पूनम तिवारी की कहानी 'उम्मीद की छांव'
नाम - पूनम तिवारी
प्रकाशन- वक्त का तकाजा (उपन्यास), निभाई वफा से (उपन्यास), खुशबू हरसिंगार की (उपन्यास),
रिश्तों की नदी (कहानी संग्रह), कभी मोम कभी बर्फ सी पिघलती है जिन्दगी (कहानी संग्रह)
पत्र-पत्रिकाओं में कहानी और कविताएँ एवं ज्वलन्त विषयों पर लेख प्रकाशित।
दूरदर्शन, आकाशवाणी, ज्ञानवाणी से वार्ता, कहानी, कविता एवं ड्रामा प्रसारित.
सम्प्रति - स्वतन्त्र लेखन एवं सामाजिक कार्य।
आधुनिकता की दौड़ में आज सब कुछ बदल चुका है। जिनसे हम कभी उम्मीदें पालते थे अब वे अपने स्वार्थवश विध्वंसक की भूमिका में दिखायी पड़ते हैं। समाजशास्त्री इसकी पड़ताल करते हुए इसका कारण अभाव में खोजने की कोशिश करते हैं। एक बांग्ला कहावत भी है कि 'अभाव स्वभाव बदल देता है।' लेकिन साहित्यकार इसी मायने में तो अलग होता है कि वह संवेदनाओं के तंतु से समस्याओं की तह में उतरने का प्रयास करता है और उसकी तहकीकात करने की कोशिश करता है। पूनम तिवारी अपनी इस नयी कहानी 'उम्मीद की छाँव' में इस उम्मीद की खोज करती दिखाई पड़ती हैं जो मूलतः मानवता के लिए सबसे जरुरी कारक भी है। तो आइए पढ़ते हैं पूनम की कहानी 'उम्मीद की छाँव'।
उम्मीद की छाँव
पूनम तिवारी
हाथ में पकड़ी डिग्रियों की
फाइल, जिसे
सुबह से थामे-थामे हाथ अकड़ चुके थे अचानक ही रद्दी लगने लगी। जी चाहा कि सामने
पान की दुकान से माचिस मांग कर डिग्रियाँ स्वाहा कर उसकी राख से अपने चेहरे पर
कालिख पोत कर स्वयं भी स्वाहा हो जाऊँ लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं किया और न ही कर सकता
था क्योंकि मैं कायर नहीं हूँ। बस चलता जा रहा था।
घर पहुँचने का ध्यान आते ही
कदम डगमगाने लगे, माथे पर
पसीना और सांसें कुछ ऐसे चलने लगीं मानों मैं अपनी सामान्य गति में नहीं बल्कि
तीव्र गति में दौड़ कर आ रहा हूँ। पिता की घूरती आँखें और माँ की मासूम उम्मीद, बहन की
आँखों में विवाह के पलते सपनों का ख्याल आते ही मेरे अन्दर का डर मुझसे सवाल करने
लगा कि जा तो रहे हो घर,
कैसे नजरें मिलाओगे घर वालों से? अपने डर
को ज्यादा सिर नहीं चढ़़ाना चाहता। डर लगातार मुझ पर हावी होने की कोशिश कर रहा
था।
मैं जानता हूँ मेरी जिन्दगी
कीमती है। मेरे बूढे़ माँ-बाप मेरी बाट जोह रहे हैं। मैं कमजोर नहीं। मैं हालात से
लड़ना जानता हूँ। रात के बाद सुबह अवश्य होती है। मैंने पैण्ट की जेब से रूमाल
निकाला। माथे पर झिलमिला आयीं पसीने की बूँदों को पोछा। अपने को समझाने के लिए
हमेशा एक वाक्य बोलता हूँ ईश्वर बड़ा दयालु है, सबकी
सुनता है, एक दिन
मेरी भी सुनेगा। सांसों की गति भी सामान्य हो गयी। कदम स्वतः ही तेज हो गये।
भूख के कारण पेट में चूहे
कबड्डी खेल रहे थे। जानता हूँ घर पहुँचते ही चूहे भी हारे हुए खिलाड़ी की भाँति एक
किनारे दुबक जायेंगे। यार ये हलवाई की दुकान भी हर दूसरे नुक्कड़ पर सजी हुई दिख
जाती और यहाँ की खुशबू पैरों में ब्रेक लगा देती है। गर्मागर्म समोसे और
गुलाबजामुन देख कर एकाएक हाथ जेबें टटोलने लगा। जानते हुए भी कि सूखाग्रस्त शहर की
हालत जैसा मेरी पाकेट का भी हाल रहता है।
मैं सोचने लगा यार ये कागज
भी क्या कमाल की चीज है। जिस पर लिखा-पढ़ा विद्या हो जाता है। और बापू की तस्वीर
समेत रंग-बिरंगे कागज के टुकड़े लक्ष्मी का रूप ले लेते हैं और जिन पर ये लक्ष्मी
मेहरबान मानो दुनिया की सारी खुशियाँ मेहरबान। सच, कितने
फीके लगते हैं अपने आस-पास बिखरे सारे रंग, आसमान का इन्द्रधनुष भी रंगहीन लगता है। काश
लक्ष्मी का अविष्कार न हुआ होता कितना अच्छा होता। धन के आधार पर व्यक्ति के छोटे-बडे़
होने का पैमाना तो न होता।
शुरुआती दिनों में जब नौकरी
के लिए निकलता था तो घर का माहौल और घरवालों के चेहरे की खुशियाँ देखते ही बनती
थीं। पिताजी अपनी मोटर-साइकिल मेरे वास्ते छोड़ कर स्वयं रिक्शे से चले जाया करते
थे। माँ दही-पेड़ा खिलाना कभी नहीं भूलती थीं। गृह खर्च से बचाये सौ-पचास रुपया यह
कह कर पकड़ातीं।
“रख ले बेटा, यदि घर आने में देर हो जाये तो बाहर ही कुछ खा
लेना।” धीरे-धीरे
इण्टरव्यू का वह जोश, उत्साह
शिथिल पड़ने लगा। घर वालों की शुरुआती बेसब्री, जो
परिणाम जानने की रहा करती थी, अब वह पक्षी के भीगे पंखों सी दिखायी पड़़ती न कि
उड़ते चहचहाते पक्षी की भाँति।
यादें भी कितनी जिद्दी होती
हैं बिना बुलाये इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। मुझे एकाएक अपनी दसवीं का परीक्षा
परिणाम निकलने वाला दिन भी याद हो आया। यू0 पी0 बोर्ड के
अस्सी प्रतिशत क्या महत्व रखते हैं ये तो मुझे अस्सी प्रतिशत प्राप्त होने के बाद
ही पता लगा। घर पर सत्यनारायण की कथा और भोज भी हुआ। घर पर अपना लाड़-प्यार देख
मुझे राजकुमार जैसा अहसास होने लगा। माँ और पिताजी दोनों को ही शेखी बघारने का एक
अच्छा बहाना हाथ लग गया था। सिलसिला रुका नहीं। इण्टरमीडिएट के परीक्षा का परिणाम
फिर बी0 ए0, एम0 ए0, जे0 आर0 एफ0, पी-एच0 डी0, गोल्ड मेडलिस्ट होने का भी तमगा सज गया।
जे0 आर0 एफ0 का पैसा
मिलने के दौरान मैं तो पूरी तरह भूल ही गया था कि यह मिलने वाला पैसा अस्थाई है न
कि स्थाई। कार्तिक माह की गुनगुनी धूप सा अपना वर्तमान, भविष्य
के लिए कभी चिन्तित ही नहीं हुआ। घर परिवार में स्नेह की छटा बिखरी रहती और बाहर
भी इज्जत काबिल हो चुका था। रिश्ते के दूर के चाचा जी की आवाज से अतीत की सुखद
स्मृतियों से मैं अपने कंटीले वर्तमान में लौटा।
“चिराग। अरे कौन सी दुनिया में खोये हो बेटा! और इस
तरह पैदल? आओ गाड़ी
में बैठो।” मैं अपने
विचारों में इस कदर उलझा हुआ था कि चाचा जी ने कब अपनी कार मुझसे सटा कर लगा दी
देख ही नहीं पाया। और न चाहते हुए भी उनकी आज्ञा की अवहेलना न कर सका। उनकी कार
में बैठ गया। अब मुझे लोगों का एक जुमला भयभीत करने लगा है, “आजकल
क्या कर रहे हो ? कुछ काम
धन्धा मिला।” मैं
इन्तजार में था कि चाचा जी भी इसी प्रश्न पर आने वाले हैं। सड़क पर भीड़ अधिक थी।
अभी उनका पूरा ध्यान गाड़ी चलाने में था।
“कहाँ जा रहे थे ?” भीड़ कम
होते ही सवाल किया।
“चाचा जी घर जा रहा था। बस यहीं उतार दीजिए।” मैंने
गाड़ी मोड़ पर ही रोकने को कहा।
“अरे बेटा, तुम्हें छोड़ने के बहाने ही
भइया-भाभी से मिल लूँगा। महीनों से सोच रहा हूँ लेकिन व्यस्तता के चलते समय नहीं
निकाल पाता। भइया तो घर पर ही होंगे न?” चाचा जी ने गाड़ी घर की ओर मोड़ते हुए पूछा।
‘‘हाँ-हाँ घर पर ही होंगे। बाहर बहुत कम निकलते हैं।” मैंने
अनमने मन से कहा। सच तो यह था कि मैं बिल्कुल नहीं चाह रहा था कि चाचा जी घर चलें।
उसका कारण, उनके
दोनों बेटे जो काफी अच्छे पैकेज के साथ अच्छी कम्पनी में कार्यरत हैं। चाचा जी,
पिता जी से जब भी मिलते हैं लम्बी लताड़नी हाँक चले जाते हैं। पिताजी हफ्तों के
लिए विचलित हो जाते हैं। काश मेरी औलाद भी ऐसी निकलती यह सुना कर माँ को भी परेशान
करते हैं।
मानसिक अशान्ति एक साथ कई
बीमारी को जन्म दे देती है। ऐसा अकसर सुना करता था लेकिन जब अपने घर देखा तो
सत्यता प्रमाणित भी हो गयी। माँ की चिन्ता ने उन्हें डायबिटिक बना दिया था और
पिताजी हार्ट पेशेन्ट हो गये। महीने की पहली तारीख को पिताजी बैंक के लिए तैयार हो
जाते। उसी दिन बाइक में पाँच लीटर तेल भरवाते और महीने भर की छुट्टी कर देते। पहले
वह स्वयं ही बैंक जा कर पेन्शन ले आते थे। जबसे बीमार हुए तब से माँ उन्हें अकेले
नहीं जाने देती।
पेन्शन के लिए बैंक जाते
वक्त हम रास्ते में जाम में फंसे थे। धूप अपनी पूरी जवानी पर थी और सबके सिर चढ़के
नृत्य कर रही थी। पिताजी का बूढ़ा शरीर धूप की जवानी बर्दाश्त न कर सका। वे कब
बाइक में बैठे-बैठे ही एक ओर सरक कर मूर्छित हो गये, मैं इस
बात से अन्जान भीड़ से बाहर निकलने की इन्च-इन्च जगह बनाने के प्रयास में था। तभी
पीछे से तीव्र आवाज में एक साथ कई स्वर गूँज उठे-
“रुककर भई रुक कर....।” पीछे से
किसी लड़के की आवाज आयी।
“अरे देखो। तुम्हारे पीछे बैठे बुजुर्ग गिर गये।” मेरी ही तरह भीड़ में फंसे
एक रिक्शे वाले के बताते ही मैंने पीछे पलट कर देखा। बुरी तरह घबरा गया। कई लोग एक
साथ दौड़ पडे़। पिता जी को सहारा देकर उठाया। अच्छे बुरे का रेशियो बराबर ही होता
है। एक कार वाले भले व्यक्ति ने पिता जी को नर्सिंग होम पहुँचा दिया।
मोबाइल था मेरे पास लेकिन
मैं फोन नहीं कर सकता था। जीरो बैलेन्स के कारण मैं किसी को मिस्ड भी नहीं दे सकता
था। तीस साल की उम्र में पिता के आगे हाथ फैलाने से मैं अपने आपको किस कदर दयनीय
समझता शायद बयां करना मुश्किल होगा। माँ मेरी इस पीड़ा को मूक रह कर समझती। हर
स्थिति में असहाय की भाँति उनकी जुबां से नहीं बल्कि आँखों से उनके भीतर के दर्द
को अपने लिए महसूस करता।
नर्सिंग होम में डॉक्टर
बिना पच्चीस हजार के पिताजी को एडमिट करने को तैयार नहीं थे। ए टी एम कार्ड तो था
किन्तु पिता जी ने कभी भी उसका कोड बताने की जरूरत नहीं समझी थी। यहाँ हम जैसों की
सुनने वाला कोई नहीं था। मैं चाहता तो अस्पताल से फोन करके चाचा मामा किसी को भी
बुला सकता था। यह भी जानता था कि हाथों हाथ पैसा तो मिल ही जायेगा साथ ही उनका
अस्पताल में कोई सोर्स भी लग जायेगा। किन्तु मदद के नाम से कोई कुछ भी करेगा। सिर
पर अहसान अवश्य लाद देगा।
सरकारी अस्पताल में पिता जी
को जाकर एडमिट कर दिया। माँ को भी फोन द्वारा सूचित कर दिया। पिता जी की पाकेट में
मात्र पाँच लीटर पेट्रोल का पैसा था जिससे बाइक में पेट्रोल भरवाना था। सरकारी
अस्पताल में अभी मात्र एक ग्लूकोस की बोतल का पैसा माँगा गया था जो मेरे पास था।
अब मैं ईश्वर से पिता जी के होश में आने की प्रार्थना कर रहा था। आई0 सी0 यू0 में
सिर्फ एक व्यक्ति को जाने की इजाजत थी सो माँ पिताजी के पास थी। परिवार में अपनी
भूमिका आज पहली बार कितनी मुख्य हैं यह समझ पाया था।
डॉक्टरों ने पिताजी के पैर
में ऊपरी तौर पर पेसमेकर फिट कर दिया था। यह कौन सा उपचार चल रहा है। मेरी सीधी
साधी माँ को कुछ समझ नहीं आया और न ही उन्होंने डॉक्टर से कुछ पूछने की हिम्मत
जुटाई। पिताजी उस वक्त होश में नहीं थे। डॉक्टर के अनुसार सांस लेने में भविष्य
में कोई दिक्कत न हो इसके चलते पेसमेकर आवश्यक हो गया था। इस पर होने वाला खर्च
डेढ़ लाख के करीब था। खर्च सुनते ही पिताजी फिर से मूर्छित होने लगे। सिर हिलाकर
इन्कार किया। धनाढ्य लोगों के लिए ये एक बहुत छोटा खर्च था किन्तु मेरे पिताजी
द्वारा ईमानदारी से कमायी हुई एक बड़ी रकम थी, जो
पिताजी ने मुन्नी के विवाह के लिए पाई-पाई करके बचायी थी।
सरकारी अस्पताल में अन्य
मरीजों के परिजनों की अपेक्षा मुझे अपनी स्थिति काफी बेहतर लगी। वहाँ कुछ मरीज ऐसे
भी थे जो पिछले दो-तीन सालों से गिर कर बेहोश हो जाया करते थे लेकिन धनाभाव के
कारण इलाज कराने में असक्षम थे। ऐसे ही एक पिता की बीमारी से परेशान उनकी दोनों
बेटियों को अकेले इधर से उधर भटकते देखा तो मुझसे रहा नहीं गया मैंने उनसे पूछा।
“आप लोगों के साथ कोई और नहीं है क्या ?” मेरे इतना
पूछते ही उसकी आँखें डबडबा आयीं। कुछ देर अपने काम में यूँ लगी रहीं जैसे मुझे
उसने सुना ही न हो। शायद डॉक्टर द्वारा दिया कोई फार्म भर रही थी। कुछ देर पश्चात्
उन्होंने बडे़ ही दयनीय भाव से मेरी ओर देखा और फार्म पर उंगली रखते हुए पूछा-
“यहाँ पर क्या भरना है?” मैंने
बिना कुछ बोले उससे फार्म ले लिया और भर कर उसे दे दिया। फार्म से पता लगा उसके
पिता को भी पेसमेकर लगना था। आपरेशन के पहले की फार्मेलिटीज पूरी हो रही थी। पिता
के ओ.टी. में जाते वक्त वह फफक पड़ी। बहन उसे चुप करा रही थी। वहाँ उपस्थित अन्य
लोगों ने भी समझाने का प्रयास किया किन्तु वह एक कोने में खड़ी रोती रही। वह मेरी
कोई नहीं लगती थी। मैं उससे पहले कभी नहीं मिला था। उसके रोने में दर्द था। मैं भी
कई बार रो कर अपने दर्द को पिघलाता हूँ। मर्द हूँ इसलिए एकान्त अकेला कोना ढूँढ़ता
हूँ।
बचपन में बच्चा किसी के
सामने भी चिंघाड़ मार कर रो सकता है किन्तु वही बच्चा बड़े हो कर अपनी माँ से भी
अपने आँसुओं को छुपाता है। बचपन में अनुचित गैर जरूरी वस्तु के लिए भी बच्चा सिर
पटक कर अपनी जिद पूरी करवा लेता है। बड़े होने पर आवश्यक वस्तु के लिए भी बोलने
में उसे संकोच दबोच लेता है।
उसका रोता हुआ चेहरा बहुत
मासूम लग रहा था। कुछ ही देर में महसूस हुआ मैं उसकी ओर खिंच रहा हूँ। लड़की
निःसंदेह खूबसूरत थी। उससे ज्यादा उसका दिल। मुझे डर लगा, इसकी
बाह्य और आन्तरिक दोनों ही सुन्दरता मुझ पर भारी न पडे़। कहीं मैं इससे प्यार न कर
बैठूँ। मैं वहाँ से उसके पास से हट कर दूर आ गया।
बहन द्वारा उसके रोने का
कारण पता चला। पिता के आपरेशन के लिए गाँव की जमीन का कुछ हिस्सा बेच कर खर्च का
प्रबन्ध किया गया था। मैंने ईश्वर से उसके लिए दुआ की कि उसे कोई ऐसा घर मिले जहाँ
जा कर वह मायके के सारे गम भूल जाये! मेरे अपने हालात् किसी भी लड़की का भविष्य
मेरे साथ जोड़ने की इजाजत नहीं देते। मेरे जज्बात मेरे साथ होते हैं किन्तु मैं
कभी जज्बाती नहीं होता।
पिता जी को मैं और माँ समझा-समझा
कर थक गये। वे किसी भी तरह सुनने को तैयार नहीं थे। हमेशा लोगों से सुनता हूँ। जब
पिता का जूता बेटे के पैर में आने लगे तो बेटा पिता का दोस्त हो जाता है। मेरे लिए
ये सिर्फ सुनी सुनायी बात है। मेरे पिता जी मुझसे कभी भी कोई राय-सलाह नहीं करते
शायद पिता का दोस्त बनने के लिए उनके ऊपर लदा आर्थिक भार भी कम करना पड़ता होगा।
भार कम करने के बजाय मैं स्वयं उन पर बोझ बना हुआ था।
पिता जी को पेसमेकर लगवाने
को तैयार करना था। इसके लिए चाचाजी और दो अन्य पिता जी के मित्र जिनकी हर बात
पिताजी को मान्य होती है,
आज के समय में उसी की सुनी जाती है जिसके पास धन का बल है। वही सामर्थ्यवान
है। उनके बच्चों को मेरी तरह बेरोजगार नहीं रहना पड़ता है। गोल्डमैडल्स और पी-एच0 डी0 के
बावजूद मुझे सात लाख रुपयों का प्रबन्ध करना था। यदि प्रबन्ध हो जाता तो आज मैं भी
युनिवर्सिटी में प्रोफेसर होता और अपनी शेखी दिखा रहा होता। मेरे दोस्त के पिताजी
ने अपनी सेवानिवृत्ति के पश्चात पी0 एफ0 ग्रेजुएटी का मिला हुआ धन अपने बेटे की नौकरी के
लिए रिश्वत के रूप में दे दिया।
मेरे पिताजी ऐसा बिल्कुल
नहीं कर सकते थे क्योंकि वे दो अविवाहित बेटियों के पिता थे। ये हमारा दुर्भाग्य
है कि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जहाँ दहेज रूपी दानव और भ्रष्टाचारी राक्षस
मुँह फाडे़ निगलने को तैयार रहते हैं।
आपरेशन छोटा हो या बड़ा
मरीज के अन्दर एक भय अवश्य होता है। ओ0 टी0 में जाते वक्त पिताजी ने मेरा हाथ जोर से दबा
दिया। इसका आभास यानि अपने भीतर के डर का अहसास होते ही पिताजी ने एक ओर सिमटी
खड़ी माँ की ओर अपनी फीकी हंसी के साथ साहसी होने का परिचय देते हुए स्ट्रेचर पर
लेटे-लेटे हाथ हिलाया। माँ ने भी अपनी रोनी सूरत के साथ हाथ हिला दिया और पिताजी
का स्ट्रेचर ओ0टी0 के भीतर
चला गया। मैंने माँ के कन्धों को पकड़ कर उन्हें आश्वस्त किया। मुझे सही मायने में
अपने होने का अहसास आज हो रहा था। सच बताऊँ, मुझे अपने अन्दर एक अनजाना
भय महसूस हो रहा था किन्तु बड़ी सफाई से उस अपने भय को माँ और बहनों से छिपा रहा
था।
इतना लम्बा समय कभी अस्पताल
में नहीं गुजारा था। यह मेरी जिन्दगी का पहला अनुभव था। पिताजी के आई0 सी0 यू0 में रहने
की वजह से कोई कमरा नहीं मिला था। माँ आई0 सी0 यू0 में पिता
जी के करीब रहती और हम सबको बाहर अस्पताल के परिसर में दिन गुजारना पड़ता। सेवा के
लिए माँ का अन्दर होना जरूरी था। ऐसा नहीं था कि हम भाई-बहन पिताजी की सेवा नहीं
कर सकते थे किन्तु उनके तेज मिजाज और तीखी जुबान के कारण उनके पास अधिक देर बैठना
कुछ मुश्किल ही होता, खासतौर
से मेरे लिए।
आपरेशन मात्र पैंतालीस मिनट
का था। आपरेशन के दौरान मैं पूरी तरह आशंका और भय की गिरफ्त में रहा। जानते हुए भी
कि आशंका से भय उत्पन्न होता है पिता जी के सकुशल ओ0 टी0 के बाहर
आते ही मेरे अन्दर के भय ने निश्चिंतता का स्थान ले लिया। हर जगह से न-न सुन कर
मेरी सकारात्मकता समाप्त हो चुकी है। माँ की हर बात से मुझे जीने के लिए बल मिलता
है। जब भी मेरा आत्मबल डगमगाता है, मन घबराता है मैं माँ के घुटनों में अपना सिर रख कर
बैठ जाता हूँ। वह कहती हैं- संकल्प सदैव दृढ़ होना चाहिए। व्यक्ति को आशंकाओं से
दूर रह कर प्रगति के सोपान तक पहुँचना आसान होता है जबकि आशंका से घिरा अविवेकी
गिरने के भय से आगे नहीं बढ़ पाता।
रात्रि के एक बज रहे थे।
अस्पताल की लाबी में मैं सोने का प्रयास कर रहा था। अभी नींद पूरी तरह आयी नहीं
थी। झपकी मात्र ही लगी थी कि दो लोगों की वार्ता से झपकी टूट गयी। कान स्वतः ही
चौकन्ने हो गये।
“तुम्हें तुम्हारा जितना हिस्सा अभी तक मिलता आया
है उतना ही मिलेगा।” डॉक्टर सचान अपनी बात समाप्त
कर आगे चल दिये। उनके साथ एक युवक था जो कुछ संदिग्ध दिख रहा था, जिस पर
मेरी नजर पहले से ही थी। पिछले कई दिनों से उसकी गतिविधियों पर भी मेरी नजर थी।
उसके साथ हर रोज एक नया मरीज होता जो दिखने में गरीब लाचार मजदूर सा लगता। युवक डॉक्टर
साहब के पीछे तेजी से लपका और पास पहुँचते ही अपनी बात बहुत धीमी आवाज में की जिसे
सुनने के लिए मेरे कानों को अपना जोर लगाना पड़ रहा था।
“डॉक्टर
साहब। फिफ्टी-फिफ्टी न सही कम से कम साहब फोर्टी-सिक्सटी तो रखिये। साहब कितना
रिस्की काम है कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। जरा भी इधर-उधर हुआ तो जान पर बन
आयेगी।” युवक अभी
अपनी बात समाप्त भी नहीं कर पाया था। वह हाथ जोडे़ डॉक्टर के पीछे.पीछे कुछ समझाने
का प्रयास कर रहा था। इस बार आवाज इतनी धीमी थी कि मैं सुन नहीं सका। डॉक्टर साहब
उसकी बात पूरी तरह अनसुनी करते हुए ओ0 टी0 में चले गये। युवक निराश सा अपने कदमों को लगभग
खींचता सा दूर पड़ी बेंच पर आ कर बैठ गया।
सुबह मेरी नींद महिला व दो
बच्चों के विलाप से टूटी। आँख खुलते ही जो नजारा मेरे सामने था देखकर मैं हतप्रभ
रह गया। रात युवक के साथ आये मजदूर का शव बाहर खुले में पड़ा था। उसके बीबी बच्चे
दहाडे़ं मार रहे थे। साथ में लाने वाला युवक नदारत था। किसी ने सच ही कहा गरीब का
सिर्फ खुदा होता है। उस महिला के पास कोई भी ऐसा नहीं था जो उसे किसी प्रकार की
दिलासा व सांत्वना दे रहा हो। दूर से तमाशा देखने वाले भी कम नहीं थे लेकिन ऐसे
समय पास फटकने में सभी को डर लगता है। मुझसे रहा नहीं गया मैंने जा कर जानना चाहा, आखिर ऐसी
कौन सी बीमारी थी? अच्छा
भला स्वयं चल कर आने वाले व्यक्ति को अचानक आपरेशन की जरूरत पड़ गयी। माँ सामने
होती तो बिल्कुल पास न जाने देती। “तुझे क्या करना है? ऐसे
पचड़ों में मत पड़ा कर।”
उनके मना करने के बावजूद मैं उनकी नजरें बचा कर हमेशा ही ऐसी जगह
पहुँच जाता हूँ।
“क्या ये बीमार थे?” महिला
अपने पति के सीने में अपना सिर पटक-पटक कर रोये जा रही थी। महिला ने मेरे सवाल का
कोई उत्तर नहीं दिया। मेरे फिर दो तीन बार पूछने पर उसके बेटे ने रोते हुए जवाब
दिया जिसकी उम्र तकरीबन नौ-दस साल रही होगी।
“बाबू का तीन-चार दिन से बुखार रहा।” मैं
सोचने लगा क्या बुखार के लिए किसी को ओ0 टी0 ले जाया जाता है। कोई बड़ा रहस्य था। मेरी आँखें
रात वाले युवक को खोज रही थीं। लेकिन ऐसा करते मुझे अपनी बेवकूफी पर हँसी आयी। वो
जरूर किसी काल कोठरी में छिप कर बैठा होगा। मुझे लगा मरे हुए व्यक्ति का रहस्य उद्घाटित
करने वाला मेरे अतिरिक्त यहाँ कोई अन्य नहीं है और मेरे पास कोई पुख्ता सबूत नहीं
है। रात जो मैंने देखा,
जो सुना उस पर कौन विश्वास करेगा मैं अपना हाल अपने दोस्त नीरज जैसा
नहीं करना चाहता था।
अपराधी को पकड़वाने की
कोशिश में पुलिस ने झूठे जुर्म में उसे ही जेल के अन्दर कर दिया। सामने आई0सी0यू0 से बाहर
माँ आते दिखी। मैं माँ के नजदीक पहुँचा। दवा का पर्चा देते हुए बोली-
“जरा अन्दर का भी ध्यान रखा कर। कब से तेरा इन्तजार
कर रही थी कि दरवाजे के आसपास दिखे तो दवाई को बोलूँ।”
“अरे माँ। अभी कुछ देर पहले ही तो झाँक कर गया था।
मुझे लगा तुम्हें कोई काम नहीं होगा, बोलो क्या काम था ?” मैंने
माँ से झूठ बोला जब कि मैं काफी देर से अन्दर गया ही नहीं था। बाहर ही था।
“ये ले दवा लानी है। डॉक्टर
साहब ने अभी लिखी है और सुन ! पहले घर जा कर मूंग की खिचड़ी बनवा लो। खाने के बाद
ये दवा देनी है।” मैं चल
दिया माँ की फिर से आवाज आयी।
“चिराग सुन। मुन्नी को भी साथ लेते आना। घर पर
अकेली ऊबती है।” मैंने ‘हाँ’ में सिर
हिला दिया। मुन्नी के आने से माँ को राहत मिल जाती है। मुन्नी पिता जी को देख लेती
है। इतनी देर माँ बाहर बैठ कर कुछ देर सुस्ता लेती है।
मैं मोटर साइकिल स्टार्ट कर
अस्पताल के बाहर रोड तक ही आया था कि सामने मुझे रात वाला युवक दिखा जो हाथ हिला कर
मुझसे लिफ्ट मांग रहा था। बाइक रोकने को मेरे अन्दर का डर मना कर रहा था किन्तु
मेरे अन्दर की जिज्ञासा आतुर थी, ओ0 टी0 के अन्दर का रहस्य जानने को। मैंने तेजी से बाइक
में ब्रेक लगा दिये। उसने मसाले की पुडि़या दाँतों से फाड़ी और एक बार में मुँह
में पूरा भर लिया।
मेरे कन्धों को दबाता हुआ
यूँ बाइक में बैठा कि देखने वाला हमें मित्र अवश्य समझ लेगा। मैं सोचने लगा दोस्त
के अनुसार ही साथ वाले की वैसी ही पहचान होती है। समझ नहीं पा रहा था मैं बात की
शुरुआत कहाँ से करूँ। खैर पहल उसी ने की।
“क्या काम करते हो?” उसने
बिना किसी भूमिका के भारी भरकम सवाल दाग दिया। अक्सर ऐसा ही होता है इस सवाल से
मेरी जुबान बन्द हो जाती है।
“यहाँ अस्पताल में कौन भर्ती है?” उसने
बड़ी बेफिक्री से पूछा।
“पिताजी।”
“क्या हुआ उन्हें?”
“पेसमेकर लगा है ?”
“आपरेशन
किस डॉक्टर ने किया है ?”
“डॉक्टर सचान...।” नाम
बताने के साथ ही मैंने उससे पूछा।
“डॉक्टर सचान कैसे हैं ? बडे़ भले
इंसान मालूम होते हैं। हाथ भी उनका साफ है। हर आपरेशन सफल ही रहता है।” मेरे
इतने लम्बे वाक्य का उत्तर कुछ सोचते हुए बहुत सूक्ष्म दिया।
“हाँ। हाथ तो जरूरत से ज्यादा साफ है।” मुझे उसकी बात का मतलब समझ
नहीं आया। मैं कुछ पूछता इससे पहले ही वह मुझसे पूछ बैठा।
“अरे यार। तुम उस डॉक्टर की छोड़ो, अपनी
बताओ। तुम करते क्या हो?
तुमने बताया नहीं।” मुझे एकबारगी गुस्सा आया कि ये तो पीछे ही पड़ कर
रह गया लेकिन मैं कभी झूठ नहीं बोलता।
“मैं बेकार हूँ। मेरे पास कोई रोजगार नहीं है।” मेरी बात
सुनते ही वह यूँ उचका जैसे उसे ही कोई रोजगार मिल गया हो। उसने मुझसे पूछा-
“घर पर कौन-कौन है ?”
“माता.पिता और एक बहन।” मैंने
बताया।
“घर का खर्च कैसे चलता है ?” उसने
पूछा।
“पिताजी की पेन्शन से ....” मैं
बोला।
“बहन अविवाहित है ?” उसने
पूछा।
“हाँ। विवाह के लिए प्रयासरत हैं।”
“चार पैसे घर आये इसके लिए प्रयासरत नहीं हो ?”
“जी जान से लगा हूँ। भाग्य साथ नहीं देता है।” उसने
मुझसे एक किनारे बाइक रोकने को कहा। सामने चाय की दुकान थी। उसने वहीं से चिल्ला कर
दो चाय आर्डर कर दी। छोटा लड़का चाय दे कर चला गया। चाय पीने के दौरान जो बातें
उसने बताईं, मेरे हाथ
से चाय का गिलास छूटते छूटते बचा। मैं सोचने लगा कि जरूरतें व्यक्ति को इस कदर
खुदगर्ज बना देती हैं कि जीते जी मानव के अन्दर की मानवता ही मर जाये।
पता नहीं मैं उसे किस कदर
विश्वासी लगा कि धीरे-धीरे वह अपने घृणित राज खोलने लगा जिसे सुन कर मेरे पैरों
तले धरती खिसकने लगी। उसने बताया कि ठेकेदार है किन्तु ठेकेदारी के नाम पर कभी
किसी इमारत का निर्माण नहीं करवाया। बस साइड में जाकर मजदूरों का हमदर्द बनता है।
उनमें अपने प्रति विश्वास पैदा करता है। बीमार होने पर या जबरन उन्हें चेकअप के
लिए राजी करता है और उन अनपढ़, गरीब मजदूरों के महत्वपूर्ण अंगों को निकाल कर
पैसे वाले जरूरतमंदों को मुँहमाँगे दाम पर बेच दिया जाता है। उसने मुझे अपने धन्धे
में शामिल होने और अमीर बनने का लालच दिया। सुनते ही मैं उबल पड़ा और मैंने उसी
वक्त रोड पर ही उसे जलील किया। शर्मिन्दा होने के साथ ही अतीत का दर्द उसकी आँखों
में उतर आया। मेरी आवाज से दुगुनी आवाज में उसने भी मुझे बहुत कुछ सुनाया।
“आज पिता के साये में रह कर बड़ी-बड़ी बातें कर रहे
हो। मुझसे पूछो मेरे ऊपर से पिता का साया मात्र दस साल की उम्र में ही उठ गया था।
मेरी माँ ने भले ही एक वक्त रोटी दी हो किन्तु मेरी पढ़ाई में होने वाले खर्च में
कोई कसर नहीं छोड़ी। नौकरी खोजते पैरों में छाले पड़ गये डिग्रियाँ आज भी पड़ी धूल
खा रही हैं।” वह कुछ
देर रुका। गला भारी हो गया। मैं सोचने लगा क्या अभाव और दुख व्यक्ति की समझदारी
में ताले लगा देता है ?
दोनों हाथों से अपनी आँखें पोंछता हुआ फिर से अपनी बात आगे कहने के
पहले उसने मेरे दोनों कन्धों को पकड़ा और मैंने ध्यान से उसकी ओर देखा। उसकी आँखें
लाल हो गयी थीं। चेहरे पर अन्दर का गम झांकने लगा था।
“मेरी माँ ने पिछले वर्ष पैसे के अभाव में, बिना
इलाज दम तोड़ दिया। माँ की चिता के साथ मैंने अपने सारे आदर्श, खोखली
नैतिकता को तिलांजलि दे दी।” मैंने ध्यान से उसका चेहरा देखा। मुझे महसूस हुआ
यह वक्त का मारा अवश्य है पर बुरा इंसान नहीं है। कई बार ऐसा कुछ भी अखबार में
पढ़ता या टी. वी. में देखता हूँ मुझे ऐसे कई सवाल उद्वेलित करते हैं कि आखिर हमारे
समाज में ऐसी अमानवीयता कहाँ से आ गयी? हमारा धैर्य इतना कमजोर क्यों पड़ने लगा? सभ्य
समाज असभ्य काम करने से क्यों नहीं घबराता। क्या हिप्पोक्रेट ओथ मात्र डॉक्टर की
डिग्री तक ही सीमित है?
डॉक्टर को
भगवान का दर्जा दिया जाना क्या आज के समय में बेईमानी है? मैंने
उससे विदा ली फिर कल मिलने के वायदे के साथ और मैं चल दिया एक उम्मीद की छांव में।
मोबाइल-
09236164175
सम्पर्क - ई 90, मयूर रेजिडेण्सी विस्तार, इन्दिरा
नगर
लखनऊ 226016
ई-मेल : poonam tiwari 018 @ gmail. com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि चित्रकार अजामिल की हैं.)
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें