नरेन्द्र मोहन की आत्मकथा पर योगिता यादव की समीक्षा चुप्पियों की आवाज है 'कमबख्त निंदर'

नरेन्द्र मोहन
किसी भी रचनाकार के लिए आत्मकथा लिखना एक कठिन कार्य होता है। आत्मकथा जो अपनी तो हो लेकिन दूसरों की संवेदनाओं और अनुभूतियों से कहीं न कहीं जुड़े। महज वैयक्तिक हो कर ही न रह जाए। वरिष्ठ कवि, नाटककार और आलोचक के रूप में सुविख्यात डॉ. नरेंद्र मोहन ने इधर अपनी आत्मकथा लिखी है उनकी आत्मकथा का यह पहला खण्ड है 'कमबख्त निंदर'। इस पर एक समीक्षा लिखी है  पत्रकार और सुपरिचित कथाकार योगिता ने। तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा     

चुप्पियों की आवाज है 'कमबख्त निंदर'


योगिता यादव

वरिष्ठ कवि, नाटककार और आलोचक के रूप में सुविख्यात डॉ. नरेंद्र मोहन के खाते में पुस्तकों की एक लंबी सूची है। इनमें आलोचना की पुस्तकें, लंबी कविताएं, नाटक और डायरी साहित्य में मौजूद लगभग सभी विधाओं से संबंधित पुस्तकें शामिल हैं। लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा चर्चा मिली अपने नाटकों के कारण। जिन्ना पर लिखा गया उनका नाटक 'मि.जिन्ना' जब विवादों में घिरा उस समय लेखक के व्यक्तित्व और रचनात्मक उठान का समय था। देशभक्ति की आड़ में अपना खेल खेलने वाले कट्टरपंथियों ने ऐसी जिद अख्तियार की कि उस नाटक को तमाम तैयारियों के बावजूद मंचित नहीं होने दिया गया। इस घटना ने लेखक को इतना व्यथित किया कि उन्होंने कलाकारों के चेहरे पर व्याप्त हताशा को पढ़ते हुए एक के बाद एक कई उत्कृष्ट कृतियां हिंदी रंगमंच को दीं। इनमें 'हद हो गई यारों' और 'मंच अंधेरे में' खासे लोकप्रिय भी हुए। इस तरह डॉ. नरेंद्र मोहन नाटककार के रूप में खूब लोकप्रिय हुए। जबकि इससे पहले उन्होंने अपनी आलोचना पुस्तकों और संपादन कार्यों की मार्फत नए संदर्भ हिंदी साहित्य को दिए। 


 साहित्य को इतना बड़ा रचनात्मक अवदान देने वाला व्यक्ति आखिर चर्चाओं से दूर क्यों और कैसे रहा, यह अपने आप में बड़ा प्रश्न है। साहित्य जगत में जहां एक कविता या एक कहानी लिखकर भी लोग आत्ममुग्धता और लोकप्रियता के कीर्तिमान कायम कर लेते हैं। वहां डॉ. नरेंद्र मोहन चुपचाप साहित्य के प्रति पूर्ण समर्पण से काम करते रहे। साहित्य को समर्पित इस व्यक्ति का स्वयं का जीवन कैसा रहा होगा, सामान्य और साहित्यिक पाठकों के बीच भी यह स्वभाविक प्रश्न है। इस प्रश्न का संधान करती है प्रस्तुत पुस्तक 'कमबख्त निंदर'। डॉ. नरेंद्र मोहन की आत्मकथा का यह पहला खण्ड है। जिसमें लाहौर में उनके जन्म से लेकर दिल्ली में उनके आने और स्थापित होने तक की कहानी है।  एक साधारण परिवेश का बालक धीरे-धीरे इतना ख्यात लेखक बन जाता है कि साहित्य में मौजूद लगभग हर विधा में वह सिद्धहस्त हो जाता है। प्रस्तुत कृति 'कमबख्त निंदर' उस कौतुहल का शांत करने का एक अच्छा स्रोत है। लेखक अपनी आत्मकथा के इस पहले खण्ड को एक आपातकाल से दूसरे आपातकाल के बीच का समय मानते हैं। दूसरे आपातकाल से साधारण भारतीय जनमानस परिचित है, लेकिन यह जो पहला आपातकाल है, लेखक के जन्म के समय का, यह अभिशाप भारतीय स्वतंत्रता के समानांतर जन्मा है। और जिसका अवसाद कई पीढिय़ों बाद, अब भी रह रह कर दर्द देता है। यही दर्द मंटों की कहानियों और नाटकों में भी मौजूद रहा है। यही दर्द मंटो से लेखक के आत्मीय जुड़ाव का भी कारण है।

 'मैं' को 'स्वं' से विलग कर अपने संपूर्ण जीवन को देखने की यह अनूठी प्रवृति है। जिसे संभवत: लेखक के भीतर मौजूद नाटककार ने अपनाने को प्रेरित किया होगा। इस प्रवृति के उदाहरण साहित्य में बहुत कम और स्वप्नों में बहुत अधिक मिलते हैं। आत्मकथाओं के ऐसे दौर में जहां इतिहास को तोड़-मरोड़ अपनी शिखा का फूल या करधनी की गांठ बनाने की प्रवृत्ति आमादा हो, ऐसे समय में क्या कोई आत्मकथा इतनी सादा भी हो सकती है, हैरान करता है। जिसकी स्याही अपने वक्त के हर एक लम्हे का हिसाब रखती है, बिना किसी के मुख पर कालिख पोते। फिर चाहें वह पंजाब-हरियाणा के उनके साथी हो या दिल्ली के नए परिवेश में नए-नए तरीकों से मिल रहे दिल्ली के नामी-गिरामी लोग।

 
उनके साथी उनके साथ चलते हैं, जो नहीं चलते वे भी पूरी गरिमा से अलग होते हैं। उन्हें हठात बेदखल नहीं किया जाता और न ही मारा जाता है महाभारत में अभिमन्यु की अपरिपक्व-अकाल मृत्यु की तरह। वे अपनी ठसक से उसी तरह आहिस्ता-आहिस्ता विदा होते हैं, जिस तरह वे दृश्य में दाखिल हुए थे। तमाम सहमतियों और असहमतियों के बावजूद भी।


बचपन में शरणार्थी कैंप में बच्चों के साथ छिटपुट नाटक खेलने वाला निंदर दिल्ली पहुंच कर नाटक प्रेमी और लेखक हो गया है। वह दिल्ली के हर दृश्य में एक नाट्य महसूस करता है। हर घटना जैसे मंच पर आती है। मंच के नाटकों और दिल्ली की राजनीतिक घटनाओं में अद्भुत साम्यता है। उन्हें इब्राहिम अल्का जी निर्देशित नाटक तुगलक में इंदिरा गांधी दिखाई देती है। वहीं फैज अहमद फैज के बोल उन्हें इमरजेंसी में बार-बार कुछ कहने, कुछ करने को उकसाते हैं। पृष्ठ 166 पर वे लिखते हैं , ''कोई नहीं बोल रहा- जुबान यख़ पड़ी है। फिर सुनाई देते हैं फैज के बोल - जिस्मो-जुबां की मौत से पहले / बोल, कि सच अब तक जिंदा है/ बोल, जो कुछ कहना है कह ले।/' कोई नहीं बोल रहा। वीरान चुप्पी है चारों तरफ। कुछ भी सुलगता नहीं दिखता दूर तक! थिएटर  कम्यूनिकेशन बिल्डिंग, वहां स्थित हिंदी भवन तोड़-फोड़ दिया गया है। कॉफी हाउस वीरान है। टी हाउस बिक गया है। अब कहां जाएं, किधर बैठें? मोहन सिंह प्लेस ढूंढ़ लिया गया है मगर वहां टी हाउस वाली बात कहां ? 


दूसरों पर फब्तियां कसता रहा। हंसी- हंसी में भी अपनी खीज और खुंदक उतारने से कहां चूका? दूसरों की गांठों और कमियों पर तेज नजर रखता रहा और अपनी  गांठों और फांसों पर इतराता रहा जैसे कोई इंद्रधनुष हो। खुद के अंधेरे कोनों में कहां झांक पाया? आईने के सामने जाने पर अपने नैन-नक्श की तराश पर रीझता रहा और अपने बेढंगे, विकलांग अक्सों से मुंह मोड़ता रहा।


'खुद की चीरफाड़ करना मुश्किल ही रहा । जिन चीजों के बारे में कोई अंदेसा न होता, सबसे ज्यादा वही अड़ी रहीं मेरी देह में...।'


 यह जीवन की नाटकीयता और नाटक में जीवन नहीं तो और क्या है। जिसे लेखक ने जितनी शिद्दत से महसूस किया, उतनी ही साफगोई से बयां भी किया। इमरजेंसी के दौर में ऐसा तनाव जब मन मस्तिष्क को मथता हुआ कागज पर उतरता है, तब लेखक के स्वयं के भीतर से कई रचनात्मक  कृतियां उपजती हैं। उस दौर और उन परिस्थितियों का संक्षिप्त किंतु हृदय स्पर्शी वर्णन इस पुस्तक में संयोजित है। एक बड़े लेखक की इस सहज मन कृति का लिखा जाना एक बड़ी उपलब्धि है। निश्चित रूप से इसे सराहा जाना चाहिए।
 डॉ. नरेंद्र मोहन के बारे में यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने जो प्रसिद्धि अर्जित की वह अपनी रचनाओं के बूते ही अर्जित की। साहित्यिक 'सेटिंग' और 'जोड़-तोड़' की राजनीति से इसे नहीं जोड़ा जा सकता। फिर भी उनकी सहजता को अबोधता हरगिज नहीं कहा जा सकता। आत्मकथ्य की सहज प्रवृत्ति इस पुस्तक का मुख्य आकर्षण है। एक साधारण पृष्ठभूमि का व्यक्ति जिसे यह मार्गदर्शन भी बाहर ही ढूंढना पड़े कि उसे क्या पढऩा है और कितना पढऩा है, आगे चल कर एक प्रख्यात लेखक बन जाता है, यह किसी नायक कथा से कम कहां है। यही डॉ. नरेंद्र मोहन के जीवन और इस पुस्तक का नायकत्व भी है। किंतु यहां नायक अकेला नहीं है। उसका द्वंद्व उसके साथ है। द्वंद्व भावनाओं और विचारों  का। द्वंद्व परिस्थितियों और आकांक्षाओं का।  प्रस्तुत कृति 'कमबख्त निंदर' इसी नायकत्व और जीवन की सहजता, बनते-बिगड़ते रिश्तों, बदलती पारिवारिक और सामाजिक संकल्पना के बीच नई चुनौतियों के प्रकट होने और उनसे एक साधारण आदमी के जूझने का वृतांत है। वह साधारण आदमी जो हमारे आस-पास का ही कहीं का लगता है। जिसकी छोटी-छोटी जरूरतें और छोटी-छोटी आकांक्षाएं हैं। जिन्हें उसे अकेले ही संभालना है, बिना किसी दैवीय चमत्कार के। या साफ शब्दों में कहें तो बिना किसी गॉड फादर के। एक सहज व्यक्ति के अपने भीतर के स्वप्नों, आकांक्षाओं, छटपटाहटों को अपने सामने मौजूद परिस्थितियों, द्वंद्वों और चुनौतियों के टकराव के लगातार मंथन से जो शेष रह जाता है उसकी ईमानदार प्रस्तुति है 'कमबख्त निंदर'।



योगिता यादव


 




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