कुमार निर्मलेन्दु की पुस्तक मगधनामा का एक अंश





मगध का नाम लेते ही मन मस्तिष्क में प्राचीन भारत की वह छवि उभरती है जिसमें मौर्य और गुप्त वंश महान साम्राज्य के रूप में स्थापित होते हैं। मौर्य वंश के साथ भारत के महान राजवंशों की परम्परा का भी आरम्भ होता है। सोलह महाजनपदों में से एक मगध ने क्रमशः अपनी स्थिति मजबूत की और साम्राज्य के रूप में अपनी जो जगह बनायी वह क्रम शताब्दियों तक चला। मगध पर ऐतिहासिक रूप से जो भी महत्वपूर्ण किताबें अभी तक थीं वे अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैं। इन किताबों में बिंदेश्वरी प्रसाद सिन्हा की 'डाइनेस्टिक हिस्ट्री ऑफ मगध', Johannes Bronkhorst की 'Greater Magadh : studies in the Culture of early India', LSS O'Malley की History of Magadh, KA Nilakanta sastri की  'Age of The Nandas and Mauryas' प्रमुख हैं। कुमार निर्मलेन्दु  की 'मगधनामा' हिन्दी में रोचक ढंग से लिखी गयी अपनी तरह की यह पहली मुकम्मिल किताब है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद से छपी इस किताब का एक अंश।


कुमार निर्मलेन्दु
 


मगध: उत्कर्ष और जययात्रा


उत्पत्ति की कहानी


मगध की उत्पत्ति के सन्दर्भ में वाल्मीकि रामायण में एक कथा वर्णित है। विश्वामित्र क्षत्रिय कुल में उत्पन्न एक धर्मात्मा राजा थे। उनके पिता का नाम गाधि और पितामह का नाम कुशनाभ था। एक बार विश्वामित्र एक अक्षौहिनी सेना के साथ विचरण करते हुए महर्षि वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे। उनको देख  कर वशिष्ठ बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि ‘‘राजन्! मैं तुम्हारा और तुम्हारी सेना का विधिपूर्वक सत्कार करना चाहता हूँ।’’ विश्वामित्र ने कहा कि ‘‘हे द्विज-श्रेष्ठ! आपके स्नेहपूर्ण वचनों से ही मेरा सत्कार हो गया है। अतः अब मुझे यहाँ से जाने की अनुमति दीजिए।’’ परन्तु वशिष्ठ के आग्रह करने पर उन्होंने कहा कि ‘‘ऋषिवर, जैसी आपकी इच्छा हो, आप वैसा ही करें।’’

आश्रम में कामधेनु नामक एक अलौकिक गाय थी। चितकबरे रंग की उस दिव्य गाय के सामने जो भी कामना की जाती थी, वह तुरन्त उसे पूरा कर देती थी। वशिष्ठ ने कामधेनु से कहा कि ‘‘आश्रम में पधारे अतिथियों को षडरस भोजनों में से जो-जो पसन्द हो, वह उपलब्ध करा दो।’’ कामधेनु ने क्षण-भर में समस्त अतिथियों की इच्छा के अनुरूप भोजन सामग्री जुटा दिया। विश्वामित्र उस अलौकिक गाय के प्रभाव को देख कर चमत्कृत तो हुए ही, उनके मन में लोभ भी आ गया। उन्होंने वशिष्ठ से कहा कि एक लाख गायें ले कर वे कामधेनु गाय उन्हें दे दें। परन्तु वशिष्ठ ने यह कह कर कामधेनु को देने से मना कर दिया कि उनका जीवन-निर्वाह उसी पर निर्भर है। मगर विश्वामित्र अड़ गये और कामधेनु को बलपूर्वक अपने साथ ले जाने लगे।

तभी कामधेनु उन सभी को झटक कर वशिष्ठ के पास आकर खड़ी हो गयी और करुण स्वर में पूछा कि क्या आपने मुझे त्याग दिया है, जो ये सैनिक मुझे बलपूर्वक घसीट कर ले जा रहे हैं? वशिष्ठ ने कहा कि शक्ति के कारण मदान्ध हो कर यह राजा तुमको घसीट कर ले जाना चाह रहा है। कामधेनु ने कहा कि ‘‘यदि ऐसा है तो आप मुझे आज्ञा दें। इस दुष्ट राजा का अभिमान अभी खंडित कर देती हूँ।’’ यह सुन कर वशिष्ठ ने कामधेनु को शत्रु-सेना को नष्ट करने वाले सैनिक उत्पन्न करने का आदेश दिया। फिर क्या था! कामधेनु के हुँकार करते ही पह्लव जाति के सैंकड़ों वीर योद्धा उत्पन्न हो गये।

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभिः सासृजत् तदा।
तस्या हुंभारवोत्सृष्टाः पह्लवाः शतशो नृप।।1

वे पह्लव वीर शत्रु-सेना का नाश करने लगे। परन्तु विश्वामित्र ने कई प्रकार के अस्त्रों का प्रयोग करके पह्लव वीरों का संहार कर दिया।
पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि।
विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवांशतशतस्तदा।।
भूय एवासृजद् घोरांछकान् यवनमिश्रितान्।
तैरासीत् संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः।।2
विश्वामित्र द्वारा उन पह्लवों के संहार को देख कर कामधेनु ने यवनमिश्रित शक जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया। कामधेनु के हुंकार से सूर्य के समान तेजस्वी काम्बोज उत्पन्न हुए। इतना ही नहीं, कामधेनु के थन से शस्त्रधारी बर्बर प्रकट हुए। फिर कामधेनु के योनि से यवन, शकृदेश (गोबर करने के स्थान) से शक, रोमकूपों से म्लेच्छ, हारीत और किरात प्रकट हुए।

योनिदेशाच्च यवनाः शकृदेशाच्छकाः स्मृताः।
रोमकूपेषु म्लेच्छाश्च हारिताः सकिरातकाः।।3

उन सब वीरों ने मिल कर पैदल, हाथी, घोड़े और रथ सहित विश्वामित्र की सम्पूर्ण सेना का संहार कर दिया। तभी विश्वामित्र के सौ पुत्रों ने वशिष्ठ पर आक्रमण कर दिया। परन्तु महर्षि वशिष्ठ ने अपने हुंकार से उन सब को जला कर भस्म कर दिया।

अपनी सेना और अपने पुत्रों का विनाश देख कर विश्वामित्र ग्लानि से भर गये। संयोगवश उनका एक पुत्र जीवित रह गया था। उसी को राजपाट सौंप कर वे वन को चले गये। हिमालय क्षेत्र में भारी तप करके महादेव से उन्होंने धनुर्वेद के ज्ञान सहित अनेक दिव्य अस्त्र प्राप्त किये। उन दिव्यास्त्रों की सहायता से उन्होंने वशिष्ठ के आश्रम पर पुनः आक्रमण किया। परन्तु महर्षि वशिष्ठ ने अपने ब्रह्मदण्ड द्वारा विश्वामित्र के समस्त दिव्यास्त्रों को विफल कर दिया। विश्वामित्र पराजित हुए; और उन्होंने मान लिया कि ब्रह्मतेज से प्राप्त होने वाला बल ही वास्तविक बल है।

धिग् बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम्।
एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे।।4
अर्थात - क्षत्रिय के बल को धिक्कार है। ब्रह्मतेज से प्राप्त होनेवाला बल ही वास्तव में बल है; क्योंकि आज एक ब्रह्मदण्ड ने मेरे सभी अस्त्रों को नष्ट कर दिया है।

अब उन्होंने श्रेष्ठता प्राप्त करने के लिये महान तप करने का निश्चय किया। वे अपनी पत्नी के साथ दक्षिण दिशा में जाकर तपस्या करने लगे। घोर तपस्या के बाद ब्रह्माजी ने उनको दर्शन दिये और कहा कि आपकी तपस्या के प्रभाव से मैं आपको सच्चा राजर्षि घोषित करता हूँ। प्रसंगवश उल्लेख्य है कि विष्णु रत्नकोषनामक एक प्राचीन ग्रन्थ में ऋषियों के सात भेद किये गये हैं- ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि और राजर्षि। ये सभी क्रम से अवर (जूनियर) होते थे। अर्थात राजर्षि सबसे कनिष्ठ और ब्रह्मर्षि सबसे श्रेष्ठ होता था।

स्वाभाविक रूप से ब्रह्मा की इस घोषणा को सुन कर विश्वामित्र बहुत दुखी हुए। उन्होंने सोचा था कि वे ब्रह्मर्षि पद के अधिकारी होंगे, किन्तु उनको ऋषियों में कनिष्ठतम यानी राजर्षि ही स्वीकार किया गया। इसलिये वे पुनः घोर तपस्या में लीन हो गये।

उस समय अयोध्या में त्रिशंकु नामक एक इक्ष्वाकु वंशीय राजा का शासन था। राजा के मन में अचानक एक विचित्र विचार आया। उनकी इच्छा हुई कि वह यज्ञ कर के सशरीर स्वर्ग पहुँचे। महर्षि वशिष्ठ को बुला कर उनके समक्ष उन्होंने अपनी इच्छा व्यक्त की। वशिष्ठ ने कहा कि सृष्टि के नियमों के प्रतिकूल होने के कारण सशरीर स्वर्ग जाना असम्भव है। परन्तु राजा त्रिशंकु ने तो मन बना ही लिया था। इसलिए वे महर्षि वशिष्ठ के उन सौ पुत्रों के पास गये, जो तपस्या कर रहे थे। उन गुरुपुत्रों ने भी ऐसा यज्ञ करने से इंकार कर दिया। तब त्रिशंकु ने कहा कि ‘‘मैं बहुत उम्मीद ले कर आप सभी के पास आया था, परन्तु आपने मुझे निराश किया। अब मैं किसी अन्य ऋषि के पास जाऊँगा।’’ त्रिशंकु की यह बात वशिष्ठ-पुत्रों को चुभ गयी; और उन्होंने उसको चांडाल होने का शाप दे दिया। फिर होना क्या था! रात बीतते ही राजा त्रिशंकु चांडाल के समान हो गये। उनके शरीर का रंग नीला पड़ गया। राजा को चांडाल के रूप में देख कर उनके साथ आये मन्त्री और पुरवासी उनका साथ छोड़ कर भाग गये।

दुखी त्रिशंकु अकेले ही विश्वामित्र की शरण में पहुँचे। त्रिशंकु ने कहा कि ‘‘मुझे मेरे गुरु और गुरुपुत्रों ने ठुकरा दिया है। परन्तु मैंने भी ठान लिया है। मैं इसी विद्रूप शरीर के साथ स्वर्ग जाना चाहता हूँ। मैंने सैंकड़ों यज्ञ किये हैं, किन्तु उनका यथेष्ठ फल मुझे नहीं मिला है। मैं क्या करूँ?’’ राजा को इस दीन-हीन अवस्था में देख कर विश्वामित्र का मन द्रवित हो उठा। उन्होंने राजा को आश्वस्त करते हुए कहा कि ‘‘तुम चिन्ता न करो। गुरु के शाप से मिले इसी रूप में मैं तुम्हें स्वर्ग भेजने के लिये तैयार हूँ।’’

विश्वामित्र ने सैकड़ों ऋषियों-मुनियों को एकत्र करके विधिपूर्वक एक विशेष यज्ञ आरम्भ किया। वे स्वयं याजक (अध्वर्यु) बने; और अपने तपबल से उन्होंने त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया। उसको स्वर्गलोक में आया देख कर समस्त देवताओं सहित इन्द्र ने कहा कि ‘‘तेरे लिए स्वर्ग में कोई स्थान नहीं है। तुम गुरु के शाप से नष्ट हो चुके हो। अतः पृथ्वी पर नीचे मुँह किये गिर जाओ।’’

त्रिशंको गच्छ भूयस्त्वं नासि स्वर्गकृतालयः।
गुरुशापहतो मूढ पत भूमिमवाक्शिराः।।5


इन्द्र के इतना कहते ही त्रिशंकु स्वर्ग से नीचे गिरने लगे। इस दौरान निरुपाय होकर वे विश्वामित्र को कातर स्वर में पुकारने लगे। अपने प्रयास को विफल होता देख कर और त्रिशंकु की पुकार सुन कर विश्वामित्र को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा कि ‘‘राजन्! वहीं ठहर जाओ।’’ विश्वामित्र ने मन्त्र शक्ति से उनको आकाश में ही रोक लिया। इन्द्र की शक्ति के कारण वे ऊपर जा नहीं सकते थे और विश्वामित्र की शक्ति के कारण नीचे गिर नहीं सकते थे। अतः अधोमुख होकर अन्तरिक्ष में ही लटक गये।

कहते हैं, अन्तरिक्ष में उल्टा हो कर लटके त्रिशंकु के मुख से गिरी लार से कर्मनाशा नामक नदी की उत्पत्ति हुई। सनातन हिन्दू कर्मनाशा को बहुत ही अपवित्र मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस नदी में स्नान करने से मनुष्य द्वारा पहले से अर्जित पुण्य का नाश हो जाता है। अतः इस नदी के पार जाने वाले को पाप का भागी माना जाता था। काशी की ओर से मगध जाने के लिये कर्मनाशा नदी को पार करना पड़ता था। वैदिक जन कर्मनाशा के उस पार के पूर्वी भाग को शनिचर का छाया-क्षेत्र मानते थे। कहना न होगा कि उत्तर-वैदिक काल में मगध एक निषिद्ध क्षेत्र था। यह अलग बात है कि आगे चल कर राम, कृष्ण और बुद्ध के सांस्कृतिक अभियान के परिणामस्वरूप मगध का गया क्षेत्र वैदिक और अवैदिक दोनों परम्पराओं के शिखर तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार त्रिशंकु के रथ की छाया जिस क्षेत्र में पड़ी, वह देश मगध के नाम से जाना गया। जबकि बौद्ध विद्वान बुद्धघोष के अनुसार मगधनामक एक क्षत्रिय जाति की निवास भूमि के कारण यह क्षेत्र मगध कहलाया। बुद्धघोष ने परमत्थ जोतिकामें मगध के नामकरण के सम्बन्ध में एक अन्य बात कही है। चेतिय नाम के राजा ने झूठ बोलना शुरू किया। अपने इस कृत्य के कारण वह धरती में धँसने लगा। यह देख कर उसके पास खड़े सभी लोगों ने एक स्वर में कहा- मा गधं पविस।’ (गड्ढे में प्रवेश मत करो) फिर भी राजा चेतिय धरती में प्रवेश कर गया। तभी राजा ने देखा कि कुछ लोग धरती को खोद रहे हैं। धरती में धँसते जा रहे राजा ने उन लोगों से कहा कि तुम लोग गड्ढा मत करो- मा गधं करोय। इस घटना के बाद उस प्रदेश का नाम मगध पड़ गया।




मगध की व्युत्पत्ति


नस्ल, भाषा और संस्कृति के आधार पर इतिहास में एक समुदाय को आर्य कहा गया है। इससे दरअसल एक सांस्कृतिक समुदाय का बोध होता है। आर्य शब्द संस्कृत के धातु से बना है। अलग-अलग गणों में जो धातु पायी जाती है, वह प्रायः गत्यर्थक है। इस प्रकार आर्य शब्द का अर्थ है गतिशील या घुमक्कड़। लगता है, आर्यों को स्थायी घर बना कर रहना पसन्द नहीं था। वे अक्सर भ्रमणशील रहते थे; और जहाँ उनके पशुओं के लिए चारे तथा अपने लिये भोजन की बहुलता हो, वहाँ मंडप (तम्बू) बना कर रहते थे। कालान्तर में सप्तसिन्धु प्रदेश सहित पूरे आर्यावर्त में उन्होंने अपने लिये स्थायी घर तो बना लिये, किन्तु यज्ञ-अनुष्ठान के लिये मंडप की अनिवार्यता को बनाये रखा। आज भी यज्ञ-अनुष्ठान के लिए हम मंडप अवश्य बनाते हैं। बहरहाल, आगे चल कर आर्य शब्द श्रेष्ठता का वाचक बन गया। तब से आर्य शब्द से भद्र, कुलीन एवं स्वतन्त्र व्यक्ति का बोध होता है।

आर्यों को लेकर इतिहासकारों में मतैक्य का अभाव है। इस सन्दर्भ में दो स्पष्ट खेमे बने हुए हैं। एक खेमा तथाकथित राष्ट्रवादी इतिहासकारों का है, जबकि दूसरा वामपन्थी इतिहासकारों का। आर्य-विषयक विवाद की शुरुआत पश्चिमी विद्वानों ने की। पश्चिमी विद्वान दुनिया की प्रत्येक श्रेष्ठ बात और विचार का सम्बन्ध पश्चिम से जोड़ने के पक्षपाती रहे हैं। उनको लगता रहा है कि भारत एक आदिम मनोभावापन्न देश है। यहाँ जो भी सामान्य या हीन तत्त्व है, वह इनका स्वयं का है; किन्तु इनके पास जो भी श्रेष्ठ और उत्तम है, वह पाश्चात्य देशों से आया है। दुर्भाग्यवश भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों ने पाश्चात्य विद्वानों के पूर्वाग्रह-युक्त दृष्टिकोण का ही अनुगमन करते हुए भारत को आर्यो का मूलस्थान मानने से परहेज किया है; और आर्यो को भारत के बाहर का सिद्ध करने की जी-तोड़ कोशिश की है।

पाश्चात्य और माक्र्सवादी इतिहासकारों के अनुसार आर्यो के सबसे पुराने समूह को आद्य हिन्द-यूरोपीय समुदायकहा गया है। नस्ल, भाषा और संस्कृति के आधार पर बना यह समुदाय धीरे-धीरे कई इकाइयों में बँट गया; और इसके सदस्य यूरोप एवं एशिया में फैल गये। 18000 पू0 के बाद आर्यों की छोटी-छोटी टोलियाँ कई चरणों में भारत आयीं; और पश्चिमोत्तर भारत से दक्षिण-पूर्व की ओर बढ़ते हुए देश में जहाँ-तहाँ बसती चली गयीं।

शुरू में आर्य लोग आधुनिक अफगानिस्तान के इलाके में आकर बसे; और उसको ब्रह्मवर्तनाम दिया। उत्तर-वैदिक काल में जब उनका क्षेत्र-विस्तार सप्तसिन्धु प्रदेश से ले कर गंगा घाटी के मैदान तक हो गया, तब इस सम्पूर्ण भूभाग को उन्होंने आर्यावर्तनाम से सम्बोधित किया। आर्य जिस क्षेत्र में बसते थे या जहाँ उनका आवत्र्त था (यानी जहाँ उनकी घनी आबादी थी), उसको आर्यावर्त कहा जाता था। आर्यावर्त का प्रथम उल्लेख 2000 के आस-पास रचे गये मनुस्मृति में मिलता है। मनुस्मृति के अनुसार आर्यावर्त हिमालय से ले कर विन्ध्य पर्वत तक और पूर्वी समुद्र से ले कर पश्चिमी समुद्र तक फैला हुआ था। आर्य विदेशी धरती से भारत भूमि पर आये और पश्चिमोत्तर भारत के सप्तसिन्धु प्रदेश में आ कर बसे, यह विवाद का विषय हो सकता है; लेकिन यह कहा जा सकता है कि आर्य शुरू में भारत के सप्तसिन्धु प्रदेश में आबाद थे और बाद में भारत के पूर्वी और दक्षिणी भाग में बसते चले गये।

प्रव्रजन और पुनर्वासन की इसी प्रक्रिया में आर्यो का एक समूह मगध में आ कर बस गया। मगध में बसने वाली आर्यों की इस आरम्भिक शाखा का नाम मगथा। प्राचीन भारतीय साहित्य में मग शब्द के दो पाठान्तर भी मिलते हैं- सगऔर मदसगसम्भवतः शकशब्द का प्राकृत रूपान्तर है, जबकि मदशब्द मादका रूपान्तर है। जहाँ तक मादकी बात है, यह एक ईरानी जाति थी, जिसका उल्लेख असीरिया के नौवीं शताब्दी ईस्वी पूर्व के अभिलेखों में मिलता है। प्राचीन काल में ईरानी पुरोहितों को फारसी भाषा में मगुसकहा जाता था; और मग शब्द इस मगुसका संस्कृत रूप है। पुराणों में मगशब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार बतायी गयी है-
म - मकर - सूर्य
ग - गच्छतीति
मग अर्थात सूर्य का अनुगमन करने वालेयानी सूर्य की उपासना करने वाले।

ईरानी भाषा का मगुसशब्द यूनानी में मगि’, ‘मागिया मेगासके रूप में प्रयुक्त हुआ है। बाइबिल में इस शब्द का प्रयोग पूरब के विद्वान जनके अर्थ में हुआ है, जो ईसा मसीह के जन्म लेने के बाद महान भविष्यवाणी करने के लिये उनके पिता के पास पहुँचे थे। पुराणों में उल्लिखित मगाः ब्राह्मणभूयिष्ठाःसे मग लोगों के स्वरूप का एक संकेत मिलता है। भूयिष्ठ का शाब्दिक अर्थ है - अत्यन्त महत्त्वपूर्ण। इस प्रकार मग एक महत्त्वपूर्ण ब्राह्मण वर्ग सिद्ध होता है। कुल मिला कर मग ब्राह्मणों की एक शाखा थी, जो सूर्य के उपासक के रूप में जानी जाती थी। इस मग जाति की भूमि होने के कारण ही उत्तर-पूर्वी भारत में गंगा के दक्षिण में स्थित एक जनपद का नाम मगधपड़ा। मगधका शाब्दिक अर्थ है- मगों को धारण करने वाला। (मग $ ध)


ईरानशब्द की व्युत्पत्ति आर्यानाम्अर्थात आर्यो का (देश)से हुई है।6 उल्लेखनीय है कि मार्क्सवादी इतिहासकार जिसको आर्यों के भारत आगमन का काल कहते आये हैं, उस समय (यानी 18000पू0 में) भारत और ईरान की सीमाएँ प्रायः मिली हुई थीं। दोनों के धर्म और रीति-रिवाज में भी बहुत भिन्नता नहीं थी। धर्म में भिन्नता तब हुई, जब जरथुस्त्र ने एक नया धर्म चलाया। ‘‘0 पू0 1400 के आसपास के मितन्नी अभिलेखों से पता चलता है कि एक आर्यभाषा में भारतीय-आर्य देवताओं की उपासना करने वाले लोग ईरान की उरमिया झील के समीप बसे हुए थे। ईरान में इन्हीं इन्द्र, वरुण, मित्र आदि देवताओं की उपासना होती थी, परन्तु ई0 पू0 छठी सदी के अन्तिम समय में जरतुश्त ने इनको बहिष्कृत कर दिया।’’7 मौर्यां के पहले गन्धार और भारत के कुछ अन्य पश्चिमोत्तर भाग ईरानी साम्राज्य के अधीन हुआ करते थे। फिर मौर्य-काल में ईरानी राज्य का कुछ भाग भारत में मिला लिया गया था। तक्षशिला विद्या का केन्द्र था, इसलिये निश्चित रूप से ईरान के विद्यार्थी भी आते होंगे। मौर्यां के बाद शकों के शासनकाल में भी ईरान और भारत के कुछ भूभाग एक ही राज्य के अन्तर्गत थे। इस प्रकार, ईरान में इस्लाम के उद्भव और प्रसार के पहले तक भारत और ईरान की सांस्कृतिक भावभूमि एक समान थी।

अतः एक अनुमान यह है कि मगध के मगों की कोई शाखा प्राचीन काल में ही ईरान चली गयी थी। ईरान मगध के मगों ही नहीं, बल्कि मध्य देश का एक उपनिवेश प्रतीत होता है। परन्तु वहाँ उसने अपने मूल भारतीय नाम मग को मगुसया मगि के रूप में सुरक्षित रखा।

शकस्थान और शकद्वीप

वैवस्वत मनु के नौ पुत्र थे। उन्हीं में से एक पुत्र नरिष्यन्त के वंशज भारत के बाहर मध्य एशिया चले गये; और शक के नाम से प्रसिद्ध हुए।8 वेद व्यास कृत महाभारतमें शकों के चार जनपदों का उल्लेख किया गया है - मग, मशक, मानस और मन्दग। भविष्य पुराणमें मगों को ब्राह्मण, मशकों को क्षत्रिय, मानसों को वैश्य और मंदगों को शूद्र की श्रेणी में रखा गया है। विष्णु पुराणके अनुसार मगशाकद्वीपी ब्राह्मणों का एक उपनाम है। भारत में आज भी शाकद्वीपी ब्राह्मणों को मगकहा जाता है। मानव विज्ञानी शेरिंग का यही मत है कि शाकद्वीपीमगध के आदि-निवासी ब्राह्मण हैं। शाकद्वीपी नामक यह ब्राह्मण जाति मगद्विजया सूर्यद्विजभी कहलाती थीं। ये लोग सूर्य के उपासक तो थे ही, इन्द्रजाल रचने में भी सिद्धहस्त थे।

भारतीय भुवनकोश नामक एक प्राचीन ग्रन्थ में शाकद्वीपका वर्णन मिलता है। शाकद्वीप का सम्बन्ध क्षीरोद समुद्र के साथ भी जोड़ा गया है। कास्पियन सागरका पुराना नाम क्षीर सागरथा। इतालवी व्यापारी एवं खोजी-यात्री मार्कोपोलो’ (1254-13240) के समय तक कास्पियन सागर को क्षीरवान्कहा जाता था।9 लगता है, शक मूलतः कास्पियन सागर के आसपास के रहने वाले थे। प्राचीन काल में यूरेशिया द्वीप में डेन्यूब नदी से ले कर आल्ताई पर्वत-श्रेणी तक फैली भूमि पर शक जाति के लोग आबाद थे। दूसरी सदी ई0 पू0 के उत्तरार्ध में चीन के यू-चीकबीले ने शकों को वहाँ से दक्षिण की ओर खदेड़ दिया। बाध्य हो कर शक लोग कुछ समय के लिये ईरान के पूर्वी भाग में आ कर बस गये। अतः पूर्वी ईरान के उस क्षेत्र को शक स्थान’ (या सीस्तान) कहा जाने लगा। शक-स्थान कहने से शकों की बस्ती का बोध होता है। कुछ समय बाद वे लोग बलुचिस्तान के रास्ते सिन्धु नदी के निचले काँठे में आ कर बस गये। सिन्धु नदी के तट पर स्थित शकों के इस निवास-स्थान को भारतीय साहित्य में शकद्वीपकहा गया है।

गरुड़ पुराणके अनुसार मगों को भारत में ला कर बसाने का श्रेय श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को है। कृष्ण और जाम्बवती के पुत्र साम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। उन्होंने अपने रोग के निवारण के लिए सिन्धु नद और चन्द्रभागा नदी के संगम पर मूलस्थान (मुल्तान) में एक सूर्य मन्दिर बनवाया।10 प्राचीन चन्द्रभागा तीर्थ में सूर्य-पूजन सम्बन्धी अनुष्ठान को पूरा करने के लिए सुयोग्य पुरोहितों की खोज की गयी। आर्यावर्त में उपयुक्त पुरोहित नहीं मिलने के कारण शकद्वीप से 18 मग ब्राह्मणों को बुलवाया गया, जो जरशब्द (या जरशस्त) के अनुयायी थे। कहते हैं, इसके बाद ही भारत में सूर्य की तान्त्रिक पूजा-पद्धति का सूत्रपात हुआ।

भविष्य पुराणके ब्राह्मपर्व में भी यह कथा दुहरायी गयी है। उसके अनुसार श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। उनके इलाज के लिये शकद्वीप के मग ब्राह्मणों को बुलवा कर सूर्य सम्बन्धी अनुष्ठान कराना आवश्यक था। अतः विष्णु के वाहन पक्षिराज गरुड़ को शकद्वीप भेजा गया। वे वहाँ के 18 मग ब्राह्मणों को अपने साथ ले कर आये, जिन्होंने सूर्य देव की विधिवत पूजा करके साम्ब को निरोग कर दिया। स्वस्थ होने के बाद साम्ब ने देवर्षि नारद की सलाह पर शक द्वीप की यात्रा की; और मुल्तान में एक भव्य सूर्य मन्दिर का निर्माण करवाया।

सूर्यदेव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये साम्ब ने मगध क्षेत्र में भी सूर्य मन्दिर बनवाए, जिनमें गया, देव, पंडारक और बड़गाँव के सूर्य मन्दिर उल्लेखनीय है। आगे चल कर सूर्य प्रतिमा की स्थापना एवं अनुष्ठान-पूजन मग पुरोहितों द्वारा ही किया जाने लगा। वराहमिहिर के अनुसार सूर्य-मन्दिर के पुजारी के पद पर शाकद्वीपीय ब्राह्मण को ही नियुक्त किया जाना चाहिए।11 आज भी मगध क्षेत्र में गया के आस-पास शाकद्वीपी मग ब्राह्मण बड़ी संख्या में विद्यमान हैं। एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि गन्धार और मथुरा में बनी कई सूर्य प्रतिमाओं में सूर्य देव को वैसा ही बूट (जूते) पहने दिखाया गया है, जैसे बूट शक जाति के योद्धा लोग पहनते थे। अलबरुनी के अनुसार उसके समय में मग नामक पारसिक पुरोहित भारत में विद्यमान थे।




मग जाति और मग संस्कृति

शाकद्वीपीय मगों को विदेशी मूल के ब्राह्मण समझता जाता रहा है। शाकद्वीपीय कहे जाने वाले मग-ब्राह्मणों को प्राचीन साहित्य और अभिलेखों में याजक, भोजक, तारक, वर्णक, भिषग्, देवलक आदि कहा गया है। यद्यपि सांस्कृतिक संक्रमण के परिणामस्वरूप यह प्रवृत्तियाँ धीरे-धीरे पूरे हिन्दू समाज (और मुख्यतः ब्राह्मण समाज) में समाहित होती चली गयी।

डा0 माता प्रसाद त्रिपाठी ने लिखा है कि ‘‘हमें ज्ञात है कि अभी कुछ दशकों पूर्व तक (भारतीय स्वाधीनता-प्राप्ति के एक-दो दशकों बाद तक) हमारे सरयूपारीण ब्राह्मण-समाज में भी, विशेषतः कोशल-काशी-मगध-क्षेत्र में, संस्कृत-शिक्षा और आयुर्वेद का अविनाभाव सम्बन्ध रहा है।

मेरे अपने ही कुल में न केवल निःशुल्क संस्कृत-शिक्षा दी जाती थी अपितु दैहिक त्रिदोष-शमन के लिये कई महत्त्वपूर्ण आयुर्वेदिक औषधियों का निर्माण व उनका निःशुल्क वितरण किया जाता था। घर के आस-पास जड़ी बूटियों की बाड़ी होती थी। यह मात्र परम्परा का निर्वाह न था वरन् यह एक लोक-कल्याणकारी सत्कार्य था। कहने की आवश्यकता नहीं कि संस्कृत-वाङ्गमय, आयुर्वेद, ज्योतिष व नक्षत्र-विद्या तथा विविध आभिचारिक आगमिक कृत्यों में जो मागी मत में मूलतः रही है, सांस्कृतिक अन्तरावलम्बन की प्रक्रिया में उक्त प्रवृत्तियाँ न्यूनाधिक रूप से पूरे भारतीय समाज में व्याप्त होती गयी, विशेषकर कोसल-मगध-क्षेत्र में। आश्चर्य की बात यह है कि रूढ़िगत आचार-व्यवहार में भेदमूलक विरोध के स्वर भी यहीं मुखरित हुए। इसका प्रबल कारण सम्भवतः सुदूर अतीत के यथार्थ-बोध से कट जाना अथवा अनभिज्ञ होना था। मग-ब्राह्मण और व्रात्य-जन ऐसे ही उदाहरण हैं जिनके अभिज्ञान की समस्या विद्वज्जनों में आज तक विद्यमान रही है। कुतर्क और रूढ़िग्रस्तता के कारण ही ब्राह्मण समाज का अधःपतन होता गया और शाश्वत मूल्यों की अक्षुण्ण धारा भी टूटी, मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं।’’12

जो भी हो, ओझाई की क्षुद्रआजीविका और निम्न चित्त-वृत्ति के व्यक्ति से लेकर उच्च अध्यात्म-स्थिति सम्पन्न परिव्राजकों तक की भिन्न श्रेणियों का ब्राह्मणत्व प्राची में मिलता है। इस ब्राह्मणत्व का इतिहास इस क्षेत्र में काफी पुराना है-यह कम से कम अथर्ववेद के काल तक तो जाता ही है। यह ब्राह्मणत्व सप्तसिन्ध-प्रदेश के उदीच्य ब्राह्मणों से पूर्णतया समीकृत नहीं किया जा सकता। इसकी अपनी अलग पहचान है और इसकी प्राच्यदेश में अथर्ववेद से निरन्तर प्रवहमान परम्परा दिखायी देती है।13 इस कथन की पुष्टि प्रो0 गोवर्धन राय शर्मा के इस मत से होती है जिसमें वे कहते हैं कि ऋग्वेदीय संस्कृति गोधूम (गेहूँ) आधारित थी, जबकि अथर्ववेदीय संस्कृति व्रीहि संस्कृति थी। तीसरी और दूसरी सहस्त्राब्दि ईसा पूर्व की इन दोनों संस्कृतियों का अध्ययन कर के प्रो0 गोवर्धन राय शर्मा ने यह सिद्ध किया है कि इस काल में विन्ध्य और समीपवर्ती गांगेय क्षेत्र धान्य के उत्पादन का केन्द्र था और यहीं से इसका प्रसार भारत के विभिन्न क्षेत्रों, पूर्वी एवं दक्षिणी भागों में हुआ। धान और कृष्णलोहित के विस्तार का मानचित्र एक ही है। दूसरी ओर सप्तसिन्धु और सरस्वती का प्रदेश, जो सैन्धव सभ्यता का मूल क्षेत्र था, गेहूँ के उत्पादन और उपयोग का केन्द्र था। इस विवेचन ने प्राच्य क्षेत्रीय अथर्ववेदीय संस्कृति का मूल, ईसा पूर्व द्वितीय-तृतीय सहस्त्राब्दि स्थिर किया और उसकी समकालीनता सिन्धु घाटी की सभ्यता के साथ निर्णीत की।14

अरुर्मघ का उत्तर पद मघ और अवेस्ता का मग वस्तुतः समानार्थक हैं। पौरोहित्य से वृत्ति (धन) प्राप्त करने वालों को मघ कहा जाता था और जो भिषग् (अर्थात- रक्तस्त्राव के चिकित्सक) थे उनको अरुर्मघकहा जाता था। मगकी मूल अवधारणा आर्यों के ही एक वर्ग विशेष को व्यक्त करती है और ऋग्वेदीय पद मघसे उसकी पहचान की जा सकती है।

प्राक् ऋग्वेदीय अथवा प्राक् भारतेरानी युग में एक ऐसा वर्ग आर्यों के बीच में ही अभ्युदित हो रहा था जो देव-पूजक तो था किन्तु वैदिक यज्ञ-परम्परा की धारा से कटा हुआ था। देव-पूजन अथवा देव-सेवा-कार्य के कारण वह मघकहलाता था। इस कार्य के लिये उसे जो सेव्य (चाहे उसे दक्षिणाकह लें) प्राप्त होता था, उसे भी मघही कहा जाने लगा। सम्भवतः इसीलिये ऋग्वेदीय काल में मघशब्द से अधिकांशतया धन अर्थ ध्वनित होता है। मघका सम्प्रदाय-बोधक अर्थ, यद्यपि ईरान में जरथुस्त्रीय मत के विधिवत प्रचार-प्रसार के कम से कम एक सहस्त्र वर्ष पूर्व हो चुका था। रोचक बात तो यह है कि प्रारम्भ में बहिष्कार करके अन्ततः जरथुस्त्रीय विचारधारा ने न केवल इसे स्वीकार किया अपितु इसके प्रसार में प्रमुख भूमिका निभायी। ब्राह्मण ग्रन्थों में इसे इन्द्र-विरोधी यतियों, असुरों अथवा ब्राह्मणों से सम्बद्ध बताया गया, अस्तु मघ-मग वैदिक कर्म काण्डीय आर्य-धर्म से असम्बद्ध हो कर भी आर्यों की ही एक अन्य परम्परा को उपलक्षित करते हैं।15

मग जिन्हें हम शाकद्वीपीय ब्राह्मण के रूप में जानते हैं, विदेशी न हो कर स्वदेशीय धारा के अंग रहे है। यह वर्ग मिथ्रनाम से सूर्य एवं अग्निकी उपासना करता था। प्रारम्भिक युग में द्वन्द्व की प्रक्रिया से गुजरते हुए ही कालान्तर में इन्होंने अपना शास्त्र विकसित किया।

ईरान नाम से ही स्पष्ट है, यह मूलतः आर्य देश और संस्कृति का उद्बोधक पद रहा है। ईरान के प्रसिद्ध सम्राट् दारायवौष् अपने बेहिस्तून अभिलेख में बड़े गर्व के साथ कहता है- ‘‘मैं आर्य, आर्यवंशोद्भूत हूँ और मेरा देश एरियाना बैजो’ (आर्यों का श्रेष्ठ देश) है।’’ दरअसल, ईरान में साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का ईसा पूर्व की प्रथम सहस्त्राब्दी में जो क्रमिक उत्थान-पतन हुआ उसके कारण ही ग्रीक-रोम साम्राज्य का अभ्युदय हुआ; और उसने ईरान की मूल आर्य-सांस्कृतिक धारा को दबा दिया।

सामान्यतः मगों को अभारतीय मानते हुए यह कहा जाता है कि मग और उनकी परम्परा का भारत में प्रवेश छठी शताब्दी ई0 पू0 के उत्तरार्द्ध में, ईरानी सम्राट साइरस द्वारा भारत पर किये गये आक्रमण के बाद हुआ। मगशब्द की भाषा-वैज्ञानिक अर्थवत्ता पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि मग शब्द न तो आयातित है; और न ही अभारतीय। अरुर्मघ स्पष्टतः मगों के प्राचीन स्वरूप की याद दिलाते हैं। दरअसल वे आर्यों के ही एक वर्ग विशेष के ब्राह्मण हो कर भी अलग समझे जाते रहे।

इस परम्परा के मूल इष्टदेवता भले ही मिथ्रं (मित्र), सिंह, मिहिर- सूर्यरहे हों, पर इस परम्परा को सूर्योपासना परम्परा कह कर सीमित नहीं किया जा सकता क्योंकि इसने भारतीय धर्म और समाज के इतिहास में ज्ञान-विज्ञान विषयक कई धाराओं का प्रसार किया। शाकद्वीपीय मग ब्राह्मणों को ही आधुनिक काल में बहुधा साकलदीपी ब्राह्मणकहा जाता है।

अत्रि स्मृति के अनुसार दस प्रकार के ब्राह्मण थे-16
(1) देव-ब्राह्मण (जो प्रतिदिन स्नान, सन्ध्या, जप, होम, देव-पूजन, अतिथि-सत्कार एवं वैश्वदेव करता हो)
(2) मुनि-ब्राह्मण (जो वन में रहता हो, कन्द, मूल एवं फल पर जीता हो और प्रतिदिन श्राद्ध करता हो)
(3) द्विज-ब्राह्मण (जो वेदान्त पढ़ता हो, सभी प्रकार के अनुरागों एवं आसक्तियों को त्याग चुका हो और सांख्य एवं योग के विषय में निमग्न हो)
(4) क्षत्र-ब्राह्मण (जो युद्ध करता हो)
(5) वैश्य-ब्राह्मण (जो कृषि, पशुपालन और व्यापार करता हो)
(6) शूद्र-ब्राह्मण (जो लाख, नमक, कुसुम्भ के समान रंग, दूध, घी, मधु, मांस आदि बेचता हो)
(7) निषाद-ब्राह्मण (जो चोरी-डकैती करता हो, चुगली करता हो और मांस-मछली खाता हो)
(8) पशु-ब्राह्मण (जो ब्रह्म के विषय में कुछ भी न जानता हो और अपने यज्ञोपवीत को लेकर अहंकार करता हो)
(9) म्लेच्छ-ब्राह्मण (जो कुओं, तालाबों और बागीचों को क्षति पहुँचाता हो)  
(10) चाण्डाल-ब्राह्मण (जो क्रूर, मूर्ख और निर्दिष्ट क्रिया-संस्कारों से अनभिज्ञ हो)।

अपरार्क ने देवल को उद्धत करते हुए ब्राह्मणों के आठ प्रकार बताये हैं-17
(1) जाति-ब्राह्मण (जो केवल ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ हो, जिसने वेद का कोई भी अंश न पड़ा हो)
(2) ब्राह्मण (जिसने वेद का कोई अंश पढ़ा हो)
(3) श्रोत्रिय (जिसने छह अंगों के साथ किसी एक वैदिक शाखा का अध्ययन किया हो; और ब्राह्मणों के छह कर्तव्यों का पालन करता हो)
(4) अनूचान (जिसे वेद एवं वेदांगों के अर्थ ज्ञात हों, जिसका हृदय पवित्र हो और जो अग्निहोत्र करता हो)
(5) भ्रूण (जो अनूचान होने के साथ ही यज्ञ करता हो और यज्ञ के उपरान्त जो बचे उसे ही प्रसाद के रूप में खाता हो)
(6) ऋषिकल्प (जिसे सभी प्रकार के लौकिक एवं वैदिक ज्ञान प्राप्त हो चुके हों और जिसका मन संयमित हो)
(7) ऋषि (जो अविवाहित, सत्यवादी एवं पवित्र जीवन जीने वाला हो; और वरदान या शाप देने का अधिकारी हो) 
(8) मुनि (जो अनासक्त, निवृत्त एवं अनुराग-विहीन हो; और जिसकी दृष्टि में सोना और मिट्टी का मोल बराबर हो)।
उक्त सूचियों में मगनाम नहीं है। सम्भवतः पहली सूची में द्विजकहकर कार्य चलाया गया हो, क्योंकि मागी वाङ्गमय में मगों को मग-द्विज, देव-द्विज या सूर्य-द्विज कहा जाता रहा है। अंग्रेजी का मैजिक शब्द मगसे ही निकला है, इसलिये आभिचारिक (मैजिकल) कृत्यों का व्यापक प्रसार मगों द्वारा ही हुआ। सूर्य और अग्नि की पूजा करन वाले मगों द्वारा ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान स्वाभाविक ही था। भारतीय ज्योतिष-विद्या में उनका यह योगदान उल्लेखनीय है। मग या मघ मूलतः प्राकृतिक चिकित्सक थे। भैषज्य उनके रक्त में रहा है।

कोणार्क, कालप्रिय और मूलस्थान मागी परम्परा के तीन पुराने सौर केन्द्रथे। ये तीन केन्द्र दरअसल सूर्य के क्रमशः तीन पादविक्षेपों- उदयगत, मध्याह्नगत एवं अस्तगत स्वरूपों को व्यक्त करते थे।

भारत के पंचगौड़ एवं पंच द्राविड़ ब्राह्मण-वर्गों की तरह एक शाखा मग-ब्राह्मणों की भी प्रतिष्ठित रही है। यह शाखा उत्तर भारत में विशेषतः पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं पश्चिमी बिहार के मध्य अधिकाधिक फैली है। इस परिक्षेत्र में मगहर से मगध तक इन ब्राह्मणों के कई गाँव हैं। ‘‘यद्यपि ये लोग अत्यन्त भव्य गोत्र धारण करते हैं, तथापि गोत्रों को उचित महत्त्व नहीं देते। शाकद्वीपी ब्राह्मण लगभग 90 ‘पुरों’ (ग्राम्य आस्पदों) में विभक्त हैं। एक पुर के लोग भिन्न गोत्रों के होते हुए भी परस्पर विवाह-सम्बन्ध नहीं करते।’’18



सन्दर्भ और टिप्पणी:



1.        वाल्मीकीय रामायण, बालकांड, सर्ग 54

2.        वही, सर्ग 54

3.        वही, सर्ग 55

4.        वही, सर्ग 56

5.        वही, सर्ग 60

6.        दामोदर धर्मानन्द कोसम्बी, प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता, पृ0 101

7.        वही, पृ0 104

8.        आचार्य बलदेव उपाध्याय, पुराण विमर्श, पृ0 362

9.        वासुदेव शरण अग्रवाल, भारत सावित्री, पृ0 449

10.      प्राचीनकाल में पंजाब में बहने वाली चिनाब नदी को चन्द्रभागा कहा जाता था। तुर्क हमलावरों द्वारा चन्द्रभागा के तट पर स्थित सूर्य मन्दिर को नष्ट कर दिया गया। संयोगवश चन्द्रभागा नामक एक दूसरी छोटी-सी नदी उड़ीसा में बहती हुई समुद्र में जा कर मिलती है। अतः तुर्कों के आक्रमण के बाद ध्वस्त हुए मुल्तान के प्राचीन चन्द्रभागा तीर्थ को उत्कल (उड़ीसा) में स्थानान्तरित कर दिया गया। 12500 में इसी स्थान पर कोणादित्य नामक सूर्य मन्दिर बनवाया गया। इस स्थान को नवीन चन्द्रभागा तीर्थ मान लिया गया। उड़ीसा में कोणादित्य मन्दिर स्थापित होने के कारण यह स्थान कोणार्क कहलाया। आदित्य और अर्क दोनों का ही अर्थ सूर्य होता है।

11.      बृहत्संहिता (60/19)

12.      डा0 गीता राय के शोधग्रन्थ शाकद्वीपीय मग संस्कृतिकी भूमिका

13.      देवेन्द्र नाथ शुक्ल की पुस्तक ब्राह्मण समाज का ऐतिहासिक अनुशीलनकी प्रो0 विश्वम्भर शरण पाठक द्वारा लिखित भूमिका से उद्धृत

14.      प्रो0 गोवर्धन राय शर्मा, भारतीय संस्कृति: पुरातात्त्विक आधार, पृ0 96

15.      डा0 गीता राय, ‘शाकद्वीपीय मग संस्कृतिका प्राक्कथन

16.      डा0 पांडुरंग वामन काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-1, पृ0 153

17.      वही, पृ0 153

18.      देवेन्द्र नाथ शुक्ल कृत ब्राह्मण समाज का ऐतिहासिक अनुशीलन’, पृ0 276



पुस्तक का नाम: मगधनामा

लेखक : कुमार निर्मलेन्दु

मूल्य (लाइब्रेरी संस्करण): 995 रु.

(पेपरबैक संस्करण): 600 रु.

संस्करण  : प्रथम, 2019

कुल पृष्ठ  : 447

प्रकाशक का नाम: लोकभारती प्रकाशन,

पहली मंजिल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गाँधी मार्ग,
प्रयागराज - 211001  
 

कुमार निर्मलेन्दु







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फोन - 9415248712 
  

टिप्पणियाँ

  1. इतिहास प्रेमियों के लिए बहुत ही उपयोगी व प्रतिस्पर्धा परक पुस्तक है।अन्य पुस्तको से अधिक विस्तृत व अकूत ज्ञान से परिपूर्ण है।

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  3. सच और झूठ का घायल मेल के कारण ही इनकी विश्वनीयता संदिग्ध रही है। इसमें इतिहास कम और पोंगापाथी ज्यादा समाहित दिखता है।

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