सुनील ‍मिश्र की कविताएँ

सुनील मिश्र



सिनेमा एवं संस्कृति विषयों पर विगत दो दशकों से सतत आलोचनात्मक लेखन,‍ विश्लेषण। कुछेक नाटक भी विशेषकर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर गढ़ा मण्डला के बलिदानी राजा शंकर शाह और उनके बेटे रघुनाथ शाह की शहादत पर वीर विप्लवी जिसके अब तक पन्द्रह सराहनीय प्रदर्शन। अभी दो नाटकों एवं एक फिल्म पटकथा पर काम। प्रख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी पर एक मोनोग्राफ की तैयारी। सभी प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में प्रकाशन। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के लिए भी इन्हीं विधाओं में कार्य। कविताएँ भी, स्वाभाविकत:। भोपाल में निवास।

भरोसा मनुष्य के लिए सबसे बड़ी नेमत है। खराब स्थितियों के बावजूद भरोसा ही वह नेमत है जिसके चलते हमारी उम्मीदें बेहतरी की तरफ लगी रहती हैं। इसीलिए तो यह भरोसा हठ के स्तर तक जाते हुए भी सकारात्मक रहता है। हमारे आज के कवि सुनील मिश्र इसी भरोसे के कवि हैं। संयोगवश सुनील मिश्र सिनेमा और संस्कृति से गहरे तौर पर जुड़े हुए हैं। वे एक बढियां कवि भी हैं। उनकी कुछ कविताएँ हमें अग्रज कुँवर रवीन्द्र ने उपलब्ध कराई हैं। आइए आज पढ़ते हैं सुनील मिश्र की कुछ नयी कविताएँ     

सुनील ‍मिश्र की कविताएँ

(एक)

पता होता है
तब भी ढूँढ़ने को होता हूँ
जानता हूँ पर
मानता नहीं हूँ
मैं जीता हूँ उसी भरोसे
अपने ही हठ के साथ
मैं तुम्हें कभी नहीं मानूँगा
अपने से ओझल
पल भर को भी

(दो)

न जाने कैसे
जाग उठते हैं एक साथ
कितने ही बरस
एक-एक कहानियाँ ले कर
छोटी-छोटी
मैं पढ़ रहा होता हूँ
किताब पीछे की ओर
पन्ने बोल रहे होते हैं
जगा रहे होते हैं भोर में
प्यार-मनुहार के साथ
उन्हीं पन्नों में दिखायी देता है
कस कर उंगली थामे
पैदल बचपन



(तीन)

सपने कहाँ थकते हैं
सपने छूटते भी नहीं हैं
हाथ से
सपनों को हाथ बाँटता है
हाथ से
बचे हुए सपने
हथेलियों से हथेलियों के
हो जाते हैं
सपने तिर्यक रेखाओं में
बैठ जाते हैं अपना सच ले कर
सपनों का सच और
पलकों का खुलना भी
सम-क्षण का सच है

(चार)

मन कहता है
अपनी सारी बातें
पक्षियों से कह दूँ
जो उड़ा करते हैं
बड़ी ऊँचाई पर
आकाश से सिर टिकाये
निडर होकर
वो शायद तुम्हें
पास से देखते होंगे
तुमसे वो बोल भी सकेंगे
आसानी से मेरा कहा
मैं सदियों तैयार हूँ
उनकी बाट जोहने के लिए
कभी वो पास आ कर
बैठें जो शाख पर
कह दूँ उस सारे बाद की व्यथा
जो कम ही न हुई
बनी हुई है
उतनी की उतनी ही

(पाँच)

कितनी प्रार्थनाएँ थीं
करने को तुम्हारे सामने
जाने कितनी ही कामनाएँ
प्रणम्य मुद्रा में मुँदी आँख
तुम्हें ध्यान करते हुए
नहीं लेकिन उतनी जितनी
तुमने कीं मेरे लिए
अंशमात्र भी नहीं उनका
पर अब वे प्रार्थनाएँ
सब चलीं गयीं पास से
अपनी स्मृतियाँ छुटा कर
मैं अपने एकान्त में
सोचता-सूझता हूँ वे प्रार्थनाएँ
एक बड़े स्मृति-लोप में


सम्पर्क -  

ई मेल - sunilmishrbpl@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 

टिप्पणियाँ

  1. सुनील भैया आप हमेशा की तरह लाजवाब।फील को छूती हैं सभी कविताएं।आप बड़ी सुंदरता से मनोभाव पकड़ लेते हैं। प्रणाम।

    जवाब देंहटाएं
  2. सुनील भैया आप हमेशा की तरह लाजवाब।फील को छूती हैं सभी कविताएं।आप बड़ी सुंदरता से मनोभाव पकड़ लेते हैं। प्रणाम।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'