निर्मला तोंदी की कविताएं






हमारे इर्द गिर्द तमाम घटनाएँ घटती रहती हैं. कुछ बाहर तो कुछ हमारे अन्दर. लेकिन इनको महसूस कर सकता है या तो एक संवेदनशील मन या फिर प्रकृति. इसके अन्तर्गत वे पेड़ पौधे भी आते हैं जो दुनिया भर का कष्ट सहन कर इस पृथ्वी और इस जीवन को बचाने का कार्य चुपचाप कर रहे हैं. कवि भी हमारे समाज का ऐसा ही संवेदनशील व्यक्ति है जो भौतिक सुख-सुविधाओं से इतर इस दुनिया जहान के बारे में सोचता रहता है. इस पृथ्वी और जीवन के बारे में सोचता रहता है. गरीबों के दुखों और उनके संघर्ष के बारे में सोचता रहता है. वह दुनिया को उसके यथार्थ से परिचित कराने का यत्न इस उम्मीद में करता है कि एक दिन सब बेहतर हो जाए और सुख शान्ति स्थापित हो. निर्मला तोंदी ऐसी ही एक कवियित्री हैं जो अपनी कविताओं में इसे महसूस करती हैं और इसे बाकायदा अपनी कविताओं में दर्ज करती हैं. तो आईए आज पढ़ते हैं निर्मला तोंदी की कुछ नयी कविताएँ. 
          

नया सीखा है

इस सितम्बर के महीने में

कुछ नया सीखा

मैंने रोना सीखा



अपनी बात

अपने से कह के

जी भर के रोया जा सकता है



न जाने कितने महीनों सालों बाद

जी भर के रोयी हूँ मैं आज



जी भर के रोया जा सकता है

और खाली हुआ जा सकता है



खाली

इतना खाली

कि लगे ‘रोने जैसी बात भी नहीं थी'

फिर एक स्मित सी मुस्कान
चेहरे से निकल कर फ़ैल जाती है
पूरे कमरे में 

मैंने यह नया सीखा है.


मेरी दीवारें


मुझे मेरे कमरे की दीवारों से

प्रेम हो गया है



बड़े मजबूत हैं दीवारों के कन्धे

सिर रख कर रोया जा सकता है

अपनी बात कही जा सकती है



खूब धैर्य से सुनती हैं

बड़े सुन्दर हैं इसके कान

किसी और से कहती भी नहीं



मेरी बातें सिर्फ मुझसे करती हैं

मुझे अपनी जैसी लगती हैं  



संभलना सिखाती हैं

हिम्मत देती हैं



मुझे उनसे प्रेम हो गया है

बड़ी नरम और मुलायम लगती हैं मुझे

मेरी दीवारें
 

जिस समय सांस निकलती है

जिस समय सांस निकलती है

नाम भी फुर्र से उड़ जाता है



सुनने में आता है

‘बाडी’ कितने बजे उठाएंगे

‘बाडी’ के चारो तरफ बरफ रख दो

‘बाडी’ अकड़ जायेगी

फूल जायेगी

अर्थी को गंगा में नहलाना है

अर्थी को सजाना है

वगैरह... वगैरह...



बाद में वही नाम दूर तक चलता है

जैसे कि

फलां ऐसा था
फलां ये करता था 
फलां को यह पसन्द था 
अगर फलां होता तो ऐसा होता 
या ऐसा नहीं होता 
हमने फलां से यह सब सीखा है 
फलां की याद में यह करना है 
यह नहीं करना है
फलां... फलां... फलां...
 

बुन रही हूँ एक रस्सी

मैं बुन रही हूँ

एक रस्सी

मेरे गर्दन के नाप की



मेरे ही अन्दर

मेरी ही अदालत

मेरे ही जज

मेरे वकील



न जाने कितनी तारीखें

कितनी-कितनी बार

बार-बार वही बातें

ढेरो गवाह इकट्ठे किये मैंने

विपक्ष के तो यूँ भी

अपने आप आ खड़े होते हैं



जज एकदम कन्फ्यूज

किसी निर्णय पर नहीं पहुँच रहा
चश्मदीद गवाह भी बैठे हैं 
पहने रंगीन चश्में
अपनी-अपनी आँखों के नाप के 

मेरे अन्दर का जज 
किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहा है 
क्यों न तोड़ दे
वह अपनी कलम 
मैं पहले से ही बुन रही हूँ एक रस्सी

आज उसे पूरी कर दूंगी 


और वह घटना घट गयी


न आखों देखी

न कानों सुनी

एक घटना घट ही गयी



घट के अन्दर घटी

झींगुरों की सी आवाज हुई

कहीं से कहीं निकल गयी

वह एक घटना घट ही गयी



नयी नहीं

आज की तो बिल्कुल ही नहीं

पुरानी भी नहीं

अनोखी भी नहीं

जानी-पहचानी भी नहीं

जान-बूझ कर की गयी भी नहीं

बस घट गयी

एक घटना घट गयी



बिना किसी ख़ास बात के

ख़ास बात बन गयी

वह घटना घट ही गयी



मेले में

अकेले में

हँसते-हँसते

चलते-चलते

किसी ने रोका-टोका भी नहीं

बस घटनी थी घट गयी



न बादल गरजे

न बिजली चमकी

नभ में कोई तारा टूटा नहीं

दसों दिशाओं ने सुना

लेकिन

किसी ने भी नहीं सुना

पेड़ों की हरियाली जान गयी

कि घटना घट गयी

शब्द थे नहीं 
दृश्य दिखे नहीं 
सलोनी प्यारी हवा बता कर चली गयी 
वह घटना घट गयी 

एक घटना घट गयी  
 

 
सम्पर्क- 

मोबाईल- 09831054444

टिप्पणियाँ

  1. पहली , दूसरी और चौथी कविता विशेष पसंद आई . निर्मला जी आपको ढेरों शुभकामनाएँ ! आभार संतोष जी .
    - कमल जीत चौधरी [ जे० & के० ]

    जवाब देंहटाएं
  2. Nirmla ji kalkatte ki hai.phle se janta hu.aaj phleebar me padhkar bhut achcha lag rha hai.santosh bhiya ko eske liye badhaeeeeeeeeeee

    जवाब देंहटाएं
  3. निर्मला जी, आपको इन अच्छी कविताओं के लिए हार्दिक बधाई..निस्संदेह, आपका पहला काव्य-संग्रह बहुत अच्छा बन पड़ा है..शुभकामनाएँ..

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं