड़े की शक्ल में वहां रहने का किराया वसूला जा रहा हो। दीदी चाय बनाती और मैं वार्ड ब्वॉय की तरह सबको खिड़की के रास्ते चाय पहुंचाता रहता। साथ ही गवाह भी बनता रहा ऑपरेशन थियेटर में रोज जन्मती विचित्र व अजीबो ग़रीब कहानियों की भी। वो सारी कहानियां बिना बताए समय की पीठ पर दर्ज होती चली गई।

 

कई बार ऐसा भी होता कि किसी संदिग्ध क्रिमिनल को गोली लग गयी होती, वह पुलिस से बच कर आया होता और परिसर में चर्चा हो रही होती अब क्या करे? और अंततः भय के मारे बिना पुलिस को खबर दिए उसका इलाज कर दिया जाता। कभी वैसे लोगों को नींद की सुई लगा कर पुलिस को इत्तला कर दी जाती। ये सब कुछ आदमी का अपना वर्चस्व और समय की नजाकत पर निर्भर करता था। बुरा जितना शक्तिशाली होता है उतना ही असरदार भी। 


कुछ गुदगुदाने वाली रोचक घटनाएँ भी घटती रहती जैसे एक दिन तो एक बूढ़ी अम्माँ की साँस अटक गयी, पता चला कि पेट दोगुना फूल गया है। सत्तर साल की अम्मा अंतिम सांस के लिए तड़प रही थीं। देर रात का समय होगा और सुपर इमर्जेन्सी केस बताया गया, सो सब लोग भागे-भागे पहुँचे। उपयुक्त निरीक्षण पर निष्कर्ष ये निकला कि अम्माँ ने ज़रूरत से ज़्यादा चूड़ा खा लिया था और रात में पानी पीना भूल गई थीं। चूड़ा पेट में फूल गया और गैस ने हलक पर कब्जा कर लिया। साँस अटक गयी और फूले हुए पेट को ढीला करने के लिए पाइप डाल कर गैस उतारा गया। उसके बाद सभी लोग बूढ़ी अम्मा को ऑपरेशन रूम में ही छोड़ कर भाग खड़े हुए, सचमुच पूरा कमरा दुर्गन्ध से भर गया था। अम्मा की कहानी आज भी जब याद करते हैं तो पेट पकड़ कर हँसते है।


कुछ घटनाएँ बहुत ही ममस्पर्शी थीं जैसे माँ अकेली आई, बच्चे को जन्म दिया और चल बसी। अकेली आई माँ का यूँ बेसमय जाना और अस्पताल को एक और अनाथ बच्चे की ज़िम्मेदारी देना, बहुत क्रूर समय होता था। वह दृश्य जहाँ बाप का नामोनिशान नहीं, माँ की लाश सामने और मासूम नज़र खिलखिलाता रहे। लाश को देख कर आँखों में आँसू और नौनिहाल को देख मुस्कान भगजोगनी की तरह चेहरे पर आती जाती। ऐसे क्षण बहुतेरे होते। हममें से ही कोई उस बच्चे को दूध पिलाता होता तो कोई लोरी सुनाता। कानूनी प्रक्रिया को जगने में समय लगता है, इसलिए प्रशासन की नींद टूटने तक बच्चे को ज़िंदा रखना ही प्राथमिकता थी, माँ का बेहिचक आगे बढ़ कर सब संभालना हमेशा से प्रेरणादायी रहा और हमारे अंतस में कुछ इसके बीज जन्मते रहे।


कुछ घटनाएँ ऐसी थी जिसमें ममता और वात्सल्य की क्रूरता की सीमा नहीं थी, जैसे बच्चे को जन्म देते ही कुछ घंटे में माँ का रफूचक्कर हो जाना। लावारिस नन्ही को कौन देखेगा? फिर परिवार को  खबर दी जाती और बच्ची को उसके घर पहुँचा दिया जाता। कभी-कभी परिवार ही माँ और बच्ची दोनों को छोड़ भाग जाता, कहता तीसरी बच्ची हुई है, अब इस करमजली को कौन ले जाएगा। हम सब मिल कर उसे कुछ दिन अपने साथ रखते फिर न जाने वो दोनों कहाँ गुम हो जाते। एक बार तो बच्चे की शक्ल बहुत ही भयानक निकली तो लोगों ने उसे राक्षसी का अवतार मान लिया और उसे मार डालने की साजिश रच दी। इन क़िस्सों की अपनी श्रृंखला है जिसे केंद्र बिंदु बना कर लिखना शुरू कर दूँ तो पूरी किताब रचनी पड़ेगी!


ख़ैर अभी मैं इस संस्मरण को आगे बढ़ाने की कोशिश करता हूँ।


हमने माँ को हर ऐसी अनसुलझी समस्या को सुलझाते देखा है। जटिलता को सहजता से सरलता में परिवर्तित होते देखना मेरा सौभाग्य रहा है और इसे आज भी अपने भीतर कहीं संजोए घूम रहा हूँ। पास के गाँव हसनपुर जो कि किऊल नदी के तट पर बसा हुआ था, वहां बालू पर वर्चस्व रखने को ले कर घटित घटनाओं का प्रतिकूल असर अस्पताल पर सीधा पड़ता था। उन दिनों गोलियाँ चल जाना उतना ही स्वाभाविक था जितना सर्वदा सूखी किऊल नदी में असमय बाढ़ आ जाना। हर बार किसी को गोली रात में ही लगती और बत्ती का उसी समय गुल होना प्रकृति का विधान-सा लगता। एक अजीब सी रहस्यमयता का आवरण पूरे वातावरण को घेरे रहता। हमेशा खुसुर-फुसूर और बुदबुदाहट हवा में तैरती रहती हम उस अस्पष्ट भय से विमुक्त-बेख़बर मटरगश्ती करते फिरते।



 

स्टाफ की कमी के कारण या ज्यादातर कर्मचारियों का शहर में रहने (अस्पताल से दूर) के कारण माँ को सफाई से सर्जरी तक हर काम करना पड़ता। हालात ऐसे भी हो जाते कि दस साल की उम्र का मैं और मुझसे ढाई साल बड़ी दीदी ज़रूरत पड़ने पर ऑपरेशन के दौरान टॉर्च दिखाने का भी काम कर लेते। अक्सर जब किसी ख़ास महाशय को गोली लगी होती तो उनका व्यवहार बड़ा अजीब सा होता था। कमरे में हेकड़ी और विनती का मिश्रित स्वर गूंजित होता रहता, जिसमें कुछ चुनी हुई गालियां भी शामिल होतीं। वो सर्वदा भूल जाते कि सामने पुरुष या महिला हैं या फिर बच्चे, उन्हें सिर्फ़ ये याद रहता कि वो दर्प से ओत-प्रोत पुरुष हैं जिनका अधिकार है बेहिसाब  गालियाँ बरसाना। हालांकि ऐसे लोगों को रास्ते पर लाने के लिए अस्पताल की भी अजीब तरकीबें थीं। उनके ऑपरेशन में सबसे ज़्यादा वक़्त लगता। सबसे ज़्यादा सुई और ऑपरेशन के सबसे गहरे घाव उन्हीं को पड़ते। कई बार जब वैसे महाशय को गोली लगती तो अस्पताल की बत्ती गुल हो ही जाती या कर दी जाती। उन्हें बाहर खुले आकाश में ही बेंच पर ऑपरेट करना पड़ता था। हम दोनों भाई-बहन टॉर्च की रौशनी को बार-बार केंद्रित कर गोली का खेल देखते रहते थे। गोली को बाहर निकालने का तरीका बच्चे का गर्भ से निकालने जैसा ही होता। वह भी कभी दिखती कभी ओझल हो जाती, आदमी को देख कर टाँका लगाने की संख्या का भी निर्णय लिया जाता।


दस साल की उम्र में ये जिगर को दहलाने वाले अनुभव थे। ये घटनाएँ आपको कठिन समय के लिए चुपके से तैयार करती हैं। वह कठिन समय बिना तैयारी का वक्त दिए, बिना बताए अचानक धप्प से प्रकट होता है। आप की सहनशीलता में परिपक्वता का आवरण चढ़ता रहता है और एक वक़्त ऐसा भी आता है जब आप मौत तक के दर्द को महसूस नहीं करते और यह दुर्घटना एक सामान्य घटना जैसी प्रतीत होने लगती है। ऐसा ही हुआ था जब पिता जी असमय गुज़र गए और हमें लगा यह एक सामान्य घटना ही तो है।


यह अस्सी के दशक की बात है, उन दिनों गाँव-देहात में क़ायदे क़ानून थोड़े से ताख में ही पड़े रहते। हर किसी की ज़िंदगी में कुछ ख़ास वर्ग की दख़लंदाज़ी रहती थी; जातिवाद के आपसी वर्चस्व में संघर्ष भरे दिन थे और निचली और ऊँची जाति अपनी-अपनी सीमा विस्तार में लगे हुए थे। सबके जूते का माप बड़ा हो गया था, नई लोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टियां जातिवाद के झंडे फहरा रही थीं, जिसका असर गांव और बस्ती पर भी था।


ऐसे में अस्पताल की राजनीति में भी जातिवाद का असर दिख जाना स्वाभाविक था। यहाँ तक कि बच्चों तक इसका सीधा असर होता। कभी मन होता तो बड़े डॉक्टर साहब का लड़का हमसे बात कर लेता, हमारे साथ खेल लेता और कभी घर भी नहीं घुसने देता। बच्चे भी गुट में बंट रहे थे, पर वो गुटबंदी बहुत समय तक टिक नहीं पाती। क्रिकेट के मैदान या गिल्ली डंडा और कंचों की आवाज़ों में गुम हो जाती। आश्चर्य है कभी भी जातिवाद हमारे घर से ऑपरेशन कक्ष में जाते चाय और पकौड़े पर नहीं पड़ी। सभी जाति के डॉक्टर और सहयोगी समान भाव से ज़ायक़े का मज़ा लेते और समय- बेसमय यह मांग हमेशा बनी रहती।


उन्हीं दिनों ख़बर आयी कि जयनगर लाल पहाड़ी जो किऊल नदी के तट से शुरू होती थी वहाँ सुरंग निकला है। हम सारे बच्चे पैदल एक सांस में पहाड़ी के ऊपरी शीर्ष पर जमा हो गए जहाँ से किसी ने एक बड़ा पत्थर हटाया और सलीक़े से कटी हुई सीढ़ियाँ नीचे की ओर जा रही थीं। नीचे जाती सीढ़ियाँ अंधेरे में गुम हो रही थीं। किसी ने कहा यहां डाकू छुप कर रहते थे तो किसी ने बताया यहाँ पुराना खजाना दबा था जिसे कल ही लूट लिया गया है। ये सब हमें कौतूहल से भर रहा था। मैंने दीदी की नज़र से नज़र मिलाई, दीदी मुझसे कहीं ज़्यादा हिम्मती थीं। उसने भांप लिया कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ और फिर वह आगे बढ़ गई और मैं उसके पीछे-पीछे सीढियाँ उतरने लगा। दस सीढ़ियों के बाद ही सांस अटकने लगी, अँधेरा घना और फुसफुसाहट भी पुरज़ोर आवाज़ प्रतीत होती, ज़ेहन में साँप का डर काले नाग की तरह फ़न फैलाए था और अंधेरे में हर हल्की आवाज़ उसे और डरावना बना रही थी। दीदी का हाथ मैंने ज़रूरत से ज़्यादा कस कर पकड़ रखा था।आधे रास्ते में ही किसी ने खुसफुसा कर पुलिस की आवाज़ लगायी और हम सब भाग खड़े हुए। रोमांच, मस्ती और मनोरंजन सब कितने सहज तरीके से उपलब्ध था। तब चमचमाती स्क्रीन और जादुई कीपैड नहीं हुआ करती थी।


कुछ दिन बाद पता चला पुरातत्व विभाग ने सुरंग को अपने कब्जे में ले लिया है और वहाँ चौंकाने वाली खबरें आ रही हैं। किसी ने बताया कि दक्षिण पूर्व कोने से खुदाई कार्य आरंभ कर उत्तर पूर्व दोनों कोने तक प्रथम चरण में खुदाई कार्य को संपन्न किया गया, दोनों कोने पर दो-दो सुरक्षा मीनार के अवशेष प्राप्त हुए जो अब तक पूर्वी भारत के सभी उत्खनित बौद्ध मठों से अलग हैं। इस स्थल की पहचान एक बौद्ध भिक्षुणी मठ के रूप में 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में प्राप्त सिंहनाद अवलोकेतेश्वर की मूर्ति पर उद्धृत अभिलेख से की गई। अन्य अवशेषों के साथ भगवान बुद्ध की भूमि स्पर्श मुद्रा तथा वोटिव स्तूप अलंकृत सिलिंग भी मिला। स्मृति और इतिहास एक साथ बनते हुए अलग-अलग दर्ज हो रहा था।


चलिए फिर से वापस अस्पताल की दुनिया में लौटते हैं। हमें खबर मिली प्रधानमंत्री राजीव गांधी लखीसराय आने वाले हैं। हेलिकॉप्टर उतारने की जगह हेलीपैड का स्थान अस्पताल के पीछे वाले मैदान में किया गया। बाँस के बल्लों से पूरा का पूरा मैदान घेर दिया गया। सुरक्षा की पूरी घेराबंदी बना दी गई और हमें सख़्त हिदायत दी गयी कि बाहर नहीं जाना है। बचपन तो उन्मुक्त होता है आज़ाद परिंदे बेड़ियों के गुलाम नहीं होते। ज़्यादा और सख्त हिदायतें हमें विद्रोही बना देता है। पूरी तैयारी कर ली गयी। सब यही सोच कर इकट्ठे हुए थे कि प्रधानमंत्री जी को कौन कितने नज़दीक से कैसे देख सकता है, भला इतने नज़दीक से देखने का मौक़ा हाथ से कैसे जाने दें। योजना के मुताबिक़ हम सारे बच्चे एक-एक कर सड़क के बगल वाली नहर के रास्ते घेरे से सट कर खड़े हो गए। सुबह के 9 बजे हेलिकॉप्टर ने खूब धूल उड़ाई,  इतना कि कुछ भी नहीं दिख रहा था। धूल के बादल सामने थे और हमारे मुँह, आँख, बाल में कबड्डी वाली जैसी धूल ही धूल। तभी अचानक गाड़ियों का क़ाफ़िला निकलता दिखा, हमें लगा क्या इन्हीं गाड़ियों को देखने के लिए इतनी जोखिम उठाई। माँ को पता चल गया तो ऐसी पिटाई होगी कि तीन दिन खेलने भी नहीं जा सकेंगे। परंतु ज़िंदगी आपसे हमेशा न्याय करने की चेष्टा करती है बस ये हम पर निर्भर है कि हम ज़िंदगी का साथ कितना देते हैं। गाड़ियों के क़ाफ़िले से उतर कर अचानक सेब और टमाटर के बीच के रंग के स्मित बिखेरते सफेद कुर्ते में हम सब के सामने हमारे प्रधानमंत्री पैदल चल रहे थे। यह किसी स्वप्न से कम नहीं था हमारे लिए।





हम अपनी छोटी हाथों को लम्बाई से ज़्यादा इस आशा में लहरा रहे थे कि शायद वे हम को देख लें और हमारी तरफ़ ही आ जाएँ। पता नहीं क्या हुआ राजीव गांधी जी अचानक सड़क के उस ओर से हमारी तरफ मुड़ गए । उन्होंने मेरी नज़रों में नज़रें तो नहीं डाली पर उनके हाथ हमारे हाथ को छू गए। मख़मल की छुअन से मानो एक करेंट लगी हो। मैंने उन उंगलियों को कुछ दिनों तक धोया नहीं। वह अपने आप में एक लम्हा था जिसे मेरे बचपन ने हमेशा याद किया और बेहतर उड़ान की कल्पना की। एक बच्चे को किसी राजनीतिक पार्टी से कोई लेना देना नहीं होता। वह तो बस बहाव के धुन में होता है, हवा और पानी की तरह अपनी रवानगी में बहता रहता है। उस स्पर्श के जरिए राजीव गांधी जी के व्यक्तित्व ने व्यक्तिगत तौर पर हमेशा प्रोत्साहित और प्रेरित किया और उस बहाव को एक दिशा ज़रूर मिली।


प्रधानमंत्री आगमन के अभी कुछ ही दिन हुए होंगे, रात को 11 बजे ख़बर आई कि सवारियों से खचाखच भरी एक बस सड़क से समानांतर बहती नहर में पलट गई है। नहर की चौड़ाई और गहराई बस जितनी ही थी मतलब साफ़ था कि बस नहर में उलट कर अंट गयी थी, इसलिए लोगों को बस से निकालने का कोई रास्ता तक नहीं मिला। लगभग 90% लोगों का दम पानी में ही घुट चुका था। ऐसा इसलिए भी हुआ था क्योंकि सड़क की हालत ख़स्ता (गहरे गड्ढे) होने के कारण बस को कई बार सड़क से उतर कर चलाना पड़ता था और इस बार बस पूरी तरह पलट गयी थी। सरकारी महकमा पूरी तरह हिल गया था। जिलाधिकारी और सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस अपने लाव-लश्कर के साथ रात में ही आ गए थे। हम बच्चे खिड़की से अंदर की मीटिंग का नज़ारा देख रहे थे। कोई भी यात्री जीवित या मृत अब तक लाया नहीं गया था लेकिन चर्चा इस बात पर ज्यादा हो रही थी कि इतनी बड़ी संख्या को जस्टिफ़ाई कैसे करेंगे। गिनती का खेल यहाँ भी शुरू हो चुका था। राजनीति अपनी रणनीति अलग बना रही थी, किसने स्वीकृति दी इतने ज़्यादा यात्रियों को एक साथ बस में चढ़ाने की। रास्ते में इतने ट्रैफिक पुलिस क्या घास छीलने के लिए हैं? सड़क मरम्मत का फंड कहाँ गया? रास्ते में किसी ने नहीं टोका। एक के बाद एक रहस्य से पर्दा उठ रहा था। समस्याओं की पूरी परतें अब खुली किताब बन चुकी थी। रातों रात कई लाशों को ग़ायब करने की चर्चा भी हुई पर सारी बातें और निष्कर्ष हम सही से सुन नहीं पा रहे थे।


अंततः लाई गयी एक-एक लाश को अस्पताल के बाहरी प्रांगण में ही रख दिया गया। वह कीचड़ में सनी, घसीटी गई मानव देहें थीं। रात में चादर की कमी को देखते हुए स्टोर का ताला तोड़ा गया ताकि निष्प्राण शरीर को पूरी तरह ढका जा सके। ये हादसा दर्दनाक नहीं खौफनाक था और कमजोर प्रबंधन ने इसे और बद से बदतर बना दिया था।


लगभग चार बजे सुबह हम लोग अस्पताल की छत पर ही लेट गए। नीचे लाशों का क़ाफ़िला बिछा पड़ा था। सफ़ेद कफ़न, साफ़ चांदनी रात में कुछ ज्यादा ही दूधिया दिखती है। अजीबो-ग़रीब उधेड़बुन ख़यालों में उलझे छत पर ही पसरे हुए नींद ने अंतिम पहर हमें जकड़ा होगा। गहरी नींद में भी कितनी छटपटाहट थी । बाल मन व्याकुल और ज़रूरत से ज़्यादा भयभीत था।मिट्टी से सने चेहरे भयानक शक्ल इख्तियार कर रहे थें। मिट्टी की मूरत और मिट्टी से सने चेहरे में कितना फ़र्क़ होता है।


सुबह-सुबह नींद टूटी जब नेताओं का हुजूम उमड़ पड़ा, हम लोगों को छत से अविलंब भगा दिया गया । मैं और दीदी चुपके से पानी टंकी वाले छत के ऊपर छज्जे जहाँ सिर्फ़ एक रोशनदान था, वहां छुप गए। साइरन की आवाज़ें धीमे-धीमे थम गई थी और कर्मचारियों के आपाधापी में भागने की आवाजें तेज-तेज आने लगी। कोई आपस में बात करता गुज़र रहा था जो हम आधे-अधूरे सुन पा रहे थे। कहा जा रहा था पोस्टमार्टम करना है। सौ से ज़्यादा लाश है और पोस्टमार्टम की कोई सुविधा है नहीं। क्या करें, कैसे करें? सब आज ही होना है और अविलंब सब लोगों को यहाँ से विदा करना है। जितनी देर मजमा लगा रहेगा परेशानी बढ़ती रहेगी।


अभी तक सुना था कोई डोम होता है जो पुलिस और डॉक्टर के कहने पर ख़ूब दारू पी कर चीर फाड़ करता है। पर यहाँ समस्या संख्या और वक़्त दोनों की थी। मीडिया का डर भी था जबकि ऊपर से आदेश बिलकुल साफ़ थे ‘जस्ट क्लीन दिस मेस’। एक डोम के वश में सौ पोस्टमार्टम तो कहीं से संभव नहीं था। हम अब भी ऐसे रोशनदान में छुपे थे जहाँ से सारी लाशें साफ़-साफ़  दिख रही थीं। हरी घास और सफ़ेद कफ़न!


अचानक देखता हूँ, खुले मैदान में मंच सज गया। पूरा-पूरा नाटक आज दिन में ही खेलना था। खुले मैदान में डॉक्टर की फ़ौज अजीब से अस्त्र-शस्त्र के साथ जुट गयी। वह दृश्य ऐसा था मानो अर्जुन महाभारत के युद्ध के उपरांत बिछे लाशों को किंकर्तव्यविमूढ़ दृष्टि से देख रहा हो। वहाँ उनके पास कृष्ण थे जो गीता के श्लोक से दृष्टि बाधित, श्लोकोच्चारण से दृश्य का शोरगुल मस्तिष्क तक नहीं पहुंचने दे रहे थे और यहाँ बस मेरी दीदी ने एक हाथ से मेरा और दूसरे से अपना मुँह दबा रखा था। दोनों की आँखों से खारे पानी की धाराएँ बहे जा रही थीं। नीचे ठीक सामने तांडव चल रहा था, दिख रहा था हथौड़े और छेनी जैसे औजारों से सीना बेधा जा रहा था। अतड़ियाँ बाहर आ रही थीं और उस शरीर को छोड़ बारी-बारी से अगले देह पर प्रहार दिया जा रहा था। जान बचाने वाले चिकित्सक वर्ग अपना काम बखूबी निभा रहे थे। ज़िंदगी हमारे सामने मायने बदल रही थी और दबे घुटे साँसों में बेहोशी मुझपर हावी हो रही थी । जब होश में आया तो माँ बिलकुल करीब बैठी थी, दीदी रो रही थी और मैं मानो नई ज़िंदगी को देख रहा था, उनींदी से उजासी की तरफ...।


मैंने माँ की उंगली बहुत तेज़ पकड़ ली। आज भी उस स्मृति में माँ ऊँगली थामे खड़ी हैं, उसके चेहरे की रेखाएँ दृश्य में अब भी तनी हुई हैं। हम आज भी परिदृश्य में उस दृश्य को जीते रहते हैं। यूँ ही स्मृतियाँ सोपान बन जाती है, संबल देती है।

 

बहुत सारी सीढ़ियां चढ़नी बाक़ी हैं अभी...

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।) 

 

 

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टिप्पणियाँ

  1. अभी अभी यतीश कुमार का बचपन का संस्मरण पढ़ते हुए दिल हौल गया।अस्पताल का माहौल कित्तन डरावना हो सकता है,यह जाना।इसे भूल पाना मुश्किल होगा।

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  2. यतीश जी, मैंने भी छोटे शहरों के सदर अस्पताल के आवासीय परिसर देखे हैं। एक दोस्त के पिता अस्पताल के कर्मी थे। आपके इस संस्मरण को पढ़ते हुए मैं वहीं था। आपके लिखे में वे दिन किसी फिल्म की तरह सामने आए। नहर में बस दुर्घटना के बाद का विवरण विचलित करने वाला है। इसे जारी रखें।

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  3. मार्मिकता के साथ लिखा गया संस्मरण।

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  4. यादें निर्मम होती है, यतीश जी ने उन कटु स्मृतियों को दोबारा जीकर अपनी अदम्य साहसिकता का परिचय दिया। यतीश को नमन!

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  5. ओह! बचपन में यह सारे अनुभव... बहुत सारा सिखा दिया होगें अनुभवों ने आपको इसीलिए आपकी कविताओं में इतना दर्द होता है। महीन भावनाएं👌

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  6. कुछ मासूम और कुछ दिल दहलाने वाली घटनाओं से भरा हुआ संस्मरण।

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  7. संस्मरण में इतनी सारी बातें , यादें और अनुभव! शानदार!

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  8. एक सांस में पढ़ गया, दृश्य मानो मेरी आंखों के सामने चल रहा था। एक दस साल के बच्चे को हालात के चलते कितना कुछ परिपक्व और डरावना देखना पड़ा। भय साथ साथ पसरा रहा।
    लिखते रहिए। मां को प्रणाम।

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  9. सबसे पहले मां को प्रणाम....मासूम बचपन संग भय, साहस से भरपूर संस्मरण

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  10. आपका प्रथम प्रयास ही सराहनीय है। आप इसे मन से लिखे हैं । बधाई।💐

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  11. मुश्किल होता है दर्द की नदी पार करना और उन गलियों में फिर से गुजरना, जिन्हे हम पीछे छोड़ आये थे। वो यादें बाँटने के लिए शुक्रिया भाई। इस मार्मिक संस्मरण को पढ़ते हुए तुम पर और तुम्हारी माँ पर गर्व होता है। यही जीवन दर्शन है कि कमल, कीचड़ में ही खिलते हैं। छोटे शहरों के अस्पतालों की दशा देखी हैं मैंने और मैं इस संस्मरण के तत्व को महसूस कर सकता हूँ। बहुत सुन्दर! मैं इस यात्रा में सहयात्री हूँ, अगले स्टेशन का इंतज़ार रहेगा!

    शुभकामनाएँ!! Avinash

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  12. आपने अपनी स्मृतियों को अपने लेखन से सजीव कर दिया। किसी चलचित्र की भाँति पढ़ते हुए सब आँखों के सामने जीवंत हो उठा। अपने इन पलों को हम सब के साथ बाँटने के लिए शुक्रिया यतीश भाई। यूँ ही आपकी लेखनी प्रखर रहे।

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  13. मेरा अंतस गहरा सिहर गया है इसे पढकर । उफ़! कैसा खौफनाक मंजर रहा होगा मैं कल्पना मात्र से थर्रा रही आपने इतनी छोटी उम्र में यह सब देखा ...लेखन पर तो क्या ही कहूँ , आप तो कविता और गद्य दोनों में दक्ष हैं। पर यह संस्मरण कोई भी पढ़कर भूल नहीं सकता यतीश जी 🙏

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