हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताओं पर आशीष सिंह का आलेख "दरअसल कविताएं नहीं हैं ये, ये नगण्यता के पक्ष में जारी अपीलें हैं"





हरीश चन्द्र पाण्डे ऐसे कवि हैं जो अपनी कविताओं में जो अपने समय की शिनाख़्त शिद्दत से करते हैं। ऐसे समय जबकि प्रतिबद्धता की बात करना बेमानी लगने लगा है, हरीश जी उस मनुष्यता के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं जो इस समूचे विश्व को एक परिवार जैसे देखने में यकीन करती है। इस प्रतिबद्धता के साथ साथ एक निष्पक्षता उनके यहाँ बराबर दिखायी पड़ती है। हरीश पाण्डे की कविताओं पर एक आलेख लिखा है युवा आलोचक आशीष सिंह ने। आशीष समूची विनम्रता के साथ इसे एक टिप्पणी भर कहते हैं जबकि अपने आप में यह एक मुकम्मल आलेख है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताओं पर आशीष सिंह का आलेख "दरअसल कविताएं नहीं हैं ये, ये नगण्यता के पक्ष में जारी अपीलें हैं"।


"दरअसल कविताएं नहीं हैं ये

ये नगण्यता के पक्ष में जारी अपीलें हैं।"  


आशीष सिंह


(1)


''रचना देखत बिसर इ रचनाकार'' जनकवि त्रिलोचन के बरवै की यह पंक्ति अक्सर परेशानी में डालती रही है, खासकर तब जब हम हमारी मुलाकात तमाम एक ऐसी कविताओं से होती है जिनसे गुजरते हुए बार-बार रचनाकार की ओर भी मुखातिब होने की आकांक्षा बलवती होने लगती है। फिर भी एक अच्छी रचना  अपने रचनात्मक  गुण के चलते ही हमारी स्मृतियों में चुपचाप अपनी जगह बना लेती है। उसमें सन्निहित तमाम एक गुण धर्म, विचार, संवेदी-तंतु पंक्ति दर पंक्ति ही नहीं बल्कि उसके पीछे छूट रहे अवकाश में बहुविधि दृश्य बनते मिटते मिलते हैं। कुछ पकड़ में आते हैं, कुछ समय की गवाही दे रहे होते हैंकुछ महज अनुगूँजें बन कर दूर तक अटकी रह जाती हैं। जिन्हें अर्थाने से ज्यादा महज देखते रहने का जी करता है।


एक सृजनात्मक कर्म की इससे बड़ी सीफत भी और क्या होगी! हम किन्हीं बने बनाये सांचे खांचे में जब किन्हीं कवियों या कविताओं को समझने की कोशिशें करते हैं, मेरे ख्याल से शायद ही हम उस तक पहुंच बना पाते हों। ज्यादातर ऐसे सांचे खांचे आलोचकीय मन के वैचारिकी को संतुष्टि प्रदान करता या तो "अहो रूपम् अहो धन्यम्" की शाब्दिक अनुगूँज लिये अपनी चाही मुरादें पूरी करता है, या  'कुच्छो नहीं- कुच्छो नहीं' कहता हुआ अपने समय की कविता पर कुछ टीपें दर्ज कर आगे बढ़ जाता है। दरअसल हर रचना प्रथमतः अपने समय की तो होती है लेकिन अपने समय में बंधी नहीं होती है। एक सार्थक कविता अपने समय से पीछे भी जाती है और अपने समय के आगे भी। 'समय के अलग-अलग फाँक' नहीं कि जीवन के एक हिस्से पर कवि  'कूंची' फेरे और हम जीवन के तमाम दूसरे दृश्यों पर सोचने को विवश न हों। ऐसी कविताएं जीवन के जिन फांको-दराजों की ओर  इशारा करती है वे बहुत जाने पहचाने होने के बावजूद एक कवि दृष्टि से दिखते दिखाते हुए नये अर्थ संधान करती मिलती हैं। एक कवि की कविताओं से मुलाकात करते हुए न चाहते हुए भी हम इसी प्रकार की किन्हीं बातों से शुरुआत करते हैं, और कर भी क्या सकते  हैं। हमारे सामने हरीश चन्द्रपाण्डेय की कविताएं हैं। एक लम्बे समय से लिख रहे कवि की कविताएं हैं। एक धैर्यवान कवि की  कविताएं हैं। जिसने "सैकड़ो हजारों 'धुनों के बीच अपनी धुन को लगातार मांजता निखारता रहा बिना ऊबे, बिना  झिझके। वह भी तब जब आसपास के कई एक कवि कहे जाने वाले वरिष्ठ-कनिष्ठ संस्थाओं व सुविधाओं के कांधे पर सवार हो कर महज चर्चित हो पाने तक ही अभिशप्त हैं। और यह कवि है कि गांव-देहात की गलियों से भी लगभग पीछे छूट जा रहे जीवन की धुनों को बचाने में लगा है।  बावजूद इसके मन यह सवाल तो  उठता है कि --


"आधी शताब्दी से बजा रहे हो यही धुन
और ऊबे नहीं हो"


कौन बजाए बांसुरियां 


अपने समय को किस रूप में देख रहे हैं हमारे विद्वत जन। आजादी के बाद मोहभंग का दौर तद्जनित तमाम रचनायें, आगे चल कर नयी आकाँक्षाओं-उम्मीदों से लैस हो कर एक नये समाज का सपना संजोये लड़ते-जूझते जनजीवन की तस्वीरें, आक्रोश और दूसरी तरफ हतदर्प मन:स्थिति की टूटी बिखरी आत्मलीनता की हदतक निज क्रोड में डूबी तस्वीरें। यानि समय लगातार अपने को नये अर्थों में परिभाषित करता मिलता है। हरीश चन्द्र पाण्डेय जैसे कवियों का समय एक महास्वप्न के खण्डित होने का समय है, आर्थिक राजनीतिक रूप में विश्व-ग्राम में तब्दील होते निजी पूंजी के खुल्लमखुल्ला ताण्डव के आगाज का समय है और यही समय है जब धार्मिक  पुनरुत्थानवादी शक्तियाँ ऐतिहासिक रंगमंच अपने नये कलेवर-तेवर के रूप में सामने आ रही थी। ऐसे समय को एक सजग रचनाकार कितने रूपों में देखता समझता है और अपने दायित्वों को पूरा करने में दत्तचित्त है यह देखने के लिए हरीश चन्द्र पाण्डेय की कविताएं देखी जा सकती हैं। समकालीनता के परम्परागत अर्थों के कोरम को पूरा करने के रूप में नहीं बल्कि एक निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति की मामूली आकाँक्षाओं की निशानदेही करती पंक्तियों के रूप में भी। उतनी ही गहरी उतनी ही जरूरी जितनी गहरी पीड़ा औ जरूरत से जनमते  हैं शब्द। वैसे तो उनकी पहली कविता सन् 1974 में 'कुछ नहीं कह सकता' शीर्षक से ए. जी. आफिस की संगठन पत्रिका 'ब्रदरहुड' में छपी थी, तब से अनवरत सृजन कर्म जारी है। जबकि उन्हें पहला ब्रेक इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका 'कथ्यरूप' की तरफ से मिला। इस पत्रिका के सम्पादक अनिल श्रीवास्तव ने सन् 1994-95 में 'कुछ भी  मिथ्या नहीं' नामक पुस्तिका के जरिए हरीश चन्द्र पाण्डेय की महत्वपूर्ण कविताओं को प्रकाशित किया।  इस रोशनी में  कवि के 'धैर्य' और अधैर्य के बीच चले आये लम्बे कशमकश को समझा जा सकता है। क्या ये पंक्तियां अनायास जन्मी होंगी? 'अपने धैर्य की परीक्षा दे रहे' मन में जन्मीं हैं


अधैर्य का एक पुलिंदा मेरे गेट पर खड़ा है 
     
                                                 --- सहेलियां 


वे कलायें थी कथा-कहन की
ओट में रहने वाले अदम्भी कलाकार 
के हुनर का धैर्य भी

कठपुतलियां 


कलाकर्म में निबद्ध एक अदम्भी कलाकार का 'धैर्य' ही था कि जब हरीश चन्द्र पाण्डेय के तमाम समकालीन रचनाकारों के कई एक संकलन आ चुके थे, ऐसे में उनका पहला व्यवस्थित कविता संकलन  "एक बुरूँश कहीं खिलता है" सन् 1999 में इलाहाबाद के ही साहित्य संगम 'नामक संस्था के बैनर तले प्रकाशित हुआ। खैर यहाँ हमारा मकसद एक कवि की रचनायात्रा को तिथि-तारीखों में  निबंधित करना नहीं, बल्कि इस रोशनी में अपने कवि के समयकाल व उसकी कविताओं को समझने की कोशिश है।



(2)


'सृष्टि अपूर्व एक नुकीले पत्ते के कोण पर ठिठकी पड़ी है 
 बचा लो इसे'

बचा लो इसे 



आज निर्वसन किये जा रहे पहाड़, सूखती नदियाँ, तालाब, प्यास से दम तोड़ते पखेरू हैं तो एक कवि तृण-गुल्मों की नोक  तक पर  ठिठकी एक-एक बूंद को बचाने की कोशिश में है। न जाने किस-किस बूंद की कीमत चुकानी पड़े । इसीलिए हरीश चन्द्र पाण्डेय का कवि मन प्राकृतिक संपदाओं को लुटती-खंगालती पूंजी की संस्कृति का चेहरा सामने लाने के लिए किन्हीं बौद्धिक विमर्श या अतिरिक्त विवरण भरे बयानों की ओट में नहीं जाता बल्कि बेहद नजदीक से गुजर रहे जीवन व प्रकृति में आरहे परिवर्तन का चेहरा दिखाती मिलती है। यहाँ पहाड़ से निकलती छोटी-छोटी ऐसी नदियाँ हैं का जिक्र है, जिनका नाम भौगोलिक मानचित्र में शायद ही दर्ज हों। और क्योंकि 'नदियाँ कहीं भी नागरिक नहीं होती' (पेड़, लीलाधर जगूड़ी) इसीलिए उसके मारे जाने, दबाये जाने का जिक्र भी नहीं मिलता। कवि वैश्विक सरोकारों से लैस बड़े-बड़े मीडिया संस्थानों, पर्यावरणविदों के बीच एक दृश्य ले कर आता है। क्योंकि खबरची दुनिया में रोज घटने वाली बातें 'खबर' नहीं बनती हैं। 'एक नदी सूख गई' है। बस से सफर करते तर्जनी से इशारे करते हुए बताते हुए कहता है कि अभी पिछले साल तक इस नदी में पानी था, अब मरणासन्न है।


जैसी स्थानीय थी 
इसके सूख जाने का असर भी स्थानीय है अभी
किसी बड़ी चीज से इसके सूखने को जोड़ेंगे तो हँसेंगे लोग अभी 

अभी तो यह फूले गुब्बारे के बाहर रखी 
एक सुई है" 
                                     

एक नदी सूख गयी 


यहाँ गौरतलब बात यह है कि वे कौन सी सामाजिक शक्तियाँ हैं जो किसी किसान की  आत्महत्या और नदी के  सूखने को एक बड़ी सामाजिक समस्या के रूप में नहीं देखते हैं। क्या यह आज बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के बरक्स खड़ी बुनियादी समस्या नही है? सिर्फ एक पंक्ति में ही लेखकीय पक्षधरता व चेतावनी साफ-साफ लफ्जों में दर्ज है यहाँ। जाहिर है तथाकथित विकास का फूला गुब्बारा फूटेगा जरूर। "गांव के सीमांत पर खड़ा पेड़" आज नहीं रहा। उसकी स्मृतियों में जाते हुए जीवन की तमाम जानी-पहचानी घटनाओं के साथ उनके गांव के पास से बहने वाली एक छोटी नदी "कुथलाड़" भी दर्ज है। गांव से पोस्टकार्ड एक खबर लाया है कि 'अब धारे का पानी नहीं रहा'  पोस्टकार्ड यह खबर अपना एक कोना गंवा कर खबर लाया है। लोग जानते हैं कि जब किसी आत्मीय की  जीवन-लीला समाप्त हो जाती है तो दूरदराज सम्बंधियों को खबर भेजते समय लोग खत का एक कोना फाड़ देते हैं, यह बताने के लिए यह खबर दुखभरी है, देखते ही चले आओ।  नदी, झरनों, धारे व पेड़ों से आत्मीय लगाव उसी तरह का है  जैसा अपने परिवारीजनों के साथ होता है।



नब्बे के दौर के कवियों के सामने तलुवों तले मौजूद धरती पर बहती नदियों, 'सभ्यता' के बढ़ते-विकसते जिह्वा में सिमटते जाते जलप्रांतर की भयावह स्थिति दर्ज होने लगी थी। निश्चय ही सामाजिक-भौगोलिक परिवर्तनों की अनदेखी एक जिम्मेदार नागरिक कहाँ कर सकता है। वैसे कहने को तो यह दुनिया भर बाजार के एक दूसरे से नत्थी होजाने का दौर था, जहाँ तमाम तरह की उन्नत तकनोलॉजी राष्ट्र-राज्य औ समाज में नये किसिम के बदलाव ला रही थी। मकान दुकानों में बदल रहे थे, टाउन एरिया शहरों में बदल रहे थे। बावजूद इसके दो दुनिया आमने सामने ऐसी खड़ी मिलती है जो इस तथाकथित विकास को प्रश्नों के घेरे में ला खड़ी करती मिलती है। हरीश चन्द्रपाण्डेय की कविताओं में अपने समय का यही यथार्थ लगभग एक-दूसरे के सामने खड़ा मिलता है। बिना किसी अतिरिक्त शाब्दिक आक्रोश के, न ही किन्हीं वैचारिक उद्बोधन के वे बड़ी सहजता, विनम्रतापूर्वक कुछ ऐसे विरोधाभासी चित्र प्रस्तुत करते हैं जिनके पीछे थोड़ा ठहर कर झांके बगैर उन चित्रों में दर्ज चेतावनी नहीं समझी जा सकती। दिक्कत यह है कि जब दूसरे तमाम एक कवि ऐसे विरोधाभासी तस्वीरों के सहारे व्यवस्था, तंत्र या तत्कालीन शासनसत्ता को मुखरता से अपने कविता का विषय बनाते हैं, वैसे समय में हरीश चन्द्रदृश्यों में उतर कर जीवन को देखने-दिखाने की कोशिश करते हैं।


"इस समय जब राजधानी में एक ग्लोबल टेंडर खुलने ही वाला है 
उसे समेटना है ताजा गोबर"
    

उसके भाग से 


"इस बीच उदारता विश्वव्यापी हो गयी  थी
और स्थानीयता आत्महत्या करने लगी थी"


कार्य ही पूजा है 


निजीकरण-उदारीकरण के समय में असंतुलित सामाजिक विकास के तमाम चेहरे यहाँ दर्ज हैं। वे चाहे 'एक सेकंड सर' के बेरोजगार युवक हों जो कालबेल बजा कर निपट दुपहरी में दरवाजे-दरवाजे भटक रहे हैं, सब्जी बेचते बुजुर्ग, आत्महत्या करते किसान, गुल्लक, जैसी कई एक कविताओं के बीच हमें पूंजी की नयी संस्कृति और उससे जन्मे सामाजिक संकट की परेशान कर देने वाली तस्वींरें मिलती हैं। कठिन जीवनयापन करते लोगों की जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आ रहा है। माल संस्कृति से पटे पड़े बाजार, चकाचौंध भरी सड़कें ज्यों ही 'देहात जाती आखिरी बस' पर सवार हो अपने गंतव्य तक पहुंचती हैं तो  जीवन का स्याह चेहरा और दागदार मिलता है। रिपोर्ताजनुमा एक चित्र  जिंदगी की तल्ख हकीकत  बताने के लिए काफी है -


बैलगाड़ियों, खड़खड़ो, साईकिलों से बचते बचाते 
धुआं छोड़ते 
खेतों नालों को दहाड़ते हुए डाँकती जा रही है बस 
साँझ धुंधलके में पहुंच जायेगी गन्तव्य पर
उतरते ही बस से एक आदमी 
छोटे तराजू से आलू तोलने में जुट जाएगा
एक लड़का सयानी औरत की ओट में 
अँधेरे में बिला जाने के खिलाफ डगें तेज कर देगी 
एक चिकना सा  आदमी 
झूठी गवाही के लिए नये सिरे से
तैयारी करने लगेगा


अपने जिस्म के साथ साथ
बहुतों को ढो रही है यह बस 


देखना एक दिन 
इसका मालिक बड़े मालिक में बदल जाएग
ये देहात टाउन एरिया हो जाएगा
और ये बस खून की उल्टियाँ करते करते 
बैठ जाएगी एक जगह 
दिहाड़ी मजदूर सी"


  
सब कुछ बदल रहा है लेकिन मेहनत करने वाले लोगों की जिंदगी इसी खटारा बस जैसी ही है जिनकी जिंदगी बद से बदतर होती जा रही है। गौरतलब बात यह भी है कि हरीश चन्द्र पाण्डेय की कविताओं में अक्सर अंतिम पद अपने समय की सभ्यता-संस्कृति को पलटकर देखने को मजबूर कर देती है। यहाँ कहानी की तरह से गतिशील वर्णन भरी छोटी छोटी घटनाओं, स्थितियों के दरमियान जीवन की तस्वींरें मिलती हैं। महाविद्यालय का साईकिल स्टैंड, इक्कीसवीं सदी की ओर, लड़का और समय जैसी कवितायें महज जीवन का वर्णन ही नहीं बल्कि जीवन की आलोचना भी है। ऊपर से देखने पर बेहद सामान्य जीवन व मामूली  घटनाएं इन कविताओं की विषयवस्तु है, लेकिन चित्रलिखित भाषा में नहीं बल्कि असंगत जीवन चित्रों के रूप में। 'इक्कीसवीं सदी की ओर "जाते हुए फूलों-फलों लदे पेड़  वसंत में कितने खुशगवार लगते हैं लेकिन इसी बीच ऐसा सोचने वाले जन अभी  महज तेरह वसंत पूरे किये एक किशोर के रिक्शे पर सवार हैं। वे खुश हैं कि रिक्शा सस्ता मिल गया, वे खुश हैं कि मौसम कितना सुहावना हैं और अपने दिवंग  पिता की उम्र की पीढ़ी को बिना बेचारा बने ले जा रहा है किशोर। इसे पढ़ते हुए दया भाव नहीं बल्कि  आत्ममुग्ध मध्यवर्गीय जमात की स्थिति सामने आती है तो अंत आते-आते अपने समय को प्रश्ननांकित करती पंक्ति इस यथार्थ का वास्तविक चेहरा दिखाती मिलती है कि यह रिक्शा कोई किशोर बच्चा नहीं बल्कि फूल खींच रहा था। इक्कीसवीं सदी की ओर जाती यह दुनिया किन खुरदरे हाथों, कितने बचपने को रौंदती जा रही है। इन कविताओं में पूंजी की खाऊ-अघाऊ संस्कृति से लैस जिंदगी से ऊबे' हुए लोग हैं तो अपने जीवन की वास्तविकताओं का सामना करते ऐसे लोगों की बहुतायत है जिनके पास ऊबने का समय नहीं। ऊब रहे लोगों औ पिस रहे लोगों के बीच की जिंदगी यहाँ किनके 'समय' में बीत रही है।



वे जिनके पास ऊबने के लिए समय है जीवन में
ऊबने से बचने के लिए भी समय निकाल रहे हैं
और इस वक्त 
अपने बच्चों के लिए घोड़े तय कर रहे हैं
वे जिनके पास ऊबने के लिए समय नहीं है
घोड़ों की लीद निकालने के बाद
अब उनके अयालों पर कंघा फेर रहे हैं"


नैनीताल 

             
कठिन से कठिन हालात में हार कर चुप बैठे या निष्क्रिय आक्रोश की बयानबाजी नदारद है। कवि का टोन सम लय ताल पर बरकरार है क्योंकि उसके सामने अपने समय को समझने की चाभी मौजूद है। कलात्मक कलेवर को अपने समय-काल में घटित करते हुए बेहद सहज है। केदार नाथ सिंह की कविता पर बात करते हुए एक बार नामवर जी ने दर्ज की थी वह उद्धरण यहाँ दर्ज करना कुछ कुछ जरूरी लग रहा है, बावजूद इसके कि हर कवि की अपनी विशेषता होती है, हर तुलना असंतुलित होती है फिर भी। वे कहते हैं कि 'केदार की कविता का धरातल एकदम सम है' केदार मद्धिम या हल्के संवेगों के कवि हैं। सभी कविताओं का स्तर प्रायः एक है। उनके यहाँ आवेश कहीं नहीं है "  एक लम्बी कविता यात्रा में गर सचेत कलात्मक औदार्य व उसमें घुल मिल कर आये विचार इस कवि की खासियत है तो यही इस कवि की पहचान बन जा रही है। इतनी लम्बी यात्रा में अपने कलात्मक उद्देश्य को भुलाये बगैर, एक क्षण को भटके बगैर निष्कंप कदमों से चलता हुआ यह कवि जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव को देखता सुनता यहाँ तक पहुंचा है। यहाँ जीवन की दुविधाएं तो हैं लेकिन राह चुनने की दुविधापूर्ण स्थिति नहीं है। यहाँ एक तरफ नयी जीवन स्थितियां उन्हें अपनी ओर खींच लेना चाहती हैं जबकि कर्मरत जन   अपने 'समय' को पहचानने की कोशिशें करने में पीछे नहीं हैं। यह कवि महज शब्द-जाल रचने को ही कलाकर्म नहीं मानता बल्कि घोषित उद्देश्यों के साथ सृजन कर्म कर रहा है। 


आप किसी को अपने रचना संसार में लायें 
और कोई काम न दे पाएं
कितनी लज्जा की बात है "


कहानी का एक पात्र 



(3)


अपने समय की शिनाख्त करते समय जब कोई कवि/रचनाकार महज सामाजिक जीवन स्थितियों, राजनीतिक दुरभिसंधियों औ उनके प्रतिकार की कही-अनकही रणनीतियों तक सिमट कर रह जाता है, ऐसे में उसके व्यक्ति की भूमिकाएं अपने समय की कितनी   सटीक जानकारी दे पाती हैं। यह समझने की जरूरत है। जब सवाल स्वयं को ओट में रख कर किये जाते हैं वहाँ मौजूद तीखापन या मुखर तेवर अपनी जवाबदेही दर्ज  करा ले जाने कामनाएं भी तलाशी जानी चाहिए। असल सवाल तो स्वयं के  वास्तविक जीवन-स्थितियों व मन:स्थितियों से उठने वाली अतृप्त कामनाओं के बीच जनमता है ,जहाँ थोड़ा  डर  है तो थोड़ा अविश्वास भी, थोड़ी अधूरी कामनाएं हैं तो बेहल मामूली चाहते भी हैं।  एक कवि के रूप में हरीश चन्द्र पाण्डेय की कामना 'ढेर सारी चहचहाटें व पंखेरू आँख' लिए दुनिया को देखना चाहती हैं। लेकिन ऐसा चाहने से क्या? वास्तविक अधूरी  कामनाएं व  मानवीय आकाँक्षाओं से लैस कामनाएं एक दूसरे की पूरक बन कर आयें  तो काव्यात्मक सौंदर्य जीवन के सौंदर्य को परिभाषित करता मिलता है। जब किन्हीं किरिचों, दराजों की रोशनी में वह अतिनिकट की वास्तविक दुनिया का सामना करता है तो उसकी वर्गीय सीमाबद्धता प्रभावी स्वर में अपनी वास्तविक दुनिया के संदिग्ध यथार्थ को टटोलने की कोशिशें करती मिलती हैं। और यही ईमानदार अभिव्यक्ति अपने समय की सही शिनाख्त करती मिलती है। अधूरी कामनाएं लगातार 'कटे बकरे के ताजे देह सा पीछा करती  मिलती हैं। कवि का वर्गीय बोध अपने संदिग्ध समय को  कितने रूप में देखता है उसके कई एक रूप यहाँ देखने को मिलते हैं। अधूरा मकान, प्लेटफार्म, ट्रेन में, उसने कहा, अपना समय जैसी कवितायें हरीश चन्द्रपाण्डेय के कवि मन के उन गवाक्षों की ओर इंगित करती हैं जिसका सामना एक निम्नमध्यवर्ग का शख्स  अपने आसपास करता मिलता है। कभी-कभी आसपास के हर एक चेहरे को संदिग्धों की तरह से देखना, जो कुछ बचाया-कमाया है उसके छिन जाने का डर, एक खराब माहौल से अपने को  निकाल ले  जाने की असफल कोशिशें देखते हुए लगने लगता है कि क्या कवि अकेले पड़ते जाने से असहज हो जा रहा है।



"उसका कहना था कुछ नहीं हो सकता अब
उसके कहने में अनकहा अधिक था 
उसके स्वर बिखर रहे थे
उसके चेहरे पर एक बोझिल तनाव था"

                                       
उसने कहा 


लेकिन इन स्थितियों में भी मनुष्य -मन की अनदिखी वास्तविक दुनिया को दिखाने कोशिश ही इस कवि को अपने दौर के तमाम एक कवि चेहरों में अलहदा ला खड़ा करता है। कितना भी संदिग्ध, अनपहचाना माहौल ऊपर से हावी दिखे, कमीज के नीचे धड़कते हृदय की आवाज सुनने की जरूरत है। 'ट्रेन में' एक नौजवान शरीफों के बीच आ धमकता है। निश्चय ही मुड़ी-तुड़ी कालर, खुले बटन वाली कमीज, गले में ताबीज लटकाये, बेतरतीबी लिए इधर उधर ढुलके बालों की भंगिमा ही बहुतों के लिए 'अचाहत का भरपूर सामान' है। लेकिन अनपहचानी जमात में जिस चीज को पहचानने की जरुरत है, जिस मानुष गंध की तलाश है वह यहाँ मौजूद है –



"क्या पता इकलौता हो अपने माँ-बाप का 
हर नजर हर बला से बचे ये मन्नत की हो
क्या पता बाँह में बँधा हो गंडा
करधनी में हो कोई टोटका 
जितना मैं नहीं चाहता, उतना ही चाहा गया हो उसे


हमारी नफरत के बर अक्स 
कितना जरूरी और प्यारा हो वह किसी के लिए


वह जो आउटर पर ही उतर गया है।" 

ट्रेन में 


एक अनाम, एक अनजान चेहरे के पीछे की दुनिया के बारे में सोचने के लिए हमारे  समय में कितनी जगह बीच है, इसे बताने-दिखाने के लिए किन्हीं नीति वाक्य या उद्बोधन कारी अभिव्यक्ति की ओर कवि नहीं निहार रहा है। बस मानवीय धरातल पर उतरकर बरसों बरस से चली आ रही भावधारा को पुनः परिमार्जित कर के सम्प्रेषित करने की ख्वाहिशें पढ़ने को मिलती हैं। 



ऐसे ही एक दूसरे दृश्य में हम पाते हैं कि समवयस्क लड़कियां अपने सहेलियों से मिलने के लिए घर आती हैं। वे तमाम बच्चियाँ बच्चियाँ नहीं बल्कि "एक ही पेड़ पर कुहुक रही कोकिलाओं" सा चहचहा रही हैं। बच्ची के पिता बच्चों के आमोद-प्रमोद, खिलखिलाहटें सुन कर अनकहे सुख से मन ही मन प्रमुदित हो रहे हैं, अन्त आते आते अपने समय की एक कुरूप तस्वीर एक मध्यवर्गीय पिता को अन्दर ही अन्दर दहला देती है। ऐसे दृश्य, ऐसे कुत्सित भावनाओं के शिकार बीमार चेहरे आये दिन  इन्हीं खुशी भरे समयों की  सुंदरता, सहजता, मासूमियत भरी नेह नीड़ों को  अपनी कुत्सित योजनाओं का शिकार बनाने के लिए प्रयासरत हैं --


यहीं कहीं एक लड़का कैमिस्ट की दुकान पर खड़ा है 
एसिड की बोतल खरीद रहा है"


सहेलियां 

ऐसे लड़को को जन्म दे कर पछताने वाली माँ "एक अजन्मे बच्चे के नाम ' कविता में तमाम अच्छी भावनाओं के बावजूद इस बात से हैरत में है कि जिन बच्चों को दुनिया बेहतर बनाने के लिए आगे आना चाहिए उनमें से कुछ एक कैसे इंसानियत को दागदार करने में भागीदार बन जाते हैं। ऐसे बच्चे धरती पर जन्मने ही नहीं चाहिए। क्या ऐसे बच्चों के भ्रूण वापस लिए जा सकते हैं। स्त्री के  खिलाफ हो रही हिंसात्मक घटनाओं के विरुद्ध ऐसी प्रतिरोधी कविताएं कम ही पढ़ने को मिलती हैं। 



हरीश चन्द्रपाण्डेय की कविताओं में स्त्रियों की कई छवियाँ देखने को मिलती हैं। एक तरफ कर्मरत मजदूर स्त्रियों की छवि है तो दूसरी पितृसत्तात्मक समाज को धता बताती स्त्री छवि है। धूप, एक चादर, नृत्यांगना, वे सीख रही हैं, आदि कविताओं के बीच महराजिन बुआ व एक युवा सन्यासिन को देख कर लिखी गई कविता 'सोलह की उम्र ' जैसी कविताएं भी हैं। महराजिन बुआ एक वास्तविक चरित्र है जो कि इलाहाबाद के रसूलाबाद शमशान घाट पर लम्बे समय तक दाहकर्म सम्पन्न कराती रहीं हैं। पुरुषों के लिए धार्मिक तौर पर आरक्षित कामों को करते हुए महराजिन बुआ थक हार कर बैठ चुकी महिलाओं के सामने एक चुनौती बनकर खड़ी मिलती हैं तो वहीं धार्मिक-सांस्कृतिक अनुष्ठानों व भी दाहकर्म जैसे विशेष कर्म को करने में तनिक भी विचलित नहीं होती हैं। हर कीमत पर जीवन के सौंदर्य को उभारती महराजिन बुआ जैसे जीवंत चरित्र को सामने लाने में  कवि दृष्टि की सचेतन भूमिका सामने आती है। वहीं सोलह साल की उम्र में सन्यासी बनी स्त्री में मौजूद जीवन की दिशा को प्रश्ननांकित करती कविता कहती है कि -


ये देखो एक बाँझ पेड़ कलम लगते ही कैसा 
खिलखिला उठा है 
देखो फिर वसंत आया 
गाँठ-गाँठ कसमसा रही है कोपल के लिए 
फिर फल-फूल रहे हैं पेड़ 
बौर आ गये हैं 
ये फिर पायेंगे अपने खोये आत्म बीज को
ठूँठ कभी नहीं पाएंगे...... " 


सोलह की उम्र 



एक लम्बे अरसे से सामाजिक जकड़बंदी जीने के रंग-ढंग में भी एक ठहरे हुए रंग की आमद बढ़ा देती है। सीने में मौजूद बहुतेरे अंधेरे 'जंगलों के बावजूद' ये स्त्रियां जीवन का गीत तलाश रही हैं। ठहर कर महज यथास्थिति का बयान या करुण भाव से काव्यात्मक अभिव्यक्ति दर्ज कर आगे बढ़ जाने की जल्दबाजी नहीं है। जबकि मामूली से मामूली घटनाओं के जरिये भी जिंदगी के गीत तलाशती आँखों को पढ़ना आता है। 'रतजगा' करती औरतें, औरतों के लिए लिए निषिद्ध व पुरुषों के लिए तयशुदा वे सारी नाटकीय कारगुजारियां करती हैं जिनसे कुछ पल ही सही उन्मुक्त आकाश में विचरण करने का सुख लिया जा सके। 'जो आदमियों द्वारा केवल आदमियों के लिए सुरक्षित' लोक में विचरण करते हुए अपने परों को फैला कर देख रही हैं  ये रात भर का पुरुष बनने का नाटक है या लम्बे समय से पिंजरे में जकड़ी आबादी का अपनी मुक्ति के लिए रिहर्सल है। गाते हुए, नाचते हुए क्या सचमुच जश्न मनाया जा रहा है या –


"यहाँ औरते गा कर नाच कर स्वाँग रच-रच कर
लम्बी रात के अन्तराल को पाट रही हैं"

                                                  

रतजगा  



(4)   


साहित्य भण्डार, इलाहाबाद से मेरी प्रिय कविताएँशीर्षक से प्रकाशित हरीश चन्द्र पाण्डेय के कविता संग्रह की भूमिका में वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने सही ही दर्ज किया है कि "हरीश चन्द्र पाण्डेय की यह कविताएं न सिर्फ मनुष्यों और पशुओं की ऐन्द्रिक और संवेदनात्मक सीमाओं और क्षमताओं की परतें उघारती हैं बल्कि उस तंत्र को भी बेनकाब करती हैं जो पशुता को एक आदर्श के रूप में  स्थापित कर रहा है।" हर आँख जो अपने को पहचानने में कभी धोखा नहीं खाती या हर विपदा पर सबसे पहले अपनों को पहचानती है। ऐसी पहचान को  खंगालते-खोलते हरीश चन्द्र मनुष्य बने रहने की उन सहज स्थितियों की ओर हमें ले जाते हैं जहाँ अपने निकटस्थ व्यक्ति में भी तमाम दूसरे चेहरे दिखाई देने लगते हैं और तमाम दूरदराज के क्षतिग्रस्त चेहरों में अपने दिखाई देने लगते हैं। मनुष्य बने रहने  की धुंधली होती ऐसी स्थितियों की ओर इंगित करते हुए कवि  मनुष्य होने के स्वाभाविक गुणों को बचाये रखने के लिए सतत प्रयासरत है। बहुत ज्यादा देखी सुनी ऐसी घटनायें जो हमारी संवेदनशीलता  को समय बा समय तौलती परखती मिलती हैं, उन्हें दिखाने के लिए कवि किन्हीं आदर्श नीतिवचन की ओट नहीं खड़ा होता है और न ही ऐसे तंगदिल नजरिए को एक यथावत बयान के रूप में दर्ज कर अपने सामाजिक दायित्व की पूर्ति कर रहा होता है।' "लाश घर" कविता की अंतिम पंक्तियां कुछ यूं बयान करती हैं --


"ये जरूरी नहीं लाश ही हो क्षत-विक्षत 
पहचानने वाली आँखें भी हो सकती हैं
जो अपनों की न होते हुए भी कह दें 
हाँ यह वही है 
वही।"


लाश घर 


वहीं  पेंशनयाफ्ता बुजुर्ग हर साल दिसम्बर-जनवरी के महीने में अपने जीवित होने के प्रमाण देने के लिए सरकारी महकमों के इर्द-गिर्द भटकने को अभिशप्त हैं। वे आँखे जो पहचानना चाहती है एक पेंशनर को, कितना पहचान पाती हैं, एक बुजुर्ग की ओर देखती आँखे कहाँ सब कुछ देख पाती हैं, इन आँखों के पीछे मौजूद मानवीय स्थितियों को कुछ इस तरह से पढ़ रही हैं कवि की आँखें। बेहद सामान्य, स्वाभाविक सी लगने वाला  यह परिसंवाद  जनजीवन में व्याप्त उन्हीं बातों को कहती मिलती हैं जिन्हें मर्मस्पर्शी उक्ति के रूप में  गाहे बगाहे सुनने में आ ही जाती हैं, यह सूखा बयान भर नहीं बल्कि तरल आँखों से निकलते शब्द हैं --- ऐसी व्यवस्था की कटु आलोचना भी है। जब सब कुछ किन्हीं हितों के मद्देनजर तय किया जाने लगे, ऐसे तंत्र को बेहद सरल, निष्कपट निगाहों से देखते हुए तमाम अनकहे को पाठकों के ह्रदय जगत में उतारने की कला आती है हरीश चन्द्र पाण्डेय को। उदाहरणों, जीवन व्यवहारों को ऐसी निगाहों से देखने के लिए बहुत उपयोगितावादी नजर नाकाफी हैं। हमारे कवि गण ऐसे संदर्भों का इस्तेमाल करते हुए या तो  सहानुभूति की कुछ बूंदे  ढुलका कर आगे बढ़ जाते हैं या ऐसी जीवन स्थितियों के जिम्मेदार समय को कोसते हुए तटस्थ खड़े मिलते हैं। यहाँ तटस्थता नहीं बल्कि तादात्म्य हाव-भाव अपने समय को निकट से पहचानने की जगह टटोलती मिलती है।


"पहचाने जाने वाली आँखे देख रही हैं पहचानने वाली आँखों को 
      --- कल तक हम भी थे तुम जैसे ही 
       ---  हम भी होंगे कल तुम जैसे ही 
अनन्त है दो जोड़ी आँखों का यह परिसंवाद"


लाइफ सर्टिफिकेट 



"गाय अपने बछड़े को चाट रही है 
रह रह कर चाट डाला है उसने पूरा बदन
कान के भीतर जाती सुरंग को भी दूर तक


कुछ जमा है वहाँ अवांछित 
एक चिड़िया भी रह रह कर चोंच छुआ रही है वहीं

थनों की तरफ हुमक रहा है बछड़ा बार बार
पर मुँह में जाली बँधी है 


मालिक कूटनीति के तहत जाली लगवाये है मर्द बच्चे के मुँह पर
चिड़िया भी अपने स्वार्थ के लिए चोंच मार रही है
पर गाय के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता 

गाय अपने बुढ़ापे के लिए भी नहीं चाट रही।
   

बुढ़ापे के लिए नहीं 




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चीटियाँ, चिड़िया, तुन, बुरूँश,  धारे, नदियां, पोखर, कछार,  टेसू, अमलतास, गुलमोहर, पहाड़, देहात, गरीब, रिक्शे वाले, बच्चे, बुजुर्ग, विधवाएं, किसान, मजदूर, हिजड़े जैसे अनगिनत नाम-अनाम शख्सियतें, प्रकृति, पशु-पक्षी हरीश चन्द्र पाण्डेय की कविताओं के केंद्रीय चरित्र हैं। कलीमुल्लाह (मलिहाबादी आम वाले), दीना नाथ माँझी (पत्नी लाश अपने कांधे पर ढोने वाले), महराजिन बुआ जैसे दुर्लभ जीवंत चरित्रों को कविता का विषय बनाते हुए कहीं भी मानवीय सारतत्व की अनदेखी करते हुए महज कला कौतुक दिखाने की कोशिश नहीं है। न ही कलात्मक तत्व को विषयों की कीमत पर नजरोंसे ओझल करने की हड़बड़ी है। यही "शब्द सजगता" और तमाम राहों से अपने समय को निहारने, टटोलने व उन समयों में संघर्षरत जीवन की पहचान कराने की प्राणप्रिय जद्दोजहद हरीश चन्द्र पाण्डेय की कविता यात्रा को अलग से रेखांकित करती है। प्रतिबद्धता, प्रतिरोध के शाब्दिक शोरगुल की बजाय तमाम मामूली लोगों की आवाजें बेहद धीमे सुर लेकिन गहरे उतरने की कुव्वत लिए अपने पाठकों से मुखातिब होती हैं। अपने समय में जारी मारकाट, दहशतगर्दी और धार्मिक उन्माद के विरुद्ध जूझते हुए एक कवि व्यापक मानवता के पक्ष में खड़े हो कर ऐसी इबारतें अपने कागज पर दर्ज कर रहे हैं जो निष्क्रिय बयान बनकर बिला न जायें बल्कि अपने समय को बचाने की 'लिपि ' तलाशने की कोशिश है ---


अंधे विवेक की उंगलियों में थमा सकें
एक लिपि 
लबार होने से बचा ले जायें 
अपना यह समय"


                                     
अपना समय 



यहाँ विसंगति जीवन की त्रासद शिनाख्त तो है लेकिन थकहार कर, निराश हो जीवन की ओर पीठ करके बैठे कवि की कविताएं नहीं बल्कि हर बार नये सिरे से अपनी दृष्टि को मांजने-निखारने के दृश्यों से लबालब दुनिया को प्यार करने वाले कवि की कविताएं हैं। एकरंगी दुनिया रंगने में मुब्तिला शक्तियों को आइना दिखाती कविताओं के कवि हैं हरीश चन्द्र पाण्डे। ऐसी आँखों की फितरत को प्रश्ननांकित करती हैं इनकी कविता जो एकरस दृश्य देखते हुए जी लेते हैं। कितना भी सुंदर दृश्य हो कवि की आँखे हमेशा दृश्यान्तर चाहती हैं।  


--- कितने टोटे में है वह आँख 
जो केवल एक से ही दृश्य देखना चाहती है
दृश्यों से लबालब इस दुनिया में



दृश्यों से लबालब इस दुनिया में 


संदर्भ 


  
  1.   एक बुरूँश कहीं खिलता है, 1999, साहित्य संगम, इलाहाबाद
       भूमिकाएं खत्म नहीं होती, 2006, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली 
       असहमति, 2016, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली
     मेरी प्रिय कविताएं, 2014,  साहित्य भण्डार, इलाहाबाद  

  2.   पहल, वागर्थ, बया, तद्भव, अनहद आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताएं 

  3.   पहली बार ब्लॉग पर 16 मार्च ,2017 को हरीश चन्द्र पाण्डेय द्वारा सुनीत मिश्र को दिये गये साक्षात्कार, पहल, अनहद आदि में प्रकाशित आलेखों के माध्यम से कवि की कविताओं को समझने की कोशिश की गई है।
  4.   पूर्वरंग - नामवर सिंह


आशीष सिंह



सम्पर्क

आशीष सिंह 

ई-2 / 653 सेक्टर एफ 

जानकीपुरम, लखनऊ –226021



मो० 8739015727

टिप्पणियाँ

  1. "ये जरूरी नहीं लाश ही हो क्षत-विक्षत
    पहचानने वाली आँखें भी हो सकती हैं
    जो अपनों की न होते हुए भी कह दें
    हाँ यह वही है
    वही।"
    वाह

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (30-07-2019) को "गर्म चाय का प्याला आया" (चर्चा अंक- 3412) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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