हरबंस मुखिया का आलेख मध्यकालीन भारतीय इतिहास की गतिशील रूपरेखा
समय के साथ अवधारणाएं कुछ इस तरह रुढ हो जाती हैं कि हमें यह पता ही
नहीं चल पाता कि इस के मूल में कौन से तथ्य हैं. एक दिलचस्प सच्चाई है कि भारतीय
इतिहास के मध्यकाल की परिकल्पना एक विदेशी आयात है. इस तथ्य की तरतीबवार पडताल की
है मध्यकालीन इतिहास के जाने माने इतिहासकार हरबंस मुखिया ने. यह आलेख अनहद-8 में
प्रकाशित हुआ है. दुर्भाग्यवश पत्रिका के इस अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख के शीर्षक में
ही ‘मध्यकालीन’ शब्द छूट गया है. पत्रिका में प्रूफ की कुछ
अन्य त्रुटियां भी रह गयी हैं. यहाँ प्रस्तुत आलेख में हमने उन त्रुटियों को दूर
करने की कोशिश की है. आज पहली बार पर प्रस्तुत है हरबंस मुखिया का आलेख ‘मध्यकालीन इतिहास की गतिशील रूपरेखा’.
मध्यकालीन भारतीय इतिहास की गतिशील रूपरेखा
हरबंस मुखिया
भारतीय इतिहास में ‘मध्य काल’ की परिकल्पना का कब और कैसे प्रवेश हुआ
– यह स्वयम एक दिलचस्प सवाल है। इस परिकल्पना की उत्पत्ति भारतीय तो नहीं है। यह
एक विदेशी आयात है। इसका यूरोप से उस समय आयात हुआ जब स्वयं यूरोप में और भारत में
तथाकथित मध्य काल का एक लम्बे अरसे पहले अन्त हो चुका था। यूरोप में सोलहवीं सदी से इतिहास काल के त्रिभाजन – प्राचीन, मध्यकालीन, आधुनिक – की
प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। यद्यपि इसका
औपचारिक स्वरुप सत्रहवीं सदी के लगभग अन्त तक, 1688 ई. में, उभर कर आया। प्रारम्भ
में ईसाई धर्म के इतिहास के सन्दर्भ में और क्रमशः सांसारिक इतिहास के विषय में यह
विमर्श विकसित हुआ।[i]
रेनेसांस के पश्चात् प्रबोधन (Enlightenment) तक यूरोप में एक स्वयं-छवि तैयार हुई जिसका
विशेष गुण ‘विवेक’ (Rationality) था जिसे आधुनिकता की संज्ञा
प्रदान की गयी। इस छवि के विपरीत, इसके ‘ग़ैर’ या ‘Other’ की परिकल्पना की गयी जिसे
‘मध्यकालीन’ की पहचान मिली जो विवेकहीनता, धार्मिकता, अन्धविश्वास आदि के समान
गुणों से स्थापित हुई। इस प्रकार ‘आधुनिकता’ और ‘मध्यकालीनता’ में अन्तर्विरोध की
स्थापना हुई। इसमें ‘मध्यकाल’ का कोई निजी अस्तित्व नहीं था; जो कुछ भी ‘अन’-आधुनिक था वह ही ‘मध्यकालीन’ हो गया। यदि
‘आधुनिक’ विवेकपूर्ण काल था तो मध्यकाल ‘अन्धकारमय’ (Dark age) था। क्या आज भी
इक्कीसवीं सदी में हम ‘मध्यकालीन’ और ‘अन-आधुनिकता’ और विवेकहीनता को अलग-अलग कर
पाते हैं जब रोजमर्रा के जीवन में हम सहज ही किसी के धार्मिक विचारों अथवा
जोर-जबरदस्ती को ‘मध्यकालीन’ मानसिकता करार देते हैं?
विश्व में यूरोप के विस्तार के फलस्वरूप इतिहास-काल के त्रिभाग की
अवधारणा का भी अन्तर्राष्ट्रीय विस्तार हुआ। यूरोप की बौद्धिक अवधारणायें उसके
व्यापार, झण्डे और शस्त्रों का पीछा करते-करते विश्व के लगभग हर कोने तक आ पहुँची।
अवधारणाओं के विस्तार का कारण सदा उनकी निश्चित उत्तमता नहीं थी बल्कि राष्ट्रों
में उभरता नया शक्ति-संतुलन था। भारत में इस त्रिकाल-विभाजन को एक नए रूप में
प्रवेश मिला। सन 1817-18 में जेम्स मिल ने भारतीय इतिहास को
हिन्दू-मुस्लिम-ब्रिटिश काल में विभाजित किया, जैसा कि हम सब जानते हैं। एक तरह से
यह इतिहास के अध्ययन में एक बुनियादी परिवर्तन का प्रेरक था और चिर-स्थायी था। इस
परिवर्तन की नींव में वही पूर्वाग्रह था जो प्रबोधन अन्धकार युग के द्वन्द्व में
निहित था। उपनिवेश तन्त्र की स्थापना से पहले भारत अन्धकार युग में जी रहा था,
अर्थात भारतीयों के जीवन की प्रेरणा उन्हें केवल धर्म से मिलती थी जिसने भारत को
इतना पिछड़ा बना कर रखा था। उपनिवेश तन्त्र ने भारत को इस जड़ता से रिहाई दिला कर
आधुनिकता की ओर अग्रसर किया। यहाँ संक्षेप में भारत के ‘हिन्दू’ और ‘मुस्लिम’ काल
के इतिहास लेखन की समीक्षा लाज़मी है।
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जेम्स मिल की धारणा के विपरीत अतीत के विषय में पूर्व कालीन भारतीयों
की चेतना कई धाराओं में प्रफुल्लित हुई थी। वास्तव में पूरी अट्ठारहवीं, उन्नीसवीं
व बीसवी शताब्दी के अधिकांश भाग में यूरोप के सबसे प्रमुख चिंतकों के ज़हन में एक
ही धारणा समाई हुई थी कि भारत के सम्पूर्ण अतीत में सिवाय राजवंशों के सिंहासन
परिवर्तन के और किसी प्रकार के सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी परिवर्तन का अभाव रहा है
जो कि इतिहास का सार है; फलतः भारतीयों में इतिहास-चेतना का अभाव रहा है। हम सब इन
दिग्गज चिंतकों – जैसे मोंटेस्क्यू, मिल, हेगेल, मार्क्स आदि के अक्सर उद्धरित
वक्तव्यों से बखूबी परिचित हैं कि यहाँ कुछ भी, यहाँ तक कि पैरहन, पोशाक तक में
हजारों वर्षों से कोई परिवर्तन नहीं आया है। परिवर्तन आया तो केवल उपनिवेशवाद की
ऊर्जा से। परिवर्तनहीनता निहित थी समय के गोलाकार में जिसे यूरोपीय चिंतकों ने न
केवल भारत, बल्कि सम्पूर्ण ‘पूर्व’ (Orient) से संलग्न कर दिया था जिसका विकल्प पश्चिम
(Occident) की समय की सीधी रेखाकार जैसी परिकल्पना थी। यूरोप ने इस प्रकार पुरजोर
ढंग से अपने ‘गैर’ को, पूर्व को, इतिहास से वंचित कर दिया।
समय के गोलाकार की, एवं परिवर्तन-हीनता की अवधारणा को एक अरसा पहले
ही भारतीय विद्वानों ने ध्वस्त कर दिया है। दार्शनिक अरविन्द शर्मा ने तो समय के
चक्राकार को हिकारत के साथ यह कह कर ख़ारिज कर दिया कि यह “इतना उलटा-पल्टा है कि
हमें भूल दिशा में ले जाता है।” वे आगे कहते हैं कि “समय की हिन्दू धारणा एकरंगी
नहीं है बल्कि एक बहुरंगी चित्र है। यह एक जटिल अवधारणा है जिसे केवल चक्राकारी कह
कर समझा नहीं जा सकता।[ii] अनिन्दिता
एन. बाल्सलेव का कथन है कि समय का गोलाकारी विचार हिन्दू बौद्धिक परम्परा का एकल
लक्षण न हो कर ‘किसी विशिष्ट ब्राह्मणवादी विचारधारा तक का लक्षण नहीं है; यहाँ तक
कि यह किसी वाद-विवाद का विषय भी नहीं है। उनके अनुसार हिन्दू दार्शनिक परम्पराओं
में अनेक विविधताएँ हैं।[iii] सन
1966 में वी. एस. पाठक और हाल में रोमिला थापर ने 2013 में पूर्वकालीन भारत में
अतीत की चेतना का न केवल अस्तित्व प्रदर्शित किया है बल्कि इस विषय में विवध
विचारों और कल्पनाओं से भी हमें परिचित कराया है। पूर्व कालीन (प्राचीन कालीन)
भारत में इतिहास का परीक्षण कई तरीकों से होता था; कभी धर्म के साथ संलग्न कर के,
कभी उससे अलग रख कर। यदि पाठक ने वैदिक और पौराणिक साहित्य के साथ चरित साहित्य को
बहुत सुन्दर ढंग से सम्मिलित कर के अतीत के परिप्रेक्ष्य उजागर किए तो थापर ने
व्यापक रूप से वैदिक ग्रन्थों, महाकाव्यों, शिलालेखों, नाटकों, जैन और बौद्ध
शास्त्रों और ऐतिहासिक घटनाओं के वर्णन के साथ कई सभ्यताओं की इतिहास परम्पराओं पर
लिखित प्रचुर संख्या में आधुनिक पुस्तकों का अध्ययन कर के अपने निष्कर्ष स्थापित
किए हैं।[iv]
दोनों विद्वानों ने पश्चिमी और भारतीय अतीत समीक्षा का अन्तर उजागर किया है। यह
दिलचस्प बात है कि थापर ने सदैव ‘प्राचीन’ भारत की जगह ‘पूर्वकालीन’ भारत का
प्रयोग किया है; वे यूरोपीय त्रिभाग प्राचीन, मध्यकालीन, आधुनिक – के जाल में नहीं
पड़ना चाहतीं।
यदि विद्वानों ने प्राचीन भारत में प्रचलित अतीत की अनेक धारणाओं और
धाराओं को इतनी स्पष्टता से प्रकाशित किया है तो मध्य काल में हमें इस विविधता में
कमी नजर आती है,
हालाँकि इसका यह अर्थ नहीं कि केवल एक ही रूप था। मध्य काल में इतिहास लेखन का
इस्लाम के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था यद्यपि यह कभी इस्लामी धर्म-शास्त्र का भाग नहीं
बना। तारीफ़ ख़ालिदी के अनुसार इस्लाम के प्रादुर्भाव से विश्व को न केवल एक नया
धर्म प्राप्त हुआ बल्कि इतिहास की एक नयी परिकल्पना भी मिली।[v] ऐसा नहीं कि इस्लाम के प्रादुर्भाव से पहले अरब
अशिक्षित थे; उनमें काव्य की उत्तम परम्पराएँ, वंशावली, पारिवारिक इतिहास और
लेखा-विधि (Accounting) अति विकसित थे और अरब अपने समय में सबसे अग्रिम अन्तर्राष्ट्रीय
व्यापारी थे। लेकिन इतिहास की परम्परा का उनमें अभाव था। इस्लाम में जन्म से ही यह
नजरिया निहित था कि निर्णय के दिन (Day Of Judgement) से पहले वह पूरी मानव जाति
तक विस्तृत हो जाएगा। विश्व के प्रति उसका एक परिपक्व रवैया था। इतिहास इसी का एक
गुण था। मुहम्मद की जीवन-गाथाओं से शुरू हो कर इस्लाम के विस्तार के वर्णन से होता
हुआ, विश्व-इतिहास की कल्पना का विकास हुआ जिसमें घटनाओं के तिथिक्रम पर बहुत जोर
दिया गया।
जैसे-जैसे इस नए विषय-विशेष का अरब क्षेत्रों से दूसरे क्षेत्रों में
– जिन्हें थोड़ी हिकारत से ‘अजम’ कहा जाता था जो कि ‘अरब’ क्षेत्रों के ‘गैर’ थे –
विस्तार हुआ,
इसके नए आयाम प्रज्ज्वलित हुए। यदि अरब दुनिया में इसका समाज और सभ्यता-केन्द्रित
आयाम था, फारसी सांस्कृतिक क्षेत्र में, जिसमें ईरान, अफगानिस्तान और एक सीमा तक
मध्य एशिया शामिल थे, इतिहास ने राजवंशों के इतिहास की शक्ल इख़्तयार की यद्यपि
यहाँ भी एकरूपता नहीं थी।[vi] भारत
में फ़ारसी परम्परा ने प्रवेश पाया क्योंकि 712 ई. में सिंध पर अरब आक्रमणकारी
मुहम्मद बिन क़ासिम के संक्षिप्त काल की विजय के बाद मध्य काल में राज्य का
दीर्घकालीन अस्तित्व उसी फ़ारसी सांस्कृतिक क्षेत्र से सम्बंधित था। जैसा कि हम
जानते हैं भारत की मध्य शताब्दियों में दरबार की भाषा और बौद्धिक अभिजात वर्ग की
भाषा फ़ारसी ही थी।
इस प्रकार मध्य काल में जो प्रचुर संख्या में इतिहास ग्रन्थ रचे गए
वे अधिकतर राज दरबार के इतिहास पर ही केन्द्रित थे जिनके लेखक अधिकतर राजदरबारी ही
थे। इन में से कुछेक के पास राजकीय पद भी थे लेकिन अधिकतर वे इतिहासकार ही थे तब
भी जब वे राज्य के कर्मचारी थे। इनके इतिहास लेखन में बादशाह केन्द्रीय चरित्र का
और लेखन उसके युद्ध, विजय, पराजय, विरोधी दरबारियों के साथ उसका व्यवहार, उसकी
शासन व्यवस्था, उसके निजी गुण और अवगुण आदि आदि का विवरण था। इस प्रकार एक ओर एक
क्षेत्रीय इतिहास भी कल्पना के स्तर पर विश्व-इतिहास का भाग था, विशेषकर उस विश्व
का, जहाँ इस्लाम स्थापित हो चुका था, दूसरी ओर लघु स्तर पर यह एक दरबार का ही
इतिहास था।
मध्यकालीन भारत में इतिहास लेखन की प्रक्रिया में इस्लाम हमेशा
प्रस्तुत था। प्रत्येक इतिहासकार अपने लेखन का आग़ाज़ अल्लाह की तारीफों से करता था।
जिसके बाद मुहम्मद की तारीफ़ें, कुछ पूर्व ख़लीफ़ाओं की, सुल्तानों की और अन्त में
अपने समकालीन बादशाह की तारीफ़ जिसके दरबार में वह इतिहास लेखन कर रहा है। तिथिक्रम
के लिए अधिकतर हिजरी सन का ही इस्तेमाल किया गया। इनमें अकबर का दरबारी मित्र और
इतिहासकार अबुल फ़ज़्ल एक महत्त्वपूर्ण
अपवाद था। शेष इतिहासकारों ने जिस भाषा का प्रयोग किया वह इस्लामी धर्म-शास्त्र और
इतिहास से गृहित भाषा थी। इन इतिहास ग्रन्थों में एक निहित धारणा थी जो इस्लाम की
बुनियादी धारणाओं में से एक थी : ऐतिहासिक समय का इस्लाम-पूर्व और इस्लाम पश्चात
का विभाजन, जब इस्लाम के प्रादुर्भाव से पूर्व जहलियत का प्रचलन था और इस्लाम के
प्रादुर्भाव से जहालियत का अन्त हुआ जब इतिहास की शुरुआत हुई। कुछ अपवादों को छोड़
कर मध्यकालीन भारत में जितने इतिहास ग्रन्थ लिखे गए उनमें से अधिकतर इसी धारणा के
तहत यहाँ इस्लाम के आगमन के बाद से ही अपना लेखन आरम्भ करते हैं और इससे पूर्व के
इतिहास को नज़रअंदाज़ करते हैं।
फिर भी मध्यकालीन यूरोप के विपरीत, भारत में इतिहास-लेखन
धर्म-शास्त्र का भाग नहीं रहा।[vii]
दूर-दूर तक नहीं। यूरोप में यह काम चर्च की चारदीवारी के भीतर पादरियों द्वारा
किया जाता था। इतिहास का आधार यह मान्यता थी कि ऐतिहासिक घटनाओं के द्वारा ईश्वर
अपनी इच्छा-शक्ति व्यक्त करता है। सम्पूर्ण अतीत, वर्तमान और भविष्य एक इकाई है और
इतिहास की प्रत्येक घटना शेष समस्त घटनाओं से संलग्न है। कुछ अन्य आवाज़ें भी थीं
लेकिन इन सब पर पादरियों की आवाज़ ही हावी थी। इतिहास दृढ भाव से क्रिश्चियन
धर्म-शास्त्र के भीतर स्थित था।[viii]
मध्यकालीन भारत में इतिहासकार राजदरबारी थे तब भी, जब वे, मुल्ला
अब्दुल क़ादिर बदायूनी की तरह धर्मशास्त्री थे।
इतिहास लेखन अलग-अलग ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण
था जिसमें हर घटना अपने आप में एक स्वतन्त्र इकाई थी जिनका कारक मानव की,
व्यक्तियों की इच्छा-शक्ति थी जिनमें शासक की इच्छा शक्ति सब से महत्त्वपूर्ण थी। व्यक्ति की
इच्छा शक्ति के स्थान पर कहीं कहीं
व्यक्ति का स्वभाव भी ले लेता था जो घटनाओं का कारक बन जाता है। यही कारण है कि
हमें बड़े शक्तिवान शासक और बहुत कमजोर शासकों की छवि, या उदार या कट्टर
बादशाहों की छवि प्राप्त होती है जिनके शासन काल में घटित घटनाओं में उनके
स्वभाव का अक्स प्रकट होता है।[ix]
अलाउद्दीन ख़ल्जी जैसा शक्तिशाली शासक बहुत
दूर दूर तक के क्षेत्रों पर कब्जा कर लेता है और अपने साम्राज्य का विस्तार
करता है; दूसरी ओर
फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ जैसा कमजोर शासक विरासत में मिले
साम्राज्य के क्षेत्र में ही संतोष कर लेता है। उसके उत्तराधिकारी तो उससे भी
कमजोर निकलते हैं और देहली सल्तनत के कई टुकड़े हो जाते हैं। इसी प्रकार
अट्ठारहवीं सदी में महान मुग़लों (Great Mughals) का समय
औरंगजेब की 1707 में मृत्यु के साथ समाप्त होने के बाद कमजोर बादशाहों
के चलते साम्राज्य का विघटन घटित हुआ।
मुहम्मद बिन तुग़लक़ की शासक के रूप में नाकामी की लगभग
शास्त्रीय व्याख्या ज़ियाउद्दीन बरनी ने चौदहवीं सदी के मध्य में दी थी जो आज
भी उद्धरित होती रहती है : उसके
स्वभाव में विरोधी भावनाओं के असंतुलित
मिश्रण में ही उसकी नाकामी निहित थी।
इतिहास की इस
व्याख्या में घटनाओं को परखने का केवल एक ही उपाय नहीं था जैसा कि मध्यकालीन
यूरोप के इतिहास लेखन में था। हर व्यक्ति के स्वभाव के अन्तर के कारण इसमें
हर घटना क्रम के अलग अलग कारण निहित थे।
जेम्स मिल द्वारा भारतीय इतिहास काल का ‘हिन्दू’ व ‘मुस्लिम’ काल में
विभाजन एक सीमा तक परिचित आधार पर खडा था
जो उसे मध्यकालीन इतिहास ग्रन्थों से हासिल हुआ था। किन्तु इस
सीमित परिचित आधार को उसने पूर्ण रूप से परिवर्तित कर दिया। जहाँ व्यक्तियों की
इच्छा शक्ति और स्वभाव से घटनाओं की अनेक व्याख्याएँ प्राप्य थीं, वहाँ मिल ने
केवल एक व्याख्या को स्थापित कर दिया जिसका आधार व्यक्तियों या शासकों का स्वभाव
नहीं बल्कि उसका धर्म था। अब शासक का हस्तक्षेप उसकी इच्छा शक्ति या स्वभाव से
नहीं बल्कि उसके उसके धर्म से प्रेरित था। यूरोप के अन्धकार युग की यहाँ
पुनर्स्थापना हो रही थी। एक विशाल देश के अनेक सदियों के इतिहास, जिसमें शासकों की
विशाल श्रृंखला का फैलाव था, की एक विन्दु पर स्थापना कर दी गयी।
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1950 के, यहाँ तक कि 1960 के दशक
तक भारतीय इतिहास के अध्ययन का यही ढांचा चलता रहा हालाँकि इसमें कुछ-कुछ परिवर्तन
भी होते रहे। इसमें दो प्रकार के प्रभाव मुख्य थे : अनुभववाद (Empiricism) और
प्राथमिक स्रोतों की साक्षियों की प्रकृति, अर्थात दरबारी इतिहास और मिल द्वारा
रचित रुपरेखा। अनुभववाद, जिसका विकास यूरोप, विशेषकर ब्रिटेन में हुआ था, का
विशिष्ट गुण था प्राथमिक स्रोतों में मिली साक्षियों के पद चिन्हों पर चलते रहना।[x] मध्यकालीन भारत के सन्दर्भ में दरबारी इतिहास
ही वह प्राथमिक स्रोत का दर्जा हासिल कर सके; अक्सर उन्हें आधिकारिक स्रोत
(Authority) की संज्ञा दी जाती थी। इनमें दर्ज हुई हर सूचना को वस्तुपरक सत्य
(Objective Truth) मान लिया गया हालांकि उनमें से चयन किए गए तथ्यों को ही अपने
लेखन में सम्मिलित किया जाता था।
अतः हर स्तर पर इतिहास-लेखन और
अध्ययन का फ़ोकस शासकों, दरबार और दरबारियों के कारनामों पर ही रहता था। यह दिलचस्प
बात है कि वर्षों तक किसी एक शासक वंश पर दो पुस्तकें नहीं लिखीं गयीं। मध्यकालीन
इतिहास का अध्ययन सदैव ही ए. बी. एम. हबीबुल्लाह की पुस्तक The Foundation of Muslim Rule in India से
शुरू होता था जिसमें ‘मुस्लिम’ काल के पहले शासक वंश, मामलुक वंश, जिसे भूल से दास
वंश भी कहा जाता है, के कारनामों का विवरण है। इसके बाद के. एस. लाल की A History
of the Khaljis, जिसके बाद आगा मेहदी हुसैन की The Tughlaq Dynasty आदि। मुग़ल काल
आते-आते या तो राजवंश का सामान्य इतिहास, जैसे आर. पी. त्रिपाठी की The Rise and
Fall of the Mughal Empire जिसमें हर शासक पर अलग-अलग अध्याय थे या फिर शासक विशेष
पर केन्द्रित पुस्तकें लिखी गयीं। इन सब में इतिहास का एक मानक प्रारूप था : एक नए
राजवंश या नए शासक की प्राथमिक समस्याएँ, दरबार के उच्च स्तर के अधिकारियों पर नियन्त्रण
के लिए उपाय, युद्ध, विजय, प्रशासनिक क़दम और अन्त में शासक की मृत्यु, जिसके
पश्चात फिर एक नया शासन काल। इन सबके लिए एक ही प्रकार के स्रोतों से सूचनाएँ
प्राप्त होती थीं : अधिकतर दरबारी इतिहास और यहाँ-वहाँ कुछ अन्य स्रोत। अतः जब
किसी राजवंश पर पुस्तक लिखी जा चुकी थी तो दूसरी किसी पुस्तक की जगह नहीं बचती थी।
प्रोफ़ेसर नुरुल हसन हँस कर कहा करते थे कि वास्तव में तो सब किताबें समान ही होती
हैं। केवल उनमें शासकों के नाम और उनके गद्दी पर बैठने या गद्दी से उतारे जाने की
तारीख़ें अलग होती हैं।
कुछ अपवाद भी थे जो अर्थव्यवस्था
या संस्कृति के क्षेत्र में स्थित थे। डब्ल्यू. एच. मोरलैंड की Agrarian System of
Moslem India, India at the Death of Akbar, From Akbar to Aurangzeb उत्तम स्तर
के प्रयत्न थे, यद्यपि
अध्ययन का प्रारूप वही ‘मुस्लिम’ और शासन काल ही रहा। वाणिज्य के इतिहास ने भी सर
शफ़ात अहमद ख़ान जैसे शीर्ष इतिहासकारों का ध्यान आकर्षित किया जिन्होंने East India
Trade in the XVII Century in its Political and Economic Aspects जैसी मानक
पुस्तक प्रकाशित की; इसकी सूचनाएँ उन्होंने यूरोपीय स्रोतों और दस्तावेजों से
एकत्र कीं। और ताराचंद की Influence of islam
on Indian Culture ने राजवंश इतिहास से पृथक एक नया विमर्श स्थापित किया।
मैंने ऊपर संकेत दिया है कि जहाँ
एक ओर इतिहास के विश्लेषण में ‘मुस्लिम’ श्रेणी का प्रयोग प्रचलित था यहाँ तक कि
उनकी पुस्तकों के शीर्षक में और पाठ में अक्सर पाया जाता था, दूसरी ओर इसके आम
इस्तेमाल के साथ ही इसके एकल अर्थ में सूक्ष्म परिवर्तन भी होते रहे, उस एकल अर्थ
में जो जेम्स मिल और उसके पश्चात ईलियट और डाउसन ने स्थापित किया था। ए. बी. एम.
हबीबुल्लाह की The Foundation of Muslim Rule in India उन अनेक समझौतों पर प्रकाश
डालती है जो देहली सल्तनत की स्थापना के बाद प्रशासन व्यवस्था के प्रचालन के लिए
ज़मीनी धरातल पर हो रहे थे – समझौते जो मुस्लिम विजेताओं और उनके आगमन के पूर्व से
सुदृढ़ हुए हिन्दू प्रशासकीय वर्ग के दरम्यान आम तौर पर हो रहे थे। हबीबुल्लाह की
नज़र इस पर भी पडी कि कैसे शासक वंश में भी, जो अपने तुर्की मूल का संरक्षक माना
जाता था, भारतीय संस्कृति का प्रभाव बढ़ रहा था। सुलतान बलबन, जो अपने तुर्की रक्त
को धन, शक्ति, साधन, स्तर आदि हर चीज़ पर प्राथमिकता देता था, ने इस बात पर गौर भी
नहीं किया कि उसके अपने भतीजे का नाम मालिक छज्जू था जो कि शुद्ध भारतीय नाम था;
और मुहम्मद बिन तुगलक़ के सुलतान बनने के पहले का नाम मालिक जून्हा था जो चन्द्रमा
का हिन्दी पर्याय था। लगभग सभी इतिहासकार इस बात से परिचित थे कि राज्य का इस्लामी
चरित्र प्रशासनिक सत्ता के स्तरों पर पूर्व स्थापित गैर-इस्लामी तत्वों के साथ हुए
समायोजन से सीमित हो गया था। आर. पी. त्रिपाठी की शीर्ष कोटि की कृति Some Aspects
of Muslim Administration in India, जिसका फ़ोकस देहली सल्तनत ही था, ‘मुस्लिम’
शब्द की बारीकियाँ स्पष्ट करती हैं। एक अरसे से चले आ रहे विवाद- कि क्या मध्यकालीन
भारत की राज्य-व्यवस्था को इस्लामी धर्म तन्त्र की संज्ञा दी जा सकती है या नहीं –
से अलग-अलग उत्तर पाए गए। इन विविध उत्तरों को हाल में और अधिक गहन शोध से और अधिक
शक्ति और जटिलता मिली है।[xi]
‘अदृश्य तौर पर किन्तु अपरिहार्य गति के साथ एक भारतीय मुस्लिम समाज की रचना हो
रही थी और देहली सल्तनत एक तुर्की राज्य से भारतीय-मुस्लिम राज्य की ओर अग्रसर हो
रहा था।’ हबीबुल्लाह के इस वक्तव्य की तिथि 1945 है।[xii]
इसके लगभग छः दशक पश्चात यही दृष्टि रजत दत्ता के शब्दों में झलकती है : ‘आपसी
मुठभेड़ और राजनैतिक समायोजन साथ-साथ चलते दिखते हैं।’[xiii]
मध्यकालीन भारत का आधुनिक इतिहास
लेखन अपनी अधिकतर यात्रा में राज्य पर ही केन्द्रित था। राज्य, जिसे शासक या शासक
वंश के रूप में ही देखा गया, उन सब घटनाओं का प्रेरक था जिनको मिला कर इतिहास रचना
होती थी। यदि आर्थिक व्यवस्था पर भी चर्चा होती थी तो वह भी शासन काल या शासक वंश के
सन्दर्भ में ही होती थी। सर जदुनाथ सरकार के औरंगज़ेब और मुग़ल साम्राज्य के पतन पर
स्मरणीय ग्रन्थ इतिहास लेखन की इस विधा को अपनी चरम सीमा तक ले जाते हैं। उनमें
समावेश किए गए साक्षियों की मात्रा को अभी तक कोई और अन्य इतिहासकार पार नहीं कर
सका है।
राज्य और शासक या शासक वर्ग पर
पूरा फ़ोकस उन दो प्रेरणाओं की ओर ध्यान आकर्षित है जिसका जिक्र हम ऊपर कर चुके हैं।
अनुभववाद (Empiricism) और जेम्स मिल द्वारा काल विभाजन, उसमें समाविष्ट बारीकियों
के साथ भी। दरबारी इतिहास ग्रन्थों व दस्तावेज़ों से प्राप्त ‘तथ्य’, जिनको
वस्तुपरक मान कर ‘मुस्लिम’ काल के सांचे में ढाल कर प्रस्तुत करना ही इतिहास-लेखन
की पराकाष्ठा थी; इसमें शासक के चरित्र, स्वभाव और मनोदशा और उसके समर्थकों अथवा
विरोधियों के स्वभाव आदि ही इतिहास में निर्मित सब तनावों और परिवर्तनों के कारक
थे। लेकिन यही ‘वस्तुपरक तथ्य’ अगर एक ओर औपनिवेशिक इतिहासकारों को मुस्लिम शासकों
द्वारा हिन्दू प्रजा पर अनन्त अत्याचारों की गाथा बयान कर रहे थे तो दूसरी ओर
भारतीय इतिहासकारों को इनमें मिश्रित तस्वीर नज़र आ रही थी जिसमें अत्याचारों के
साथ-साथ मेल-जोल और सम्भाव की तस्वीर भी उभरती थी। इसमें सामाजिक, धार्मिक,
सांस्कृतिक और राजनैतिक-प्रशासनिक स्तरों पर हिन्दू और मुस्लिम साझे संबंधों में
संलग्न थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में स्थित मध्यकालीन
इतिहासकारों की उत्कृष्ट श्रृंखला, जिनका अपने विषय-विशेष में नेतृत्व स्थापित हो
चुका था, ने इस ‘मिश्रित संस्कृति’ (Composite Culture) के परिप्रेक्ष्य का बहुत
सुदृढ़ प्रतिज्ञापन किया हालाँकि उनके साथ अन्य उच्च कोटि के विद्वान् भी इस
परिप्रेक्ष्य के हामी थे जैसे अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर मुहम्मद
हबीब।[xiv]
महान साम्राज्यों के साथ लगाव और इतिहास का सीधा, रेखाकार विवरण ही अधिकतर
इतिहासकारों का नियम था।
क्षेत्रीय इतिहास-लेखन, विशेषकर बंगाल,
अवध और दक्कन के इतिहास लेखन में लगभग यही प्रारूप निहित था।
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1950 और 1960 के मध्य दशक में
इतिहास ने एक नया मोड़ लिया जो कुछेक स्व-घोषित मार्क्सवादी इतिहासकारों के
हस्तक्षेप का फल था। 1956 में प्रकाशित
डी. डी. कोसंबी की पुस्तक An Introduction to the Study of Indian History ने
इतिहास लेखन के परिप्रेक्ष्य में मूलभूत परिवर्तन कर दिया जिसे अंग्रेजी में
Paradigm shift कहा जाता है। यद्यपि इस पुस्तक का अध्ययन क्षेत्र प्राचीन भारत था
किन्तु इसका प्रभाव भारतीय इतिहास के हर काल के अध्ययन पर पड़ा। इसके तीन वर्ष के
अन्तर में एक नवयुवक इतिहासकार इरफ़ान हबीब ने दो भागों में एक निबंध Enquiry नामक
शोध पत्रिका में प्रकाशित किया। दरअस्ल यह उनकी पुस्तक The Agrarian System of
Mughal India (1963 में प्रकाशित) का अन्तिम अध्याय था। हम में से, मुझ जैसे
व्यक्ति जो 1956 से 1960 तक देहली
विश्वविद्यालय में बी. ए. और एम. ए. का छात्र था, को जो इतिहास दृष्टि जदुनाथ
सरकार से प्राप्त हुई थी जिसमें मुग़ल साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण औरंगज़ेब की
कट्टर धार्मिक नीति ही को स्थापित किया जाता था, एकाएक इतिहास का नया क्षितिज नज़र
आने लगा, इतिहास को देखने की एक बिल्कुल नई दृष्टि मिल गयी जो हमारी कल्पना से
बहुत दूर थी और जिसने हमें पूर्णतः अभिभूत कर दिया। पहली बार हमें अंदाजा हुआ कि
अकबर की उदारता और औरंगज़ेब की कट्टरता, शासकों का शक्तिशाली या कमज़ोर होना अथवा
उनके व्यक्तिगत स्वभाव, गुण और दोष – यह सब इतिहास के केन्द्र से एकाएक हाशिये पर
आ गए। जो केन्द्र में स्थापित हुआ वह राज्य-शासन व्यवस्था का ढांचा, उसका
वर्ग-चरित्र और उसका अपने किसानों के साथ द्वंद्वात्मक सम्बन्ध जिनमें परस्पर
संघर्ष अपरिहार्य था। साम्राज्य का पतन कृषक वर्ग के विद्रोहों का परिणाम था; यह
परिणाम था पूर्ण व्यवस्था में अन्तर्निहित अन्तर्विरोध का; इसे एक नर्म-दिल
औरंगज़ेब भी सुरक्षित नहीं रख सकता था।
1965 में आर. एस. शर्मा की महत्त्वपूर्ण
कृति Indian Feudalism का प्रकाशन हुआ। यद्यपि इसकी ज़मीन हबीब की Agrarian System
से बिल्कुल अलग थी, फिर भी उसी की तरह Indian Feudalism ने भी राज्य और समाज दोनों
की संरचना को प्रकाशित किया और बहस का मुद्दा बनाया। औपनिवेशिक इतिहास-विधि को
पीछे रख, इतिहास लेखन का एक नया दरवाज़ा खुला। विरासत में मिले ज्ञान पर अनेक
प्रश्न-चिन्ह लगाए जा रहे थे।
इसका एक परिणाम यह हुआ कि
इतिहास-काल के प्राप्त त्रिभागीय विभाजन का संशोधन होने लगा। मिल के
‘हिन्दू-मुस्लिम-ब्रिटिश’ विभाजन का नामकरण हुआ ‘प्राचीन-मध्यकालीन-आधुनिक’। यह
नया शीर्षक सबसे पहले ब्रिटिश इतिहासकार स्टेनले लेनपूल ने 1903 में अपनी पुस्तक Mediaeval India
under Mohammedan Rule (A. D. 712-1764) में प्रयुक्त किया। हालाँकि तीनों कालों
की सीमाएँ बरकरार रहीं।[xv] इस
विभाजन का आधार, शासक के धर्म की पहचान भी अपरिवर्तित रहा और शासक वंश अभी भी
इतिहास के केन्द्र में बना हुआ था। मार्क्सवादी इतिहासकारों के हस्तक्षेप ने अब
ध्यान राज्य-व्यवस्था, सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं की ओर आकर्षित किया जहाँ इतिहास
की सक्रियता शासक वंश के इतिहास की सक्रियता से बिल्कुल अलहदा होती है। पहले,
प्राचीन भारत का इतिहास जहाँ से शुरू करना चाहें, वैदिक काल से, और 1920 के दशक
में हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की महत्त्वपूर्ण खोज के बाद प्राग ऐतिहासिक काल से शुरू हो
कर हर्ष की 647 ई में मृत्यु के आस-पास खत्म हो जाता था। मध्य-काल महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण
लगभग 1000 ई के आस-पास या फिर देहली सल्तनत की स्थापना 1206 ई. से शुरू हो कर 1707
ई में औरंगज़ेब की मृत्यु तक चलता था और आधुनिक काल 1765 से, जब ईस्ट इंडिया कंपनी
को बंगाल में दीवानी हासिल हुई थी, इतिहासकार के लेखन के समय तक, या आज़ादी के बाद
1947 तक खिंचा आता था। हर्षवर्धन और महमूद गज़नवी य मुहम्मद ग़ोरी के बीच और दूसरी
ओर 1707 और 1765 के बीच के काल पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था यद्यपि
अट्ठारहवीं सदी पर फिर भी थोड़ा बहुत लेखन हुआ; काल का यह मानक-विभाजन बन चुका था।
इस नए प्रकार के ‘सामाजिक-आर्थिक
इतिहास’- जो इस का नया शीर्षक बन गया था – से स्थापित त्रिभागी सीमाओं में संशोधन
होने लगे। यदि ‘पूर्व मध्य काल’ का प्रयोग आर. एस. शर्मा से पहले भी शासक वंश के
इतिहास के सन्दर्भ में हो चुका था[xvi],
उनकी भारतीय फ्यूडलिज़्म[xvii] की
अवधारणा ने इसे पुनर्भाषित किया और इसे एक नयी गति प्रदान की जिसका सन्दर्भ
आर्थिक, प्रशासनिक यहाँ तक कि सामाजिक शक्तियों का पुनर्वितरण था जो उनके अनुसार फ्यूडलिज़्म
के प्रसार से जमीन पर हो रहा था। यह प्रक्रिया गुप्त काल के पश्चात शुरू हुई और
अपने शीर्ष तक उन्हीं शताब्दियों में पहुँची जिनको इतिहासकार नज़र अन्दाज़ कर चुके
थे। लगभग ग्यारहवीं सदी से असल मध्य काल आरम्भ हुआ, हालांकि प्रोफ़ेसर शर्मा इन
दोनों के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहते। अट्ठारहवीं शताब्दी के इतिहासकारों ने उतना
नज़र अंदाज़ नहीं किया था, जितना हर्ष-उपरान्त काल को और इस सदी के राजनैतिक,
आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पक्षों के कुछेक अध्ययन हुए थे, लेकिन उनमें, एक के
अपवाद के साथ[xviii]
सब में एक ही दृष्टि-छाया निहित थी – व्यापक पतन की छाया। दिलचस्प बात है कि यह
छाया भारत के राष्ट्रवादी, औपनिवेशिक और मार्क्सवादी – तीनों विचारधाराओं के
अनुयायी इतिहासकारों पर हावी थी। अभी पिछले कुछ दशकों में इस दृष्टि-छाया में
संशोधन आया है जिसकी शुरुआत सी. ए. बेली की उत्कृष्ट कृति Rulers, Townsmen And
Bazaars से हुई; बेली को अट्ठारहवीं शताब्दी के भारत में काफ़ी हलचल और गतिशीलता
नज़र आयी। यहाँ तक कि मुग़ल साम्राज्य के ‘पतन’ पर भी पुनर्विचार हुआ है जो महत्त्वपूर्ण
है।[xix] इन
सब पुनर्विचारों से मध्य-काल का एक लाभ यह हुआ है कि इसकी समय सीमा का दोनों ओर
विस्तार हुआ है; अब इसकी सीमाओं में आठवीं से अट्ठारहवीं सदी तक एक हजार वर्ष
समाहित हो जाते हैं, यद्यपि एक
रेखा की तरह नहीं बल्कि अलग-अलग भागों में।[xx]
फिर भी, जहाँ
प्राचीन-मध्यकालीन-आधुनिक काल की सीमाएँ कुछ लचीली हो चुकी थीं किन्तु यह
त्रिभागीय विभाजन बरक़रार रहा और अब भी है। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि हालाँकि
इतिहास के केन्द्र से शासक-वंशों और शासकों को विस्थापित किया जा चुका है लेकिन
राज्य और राज्य-व्यवस्था अभी भी केन्द्र में स्थित है।
5
1980 के दशक तक आते-आते दुनिया, और
उसके साथ इतिहास की दुनिया भी फिर एक नए मोड़ पर आ
खड़ी हुई थी। न केवल मार्क्सवाद की सैद्धान्तिक ख़ामियाँ, खास तौर पर उसकी
आर्थिक नियतिवाद (Economic determinism) में निहित ख़ामियां
उभर कर आ रही थीं, बल्कि इसका
भारतीय इतिहास के विश्लेषण में अक्सर अविवेकी संप्रयोग से भी समस्याएं उत्पन्न हो
रही थीं। आर. एस. शर्मा की भारतीय फ्यूडलिज़्म की परिकल्पना, जिसे मार्क्सवादी
परिप्रेक्ष्य की संज्ञा दी जा रही थी, वास्तव में यूरोप में विकसित और पतित फ्यूडलिज़्म
की आंरी पिरेन (Henri Pirenne) द्वारा प्रतिपादित परिकल्पना के अनुरूप थी जिसे
प्रोफ़ेसर शर्मा ने कार्बन कॉपी की तरह भारतीय तथ्यों और साक्षियों पर चस्पा कर
दिया। दिलचस्प बात यह है कि पिरेन मार्क्सवाद का कट्टर विरोधी था। मार्क्स और
एंगेल्स ने वाणिज्य और फ्यूडलिज़्म में कोई अन्तर्विरोध नहीं पाया और वाणिज्य को
प्रत्येक उत्पादन व्यवस्था के साथ सुसंगत और अनुरूप पाया; वाणिज्य को किसी भी
उत्पादन व्यवस्था का विघटक नहीं पाया। वास्तव में एंगेल्स ने पूर्वी यूरो में
पंद्रहवीं सदी से वाणिज्य के प्रसार को ‘दूसरे सर्फ़डम’ (Second Serfdom) का कारण
माना; ‘सर्फ़डम’ उनके लिए फ्यूडलिज़्म का ही पर्याय था। अब तक काफ़ी साक्ष्य जमा हो चुके
हैं जो यह स्थापित करते हैं कि उस क्षेत्र में सत्रहवीं और अट्ठारहवीं सदी में
वाणिज्य को प्राप्त पुनर्जीवन से ही फ्यूडलिज़्म को भी पुनर्जीवन मिला।[xxi] वाणिज्य-फ़्यूडलिज्म
का अन्तर्विरोध पिरेन की परिकल्पना में केन्द्रीय था और
प्रोफ़ेसर शर्मा की परिकल्पना में भी। रुचिकर बात यह है
कि प्रोफ़ेसर शर्मा ने इस परिकल्पना को तब अपनाया जब यूरोप में इस 'पिरेन थीसिस' को ख़ारिज
किया जा चुका था।[xxii] इरफ़ान हबीब की
मुग़ल साम्राज्य के पतन की वैकल्पिक व्याख्या भी एक यूरोपीय उदाहरण से प्रेरित
थी, मौरिस डॉब्ब
के यूरोप में फ़्यूडलिज्म के पतन की व्याख्या से और यह उस
समय जब अब्ब की व्याख्या पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक प्रश्न उठ रहे थे।[xxiii]
पुनरावलोकन करने से लगता है कि प्रोफ़ेसर शर्मा और प्रोफ़ेसर हबीब मार्क्स और
एंगेल्स की बजाय पिरेन और डॉब्ब का अधिक अनुगमन कर रहे थे।
उधर तथ्यों की समस्या भी थी। प्रोफ़ेसर शर्मा के
फ़्यूडलिज्म का आधार उन ज़मीनों का अनुदान था जो शासक बिचौलियों को देते थे; अक्सर ज़मीन के और राजस्व के अनुदान के
अन्तर पर ध्यान नहीं दिया जाता था जो कि इस पूरी परिकल्पना के लिए घातक
सिद्ध हो सकता था। यह भी कि पूरी फ़्यूडल व्यवस्था की स्थापना प्रशासनिक आदेश से मुकम्मल की जा
सकती है - यह कुछ कमज़ोर धरातल पर स्थित है। यहाँ प्रोफ़ेसर शर्मा पिरेन के अपनाए रास्ते से
ज़रा हट कर चलते हैं। पिरेन के
फ़्यूडलिज्म का विकास जमीनी धरातल पर हुआ था जब स्थानीय वाणिज्य तो जारी रहा
किन्तु दूरी के वाणिज्य में रुकावट आ चुकी थी; इसमें प्रशासनिक हस्तक्षेप का कोई स्थान नहीं था।
जब प्रोफ़ेसर शर्मा की Indian
Feudalism को गम्भीर
चुनौती मिली (Was There
Feudalism In Indian History?) और उस पर विशाल अन्तर्राष्ट्रीय बहस चली तो प्रोफ़ेसर शर्मा ने
इस ख़ामी को सुधारने की प्रशंसनीय
चेष्टा की लेकिन साक्षियों की सीमा के कारण समस्या का समाधान नहीं हो सका।[xxiv]
प्रोफ़ेसर हबीब द्वारा रचित जागीरदारों के विरुद्ध कृषक
जमींदार गठबंधन का विशाल ढांचा
और उनके अपरिहार्य वर्ग संघर्ष के लिए दरबारी इतिहास, प्रशासनिक दस्तावेज - जो सब सरकारी
नियमों के संकलन थे - और यूरोपीय यात्रियों द्वारा लिखित यात्रा-विवरण आदि पर आधारित
था, जिसकी धारणा थी कि दोनों ओर
समान आर्थिक हितों की रक्षा का स्वार्थ था। नियमों के विवरण और ज़मीनी वास्तविकता में अधिकतर बहुत
अन्तर होता है। अपनी Agrarian
System के संशोधित
आवरण में हबीब साहब ने वृन्दावन के कुछ दस्तावेज़ों को भी इस्तेमाल किया है जो
फ़ारसी भाषा में नहीं हैं। लेकिन आर्थिक-हितों को सर्वोपरि रखने में
प्रोफ़ेसर हबीब उन जाति बन्धनों से बेख़बर रहे जो आर्थिक हितों से बाधित नहीं होते।[xxv] यह
भी एक प्रकार की एकल कारक व्याख्या ही थी।
और फिर 1980 और 90 के दशकों में इतिहास के ऐसे विषयों
पर चर्चा होने लगी थी जिन पर मार्क्सवादी सिद्धान्त नाकाफ़ी उतरते थे। प्रत्यक्षवादी/
मार्क्सवादी (Positivist/ Marxist) धारणा कि इतिहास के तथ्य वस्तुपरक होते हैं, पर
गम्भीर प्रश्न उठ रहे थे। ‘तथ्य’ वास्तव में मनुष्य के मस्तिष्क में, उसकी याद में
पैठ जाते हैं, जहाँ से उन्हें पुनः प्राप्त किया जाता है; इसलिए उनके वस्तुपरक
होने की दावेदारी काफ़ी कमज़ोर होती है। प्रत्यक्षवाद और मार्क्सवाद की एकल
निश्चितता का स्थान अब व्याख्याओं की विविधताओं ने ले लिया और उस निश्चितता में
लचीलेपन की झलक नज़र आने लगी। 1990 के पश्चात, और विशेषकर इक्कीसवीं सदी में अध्ययन
के जो नए विषय उभर कर सामने आए उनकी प्रकृति में ही विविध विश्लेषणों की संभावनाएँ
निहित थीं। ये विषय अधिकतर संस्कृति के क्षेत्र में थे : अतीत बोध, समय की अवधारणाएँ,
पर्यावरण, लैंगिकता, मोहब्बत, दरबारी संस्कृतियाँ, पौराणिक कथाएँ, धार्मिक एवं
अन्य उत्सव, धार्मिकता के गतिशील रूप, समुदायों अथवा क्षेत्रों की परिवर्तनशील
पहचान आदि आदि। सन 1999 में एक प्रयोग ने मुग़ल राज्य-तन्त्र में पौरुष
(Masculinity) की छाप पायी जिसने अन्य धार्मिक, सामुदायिक, क्षेत्रीय आदि समरूपता
पर तरजीह पा ली थी; 2015 में एक अन्य शोध में ‘अट्ठारहवीं सदी में राजनैतिक एवं
सांस्कृतिक क्षेत्र में नारीत्व के प्रभाव में विस्तार हुआ है।’[xxvi]
इतिहास अध्ययन के स्रोतों में भी प्रभावशाली विस्तार हुआ। एक महत्त्वपूर्ण दिशा का
भी प्रकटन हुआ। साहित्य का इतिहास का प्रारूप (Literature as History) अभी तक
इतिहासकार साहित्य को अपना एक स्रोत मान रहे थे जिनमें परस्पर स्तरीयकरण का
सम्बन्ध था। हाल में कई एक महत्त्वपूर्ण प्रयत्न हुए हैं जिन्होंने साहित्य को एक
वैकल्पिक इतिहास दृष्टि का प्रारूप स्वीकार किया जो दरबारी इतिहास-ग्रन्थों में
विक्सित दृष्टि से बुनियादी तौर से अलग है। इनसे पेशेवर इतिहासकारों पर यह भी
ज़ाहिर हुआ कि उनका विषय-विशेष (Discipline) सदैव विस्तार का पक्षधर रहा है।[xxvii]
जिन मुद्दों को 1970 के आस-पास ‘अस्पष्ट’ कह कर टाल दिया जाता था, जैसे मध्यकालीन
मनोवृत्ति, समय, स्थान, समाज और मानव, अब उन्हें शीर्ष इतिहासकार शोध का विषय बना
रहे हैं।[xxviii]
रजत दत्ता द्वारा संपादित Rethinking a Millenium
में मध्यकालीन इतिहास से प्राप्त अनेक विषयों और मुद्दों के निरीक्षण का महत्त्वपूर्ण
प्रयत्न है। बल्कि यह कहना असत्य नहीं होगा कि प्रत्येक नया प्रश्न एक नया
निरीक्षण और संशोधन है, उस विद्वता का, जो हमें विरासत में प्राप्त होती है;
प्रश्न करना, जिसमें स्वयं से प्रश्न करना बहुत अहम है, ज्ञान की वृद्धि का आधार
होता है।
जाति, जिसे लगभग सभी विद्वान् प्राचीन भारत की देन
समझते हैं और जिसे हिन्दू धार्मिक और सामाजिक विचारधारा का अटूट और अभिन्न अंग
माना जाता है, फिर से शोध-विषय बन आया है जिसके दीर्घ इतिहास में विविध प्रथाओं का
मिश्रण हो चुका था और जिसमें सामाजिक स्तरीकरण और राजकीय शक्ति के चिर परिवर्तनशील
सन्दर्भों की बड़ी भूमिका रही है। एक इतिहासकार जाति को नृजातीयता (Ethnicity) के
एक पेचीदा और जटिल प्रारूप में देखता है जो पूरे दक्षिण एशिया में ग़ैर-हिन्दू
शासकों के तहत भी कायम रहा और ग़ैर-हिन्दू समुदायों में भी।[xxix]
अन्य नवीन और रुचिकर विषयों पर गवेषणा हुई जैसे राजघरानों में पारिवारिकता
(Domesticity), शक्ति-सम्बन्ध और वैयक्तिकता के प्रश्न, जिन्हें बाद में ज़मीनी
धरातल पर लोक-जन के पारिवारिक जीवन के सन्दर्भ तक लाया गया।[xxx] प्रत्येक
स्तर पर राजनैतिक और सामाजिक स्तरों, सांस्कृतिक आचार-विचार, लिंग-भेद,
अर्थ-व्यवस्था और लैंगिकता के अन्तर-संबंधों पर विचार हुआ। व्यापक पितृ-सत्ता के
सन्दर्भ में, महिलाओं, विशेषकर विशिष्ट महिलाओं को अपनी स्थिति से ऊपर उठने के
अवसरों को भी परखा गया जहाँ उन्हें सामाजिक-संरचना ने बाँध दिया था। पारिवारिक
जीवन में भी मातृ-पितृ, उनकी सन्तान, उनकी अपनी पीढी की सन्तान, जो कि समाज के
सामान्य रिश्ते थे, उनके बाहर भी रिश्तों की जगह रहती थी : अ-पत्नी (Non-Wives) भी
कई परिवारों का भाग बन कर रहतीं थीं। और यह समाज के पीठ के पीछे के ‘अवैध’ सम्बन्ध
नहीं थे बल्कि समाज की खुली आँखों के सामने स्थापित होते थे। समाज के ‘नियम’ को एक
ओर यह एक चुनौती थी, दूसरी ओर यह नियमों को ध्वंस करने की क्षमता से वंचित थी;
समाज ने इसे अपनी सीमाओं में समाहित कर लिया।[xxxi]
इसी प्रकार के एक और सम्प्रति अप्रकाशित शोध में उपनिवेश के प्रथम काल में ब्रिटिश
पुरुषों और भारतीय महिलाओं के सम्बन्धों पर रुचिकर निष्कर्ष पाए गए हैं।[xxxii]
भारतीय महिलाओं के साथ ये सब सम्बन्ध – चाहें अर्ध-प्रेमिका, गृह-सेविका, बच्चों
की माँ या पत्नी के रूप में – लैंगिक थे और यह सब महिलाएँ ब्रिटिश पुरुषों के
घर-परिवार का हिस्सा थीं।
पर्यावरण और प्रवास के आकर्षक विषयों पर कुछ युवा
विद्वानों ने मध्यकालीन राजस्थान के सन्दर्भ में बहुत रोचक काम किया है।[xxxiii]
दूसरी ओर अगर मुद्रा को सामान्यतः वाणिज्य का साधन माना गया है तो उसकी जीवन के
रस्मों-रिवाज, जैसे जन्म, विवाह, मृत्यु आदि में भी औपचारिक भूमिका ने इतिहासकारों
का ध्यान आकर्षित किया है।[xxxiv]
क्षेत्रीय परिचय का विकास ऐसा विषय है जिससे समाज का कोई भी पहलू अछूता नहीं रह
जाता : सामाजिक स्तरीकरण, पर्यावरण, प्रशासन-तन्त्र, सामाजिक और सांस्कृतिक मानक,
क्षेत्रीय विशेषताएँ जैसे आदिवासी समुदायों की उपस्थिति, पशुपालन की
अर्थ-व्यवस्था, युद्ध, महानगरों की उपस्थिति, प्रवास, व्यापार, तीर्थ-यात्रा
आदि-आदि अलग-अलग क्षेत्रों के अनुसार।[xxxv]
यद्यपि मध्यकालीन हस्त-शिल्प और
हस्त-शिल्पियों पर अरसे से लेखन हुआ है किन्तु हाल में राजस्थान में अट्ठारहवीं
सदी में शिल्पियों में जाति, लिंग-भेद और राज्य के परस्पर सम्बन्धों और विरोधों को
ले कर कुछ नयी प्रस्तावनाएँ बन कर आयीं हैं।[xxxvi]
उसी लेखक ने आगे चल कर ‘शिल्पी-समाज’ में विधवा विवाह पर भी प्रकाशन किया।[xxxvii]
हमें यह भी सुखद याद दिलाई गयी कि इस एवं अन्य कालों के इतिहास दरबार के बाहर
क्षेत्रीय भाषाओं में भी लिखे गए थे।[xxxviii]
लोक-साहित्य में निहित इतिहास पर भी महत्त्वपूर्ण काम हुआ है।[xxxix]
सोलहवीं शताब्दी के सूफ़ी आख्यान में जन्मी पद्मावती की कहानी का भारत के दूर-दूर
के क्षेत्रों में विस्तार और इस प्रक्रिया में इसमें अलग-अलग क्षेत्रों में जाति,
धर्म, बौद्धिक और अभिजात वर्ग के अन्य प्रभावों के अधीन विकसित होते हुए परिवर्तन,
इन सब का एक उदाहरणीय विश्लेषण है जिसमें इतिहास, राजनीति और साहित्य का संयोजन है।[xl]
पद्मावती के वर्तमान स्वरुप, जिस पर एक तीसरे दर्जे के स्तर की फ़िल्म बनाने पर
इतना हंगामा हुआ है वह बंगाल में उन्नीसवीं शताब्दी में उभर कर आया। हमें अभी भी
इंतज़ार है ऐतिहासिक व्यक्तियों एवं घटनाओं की लोक-प्रचलित छवियों के इतिहासज्ञों
द्वारा गहन अध्ययन का; उच्च मूर्ति-तल पर बैठे विद्वान् इन छवियों को बाजारू
गप्प-शप्प कह कर ख़ारिज कर देते हैं जो कि इतिहास के पेशे और लोक दोनों के लिए
अनुचित है बल्कि इसमें उन व्यक्तियों व घटनाओं को बिगाड़ने की संभावनाएँ भी हैं जैसा
कि भंसाली ने पद्मावत के साथ किया है।
यदि कुछ अमूर्त सामाजिक एवं
सांस्कृतिक इतिहास की समस्याओं, जैसे भावनाओं या मनोवृत्ति के इतिहास की ओर
विद्वानों का विशेषकर इक्कीसवीं सदी में ध्यानाकर्षित हुआ है तो साम्राज्य के
दरबार और उसकी संस्कृति पर भी दिलचस्प लेखन हुआ है। यह लेखन पूर्व मध्य काल से
मुग़ल काल तक हुआ है।[xli]
मुग़ल राजकुमारों पर भी हाल में उत्तम प्रकाशन सामने आया है।[xlii] एक
और प्रकाशन से मुग़ल दरबार की यह छवि उभर कर आती है कि शायरी वहाँ हर कोने में, हर
मौक़े पर मौजूद रहती थी।[xliii]
एक अन्य प्रकाशन गहन अध्ययन के बाद यह स्थापित करता है कि मुग़ल दरबार में 1560 से
1660 तक संस्कृत का संरक्षण राज्य-व्यवस्था का अभिन्न अंग बन गया था।[xliv]
इससे पहले दरबार में फ़ारसी के महत्त्व का अध्ययन हो चुका था।[xlv]
मुग़ल अमीरों में कुछेक, जैसे दानिशमन्द ख़ान, जो फ्रेंच यात्री फ्रांसवा बर्नियर का
संरक्षक था, और जिसकी पश्चिमी दर्शन में बहुत दिलचस्पी थी, अपनी दिलचस्पी का अंजाम
उस दर्शन के अध्ययन तक ले आते हैं। इसी बात को एक आधुनिक विद्वान् ने इन शब्दों
में बयान किया है : ‘जब गासेन्दी (Gassendi) के लेखन का अनुवाद फ्रेंच से पहले
फ़ारसी में हो चुका था और जब उपनिषदों के और दारा शुकोह के अद्वैत-सर्वेश्वरवाद
(Monic Pantheism) का फ़्रांस
और इंग्लैंड में स्पीनोज़ा की Ethics के प्रकाशन से पहले परिचय हो चुका था – 1660
के दशक में बौद्धिक वैश्वीकरण का इससे ज़्यादा ड्रामाई साक्ष्य और क्या हो सकता
है?’[xlvi]
अन्त में मैं उन सम्मोहक विषयों की
एक संक्षिप्त सूची पर शेष करना चाहूँगा जिन पर मध्यकालीन भारत के सन्दर्भ में शोध
हो रहा है। मेरी बदकिस्मती है कि मुझे यह सूची जे. एन. यू. के सेंटर फॉर
हिस्टोरिकल स्टडीज़ में युवा शोधकर्ताओं तक अधिकतर सीमित रखनी पड़ रही है; जे. एन.
यू. से सेवानिवृत्त हुए मुझे लगभग चौदह साल हो चुके हैं इसलिए विश्वविद्यालयों में
हो रही शोध प्रक्रियाओं के साथ मेरा परिचय भी सीमित हो चला है। किन्तु इतने
सामान्य परिचय से वंचित नहीं हूँ कि यह दावा करूँ कि इतिहास में नव-परिवर्तनशील
शोध केवल जे. एन. यू. के युवा छात्रों तक ही सीमित है।
·
क्षेत्रीय राज्य-विन्यास में शक्ति
और वैधता (Power and Legitimacy) : क्षेत्रीयकरण में निहित क्षेत्रीय स्वग्रहिता
(Assertion) और दृढ़ता की अभिव्यक्ति, न कि साम्राज्य के पतन का फल (कश्मीर, बंगाल,
अवध, केरल)
·
युद्ध और राज्य/ साम्राज्य रचना :
युद्ध को राज्य/ साम्राज्य के राजनैतिक अस्त्र की पहचान और उसमें पर्यावरण,
स्थलाकृति (Topography) और सामाजिक सन्दर्भों के अनुसार विविधता।
· जाति और समुदाय : समुदायों की
जातिगत दृढ़ता, समुदाय/ जाति चेतना, निष्कासन और सम्मिलन, जातिगत प्रतिरोध और
आन्दोलन।
· लिंग-भेद और पारिवारिकता : विवाह,
परिवार में आन और मर्यादा की अवधारणायें, पारिवारिकता का पुरुष प्रधान रूप।
·
लैंगिकता और पारिवारिक राजनीति :
हरम, जनानी-ड्योढी, उप-पत्नीत्व, इकरारी विवाह।
·
निम्न-वर्गों एवं जातियों व
लोकप्रिय धार्मिकताएं : वैष्णव एवं नाथ-पंथ आदि।
· ब्राह्मणवादी भाषाई साहित्यिक
परम्पराएँ : मिथिला, मैथिली और ब्राह्मणवादी क्षेत्रीयता की संरचना।
·
साहित्य परम्पराएँ और क्षेत्रीय
पहचान : ब्रज, बांग्ला, मैथिली।
·
यात्रा वृतान्त : उलटा अवलोकन –
भारतीय यात्रियों का यूरोप भ्रमण।
· कबीलों से कृषक तक : जंगल महल/
झारखण्ड में आदिवासी समुदाय और कृषकीकरण (Peasantisation)
·
पर्यावरण और संस्थान : भूमि,
वातावरण और राजस्व; नदी प्रवाह के परिणाम; अकाल और अभाव।
·
अट्ठारहवीं शताब्दी में उपनिवेशवाद
में प्रवेश : विविध पहलू।
और अन्त में
सबसे न्यून चर्चा योग्य एक पुस्तक The Mughals of India जिसके लेखक ने अपने पेशेवर
जीवन के प्राथमिक वर्षों में मध्यकालीन भारत के इतिहास की जिस रूप-रेखा से परिचय
पाया था उससे अलग कुछ ऐसे द्वार खोलने की कोशिश की है जिन पर अभी तक अधिकतर ने
दस्तक नहीं दी थी।
मैंने अपना
वक्तव्य यह कह कर शुरू किया था कि ‘मध्यकालीन’ का मूल स्रोत ‘आधुनिक’ है जो सी. ए.
बेली के शब्दों में ‘सर्वदृश्य’ था और जिसके विषय में कोई प्रश्न वाजिब नहीं था।[xlvii]
आज ‘आधुनिकता’ की अवधारणा पर हज़ार प्रश्न उठ चुके हैं। पिछले तीन दशकों में बहुत
कुछ बदल चुका है। शैक्षणिक समुदाय का भी वैश्वीकरण हो चुका है, अतः यह प्रश्न पूरे
वैश्विक समुदाय में उठ रहे हैं। इस दीर्घ और दूरगामी परिवर्तन पर एक वरिष्ठ
बौद्धिक की दो टिप्पणियों से दिलचस्प रोशनी पड़ती है। सन 1966 में एस. एन.
आईज़ेनस्टाट ने बड़े विशवास के साथ घोषित किया, ‘इतिहास में आधुनिकीकरण परिवर्तन की
वह प्रक्रिया है जिससे सत्रहवीं सदी और उन्नीसवीं सदी के दरम्यान पश्चिमी यूरोप और
उत्तरी अमेरिका में विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्थाएँ विकसित हुईं।’
सन 1998 तक उनकी राय बदल चुकी थी जब उन्होंने प्रकाशित किया, ‘यह कहना कि केवल एक
ही (प्रकार की) आधुनिकता है भूल होगा।’[xlviii]
आज ‘आधुनिकता’ का एक वचन में प्रयोग होना
दुर्लभ है।[xlix]
अब हमारा अधिकतर ‘आधुनिकताओं’ से सामना हो रहा है और इसमें विवध प्रकार के उप-सर्ग
लगे हुए हैं जैसे ‘एकाधिक’, ‘पूर्व’, ‘इस्लामी’, ‘निजी’ आदि, आदि। यदि स्वयं
आधुनिकता पर प्रश्न-चिन्ह लग चुके हैं तो इसकी सन्तति ‘मध्य युग’ बेदाग़ कैसे रह
सकती है?[l]
‘आधुनिकता’
की सब से अहम् समस्या रही है और अभी भी है, उसके स्थान और समय की विशिष्टता,
अर्थात पश्चिमी यूरोप, सत्रहवीं शताब्दी और उसके बाद। इसमें यह अर्थ निहित है कि
जिस आधुनिक विश्व के हम वासी हैं वह बड़ी सीमा तक पश्चिमी यूरोप की संरचना है; अन्य
क्षेत्रों को यूरोप ने अपनी ही छवि में तश्कील किया है जिसमें इन क्षेत्रों की
अपनी इच्छा शक्ति का अभाव रहा है। इस विचार को अब कहीं भी आदर नहीं मिलता। [li] अब इतिहासकार इस परिप्रेक्ष्य से सहमत हो रहे
हैं कि हमारा वर्तमान का विश्व निरंतर और संचयी विकास और प्रगतिशील प्रक्रिया का परिणाम
है जिसमें प्रत्येक क्षेत्र, समाज, प्रत्येक सभ्यता का कुछ न कुछ योगदान है, चाहें फ़सलों की सूरत में, या
हस्त-शिल्प, तकनीक, वाणिज्य, विचारधाराएँ, धर्म, संस्कृति, प्रशासन,
सौन्दर्य-दृष्टि... यह सूची अन्तहीन है। निरन्तरता और वैश्विक योगदान के इस
सन्दर्भ में समय के त्रिभागीय विभाजन – प्राचीन, मध्यकालीन, आधुनिक – की व्यापक
प्रासंगिकता का ह्रास हो जाता है। फिर जिस सत्रहवीं-अट्ठारहवीं सदी से इक्कीसवीं
सदी तक के मार्के वाली ‘आधुनिकता’ से हम इतने प्रभावित हैं इसको तेईसवीं सदी में कैसे परखा जाएगा? लगभग
असंभव है कि इसे तब भी ‘आधुनिकता’ का ख़िताब मिले। शायद यह आशा की जा सकती है कि
जिस प्रकार यूरोप में सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में इतिहास-काल के त्रिभागीय
विभाजन की अवधारणा विकसित हुई उसी प्रकार विश्व में इतिहास-अध्ययन की भविष्य में
नई श्रेणियाँ उभर कर आएँगी।
यह विश्वास
के साथ कहा जा सकता है कि इतिहास-अध्ययन को अब एक नई दृष्टि, एक नई गति प्राप्त
हुई है। भारत में, हर समाज में, इतिहास लेखन में नए दहलीज़ लांघे जा रहे हैं। मैं
स्वयं उस पीढ़ी में से हूँ जो अब निकास द्वार के पास खड़ी है। और शायद मेरे लिए यह
भ्रम करना संभव हो कि अब उत्तम इतिहास-लेखन का अतीत ही शेष है, वर्तमान तो इससे
रिक्त हो चुका है। लेकिन मुझे यह देख कर बहुत सन्तोष और प्रसन्नता है कि युवा पीढ़ी
के इतिहासविदों के हाथों, भारत में और विश्व में, इतिहास के अति सरलीकृत द्विपक्षीय
द्वंद्व (Binary Opposites) जो पूर्ण व्यवस्थाओं के विश्लेषण में निहित था, के
स्थान पर उसकी जटिलताओं और विविधताओं का अध्ययन और विश्लेषण हो रहा है। युवा पीढ़ी
ने इतिहास-अध्ययन के कार्य-क्षेत्र में भी विशाल विस्तार किया है। इतिहास-अध्ययन
में इतना सौन्दर्य पहले शायद कभी नहीं रहा।
अन्त में
मैं इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ कि विषयों और उसकी कार्य-विधियों के नव-रचनाओं के
विशाल कैनवास से, जो पिछले चन्द दशकों में उभर कर आये हैं, कुछ ही का सर्वेक्षण कर पाया
हूँ; मुझे इस बात का और अधिक अफ़सोस है कि मेरा परिचय एक बड़ी सीमा तक अंग्रेजी में
प्रकाशित सामग्री के साथ ही है। मेरी पीढ़ी में प्राप्त शिक्षा ने हमें इतिहास के
उस ज्ञान से वंचित रखा जो भारतीय भाषाओँ में विकसित और प्रकाशित हो रहा था। इसे
सुधारने का समय भविष्य में नहीं, बल्कि वर्तमान में है।
(प्रस्तुत आलेख हरबंस मुखिया
द्वारा 24 फरवरी 2017 को जादवपुर विश्वविद्यालय कोलकाता में प्रथम सर जदुनाथ सरकार
व्याख्यान में दिए गए अंग्रेजी भाषण का हिन्दी रूपांतरण है जिसे स्वयं हरबंस जी ने
ही हमारे आग्रह पर ‘अनहद’ के लिए विशेष तौर पर हिन्दी में अनुवादित किया है। लेखक
जे. एन. यू. में इतिहास के प्राध्यापक रह चुके
हैं।)
सन्दर्भ और टिप्पणी
[i] . Harry Elmer Barnes, A History of
Historical Writing, Oklahema, 1937, p. 16, 172, 348
[ii] . Arvind Sharma, ‘The concept of Cyclical
Time in Hinduism’, Hari Shankar Prasad, ed., Time In Indian Philosophy : A
Collection of Essays, Delhi, 1992, p. 210
[iii] . Anindita N. Balslev, ‘Time and The Hindu Experience’, A. N. Balslev
and R. N. Mohanty, eds, Religion and Time,
Leiden, 1992, p 177
[iv] . V. S. Pathak, Ancient Historians Of
India, Bombey, 1966; Romila Thapar, The Past Before Us. Historical
Traditions In Early North India, Ranikhet, 2013
[v] . Tarif Khalidi, Arabic Historical Thought
in The Classical Period, Cambridge, 1994, p. 115, अरब-मुस्लिम इतिहास
लेखन पर Franz Rosenthal की पुस्तक a History of Muslim Historiography, Leiden, 1952 शास्त्रीय हो चुकी है।
[vi] . Bernard Lewis and P. M. Holt, eds. Historians
of The Middle East, London, 1964; D. O. Morgan, ed, Medieval Historical Writing in the Chinese and Islamic Worlds, London, 1982
[vii] . पीटर हार्डी महत्वपूर्ण इतिहासकार था जिसने
पुरजोर ढंग से कहा कि मध्यकालीन इतिहासकारों के लिए इतिहास (इस्लामी) धर्मशास्त्र
का अटूट भाग था। देखिए उनकी Historians of Medieval India,
London, 1960.
[viii] . Matthew Kempshall,
Rehetoric and the Writing of History, 400-1500, Manchester, 2011; A
momigliane, ed, The Conflict Between Paganism and christianity in the Fourth
Century, Oxford, 1963.
[ix] . यह दलील प्रथम प्रस्तुत हुई थी हरबंस
मुखिया, Historians and
Historiography during the Region of Akbar, New Delhi, 1976 (And 2017)
[x] . Stephen Davies, Empiricism and History,
New York, 2003
[xi] . Peter Jackson, The Delhi Sultanate : A
Political and Military History, Cambridge, 1999; Sunil Kumar, Emergence
of the Delhi Sultanate, Ranikhet, 2007; Finbarr B. Flood, Objects of
Translation. Material Culture and Medieval “Hindu-Muslim” Encounter,
Princeton, 2009
[xii] . A. B. M. Habibullah, The Foundation of
Muslim Rule in India, Allahabad, 1976 (प्रथम प्रकाशन 1945)
[xiii] . Rajat Datta, ed, Rethinking A Millennium
: Perspectives on Indian History from the Eighth to the Eighteenth Century,
New Delhi, 2008. p. 6
[xiv] . देखिए हाल ही में प्रकाशित ‘इलाहाबाद स्कूल’
पर वहीँ के एक प्रमुख छात्र और प्रतिष्ठित प्राध्यापक की पुस्तक, Heramb Chaturvedi, The Allahabad School of
History, 1915-1955, New Delhi, 2016
[xv] . stanley Lane-poole, Medieval India under
Mohammedan Rule (AD 712-1764), London, 1903
[xvi] . उदहारण के लिए A. B. Pandey, Early
Medieval India, Allahabad, n. d. जहाँ मुग़ल पूर्व इतिहास वर्णित है।
[xvii] . फ्यूडलिज्म का प्रचलित हिन्दी अनुवाद
‘सामंतवाद’ है। मैं इस प्रचलन से ज़्यादा संतुष्ट नहीं हूँ।
‘सामन्त’ अंग्रेजी के ‘Feudal Lords’ का हिन्दी पर्याय है। फ्यूडलिज्म में Lords
कभी भी बहुत हावी नहीं थे और इसमें एक सम्पूर्ण व्यवस्था स्थापित थी जो Lords या
‘सामन्त’ में अभिव्यक्त नहीं होती। यदि कोई कहना चाहे कि Lords are not always the
most important segment of feudalism, जिसका हिन्दी में अनुवाद होगा – ‘सामंतवाद
में सामन्त हमेशा बहुत महत्वपूर्ण नहीं होते’
तो कैसा अटपटा लगेगा। इसलिए मैंने मूल शब्द फ्यूडलिज्म का ही प्रयोग करने
का निर्णय लिया है।
[xviii][xviii][xviii]
. सुपरिचित
पुस्तकों में कुछ की चर्चा की जा सकती है। C.
A. Bayly, Rulers, Townsmen, Bazaars. North Indian Society in the Age of
British Expansion, 1770-1870, Cambridge, 1983; Muzaffar Alam, The Crisis
of Empire in Mughal North India, New Delhi, 1986; Rajat Datta, Society,
Economy And the Marhet : Commercialisation in Rural Bengal, c. 1760-1800,
New Delhi, 2000: Seema Alavi, ed., The Eighteenth Century in India, New
Delhi, 2002; Peter J. Marshall, ed, The Eighteenth Century in Indian History
: Evolution or Revolution?, New Delhi, 2003
[xix] . Rajat Datta, ed, Rethinking a Millennium,
Introduction.
[xxi] . Frederick Engels, Letter to Karl Marx,
December 15, 1882. इसके सार के लिए देखिए https :
//www.marxists.org/archive/marx/ works/1882/letters/82_12_15.htm
उदहारण के लिए, Jerome Blum, Lord and Peasant
in Russia from the Nineteenth Century, Princeton, 1961; Town Scott, ed., The
Peasantries of Europe from the Fourteenth to the Eighteenth Centuries, London
and New York, 1998.
[xxii]
. जिस समय
फ़्यूडलिज्म को अधिकतर सामन्त मातहत ( Lord Vassal) सम्बन्धों के सन्दर्भ में परखा जा
रहा था, एक प्रमुख
बेल्जियन इतिहासकार, ऑरी पिरेन ने 1920 और 30 के दशक में एक वैकल्पिक संरचना में इसे आर्थिक
और सामाजिक व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया। उनके अनुसार जब अरबों ने
भूमध्यसागर (Mediterranean
Sea) के दो
प्रवेश बिन्दु, पूर्व में अलेक्जेंड्रिया
और पश्चिम में जिब्राल्टर पर कब्ज़ा कर लिया और फिर सागर के मध्य में सरडीनिया पर भी नियन्त्रण
स्थापित कर लिया तो यूरोप में सुदूर सुसमृद्ध वाणिज्य का ह्रास हो गया और उसका स्थान 'प्राकृतिक अर्थव्यवस्था' (Natural Economy) ने ले लिया
जिसमें लगभग हर वस्तु का उत्पादन और उपभोग स्थानीय स्तर पर ही होता था। यह सब आठवीं सदी से
दसवीं सदी के दरम्यान हुआ। लगभग ग्यारहवीं सदी से क्रुसेडर्स (Crusaders) और यूरोपीय जुझारू व्यक्तियों
ने भूमध्य सागर पर फिर क़ब्ज़ा कर लिया; इस प्रकार वाणिज्य को पुनर्जीवन मिला और फ़्यूडलिज्म का
पतन हुआ। पिरेन की यह अभिधारणा उनके एकाधिक ग्रन्थों में उपलब्ध है : Mediaeval Cities : Their origin
and the Revival of Trade, try. F. D. Halsey, New York, 1956 (प्रथम
प्रकाशन 1926);
Economic and Social History of Mediaeval Europe, tr. J. F. Clegg, London 1958 (प्रथम
प्रकाशन 1936);
Mehmet and Charlemagne, tr. B. Niall, London, 1939. यह वाणिज्य फ़्यूडलिज्म प्रोफ़ेसर
शर्मा के Indian
Feudalism के भी
केन्द्र में स्थित है। मार्क्स-एंगेल्स ने व वाणिज्य को कभी किसी भी उत्पादन
व्यवस्था के अंतर्विरोध में नहीं पाया था। सन 1950 के दशक में इस अभिधारणा में निहित कई एक ख़ामियां प्रकट हो चुकी थीं, विशेषकर वाणिज्य फ़्यूडलिज्म
अंतर्विरोध की खामियाँ। देखिए Alfred F. Havighurst, The Pirenne Thesis : Analysis, Criticism and
Revision, Boston, 1958 इससे बहुत पहले मार्क ब्लॉख ने निश्चय कर लिया था कि 'प्राकृतिक अर्थव्यवस्था या वाणिज्य
अर्थव्यवस्था एक छद्म
अन्तर्विरोध' है। देखिए
उनका निबन्ध, 'Natural Economy or Exchange
Economy-- A pseudo Dilemma' उनकी पुस्तक Land and Work in Mediaeval Europe, tr. J. E.
Anderson, London, 1967. यह निबन्ध 1919 और 1936 के बीच, जब वे स्ट्रासबर्ग में प्रोफ़ेसर थे, प्रकाशित हुआ था। फिर भी प्रोफ़ेसर शर्मा ने
इस वाणिज्य फ़्यूडलिज्म अंतर्विरोध को पूरी तरह आत्मसात किया और एक कॉर्बन कॉपी की तरह
भारतीय सन्दर्भ में चस्पां कर दिया।
[xxiii]
. प्रोफ़ेसर हबीब ने भी डॉब्ब द्वारा स्थापित पश्चिमी यूरोप में
फ़्यूडलिज्म के पतन की अभिधारणा को
मुग़ल कालीन भारत के तथ्यों पर चस्पां किया, वह उस समय जब इस अभिधारणा पर स्मरणीय
अन्तर्राष्ट्रीय वाद विवाद हो रहा था। डॉब्ब ने किसानों के गाँव छोड़ कर नए
विकासशील नगरों में पलायन में फ़्यूडलिज्म का ह्रास देखा जिसकी व्याख्या
उन्होंने अपनी Studies
in the Development of Capitalism, London, 1972 (प्रथम प्रकाशन 1946) में की; उस पर 1950 के प्रारंभिक वर्षों में
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विवाद हुआ जिसे बाद में एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया।
देखिए Rodney
Hilton, ed., The Tramition from Feudalism to Capitalism, London, 1976. एक और लेख
पर भी नज़र डाली जा सकती है : Harbans Mukhia, 'Maurice Robb's
Explanation of the Decline of Feudalism in western Europe -A Critique', The
Indian Historical Review, 6, 1-2, 1979-80, p 154-84.
[xxiv] . इस चेष्टा का प्रथम प्रकाशन हुआ उनके लेख, ‘How
Feudal Was Indian Feudalism?’ में जो
Journal of Peasant Studies के वर्ष
1985 के विशेष डबल अंक में प्रकाशित हुआ। इसका सम्पादन T. J. Byres और Harbans Mukhiya ने Feudalism and Non-European Societies के
शीर्षक से किया जो एक पुस्तक के रूप में
London, 1985 में प्रकाशित हुआ। इस विवाद का हरबंस मुखिया द्वारा सम्पादित
एक और संस्करण The Feudalism Debate के शीर्षक से नई देहली 2000 में प्रकाशित हुआ।
[xxv] . R. P. Eana, ‘Agrarian Revolts in North
India during the 17th and 18th Centuries : The Indian Economic and Social
History Review, 18, 3-4, 19&1, p 287-326; Surajbhan Bhardwaj,
‘Peasant-State Relation in Late Medieval North India (Mewat) : A Study in class
Consciousness and Class Conflict, The Medieval History Journal, 20,1, 2017, p.
148-191.
[xxvi] . Rosalind O’Hanlon, ‘Manliness and Imperial
Service in Mughal North India’, Journal of Social and Economic History of
the Orient, 42, 1, p. 47-93; Urvashi Dalal, ‘Femininity, State and Cultural
Space in Eighteenth Century India’, The Medieval History Journal, 18, 1, April
2015, p. 120-165.
[xxvii] .
Francesca Orsini and Samira Sheikh, eds, After Timur Left. Culture
and Circulation in Fifteenth Century India, New Delhi, 2014, जिसमें भारत की चिर उपेक्षित पंद्रहवीं शताब्दी
को भी फ़ोकस में लाया गया है; Sandhya Sharma, Literature, Culture and
History in Mughal North India, 1550-1800 New Delhi, 2011; allison Busch, Poetry of
Kings, The Classical Hindi Literature of Mughal India, New Delhi, 2011
[xxviii] . Eugenia Vanina, Medieval Indian
Mindscapes : Space, Time, Society, Man. New Delhi, 2012
[xxix] . Sumit Guha, Beyond Caste, Identity and
Power in south Asia, Past and Present, Leiden, 2013
[xxx] . Ruby Lal, Domesticity and Power in the
Early Mughal World, Cambridge, 2005; Munis D. Faruqi, The Princes of the
Mughal Empire, 1504-1719, Cambridge 2012; Indrani Chatterjee, ed., Unfamiliar
Relations : Family and History in South Asia, New Delhi, 2004; Kumkum Roy,
ed., Looking Within : Exploring Households in the Subcontinent through Time,
New Delhi, 2015
[xxxi] . Leslie C. Orr, ‘Non-wives and their
Networks in Medieval Tamilnadu’ in Kumkum Roy, ed, Looking Within,
Looking Without, p. 299-320 यौन
संबंधों की चर्चा नहीं है।
[xxxii] . Ruchika Sharma, ‘conjugality, Concubinage
and Domesticity : native Women and the British Male in Early Colonial Bengal’,
अप्रकाशित शोध-ग्रन्थ, जे. एन. यू., 2010
[xxxiii] . mayank Kumar, Monsoon Ecologies :
Irrigation, Agriculture and Settlement Patterns in Rajsthan during Pre-Colonial
Period, New Delhi, 2013; Tanuja Kothiyal, Nomadic Narratives : A History
of Mobility in the Great Indian Desert, New Delhi, 2016.
[xxxiv] . Prasannan Parthasarathi, ‘Money and Ritual
in Eighteenth Century South India’, The Medieval History Journal, 19, 1,
April 2016, p. 1-20
[xxxv] . Samira Seikh, Forging a Region. Sultans,
Traders and Pilgrims in Gujrat, 1200-1500, New Delhi, 2010.
[xxxvi] . Nandita P. Sahai, ‘Politics of Patronage
and Protest : The State, Society and Artisans in Early Modern Rajsthan, New
Delhi, 2006.
[xxxvii] . Nandita P. Sahai, ‘The “other” culture :
Craft Societies and Widow Remarriage in Early Modern India’, Journal of
Women’s History, 19, 2, Summry 2007
[xxxviii] . Raziuddin Aquil and Partha Chatterjee, eds,
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[xxxix] . Surinder Singh and ishwar Dayal Gaur, eds, Popular
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[xl] . Ramya Sreenivasan, The Many Lives of a
Rajput Queen, ranikhet, 2007
[xli] . Daud Ali, courtly Culture and Political
Life in Early Medieval India, Cambridge, 2006.
[xlii] . Munis D. Faruqi, The Princess of the
Mughal Empire, 1504-1719, Cambridge, 2012.
[xliii] . Rajeev Kinra, Writing Self-writing
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Secretary, New Delhi, 2016.
[xliv] . Andrey Truschke, Culture of Encounters.
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[xlv] . Muzaffar alam, ‘The Pursuit of Persian :
Language in Mughal Politics’, Modern Asian Studies, 32, 2, 1998, p.
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[xlvi] . J. Ganeri, Lost Age of Reason : Philosophy
in Early Modern India, 1450-1700, London, 2011.
[xlvii] . C. A.Bayly, The British of the Modern
World, 1780-1914, Oxford, 2004, p. 11 जहाँ आधुनिकता के विषय में लेखक घोषित
करते हैं कि यह तो सर्व-दृश्य (‘Out there’) है।
[xlviii] . S. N. Eisenstadt, Modernization, Protest
and Change, Engelwood-Hall, New Jersey, 1966, p. 1; Eisenstadt, (with
Wolfgang Schulchter), ‘Introduction’, Daedalus, 127, 3, Summer, 1998, Special
issue on Early Modernities.
[xlix] .
Frederic Jameson इस पर प्रश्न-चिन्ह लगाते हैं, देखिए A singular
Modernity. Essay on the Ontology of the Present, London, 2009 (प्रथम
प्रकाशन 2002)
[l] . हरबंस मुखिया, ‘अपनी-अपनी आधुनिकता’ तद्भव,
1, 2, अप्रैल 2013, p 82-92
[li] . एक तीखी आलोचना के लिए देखिए Jack
Goody, The Theft of History, Cambridge, 2006, एक सीमा तक देखिए Jack
Goody, Capitalism and Modernity, Oxford, 2004. इस विषय पर प्रचुर लेखन हुआ है।
मोबाईल- 09899133174
संपर्क-
हरबंस मुखिया
बी-86, सनसिटी, सेक्टर-54,
गुडगाँव, 122011,
(हरियाणा)
(हरियाणा)
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन नमन आज़ादी के दीवाने वीर सावरकर को : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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