उमा शंकर सिंह परमार का आलेख "अँधेरे समय में उजली उम्मीदों का कवि”



वीरेन डंगवाल


विगत 28 सितम्बर को हम सबके प्यारे कवि वीरेन डंगवाल नहीं रहे। पांच अगस्त 1947 को शुरू हुआ उनके जीवन का सफर 28 सितम्बर को सुबह 4 बजे समाप्त हो गया वीरेन दा न केवल एक बेहतर कवि थे बल्कि एक उम्दा इंसान भी थे उनसे मिलने वाला कोई भी व्यक्ति सहज ही उनका मुरीद हो जाता था जीवन में अटूट विश्वास रखने वाला हम सबका प्यारा यह कवि पिछले कुछ समय से कैंसर से जूझ रहा था पहली बार परिवार की तरफ से वीरेन डंगवाल को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उमाशंकर सिंह परमार का एक श्रद्धांजलि आलेख साथ में वीरेन डंगवाल की कुछ चर्चित कविताएँ भी दी जा रही हैं इनका चयन उमाशंकर ने ही किया है         


"अँधेरे समय में उजली उम्मीदों का कवि”

उमाशंकर सिंह परमार 

दिनांक २८-०९- २०१५ की सुबह पांच बजे मेरे फोन की घंटी बजी मैंने देखा तो निलय उपाध्याय का फोन था। जैसे फोन उठाया निलय जी ने कहा की वीरेन दा नहीं रहे। तुरत मित्रों को फोन किया। इस दुखद खबर की पुष्टि की। पता चला की आज सुबह चार बजे हमारे प्रिय कवि वीरेन डंगवाल अपनी बीमारी से जूझते हुए अंतत: मृत्यु के हाथों पराजित हो गए। आखिर कार मौत पर किसका जोर चल सकता है। दुःख इस बात का रहा की वीरेन दा अभी और जी सकते थे। बीमारी से टूट जाने के बाद भी उनमे रचनात्मक ऊर्जा अभी बहुत शेष थी। विचारों और प्रतिबद्धता को उन्होंने हमेशा जिया और इन्हीं मूल्यों को उन्होंने अपनी कविताओं में उकेरा। वीरेन दा हिन्दी के उन कवियों में थे जिन्होने कविता के साथ साथ अपने व्यक्तित्व को भी जनसाधारण के लिए समर्पित रखा। आज जब अधिकांश लोग बहुत थोडे से लालच में अपनी प्रतिबद्धता और काव्य-सरोकारों के प्रतिपक्ष में खडे हो जाते हैं, ऐसे समय अपने व्यक्तित्व को  'अन्धेरों' के खिलाफ रखना एवं अपने चाहने वालों को उजाले का खुशनुमा अहसासपूर्ण स्वप्न देना वीरेन दा ही कर सकते थे। वीरेन दा पेशे से शिक्षक थे। शिक्षक के गुणों ने उनके व्यक्तित्व को कर्मठ बनाया वो बड़े पत्रकार थे| ‘अमर उजाला’ जैसे बडे कारपोरेट पत्र का सम्पादन करने के बाद भी उनके विचारों और उनके सरोकारों पर 'अमर उजाला' का प्रभाव नही पडा। जब वीरेन दा अमर उजाला कानपुर के सम्पादक थे उस समय वो रात दिन मेहनत करते थे। अमर उजाला की पाठक संख्या मे भारी बढोत्तरी हुई थी। वीरेन दा के बाद आने वाले सम्पादकों के लिए वह पाठक संख्या कई वर्षों तक  चुनौती बनी रही। अमर उजाला के व्यापक प्रचार प्रसार में वीरेन दा के योगदान कोई भी इंकार नहीं कर सकता। वीरन डंगवाल का जन्म ५ अगस्त १९४७ को उत्तराखंड के टिहरी गढवाल जिले में कीर्तिनगर स्थान में हुआ था लेकिन पिता श्री रघुनन्दन प्रसाद डंगवाल की नौकरी यू पी में थी। उस समय तक उत्तराखंड और यूपी दोनो एक थे। वीरेन जी की रुचि  बचपन से ही कविता में थी। कहते हैं कि पहली कविता उन्होने बाईस वर्ष की उम्र मे लिखी जो उस समय किसी लघु पत्रिका में प्रकाशित भी हुई थी। तब से लेकर वो मृत्युपर्यन्त लिखते रहे और विभिन्न पत्रिकाओं में छपते भी रहे।
नैनीताल, कानपुर, बरेली आदि शहरो में पढ़ते हुए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त की और वर्ष १९७१ से बरेली कालेज मे हिन्दी का प्राध्यापन शुरू कर दिया। उनकी पत्नी रीता भी बरेली मे ही शिक्षक थी इसलिए वो स्थाई रूप से बरेली मे ही रहने लगे। लिखते बहुत कम थे। बाईस वर्ष से लिखते-लिखते उनका पहला कविता संग्रह  १९९२ मे आया था 'इसी दुनियाँ' नाम से। इस संग्रह में उनकी अब तक की लिखी समस्त चर्चित कविताएं संग्रहीत थी। स्तरीय और लघु पत्रिकाओं में अनवरत छपते रहने से संग्रह आने के पूर्व ही उनकी पहचान बडे कवि के रुप हो गयी थी। इस संग्रह पर उन्हें  रघुवीर सहाय सम्मान, और श्रीकान्त वर्मा सम्मान जैसे सम्मान भी मिले। दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कविता संग्रह “दुष्चक्र मे सृष्टा” रहा जो वर्ष २००२ मे छप कर आया। इसी संग्रह पर उन्हे साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। मौलिक कविताओं के अतिरिक्त उन्होने विश्व के जनपक्षधर कवियों के अनुवाद भी किए। उनके जैसे भावपूर्ण और भाषा की व्यंजना  शक्ति से युक्त मौलिक अनुवाद देखने मे कम आते हैं। वीरेन दा के अनुवाद विशेषकर जो उन्होने पाब्लो नेरुदा, ब्रेख्त, नाजिम हिकमत की कविताओं के किए वे आज भी अनुवाद के लिए स्थापित मानक की तरह हैं। जनपद और लोक के कवि वीरेन दा जनकवि थे। उत्तराखंड के काव्य प्रेमी उन्हे इंसानियत के लिए लडने वाले योद्धा की तरह मानते हैं। जैसे गिर्दा के जनगीत वहां की जनता मे लोकप्रिय रहे ठीक वैसे ही वीरेन दा की कविताएं उनके पाठकों के बीच लोकप्रिय हैं। वीरेन डंगवाल की कविताओ मे लोकतत्व, जनपक्षीय चेतना, मोहभंग, बेचैनी सब कुछ मौजूद है। समय के प्रति सजग दृष्टि ने उनकी कविता को कभी काल और देश की सीमाओं में नहीं बांधा| किसी एक जमीन व समुदाय की विशिष्ट अवस्थिति पर हम उनकी कविताओं का संकुचन नहीं कर सकते। उनकी कविताओं की व्यापक विषय भूमि व व्यापक जन दृष्टि ने उनकी कविता को हिन्दुस्तान का समय चित्र बना दिया है। सत्तर के दशक का मोहभंग और आज के भूमंडलीकृत लोकतन्त्र के प्रति बेचैनीपूर्ण  अनास्था उनकी कविताओं में देखी जा सकती है। वीरेन दा की कविताएं अपेक्षाकृत छोटी होती थीं। छोटी कविताएं अपने कलेवर और ख़ास गुम्फन के कारण बडी कविताओं की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली और मारक होती हैं। वीरेन दा की छोटी कविताएँ जीवन के संघर्षरत क्षणों का तिक्त अनुभव हैं। छोटी-छोटी लडाईयां, छोटे-छोटे पराजय, छोटे-छोटे रचनात्मक व्यूह उनकी सामान्य से विषयों की कविताओं में अपनी समग्रता के साथ उभर आए हैं। इन्ही छोटी-छोटी संरचनाओं से वे बडे परिवर्तन का स्वप्न सिरजते हैं। 

वीरेन दा की बेचैनी समूचे हिन्दुस्तान की बेचैनी है। उनके पहले संग्रह मे ही इस बेचैनी को परखा जा सकता है। इस बेचैनी के कारणों की खोज मे वो  व्यवस्था की तह में चले जाते हैं। और अपनी जनपक्षीय मनोदृष्टि से वैज्ञानिक तरीके से द्वन्दात्मक अवस्थितियों का परीक्षण करते हैं। जब वो खतरों के मूल में पहुंचते हैं तो वर्गीय विभेदों और पूंजीकृत विसंगतियों पर उनका ध्यान केन्द्रित हो जाता है ‘जिएँ कैसे ज़िंदगी' कविता में उन्होने कहा है 'हवा तो खैर भरी ही है, कुलीन केशों की गन्ध से' यह भारतीय समाज का मौलिक सच है। कुलीनता की गन्ध हवा में भरने का मतलब है। चतुर्दिक अभिजात्य का प्रभाव है। सत्ता, उत्पादन, वितरण, स्वामित्व, सब कुलीनता की गन्ध से युक्त हैं। उनकी इस जनदृष्टि का सबसे बेहतरीन उदाहरण लम्बी कविता “रामसिंह” है। रामसिंह वीरेन दा की सर्वाधिक चर्चित कविताओं मे है। इस कविता के द्वारा कविताओं के सहारे कैसे चरित्र स्थापित किए जाते है इस बात को उनहोंने समझा दिया है। अपनी बुनावट व गम्भीरता के लिहाज से यह कविता महाकाव्यात्मक है और यथार्थ द्वारा विनिर्मित बेचैनी का जितना सफल चारित्रिक पहलू इस कविता मे उपलब्ध है वह बहुत कम दिखता है। इस कविता का मूल प्रतिपाद्य मनुष्यता है जो फौजियों के सहारे एक जनपक्षीय अभियान की तरह बुना गया है। एक आम आदमी की चिन्तन प्रक्रिया कितना बडा परिवर्तन कर सकती है उस परिवर्तन की व्यापक सम्भावनाओं की कविता है। रामसिंह की ये  पंक्तियां व्यवस्था के कारणों पर सवाल उठाती हुई एक टीस पैदा कर देती हैं।
'कौन है वे कौन हैं / जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूंढते रहते है़। सैनिक का लडना अपने लिए और अपनो के लिए लडना नहीं है मजलूम शोषित जनता की लडाई नही है यह लडाई, यह सैन्यीकरण, यह युद्धोन्माद सब विश्व की वर्चस्ववादी शक्तियों का अपने विस्तारण द्वारा रचा गया खेल है। इसी दृष्टि से वो थोथे राष्टवाद, दंगे और फसाद को भी देखते हैं। युद्ध से केवल जनता मरती है जनता की नजर में ये युद्ध मनुष्यता विरोधी साजिश है| वीरेन जी के व्यक्तित्व और काव्य सरोकारों को उनकी कविता कवि एक, और कवि दो से भली भांति समझा जा सकता है। कवि अपने व्यक्तित्व का रेखांकन व सामाजिक उत्तरदायित्व को किस सहज अन्दाज से सन्तुलित करता है ये कविताएं इस बात का बेहतरीन उदाहरण हैं जब तक कविता से कवि की पसंद नापसंद, खान-पान, रहन-सहन का पता न चले तो कविता में विचारों को ठूसने से भर से काम नहीं चलता है। एक श्रेष्ठ लोकधर्मी कवि की पहचान उसकी कविता में अन्तर्निहित उसके निजी व्यक्तित्व से भी होती है वीरेन दा का मनमौजीपन, फक्कडपन उनकी कविताओं मे उतर आया है विशेषकर छोटी-छोटी कविताओं में जहां जीवन के सम्पर्क में आने वाली हर एक जरूरी गैर जरूरी चीजों से कविता रची गयी है। 'हजार जुल्मों से सताए गए मेरे लोगो /मैं तुम्हारी बददुआ हूं / सघन अन्धेरे में तनिक दूर पर झिल मिलाती /तुम्हारी लालसा / (कवि दो) कविता का यह अंश कविता के प्रति कवि की प्रतिबद्धता का प्रभावशाली रेखांकन है। सघन अन्धेरा बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि मुक्तिबोध मे है इस सघन अन्धेरे को उनकी रामसिंह कविता से जोडकर पढा जाय तो अन्धेरे की व्यापकता उजागर हो जाती है। मुक्तिबोध के अन्धेरे में उभरने वाले चरित्रों को वीरेन दा भी देखते हैं राम सिंह कविता में खडा किया गया सवाल और अन्धेरें में कविता का रात्रिकालीन जुलूस एक की तथ्य की अभिव्यंजना करते है़। पर वीरेन दा की कविताओं में जहां भी अन्धेरा आता है, वह भले ही कठिन हो सघन हो वहां पर एक उजाले की क्षीण किरण का उल्लेख जरूर होता है। इसलिए उन्हे उजाले के स्वप्न का कवि कहा जाता है। उनकी एक कविता 'आयेंगे उजले दिन जरुर आयेंगे'  "'अन्धकार के विरुद्ध उजाले की जबरदस्त सम्भावनाओं की कविता है। सब कुछ स्याह होने के बाद समाजिक निर्माण की वैज्ञानिक प्रक्रिया में विश्वास रखते हुए बदलाव का स्वप्न देखना आशावादी जज्बे का प्रमाण है। संकट बडा है और घना संकट है घातक परिस्थितियां मौजूद है इन परिस्थितियों से भयाक्रान्त होकर बैठ जाना बदलाव की उम्मीदों पर पानी फेर देता है। संकटों में इतनी शक्ति नहीं है कि आम आदमी की चेतना को नष्ट कर सकें  पर डरो नहीं चूहे आखिर चूहे ही हैं / जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएंगे”। चूहों से अभय रहने की हिदायत भी निराधार नहीं है वह भी सतर्क प्रमाणिकता के साथ है| क्योंकि अभी समर शेष है अभी जनयुद्ध शेष है उसे होना है होगा वह समर अभी होगा कुछ और बार / तब कहीं ये मेघ छिन्न भिन्न हो पाएंगे। यह तसल्ली मिथ्या नहीं है क्योंकि हर सपने के मूल में सच्चाई होती है मैं नही तसल्ली झूठ मूठ की देता हूं / हर सपने के पीछे सच्चाई होती है /हर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है /हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है। यह एक वैज्ञानिक तर्क है जिस व्यक्ति को इतिहास का संवादी ज्ञान है वह इस तर्क से और वीरेन दा के स्वप्न से इंकार नहीं कर सकता है। चीजें और परिवेश परिवर्तन शील है़ जगत का मूलभूत चरित्र बदलाव है। हर समय एक सा नही रहता कभी न कभी परिवर्तन होता ही है। इसलिए जो भी आज है वह भी बदलेगा। मनुष्यता अपने मूल संस्कारों को जरूर पाएगी पूंजीवादी शक्तियों द्वारा तयशुदा जडता एक दिन खत्म होगी जीवन के प्रति उम्मीदों का समय अवश्य आएगा यह कविता उनकी क्रान्तिचेतस समझ और  वैचारिक मनोस्थिति से भली भांति परिचित करा देती  है।
 
वीरेन दा का युग हिन्दी कविता के दो अतिवादी ध्रुवों मे विभक्त था एक ओर प्रयोगवादी वैयक्तिक कु़ंठाओं और यौन बिम्बों से मोहजाल में बँधी कविता थी दूसरी ओर नक्सलवादी आन्दोलन से प्रभावित जुमलेबाजी थी। इन दोनो धाराओं को लगभग अस्वीकार करते हुए उन्होने हाशिए पर पडे लोगों की वस्तुस्थिति और परिवेशगत विकृतियों को अपना विषय बनाया। वैचारिक पुष्टता, तर्क, लोकभाषा, लोकसौन्दर्य की नयी दृष्टि लेकर तत्कालीन हिन्दी कविता में जनवादी लोकतान्त्रिक परम्परा को बरकारार रखा। वैचारिकता के कारण ही उनकी कविता में यथार्थ का वास्तविक बोध उत्पन्न हो रहा है यह वैचारिक प्रतिबद्धता उनकी अब तक की कविताओं मे भी देखी जा सकती है। यह सच है उनके विषय अनुभूत थे पर अनुभवों की अपने समय के साथ प्रमाणिकता स्थापित करने मे विचारों का ही योग है। उनकी कई कविताओं में देखा जा सकता है जहां परिवेश अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है वहां उनकी भाषा विद्रोह की भंगिमा अख्तियार कर लेती है। जहां परिवेश से संघर्षरत आम आदमी टूटता है पराजित होता है वहां पर वो स्वप्नों की नयी ऊर्जा लेकर वैज्ञानिक तर्क से नियति का परीक्षण करते हैं और बदलाव की उम्मीदों से कविता को भर देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे वो आदमी की मनोस्थिति पढ रहे हैं। जैसे पढते हैं वैसे कविता रचते हैं।

वीरेन डंगवाल के काव्य में संवेदना और समय का जो गठबन्धन दिखाई देता है वह भाषा के स्तर में भी है। बहुत से ऐसे शब्द हैं जिनको उन्होने नये सन्दर्भ देकर नवीन अर्थवत्ता का संधान किया है। एक बडे कवि की पहचान होती है कि वह अपने प्रयोगों से शब्दकोष मे वृद्धि करता है कि नही इस दिशा मे त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार और विजेन्द्र जैसे ही वीरेन डंगवाल ने भी बहुत से लोकशब्दों को काव्यभाषा का स्वरूप दिया अपने इस गुण के कारण वो आज की समस्याओं को सही अभिव्यक्ति दे सके है़। वीरेन दा भाषा के स्तर पर भी संवेदनशील थे शिल्प के स्तर पर जो लयात्मक विधान मिलता है वह भाषा के स्तर पर संवेदनात्मक विधान में बदल जाता है। यही संवेदना वैचारिक सूत्रता में बँधकर एक मुकम्मल कविता का रूप धारण करती है। वीरेन दा की कविताओं पर बहुत लिखा पढा गया लेकिन उनकी रचना प्रक्रिया की पहचान और उनकी  सामयिक सार्थकता को पहचानने के लिए उनकी कोई भी रचना कोई भी एक कविता पढी जा सकती है लगभग हर कविता में उनका अलहदा स्वर अपनी अलहदा बुनावट के साथ उपलब्ध है। आज जब कि कविता में यथार्थ और विद्रोह के बहाने राजनैतिक नारेबाजी और रटे रटे रटाए जुमलों की भरमार हो रही है वहां वीरेन दा की कविता अपने समय के साथियों और समय के बाद के साथियों के बीच आसानी से पहचानी जा सकती है, जो अपने सधे अन्दाज में भविष्य मे भी भ्रमित जीवन दृष्टि को सही दिशा देती रहेगी उनकी प्रतिनिधि कविताएं 'रामसिंह' , कवि एक, कवि दो, उजले दिन, और बांदा मे लिखी एक कविता जिनका मैने उल्लेख किया है आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। इन कविताओं के माध्यम से मैं वीरेन दा के अवदानो का स्मरण करता करता हूं। अपनी रचनात्मक सेवाओं से हिन्दी साहित्य की जो उन्होंने सेवा की हिंदी कविता की जनवादी धरा की पहचान स्थापित करने में जो मदद की उसकी भरपाई निकट भविष्य में असंभव है जिस सहज ढंग से वो जीवन को जीते रहे, जिस सहज ढंग से जीवन को देखते रहे उसी सहज ढंग से मौत से लड़ते हुए  चले जाने वाले प्रतिबद्ध, और संवेदनशील कवि को नमन करता हूं। उनके इस दुखन  निधन पर श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ


कवि - १

मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शरद का ऊष्म ताप
मैं हूँ वसन्त का सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूँगफली को छाँट कर
चबाता फुरसत से
मैं चेकदार कपड़े की कमीज़ हूँ

उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तब मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ

इच्छाएँ आती हैं तरह.तरह के बाने धरे
उनके पास मेरी हर ज़रूरत दर्ज़ है
एक फेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी
उन्हें यह तक मालूम है
कि कब मैं चुप होकर गरदन लटका लूँगा
मगर फिर भी मैं जाता ही रहूँगा
हर बार
भाषा को रस्से की तरह थामे
साथियों के रास्ते पर

एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा

कवि - २

मैं हूँ रेत की अस्फुट फुसफुसाहट
बनती हुई इमारत से आती ईंटों की खरी आवाज़

मैं पपीते का बीज हूँ
अपने से भी कई गुना मोटे पपीतों को
अपने भीतर छुपाए
नाजुक ख़याल की तरह

हज़ार जुल्मों से सताए मेरे लोगो!
मैं तुम्हारी बददुआ हूँ
सघन अंधेरे में तनिक दूर पर झिलमिलाती
तुम्हारी लालसा

गूदड़ कपड़ों का ढेर हूँ मैं
मुझे छाँटो
तुम्हें भी प्यारा लगने लगूँगा मैं एक दिन
उस लालटेन की तरह
जिसकी रोशनी में
मन लगा कर पढ़ रहा है
तुम्हारा बेटा।

आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे

आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अन्धकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती

होगा वह समर अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पाएँगे

तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चींए चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे

पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएँगे

यह रक्तपात यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते पर
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है

सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी
हम याद रखेंगे पार उसे कर जाएँगे

मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है

आए हैं जब चलकर हम इतने लाख बरस
तब इसके आगे भी चलकर जायेंगे
आयेंगे,
उजले दिन जरुर आएँगे

'बाँदा' 
मै रात, मै चाँद, मै मोटे काँच का गिलास
मै लहर खुद पर टूटती हुई
मै नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल।
मै नींद, मै अनिद्रा, कुत्ते के रुदन में
फैलता अपना अकेलापन
मै चांदनी में चुपचाप रोती एक
बूढी ठठरी भैंस
मै इस रेस्टहाउस के खाली
पुरानेपन की बास।
मै खपडैल, मै खपडैल।
मै जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार
मै केदार, मै केदार, मै कम बूढा केदार।

रामसिंह
(1970 में इलाहाबाद में लिखी गई कविता)

दो रात और तीन दिन का सफ़र तय करके
छुट्टी पर अपने घर जा रहा है रामसिंह
रामसिंह अपना वार्निश की महक मारता ट्रंक खोलो
अपनी गन्दी जर्सी उतार कर कलफ़दार वर्दी पहन लो
रम की बोतलों को हिफ़ाज़त से रख लो रामसिंह, वक़्त ख़राब है
खुश होओ, तनो, बस, घर में बैठो, घर चलो।

तुम्हारी याददाश्त बढ़िया है रामसिंह
पहाड़ होते थे अच्छे मौक़े के मुताबिक
कत्थई-सफ़ेद-हरे में बदले हुए
पानी की तरह साफ़
ख़ुशी होती थी
तुम कनटोप पहन कर चाय पीते थे पीतल के चमकदार गिलास में
घड़े में, गड़ी हई दौलत की तरह रक्खा गुड़ होता था
हवा में मशक्कत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे फ़ौजियों की तरह
नींद में सुबकते घरों पर गिरा करती थी चट्टानें
तुम्हारा बाप
मरा करता था लाम पर अँगरेज़ बहादुर की ख़िदमत करता
माँ सारी रात-रात रोती घूमती थी
भोर में जाती चार मील पानी भरने
घरों के भीतर तक घुस आया करता था बाघ
भूत होते थे
सीले हुए कमरों में
बिल्ली की तरह कलपती हई माँ होती थीए बिल्ली की तरह
पिता लाम पर कटा करते थे
ख़िदमत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे सिपाहियों की तरह
सड़क होती थी अपरिचित जगहों के कौतुक तुम तक लाती हई
मोटर में बैठ कर घर से भागा करते थे रामसिंह
बीहड़ प्रदेश की तरफ़।

तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उँगली हो
किसका उठा हुआ हाथ
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफ़ीस दस्ताना
ज़िन्दा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार
कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूँढते रहते हैं
जो रोज़ रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं
वो माहिर लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं।

पहले वे तुम्हें कायदे से बन्दूक पकड़ना सिखाते हैं
फिर एक पुतले के सामने खड़ा करते हैं
यह पुतला है रामसिंह, बदमाश पुतला
इसे गोली मार दो, इसे संगीन भोंक दो
उसके बाद वे तुम्हें आदमी के सामने खड़ा करते हैं
ये पुतले हैं रामसिंह बदमाश पुतले
इन्हें गोली मार दो,  इन्हें संगीन भोंक दोए इन्हें.. इन्हें इन्हें
वे तुम पर खुश होते हैं .. तुम्हें बख़्शीश देते हैं
तुम्हारे सीने पर कपड़े के रंगीन फूल बाँधते हैं
तुम्हें तीन जोड़ा वर्दी, चमकदार जूते
और उन्हें चमकाने की पॉलिश देते हैं
खेलने के लिए बन्दूक और नंगीं तस्वीरें
खाने के लिए भरपेट खाना, सस्ती शराब
वे तुम्हें गौरव देते हैं और इसके बदले
तुमसे तुम्हारे निर्दोष हाथ और घास काटती हई
लडकियों से बचपन में सीखे गए गीत ले लेते हैं

सचमुच वे बहुत माहिर हैं रामसिंह
और तुम्हारी याददाश्त वाकई बहुत बढ़िया है

बहुत घुमावदार है आगे का रास्ता
इस पर तुम्हें चक्कर आएँगे रामसिंह मगर तुम्हें चलना ही है
क्योंकि ऐन इस पहाड़ की पसली पर
अटका है तुम्हारा गाँव

इसलिए चलो, अब ज़रा अपने बूटों के तस्में तो कस लो
कन्धे से लटका ट्राँजिस्टर बुझा दो तो खबरें आने से पहले
हाँ, अब चलो गाड़ी में बैठ जाओ डरो नहीं
गुस्सा नहीं करो, तनो

ठीक है अब ज़रा ऑंखें बन्द करो रामसिंह
और अपनी पत्थर की छत से
ओस के टपकने की आवाज़ को याद करो
सूर्य के पत्ते की तरह काँपना
हवा में आसमान का फड़फड़ाना
गायों का रंभाते हुए भागना
बर्फ़ के ख़िलाफ़ लोगों और पेड़ों का इकठ्ठा होना
अच्छी ख़बर की तरह वसन्त का आना
आदमी का हर पल, हर पल मौसम और पहाड़ों से लड़ना
कभी न भरने वाले ज़ख़्म की तरह पेट
देवदार पर लगे ख़ुशबूदार शहद के छत्ते
पहला वर्णाक्षर लिख लेने का रोमाँच
और अपनी माँ की कल्पना याद करो
याद करो कि वह किसका ख़ून होता है
जो उतर आता है तुम्हारी आँखों में
गोली चलने से पहले हर बार

कहाँ की होती है वह मिटटी
जो हर रोज़ साफ़ करने के बावजूद
तुम्हारे बूटों के तलवों में चिपक जाती है

कौन होते हैं वे लोग जो जब मरते हैं
तो उस वक्त भी नफ़रत से आँख उठाकर तुम्हें देखते हैं

आँखे मूँदने से पहले याद करो रामसिंह और चलो ।

उमाशंकर सिंह परमार





सम्पर्क-

उमाशंकर सिंह परमार 
मोबाईल - 09838610776

टिप्पणियाँ

  1. किसी रचनाकार को सच्ची श्रधांजलि देने का यही सर्वोत्तम तरीका है , उसके सृजन का मर्म का बार -बार उद्घाटन करना .

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बढिया आलेख ।साथ ही महत्वपूर्ण कविताएं ।कवि को श्रद्धांजलि।

    जवाब देंहटाएं
  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  4. वीरेन्द्र डंगवाल जी को सादर पुष्पांजलि। उमाशंकर सिंह का आलेख बहुत बढिया है। लेखक को धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  5. श्रद्धांजलि ! कवि कि प्रतिबद्धता को नमन!
    इस महत्वपूर्ण आलेख के लिए परमार जी को धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'