हसन नासर की कहानी 'भोज' प्रस्तुति : यादवेन्द्र


आमतौर पर सत्ता का चरित्र यही होता है कि जनता की बात करते हुए भी जनता से उसका कुछ खास लेना देना नहीं होता. सत्ता का अपना एक अहंकार और मद भी होता है. कुर्सी पर बैठते ही सत्ताधीश खुद को औरों से ऊंचा समझने लगता है. इसी क्रम में प्रस्तुत है ट्यूनीशिया के कहानीकार हसन नासर की एक सामयिक कहानी भोज. कहानी की प्रस्तुति यादवेन्द्र जी की है. तो आइए आज पहली बार पर पढते हैं यह कहानी.           


अरबी कहानी 
                     

भोज 

                               




हसन नासर (ट्यूनीशिया) 



प्रस्तुति :  यादवेन्द्र 




उस रात सुलतान के महल के  ऊपर चाँदनी नहीं छिटकी  और उसके चारों ओर फैला हुआ बाग़ सुनसान पड़ा रहा -- सुलतान अपने महल से गायब था।


सुलतान की समूची ज़िन्दगी इसी महल के अन्दर गुजर गयी,  सब कुछ तो इसी के अन्दर था - किसी भी बात के लिए इस से बाहर जाने की दरकार नहीं थी,  चाहे वह चीज उसकी रियासत  में पैदा होती हो या नहीं। जो दुर्लभ चीजें होती  थीं उनको बाहर से मँगा लिया जाता था -- यही बड़ी वजह थी कि सुलतान  को कभी किसी चीज के लिए महल से बाहर जाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। सब  कुछ महल के अन्दर  उपलब्ध था।



सच्चाई तो यह थी कि सुल्तान  को अपने विशाल महल  का ओर छोर कहाँ तक फैला हुआ है यह भी मालूम नहीं था -- इतने सालों से इसके अन्दर रहते हुए भी उसको न तो महल के अन्दर छुपा कर रखी हुई सभी वस्तुओं का पता था और न ही  उसने कभी बाहरी दीवारों को ढंग से देखा था।



दरअसल सुलतान का ध्यान रियासत के तमाम  मसलों की ओर कभी गया ही नहीं,  उसको तो सिर्फ अपने महल की फ़िक्र थी ...बल्कि  महल के मसलों की ओर भी उसका ध्यान कम ही थाअपना कुनबा और दिन रात आस पास मँडराते दरबारियों की  फ़िक्र उसको कहीं ज्यादा थी। और ईमानदारी  से कहें तो कुनबे और दरबारियों  की फ़िक्र भी उसको खुद अपनी फ़िक्र से  ज्यादा नहीं थी -- संक्षेप में कहें तो सुलतान सिर्फ अपने आप  में मगन था, बाकी सब दिखावा।



अब जब सुल्तान  सिर्फ अपने आप  में मगन था तो ज़ाहिर है रियासत और रियाया की ओर देखने और उनकी समस्याओं से हलकान होने की जरूरत ही क्या  थी।  दरअसल रियासत की जिम्मेदारी थी कि वह अपने सुलतान का ध्यान रखे ... इसी लिए सुलतान अपनी रियासत में कभी मुँह नहीं दिखाता, रियाया को सिर झुका कर उसके दरबार में हाज़िरी बजानी चाहिए।  रियासत के मायने सिर्फ और सिर्फ महल  था और इसके अन्दर वह  सब कुछ उपलब्ध था जिसकी सुलतान के जीवन में दरकार थी।




एक दिन का किस्सा है कि सुलतान अपनी सत्ता के  नशे में  इतना चूर हो गया कि खुद को दुनिया में सबसे ऊपर समझने लगा --- अपने सर्वोपरि होने की बात को सोच सोच कर वह बावलों जैसा बर्ताव करने  लगा और अपनी हुकूमत का रौब गाँठने के लिए बड़े ही फूहड़ ढंग से तमगों और ताज को टाँगे टाँगे यहाँ वहाँ घूमने लगा।



महल के पहरेदारों ने उसकी ओर कोई गौर नहीं किया -- उसकी वेश भूषा ही ऐसी थी --- और महल के अन्दर चक्कर काटता काटता वह मुख्य द्वार तक चला गया।  तमाम पहरेदार ड्यूटी पर तैनात थे पर उसको किसी ने पहचाना नहीं। बाहर निकल  कर सुल्तान शहर के अंदरूनी गली मुहल्लों में घुसता चला गया -- उन तमाम इलाकों और बस्तियों में जिनकी शकल उसने जिंदगी भर में नहीं देखी  थी।  उसके पाँव उन सम्भ्रांत इलाकों की ओर नहीं गए जिनमें रसूखदार और ऊँची खानदान वाले लोगों और राजदूतों की  रिहाइश थी। उस दिन उसकी किस्मत ऐसी थी कि उसको  गरीब गुरबों और तंग गन्दी बस्तियों में अन्दर दाखिल कराती गयी।



सड़क चलते लोगों को भी ऐसे अजीबोगरीब लिबास में गली मुहल्लों में घुसते जाते इंसान को देख देख के अचरज हो रहा था  -- उसके इर्द गिर्द कोई सिपाही भी नहीं था। अपना राजसी चोगा और ताज पहने और बड़े बेतरतीब ढंग से तमाम तमगे लटकाए हुए उसको सड़कों पर आगे बढ़ते  देख लोगबाग पीछे मुड़ मुड़  कर  कौतूहल से निहार रहे थे। आपस में कानाफूसी भी कर रहे थे कि जाने कहाँ से ये जमूरा भटकता हुआ उनके इलाके में आ धमका है -- बल्कि एक चौराहे पर तो हद ही हो गयी जब कुछ मनचले  नौजवान उसको घेर कर खड़े हो गए और आगे जाने से रोक दिया।



उनको उसका ऐसा फूहड़ और अजीबोगरीब पहनावा डाले देख कर बहुत मज़ा आ रहा था --- ख़ास तौर पर जब वह बहुरुपिया छेड़ते और चुहल करते लड़कों पर चिल्लाता और उनका सिर कलम कर देने के फरमान जारी करता ...और इधर उधर इस हैरानी के साथ देखता कि  उसकी रियाया की जुर्रत इतनी कैसे बढ़ गयी कि उसके हुक्म की तामील न करने पर आमादा हो गए। हाँलाकि मजलूमों के गली मुहल्लों में रहने वाले इन लड़कों को उसके हुक्म के सही मायने भी मालूम नहीं हो पा रहा था -- उनको ऐसी बातें सुनने की कभी कोई आदत नहीं रही। 



उसका हास्यास्पद रूप लोगों को हँसा और लुभा रहा था -- लोगों ने आपस में बात कर के यह निष्कर्ष निकाला  कि हो न हो यह आस पास के किसी गाँव शहर से आया हुआ बहुरुपिया या भाँड है इसी लिए कोई उस से गाने की फरमाइश करता तो कोई कूल्हे मटका कर नाचने का हुक्म देता। सुल्तान आखिर सुल्तान था ...वह भला ऐसे मनचलों के हुक्म कैसे और क्यों मानता। जब बार बार कहने पर भी वो नाचने गाने को तैयार नहीं हुआ तो एक नौजवान ने उसके गिरेबान थाम लिए। पर उसके हाथ पकड़ते ही नौजवान को महसूस हुआ कि उसका  बदन तो  बिलकुल पोपला और गुब्बारे जैसा गुलगुल था ...घबरा कर उसने अपने संगी साथियों को पास बुलाया और सुल्तान को छू कर देखने को कहा। उनको भी सुल्तान की चमड़ी खुद की रुखड़ी चमड़ी से एकदम अलग और मजेदार लगी ...उसकी हथेलियों भी बेहद गद्देदार और फूली हुई थीं जिनमें हड्डियों का कोई वजूद ही नहीं मालूम देता था। इस एकदम चकित कर देने वाले अनुभव से उन्होंने निष्कर्ष  निकाला कि सुलतान आदमी जैसा दिख भले ही रहा हो पर दरअसल इंसान नहीं कुछ और प्राणी था -- हो सकता है  किसी नयी नस्ल का उनके लिए अजनबी जानवर हो ...तो फिर क्यों न उसके बेहद मुलायम और चिकने  गोश्त का स्वाद चखा जाए? सो आस पास खड़े होकर तमाशा देखने वाले तमाम लोग आगे बढे और सबने दाँत लगा कर उसका मांस नोचना शुरू कर दिया -- देखते देखते भीड़ उस बेहद स्वादिष्ट गोश्त को चट कर गयी।मुफ्त की  ऐसी  मन भर कर खाने वाली दावत उनको और कहाँ नसीब होती।  



थोड़ी देर बाद अपने गुमशुदा  सुल्तान को ढूँढ़ते हुए सैनिक वहाँ  पहुँचे तो सब कुछ एकदम सहज सामान्य था जैसे कुछ हुआ ही न हो ... बस रहस्यमय ढंग से गुम  हो गए  सुल्तान का कोई सुराग कहीं नहीं मिला। 



  

यादवेन्द्र
                                 
सम्पर्क

72, आदित्य नगर कालोनी
जगदेव पथ, पटना 
800014


*Phone*: *+91  01332-283214*
*Fax*      *+91  01332-272272*
*Mob.*    *+ 09411100294*

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'