डॉ नूतन गैरोला की कविताएँ
नूतन गैरोला |
डॉ नूतन
गैरोला
स्त्री रोग
विशेषज्ञ
जन्मतिथि १० जुलाई
माता पिता -
रमा डिमरी,
तारा चन्द्र
डिमरी
देहरादून, उत्तराखंड
सामूहिक
संकलन
पत्र
पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, तीन
पुस्तकें प्रकाशनार्थ स्वीकृत.
सम्प्रति -
कंसल्टेंट गायनाकोलोजिस्ट व सामाजिक
कार्यों/ सेवा में संलग्न
मधुर नर्सिंग होम, श्रीनगर, उत्तराखंड और मधुर क्लिनिक, देहरादून सामाजिक संस्था
धाद में महिला सभा धाद की देहरादून इकाई की सचिव
यह दुनिया आज जो इतनी खूबसूरत दिख रही है उसके पीछे उन हजार-हजार लोगों का हाथ है जिन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए अपना सब कुछ होम कर दिया। यह हमारी दुनिया का सौभाग्य है कि हर समय में ऐसे खूबसूरत और नेकदिल लोग हुआ करते हैं। ऐसे लोग हमेशा चर्चा की परिधि से बाहर रहना पसन्द करते हैं। कवयित्री नूतन गैरोला के शब्दों में कहें तो ऐसे लोग ‘खोये हुए लोग हैं।’ ऐसे लोग जिनके मौन में भी कोई न कोई कविता होती है। वह कविता जिससे जीवन और इस दुनिया में भरोसा लगातार बना रहता है। पेशे से चिकित्सक होते हुए भी नूतन जी सामाजिक कार्यों में लगातार व्यस्त रहती हैं और इस भरोसे को पुख्ता करती हैं। यहाँ कवयित्री नूतन ने इस भरोसे को अपनी रचनाओं में उतारा है। तो आइए आज पढ़ते हैं नूतन गैरोला की कविताएँ।
डॉ नूतन गैरोला की
कविताएँ
काली हवाओं में
बहुत सारे हल्लों
के बाद
कितनी क्षीण पड़
जाती है हमारी आवाजें
विरोधों की सभी
मानव जंजीरें टूट जाती हैं
और हम भुला देते
है
उन सभी कारणों को
जो भय उपजाते हैं
हमारे भीतर
कि हमने संशय से
देखा है
हर लावारिश चीजों
को
सड़क, रेल, स्कूलों में,
भीड़ भरे बाज़ारों
में या सिनेमाघरों में
कभी किसी नायक
नायिका का मनचीता गीत देखते हुए भी,
सिनेमाहॉल में पसर
जाता रहा है एक अनजाना खौफ
कि जैसे अब
विद्यालय की चारदीवारी में,
सुरक्षा के चाक
पेबंद में
माँ बच्चों को
भेजती, डरती है
और जब कि
हमने अपनी यात्राओं में कोई कोताही नहीं बरती थी
तमाम सावधानी के
साथ,
हर सुरक्षा जांच
के बाद भी,
हम अपनी यात्राओं
में,
अनजानी वस्तुओं से
दूर डर कर छिटकते रहे हैं
रेल की सीटियाँ
मौत की घंटियों में तब्दील न हो जाए,
भेद लेते रहे हैं
यूँ भी
आते जाते हुए
लाउडस्पीकर की
आवाज सदा टकराती रही है हमारे श्रवणतंत्रों से -
यात्रीगण कृपया
ध्यान दें
अपने सामान की
सुरक्षा आप स्वयं करें
किसी अनजान से न
मित्रता बढायें न उसके हाथ का कुछ खाएं न खिलाएं
और लावारिस वस्तुतों को न छेड़ें, जहां कहीं भी दिखे पुलिस को इत्तला करें
सच तो यह है कि
हमारे समय ने
धर्म जाति, स्त्री पुरुष, देश बोली के नाम पर प्रेम नहीं
घृणा के बीज बोये
हैं .......
हम रिश्तेदारी में, घर की चारदीवारी में, ब्याह बरात में
या सड़कों में, नदी के किनारे या किसी मल्टीप्लेक्स में
गैरेज में
सुरक्षित नहीं
समझते बच्चों को, स्त्रियों को और स्वयं भीड़ भडाके को
....
तिस पर इतिहास
साक्षी है
कि हमारे सिपाही
तक भी नहीं थे सुरक्षित
आताताइयों के आगे
उनके रक्षाकवच
गोली के लिए अबेध होने का एक मात्र भ्रम भर थे
वे दहशतगर्दों से
भिड़ने मौत के कुंओं में छलांग लगाते रहे, छले जाते रहे
कि उनकी वापसी के
कोई रास्ते तय नहीं किये गए थे
और उन्हें जिन्हें
बम प्रक्षेपित करने के लिए अब टेंक और बंदूकों की जरूरत नहीं पड़ती
क्या पता कब हमारे
बगल में खड़ा
एक भोली शक्ल वाला
आदमी
आत्मघाती हो जाए
एकल या समूहों को
मौत बांटता
मानवता के परखच्चे
उडाता हुआ
कपोलकल्पित बहत्तर
हूरों की दीवानगी में
मानव बम बन जाए
बारूदी आतातायी
काली हवाओं में
हमने भी संगीन
जुर्म किये हैं
मासूमों की भोली
पाक फितरत पर भी
हमने संदेह किये
हैं
फिर भी हम भूल
जाते है लाल छीटें, क्रंदन
व कटीफटी, मृत देह और जीने वालों का दर्द गहरा
रोती माएं
कालकल्पित पिता भाई बहन, बेटी बच्चे
हम भूल जाते हैं
उन सभी दुखों को
जिसने हमें अभी
पिछले साल ही आधा कर दिया था
हम अपनी अधूरी देह
को संभाले आगे बढ़ जाते हैं.
फिर से जीने के
लिए ...
हम कभी थक हार कर
दिल पर पत्थर रख लिया करते थे
निर्ममताओं को
सहते सुनते
हमारे दिल पथरा
चुके हैं
जिन पर अब पत्थर
रखने का मंतव्य निरर्थक है
इन सूखी आँखों से
आंसू बह जाने का मतलब है
महज एक आदत
बेवजह रोने की
हम अक्सर बातें
करते है भूख की, रोटी की, पैसों की
पर हमने उन्हें ही
निर्बाध हँसते देखा है
जो हमारी कथा और
कविताओं में
भूखे दिखते हैं
क्यूंकि
वे वक्त के सबसे
निर्मम हत्यारे हो जाते हैं
जो मार देते हैं
अपनी ही भूख और भुला देते हैं रोटी
और फिर पेट पकड़ कर
लोटपोट लगाते हैं ठहाके.........
और फिर एक नया दिन
और तारीखें बदल जातीं हैं
केलेंडर बदल दिए
जाते हैं|
स्मृति के आईने के
विस्मृत कोने में
जहाँ चुपके से उग
रही होती है
ओंस में डूबी हरी
हरी नन्ही दूर्वा
ढांप रही होती है स्मृतियों के अँधेरे को ....... मुक्ति का आत्मालाप
पर उन्मुक्त नहीं ...
सभी बंधन मैंने किये थे तय
भ्रम का जाल बुना था मैंने
ऐसा मैंने नहीं ऐसा सोचा था तुमने
तुम तो सिर्फ साथी थे
मेरे भले बुरे के
मेरी देह बन कर
मुझे जकड़े हुए सदियों से
मुक्ति का रास्ता जतलाते हुए
कहते हुए तुम मुक्त रही हो सदा इहलोक में अपने बंधनों समेत
अब मुझे मुक्त रखने के तुम्हारे सारे प्रसंग हो चुके हैं समाप्त
सिर्फ संवादों से दूर हम
और
चिर मौन में ...... समाधिस्थ
(तुम मुझे खोजते हुए बोधिस्त्व - भ्रम ?)
अद्यतन
मैं मुक्त हूँ, अमर हूँ
क्रूर हूँ समय की तरह
तुम्हें करती हूँ मुक्त .
तुम्हारी मौत से पहले ....................
वो लोग खोये हुए थे
वो ज़िंदा थे ये एक संशय था
वो मरे भी थे ये पता न था
वो आये थे क्योंकि उनका जन्म हुआ था
वो जिधर डूबे थे
उस ओर वक्त की खुरचन थी, सिकन थी
भूख थी,
धरती सूरज चाँद तारे थे
गगन था
सदी अपने में से कुछ खोये हुए लोगों को
घटा देना चाहती थी
जो उपस्थित नहीं थे गिनती के वक्त
पर जब जब चलती थी हवा
पन्ने फड़फड़ाने लगते थे
स्याही में डूबे ज़ज्बात ख्यालात
उकताई सदी पर बरसाने लगते थे जीवन का रस
खोये हुए लोग मौन थे तब भी
बोलती थी उनकी कवितायें
नदियों सी ..
वो लोग निरापद अभी भी डूबे हुए हैं
उस कलकल में
और तब भी डूबे थे
जब सदी पढ़ रही होती है उन्हें
कितना कुछ टूट गया है
कितना कुछ टूट गया है
इन दिनों
वो भरा पूरा परिवार, रिश्ते और साथी.
दो दर्जन सुनहरी किनारे वाले कप.
इन दिनों
वो भरा पूरा परिवार, रिश्ते और साथी.
दो दर्जन सुनहरी किनारे वाले कप.
हंसी ठहाकों में
कहकहों के बीच
चाय के घूंट के साथ
कहकहों के बीच
चाय के घूंट के साथ
कुछ गर्म कुछ नर्म
कभी नमकीन
तो कभी मीठे बिस्किट सी बातें.
मुस्कुराती थी सफेदी
कप की
चमकीली किनारियो के साथ
हुंडी में लिपटी उँगलियों के हाथ
थमें हुए जिनमे
इतराते थे
होंठों पर आ कर
जरूरत भर की तपिश पहुंचाते थे.
एक एक कर
जाने कब/ क्यूँ कैसे/ टूट गए कप
परिन्दे सभी अपनी अपनी मंजिल ओर बिखर गए
और
एक कप इधर
अकेला
रह गया
चटखा हुआ सा .....................
कभी नमकीन
तो कभी मीठे बिस्किट सी बातें.
मुस्कुराती थी सफेदी
कप की
चमकीली किनारियो के साथ
हुंडी में लिपटी उँगलियों के हाथ
थमें हुए जिनमे
इतराते थे
होंठों पर आ कर
जरूरत भर की तपिश पहुंचाते थे.
एक एक कर
जाने कब/ क्यूँ कैसे/ टूट गए कप
परिन्दे सभी अपनी अपनी मंजिल ओर बिखर गए
और
एक कप इधर
अकेला
रह गया
चटखा हुआ सा .....................
पहाड़ पर स्त्री और सूकून का झरना
कभी कभी
कोई दर्द
सालता है जीवन भर
जब भी मैत की यादों का झरना फूटता है
सिलीसिली आग सा दर्द भभकता है
भीतर भीतर
कुछ लहरें खुशियों की
चांदनी की चमक लिए
समय की नदी पर
सतही
श्वेत फेनों सी
कुछ पल के आराम सी
पर टिकती नहीं .......
छलछल करती खुशियाँ
पानी के उछालों सी
जिनमे दुःख
पत्थरों की तरह
डूबे रहते हैं तलहट पर
आँखों से कभी छलकते नहीं हैं
पर चेहरे भरे होते हैं
कोरी मुस्कानों से
आवाजे मौन जंगलों में गाती हैं
मिलजुल कर सामूहिक गीत
दर्द के
फिर भी
समय की धार पर
कटते छटते
अपने पैनेपन को खोते
दुःख के पत्थर
अयाचित से
हमारी खुशियों को संगत देते
बहते चले आते है अनवरत
स्मृति के पुल से
और हम पहाड़ की स्त्रियों का
घर किसी गीली रेत से भरे समुन्दर के किनारे होता नहीं
कि पांवों के पोरों को जरा सुकून मिले
हम रहतीं हैं तीखी धारों वाले पर्वत की
ऊँची नीची चोटियों पर
जहाँ पांवों के नीचे
तीखे और नुकीले
पत्थर ही पत्थर हैं
रोज हमें पार करने होते हैं कितने पहाड़
कितने जंगल
कितने गदेरे
रोटी लकड़ी घास का भारा लिए
पहाड़ के दिन छोटे होते हैं
सांझ यू ही घिर आती है
अपने कन्धों के बोझे उतार
दो मिनट सुस्ता लें, प्यास में तर कर ले गला ,
कि थमने की भी फुर्सत नहीं
पर
वहीँ
कहीं
वादियों में
पीढ़ी दर पीढ़ी
गूंज रही होती है
मीठे झरने की आवाज
अक्सर रात में
रात में अक्सर
मेरी खिडकी से
एक साया उतर कर
कमरे की हवा में
घुल जाता है
आने लगती है
गीली माटी की सौंधी गंध
तब फ़ैल जाती है विस्मित आँखें छत पर
जहाँ से अपलक निहारता है मुझे
मेरा वृद्ध स्वरुप
रात में अक्सर
लोग जब
घरों के दरवाजे बंद कर देते हैं
मन के भीतर उस वक्त
तब खुलता है एक द्वार
कलमबद्ध करता है
कुछ जंग खाए
कुंद दिमाग के जज्बात
और मलिन यादों के चलते
जो अक्सर रह जाते हैं शेष
रात में अक्सर
याद आता है वो सफर
जो सफर नहीं था
था एक ठहराव खुशियों का
खिलखिलाती ताज़ी कुछ हंसी
जैसे किसी काले टोटके ने रोक ली हो
और मुस्कुराता चेहरा
धूमिल हो डूब जाता है
आँखों के सागर में
रात में अक्सर
जब शिथिल हो कर
गिर जाती है थकान
शांत बिस्तर में
अँधेरे उंघने लगते है तब
पर तन्हाइयां हैं कि
उठ उठ कर जगाने लगती हैं मुझे
और कानाफूसी करती है कानों में
पर्दा उठा कर देख जरा
नीलाभ चाँद
देर रात तक
खेला करता है तारों से
सम्पर्क-
फोन : 09690775744
ई-मेल - nutan.dimri@gmail.com
फोन : 09690775744
ई-मेल - nutan.dimri@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 07 सितम्बर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएं हैं। अनुनाद पर भी डॉ. नूतन की कविताएं लगा चुका हूं। लावारिश को लावारिस कर दीजिए भाई। कवि को भाषा पर ध्यान देना होगा पर मैं जानता हूं कि हिंदी उनके लिखने-पढ़ने की भाषा नहीं रही है, वे डाक्टरी की पढ़ाई में अंग्रेज़ी से बंधी रही हाेंगी। आपको नए लिखने वालों के साथ खड़ा देखता हूं तो अच्छा लगता है, यह हमारा कर्त्तव्य भी है कि हम आते हुए लोगों का साथ दें।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संतोष जी .. मुझे पहली बार में स्थान दिया ... शिरीष जी आपका सहृदय आभार | जहाँ तक मेरा मानना है मेरा लेखन कार्य नया नहीं है ... मेरी कविता पहली १९७९ दिसम्बर में लिखी गयी थी और मै तब से लिखती रही हूँ ... बेशक परिमार्जन की सतत इच्छा के चलते मैंने न कभी किसी पुस्तक की चाह न की, न कभी कही प्रकाशन के लिए भेजी थी और चिकित्सीय पहाड़ों में सामाजिक कार्यों के बीच न मुझे ऐसा कोई मंच मिला जहाँ कोई इस सन्दर्भ में मुझे जान सके ..हां पर मेरी साहित्यिक पुस्तकों में गहरी रुचि रही और मेरी आत्मा उन्ही में बसती रही ... और मन के भाव भी अकेले में कलम से फूटते रहे ..जिसके चलते मैंने बाद में स्वेच्छा से ज्यादा वक्त इसी पठन पाठन लेखन के लिए दिया ...मैं कहानियां भी लिखती रही ... .इधर ५ साल से देहरादून में आने के बाद कोंट्रेक्ट पर सरकारी नौकरी में आने के बाद मुझे ड्यूटी आवर्स के बाद अपना समय मिला और कुछ कविता गोष्ठियों में कविता पाठ का सुअवसर मिला हालाँकि अब पुनः मैंने यहाँ अपना निजी क्लिनिक शुरू किया है ..पर पढ़ना लिखना जारी है .. मुझे ख़ुशी है कि मेरे लिखे को आप लोगो का साथ मिला है और मैं आगे भी लिखना जारी रख पाउंगी इसी उम्मीद के साथ
जवाब देंहटाएंमाफ़ कीजिए नूतन जी। मेरा 'नया' लिखना आपको अच्छा नहीं लगा। मैं अपनी टिप्पणी वापस लेता हूं।
जवाब देंहटाएंनहीं! शिरीष जी! आपका लिखा और आपकी बिना लागलपेट के की गयी स्पष्ट टिप्पणी सदा मार्ग दर्शन करती रही है| मैं खुद को खुशनसीब समझती हूँ कि आपने मेरी कविताओं पर बात की ... मुझे ख़ुशी है कि आपने ये कवितायें अच्छी
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