पद्मनाभ गौतम की कहानी सानो बैंक
पद्मनाभ गौतम |
सानो बैंक
पद्मनाभ गौतम
सुबह से अब तक कोई ग्राहक नहीं आया
दुकान पर। यह बरसात का दिन है। बरसात है, इसलिए
मन को यह सांत्वना है कि ग्राहक क्यों नही आया, अन्यथा आजकल तो मनहूसियत के साथ ही रोजी
का आरंभ होता है। इस समय बाजार में रेनकोट पहने व छतरियाँ ओढ़े लोग ही अधिक दिख रहे
हैं। सिंगटाम की झमाझम बरसात में बाहर निकलने का मतलब है कि जाने वाले का कहीं
जाना जरूरी है। सुबह के समय इन में स्कूली बच्चों के अतिरिक्त बहुतायत में सरकारी
दफ्तरों, दवा कम्पनियों, जल-विद्युत परियोजनाओं में कार्य करने
वाले कर्मचारी होते हैं। इन कर्मचारियों को देख कर उसके कलेजे में हूक सी उठा
करती। खुशनसीब हैं ये लोग! सुबह काम पर निकलते हैं, शाम को इत्मीनान से घर आ जाते हैं। इनके
सर पर कल की चिन्ता सवार नहीं होती है। महीने के अंत में बंधी-बंधाई तनख्वाह मिल
जाती है। काम पर जाने का मन नहीं होता तो छुट्टी ले लेते हैं। कभी बच्चों को साथ
लेकर सरम्सा पार्क निकल जाते हैं, तो कभी कलिम्पोंग
साइंस सेन्टर। कभी हँसते-गाते समूह बना कर दार्जिलिंग घूम आते हैं, तो कभी नामची-गंगटोक। साल में एक बार
एल.टी.ए. के बूते दूर देश भी घूम आते हैं। किस्मतवाली हैं इनकी संतानें, जिन्हें अपने पिताओं का समय मिलता है।
क्या कहते हैं उसे, ‘क्वालिटी टाइम’ - ऐसा ही कुछ उसने अखबार के एक लेख में
पढ़ा था। उसमें यह भी लिखा था कि बच्चों के समग्र मानसिक विकास के लिए ‘क्वालिटी
टाइम’ देना जरूरी है।
क्वालिटी टाइम की याद आते ही उसका मुँह कड़वा हो गया। बेटी कब से सरम्सा पार्क जाने
की जिद कर रही है, पर उसे तो समय ही
नहीं है। फालतू पैसा भी नहीं कि किसी तरह समय निकाल कर उसे घुमाने ले जाया जाए।
उसकी मास्टरनी ने कुछ पढ़ा दिया है वनस्पति-विज्ञान में, साथ में यह भी कि सरम्सा पार्क में बहुत
से पेड़ हैं, जिनमें से हर एक पर
उनका नाम लिखा है, बोटैनिकल भी और लोकल
भी। वहाँ घूमने जाओ और दस प्रकार के पेड़ों के पत्ते तोड़ कर उनका नाम-जाति सब लिख
कर लाओ। तब से सरम्सा जाने की जिद लगाए बैठी है। लेकिन वह जानता है कि यह जिद नहीं, बल्कि उसकी जरूरत है। आखिर यह स्कूल
वाले बच्चों से बेकार के धंधे करवाते ही क्यों हैं। बच्चे भी परेशान होते हैं और
माँ-बाप भी। कुछ लोगों से पूछा तो पता चला कि कुछ नहीं है वहाँ, कुछ पेड़-पौधे हैं जिन पर जंगल महकमे
वालों ने नामों की तख्तियाँ लगा रखी हैं। वहाँ कुछ परिवार पिकनिक मनाने आते हैं, तो झाड़ियों की ओट में प्रेमी जोड़े
एक-दूसरे को प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं। सुन कर उसका मन खराब हो गया। उधर बेटी मुँह
फुलाए बैठी है कि आखिर रानीपूल है ही कितना दूर सिंगटाम बाजार से।
पिछले साल स्कूल की ओर से उसकी बेटी की
कक्षा के लिए बैंगलुरू का शैक्षणिक भ्रमण रखा गया था। पैसों की तंगी के कारण उसने
मना कर दिया। कितना रोई थी बेटी! रूठ कर कई दिनों तक उसने पापा से बात भी नहीं की
थी। उसे स्कूल वालों पर क्रोध आता –‘भला यह कौन सी पढ़ाई
है, जो बिना खर्चे के
पूरी ही नहीं होती।’ आज दस पत्ते तोड़ने के
लिए सरम्सा जाओ, कल बर्फ का तापमान
लेने नाथुला या दार्जिलिंग जाना होगा। पर उसे फुर्सत ही कहाँ। बुधवार को जिस दिन
सिंगटाम बाजार बन्द होता है, उस दिन बेटी को
छुट्टी नहीं मिलती। उसी दिन तो उसे माल खरीदने सिलीगुड़ी भी जाना पड़ता है। इन दिनों
महाजन या तो रकम बैंक में जमा करने पर माल भेजते हैं या फिर नगद ले कर खुद जाना
पड़ता है खरीदने। दिन लद गए जब माल रखने की चिरौरी करते गुमाश्ते आते थे और एक क्या
दो-तीन कलम का उधार दे जाते थे। माल बेचते रहो, पैसे चुकाते रहो। पर अब तो खुद जा कर
माल न खरीदो तो जाने क्या भेज दे। ज्यादा तकरार की तो माल भेजना बन्द। सारी
खरीददारी नगद, पन्द्रह दिनों की
मियाद भी नहीं। तो बुधवार को तो मुश्किल है जाना। उधर रविवार को जब बेटी की छुट्टी
होती है, तब उसे दुकान से
फुर्सत नहीं मिलती। वह इस मंदी में एक दिन भी दुकान बंद रखने की नहीं सोच सकता है।
फिर मान लो कि एक बार का मामला हो तो दुकान किसी के भरोसे छोड़ कर वह बेटी के साथ
चला भी जाए। लेकिन वह दुकान किसके भरोसे छोड़ेगा? घर में कोई नहीं जो हाथ बँटाए। बाहर कोई
विश्वासपात्र आदमी मिलना मुश्किल है। उसने जितने भी आदमी रखे, सारे बेईमान निकले। यह बात वह यकीन के
साथ कह सकता है। यदि कोई आदमी ईमानदार मिला तो वह इतना मुँहफट और बदतमीज कि उसे
लगता जैसे स्वयं वह दुकान का नौकर है और वह कारिंदा मालिक। उसके सामने दो ही
रास्ते थे- या तो थोड़ी बहुत चोरी-चकारी स्वीकार कर ले या फिर अकेला खटता रहे दुकान
पर। फिर कर्मचारी रखने का मतलब आमदनी हो न हो परंतु कर्मचारी को समय पर वेतन देना
जरूरी है। इस लिए अकेले काम करना उसकी मजबूरी थी। इस वजह से कितने ही नाते
रिश्तेदारों के घर शादी-ब्याह जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर भी नहीं पहुँच पाया, जिसके लिए रिश्तेदार भी उससे नाराज ही
रहते। ‘राजस्थान जा कर ब्याह में शामिल होना आसान है भला? काश कि वह भी औरों की तरह नौकरी करता तो
कितना बढ़िया होता!’- वह सोचता।
वह सिक्किम का मूल निवासी नहीं है। उसके
दादा राजस्थान के बीकानर से यहाँ आए थे। दादा यहाँ आए थे कि दूसरे मारवाड़ियों की
तरह वे भी यहाँ चाय बागान खरीदेंगे और अपनी संतानों के लिए सात पीढ़ियों की पूँजी
छोड़ कर जाएँगे। लेकिन दादा का सपना पूरा नहीं हुआ। दादा ने यहाँ सिंगटाम बाजार में
ब्याज का काम शुरू कर दिया। दुकान का नाम था ‘झाबरमल्ल पीतमचन्द’। झाबरमल्ल दादा का और पीतमचन्द उसके
पिता का। लेकिन ब्याज के धंधे के कारण दुकान को लोग ‘सानो बैंक’ कहते। नेपाली भाषा में सानो का अर्थ है
छोटा। ऋण लेने के तमाम पेचीदा नियमों वाले बड़े सरकारी बैंक से बचने का विकल्प बना ‘सानो
बैंक’। आरंभ में तो दुकान
पर ब्याज का काम खूब चला, क्योंकि पहाड़ की तो
प्रवृत्ति ही मौज-मजे और राग-रंग की होती है और इसके लिए लोग ब्याज पर रुपए उधार लेने से परहेज नही करते। परंतु धीरे-धीरे दुकान की लईमारी बढ़ने लगी और एक दिन ऐसा
आया कि दादा की सारी पूँजी लाल बही के सफेद कागजों पर जा चढ़ी तथा तिजोरी में रूपयों
के स्थान पर बही-खाते बैठ गए।
लेकिन मारवाड़ी को दोबारा पनपने के लिए
बस श्वांस ही चाहिए, यदि वह बच गई तो फिर
वह खड़ा हो ही जाता है। दादा ने बचे हुए पैसों से चायपत्ती की दुकान खोली। आस-पास
के चाय बागानों की चाय को खुदरा और थोक बेचने का काम था। अब ‘झाबरमल्ल पीतमचंद’ के सामने ‘चियापत्ती दोकान’ और जुड़ गया, परंतु दुकान का चालू नाम अब भी ‘सानो
बैंक’ ही था। लेकिन सानो
बैंक में ब्याज का काम अब बन्द हो चुका था। दादा हमेशा कहते कि बेटा नौकरी करना तो
हमारा काम नहीं, हम तो मारवाड़ी हैं, हमें ब्यौपार ही शोभता है, न उससे कम और न ज्यादा। लेकिन दादा का
यह नया काम भी औसत ही चल पाया। फिर दादा के बाद पिता भी कोई बड़ा उपक्रम नहीं कर
पाए, और एक दिन उसे विरासत
में यह दुकान मिल गई। सिलीगुड़ी से अकाउंट में ग्रेजुएशन करने के बाद उसे भी पिता
के काम में हाथ बँटाना पड़ा। पूरी तरह से व्यापार अपने हाथों में आने के बाद उसका
मन इस चाय के व्यापार में नहीं लगा। यह भी कोई काम है। धीरे-धीरे उसने चाय पत्ती
का स्टॉक चुकता कर खेल के सामानों की बिक्री आरंभ कर दी। दुकान का नाम रखा ‘एच.के.स्पोर्ट्स’। ‘एच.के.’ अर्थात् हरीश कुमार, उसका अपना नाम। मोहवश उसने ‘झाबरमल्ल
पीतमचंद चियापत्ती दोकान’ का बोर्ड नहीं हटाया, हालाँकि अब दुकान में चाय की पत्ती नहीं
के बराबर बिका करती थी। नेशनल पावर कम्पनी, निजी
जल विद्युत कम्पनियों तथा दवा कम्पनियों के कर्मचारियों की खरीददारी के बूते दुकान
ठीक-ठाक चलने लगी। सिक्किम खेलों को पसन्द करने वाला राज्य है। भारतीय टीम का
कप्तान बाईचुंग भूटिया सिक्किम का ही रहने वाला है। सिक्किम के बच्चे होश सम्भालते
ही पहली जिद फुटबाल के जूतों की करते हैं। अतः खेल के सामानों की बिक्री ठीक होगी, यह सोच कर उसने खेल के सामानों की दुकान
खोली। परंतु उसे इसका अनुमान नहीं था कि यह अधिक समय तक नहीं चलने वाला। जब तक 2008 की मंदी नहीं आई तब तक उसे क्या
बड़े-बड़े विशेषज्ञों को भी इसका अनुमान नहीं था।
कुछ सालों तक अच्छा चलने के बाद अब
दुकान की बिक्री में अब वह बात नहीं रह गई थी। लगातार सात सालों की मंदी ने किसी न
किसी तरह से हर किसी को परेशान कर दिया। उसकी आमदनी भी अब पहले जैसी नहीं रह गई
थी। नेशनल पावर कम्पनी का प्रोजेक्ट पूरा हो गया था और उसमें अब प्लांट चलाने वाले
मुठ्ठी भर कर्मचारी ही शेष रह गए थे। दूसरी पावर कम्पनियाँ 2008 की पहली मंदी तो किसी तरह झेल गईं थी
पर मंदी का डबल डिप (दूसरा दौर) आते-आते सब की सब बैठ गईं। जो सब्ज-बाग दिखा कर
दलालों ने कम्पनियों को दोगुने दामों पर प्रोजेक्ट दिलाए थे, वह असलियत अब सामने आ रही थी। आधी
परियोजना बनते-बनते कम्पनियों को बैंकों से मिलने वाले ऋण की समूची राशि गड़प हो
गई। आगे बैंकों ने अनुपात से अधिक पैसे देने से इंकार कर दिया था। अधबनी
परियोजनाओं से अब कर्मचारियों की छँटनी आरम्भ हो गई। परियोजनाओं में केवल तकवारी
करने वाले नाममात्र के कर्मचारी ही शेष रह गए, जिनमें अधिकांश वह थे जो किसी राजनेता
के रसूख से कम्पनियों में घुसे थे तथा जिनका निकलना केवल तब सम्भव था, जब कि परियोजना किसी अन्य कम्पनी के
हाथों बिक जाती अथवा बैंक उसकी कुर्की कर लेते। यह तो भला हो कि दवा कम्पनियों का
काम जारी है, जिससे कि इलाके की
आमदनी कुछ हद तक बरकरार है। खाने-जीने भर का मिल जा रहा है। दवा कम्पनियों का काम
भी ठीक है! आदमी आधे पेट खा कर जी सकता है, लेकिन
आधी दवा खाकर नहीं। इनका काम तो चलता ही रहता है। कुल मिलाकर सिंगटाम बाजार में अब
वह रौनक नहीं थी जो सन् दो हजार पाँच से दस के बीच बनी हुई थी। ‘एच.के.स्पोर्ट्स’ की आमदनी पर भी असर पड़ गया। जरूरी कामों
के लिए जमा-पूँजी को हाथ लगाना पड़ रहा था। खुदा न खास्ता कोई बड़ा खर्च आन पड़ा तब? वह घबरा कर सोचना बन्द कर देता।
बरसात कम हो गई थी, और उसके साथ ही काम पर जाने वालों की
भीड़ भी। केवल गोल-चक्कर के पास छतरी के नीचे खड़ा श्रीवास्तव अपनी सिगरेट फूँक रहा
था। उसकी गाड़ी अब भी नहीं आई थी। वह अपने साहब की स्कार्पियो गाड़ी में पीछे बैठ कर
दफ्तर जाता है। उसने श्रीवास्तव को देख कर मुँह बनाया। श्रीवास्तव भी उसकी ही तरह
सिक्किम का निवासी नहीं है। उसके पिता शीलवंत श्रीवास्तव बिहार के अररिया से
सिक्किम आए थे। शीलवंत भी उसके दादा और पिता की तरह ‘सिक्किम सब्जेक्ट’ नहीं थे। यानी वे भी 1972 में सिक्किम राज्य के भारत में विलय से
पूर्व, सिक्किम के राजा की
प्रजा-पंजी में दर्ज नहीं थे। वे केवल प्रमाणपत्र प्राप्त निवासी थे, तथा उनके पास भी उसकी तरह ही ‘रेसिडेंस
सर्टीफिकेट’ ही था। ‘रेसिडेंस
सर्टीफिकेट’ अर्थात् सिक्किम में
रह कर व्यापार व नौकरी करने की अनुमति,
परंतु
स्थाई निवास हेतु भूमि खरीदने की पात्रता नहीं। शीलवंत नामची के चाय बागान में
क्लर्क थे, परंतु जाने कैसे उनका
यह आवारा लौंडा इंजीनियरिंग पढ़ कर नेशनल पावर कंपनी में जूनियर इंजीनियर हो गया।
फिर 2003 की तेजी में उसने
सरकारी नौकरी छोड़ दी व निजी जल विद्युत परियोजना बनाने वाली कम्पनी जल-भारत में
मोटी तन्ख्वाह पर उप-प्रबंधक हो गया। ठसके तो देखो इसके! उसने श्रीवास्तव की ओर
चिढ़ कर देखा जिसकी फिल्टर वाली सिगरेट उंगलियों के पानी से भीग कर बीच से मुड़ गई
थी, लेकिन जोर लगा कर वह
उसके कश अब भी खींचे जा रहा था। महसूस हुआ जैसे उसे कुछ हासिल नहीं हो रहा। काश कि
वह भी इस श्रीवास्तव की तरह नौकरीपेशा होता, तो
वह भी इस समय इत्मीनान से सिगरेट फूँकता दफ्तर की गाड़ी का इंतजार कर रहा होता!
उसने सोच बदलने को अखबार उठाया। यह
सिलीगुड़ी से आने वाला हिन्दी अखबार है। सिक्किम से प्रकाशित अखबारों में स्थानीय व
एजेंसी से मिले समाचार ही अधिक होते हैं। इसलिए वह इस अखबार को खरीदता है जिसमें
मुख्य-भूमि की खबरों के साथ-साथ उसका हिन्दी का भी अभ्यास बना रहता है। अखबार का
पहला पृष्ठ देखते ही उसका मन दुख से भर गया। पहले पृष्ठ पर ही एक किसान की
आत्महत्या की तस्वीर थी। उसकी गर्दन झूल कर लम्बी हो गई थी। तस्वीर में लाश के
चेहरे को धुँधला कर दिया गया था। फोटो दोनों एंगल से लिया गया था, सामने व बगल से। धोती-कुर्ता पहने किसान
की मृत देह देख कर वह सन्न रह गया। ओला-वृष्टि में फसल बर्बाद होने के कारण कर्ज
में डूबे किसान ने आत्महत्या कर ली थी। इस साल यह कर्ज में डूबे किसान की आठवीं
आत्महत्या है। जाने क्या हो गया है कि पिछले कुछ दिनों से किसानों की आत्महत्या दर
बढ़ती जा रही है। आंध्र प्रदेश, फिर विदर्भ और अब
हरियाणा। हे ईश्वर, हरियाणा जैसे राज्य
में भी, जो कि देश के सबसे
समृद्ध राज्यों में से एक है? एक-डेढ़ दशक पहले तक
तो ऐसी खबरें नहीं आतीं थीं कि किसी किसान ने आत्महत्या कर ली। तस्वीर में किसान
की हवा में लटकती हुई देह देख कर उसकी आंखें भर आईं। काश, बेचारा मजदूर ही बन जाता। उसने बचपन में
मुंशी प्रेमचंद की कहानी पढ़ी थी – ‘पूस की रात’। ‘पूस की रात’ में हल्कू ने भी तो किसान से मजदूर बनना
स्वीकार किया था। ये बेचारे भी हल्कू ही बन जाते। कम से कम छोटे-छोटे बच्चे अनाथ
तो नहीं होते। क्या इन किसानों को मजदूर बनने का अपमान बर्दाश्त नही हुआ? आँख बन्द करते हुए उसने गहरी श्वाँस ली।
परंतु बन्द आँखों के सामने उस किसान की ही तस्वीर घूम रही थी। तस्वीर में किसान का
चेहरा धुँधला था, लेकिन बाकी सब
बिल्कुल साफ। उसे लगा कि उसके सामने वह चेहरा अचानक साफ होता जा रहा है। अब उस
किसान की देह पर उसे धोती-कुर्ता नहीं,
बल्कि
कमीज-पतलून दिख रही थी। उसका बदन कँपकँपा गया। यह सिंगटाम की बरसाती सुबह नहीं
बल्कि पूस की रात है, जिसकी ठंडक उसकी
हड्डियों में घुसती जा रही है।
अचानक आवाज सुनकर उसकी तंद्रा भंग हुई।
सामने एक महिला थी, जिसे अपने लड़के के
लिए फुटबाल के जूते खरीदने थे। उसने जबरिया जिद करके चार सौ रुपयों के जूते दौ सौ
पचहत्तर रुपयों में खरीद लिए। उसे मुनाफे में केवल पच्चीस रुपए मिले। यदि वह
ईमानदारी से जूतों का दाम तीन सौ रूपए रखता, तो
महिला उसे डेढ़ सौ रुपयों में ही खरीदने की कोशिश करती। कैसे घटिया मोल-भाव का
बाजार है सिंगटाम, सोचते हुए बेचैनी के
साथ उसके हृदय में टीस भी हो रही थी।
महिला के जाने के बाद वह फिर से अखबार
के पन्ने पलटने लगा। अब उसके सामने अखबार का आठवाँ पन्ना था- अर्थ-जगत की खबरों
वाला। ‘सेन्सेक्स ने तोड़ा ऑल टाईम हाई का रिकार्ड’। ‘यह हिन्दी अखबार है’!- उसने भुनभुनाते हुए अपने-आप से कहा।
यहाँ हिन्दी भी अँगरेजी में बोली जा रही। उधर खबर कह रही थी कि बॉम्बे स्टाक
एक्सचेंज का सेन्सेक्स अपने अब तक के सर्वोच्च शिखर पर है। औद्योगिक उत्पादन का
आँकड़ा भी सुधार पर है। बेरोजगारी के आँकड़े भी सुधरे हैं। उसे बैचैनी हुई। जब देश
की तरक्की पटरी पर लौट आई है, तब यह दौलत जा कहाँ
रही। उसने अपने गल्ले की ओर देखा। पच्चीस रुपए मुनाफे में जूतों की लागत, दुकान का किराया, बिजली, नेताओं का चन्दा सारा कुछ शामिल था। उसे
बेचैनी हुई, जैसे गले में कुछ फँस
रहा हो और वह ठीक से श्वाँस नहीं ले पा रहा। उसके सामने रस्सी से लटकते किसान का
चेहरा घूम रहा था। ओला-वृष्टि से नष्ट हुई फसल में किसान की फसल की लागत भी नहीं
वसूल हो पाई थी। यह मुनाफा भी तो उसकी फसल है! वह क्या करे? दादा के बोल उसके कानों में गूंज रहे
थे- ‘हम तो मारवाड़ी हैं, हमें ब्यौपार ही
शोभता है’। उस किसान ने भी ऐसा
ही सोचा होगा, किसान को किसानी ही
शोभती है। खेत बिकने का अपमान नहीं सहन कर पाया होगा दुखियारा।
शाम को जब दो सौ पचहत्तर रूपए जेब में
लेकर वह घर गया तो उसकी आँखों में सरम्सा पार्क के वृक्ष घूम रहे थे। हरे-भरे पेड़, बोटैनिकल नामों वाले पेड़। ‘इस तेजपत्ते
का बोटैनिकल नाम जानते हो पापा’ - गृह कार्य करती बेटी की आवाज आई।
जाने कैसा समय है! अब उसने अखबार खरीदना
बन्द कर एक सस्ता ‘स्मार्ट-फोन’ रख लिया था, जिसमें उसे इन्टरनेट से समाचार पत्रों
की खबरें मिल जातीं। पचहत्तर रूपए का एक ‘जीबी’ डाटा डलवा कर उसे ‘बी बी सी हिन्दी.इन’ की खबरों से ले कर समाचार पत्रों की
सुर्खियाँ तक हासिल हो जातीं। कागज के अखबार का महीने का खर्चा तो अब सौ रुपए पार
कर जाता है। लेकिन अब दुकानदारी में रस-भास नहीं था। हालात दिनों-दिन बदतर होते जा
रहे थे। किसे मिल रहे हैं ‘इकनामिक रिकवरी’ के
संकेत? उसे तो नहीं!
जैसे-तैसे कर के किसी तरह उसका घर-खर्च चल रहा था। भला हो उस गृहणी का जो इतनी
तकलीफों के बाद भी उफ तक नहीं बोलती अपितु ढाढ़स ही बँधाती है। खुद पीको-फाल का काम
करके बच्ची की फीस का इंतजाम कर लेती है। उसे आश्चर्य होता कि जाने क्यों लोग
महिलाओं को पारिवारिक दुखों का ‘इपीसेन्टर’ बताते
हैं। कम से कम उसकी पत्नी तो उन में से नहीं, जिनका
रोज ‘फेसबुक’ और ‘वाट्सअप’ पर मजाक उड़ाया जाता है।
जब कभी सेन्सेक्स नीचे गिरता तो उसे
सान्त्वना मिलती कि उसकी दुकान की मंदी भी सेन्सेक्स से जुड़ी है। सेन्सेक्स को
चढ़ता देख कर उसे लगता कि यह उसके समस्त दुखों के अंत का संकेत है। किंतु जब
सेन्सेक्स चढ़ान पर होता, तब दुकान की बिक्री
नहीं बढ़ती। टी.वी. पर सुनता है कि देश का बजट और चालू खाता घाटा कम हो रहा था।
उत्पादन के आँकड़े ‘आई आई पी’ जो गिरे थे, वह दोगुने उठ गए हैं। लेकिन यह सामान
बेच कौन रहा। ‘झाबरमल्ल पीतमचन्द चियापत्ती दोकान उर्फ एच.के.स्पोर्टस’ तो कतई नहीं - उसने सोचा। अब उसने यह
मानना आरंभ कर दिया था कि ‘सेन्सेक्स’
उस
जैसों की तरक्की का इंडेक्स नहीं है। सेन्सेक्स जिनकी तरक्की का इंडेक्स है, उनके देह की धोवन से देश के बाकी
तीन-चौथाई लोगों की अर्थव्यवस्था का इंडेक्स बनता है। तीन-चौथाई क्या नब्बे फीसदी
लोगों का इंडेक्स। देह की धोवन जितनी ज्यादा निकलेगी, उस जैसों की तरक्की उतनी ज्यादा होगी।
पर इन दिनों तो दुकान का किराया देना भी मुश्किल होता जा रहा। सिंगटाम में दुकानों
के किराए भी अनाप-शनाप बढ़ गए हैं। दुकानें स्थानीय-जनों की हैं, अतः मनमाना किराया बढ़ाने पर भी रूलिंग
पार्टी का समर्थन मकान-मालिक को ही मिलता है। वह तो ‘रेसिडेंसियल सर्टीफिकेट
होल्डर’ है, बढ़ा किराया देना है तो दे अन्यथा दुकान
खाली कर चलता बने। जहाँ दादा-पिता ने जिंदगी खपा दी, वहाँ से केवल एक वाक्य में बेदखल किया
जा सकता है उसको! कहाँ चला जाए वह- बीकानेर? वहाँ
जाकर खाएगा क्या, रेगिस्तान की धूल? माल खरीदने के लिए सिलीगुड़ी आते-जाते जब
कभी उसकी निगाह दार्जिलिंग के चायपत्ती बागान के बड़े बोर्ड पर जाती तो मन मसोस कर
सोचता –‘काश, दादा ने राजस्थान की जमीन बेच कर
दार्जिलिंग में एक छोटा सा चाय-बागान ही खरीद लिया होता’। पर छोटे चाय बागानों की हालत याद कर
उसे इसका अफसोस भी न रह जाता। उसे दुख होता कि दादा ने राजस्थान की अपनी जायदाद
अपने भाइयों के लिए छोड़ दी, वह होती तो बेच-भाँज
कर रुपए पोस्ट-आफिस में जमा कर देता। कम-से-कम नियमित ब्याज मिलने से दाना-पानी की
तो फिकर नहीं रह जाती। तब अनायास ही उसकी आँखों के सामने रस्सी पर लटके किसान की
तस्वीर उभर जाती। फिर वह देखता कि उस किसान के धोती-कुर्ते कमीज और पतलून में बदल
रहे हैं। इन दिनों उसे उस किसान का चेहरा धुँधला नहीं दिखाई देता था। उसे लगता
जैसे कि वह उसका अपना चेहरा है, और वह बेचैन हो जाता।
उसे लगता कि वह अपनी कनपटी पर पिस्तौल रख कर घोड़ा दबा रहा। एक तेज आवाज, फिर सब कुछ शांत। उसके सर को फाड़ कर
निकली गोली उसके दुख-दर्द भी ले गई। या फिर वह रेल कीं पाँत पर गर्दन रख कर लेटे
हुए है, रेल आती है और करीने
से उसकी गर्दन काट कर उसके जीवन के साथ-साथ उसके दुख भी समाप्त कर देती है। फिर कोई
तकलीफ नहीं। किंतु क्या मर कर भी उसकी समस्याएँ खत्म होंगी? मर कर क्या वह बेटी को दार्जिलिंग का ‘हिम-शिखर’ घुमा पाएगा, या उसको ‘बतासेको रेल’ दिखा पाएगा। पास की किसी दुकान में चल
रहे टेलिविजन पर फिल्म पीपली लाइव के अंत का निरगुन बज रहा था –‘चोला माटी के हो राम, एकर का भरोसा चोला माटी केऽऽऽ ....’।
क्या था उस किसान का नाम? नत्था दास मानिकपुरी, हाँ वह नत्था ही तो है। एच.के.
स्पोर्ट्स का मालिक हरीश कुमार नहीं है वह। पर क्या उसकी आत्महत्या पर भी कोई
मुआवजा है?
एक शाम घर पहुँचने पर उसने देखा कि
पत्नी उदास है तथा बेटी चुपचाप सर झुकाए होमवर्क कर रही है। बेटी बड़ी तकलीफ से लिख
पा रही थी। उसने बेटी का हाथ देखा- उस पर डस्टर से मारे जाने के निशान थे, नीले-नीले निशान। बेटी जिस पर उसने कभी
हाथ नहीं उठाया था। इन दिनों कोई अब उसे कुछ बताता भी नहीं। परंतु उसे बिना पूछे
जवाब मिल गया था- ‘सरम्सा पार्क’। उसकी आंखों में
जंगली वृक्ष घूम गए, जिन पर लगी तख्तियों
पर बोटैनिकल नामों के साथ-साथ उनके लोकल नाम भी लिखे थे। उसमें से किसी एक सख्त
वृक्ष से बने डस्टर से उसकी प्यारी बेटी को पीटा गया था। उसका बोटैनिकल नाम क्या
होगा? रात भर वह सोया नहीं।
उसकी आंखों में केवल सरम्सा पार्क घूमता रहा और बेटी की गदेलियों पर उपटे
नीले-नीले निशान।
अगले दिन उसने जल-भारत कम्पनी के
ड्राईवर हरि को दुकान की बगल की पान दुकान पर पान खाते हुए किसी से बातें करते
सुना- ‘मेचुअल फण्ड लिए थे साल भर पहले,
एक
सौ पच्चीस रूपए का ढाई सौ हो गया। अब तो शेयर में ट्रेड भी कर रहे हैं’। हरि
ड्राईवर, ‘जल-भारत’ कम्पनी का ड्राईवर जो नौकरी करके बारह
हजार रूपए कमाता है, होटलों में सिलेण्डर
ब्लैक करके तथा दुकानों में मिनरल वाटर रीफिल सप्लाई करके बीस-पचीस हजार दीगर कमा
लेता है। अब तो वह ट्रेड भी करता है! उसने मन में सोचा- ‘म्यूचुअल फण्ड तो ठीक से
बोल नहीं सकता, लेकिन बातें देखो, ट्रेड करता है’! ‘कैसा ट्रेड है इसका, न दर -न दुकान, ना कोई सामान! पर पान ऐसे खाता है, जैसे चाय बागान का साहू’! ‘और मैं, उसने अपनी दुकान के बोर्ड की ओर देखा – ‘झाबरमल्ल पीतमचन्द चियापत्ती दोकान उर्फ
एच.के.स्पोर्ट्स’। लोग अब तक जिसे ‘सानो
बैंक’ ही पुकारते थे, वहाँ पैसा था कहाँ! उसके जी में आया कि
हरि से पूछे, क्या उसकी कम्पनी में
एक और ड्राईवर की जगह भी खाली है?
वह ऐसा ही एक और उदासी भरा दिन था। शाम
हो आई परंतु ग्राहकी में जोर नहीं था। उपर से हरि ड्राइवर की बातों ने मन दुखी कर
दिया था। देर शाम दुकान पर नेशनल पावर कम्पनी का अफसर आया, बैडमिन्टन का रैकेट खरीदने। उसने एक
महँगे बैडमिन्टन रैकेट का दाम पूछा। ‘एक हजार पचास’, उसके मुँह से दाम सुन कर उसने बुरा सा
मुँह बनाया- ‘आपको पता है ‘ऑनलाइन’ यह कितने में मिलता
है। आपके दाम और ‘ऑनलाइन’ दाम में बहुत फर्क
है। ‘ऑनलाइन’ यह छह सौ पचास रुपए
में मिलता है’- यह कहते समय उसके
अंदाज में ज्ञान का घमंड तथा दुकानदार से दिखावटी नाराजगी दोनों ही झलक रहे थे। ‘आप
वहीं से मँगा लीजिए’- उसने कुछ उदास स्वर
में जवाब दिया। इस पर अफसर ने नर्म होते हुए कहा कि सात सौ रूपए में रैकेट बेचने
पर वह यह रैकेट खरीद लेगा, अभी के अभी। लेकिन
उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था। वह कुछ नहीं कहना चाहता था। यह भी नहीं कि
ऑनलाइन वेबसाइट सीधे कम्पनी से लेकर माल बेचती है, जबकि उस तक पहुँचने वाला माल न जाने
कितने बिचौलियों के हाथों होकर गुजरता है। वह नहीं बोलना चाहता था कि वह बैडमिन्टन
उसे आठ सौ पचास रुपए का पड़ा है। वह नहीं बोलना चाहता था कि उससे ऑनलाइन कम्पनियों
का मुकाबला नहीं हो सकेगा। नहीं, वह कुछ नहीं कहना चाहता
था। उससे कुछ कहा भी नहीं जा रहा था। जैसे उसका गला फँस रहा हो, जैसे कोई रस्सी उसे दबा रही हो। लेकिन
अचानक उसका चेहरा सख्त हो गया, जैसे वह किसी निर्णय
पर पहुँच गया हो। उसने एक गहरी लेकिन मजबूत आवाज में कहा- ‘ठीक है सर, आप सात सौ ही दीजिए’। उसने अफसर को सात सौ रुपयों में
बैडमिंटन बेच दिया। अफसर ने जाते हुए कहा- ‘समय बदल रहा है। अब आप भी कम मार्जिन
पर सामान बेचिये, रुपए का रोटेशन
ज्यादा कीजिए’। किंतु जैसे उसने
कुछ सुना ही न हो। वह अब तक उन सात सौ रूपयों को हाथों में पकड़े हुए गहन सोच में
डूबा हुआ था। उसे लगा जैसे वे रुपए नहीं, हल्कू
के कुत्ते जबरा की देह है, जिसे वह पूस की रात
में बाँहों में भर कर सो रहा है। उसकी दुकान, दुकान
नहीं जोत-बो कर पोसा हुआ खेत है, जिसे नीलगाएँ चरती जा
रही हैं। वह भी हल्कू की तरह नीलगायों को रोक नहीं रहा। उसे रस्सी पर टँगी किसान
की लाश दिख रही थी, हल्कू का खेत दिख रहा
था, उसे नत्था दास
मानिकपुरी दिख रहा था। उसे इन सबके बीच हरीश कुमार भी दिख रहा था। एच. के. स्पोर्ट्स
का प्रोपराइटर हरीश कुमार।
रात घर जाते समय उसने बेटी की पसंद की
चॉकलेट खरीदी। चॉकलेट देते हुए उसने बच्ची के हाथों को देखा जिन पर अब भी हल्के
नीले निशान बाकी थे। घर पर वह आम तौर पर चुप रहता था, परंतु उस रात उसने हल्के मूड में पत्नी
से बहुत देर तक बातें की जैसे उसके सर से कोई बोझ उतर गया हो। बस सोते हुए उसने
पत्नी से कुछ अजीब से अंदाज में कहा – ‘जानती हो, हम तो मारवाड़ी हैं, हमें ब्यौपार ही शोभता है। न उससे कम न
उससे ज्यादा’। फिर पलट कर सो गया।
उस बात में क्या अर्थ छिपा था, पत्नी ज़रा भी न समझ
पाई।
अगली सुबह उसकी दुकान नहीं खुली। कई
दिनों तक उसे किसी ने नहीं देखा। जान-पहचान वालों ने पता करना चाहा पर उसके के
दरवाजे पर ताला लगा मिला। किसी ने कहा कि वह वापस राजस्थान चला गया। फिर एक दिन
लोगों ने उसे देखा, सिंगटाम बाजार में एक
दवा कम्पनी की बस की प्रतीक्षा करते। उसके बचपन के दोस्त गोमा गुरुँग ने, जो सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से उस इलाके
की कंपनियों का को-ऑर्डिनेटर नियुक्त था, अपने
रसूख से एक दवा कम्पनी में उसे ‘जूनियर अकाउंटेंट’ लगवा दिया था। सत्रह हजार रुपए महीने की
पगार पर। दुकान का माल महाजन उठा ले गए,
बकाया
बराबर करने को। बचा-खुचा उसने औने-पौने दामों पर बेच दिया। पर ‘झाबरमल्ल पीतमचन्द
चियापत्ती दोकान’ का बोर्ड उससे उतारा
नहीं गया। वह उसने अपने मकान-मालिक को ही दे दिया। हाँ, उसने बगल में लगी ‘एच.के.स्पोर्ट्स’ की तख्ती बेदर्दी से खींच कर जरूर निकाल
दी थी। उसके भीतर के मारवाड़ी ने आत्महत्या कर ली थी।
अब काम पर जाने के लिए बस स्टाप पर वह
और श्रीवास्तव दोनों एक साथ प्रतीक्षा करते हैं। श्रीवास्तव कभी-कभी उसे सिगरेट
ऑफर करता है, जो कि अब बिना फिल्टर
की है। वह पूरी विनम्रता के साथ इंकार कर देता है। बस की प्रतीक्षा करते हुए वह अब
भी उस दुकान को देखता है, जो कि अब उसकी नहीं
रही। दुकान का पुकारू नाम अब भी ‘सानो बैंक’ ही
है।
सम्पर्क-
पद्मनाभ गौतम
द्वारा- श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा
स्कूलपारा, बैकुण्ठपुर, जिला- कोरिया
(छत्तीसगढ़)
पिन- 497335
संपर्क - 9425580020,
8170028306
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)
बहुत प्रभावशाली कहानी .पद्मनाभ गौतम जी को बहुत बहुत बधाई .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संतोष भइया। धन्यवाद प्रदीप जीं।
जवाब देंहटाएंइस ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में जो वास्तव में क्रोनी कैप्टलिज्म का ही रूप हैछोटे व्यापार की मिटती प्रक्रिया का ब ड़ा मार्मिक चित्रण परन्तु वास्तविक जिंदगी में नौकरी इतनी आसानी से कहां मिलती है ?
जवाब देंहटाएंसर पूर्ण सहमति आपकी बात से। वस्तुतः जो नौकरी नायक को मिली है, वह शोषण का एक अन्य चेहरा है, उसमें खुशी नहीं और अभी यह हैप्पी एंडिंग नहीं है। न्यूनतम वेतन में इस प्रकार की नौकरी जो मिलती है, वह भी एक कुचक्र है। इस बिंदु को अंतिम पैराग्राफ में मैंने सांकेतिक रूप में व्यक्त करने का प्रयास किया है, "श्रीवास्तव कभी-कभी उसे सिगरेट ऑफर करता है, जो कि अब बिना फिल्टर की है। "
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