भालचन्द्र जोशी के कहानी संग्रह 'जल में धूप' पर मनीषा कुलश्रेष्ठ की समीक्षा



आज तरह-तरह के विमर्श हैं और उन विमर्शों पर कविताएँ और कहानियाँ लिखना फैशन में है। लेकिन कुछ रचनाकार ऐसे भी हैं जो इस फैशनेबल परिपाटी से दूर रह कर अपनी रचनाधर्मिता में लगातार लगे हुए हैं। ऐसे रचनाकारों की रचनाओं में अनुभव की ताप दिखाई पड़ती है। ऐसे रचनाकारों की रचनाएँ पाठकों को सहज ही आकृष्ट करतीं हैं। ऐसे रचनाकारों में कहानीकार भालचन्द्र जोशी का नाम प्रमुख है। भालचन्द्र जोशी का एक संग्रह 'जल में धूप' नाम से बोधि प्रकाशन से आया है इस संग्रह पर कहानीकार मनीषा कुलश्रेष्ठ ने एक समीक्षा लिखी है। पहलीबार के पाठकों के लिए आज प्रस्तुत है मनीषा की यह समीक्षा - "प्रेम से मोहभंग का मौलिक द्वंद्व : 'जल में धूप'।"
     
प्रेम से मोहभंग का मौलिक द्वंद्व : 'जल में धूप' 

मनीषा कुलश्रेष्ठ



प्रेम कहानियों पर अपनी कलम साधना, या प्रेम कहानी में भाषा का बरतना, अंत पर सधी हुई लैंडिंग करना हर लेखक के बस की बात नहीं, या फिर किसी सधे हुए लेखक की भी हर प्रेम। मेरे हिसाब से हम कहानी का वर्गीकरण करें तो प्रेम कहानी, कहानी की ही एक उपविधा है, और इसे साधना हरेक के बस की बात नहीं,  प्रेम कहानी का असल तत्व द्वंद्व है, प्रेम कहानी एक मौलिक एंगल की मांग करती है, ज्यादातर प्रेम एक ही पैटर्न के होते हैं, बस उस पर मसालों का बघार से बनी प्रेम कहानियां आकर्षित नहीं करती। बात उसी मौलिक द्वंद्व की है।  जहां मौलिकता मिलती है, नया कोण, वही प्रेम-कहानी सफल हो जाती  है।

प्रेम कहानियाँ किसी भी लेखक की कसौटी है।  हर प्रेम कथा को एक विरला कोण चुनना होता है, पुराने मुद्दों पर बदल कर लिखी गई कहानियां हिंदी बहुत से लेखक लिखते आए हैं। लेकिन 'जल में धूप ' कहानी संग्रह के लेखक पूरे संग्रह को प्रेम में मोहभंग' का कोण देते हैं, मोहभंग भी हर कहानी में अलग कहीं तटस्थ, कहीं मार्मिक, कहीं "अच्छा है संभल जाएं" की तर्ज पर। अमूमन प्रेम कहानियों में यूं होता है कि तल में जीवन, समय का संक्रमण, समाज प्रस्तुत रहता है। यहाँ उलटा है, जीवन, समय, समाज अपने  पूरे प्रतिरोध के साथ प्रस्तुत हैं, तल में प्रेम बह रहा है।

इस संग्रह की पहली कहानी, 'जंगल' शीर्षक से है। जहां जंगल नेपथ्य में अपने त्रिआयामी स्वरूप में है।  भालचंद्र जोशी भाषा बरतने में माहिर लेखक हैं, वे प्रकृति को तरह तरह से बरतते हैं। यहां जंगल पूरा सजग है, वहीं गुह्य और अभेद है, स्त्री मन की तरह।  यहां जंगल का आमंत्रण है, जंगल का विरोध है, जंगल का सहयोग है, वहीं कभी न मिटने वाली आदिमता है, शोषण के विरुद्ध और प्रेम के सापेक्ष।

अपर्णा, भानु और शरद के बीच प्रेम कहीं भी ठोस और ओवरटोन होकर नहीं आता, सामान्य तौर पर दो लड़कों और एक लड़की की तिगड्डी दोस्ती में, एक का प्रेम मुखर होता है, दूसरे का मूक।
 
इस कहानी में भी लड़की का मौन दोनों को कोई थाह नहीं देता। इस मानसिकता के पीछे लड़कियों की बरसों की डिज़ास्टर मैनेजनमेंटकी मूल प्रवृत्ति छिपी रहती है।  यहाँ अपर्णा जानती है, प्रेम बावरा है, भानु भी। वहाँ रिश्ते का स्थायित्व सदा ख़तरे में रहेगा। जीवन कुछ और मांग करता है, बसाव की। और जो बसने के लिए बना ही नहीं उस यायावर से प्रेम करना तो आसान है पर उसे बाँधना मुश्किल। भानु उसे हमेशा चौंकाता है, जंगल और आदिवासियों का पक्षधर भानु नक्सलवाद की पैरवी करता है।  अकसर गायब हो जाता है।  वह प्रेम की क्षणों की उदात्तता को जीता है, पर वह कोई निभाव का वादा नहीं करता। उसके सरोकार बड़े हैं, प्रेम से बहुत बड़े, कई-कई जीवन, उनके आने वाली पौध-बीज का संरक्षण, एक भावुक मन के टूटने से कहीं बड़े सरोकार हैं, यह भानु और अपर्णा दोनों जानते हैं। सदा उनके जंगलों की पिकनिक का तीसरा साथी बचपन' का दोस्त शरद अपर्णा को पसंद करता है, कनखियों से देखता है। लेकिन भांपता रहता है भानु अपर्णा के बीच का प्रेम संलाप।

वह अवसर नहीं खोजता पर बाल उसके पाले में गिरती है तो छोड़ता भी नहीं। विवाह कर अपर्णा के साथ सुखद दांपत्य बिताता है। लेकिन शरद को वह जंगल हान्ट करता है, जहां उसने भानु अपर्णा का तरल, आकृतिविहीन, नामविहीन प्रेम देखा होता है, वह ठिठका हुआ प्रेम, जो कोई दैहिक आकार नहीं पाता।

"
लेकिन रात के सन्नाटे में जंगल का कोई हिस्सा मेरे मन में ठिठक गया था।"
वह अपर्णा से वैसे ही जंगल में, दैहिक प्रेम करता है।

दांपत्य है ही ऐसी शै कि, वहाँ अगर कोई ज्ञात तीसरा कोण हो तो, उस कोण के होने के निशान किसी बच्चे की कापी पर रबर से मिटे निशान होते हैं, मिट कर भी दिखते हैं। भानु का दिया भाग्यशाली पंख ज़रूर उनके बीच सुख बन कर रहता है। लेकिन अपर्णा के मन की किसी अवचेतन गुफ़ा में भानु की स्मृति भी पंख की तरह रहती है, यही वजह है कि वह भानु की मृत्यु की खबर पर जैसे सहज प्रतिक्रिया करती है, वह चौंकाने वाली है।

यहाँ या तो भानु इतना उसके भीतर छूटा हुआ है कि वह भानु के एनकाउंटर की अखबार में छपी खबर सुन कर ' कब? कहाँ? ' कहती है और पूरी खबर सुने बिना "रुको ज़रा, तवे पर परांठा है, जल जाएगा।" कह कर दौड़ कर भीतर चली जाती है।
या वह भानु का उस रोज़ ही तर्पण कर आई थी, जब वह जंगल में शरद के साथ थी।

वह यहां भी थाह नहीं देती उस प्रेम की।
प्रेम की तरह जंगल को अभिव्यक्ति देना कठिन होता है, यहां कहानीकार अपने विविध अनुभव, लेखनी की मौलिकता और सधाव का पता देता है।

दृश्यांकन में भालचंद्र जोशी, जितने मौलिक, उतने परिपक्व हैं। भीषण यथार्थ के  चित्रांकन जैसे दृश्य आजकल हिंदी कहानी में सिमटते जा रहे हैं, वह सामर्थ्य किस्सागोई का चुक रहा है, उसे बचाने में अगर हम कुछ कहानीकारों को गिनेंगे तो उनमें भालचंद्र जोशी भी शामिल होंगे।  यहां मुझे कृष्ण बलदेव वैद का कहा वाक्य याद आ रहा है।  "हमारे यहां यथार्थवादी कहानी ऐसे लिखी जाती है कि कीचड़ में चलो और पाजामे के पांयचे उठा लो।

कथाकार - भाल चन्द्र जोशी

भालचंद्र बिलकुल पांयचे नहीं उठाते, अलबत्ता उनकी कहानी 'चरसा' का दलित नायक किशन ज़रूर अपनी सवर्ण प्रेमिका सविता के आने पर अपने घर के टूटे हिस्से में पड़ी गंदगी पर राख और टोकरी ज़रूर ढकता है। यह एक अनूठी कहानी है, जो ऐसे दृश्यांकनों में पूरी होती है। जहाँ अपने दलित और गंवई होने को लगातार ढकने का प्रयास किशन पूरी कहानी में करता है, घर किराए पर लेने के लिए अपना सरनेम शर्मालगाता है। उसके पिता कहते है - "अड़नाम बदली लियो तो जाति बी बदली गई?"

जबकि उसकी सवर्ण प्रेमिका को उसकी जाति से कोई आपत्ति नहीं है।  वह प्रेम करती है, दलितों के पक्ष में बहस करती वह पूर्ण समर्पण करती है, लेकिन उसकी सभ्रांतता, उसकी सुरुचि, उसके बदबूदार घर में परफ्यूम लगा कर आने पर नायक मन ही मन कुंठित ही रहता है, उसके भद्रलोक के आलोक में अपने अनगढ़पन पर। वह हमेशा सविता के सवर्ण और सभ्रांत होने से भीतर आतंकित रहता है। यही वजह है कि गांव के सौ बंदिशों, वर्ग भेद की साफ़ सीमा रेखाओं के बावजूद सविता के उससे हर बार मिलने पर कुछ न कुछ गड़बड़ होती ही है, जिससे वह दिनोंदिन परेशान रहता है।  नायक की इस कुंठा की पराकाष्ठा और कहानी का अंत रोचक मगर आयरनीकल है। यह कहानी उन लेखकों के लिए एक मिसाल है, जो पोज़ लेकर लिखते हैं, कहानी के इनग्रेडिएंट्स तौल माप कर दलित स्वर की कहानी को मुख्यधारा से अलगा देते हैं। प्रेम यहाँ बिलकुल आजकल के प्रेम जैसा है, मुखर, आवेगमय, सदेह और आत्मसजग।  जिसमें हल्की-हल्की मानसिक जटिलताएं दोनों ओर हैं, दलित और सवर्ण होने की। वर्ग विभेद का तनाव भी प्रेम के साथ चलता रहता है। मनोवैज्ञानिक स्तर पर बारीकी से लिखी इस कहानी में प्रेम के एक दम नए शेड हैं। प्रेमिका से मिलने के लिए उसकी मरणासन्न दादी की मृत्यु की बेसब्र प्रतीक्षा।  हड़बड़ाहट, छुपाव-दुरावप्रेम के अंतरंग पलों में सदियों के दमन का वह भाव अंतत: मिलन के क्षणों में प्रेमालाप की क्रूरता में उभरता है, जिसे भीतर कहीं बदले का भाव न कह कर, मज्जा और रज्जुओं में धंसा वह शमन ही है। यह लंबी कहानी बहुत से ऐसे दृश्य उकेरती है, जो हिंदी कहानी में दुर्लभ हैं। ऎसे विरोधाभास हैं, जो मनोवैज्ञानिक स्तर पर जाकर ही रेखांकित हो सकते हैं। 


“शायद कुछ उल्टी-सुल्टी दिशा के हुक हैं, जो भूलभुलैया का खेल रचकर उसमें पराजय की फीलिंग पैदा कर रहे हैं। अचानक उसके हाथों की व्यस्त उंगलियों को सविता की उंगलियों के गरम पोरों ने टोका। अपने भीतर एक अभिजात स्त्री के रहस्य को न समझ पाने की अनगढ़ता चुभने लगी।” हांलाकि यहाँ सवर्ण प्रेमिका को पाने का थ्रिल और उसके साथ अनघड़ रोमांस है साथ-साथ चलते हैं। नायक के मन थोड़ी अवचेतनात्मक क्रूरता है लेकिन उसका दैहिक प्रेम बलात्कार नहीं है। (यह यहाँ अवश्य उल्लेखनीय है कि 'चरसा' कहानी, उदयप्रकाश की 'पीली छतरी वाली लड़की' से पहले लिखी गई है।) अंत में जब नायिका से प्रेम करके सीढ़ी उतरता है तो वह झूठी पत्तलों के टोकरे से टकराता है, और जूठन से लिथड़ जाता है तो, देखे जाने पर लड़की के भाई कहते हैं – ‘अरे! मंगत भलईं का छोरा है जूठन उठाने आया है। तो उसका मन ठहाके लगाने का करता है – ‘जूठी पत्तलें आंगन में हैं, झूठी देह छत पर

भालचंद्र जोशी के यहां इन प्रेम कहानियों में यथार्थ भी है, और कहानी भी संक्रमण काल में अपना स्वरूप बदलते प्रेम की। वे ऎसा इंगित भी करते हैं इस संग्रह की भूमिका में। भालचन्द्र जोशी की इन कहानियों में हमारे समय का प्रेम अपनी संक्रमण काल की तिर्यक गति के साथ कुछ इस तरह से आता है कि रूमानियत को यथार्थ की तात्कालिकता लाउड होने ही नहीं देतीं, यही वजह है कि ये सारी प्रेम कहानियां मुकम्मल तौर पर आधुनिक कहानी के रूप में स्वायत्त हो उठती हैं।

इस संग्रह की एक कहानी कहीं भी अंधेरावह स्वप्न, अवचेतन और तल के भीतर प्रेम की कथा है। जो एक काव्यात्मक आयरनी है, एक मरते हुई मरीज़ की और उसके साथ सपना साझा करते उसके किसी हमदर्द की। हम भालचंद्र जोशी को यथार्थ की बारीक बुनावट वाला कथाकार मानते हैं, लेकिन यहाँ वे अमूर्तन लिखते हैं और खरे उतरते हैं।
 
सबसे पहले ज़रूरीएक कस्बाई बेरोज़गार पढे-लिखे लड़के और लड़के की नौकरी की प्रतीक्षा में बड़ी होती लड़की के दिन प्रति हालात के प्रति उदासीन होते जाते प्रेम की कहानी है, इस कहानी में कस्बाई उदासी, विवशता और संवादों में आती तल्खी की बहुत सटीक अभिव्यक्ति हुई है कि प्रेमी की नौकरी की प्रतीक्षा में लड़की है या पैसों की वजह से उसका खुद कहीं ब्याह न होने की विवशता है कि वह हर साल कह देती है - “इस साल मेरी शादी हो जाएगी।”

“यह बात तुमने पिछले साल भी कही थी।”
”इस बार कपास की फसल अच्छी हुई है, पिछले साल एकदम बिगड़ गई थी।”
भालचंद्र जोशी अपनी कहानियों के दृश्यों मॆं कस्बाई मन यूँ उकेरते हैं कि वह किसी यथार्थवादी फिल्म की तरह मानस पर चलते हैं। उस पर कमाल ये कि बिम्ब हों कि भाषा का बर्ताव प्रवाह में बिना टूटे बहता, एकदम मौलिक और अनूठा। “बैलगाड़ी के गुज़रते ही खामोशी कुछ देर कुचली रही। फिर वापस बल खाने लगी।
 
उनकी कहानियों में एक बात और जो मुझे आकर्षित करती है और जोड़ती है, वह है उनका विवरणों, चरित्र-चित्रणों में इस क़दर निपुण होना कि एक रेखाचित्र उभर आए। उनके भीतर एक स्त्री मन है जो परिधानों और आस-पास के माहौल को बहुत डीटेलके साथ खींचता है, वह कम से कम उनके महिला पाठकों को बहुत संतोषप्रद लगता होगा। मसलन जब वे मौसम बदलता हैकहानी में नायक पूर्व मगर वर्तमान में विवाहित प्रेमिका से संभावित मिलन के अवसर की तलाश में उसके रिश्तेदार के यहाँ विवाह समारोह में शामिल होने जाता है। उस विवाह-घर, समारोह के महीन खाके जो लेखक खींचते हैं, आप पल-पल नायक के द्वंद्व में साथ होते हैं। वहाँ भी जब वह नायिका के लंबे बालों को पॉनिटेल में बदले देखता है, वहाँ भी जब वह लाल चूड़ियों के बीच सजी एक-एक पीली चूड़ी पर गौर करता है। इस कहानी में नायिका से बहुत संक्षिप्त औपचारिक मुलाकात और विवाह समारोह की अफ़रा-तफरी और मौसम का षड्यंत्र उसके हौसले पस्त कर देता है।

मुझे यह बात बहुत आशावान करती है कि हिंदी में ऎसे कथाकार विरल ही सही पर हैं जो विमर्शों की फैशनेबल कहानियाँ नहीं लिखते। भालचंद्र एक ऎसे लेखक हैं जो सामाजिक वास्तविकता को उसके ऊपरी लक्षणों के आधार पर पहचानने की बजाय उसके मूलवर्ती चरित्र में रेखांकित करते हैं। यही उनकी लोकप्रियता की वजह भी है।

यथार्थ को लिखते समय भालचंद्र जोशी का गल्पकार कतई रूखा और सतही नहीं होता, वह तल को प्रतिबिंबित करता है सतह पर, फंतासी का प्रयोग या कल्पना का स्फूर्त संचरण बहुत सुघड़ कलात्मकता के साथ आता है, जो कि शिल्प-युक्ति के निहिथार्थ नहीं होता बल्कि यथार्थ की तथ्यात्मक रूखेपन से निज़ात दिलवाने के अनायास आता है। कथात्मक यथार्थ को वे अनूठे विन्यास में पिरोते हैं। नए कथ्यात्मक परिवेश से पहचान करवाने इस प्रक्रिया में उनकी कथा-भाषा सिंक्रोनाईज़ होकर पठनीयता का पूरा आनंद देती है। 





मनीषा कुलश्रेष्ठ




जल में धूप (प्रेम से मोहभंग की कुछ प्रेम कहानियाँ)
लेखक : भालचंद्र जोशी


पृष्ठ संख्या - 96


मूल्य - 10 रु.
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन





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