वीरेन्द्र यादव का आलेख अवतारी पुरुष न बनाएँ डॉ. अम्बेडकर को

डॉ. अम्बेडकर



हमारे यहाँ महापुरुषों को देवत्व प्रदान करने का चलन चल पड़ा है। ऐसे में उस महापुरुष की आलोचना करना खतरे से खेलना होता है। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के बारे में भी ऐसा ही है। अम्बेडकर जो तर्कों के द्वारा अपनी बात रखने में विश्वास करते थे, के सन्दर्भ में ऐसा किया जाना आपत्तिजनक है। प्रख्यात आलोचक वीरेन्द्र यादव की किताब 'प्रगतिशीलता के पक्ष में' में अम्बेडकर पर एक आलेख प्रकाशित है। अपने आलेख में वीरेन्द्र जी ने कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाएँ हैं। आज अम्बेडकर जयन्ती पर उन्हें नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं वीरेन्द्र यादव का आलेख 'अवतारी पुरुष न बनाएं डॉ. अम्बेडकर को'।



अवतारी पुरुष न बनाएँ डॉ. अम्बेडकर को


वीरेन्द्र यादव


भारतीय संसद के इतिहास में सम्भवतः पहली बार एक कार्टून को ले कर दोनों सदनों में माहौल इतना ज्यादा गरम हुआ कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने ही बिना किसी गम्भीर चर्चा के तत्काल प्रभाव से राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान तथा प्रशिक्षण परिषद् (एन. सी. ई. आर० टी०) की उस पाठ्यपुस्तक के प्रकाशन व अध्ययन अध्यापन पर रोक लगा दी, जिसमें यह कार्टून प्रकाशित हुआ था। मसला था देश के शीर्षस्थ कार्टूनिस्ट स्वर्गीय के. शंकर पिल्लै (शंकर) के उस कार्टून का, जिसे उन्होंने 1949 में संविधान लेखन की धीमी प्रक्रिया को लक्षित करने के लिए बनाया था। कार्टून में घोंघे रूपी संविधान के मसौदे पर बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर को लगाम कसते और चाबुक फटकारते तथा पीछे घोंघे पर निगाह गड़ाए और हाथ में चाबुक लिये पण्डित जवाहरलाल नेहरू को दिखाया गया है, जो उस समय प्रधानमंत्री थे। छह वर्ष पूर्व इस कार्टून को एन. सी. ई. आर. टी. ने 11 वीं कक्षा   की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में शामिल किया था। इस पुस्तक को अन्तिम स्वरूप देने में समाज विज्ञानी व राजनीतिक विश्लेषक योगेन्द्र यादव एवं पुणे विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र के विभागाध्यक्ष सुहास पलशीकर आदि की मुख्य भूमिका रही है। इस पाठ्यक्रम के सलाहकारों में प्रोफेसर मृणाल मिरि, जी० पी० देशपाण्डे, जोया हसन व गोपाल गुरु सरीखी नामचीन बौद्धिक हस्तियाँ शामिल रही हैं।


उपरोक्त विवादित कार्टून को शामिल करने वाली यह पुस्तक छात्रों को रोचक ढंग से राजनीतिशास्त्र के बारे में जानकारी देने व उनमें विश्लेषण क्षमता को विकसित करने के इरादे का परिणाम थी। कार्टून के साथ दी गयी इबारत में लिखा गया है जिस घोंघा रफ्तार से संविधान : लिखा गया है, उस पर कार्टूनिस्ट की निगाह।' इसी इबारत में छात्रों से सवाल किया गया है कि 'संविधान निर्माण में तीन वर्ष का समय लगा। क्या कार्टूनिस्ट इस तथ्य पर टिप्पणी कर रहा है? आपकी समझ में संविधान लेखन में इतना समय लगने का क्या कारण है?' छात्रों को संविधान लेखन की लम्बी व गहन प्रक्रिया को समझाने के लिए इसी पुस्तक के पृष्ठ 17-18 पर विस्तृत विवरण भी शामिल किया गया है। यह सब करते हुए न तो डॉ. अम्बेडकर की कोई अवमानना हुई है और न ही दलित मुद्दे को लेकर कोई प्रतिकूल टिप्पणी। सच तो यह है कि पहली बार किसी पाठ्यपुस्तक में संविधान निर्माण की चर्चा करते हुए डॉ. अम्बेडकर को महात्मा गाँधी व नेहरू के समकक्ष दिखाया गया है।


सचमुच यह स्तब्धकारी है कि पुस्तक लेखकों के संविधान निर्माण सम्बन्धी गम्भीर आशय को दरकिनार करते हुए राजनीतिक मन्तव्यों के अन्तर्गत संसद में मुद्दा यह बना कि सन्दर्भित कार्टून में डॉ. अम्बेडकर की अवमानना की गयी है और नेहरू के हाथ की चाबुक उन पर लक्षित है, जबकि कार्टून को ध्यान से देखने पर जाहिर हो जाता है कि यह सही नहीं है। इसके पूर्व एक माह पहले रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामदास अठावले इस मुद्दे पर अपनी आपत्ति दर्ज करा चुके थे। संसद में यह मुद्दा तब गरमाया जब यूपीए में शामिल तमिलनाडु के सांसद तिरुमा वलवन तोल ने कार्टून की फोटो प्रति लहराते हुए जोर-शोर से उठाया। बिना कोई समय गँवाए केन्द्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने डॉ. अम्बेडकर को वेदव्यास के समकक्ष रखते हुए इसे अत्यन्त गम्भीर मुद्दा बताया। दिन भर दोनों सदनों में बार-बार के कार्यस्थगन और हंगामे को देखते हुए केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने पाठ्यपुस्तक को वापस लेने और कार्टूनों को पाठ्यक्रम में शामिल करने की समूची प्रक्रिया पर ही जाँच कमेटी बैठाने के निर्णय की घोषणा कर दी। इस सबके बावजूद बसपा की मायावती सहित कई अन्य सांसदों ने पुस्तक लेखकों को तत्काल प्रभाव से दण्डित करने की माँग करते हुए देशव्यापी आन्दोलन की धमकी दे डाली है।

 


 

इस समूचे प्रकरण एवं सरकार के रुख से क्षुब्ध होते हुए पुस्तक से लेखन में मुख्य दायित्व निभाने वाले प्रो. सुहास पलशीकर और डॉ. योगेन्द्र यादव ने एन. सी. ई. आर. टी. की सलाहकार समिति से त्यागपत्र दे दिया है। इसके बावजूद विरोध अब हमलों का रूप लेने लगा है। रिपब्लिकन पैंथर पार्टी के उम्र कार्यकर्ताओं ने प्रो. पलशीकर के पुणे विश्वविद्यालय स्थित कार्यालय में घुस कर तोड़फोड़ की और उन्हें दलित विरोधी करार देते हुए लांछित भी किया सचमुच यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन पलशीकर ने डॉ. अम्बेडकर के अवदान को रेखांकित करने के लिए उन पर महत्त्वपूर्ण लेखन किया है, उन्हें ही इस हमले का शिकार बनाया गया। यहाँ यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि डॉ. पलशीकर ने पिछले दिनों अपने लेखन के माध्यम से साम्प्रदायिक व हिन्दूवादी तत्त्वों द्वारा डॉ. अम्बेडकर के अधिग्रहण पर भी चिन्ता व्यक्त की थी। कोई आश्चर्य नहीं कि रिपब्लिकन पैंथर पार्टी के हमले के पीछे एक कारण यह भी रहा हो, विशेषकर तब जब रामदास अठावले ने इस हमले को आक्रोश की उचित अभिव्यक्ति बताया हो।


यूँ तो पाठ्यक्रम को लेकर आपत्तियाँ इस बीच लगातार की जाती रही हैं। रोहिंटन मिस्त्री की पुस्तक 'सच ए लांग जनीं' एवं ए. के. रामानुजन की 'रामायण' सम्बन्धी इतिहास पुस्तक को शिव सेना व हिन्दुत्ववादी दबावों के चलते ही पिछले दिनों पाठ्यक्रम से हटाया गया था लेकिन डॉ. अम्बेडकर के कार्टून सम्बन्धी इस पाठ्यक्रम प्रकरण के अधिक गम्भीर और दूरगामी निहितार्थ हैं, कारण यह कि इस पर समूची संसद की मुहर लग गयी है। इस प्रकरण से यह निर्विवाद रूप से तय हो गया है कि बाबा साहब अम्बेडकर अब राजनीतिक चिन्तक व संविधान निर्माता के कद से ऊपर उठकर मसीहा की उस श्रेणी में आ गये हैं जिसमें पैगम्बर हजरत मुहम्मद और महात्मा बुद्ध हैं। जिस तरह इस्लाम के अनुयायियों के लिए हजरत मुहम्मद प्रश्नेतर हैं, उसी तरह अब दलितों के ही लिए नहीं बल्कि समूचे राजनीतिक समुदाय के लिए डॉ. अम्बेडकर हो चुके है। अम्बेडकर के पक्ष में भी तर्क-वितर्क व बहस का न हो पाना हमारे जनतान्त्रिक समाज के लिए अच्छी खबर नहीं है। यदि ऐसा न होता तो प्रो. योगेन्द्र यादव व डॉ. सुहास पलशीकर के अम्बेडकर के पक्ष में दिए गये तर्कों को सुना जाता व विवादित कार्टून के परिप्रेक्ष्य को समझा जाता।


सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है कि क्या हुआ होता बाबा साहब अम्बेडकर पर लिखी गयी अरुण शौरी की पुस्तक 'वरशिपिंग फॉल्स गॉड्स' का, यदि वह पन्द्रह वर्ष पूर्व (1997) न लिखी जाकर आज लिखी गयी होती। डॉ॰ अम्बेडकर के चिन्तन एवं दर्शन को पोथियों में कैद करना और बुद्ध की तरह अवतारवाद का आभामण्डल प्रदान करना सचमुच उनके लिए अच्छी खबर है जो अम्बेडकर के तर्कों व प्रश्नों से निरुत्तर हो जाते थे। काश बाबा साहब के अनुयायी व भक्त यह समझ पाते कि उन्हें पूजना नहीं बल्कि पढ़ना जरूरी है। योगेन्द्र यादव व सुहास पलशीकर का अपराध यही है कि उन्होंने डॉ० अम्बेडकर को पूजना नहीं बल्कि पढ़ना पढ़ाना जरूरी समझा था !

 




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