संदीप मील की कहानी 'बाकी मसले'
संदीप मील |
जिस राजनीति का काम जनता की सेवा करना था वह राजनीति जनता को मूर्ख बना कर अपना स्वार्थ साधने का काम करने लगी। जनता का ध्यान बंटाने के लिए ही हमारे राजनीतिज्ञ सीमा पार के खतरे की बात प्रायः ही किया करते हैं। सीमा पर हम दोनों मुल्कों के सैकड़ों सैनिक प्रति वर्ष केवल ठण्ड और प्रतिकूल मौसम की वजह से मर जाते हैं। हकीकत तो यही है कि युद्ध का वितंडा हमारे इन राजनीतिज्ञों ने ही खड़ा कर रखा है। दोनों देशों की जनता और सैनिक वस्तुतः शांति चाहते हैं लेकिन राजनीति की वजह से वे युद्ध के भय और माहौल में जीने के लिए जैसे अभिशप्त हैं। पाकिस्तान विरोध की घुट्टी हमें शुरू से ही पिलाई जाने लगती है। ठीक वैसे ही जैसे भारत के खिलाफ पाकिस्तानी मानस में शुरू से ही नफरत का जहर भरने का काम किया जाता है। कहानीकार संदीप मिल ने अपनी कहानी 'बाकी मसले' के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया है कि सीमा पर तैनात सैनिकों के अन्दर भी संवेदनाएँ हैं और मूलतः वे भी शान्ति के ही समर्थक हैं। कहानी की अन्तिम पंक्तियाँ तो जैसे एकबारगी सब कुछ स्पष्ट कर देती हैं जब हवलदार मान सिंह
दहाड़ते हुए रणजीत सिंह से कहता है - ‘‘तुम भी गोली चलाओ।’’ तब अपने सूखे गले और
कांपते होठों ने रणजीत सिंह बस इतना ही कहता है - ‘‘हवलदार साब, बंदूक की नोक पर
सरहदों के मसले हल नहीं होते।’’ तो आइए पढ़ते हैं संदीप मील की कहानी 'बाकी मसले'
बाकी मसले
संदीप मील
हवाओं के झोंके उधर से इधर आते और चंद पलों में ही धोरों की
शक्लें बदल जाती। न जाने विभाजन के बाद कितने रेत के कण, परिंदे, इंसानी जज्बात और दुआएं सरहद को बेमानी करती हुई उधर से इधर
और इधर से उधर आती-जाती रही हैं और सियासी रंजिशों को अंगुठा दिखाती रही हैं। ऐसे
में अफसोस यही है कि दोनों मुल्कों की हुकूमतें छाती ठोंककर दावा करती हैं कि उनकी
मर्जी के बिना पता भी नहीं हिल सकता है। हुकूमतें जाने अपने दावे रणजीत सिंह को तो
यह भी पता नहीं था कि यह पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के बीच लफड़ा क्या है?
क्रिकेट मैच के दौरान जिक्र आता कि पाकिस्तान नाम के मुल्क
को हराना हिंदुस्तान की नाक का सवाल है और भला वह नाक भी किसने देखी थी। शायद ‘नाक’ मुल्कों के जिस्म
के किसी गुप्त हिस्से में होती है, अतः वह हुक्मरानों
को ही दिखती है, अवाम को नहीं। वैसे भी अवाम मुल्क की नाक
से नहीं अपनी नाक से सांस ले रहा था जिसे हुक्म के हथौड़ों से चपटा किया जा रहा था।
बहरहाल, क्रिकेट मैच के
दौरान रणजीत सिंह के गांव में जिनके घरों में टीवी थे, वहां देखने वालों
का मजमा लग जाता। इत्फाक से बिजली गुल हो जाती तो देखने वाले बिजली विभाग की
मां-बहन करते हुए तुरंत रेडियो के पास मोर्चा संभाल लेते। हर कोई अपने-अपने ढ़ंग से
पाकिस्तान के हारने की भविष्यवाणी करता। फिर हिन्दुस्तान जिंदाबाद से शुरू हुए
नारे वाया पाकिस्तान मुर्दाबाद होते हुए मुसलमान मुर्दाबाद पहुंच जाते।
बस, वह पाकिस्तान को
इतना ही जानता था।
हिंदुस्तान दुनिया के किसी भी देश की नौसीखिया टीम से
क्रिकेट मैच की हार बर्दास्त कर सकता है पर पाकिस्तान से नहीं। शायद उधर भी यही
हाल हो।
गजसिंहपुर से दस-पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर कांटों की सरहद
थी जो जमीं को बांटती थी दिलों को नहीं। उसी कांटों की सरहद से सौ फिट आगे जमीं के
सीने पर खंजर की तरह भौंके हुए जीरो लाइन बयां करने वाले पत्थर थे। उससे उतनी ही
दूरी पर पाकिस्तानी निगरानी टावर थे और वैसे ही टावर इधर भी खड़े थे। बस, इधर टावर और बाड़ के बीच एक सड़क थी। सड़क के किनारे भारी भरकम
सर्च लाईटें जो रात के अंधरे को दिन जैसे उजाले में तब्दील कर देती। दोनों तरफ बने
इन टावरों पर बैठकर सैनिक एक-दूसरे की हरकतों पर नजर रखते हैं। दोनों ओर के टावरों
के बीच की दूरी इतनी थी कि संवाद नामुमकिन-सा था।
उस सरहद पर कुछ सुनता था तो-
‘‘हिंदुस्तान जिंदाबाद, पाकिस्तान मुर्दाबाद।’’
‘‘पाकिस्तान जिंदाबाद, हिंदुस्तान मुर्दाबाद।’’
रणजीत सिंह जिंदाबाद-मुर्दाबाद की वजह जाने बगैर नारों को
गगन की बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए ऐडी-चोटी एक कर देता।
उसे मोर्चे पर आये हुए तीन महीने हुए हैं। एक सीधा-साधा
नौजवान था जिसे प्रशिक्षण के दौर से ही नफरत के जहर के इंजेक्शनों से पोरा गया मगर
शुक्र है कि वह अभी तक फटने वाला बम नहीं बना था।
रात की ड्यूटी के दौरान कभी-कभार तीसरे पहर उसका ठंडा पड़ा
हुआ प्रेम शीत लहर से गर्म मिजाज हो जाता। चुनांचे वह किसी हिंदी फिल्म का गीत
गाना शुरू कर देता। मगरमच्छ की तरह लेटे हुए रेगिस्तान में हवा की सन्नसनाहट साज
का काम कर जाती। गला ठीक होने की वजह से गीत के बोल धोरों में गूंजते कि हवलदार
मानसिंह दहाड़ उठता-
‘‘ऐ छोरे, बड़ा भूरसिंह बण
गया है रे तू।’’
हवलदार की आवाज सुनकर रणजीत सिंह रुक जाता और सोचता कि यह
भूरसिंह कौन था? उसके जहन में ऐसा कोई नाम व चेहरा न होने
की वजह से एक दिन पूछ ही लिया-
‘‘हवलदार साब, यह भूरसिंह कौन था?’’
मानसिंह जो एक खेजड़ी के सहारे पीठ टिकाए आराम कर रहा था, खिलखिलाकर हंसते हुए बोला-
‘‘तेरे जैसा गायक था, मेरे ही गांव का। तेरी तरह पौं-पौं करके मर गया।’’
यह व्यंग्य सुनकर रणजीत सिंह के खून की गर्मी बढ़ गई और वह
तमतमा कर बोला-
‘‘मेरे गाने से आपको क्या तकलीफ?’’
‘‘तेरी.........। हिंदुस्तानी गाणें पाकिस्तानियों
को नहीं सुणाये जाते।’’ हवलदार खड़ा हो
गया।
रणजीत सिंह को इस बाबत ज्यादा जानकारी नहीं थी, अतः शांत होकर पूछा-
‘‘तो फिर उन्हें क्या सुनायें?’’
हवलदार ने ऊंची
आवाज में कहा-
‘‘पाकिस्तान की मां...........।’’
‘‘हिंदुस्तान की बहन...........।’’ जवाब देने के लिए उधर जैसे कोई तैयार ही बैठा हो।
फिर काफी देर तक हिंदुस्तान-पाकिस्तान की मां-बहनों को
मोटी-मोटी गालियां दी गई। यह सुनने के बाद पता नहीं क्यों उसका दिल उचट गया और वह
चुपचाप टावर पर बैठा सीमा ताकता रहा। उसे समझ में नहीं आया कि दोनों मुल्कों की
मां-बहनों ने सीमा का क्या बिगाड़ा है?
लेकिन धीरे-धीरे यह बात थोड़ी बहुत उसके समझ में आने लगी, जब सुबह से लेकर शाम तक उसकी टुकड़ी बेखौफ हिंदुस्तानी औरतों
को भी गालियां देती। उसने तय कर लिया कि औरत का कोई मुल्क नहीं होता, उसे हिंदुस्तानी भी गाली देते हैं और पाकिस्तानी भी। वे
सुबह मुंह भी गालियों से धोते हैं और रात का बिस्तर भी गालियां। जब कोई बड़ा अफसर
टुकड़ी को संभाल कर जाता तो मुश्किल से दस कदम दूर पहुंचता कि सिपाही उसे दो-चार
मोटी-मोटी गालियां दे मारते। अगर कान सही हैं तो यह उसे भी सुन जाती पर वह मुड़ कर
नहीं देखता। इस प्रकार ये सेना के अलिखित नियमों में शुमार हो गईं हैं।
जून का महीना था। कानों पर पड़ते ‘लू’ के थपेड़े जैसे कि पाकिस्तानी सैनिक लबलबियों में कारतूसों
की जगह ‘लू’ का इस्तेमाल करते
हों। टावर पर बैठ कर दुरबीन से सरहद निहारना रणजीत सिंह का रोज का काम था। लौहे से
बने हुए टावर पर तीन ही चीजें आमतौर पर देखी जाती- भूरे रंग का रेडियो, पानी की बोतल और खुद रणजीत सिंह। लबलबी और दुरबीन की पहचान
रणजीत सिंह से ही जुड़ी हुई थी।
वैसे तो हवलदार मानसिंह सरहद से जुड़े हजारों किस्से सुनाता
था जिनके सिर-पैर खोजने निकल जाओ तो उम्र बसर हो जायेगी। ऐसी कोई जिंदा या मुर्दा
चीज नहीं थी जो सरहद दिखे और हवलदार साहब उस पर कोई किस्सा न जड़ दें। हवलदार का
किस्सा सुनाने का अंदाज भी था- एकदम सांप के बदन जैसा चिकना।
रेडियों के बारे में उनका वह मशहूर किस्सा तो आपने सुना ही
होगा-
एक बार गांव में एक फौजी रेड़ियो ले कर आया। सारा गांव उसे
देखने आया। बहुत गजब का गाता था। फौजी सुबह घर से बाहर गया हुआ था कि उसके पिताजी
ने रेड़ियो ऑन किया लेकिन रेडियो बजा नहीं। काफी मिन्नत-खुशामद करने के बाद भी नहीं
बजा तो उन्हें गुस्सा आ गया और जोर से रेड़ियो को जमीन पर दे मारा। रेड़ियो टूट कर
बिखर गया और उसमें से एक मरी हुई चुहिया निकली। फौजी के पिताजी ने घर वालों को
समझाया-
‘‘जब गायक ही मर गया तो गीत कौन गाता।’’
जो भी हो, हवलदार साहब के
किस्सों से टाइम पास जरूर हो जाता।
रणजीत सिंह के सामने वाले टावर पर एक नौजवान आया था। उसका
हमउम्र, काली दाड़ी और बड़ी-बड़ी आंखें। शायद उसका आज पहला ही दिन था।
ज्यों ही दोनों की दुरबीन एक-दूसरे के चेहरे पर पड़ी तो उनकी आंखें अंगारे बरसा रही
थी। वे एक-दूसरे को कच्चा चबा देना चाहते थे लेकिन दूरी इतनी थी कि यह काम मुमकिन
नहीं था। मन ही मन में गालियां देकर रह गये। शाम तक यही हाल रहा। तंग आकर रणजीत
सिंह ने रेड़ियो ऑन किया। यह वही रेड़ियो था जिसका जिक्र आते ही हवलदार साहब उस फौजी
वाला किस्सा जड़ देते थे।
रेड़ियो पर समाचार आ रहे थे-
‘‘भारत ने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि अगर
वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आया तो करारा जवाब मिलेगा।’’
‘‘आज भारत ने मिसाइल ‘विनाश 405’ का सफल परिक्षण कर
दक्षिण एशिया में ठोस दबदबा बना लिया है।’’
‘‘हट! साला कोई हिंदी फिल्म का गाना ही लगा
देते, समाचारों से तो ठीक ही था। मन हल्का हो जाता पर यहां तो
गोला-बारुद के अलावा कुछ नजर नहीं आता।’’
‘‘छोरे, फौजी होकर
गोले-बारुद से डरता है। तेरी उम्र में हम तो आग से खेल जाते थे।’’
‘‘सुना है हवलदार साब आप तो हमेशा ऐसे ही
थे, क्या आप कभी जवान भी थे?’’
यह सुनकर हवलदार साहब को गुस्सा आ गया और उन्होंने एक पत्थर
पाकिस्तान की तरफ इस अंदाज में फैंका जैसे बम दाग रहे हों। वे कोई किस्सा सुनाना
चाहते थे पर अब गाली पाठ शुरु कर दिया। रणजीत सिंह उनका स्वभाव जानता था, कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
दूसरे दिन भी उधर वही नौजवान था। वैसे ही दोनों में तकरारें
हुई और फिर रणजीत सिंह ने रेड़ियो ऑन किया। अंग्रेजी में समाचार आ रहे थे।
‘‘मादर........। या तो गोला-बारुद देंगे या
अंग्रेजी में समाचार। गधों को समझ नहीं आता कि सीमा पर तुम्हारा बाप अंग्रेजी
जानता है।’’
हवलदार साहब टुटी-फुटी अंग्रेजी में बड़बड़ा कर जताने की कोशिश
की कि वह अंग्रेजी जानता है पर रणजीत सिंह ने जब इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया तो
मजबूरन उसे चुप होना पड़ा।
उस तरफ का सैनिक भी रेड़ियो ऑन करके झलाना शुरु कर देता, शायद उसका भी वही हाल हो।
एक दिन दोनों सैनिकों ने उकताकर कुछ मजाक करने के लहजे में
इशारे किए। रणजीत सिंह ने हाथ ऐसे हिलाया जैसे कि पाकिस्तान पर हमला बोल देगा, सामने वाले ने भी हिंदुस्तान को तबाह करने के अंदाज में
जवाब दिया। वे कई दिनों तक ऐसी ही उट-पटांग हरकतें करते रहे, लेकिन हाथों के इशारों की भी अपनी सीमाएं होती हैं। अतः में
एक दिन तंग आकर रणजीत सिंह एक चॉक का टुकड़ा ले आया और टावर की लौहे की दिवार पर
कुछ देशी गालियां लिख डाली। सामने वाला सैनिक गालियां समझ गया क्योंकि विभाजन के
वक्त गालियां नहीं बांटी गई थी क्योंकि हुकूमतों के पास ये पर्याप्त मात्रा में थी
और इन्हें इजाद करने वाली सामाजिक मानसिकता भी थी। सामने वाले ने भी उससे ढाई सेर
भारी गाली लिख डाली। यह सिलसिला चलता रहा और उन्हें पता भी नहीं चला कि वे कब
गालियों से हटकर अपनी-अपनी दुनिया की बातें करने लगे।
सुबह आते ही दोनों की दुरबीनें एक-दूसरे के टावरों पर टिक
जाती। एक दिन रणजीत सिंह को हवलदार साहब ने देख लिया। फिर क्या था, उन्होंने एक किस्सा सुना मारा जिसका लब्बोलुबाब यह था कि
दुश्मन से दोस्ती और तलवार से शादी कभी भी गला कटा सकती है।
मगर आप तो जानते ही हैं कि रणजीत सिंह हवलदार साहब के
किस्सों को क्या तव्वजो देता था।
आफाक नाम था उस तरफ के टावर वाले सैनिक का। यह बात भी रणजीत
सिंह को चॉक ने ही बताई। जब पहली बार उसने यह नाम सुना तो इतना अच्छा लगा कि अपने
होने वाले बच्चे का यही नाम रखने का इरादा बना लिया। लेकिन समस्या यह थी कि नाम
मुस्लिम था और हिंदुस्तान में मुसलमानों की हालत से वह वाकिफ भी था। अतः भविष्य की
समस्याओं को ध्यान में रखकर उसने समाधान निकाला कि बच्चे को घर में ‘आफाक’ कहा जायेगा और
बाहर का कोई अन्य नाम होगा।
उन दोनों के बीच होने वाले इस वार्तालाप की भनक दोनों
हुकूमतों को नहीं थी वरना कम से कम दो आयोग तो बैठा ही दिये जाते और मुमकिन है कि
सैनिकों के साथ चॉक को भी कुछ न कुछ सजा मिलती। इन वार्तालापों के माध्यम से वे
एक-दूसरे की कई चीजों के बारे में जानने लगे, मसलन खाने-पीने से
लेकर फिल्मी गीतों तक। एक बात का अंश कुछ इस प्रकार है-
‘‘यार, आज बहुत खुश नजर आ
रहे हो ?’’
‘‘जनाब, खबर ही ऐसी है’’
‘‘तो अब खबर सुनने के लिए रेडियो ऑन करुं
क्या, बता दो ना ?’’
‘‘मेरी आपा का निकाह तय हो गया है।’’
‘‘ओये, फातू की शादी है
और हमको बुला भी नहीं रहे हो।’’
‘‘यार तू भी कैसी बातें करता है, भला दोस्तों को भी दावत की जरूरत होती है। तेरी निकाह में
हम 20 दिन पहले बिन बुलाए टपक जायेंगे।’’
इतने में दोनों की नजरें कांटों की बाड़ पर पड़ी और दुरबीन
टावरों से हट गई।
रणजीत सिंह के दिमाग में यही घूम रहा था- फातू, शादी, दावत, कांटों की बाड़, सरहद...............।
रात भर वह नींद को आंखों से हजारों कोस दूर पाया। अगले दिन आते ही उसने टावर पर
अपनी पूरी कल्पना और यथार्थ को मिला कर एक फूल बनाया। जब आफाक ने फूल देखा तो
पूछा-
‘‘ भाईजान, इस उजड़े हुए चमन
में यह गुल किसके वास्ते खिला है?’’
‘‘यार, गिफ्ट है।’’
‘‘तो फिर यह तोहफा किसके लिए?’’
‘‘आपकी बहन की शादी है ना, मेरी तरफ से उन्हें दे देना।’’
इस बात पर आफाक का गला भर आया। टावर पर रोमन में ‘शुक्रिया’ लिखते वक्त उसके
हाथ कांप रहे थे।
कई दिनों से मोर्चे पर हलचल नहीं हो रही थी। आफाक बहन की
शादी में गया हुआ था, उसकी जगह किसी
काले-से सिपाही ने ले ली। रणजीत सिंह मायूस रहने लगा।
अचानक पता नहीं क्या हुआ कि जंग छिड़ गई। छुट्टी पर गये हुए
सैनिकों को वापस बुला लिया गया। आफाक भी आ गया। चिड़ियों की चहचाहट की जगह तोपों के
धमाके सुनाई दे रहे थे। सैनिकों में दुश्मिनी परवान पर थी।
रणजीत सिंह कुछ समझ नहीं पा रहा था कि गोली चलाने का हुक्म
दे दिया गया। गोलियों की गड़गड़ाहट से आसमान गूंजने लगा। गोलियां कहीं रेत में तो
कहीं सैनिकों के जिस्म में घुस रही थीं। रणजीत सिंह और आफाक आमने-सामने थे। टावरों
पर चॉक से लिखी हुई वे तमाम इबारतें इनकी स्मृतियों में रील की तरह चल रही थी। बीच
में रेड़ियो के समाचार और आपसी रंजिश के दृश्य भी आ रहे थे।
‘‘तुम भी गोली चलाओ।’’ हवलदार मानसिंह दहाड़ा।
रणजीत सिंह के हाथ बर्फ हो चुके थे। उसकेे सूखे हुए गले और
कांपते हुए होठों ने बस इतना ही कहा-
‘‘हवलदार साब, बंदूक की नोक पर
सरहदों के मसले हल नहीं होते।’’
सम्पर्क-
संदीप मील
संदीप मील
गाँव- पोसाणी ए वाया- कूदन
जिला . सीकर, राजस्थान
पिन नंबर - 332031
मोबाईल- 9636036561
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
बहलीबार ब्लोग का शुक्रिया कि उन्होंने कहानी के साथ जनवादी कवि विजेन्द्र जी की पेंटिंग लगाई....
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