संजय कुमार शाण्डिल्य की कविताएँ

संजय कुमार शाण्डिल्य
यह सच है कि कट्टरवादिता अरसा पहले से रही है और आगे भी रहेगी। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उसके खिलाफ बोलने वाले लोग भी इस दुनिया में रहेंगे। नरेन्द्र दाभोलकर हो या फिर गोविन्द पानसरे सच बोलने की सजा पा चुके हैं। कहना न होगा कि साम्प्रदायिक ताकतें आजकल पूरे उभार पर हैं। साम्प्रदायिक ताकतें अपनी प्रकृति में ही मूलतः फासीवादी होती हैंवहाँ तर्क के लिए कोई जगह नहीं होती। प्रोफ़ेसर एम एम कलबुर्ती इन बातों से पहले से अवगत थे। और तमाम खतरों के बावजूद संकीर्णताओं के खिलाफ अपना बोलना उन्होंने जारी रखा। अन्ततः कट्टरवादियों ने बीते 30 अगस्त 2015 को उनकी हत्या कर दी। शिवानन्द कानवी ने जब एक बातचीत में उनसे इन खतरों के बारे में पूछा तो प्रोफ़ेसर कलबुर्ती ने बेहिचक बसवन्ना के एक वचन को उद्धृत करते हुए कहा - 

Let what could happen tomorrow come to us today,
Let what could happen today come to us here and now,
Who is afraid of this!
One that is born will also die
Neither Hari nor Brahma can override what my Koodala Sangama Deva has writ.

       
युवा कवि संजय कुमार शाण्डिल्य अपनी कविताओं में ऐसी शक्तियों के खिलाफ खुल कर खड़े दिखाई पड़ते हैं। यह संयोग ही है कि अरसा पहले भेजी गयी उनकी कविताओं को जब आज 'पहली बार' पर मैंने पोस्ट करने की योजना बनायी तो इन कविताओं में प्रतिवाद का वह स्वर सुनाई पड़ा जिसके पक्ष में कलबुर्ती भी आजीवन खड़े रहे। संजय आज के उन कुछ विरल युवा आवाजों में से हैं जिन्होंने अत्यन्त कम समय में अपनी संभावनाओं के लिए एक पुख्ता जगह बना लिया है प्रोफ़ेसर कलबुर्ती को नमन करते हुए श्रद्धांजलिस्वरुप हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं संजय कुमार शाण्डिल्य की कुछ नयी कविताएँ 
      

संजय कुमार शाण्डिल्य की कविताएँ


कोई मुझे भी खोद कर निकालेगा
कोई मुझे भी खोद कर निकालेगा
नुकीले कुदाल से
और धूल झाड़ने वाले ब्रुश से
साफ करेगा मुझ पर
तह हुई सदियाँ
वह चुम्बन जिसे तुमने
विदा के वक्त मेरे कंधे पर
अपने होठों के
लाल रंग से लिखा
विदा समय का वह कम्पन
कभी पढ़ेगा वह पुरातत्ववेत्ता
वह समय कभी पुनर्रचित होगा
जिसमें जुड़े रहना मुश्किल था
आसान था बिखर जाना
मेरे हाथ और पाँवों की अस्थियाँ
बटोर कर
कितना मुश्किल होगा
मुझे देख पाना
जैसे तुम देखती हो मुझे
इस झिलमिल से उजाले में
इस घिरते हुए अँधेरे में
वह हवा जिसके विरानेपन में
हमारे फेफड़े कर्मरत हैं
और उन झडबेरियों के कांटे
जिनसे पगडंडियों की हरियाली है
जैसे तुम देखती हो मुझे
अपने वज़ूद भर रोज़ लड़ते हुए
और हमारे बुरे वक्त में
दूसरी ओर घूमे हुए
अपनों की शक्लें हैं
इन सदियों की धूल
कभी साफ़ हो सकेगी
मेरी ये ऑंखें खुली रहेगी
अनंत काल तक
उन अनुमानों के लिए
जिसमें कई झूठ होंगें
उनमें एक चमकता हुआ
सच भी रह सकता है
अब्दुल मियां

अब्दुल मियां के इस देश की
अर्थव्यवस्था
दुनिया की तीसरी होगी
२०३५ तक
कोई शताब्दी के बीस वर्ष
उछाल देता है हवा में
अब्दुल मियां के घर में
अगर कैलेंडर हुआ
तो उसमें उसका भविष्य
एक पखवाड़ा है
दरहकीकत अब्दुल मियां
दिन भर के दुआ-सलाम में
जितने लफ्ज खर्च करता है
उतने रूपये अपनी
गिरहस्थी पर नहीं करता
कोई शताब्दी के बीस वर्ष
के ख्वाब रखता है
उसकी आँखों में
अब्दुल मियाँ सरौते से
सुपारी सा काटता है
चौबीस घंटे
अब्दुल मियाँ तम्बाकू की
डिबिया में भरता है
अपने दिन-रात
इस दुनिया के मानचित्र में
अब्दुल मियाँ का कारोबार
एक फैला हुआ जूट का
बोरा है
वही अमेरिका उसका
वही उसका चीन-जापान
कोई अब्दुल मियाँ की
इस दुनिया को
एक बोरे में भरना चाहता है
वह जानना चाहता है
आने वाले बीस सालों की
दुनिया के बारे में
अब्दुल मियाँ मुझ से पूछ कर
अपने कल के लिए
डरना चाहता है।

कोई मरहम-पट्टी नहीं
 
कुछ बहुत अच्छी तलवारें बाज़ार में हैं
उन्हें इस दुश्मनों से भरे समय में
कोई खरीदता होगा
आवारा कुत्तों के लिए लाठियाँ
और विषधरों के लिए
सांप मारने की बर्छियां
हाथ जो हथियार चला सकते हैं
और वह साहस
कटे हुए सिर के बाल पकड़ कर
चौराहे पर नाचती है पाशविकता
इसे लोग पीढ़ी दर पीढ़ी हासिल
करते हैं
यह किस बाज़ार में मिलता है?
मैं लाठियाँ, तलवारें और बर्छियों के बिना
भी जीवित रहूँगा
हज़ारों लोग जीवित रहते हैं
हज़ारों लोग मारे जाते हैं
अपनी ही लाठियों’, तलवारोंऔर बर्छियों से
देह में लगे घाव के साथ
निकलता रहूँ बस
कोई मरहम-पट्टी नहीं
हम जहाँ तक पहुँचते हैं वहाँ तक हमारी दुनिया है

कोई दूर जाता हुआ कहे जा रहा था कि हम
जहाँ तक पहुँचते हैं वहाँ तक हमारी दुनिया है
इस तरह वह रोटी तक समेट रहा था हमें
और नमक तक
ताकि वह समुद्र तक हमारी पहुँच काट दे
वह नदियों के रेशे-रेशे को लिबास की तरह बाँट रहा था
उड़ता हुआ कपास हमारी पहुंच से दूर चला गया
हम पाँव भर जमीन सिर भर आसमान और कंठ भर शब्द हो गए
उसने कहा पृथ्वी और मंगल के बीच क्या है
शब्दों के सिवा
धीरे-धीरे हमारी मातृभाषा में खाली जगहें थीं ध्वनियों की
हमारी पुकार सिर्फ सन्नाटे तक पहुँचती थी और अँधेरे में खो जाती थी
हम कहीं नहीं पहुँचने के लिए अपने पाँवों के खिलाफ चल रहे हैं
सारे रास्तों में यात्रा सिर्फ उसकी है
उसे जहाँ भी पहुँचना है सिर्फ वही पहुँच रहा है
ये मेरे हाथ उसके हाथ हैं, मेरी आँखें उसकी आँखें हैं
यह मेरा रक्त है जो उसके जिस्म में दौड़ रहा है
वही है जो करोड़ों मुँह से बोल रहा है खूब गाढ़े पर्दे के उस पार
मैं उस तक पहुँचने से पहले कोयला हो जाउंगा
वह अपनी कोटि-कोटि जिह्वाओं से मुझ पर अपना विष बरसा रहा है
शब्दों के बीच की जगहों में थोड़ा अर्थ रखे जाता हूँ
समझ पाओ तो कहने का संघर्ष सफल न समझो तो
यह कि अर्थवान ध्वनियाँ समय के अजदहे खा गए।
अभी सिर्फ एक आँख जगी है
आज कल मुझे उस बर्फ के पहाड़ की
टूट कर गिरने की हवा बहा ले जाती है
जिसके ऊपर एक ग्लैशियर फिसलता है
नीचे हजारों फीट घाटी में लुढ़कने से पहले
उसका गिरना उसके साथ बहता है
बस दिखता है कभी-कभी
गोशा-गोशा इस मेरी देह में
कच्चा बर्फ लगा है
एक बड़े राष्ट्रीय आरे से काटा
जा रहा हूँ
मेरी सिर्फ एक आँख बची हुई है
स्वयं को काटे जाते हुए
देखने के लिए।
चारों तरफ सिर्फ रक्त-मांस के टीले हैं
जीवन के मृदुभांड से भरा
खूब भयानक जंगल है चारों तरफ
सिर्फ उदासियाँ रह सकती हैं
इतने विरानेपन में
यहीं श्रम से हल्की मेरी देह
लुढ़की है नींद की मृत्यु में
बस हृदय की मांसपेशियों में
गर्म रक्त की आवाजाही ही
हरकत है
और ऐन दिल के ऊपर
फन फैलाए बैठा है विषधर।
हम दूर निकल आए हैं
इस अलक्षित जीवनखंड की रेकी में
किसी युद्धरत देश में
बाशिन्दों से भरे
सिर्फ एक पल पूर्व के किसी शहर में
पहुँचने की सारी जगहें
जैसे मानचित्र में गलत अंकित हों
और शत्रुओं के भूक्षेत्र में
बम की तरह पौ फटे
उस रोज़ धमाके से निकल आए
सूरज।
कितनी अजीब बात है कि इस शहर में
मेरी आत्मा ही मेरा बख्तर है
अठारह किलो का
मेरे विचार मेरा हेलमेट आठ किलो का
और मेरी साँसें वही आठ किलो
भारी असलहे।
एक खूब भरी हुई नदी में मैं उतर रहा हूँ
और अचेत हूँ
इस नदी की पृथ्वी से टकरा कर
बस एक क्षण पहले लौटी है मेरी चेतना
चारों तरफ रेत ही रेत है
चारों तरफ साँप ही साँप है
चारों तरफ बर्फ ही बर्फ है
चारों तरफ पानी ही पानी है
सिर्फ मेरी एक आँख जगी है
स्वयं को जीवित देखने के लिए

जैसे लिखते हो लिखते रहो
मैं सिर्फ अजीब तरह की कविताएँ लिखता हूँ
शब्द मुझसे मुस्कुरा कर कहते हैं
ऐसी बेतरतीबी से क्यों रखा मुझे
लेकिन मैं आराम से हूँ और थोड़ी जगह है
साँस लेने भर यहाँ
मैं कहता हूँ कि हम एक-दूसरे के कंधे क्यों छीलें
हमें जगह देने अंतरिक्ष नहीं आएगा।
वाक्य अक्सर मैं पूरे लिखना पसन्द करता हूँ
हैं या थे पर आराम करती हैं क्रियाएँ
संज्ञा-सर्वनाम झपकियाँ ले लेते हैं
अधिक से अधिक कोई क्या कहेगा -थोड़ी शब्द-स्फीति है
तब तक अपनी हथेली पर तंबाकू मल लेंगें
विचार
फिर आराम से निकलेंगे हवा-पानी धूप में।
अर्थ की लाल आँखें पीछे आती हैं हाँपते-काँपते
उन्हें अपना काम करना है, कर लेंगे
गोमास्ता-लठियाल भी तो चखें थोड़ा हवा-पानी-धूप
मैं अक्सर चाहता हूँ कि उनकी छतरियाँ उलट जाए
खेतों से बिदके बैल उनकी तरफ झपटें
यह माँजो, वह खोदो, वहाँ पाटो, यहाँ जोतो
इतनी गुलामी के लिए लाचार नहीं हैं कविताएँ
जमीन है तो रहा करे, मजूरी तो हमारी है
ऊसर-बंजर, रेत सब हरा हो जाएगा ऐसी तरावट है पसीने की
और जैसे मेरी भट्टी में सुलगता है लोहा
बात कोयले की नहीं है
यह देखो उठा है फावड़ा मिट्टी को भुरभुरा करने
इस मिट्टी से बर्रे अपना घर बना सकते हैं
शब्द मुझसे मुस्कुरा कर कहते हैं, जैसे लिखते हो लिखते रहो।

सम्पर्क-
संजय कुमार शांडिल्य
सहायक अध्यापक
सैनिक स्कूल गोपालगंज,

पत्रालय- हथुआ, जिला- गोपालगंज (बिहार) 841436
मोबाईल - 9431453709

ई मेल - shandilyasanjay1974@gmail.com
 

टिप्पणियाँ

  1. bhut hi khubsurat line
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  2. बहुत सुंदर कविताएं । संजय जी को बधाई और पहलीबार को धन्यवाद कि उसने बराबर युवाओं को आगे लाने का काम किया है !

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