उमाशंकर सिंह परमार का आलेख '“बुझे चिराग जलाओ, बहुत अँधेरा है”

महेश चन्द्र पुनेठा
युवा कवियों में महेश चन्द्र पुनेठा अपनी अलग तरह के कहन और व्यंजना के लिए जाने जाते हैं वे कुछ उन दुर्लभ कवियों में से हैं जिनके व्यवहार और सिद्धान्त में आपको कोई फांक नहीं दिखायी पड़ेगी उनकी कविताएँ पढ़ते हुए हम यह बराबर महसूस भी करते हैं महेश की कविताओं पर एक सारगर्भित आलेख लिखा है युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने हम हर महीने उमाशंकर का कवियों पर लिखा गया आलेख पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं उसी कड़ी में प्रस्तुत है यह आलेख
       
“बुझे चिराग जलाओ, बहुत अँधेरा है”


उमाशंकर सिंह परमार


महेश चन्द्र पुनेठा हमारे समय के उन चंद कवियों में है जिनका स्थाई पता उनके लेखन में मौजूद रहता है एक बेहतरीन लोकधर्मी कविता की तरह उनकी कविता कवि की जमीन से ही अपनी उर्जा पानी उपार्जित करती है किसी एक कविता को पढ़ कर पाठक आसानी से अंदाज़ा लगा सकता है की कवि का जीवन अनुभूतियों की ऊबड़ खाबड़ भौगोलिक भूमि से जुडा है जिसमे उनकी कविता और उनकी भाषाई खनिजता दोनों सन्निहित हैं पहाड़ उनकी कविता की जान है पहाड़ी जमीन के उतार चढ़ाव उनकी कविता के सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक आयाम तय करते है लोकधर्मी दृष्टि और कठिन जीवन की जिजीविषा ने उनकी कविता को समाज और परिवेश के अन्दर घटित होने वाले बदलावों से पूर्ण संसक्त कर दिया है बदलावों से मौलिक आसक्ति उनको आधुनिक यातनाओं का सीधा सपाट भोक्ता बना कर पेश कर रही है एक ऐसा भोक्ता जो समय के घेरे में कैद होकर पूँजी द्वारा सुनिश्चित की गयी नियति में छटपटा रहा है उनकी कविताओं में बेचैनी है, अनास्था है, मूल्यों और विचारों के प्रति प्रतिबद्धता है आम लोकमानस की चेतन वेदना है महेश की जमीन खूबसूरत, बर्फीले, रंगीन पहाड़ों की जमीन नहीं है उनकी जमीन घोर नवउदारवादी नीतियों से उत्पन्न , वर्चस्ववादी निजी पूँजी के व्यापक हस्तक्षेप की भूमि है एक जमीन है जिसे पूँजी ग्रसित लोकतंत्र ने सामान्य मनुष्यता से खारिज कर जटिलतम बना दिया है जिस जमीन की देह में केवल समय के खंजरों से उकेरे गए दर्दनाक घाव हैं अपने पहले कविता संग्रह “भय अतल में” में महेश ने जिस भय को अतल में बताया है वह भय अब समय के साथ यात्रा करता हुआ सतह तक आ गया है भय के प्रति कवि जरा भी लापरवाह नही है वह भय के पूरे अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को समझता है और अपनी जनमुखी प्रतिबद्धता के साथ उत्पादक पूँजी के आक्रांतकारी साम्राज्य को भोगते हुए प्रतिरोध का मुकम्मल स्वर रचता है
  महेश उन कवियों में से हैं जो लिखते कम है उनके पहले और दूसरे संग्रह के बीच लगभग पांच वर्षों का अंतराल है पहला कविता संग्रह ‘भय अतल में’ २०१० में प्रकाशित हुआ था तो दूसरा कविता संग्रह २०१५ में साहित्य भण्डार प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ सन २०१० में जब उनका पहला संग्रह प्रकाशित हुआ तो उस समय उन्होंने भूमंडलीकरण के उस स्वरूप को नही देखा था जो आज है उस समय विश्व पूँजी अपना अस्तित्व कायम कर रही थी उसके पास जनता के प्रतिरोध को शांत करने के लिए लुभावने वादे थे स्वप्नों की चमकीली दुकाने थीं अचानक कोई भी आदमी पूँजी के इस छल पर फ़िदा हो जाय सत्ता और सत्ता सामंतों द्वारा आम जनमानस को समझाया गया कि हिन्दुस्तानी आवाम का सच्चा हित विदेशी पूँजी के निवेश पर है यहाँ तक की इसे नीतिगत मामला बना दिया गया अलग मंत्रालय गठित कर दिया गया हिन्दुस्तानी लोकतंत्र ने वैश्विक पूँजी के समक्ष घुटने टेकते हुए अपने अस्तित्व को समाप्त करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया कवि इन स्थितियों से अपरिचित नहीं था वह हिन्दुस्तान का भविष्य पढ़ रहा था इसलिए उसका भय उस समय अतल में था आज विश्व पूँजी अपने पूरे वर्चस्व के साथ हिंदुस्तान का चरित्र बन चुका है अधिकारों के साथ-साथ हमारे लोकतंत्र को भी लील चुकी है इंसान को इंसानियत से पृथक कर चुकी है जनता पूँजी के कुचक्र में बुरी तरह जकड़ चुकी है औपनवेशिक संस्थाएं आज फिर जीवित हो कर अपना अस्तित्व पा चुकी है स्वतंत्रता और गुलामी के बीच अंतर बहुत क्षीण है ऐसे भयावह परिवेश से मुक्त होने की कामना करता कवि व्यवस्था के प्रति अनास्था और समय के प्रति बेचैनी का स्वर लेकर आता है सन २०१५ में आया उनका संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में स्वतंत्रता की बेचैनी है झटपटाहट है यहाँ पर कवि अपने वजूद को समय की संगतियों, असंगतियों, को सौंपता हुआ अपनी जमीनी अपेक्षाओं को सीधे-सीधे व्यक्त करता है व्यक्ति और समाज के संशयग्रस्त संबंधों में उत्पन्न दलदल को ख़त्म कर के कवि नए बदलाव करना चाहता है महेश की जिस कविता का सफ़र लोकवेदना से आरम्भ हुआ था अब वह लोकयुद्ध तक पहुँच गया है इस युद्ध में पक्ष है जनता प्रतिपक्ष है पूँजी हथियार है कविता, और योद्धा है कविता इसलिए महेश चन्द्र पुनेठा कविता को अपने अस्तित्व से पृथक कर के नहीं देखते उनकी कविता उनका अस्तित्व है उनकी प्रतिबद्धता है
 
 अपने कविता संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में महेश कविता पर बहुत जरूरी बातें कहते हैं वो कविता को कवि की प्रतिबद्धता से जोड़कर देखने के आदी है जब समय खतरनाक हो तो कोई भी जनपक्षीय कवि कविता से जीवन को अलग नहीं कर सकता है ऐसे में कविता समय के विरुद्ध हथियार  की तरह प्रयुक्त होती है महेश का युद्ध पूँजी के विरुद्ध आम जनता का लोकयुद्ध है स्वाभाविक है कविता उनके लिए जीवन और मरण का विषय होगी कवि स्वयं को खत्म कर देगा पर मुक्ति की आशा से लबरेज जुझारू कविता को खत्म नहीं होने देगा कविता के प्रति कवि का इतना सघन लगाव हिंदी में बहुत कम मिलता है महेश ने कहा है –

मैं न लिख पाऊं एक अच्छी कविता 

दुनियां एक इंच इधर से उधर नहीं होगी

गर मैं न जी पाऊं कविता

दुनिया में अँधेरा कुछ और बढ़ जाएगा

इसलिए मेरी पहली कोशिश है

कि मरने ना पाए मेरे भीतर की कविता (पृष्ठ ७)

कविता उनके लिए बदलाव का सन्देश है व्यक्तित्व की पहचान है अगर कविता जनजागरण नहीं कर सकी तो संसार में अंधेरापन और बढ़ जाएगा इसलिए कवि अपने अन्दर की कविता को मरने नहीं देना चाहता है कविता के प्रति महेश की यह दृष्टि संघर्ष की दृष्टि है इस संघर्ष दृष्टि के विपरीत दृष्टि “कलादृष्टि“ होती है कुछ लोग अब भी “कला के लिए कला” के सिद्धांत का अनुसरण करते हैं उनके लिए कविता जीवन संदर्भों से पृथक हो कर धनिक सामंतों के मनोरंजन हेतु प्रयुक्त होती है विश्व पूँजी ने केवल सामाजिक बदलाव ही नहीं किये बल्कि सांस्कृतिक, साहित्यिक बदलावों की भूमिका भी तैयार की है साम्यवादी सौन्दर्यशास्त्र के विरुद्ध गढा गया रूसी रूपवाद आज विश्वपूँजी के कंधे पर सवार हो कर “उत्तर आधुनिकतावाद” के रूप में कलावाद का नया बुर्जुवा तर्क ले कर उपस्थित है साहित्य को जीवन से पृथक करने की इस पूंजीवादी कुचाल को महेश बखूबी समझते है इसलिए उन्होंने अपने संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह में” कलावाद की तीव्र भर्त्सना की है कलावाद कविता से जीवन को पृथक करने की बुर्जुवा नीति है कवि समझता है यदि कला जीवन से अलग राह अपनाएगी कवि द्वारा देखा जा रहा व्यापक बदलावों का स्वप्न खंडित हो जायेगा इसलिए कवि कलावादियों को समय संदर्भों में जोड़ कर परखता है और उनके रचनात्मक अंतर्विरोधों को उजागर करता है। 

“जिस वक्त में

कुचले जा रहे हैं फूल

मसली जा रही हैं कलियाँ

उजाड़े जा रहे वन कानन

वे विमर्श कर रहे हैं

फूलों के रंग रूप पर“ (पृष्ठ ९)

जब फूल कुचले जा रहें है, कलियाँ मसली जा रही है जब फूलों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा हो उस समय फूलों के रंग रूप यौवन पर अपनी अतृप्त प्यास बुझाना महफ़िलों में वाहवाही करना किसी कवि की पहचान नहीं है बल्कि फूलों के अस्तित्व को खत्म करने वाले समूहों में सम्मिलित व्यक्ति की पहचान है कलावाद के विरोध द्वारा महेश अपनी प्रतिबद्धता बिलकुल स्पष्ट कर देते हैं उनकी आस्था जन के प्रति है उनकी कविता जन के प्रति है ऐसे छद्म लेखकों और जनविरोधी पत्रकारों को महेश ने देखा परखा है उन्हें अपने समय की पूरी पहचान है आज जिस तरह से जनता के आक्रोश को अपराध कह कर दबा दिया जाता है वह किसी से छुपा नहीं है सत्ता और पूँजी अपने इर्द गिर्द लेखकों और बुद्धिजीवियों की लम्बी फौज तैयार कर चुकी है जो कविता में शोषण का विरोध करते खुद को जनपक्षीय कहलाना पसंद करते हैं यदि मामला पूँजी और सत्ता की मुखालफत का हुआ तो उनका चरित्र खुल कर सामने आ जाता है वही लोग सबसे पहले जन अधिकारों की मांग को अपराध साबित करने में लग जाते हैं महेश की यह कविता पूँजी के सांस्कृतिक चरित्र का मूल्यांकन करती है

“परन्तु जब अपने हक हकूक के लिए  

या शोषण उत्पीडन के खिलाफ  

जनता होगी संघर्षरत

तब वे सबसे आगे होंगे

उन्हें बर्बर जंगली और असभ्य साबित करने में“ (पृष्ठ ३२)

समाज के सांस्कृतिक ठेकेदारों का चरित्र आज हम सभी देख रहे हैं सरकारें उनका उपयोग जिस तरह से अपने हित में कर रही हैं, जिस तरह से जनांदोलनो को दबाने और बर्बाद करने में उनका उपयोग हो रहा है हम सभी देख रहे हैं अस्तु महेश द्वारा पूँजी के इस सांस्कृतिक अपहरण का विरोध वाजिब और सामयिक है
 

 
 महेश की पक्षधरता किसी स्वप्न की युटोपिआई कल्पना नहीं है वह समय के कटु अनुभवों द्वारा पुष्ट की गयी है ‘पंछी बनती मुक्ति की चाह’ की कविताओं का मूल प्रतिपाद्य समय है महेश आर्थिक उदारीकरण के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली समस्त विसंगतियों के सजीव भोक्ता है पूँजी ने व्यक्ति को नियति का गुलाम बनाया है व्यक्ति के अवचेतन में स्थापित मूलभूत मानवीय गुणों को विनष्ट किया है इससे व्यक्ति अपने को सताया हुआ मसहूस कर रहा है अपने द्वारा स्थापित संबंधों की व्यर्थता का उसे अहसास होने लगा है वह समझ चुका है कि व्यक्ति के निजी संबंधों की कोई अहमियत नहीं है संसार की भाग दौड़ में केवल पूँजी द्वारा स्थापित सम्बन्ध ही टिक सकते हैं यह असंगति और टूटन, अलगाव, पूँजी की अनिवार्य दशाएं हैं मनुष्य को इस अवस्था में लाने का श्रेय जनतंत्र का है ऐसे जनतंत्र का  जिसमें हम पूँजी की बराबर सहभागिता देख रहे हैं जनतंत्र में जो अराज़कता पैदा हुई है वह विश्व पूँजी की देन है इस अराज़क सामंती जनतंत्र में व्यक्ति लाखों अपमान सह कर भी रह रहा है इसमें रहते हुए वह कभी अपने को इंसान समझेगा इसमें शक है महेश आवारा पूँजी के इस घातक खेल में रचे बसे समय को विवेचित करने से नही चूकते तमाम पीडाओं, असम्वेदनाओं, कटुताओं, को भोगते हुए भी उनकी विवेचना विशाल मानव समुदाय के पक्ष में होती है साठ के दशक का सामाजिक व्यर्थता बोध आज लोकतान्त्रिक व्यर्थताबोध में बदल चुका है लोकतंत्र बाज़ार का छल बन कर जनतांत्रिक अधिकारों को भी बाज़ार की दृष्टि देख रहा है उनकी कविता “वे आ रहे है सपने बोने” में लोकतान्त्रिक छल का बाजारवादी हथकंडा देखिए  – 

“वे जो तुम्हारी आँखों में

सपने बोने की बात कर रहे हैं

तुम समझ सकते हो

वो तुम्हारी आँखों को क्या समझ रहे हैं

वे जानते हैं अच्छी तरह

जैसा बोया जाएगा बीज

वैसी ही लहलहाएगी फसल

वे यह भी जानते हैं

सबसे फायदेमंद कौन सी फसल है उनके लिए” (पृष्ठ २९)

इस आवारा पूँजी का प्रभाव केवल हमारे परिवेश पर ही नहीं पड़ा है बल्कि हमारे चरित्र को भी बदल दिया गया है महेश व्यक्ति के चरित्र पर  पूँजी के अधिपत्य पर चिंतित हैं पतन पर पर घोर निराशा है विश्व पूँजी के इस प्रभाव को कई कवियों ने रेखांकित किया है संतोष चतुर्वेदी और शम्भू यादव की कविताओ में मानवीय मूल्यों पर पड़े पूँजी के इस प्रभाव का प्रतिरोध देखा जा सकता है| वर्ष २०१४ में कथाकार राजकुमार राकेश का कहानी संग्रह “एडवांस स्टडी” प्रकाशित हुआ इस संग्रह की एक कहानी है “सपने पूँजी और समाजवाद” इस कहानी में राकेश जी ने पूँजी द्वारा पारिवारिक और वैयक्तिक संबंधों में घोर गिरावट को दर्ज किया है महेश की कविता “क्या हुआ तुम्हें” का मूल विषय यही वैयक्तिक मूल्यों की गिरावट है बाज़ार के गणित ने आदमी के चरित्र का गणित बिगाड़ दिया है इस चीज का संकेत महेश की कई कविताओं में मिलता है एक उदाहरण देखिए –

“तुम तो ऐसे नही थे नत्थू

क्या हुआ तुम्हें

बाज़ार का गणित तो

जानते ही नहीं थे तुम

न किसी की जेब में हाथ डालते हुए

न गर्दन दबोचते“ (पृष्ठ ३६)

नत्थू एक सामान्य आदमी का प्रतीक है जो सीधा और भोला था बाज़ार की नीतियाँ और मुनाफाखोरी ने उसको बेरहम कर दिया है उसे भी अब किसी की गर्दन दबोचते और हत्या करते कोई संकोच नही होता है इस कविता का मूल तर्क है कि बाज़ार में टिके रहने के लिए हमें निर्दय होना पड़ेगा यह समय और तंत्र इंसान को निर्दय बनाना चाहता है और बना चुका है समय की भयावह असंगतियों का सुस्पष्ट विवेचन करते समय बहुत से कवि आक्रोश के शिकार हो जाते हैं पर महेश की खासियत यही है कि वो असंगतियों पर भी चोट करते समय गंभीर ही रहते हैं  जैसे उन्होंने बड़े ही सधे अंदाज़ में पूँजी द्वारा रचित जातीयता और साम्प्रदायिकता का सच विवेचित किया है एक कवि/ लेखक / कलाकार की काव्यकृति को फिरकापरस्त ताकतें खारिज करके सत्ता की भावना के अनुरूप साम्प्रदायिक करार देती हैं  इस साज़िश की महेश को पहचान है उन्होंने एम एफ हुसैन के ऊपर कट्टरपंथियों के हमले देखे हैं पूँजी अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए साम्प्रदायिकता का फासीवादी विचार प्रचारित करती है जिसमें प्रतिरोध से युक्त हर अभिव्यक्ति को जातीय रंग में रंग कर देखा जाता है –

“उन्हें क्या करना तुम्हारे रंगों रेखाओं चित्रों से

उनके तो अपने रंग

अपनी रेखा

अपने चित्र हैं

उन्हें कोई लेना देना नही चित्रकार एम एफ हुसैन से

उनके मतलब का तो बस मकबूल फ़िदा हुसैन है (पृष्ठ ३८)

उन्हें चित्रकार से कोई वास्ता नहीं है उनका वास्ता तो चित्रकार के हिन्दू या मुसलमान होने से है क्योंकि हिन्दू या मुसलमान होने पर ही सांप्रदायिक दंगों का व्यूह रचा जा सकता है जिसके सहारे पूंजी सता पर काबिज़ हो सकती है

सबसे बड़ी बात यह है कि महेश की कविता दिल्ली में बैठे कवियों की नारेबाजी, बड़बोलेपन, शोर और उत्तेजना के अतिरेक से कोसों दूर है सीमित दायरे उसे पसन्द नहीं हैं चाहे वे कथ्य के हों या अभिव्यक्ति के सूक्ष्म से सूक्ष्म निजी से निजी अनुभव और ठेठ पहाड़ी स्थानीयता की महक से भरे अनुभव भी उनकी कविता का अभिकथन हैं और विशाल से विशाल तथा व्यापक से व्यापक वैश्विक अनुभव उनकी कविता का परिदृश्य है उनकी दृष्टि भी एकांगी या एकदिशागामी नहीं है बल्कि वह सच्चे मायने में जनपक्षधर है और संतुलित भी। प्रेम हो या राजनीति, ठेठ आदिवासी और ग्रामीण जीवन हो या कस्बाई और महानगरीय, रसोई हो या पांचसितारा होटल, सम्पन्न हो या दलित आक्रामक हो या ठग कोई भी उसके अनुभव के दायरे से बचा नहीं है। आतंकवाद ऒर सम्प्रदायवाद तक अपने सबसे घिनॊने रूप के साथ अत्यंत प्रामाणिक अनूभूतियों ऒर अनुभवों के साथ महेश की कविता में मौजूद हैं इसके लिए उसके पास अपनी तरह के अभिव्यक्तिपरक औजार भी हैं। लोक अर्थात् लोकजीवन, लोकभाषा, लोकचेतना मिथक आदि से ताकत लेने में उनकी कोई सानी नहीं है। वह प्रहार करती है लेकिन सार्थक एवं सकारात्मक। सृजनात्मक स्वप्नों की संरचना में महेश की कविता समाज में व्यापक बदलावों की जोरदार वकालत करती है बदलाव में उनका और उनकी कविता का अटूट विश्वास है उनका कहना है की सुन्दर हिन्दुस्तान का सपना हर हिन्दुस्तानी देखता है वो सपना मेरी भी आँखें देखती है वह सपना मेरी आँखों में कभी मर नहीं  सकता। 
 

“कभी नहीं मर सकता

मेरी आँखों में

सुन्दर  दुनिया का सपना“ (पृष्ठ २०)

इस सपने को देखने का उन्हें हक है क्योंकि उनको विश्वास है पूँजीवाद लाख कोशिश कर ले हमारे अन्दर की वर्गीय चेतना को नष्ट नहीं कर सकता जब तक हम अपने वजूद के प्रति चिंतित है अपनी जमीन के प्रति हम संवेदनशील है तब तक हम पूँजी के खतरनाक इरादों का प्रतिरोध करेंगे अभी भी हम डरे नहीं हैं क्योंकि हम सब में परिवर्तन की चेतना हिलोरें ले रही हैं। 
 

“पर इतने वर्षों बाद भी

बचा हुआ है इसमें

बहुत कुछ

बहुत कुछ

बहुत कुछ ऐसा

खोना नहीं चाहते हम

जिसे कभी” ( पृष्ठ १६)  

स्वप्न आम आदमी की ऊर्जा का स्रोत है स्वप्न जिन्दगी की जिजीविषा है संघर्षों के प्राण हैं जिस दिन स्वप्नों की मौत होगी आम आदमी की भी मौत होगी स्वप्न ही आदमी को हथियार देते हैं स्वप्न ही खतरों से लड़ने का जज्बा देते हैं इसलिए पंजाबी कवि पाश ने कहा है कि

“बहुत बुरा होता है सपनो का मर जाना” 

बदलाव की प्रबल आकांक्षा रखने वाला कवि कभी भी अपने सपनो को मरने नहीं देगा वह छद्म कवियों की तरह प्रकृति से मस्ती और यौवन नही खोजेगा वह आनंद और भोग की चरम वासनाओं में नहीं डूबेगा वह प्रकृति में भी क्रांति देखेगा वह चेतन और अचेतन में बदलाव का सूत्र तलाशेगा महेश का लोक क्रांतिधर्मी लोक है वह लोक की आस्था लेकर सामन्ती सौन्दर्य दृष्टि से संसार को नहीं देखते बल्कि अपनी वर्गीय दृष्टि से संसार को देखते है देखिये नदी की सुन्दरता की बजाय कवि उसमे क्या देख रहा है। 
 
“नदी के पास

नहीं है कोई कलम

नहीं कोई तूलिका

न ही हथौड़ा छीनी

फिर भी लिखती है

नयी इबारत

सीखना चाहता हूँ मैं भी नदी से

यह नायाब हुनर” (पृष्ठ १७)

इसी कविता को कहते हैं लोकधर्मी कविता इस दृष्टि को कहते हैं - लोकधर्मी सौन्दर्य दृष्टि
आवारा पूँजी ने सत्ता के साथ मिल कर एक नया मध्यम वर्ग तैयार कर लिया है एक ऐसा वर्ग जो महानगरों में रहता है और शहरी मध्यमवर्गीय चिंतन को ही कविता की मूल मनोभूमि समझता है इस वर्ग ने पूँजी के साथ मिल कर “कविता” को लोक से काटने का काम किया है समकालीन कविता में बहुत कम ऐसे कवि हैं जिन्होंने कविता को दूर दराज़ के अंचलों की तरफ मोड़ा है वास्तव में असली हिन्दुस्तान गाँव और कस्बों में, पहाड़ों और जंगलों में बसता है जहां का जीवन और परिवेश दोनों कठिन है आज जबकि पूँजीवाद ने सब कुछ बदल दिया है तो पहाड़ों, जंगलों, गावों में भी इन खतरनाक बदलावों को देखा जा सकता है महेश की कवितायें इसलिए आत्मीयतापूर्ण हैं कि उन्होंने अपनी जमीन और अपनी भाषा अपने परिवेश को ही हिन्दुस्तान समझा है अपनी कविता का कहन तलाशने के लिए वो नागर्जुन, केदार, त्रिलोचन, विजेन्द्र, मानबहादुर सिंह की परम्परा का अनुसरण करते हैं कविता के बिम्ब पहाड़ों की वनस्पति से, पहाड़ों की गंध से, अपनी बेचैनी और ग्रामीण बोध से ही अपना राष्ट्रीय बोध तलाशते हैं पहाड़ों की जमीन में ही खड़ी हो कर उनकी कविता अपने समय का ताना बाना बुनती है यही वह भूमि है जिसने कवि को अडिग रह कर लड़ने की सलाह दी है अपनी जमीन से जुडाव, अपनी जड़ों को पहचानना महेश के काव्यानुभव की पहली शर्त है देखिये पहाड़ों की टूटन को कवि ने किस कलात्मक अंदाज़ से पूंजीवादी लूट से जोड़ा है

“मुझे कूटा – मुझे लूटा

मुझे छेड़ा – मुझे उघेडा

मुझे काटा मुझे पीटा

मुझे तोड़ा मुझे फोड़ा

क्या क्या न किया जा रहा मेरे साथ ( पृष्ठ ७९) 

महेश केवल पहाड़ो टूटन से ही दुखी नही है उनका असली दुःख व्यापक जनसमुदाय के पक्ष में है पहाड़ों की अकूत सम्पत्ति की लूटन से वो दुखी हैं उन्होंने पिथौरागढ़ के उन कई स्थलों का उल्लेख किया है जहां पूँजी ने अपने पैर पसार कर मौलिकता को खंडित करने का दुस्साहस किया है मुनस्यारी के रास्ते में मिलने वाले विर्थी जलप्रपात का उल्लेख देखिये और पहाड़ों की लूट का नतीजा भी देखिये जिसके कारण एक पूरा गावं जमीदोज हो गया था। 
 
“बार-बार बिरथी फाल की और देख रहा है

उसकी आँखों में एक भय तैर रहा है

उसे ला झेकला की काली रात

याद आ रही है

उस रात भी ऐसा ही उफान था

ऐसी ही फुंकार

जब जमीदोज हो गया था पूरा गाँव” ( पृष्ठ ८७)

महेश जब लोक की गहराइयों में उतरते हैं तो उनकी कविता उन्ही की जमीन से चरित्र गढ़ लेती है ये चरित्र कल्पनाजन्य नहीं होते अपितु उन्ही के आस पास विद्यमान सजीव व्यक्ति होते हैं उनकी कई कविताओं में चरित्रों का समावेश है यह लोकधर्मी कवि की सबसे बड़ी पहचान है यदि कवि अपनी कविता में सजीव चरित्र नही समाविष्ट कर पाया तो कविता नकली प्रतीत होती है नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार, विजेन्द्र , केशव, जितने भी लोकधर्मी कवि हैं सबकी कविताएँ चरित्र का सृज़न करती हैं “चरित्र”  गढ़न के मायने में महेश किसी से कम नही हैं उनके चरित्र लोकजीवन के मूर्त भोक्ता है कवि की जमीनी आसक्ति और उनकी दृष्टि के निर्धारक हैं इस संदर्भ में उनकी किसी एक कविता का उदाहरण देना उचित नहीं रहेगा क्योंकि “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में अनेक चरित्र हैं उनकी कविता “माँ का अंतर्द्वंद” इस मायने में सबसे अलग है माँ एक ऐसा चरित्र है जहाँ भावुकता, भी अपना केंद्र स्थापित करती है इस कविता के द्वारा कवि ने पहाड़ी जीवन की कठिन जिजीविषा और जीवन संतुलन का खाका खीचा है माँ के माध्यम से कवि अपने पूंजीवादी साम्राज्यवादी वर्चस्ववाद पर तीखे प्रहार करता है  सम्पूर्ण रीतियों और पहाड़ी कुरीतियों की अप्रासंगिकता पर सवाल खड़ा करता है माँ के बाद उनकी कविता का दूसरा चरित्र जो वर्गीय वर्चस्ववाद की कथनीय भंगिमा से लैस है वह “सरुली” है सरुली मेहनतश स्त्री है पुरुष के सामन्ती संस्कारों और समाज के पूंजीवादी वर्चस्ववाद ने उसको शोषण की नियति से बांध कर रख दिया है जिसके जीवन का आरम्भ मेहनत है और अंत भी मेहनत है आधुनिक स्त्री विमर्श की तरह महेश का स्त्री चरित्र देह मुक्ति की घिसी पिटी लकीरों से आबद्ध नहीं है उसके  सामने सबसे बड़ा संकट सामंती वर्चस्ववाद है जिसके वगैर टूटे मुक्ति की कोई आशा नही की जा सकती मेहनतकश स्त्री के कव्य बिम्ब आज की कविता से गायब होते जा रहे हैं महेश की कविता में स्त्री के इन चरित्रों से उनकी लोकदृष्टि और आधुनिक दृष्टि के संतुलित सामंजस्य को देखा जा सकता है महेश की दो कवितायें उनके दो सांस्कृतिक मित्रों को समर्पित है एक कविता उनके कवि मित्र केशव तिवारी को (खुरदरापन) और दूसरी उनके चित्रकार मित्र रोहित जोशी के लिए समर्पित है (हवा)| दोनों कविताओं में कवि ने अपनी जमीनी भंगिमाओ को पूरे विस्तार के साथ समेटा है केशव और रोहित के बाद तीसरा चरित्र जो उनकी कविता में उपस्थित है वह है “शेर सिंह पांगती” जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी कविता “ट्राइवेल हेरिटेज म्यूजियम” में किया है शेर सिंह पहाड़ी मज़बूत इरादों के प्रतीक हैं जिन्होंने अपने निजी संघर्षों से म्युज़ियम की स्थापना किया है इस कविता में महेश ने शेर सिंह पांगती का जिस तरह से चारित्रिक विस्तार किया है वह उनके ठोस जमीनी अनुभव और पाठकीय संवेदना को झकझोर देने वाली रचनाधर्मिता का उदाहरण है


महेश अपनी कविताओं में भौगोलिक और सामाजिक परमपराओं का विशद विवेचन करते हैं उनकी अपनी पहाड़ी लोक रीतियाँ उनकी कविता में समां गयी है उन्होंने पहाड़ी जीवन के हर पहलू को जिया है बोली व्यवहार, स्वभाव का सम्पूर्ण परिवेश देखा है स्वाभाविक है उनकी कविता मे उनका लोक प्रसुप्त होकर नहीं आएगा बल्कि जाग्रत होकर आएगा पहाड़ी जीवन का ऐसा कोई कोना नही है जिसको महेश ने न देखा हो उत्पादन, धर्म, विश्वास, त्यौहार, साधन, विधि, जंत्र, मंत्र, विलास, चिकित्सा, औषधि, कला, कौशल, खेती, भेंडें, सब को देखते सुनते और अपनी कविता में उतारते चलते हैं “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में पहाड़ी जीवन अपने पूर्ण उपांगों के साथ सज़ीव हो उठा है “खतडवा संक्रांति” कविता में इस पहाड़ी लोक त्यौहार का जैसा वर्णन उन्होंने किया है उससे पहाड़ी आस्थाओं का बिम्ब सजीव हो जाता है  यह पहाड़ों का एक पशु त्यौहार है कवि ने अपनी कविता भूमि को स्पष्ट करने में कोई कसर नही उठा रखी है उनकी कविताओं को पढ़ कर अनजाना सा पाठक भी उनकी जमीन का अनुमान कर सकता है यह उनकी बड़ी सफलता है
 
भाषा अकेले कवि का उत्पाद नहीं होती उसके परिवेश और परिवेश में रहने वाले वर्गीय समूहों का सामूहिक उत्पाद होती है कवि की भाषा बहुत कुछ उसकी भौगोलिक अवस्थिति व जीवन संदर्भों से निर्मित होती है जब व्यक्ति किसी पर आक्रोशित होता है तो वह अपनी उस भाषा में आक्रोश व्यक्त करता है जिसे वो दैनिक व्यवहार में प्रयोग करता है यदि छोटे-छोटे जीवन अनुभवों में भी भाषा अभिजात्य रहे तो कवि कवि की कविता और उसकी सच्चाई संदेह के घेरे में आ जाती है भाषा कवि की मनोस्थिति के अनुसार अपना नियत सम्बन्ध खोज लेती है कहा जाता है कि काव्य भाषा सामान्य भाषा के भीतर की भाषा की भाषा है लेकिन हम कहेंगे की काव्य भाषा कवि के भीतर की भाषा है जिस भाषा में वो अपने परिवेश को जीता है जिस भाषा में वो अपने अनुभव उपार्जित करता है उसी भाषा को व्यक्त करने में ही कवि सफलता निहित है भाषा भी विषय की तरह यथार्थ होना चाहिए उपरी परतों पर थोपी हुई नहीं होनी चाहिए महेश की काव्य भाषा इस मायने में एक प्रतिमान बन कर उपस्थित होती है उनकी भाषा का कारखाना वही है जहाँ से उनके अनुभव जन्म लेते है उनकी भाषा में लोक सौन्दर्य देखते ही बनता है “लोक” की पीड़ा, उसकी हार, उसकी टूटन, उसका व्यवहार उन्ही की भाषा में देख कर कविता स्वयम लोक गान बन जाती है जैसे विजेन्द्र की कविताओं में उनका राजस्थान झलकता है मान बहादुर सिंह की कविता में उनका अवध प्रकट हो जाता है उसी तरह महेश की कविताओं में उनके पहाड़ प्रकट हो जाते जाते हैं उनके इस देशीपन को उनकी बेचैनी से जोड कर देखे जाने की जरुरत है महेश की कविता तभी अपना सार्थक अर्थ देगी जब हम उनके पहाड़ को समझेंगे उनकी भाषा में डूबेंगे धौल, टुटका, ठैरा, रौखड, बौज्यू, टैम, ओखल, गोंठ, नौले, सोन, असौज, गाडू, लवार, भेकुने, जीबू, भौत, जैसे शब्द अपनी पूर्ण अर्थवत्ता को साथ लिए उनके संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में विराजमान हैं महेश की इस भाषा ने उनके चरित्रों को एक नई पहचान दी है महेश ने भाषा के उन सभी अभिजात्य संकेतों को नकार दिया है जिनसे अनुभूतियाँ धूमिल हो सकती है उन्होंने अपने समय और लोकानुभव के अनुरूप एक ऐसी भाषा की तलाश की है जिसके फ्रेम में पूँजी द्वारा त्रसित इंसान का चित्र उकेरा जा सकता है उन्होंने भाषा और व्यक्ति के बीच दीवार का काम नही किया कविता के बीच में आये देशज शब्द आज के पूंजीवादी सामंती आतंक को अभिव्यंजित कर देती है भाषा का इतना सुनहला प्रयोग एक प्रतिबद्ध लोकधर्मी कवि ही कर सकता है महेश की भाषा द्वारा निर्मित अर्थ संकेत और शिल्प छवियाँ भी उनकी जमीनी जरूरतों और सरोकारों की व्यंजना करती हैं अमूमन प्रतीक और बिम्ब अर्थ की सूक्ष्म सांकेतिकता की व्यंजन करते है लेकिन उनका अधिकाधिक प्रयोग कविता को पोस्टर की तरह ग्राफिक बना देता है लेकिन महेश के बिम्ब और प्रतीक उनकी भाषा की तह से उत्पन्न है वहां यह दोष छू तक नहीं गया है बिम्बों का संवेदी प्रयोग उनकी कविता और उनकी भाषा को संदर्भ भाषा के रूप में रूप में स्थापित कर देता है और बिम्बों में आयी लोक छवि उनकी कविता के वितान को व्यापकता और विविधता से भर देती है देखिए एक उदाहरण
 

“सहस्रबाहु की तरह भुजाएं फैलाए

आसमान से सर लड़ाए

खड़ा हुआ पेड़”

गाये सभी ने गुण

पत्ती फूल फल और तने के

पर जड़ें याद नही आई किसी को” (पृष्ठ २८)

अर्थात पेड़ की डाली और शाखा पत्ती की चर्चा सभी करते है पर जिन जड़ों में वो टिका है उनकी चर्चा कोई नहीं करना चाहता यह एक अर्थ संकेत है जिसके मायने है कि हम पूँजी द्वारा तय किये गए उपरी आवरण को ही देख पाते है और जिन स्तंभों में मनुष्य का वजूद टिका है उन जड़ों की और कोई नहीं देखना चाहता है
 
महेश की भाषा का संघटन कविता के परम्परागत तत्वों से भी हुआ है ऐसे तत्वों में प्रतीक विधान मुख्य है प्रतीक मानव स्वभाव का एक विशिष्ट अंग है काव्य या कला में नए अर्थों की उद्भावना या अर्थ की गहराई को आम पाठक तक प्रेषित करने के लिए कवि प्रतीकों का प्रयोग करता है महेश में प्रतीक अपने अर्थ को बदल कर आज के पूंजीवादी परिवेश का अर्थ पा रहे हैं ध्यान से देखने पर उनके प्रतीक अन्योक्ति विधान जैसे प्रतीत होते हैं बिम्ब की सफलता उसक चित्र विधान में निहित होती है पर प्रतीक की सफलता उसके द्वारा निर्मित अर्थ संकेतों से तय होती है महेश के प्रतीक हर तरह के हैं मिथकों से लेकर इतिहास तक, शहर से ले कर निर्ज़न पहाड़ों तक उनके प्रतीक खोजे जा सकते हैं पर उनकी सार्थकता उनकी प्रतिबद्धता, और उनकी कविता के सामयिक संदर्भों को देख कर ही तय की जा सकती है जैसे एक कविता है “शैतान” यहाँ शैतान पूंजीवादी वर्चस्ववाद का प्रतीक बन कर उपस्थित है औपनवेशिक काल में पूँजीवाद साम्राज्यवादियों के रूप में उपस्थित था तो आज वह बाजारवाद के रूप में  उपस्थित है दोनों का चेहरा और चरित्र एक है
“लेकिन शैतान फिर से लौट आया है। 
 

रूप बदल कर

राजधानी तक हैं लम्बे हाथ

चेहरे से नही लगता है वह

बिलकुल भी शैतान सा

आवाज़ किसी देवदूत सी” (पृष्ठ ९१)

इस प्रतीक को कोई अलग अर्थ देना असंभव है महेश की कविता की यही खासियत है कि जिस प्रतीक में उन्होंने जिस अर्थ संधान कर दिया है उससे इतर अर्थ की कल्पना नही की जा सकती है उनकी काव्य भाषा की तीसरी सबसे बड़ी विशेषता है उनकी कविता में आये अप्रस्तुत –विधान अप्रस्तुत विधान के अंतर्गत उपमा पर आधारित अलंकारों का समावेश होता है उनके अप्रस्तुत विधान की सबसे बड़ी विशिष्टता है कि उपमान लोक से लिए गए हैं जिसके कारण कविता में एक खास किस्म के संदर्भ उपस्थित हो गए हैं जो कवि की मूल अंतर्वस्तु से एकदम हिलमिल जाते हैं और दूसरी विशेषता है की जिस लिंग का प्रस्तुत है उसी लिंग का अप्रस्तुत भी है अर्थात अप्रस्तुत विधान में महेश ने लिंग साम्य का खूबसूरत प्रयोग किया है उपमादि अलंकारों में लिंग साम्य का प्रयोग बहुत कम कवियों ने किया है उपमा के सबसे बड़े कवि कालिदास माने जाते हैं क्योंकि उन्होंने उपमेय के लिंगानुसार ही उपमान का लिंग रखा है यही विशेषता महेश की कविता में मिलती है उनके अप्रस्तुत विधान ही उन्हें अपने समकालीनों से पृथक कर देता है एक बानगी देखिये – 


“खुशबू फ़ैल जाती है चारों ओर

रात की रानी सी”

अर्थात खुशबू में रात रानी की संभावना दोनों में अद्भुत लिंग साम्य है महेश का कविता संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह” अपने प्रतिपाद्य और काव्य कला दोनों की दृष्टि से अनूठा है लोक की गहन भाषाई मुद्रा से लैस उनकी कविता अपने समय का सच्चा इतिहास लिख रही है
विचारणीय बिन्दु यह है कि महेश पुनेठा ने जिस कलात्मक उत्कृष्टता के साथ अपनी कथ्यात्मक प्रभावपूर्णता का निर्वहन किया है वह आज की कविता में दुर्लभ है उनका मानव पूँजीवादी बाजारवादी परिवेश से टूट रहा है और लोकतंत्र मुठ्ठी भर लोगों के हाथ में खिलौना बन चुका है उनका मानव उस लोकतन्त्र का वाशिन्दा है जहाँ मुठ्ठी भर लोग लोकतान्त्रिक तानाशाही से आम आदमी को मौत के मुँह में ढकेल रहे हैं। जहाँ अपने हक और अधिकारों की मांग करना सत्ता के खिफाफ भयानक अपराध है जहाँ बाज़ार से लूट कर अपनी जान खपा देना ही देशभक्ति है सामाजिक परिवर्तनों का सूत्रधार मानव अपनी  वर्गीय समझ और चेतना नष्ट कर चुका है वह अलगाव का शिकार है। उसका अलगाव अपने आप से है अपने परिवार से है अपने सरोकार से है उसकी सोच पर खतरनाक पहरे है वह मानव अपनी मनुष्यता खो चुका है। महेश उस मानव को परिवर्तन और बदलाव की सीख देते हैं उससे अंधेरों में उजालों की उम्मीद करते हैं महेश की कविता के संदर्भ में मुझे फ़िराक गोरखपुरी साहब के ये अलफ़ाज़ याद आ रहे हैं


“गुजश्ता अहद की, यादों को फिर करो ताज़ा

बुझे चिराग जलाओ, बहुत अँधेरा है”

(रस्साकसी से साभार) 


   



सम्पर्क-
मोबाईल- 09838610776 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 
                                                       

टिप्पणियाँ

  1. अत्यंत सारगर्भित लेख है . परमार जी की दृष्टि से महेश जी के कविता संसार को देखना अच्छा लगा. पूरा विश्वास है कि सामान्य जन से जुड़ी महेश सर की कवितायें घोर अँधेरे मे प्रकाश की लौ स्पंदित करने में पूर्ण सफल रहेंगी..
    कवि व समीक्षक दोनो को बधाई !!

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  2. बहुत ही महत्वपूरण आलेख लिखा है उमाशंकर परमार जी ने।महेश पुनेठा जी को पत्रिकाओं एवं फेसबुक पर पढता रहा हूँ।उनके कविता कर्म पर बहुत बढिया विचार आपने प्रस्तुत किया है।दोनो को मेरी शुभकामनाएं।

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  3. महेश जी की कविताओं में लोक के उस स्वर को फलक पर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने का भरपूर अवसर मिला है जो सदा हासिए पर छटपटाता रहा है। ये कविताएं समय की छाती पर महेश जी का हस्ताक्षर हैं। भाई उमाशंकर परमार जी को आलेख के लिए बधाई।

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  4. mahesh ji your hindi poems are very nice and heart touching keep postin ..i like it.thanks.
    best matrimonial portal

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