विजेंद्र की कविता पर हुई एक गोष्ठी की रपट




हाल ही में "कवि  विजेंद्र की  कविता और  आज  के समय में  कविता की जरुरत" विषय  पर  लखनऊ  में  एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी की एक रपट हमें भेजी है अशोक चन्द्र ने। प्रस्तुति आशीष सिंह की है। तो आइए पढ़ते हैं इस गोष्ठी  की यह रपट"।



विजेन्द्र  की  सतत अग्रगामी काव्य यात्रा


प्रस्तुति -- आशीष  सिंह


लखनऊ,  23  अगस्त 2015। "बातचीत" के  तत्वावधान  में  आयोजित  विचार  गोष्ठी में  कवि  अशोक  श्रीवास्तव ने वरिष्ठ  जनकवि विजेन्द्र की कविता व जीवन के बहुआयामी पहलुओं पर विस्तार से रोशनी डालते हुए कहा कि  "विजेन्द्र की रचना यात्रा सतत अग्रगामी है। उनमें पुनरावृत्ति नहीं  होती"। मालूम हो  कि अशोक जी  विजेन्द्र  के  कविताओं  को केन्द्र में रख कर "आज का समय और कविता की  जरुरत" विषय पर बीज वक्तव्य रख रहे थे। कार्यक्रम की शुरूआत विजेन्द्र के सक्रिय अस्सीवें जन्म-दिवस  पर  सबने अपने प्रिय कवि को प्रफुल्लित हृदय से बधाइयाँ दी। और  साथ ही कवि संपादक एकांत श्रीवास्तव द्वारा "वागर्थ" पत्रिका के विजेन्द्र के  सम्मान  में  निकाले गये अंक के लिए धन्यवाद  दिया।  






कार्यक्रम  का संचालन  करते  हुए आशीष ने  कवि विजेंद्र  के  जीवन  यात्रा से परिचित कराते हुए कहा कि हमारी साहित्यिक दुनिया  में  बड़े रचनाकारों के प्रति  जिस प्रकार का उपेक्षा भाव रहा  है वही रवैया हम  विजेन्द्र जी के साथ कर रहे हैं। खासकर वे नामावर विश्लेषक जो जनविरोधी, जातिवादी-साम्प्रदायिक शख्सियतों के रोजनामचों का प्रशस्तिवाचन  करने का समय  निकाल लेंगे  लेकिन  जनता की मुक्ति के साथ अपने  रचनाकर्म  में  लगे  सर्जकों  की ओर  इन  जैसे आलोचकों  का ध्यान भूल से भी  नहीं जाता है। क्या यह अनायास है कि शील, निराला, कुमारेंद्र पारसनाथ  सिंह आदि तमाम कृतिकार रहे हैं जिनकी समय  रहते उपेक्षा हुई। यह उपेक्षा उन रचनाकारों की  नहीं बल्कि हिंदी जनता और उसके  वास्तविक जरुरतों की भी उपेक्षा है। विजेन्द्र इन सफेदपोश  यानि  बात जनता  की  करते  हैं व्यवहार ठीक  विपरीत नज़र आता है; ऐसे छदम आलोचकों को  धिक्कारते हैं  जब वे कहते हैं  कि  -


मैं  अंगरक्षकों को पहन कर
जिंदा  नहीं  रह सकता
नहीं  रह  सकता
शत्रु  को  पहचानो
यह  एक  शर्त   है
कविता  सबसे  पहले  यह प्रश् उठाती  है
अब आदमी   की  पहचान  मिट  रही  है
शत्रु  को  पहचानो 
रचना  आँख  है।






इस  प्रकार  विजेन्द्र के कविता कर्म  का मकसद स्पष्ट है। वे जनमुक्ति का पक्ष चुनते हैं। इसीलिए वे मुक्तिकामी जनता के कवि है। कवि अशोक चन्द्र ने  बीज  वक्तव्य में  कहा कि विजेन्द्र के पहले कविता संकलन "त्रास" से ले कर  हाल ही मे प्रकाशित "ढल रहा है दिन" तक देखे तो कुल जमा दो दर्जन पुस्तकें आ चुकी हैं। इन्हें पढ़ने पर हम  पाते हैं कि उनकी रचना अग्रगामी रही है। उनकी कविता में  पुनरावृत्ति नहीं  होती। यह  जनसरोकारो से  जुडे  कवि  की आन्तरिक गठन को  भी  प्रदर्शित  करता है।


अशोक चन्द्र ने  विजेन्द्र की काव्य साधना और चित्रांकन  के  बारे  में  कहा  कि उनका  जीवन  बहुत ही अनुशासित  और सुगठित रहा है। अगर  एक पंक्ति में  कहा  जाय तो  वे well composed personality हैं। समय, प्रबंधन, आदि सबमें  वे व्यवस्थित रहते हैं। उन से मिल कर उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए  बगैर कोई रह नही  सकता। जब वे  बोलते  है मानो ज्ञान का झरना अजस्र प्रवाहित हो  रहा  हो। कवि विजेंद्र 'खिलोगे तो  देखेंगे' के बजाय  खिलते हुए  देखना पसन्द करते हैं। यह उनके  व्यक्तित्व  की आभा ही है कि सुदूर अंचल के युवा उनसे जुड़ना व परामर्श लेना  आवश्यक समझते हैं। वे सदैव लिखने-रचने को प्रेरित करते  हैं।




 

अशोक  जी  ने  सत्तर के दशक  से कविता को  केन्द्र में  रख कर  विजेन्द्र  के  सम्पादन में निकलने  वाली "ओर" और 'कृति ओर' के  बारे  में  बताते  हुए  कहा  कि  उन्होंने रचना  के  उत्खनन का विचार रखा है। प्रकाशन सम्बन्धी तमाम दिक्कतों के बावजूद कभी भी रचना  या  विचार के धरातल पर  समझौता नहीं  किया। वह  आज हमारे वरेण्य जनकवि हैं,  जीवन  के  स्तर पर  भी  व कविता के स्तर पर  भी।


 "जा रहा  हूँ जयपुर  छोड़ कर" कविता   पढते  हुए अशोक  जी  ने  बताया  कि  प्रकृति की मामूली  सी चीजों  के  साध  भी  कवि  का  गहरा अपनापन  दिखता  है। उनकी कविता  में प्रकृति से  एक जैविक संवाद, रिश्ता दिखता  है। "लोक" और  "जन" उनकी  कविता के  बीज शब्द  हैं।


कविता की आयातित आलोचना पद्धति के बहुत बड़े  आलोचक  रहे हैं विजेंद्र। अपनी परंपरा से जुड़ कर वे जीवन को देखने की  दृष्टि विकसित करते रहे हैं। कवियो में निराला  उनके अपने  प्रिय कवि हैं लेकिन काव्यशास्त्र में  वे तुलसी को  अपना आदर्श मानते रहे  हैं। तुलसी की काव्य चिंताओं को ले कर वे  विचार करते रहे  हैं। सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता" नाम से सौंदर्यशास्त्र पर  उनकी एक  बहुत  महत्वपूर्ण  किताब भी आयी  है।  स्थापत्य  को  ले कर  उनकी कवितायें  काफी  सजग  हैं।


वे एक अच्छे  चित्रकार हैं। एक चित्र रोज बनाते हैं। कविता  की रचना प्रक्रिया में  चित्र और चित्र  के  सघन  बिम्बों में  कविता सहायता करती है। "आधी रात के रंग' संग्रह इसका बढ़िया उदाहरण है। इसमें चित्र कविता और अंग्रेजी कविता उच्चतम धरातल पर प्रकट होते हैं। अशोक जी ने  विजेंद्र के  बारे में बताया कि वे डायरी नियमित लिखते हैं वह भी रोजनामचा के तौर पर नहीं बल्कि वे एक प्रश्न उठाते हैं  और उसके विस्तार में जाते हैं। उनके पत्र भी संवाद करते  हैं। वे  लोगो को सक्रिय करते  हैं। एक सुक्तिपरक वाक्य में कहें तो वे लोगो को 'खिलोगे तो देखेंगे की बजाय वे खिलते हुए देखना पसंद  करते हैं।


कवि-कथाकार  राजेन्द्र  वर्मा ने  अपने  वक्तव्य में कहा  कि  विजेन्द्र जी  की  छवि  एक  विद्वान  सर्जक  की  है। लेकिन  उनका लेखन जनभाषा  में है, लोकजीवन उसमें   मौजूद है, जीवन का  ठाठ है। उनकी काव्य  भाषा और छन्द में जीवन  का गठन है। स्थानीय शब्दों  से युक्त काव्य भाषा हमें  जनता के पास ले जाती है। यही उनकी कविता की ताकत है।          






संवेदन पत्रिका  के  संपादक  और  युवा कवि  राहुल  देव   ने  विजेन्द्र  की  कविता  और  चित्रकारी   के  बीच गहरा  रिश्ता चिन्हित किया। उन्होंने कहा कि विजेंद्र एक  चित्रकार कवि हैं।  उनकी  कविता  में एक  चित्रकार की आत्मा समाई हुई है। उनकी कविताओं का परिवेश लोकनिसृत है,  अनकेकानेक तहों  के साथ। वहाँ रंगो का बहुरंगी संसार है जीवंत-जाग्रत। जो उनकी सूक्ष्म  बनावट में  विन्यस्त है। वह  प्रगतिशील चेतना में निराला, नागार्जुन, केदार और त्रिलोचन की  परम्परा  के कवि  हैं । विचारधारा  के स्तर  पर विजेन्द्र की कविता काफ़ी प्रभावी है। उनका  समग्र व्यक्तित्व हमें प्रभावित करता है। उनके रचनात्मक  व्यक्तित्व और  जीवन  में काफ़ी  साम्य है।


कथाकार  प्रताप  दीक्षित  ने  कहा  कि  कविता   मनुष्य   की  आदिम  रागात्मक  वृति   की  समानान्तर   यात्रा है। उन्होंने आगे  अपनी   बात   को  विस्तार   देते  हुए  कहा  कि कोई  रचना अपने समय और समाज की  समसामयिक  गतिविधियों  से  असंपृक्त होकर  कालजयी  नहीं  हो  सकती।  इस  परिप्रेक्ष्य    में  विजेन्द्र  की  कवितायें  एक  ओर  समय  और  परिवेश   से  साक्षात्कार   कराती हैं  दूसरी  ओर  उनमें  अन्तरमन  की  वह  बेचैनी  है  जिसके  बिना  कविता का  सृजन   दुष्कर  है।


कवि  अनिल श्रीवास्तव ने  कवि  की  विश्व दृष्टि और  अपने  परिवेश  से  गहरा परिचय  इन  दो महत्वपूर्ण आधारों को  केन्द्र में रख कर  विजेन्द्र  की कविता  को  परखने  की बात  कही। उन्होंने विजेन्द्र के एक वक्तव्य के मार्फत अपनी भावना  प्रकट  करते हुए  कहा  कि  "कवि  इस  दुनिया  को  अपनी  इन्द्रियों  से अनुभव  करके  ही  उसे  मानवीय  बनाता है जिसे वे कविता में रुपान्तरित करते हैं। श्रेष्ठ कविता मानवीय गुणों से  परिपूर्ण होती  है। उसकी नसों  में  क्रांति  का  जैसे  रक्त  प्रवाहित होता  है।"

कथाकार भानु श्रीवासतव ने  'कृति ओर' पत्रिका  की  काव्य कर्म  को  ले कर  समर्पण को  बड़े  महत्व  का  काम  माना।  उनके  मुताबिक  इस   बर्बर  समय  में  हमें कविता ही  बचायेगी।


प्रसिद्ध  कथाकार अवधेश  श्रीवास्तव ने  कहा  कि  विजेन्द्र  प्रभुलोक के  बरक्स  लोकधर्मी  कवि हैं। उनकी  कविता  में  प्रभुलोक' से सदा  द्वन्द चलता रहता  है। पूंजी व्यक्तिवादी  और  स्वार्थी बनाती  है।  समस्त  उत्पीड़ित जन के  साथ ही  स्त्री की  मुक्ति  निहित है।


साहित्यकार  श्री  बन्धु  कुशावर्ती  ने  विजेन्द्र  के  काव्य  नाटक   क्रौंच वध  को  "अंधा  युग"  व "उर्वशी " से  आगे  की  कडी   का  नाटक बताया।  इसी क्रम में उन्होंने कहा कि दुर्भाग्यवश  इस  पर  ठीक से  ध्यान नहीं दिया गया। हमारा लेखन  क्या इतना  जीवंत है कि  इस बर्बर समाज  में  लोगो को  बांध  पाता।  लोकधर्मिता  वहाँ  तक  ले  जाती है जहाँ  तक साहित्य  बचा  रहता  है। विजेन्द्र  जी के लेखन  में जो जीवन्तता आती है वह  उन्हें लोकधर्मी बनाती  है। और संवाद की  स्थिति बनाती  है।






युवा   कथाकार  दीपक   श्रीवास्तव ने  वर्तमान   दौर   मे  उनकी   महत्ता  को  चिन्हांकित   किया।  उनके   मुताबिक  विजेन्द  को   उनका  अवदान  नहीं   मिला।  साथ  ही  दीपक ने   विजेन्द्र के   बिम्बो, प्रतीकों  को  लेकर  बात  करते हुए  उनको   समझने  के  लिए  किन  काव्य  उपकरणों  का प्रयोग  किया   जाय  इस  पर  विचार की  जरुरत है।  गांव बदल  रहे  हैं ऐसे   में  बदलते  संवेदन स्रोतों व  दैनंदिन  क्रिया-व्यापार के  बरक्स  पुरानी  भाषा  और  उन  अनुभवों  से  दूर  इन्हें  किन  अहसास  के  धरातल  पर  महसूस  पायेंगे  यह  भी  एक सोचने का बिंदु  हो सकता  है। ऐसे  में  पुरानी  भाषा  छूट चुके  जीवन  व्यवहार  के  अनुभव  के  अभाव  में  ये  कवितायें  नयी   पीढ़ी  को कैसे  सम्बोधित  कर  पायेंगी।  क्या  ये  नई  पीढ़ी  को  अहसास  के धरातल  पर   दुर्बोध  व असम्मप्रेषणीय  नहीं   हो  जायेंगी।
   
वरिष्ठ  कथाकार -आलोचक  दामोदर  दीक्षित  ने  कवि  विजेंद्र  के  बारे  बात  करते  हुए  कहा   कि विजेंद्र  ने अंग्रेज़ी  के विद्वान  होने  बावजूद  अपने लेखन का माध्यम  अपने  परिवेश , प्रकृति के  बिंब  को पूरी शिद्दत   से  प्रकट करने वाली  अपनी  मातृभाषा  को  चुना। उसी में अपने "संवेदनात्मक ज्ञान  और  ज्ञानात्मक  संवेदना" को  शब्दचित्रों  में व्यक्त   किया।  यह   कवि की सृजनात्मकता  का मूल उत्स  है। यह अपनी भाषा व  जन  से गहरे  तौर  पर  जुड़ा  है।  अभिजात्य  लेखन  से दूर  लड़ती -जूझती  जन की अभिलाषाओं  - उम्मीदों  के कवि  है विजेन्द्र। हर मायने में दु: खी   शोषित   जनता  के  पक्षधर  कवि  हैं। उन्होंने प्रकृति से जुडी ; जनसामान्य   से  जुड़ी कवितायें लिखी।  विचार का बिन्दु  यह  है  कि  क्यों   गांव खतम   होते  जा  रहे  है।  क्यों   लेखकगण जनसाधारण तक की  भाषा  परिवेश   या  उस  तक   पहुंच  कम   होती  जा  रही  है।  विजेन्द्र की  कविता  में जनसामान्य  की ज़िन्दगी की  विविध  प्रकार  की  सच्चाईयां   देखने  को मिलती  हैं। जनसाधारण ही  प्रकृति  को ज्यादा   झेलता  है।  विजेन्द्र  की  कविता की  प्रकृति   से  सचेतन  साह्चर्य  उनकी कविता  की  शक्ति   को  द्विगुणित  कर  देती  है। परिवेश   के अनुरूप   भाषा  का  स्वरुप   बदलता  रहता  है।


सामाजिक  कार्यकर्ता कौशल किशोर  ने  आज  के  बर्बर   समय  पर टिप्पणी करते  हुए  कहा  कि  यह  तंत्र  मानवता को  कुचल  कर  रख  देना  चाहता  है।  भूमि  अधिग्रहण  कानून लोगों की अस्मिता को तबाह  बर्बाद  करके मुट्ठी भर  जमात  की  हितू  बनी   हुई   है।  इस समय  बदलाव  की  शक्तियां ही बर्बर   समय  के  खिलाफ   लड़    सकती  हैं।  मानवीय   मूल्य  की  लड़ाई   में साहित्य  को  भी खड़ा होना होगा।  विजेंद्र की  कविता श्रेष्ठ   मानव  मूल्य की स्थापना में  सहायक जनपक्ष के कवि की कवितायें  हैं ।


विजेंद्र की कविता  के विविध पहलू को अपनी दृष्टि से  साझा करते हुए साहित्य प्रेमी धनंजय व  उग्रनाथ  नागरिक   आदि  ने  भी   अपने  विचार रखे।  कार्यक्रम   की अध्यक्षता "निष्कर्ष' पत्रिका के संपादक व  सामाजिक वरिष्ठ  कथाकार गिरीश चन्द्र श्रीवासतव ने किया। अपने  अध्यक्षीय  वक्तव्य  में गिरीश जी ने  कवि  विजेंद्र के साथ  के  पुराने  अनुभवों  को  साझा किया।  उन्होंने ने  कहा कि  विजेंद्र  अनुभव  को  वरीयता देते हैं।  उनका मानना  है कि  अनुभव हमारे दिमाग़ पर  असर  डालत हैं। विचारधारा उनकी कविता में  अनुस्यूत मिलती  है।  रचना अपनी भाषा खुद  ले कर आती  है।  यह  सीख  हमें  प्रेमचंद और विजेंद्र  से सीखने  की  जरुरत  है। इस  समय  कविता लिखना बहुत जरूरी है। क्योंकि   पूंजीवादी  तंत्र  झूठ  को  सच  बना कर  सप्लाई  करता है और  साहित्य ऐसे झूठ का पर्दाफ़ाश करता है वह  प्रतिरोध करता है। इसीलिए  शासक साहित्य से  डरते हैं। वे  लोगो  की स्मृति को ध्वंस करते  हैं, संवेदनाओं को भोंथरा करने की  कोशिश में  लगे है जिसे लोग प्रतिरोध न  कर  सकें। अतैव,  संवेदनाओ को बचाना होगा।  जब संवेदनाओं  को  बचायेंगें  तभी कविता   बचेगी।  कवि  मनुष्यता  की  बात  करता  है। आज रचना  में मौजूद छद्म  के  खिलाफ  लिखना जरूरी   है।  जहाँ  छद्म  होगा  वहाँ  अच्छी  रचना  नहीं   रह  सकती  है।  विजेन्द्र  ने  अपनी  कविताओं  के  माध्यम   से  छद्म  को  नकारा  और जनमुक्ति  के  सपने  को  दिखा एक कार्यक्रम में विजेंद्र की कवितायें 'कविता  के प्रश्न'  "रेलवे   पोस्टर" व  'छोड़ आया  हूं जयपुर' आदि  का  पाठ व  उन परिचर्चा  की गयी। विजेंद्र  केन्द्रित इस कार्यक्रम   में  विजेन्द्र की कविता के  पोस्टर व विजेंद्र केन्द्रित "वागर्थ" पत्रिका  व" कृतिओर"  की प्रदर्शनी  भी  लगाई  गई।                

                                                         

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही अच्छी और सारगर्भित रपट! विजेंद्र जी पर गोष्ठी में हुई बातचीत का रेशा-रेशा सामने आया है. आयोजकों एवं प्रस्तुतकर्ता को बधाई!

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  2. बहुत ही अच्छी और सारगर्भित रपट! विजेंद्र जी पर गोष्ठी में हुई बातचीत का रेशा-रेशा सामने आया है. आयोजकों एवं प्रस्तुतकर्ता को बधाई!

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