यह कविता का नहीं कवियों का समय है



आजकल एक महत्त्वपूर्ण बात पर लगातार बात होती है कि कविता लगातार पाठकों से दूर क्यों होती जा रही है। क्या यह आज की कविता इस नाते पाठकों का वह सम्मान हासिल नहीं कर पा रही कि वह अपने को आज के समय से नहीं जोड़ पा रही। कई एक ऐसे ही महत्वपूर्ण सवालों पर समकालीनता के हवाले से गंभीर विमर्श किया है हमारे युवा कवि मित्र अच्युतानन्द मिश्र ने अपने इस आलेख 'यह कविता नहीं कवियों का समय है' में। तो आईए पढ़ते हैं यह आलेख।    

(समकालीन हिंदी कविता की प्रवृतियों पर कुछ बेतरतीब नोट्स)

अच्युतानंद मिश्र

पाठवादी आलोचना का एक बड़ा संकट यह है कि वह साहित्य को विभिन्न इकाइयों के स्वतंत्र संयोजन  के रूप में देखने और व्याख्यायित करने का प्रयत्न करती है। ऐसे में साहित्य कला –कौशल की आवृति बन कर रह जाती है।

जाहिर तौर पर ऐसा साहित्य की तमाम विधाओं के साथ हुआ है परन्तु यहाँ पर मैं विशेष रूप से पिछले तीन दशक की हिंदी कविता पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहूँगा। अर्थात उन्नीस सौ अस्सी के बाद की हिंदी कविता। ऐसा इसलिए कि पाठवादी आलोचना के अनुरूप हिंदी कविता ने पिछले तीस वर्षों में अपने स्वरूप में गुणात्मक परिवर्तन कर लिया है। परिवर्तन  का अर्थ यहाँ कविता से जुड़े विभिन् तत्वों से हैं जिन पर स्वंतत्र चर्चा के रूप में इधर काव्य चिंतन एवं आलोचना की परिपाटी विकसित हुई है।

कविता को परस्पर स्वतंत्र इकायों के समुच्चय के रूप में देखने का आग्रह इधर बढा है। मसलन आज कविता में स्वतंत्र रूप से भाषा, शिल्प और अंतर्वस्तु पर बात की जा रही है।. भाषिक संवेदना इधर एक स्वतंत्र इकाई के रूप में विकसित हुई है। अस्सी के बाद की कविता को अगर हम देखें तो यह देखना कठिन न होगा कि वह एक ऐसी कविता है जो आलोचना के औजारों के तहत निर्मित हुई है। लेकिन आलोचना के ये औज़ार किसी सुसंगत वैचारिक प्रक्रिया के तहत विकसित नहीं हुए हैं अपितु इनके पीछे स्पष्ट व्यवसायिक दवाब हैं। अस्सी के बाद न सिर्फ लघु पत्रिका आन्दोलन समाप्त हो जाता है बल्कि व्यवसायिक पत्रिका का एक नया युग शुरू होता है। कहना न होगा कि हमारी कविता ने व्यवसायिक पत्रिका को बहुत हद तक चुनौती नहीं दी। साथ ही यह भी जोड़ते चलें कि एक हद तक व्यवसायिक पत्रिका को विकसित करने में कविता की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस संदर्भ में यह भी दिलचस्प है कि अस्सी के बाद की कविता के संदर्भ में अक्सर यह सुनने एवं पढने को मिलता है कि इसकी मूल संवेदना बाज़ार विरोध की है। लेकिन बाज़ार विरोध की इस कविता का युग व्यवसायिक पत्रिका के विकास से कैसे जुड़ता है समझना कठिन है।



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उत्सवधर्मिता और ओढ़ी हुई गंभीरता दोनों इधर कि कविता के मूल चरित्र के तौर पर उभरे हैं। कविता में ये दरअसल दो अलग–अलग से दिखने वाली मुद्राएँ हैं जो प्रकट तौर पर कविता के रूप को प्रभावित करती हैं। कविता में सचेत रूप से अर्जित की गयी जटिलता भी इसी का प्रमाण है। कविता में मुद्राओं और कहन के ढब का प्रश्न कविता की बोधगम्यता से जुड़ा प्रश्न है। कवि जो कहना चाह रहा है उसे अधिक सुसंगत रूप से कहने के लिए, अपने कहे का उचित प्रभाव उत्त्पन्न करने के लिए मुद्राओं का प्रयोग किया जाता है। लेकिन इन मुद्राओं का महत्व तभी है जब कविता में कहने के लिए स्पष्ट और सुसंगत विचार हो। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो विश्वदृष्टि हो। क्या आज की कविता किसी सुसंगत और स्पष्ट विचार को अभिव्यक्त करती है? अगर वह ऐसा करती है तो उस केंद्रीय विचार और दृष्टिकोण पर बात क्यों नहीं होती। मेरा स्पष्ट मानना है कि इधर के वर्षों में कविता से अधिक हमने कवि पर बात की है, क्या इसकी प्रवृतिगत व्याख्या का कोई प्रयत्न इधर हमे देखने को मिलता है।

कविता में अमूर्तन को इधर बढ़ावा मिला है। क्या किसी संगत दृष्टिकोण के तहत आये अमूर्तन और कविता के शिल्पक्रांत होने की वजह से आये अमूर्तन के बीच हमे फर्क नहीं करना चाहिए। कवि के अस्पष्ट और अमूर्त दृष्टिकोण को मुद्राओं से नहीं ढका जा सकता है। इधर कि कविता में इस अस्पष्टता को स्वीकार करने की बजाय मुद्राओं से ढकने और छिपाने का प्रयत्न अधिक दिखता है। कविता के इतिहास में ऐसे कई दौर रहे हैं जब कविता में एक खास किस्म के अमूर्तन की मांग बढ़ी है लेकिन उस अमूर्तन के पीछे एक निश्चित युग संदर्भ रहा है। आज की कविता में जो अमूर्तन है उसके पीछे युग संदर्भ क्या है? कविता सिर्फ परिदृश्य में मौजूद समय में ही आकार नहीं लेती वह उसका अतिक्रमण भी करती है। समकालीन हिंदी कविता में यथास्थितिवाद के प्रति एक गहरा मोह दिखता है। समय के पार देखने की आकांक्षा एवं आवेग कवि को यथास्थितिवाद को आकर्षक मुहावरे से मुक्त करती है। लेकिन ऐसा न कर सकने की स्थिति में कवि यथास्थितिवाद की गिरफ्त में आ जाता है। अस्सी के बाद की कविता की गतिकी में बहुत परिवर्तन नहीं दिखता है लेकिन इस बीच हमारा समय बहुत तेज़ी से आगे बढ़ गया है। जाहिर सी बात है की जब कवि समय के पार देखने में सक्षम नहीं होंगे तो गतिशील यथार्थ उनसे छूटता जायेगा। अक्सर उसे पकड़ने की असफल  कोशिश में रूप और अंतर्वस्तु की एकात्मकता नष्ट हो जाया करती है। कवि रूप को तकनीक समझ कर यथास्थितिवाद से मुक्त होने की कोशिश करता है और ऐसे में कविता अमूर्त और शिल्पक्रांत हो जाती है। यथार्थ कवि से छूटता जाता है। काव्य की रचना प्रक्रिया में मुक्तिबोध इस तथ्य की और ध्यान आकृष्ट करते हैं उक्त संकट की चर्चा करते हुए वे कहते हैं –

“किन्तु बहुतेरे कवि इन कठिनाइयों के बोध तक, जीवन के इस घुमाव तक, आ ही नहीं पाते। वे आगे के विकास की बजाय, अपने ही आस पास घूमते रहते हैं। फलतः उनके पूर्व की स्थितिस्थापना, यांत्रिक रूप से पुरानी गूंजे प्रकट कराती रहती है। उनके खुद के तैयार किये पुराने शिकंजे-यानि पुराने भाव और उनकी अभिव्यक्ति –उन्हें आगे बढने नहीं देते। ‘कंडीशंड’ साहित्य ‘रिफ्लेक्सेज’ यंत्रवत कवितायेँ तैयार करवाते हैं। मनोवेग यांत्रिक हो जाते हैं, अभिव्यंजक रूप जड़ीभूत हो जाते हैं। कवि अपने बनाये कटघरे में फंस जाता है और एक समय आता है जब कवि कतई  मर जाता है, किन्तु उसका शरीर शतायु रहता है।”  मुक्तिबोध की यह टिप्पणी वर्तमान कविता के संकट को एक हद तक मूर्त कर देती है।

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क्या कविता पर आज कोई बात कविता-समग्र के रूप में करना संभव नहीं है? अमूमन बात इकाइयों में होती है। कविता की विभिन्न इकाइयों भाषा, शिल्प, वस्तुतत्व आदि पर बात होती है। मेरे लेखे यह समझना थोडा कठिन है कि कैसे हम स्वतंत्र रूप से विभिन्न काव्य तत्वों पर बात कर सकते है। भाषा के संदर्भ में कही गयी कोई बात शिल्प या वस्तु के संदर्भ से अछूती रहती है। यहाँ मै यह स्वीकार करना चाहूँगा कि इधर हिंदी कविता में इकाइयों में बात करने की जो यह नयी परिपाटी विकसित हुई है वह महज़ एक आलोचनात्मक सुविधा का मामला भर है। लेकिन अगर बात इतनी ही तो बहुत फर्क नहीं पड़ता। फर्क तो तब पड़ता है जब बात यहाँ से आगे जाती हो और एक बड़े दायरे को प्रभावित करती हो। जब हम कविता को समग्रता में नहीं लेते तो कविता में मौजूद समय–समाज हमारी पकड़ से छूटता जाता है। उत्तर आधुनिकता भले इसे समग्रता और विचारधारा के अंत से जोड़ती हो, लेकिन भारत जैसे समाज में फ़िलहाल किसी किस्म की समग्रता और विचारधारा का अंत नहीं हुआ है। ऐसा महसूस तब होता है जब आप अपने समय और समाज पर दूसरे समय और समाज को आरोपित करने का प्रयत्न करते है। हिंदी कविता में इन दिनों यह सब कुछ बेहद तीव्र गति से सम्पन्न हो रहा है। अगर आज कविता को लेकर इस तरह कि टिप्पणी सुनने को मिलती है कवितायेँ बहुत समझ नहीं आती है या वे पढ़ी नहीं जा रही है तो क्या इसे इस तरह नहीं देखा जाना चाहिए कि कविता में आज अपने वास्तविक समय और समाज का प्रतिबिम्बन कम हो पा रहा है। कविता को महज़ शिल्प और भाषा चिंतन तक सीमित नहीं किया जा सकता। इस तथाकथित उत्तराधुनिक समय में अगर कविता को अब तक तकनीक और प्रबंधन की  शिक्षा में शामिल नहीं किया जा सका है तो हमें कविता की इस शक्ति से वाकिफ होना चाहिए। कविता के समाज और वास्तविक समाज के बीच के संबंध को अव्याख्यायित छोडकर कविता में आगे नहीं बढा जा सकता। चाहे यह बात उत्तर आधुनिकता के विरोध में जाती हो और उनके लेखे यह हास्यस्पद हो मगर इससे कोई भी गंभीर मनुष्य इंकार नहीं कर सकता कि कविता एक सामाजिक कर्म ही है। कविता में सामाजिकता को महज़ मुद्राओं या अभिव्यक्ति चातुर्य तक सीमित नहीं किया जा सकता। अगर यह सच होता तो विद्यापति, तुलसी और कबीर अभी समाज में इस तीव्र आधुनिकता के बीच बचे नहीं रह जाते। सूचना प्रौद्योगिकी के इस वृहत विरोध के बावजूद अगर मिथिलांचल के जनपदों में महिलाएं आज भी विद्यापति को कंठस्थ किये हुए है तो कविता में मौजूद समग्रता को समझा जाना चाहिए। औरतें अगर आज भी अपने दुःख को विद्यापति की इन पंक्तियों से जोड़कर अभिव्यक्त करती हो।

कतेक वेदन मोहि देसी मदना
 या
हमर दुखक नहीं ओर 

तो इस दुःख की गतिकी को औरतों की सामाजिक स्थिति को और कविता की सात सौ वर्ष लम्बी यात्रा को उसी समग्रता और विराटता के संदर्भ में जा सकता है जिसका उत्तर आधुनिकता के अनुसार लोप हो चुका है।


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कविता के संदर्भ में जिस सवाल को इधर गंभीरता से समझने की जरूरत है वह है कि कविता आखिर बनती कैसे है। क्या वह वह शिल्प अंतर्वस्तु और भाषा के स्वतंत्र संयोजन से निर्मित होती है। वह किसे परिलक्षित करती है? वह क्या इंगित करती है? उसमे कौन मौजूद रहता है? आज की कविता के संदर्भ में इन प्रश्नों को बेहद गंभीरता से समझने की जरूरत है।  इस बेहद गतिशील समय में कविता में मौजूद स्थूल समय और समाज की परिकल्पना उसे बड़े सामाजिक यथार्थ के दायरे से बाहर कर देती है। जाहिर है ऐसे में इस समाज बहिष्कृत कविता को बचे रहने के उपक्रम में बार कवियों और आलोचकों के पास लौटना होगा। तो क्या यह मानना सही होगा कि कविता में जो समाज नज़र आता है वह एक कृत्रिम किस्म का समाज है, तो क्या इस कविता की नियति यही है कि पाठकविहीन होकर वह लगातार पुरस्कृत और प्रकाशित हो। अगर लोकतंत्र में कविता विपक्ष की भूमिका निभाती है तो वह जितनी कमजोर और समाज विमुख होगी व्यवस्था उतना अधिक उसका पोषण करेगी।  क्योंकि कमज़ोर कविता और झुका हुआ कवि व्यवस्था के लिये सबसे मुफीद हैं।  इन परिस्थितयों में कविता पर कोई भी बात उस ऐतिहासिक परिस्थितयों को जाने समझे बगैर नहीं की जा सकती है जिसके तहत समकालीन कविता आकार लेती है।


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हिंदी की वर्तमान कविता की मूल संवेदना आठवे दशक की ही संवेदना है। इस अर्थ में आठवें दशक की कविता की प्रवृति को समझना वर्तमान कविता को समझने में बेहद महत्वपूर्ण है। आठवें दशक की कविता ने सत्तर के दशक की कविता को अपदस्थ कर स्वयम को स्थापित किया। यहाँ आठवें दशक को और सत्तर के दशक को शुद्ध गणितीय सन्दर्भ में न समझ कर युग संदर्भ में समझना जरुरी है, अन्यथा हम उसी भ्रम का शिकार हो जायेंगे जहाँ साठोत्तरी कविता के बाद सीधे आठवे दशक की कविता आ जाती है। साठोत्तरी कविता का आन्दोलन साठ के दशक में शुरू होता हैं और उसी दशक में समाप्त भी हो जाता है। साठोत्तरी कविता की मूल चेतना की अभिव्यक्ति अकविता में हुई है। अकविता का आन्दोलन १९६७ के आसपास समाप्त हो जाता है। अकविता के मूल में अस्तित्वाद की निषेधात्मक विचारधारा थी। यह शुद्ध रूप से मध्यवर्गीय कुंठा की अभिव्यक्ति थी लेकिन इसने नयी कविता के बासी पड़ गए पुष्पों को नाली में फेकने में कोताही नहीं बरती। बल्कि यह कहें कि अकविता के मूल में बसी अनास्था उस वैश्विक अनास्था का ही प्रतीक था जिसकी अभिव्यक्ति बड़े पैमाने पर समूचे विश्व में साठ के दशक में हुई। यही वजह है कि प्रकट रूप से अकविता स्वयम को चाहे जिस हद तक राजनीति से दूर रखे एवं हर तरह की राजनीति को मनुष्य के लिए, समाज के लिए, कविता और कला के लिए, घृणा की वस्तु समझे लेकिन यह कविता अपने मूल में राजनीतिक अंतर्वस्तु की अभिव्यक्ति ही थी। मुक्तिप्रसंग को अगर हम अकविता की परिणति माने तो यह देखना कठिन न होगा कि अकविता की अपर्याप्तता एवं अपूर्णता को राजकमल मुक्तिप्रसंग में स्वर देते हैं। दुर्भाग्यवश हिंदी आलोचना ने मुक्तिप्रसंग को अकविता की कविता के रूप में प्रचलित कर रखा है लेकिन मुक्ति प्रसंग जैसी बहुस्तरीय कविता, अकविता और आधुनिकता दोनों से मुक्ति की आकांक्षा को अभिव्यक्त करती है। वह हमारे समय की बड़ी कविता इसलिए बनती है क्योंकि वह संक्रमणकालीन समय को एक राजनीतिक रुख में बदल देती है। वह यथास्थितिवाद से मुक्ति की कविता है।

आठवें दशक की कविता की शरुवात सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों के आसपास होती है .एक तरह से ईमरजेंसी के पश्चात् .जब अशोक वाजपेयी कविता की वापसी का नारा बुलंद करते हैं और जब सत्ता में इंदिरा गाँधी की वापसी होती है .पुछा जाना चाहिए कि यहाँ कविता में किसकी वापसी होती है - नई कविता की? केदारनाथ सिंह की? कुंवरनारायण की?




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वर्तमान दौर की हिंदी कविता मध्यवर्गीय जीवनबोध की कविता है। इस अर्थ में यह प्रगतिशील कविता से भिन्न है। थोडा ठहर कर देखें तो यह देखना कठिन न होगा कि प्रगतिशील कविता मूलतः निम्न वर्ग एवं निम्न मध्यवर्ग की कविता है। अब आप देखें की नागार्जुन की कवितायेँ  खुरदरे पैर, घिन तो नहीं आती है?, प्रेत का बयान, अकाल के बाद, हरिजन गाथा; त्रिलोचन की कविता वही त्रिलोचन है, चीर भरा पजामा, भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल, बिस्तरा है न चारपाई है, नगई महरा  केदारनाथ अग्रवाल की कविता पैतृक संपत्ति, एका का बल, मजदूर का जन्म इत्यादि कवितायेँ निम्न वर्गीय जीवन बोध को प्रस्तुत करती हैं। ये कवितायेँ संघर्ष का सौंदर्यशास्त्र रचती हैं। निराला के अंतिम दौर की कविताओं की अगली कड़ी के रूप में ये कवितायेँ परम्परा को वर्तमान से जोडती हैं।

मुक्तिबोध की कवितायेँ इस जीवनबोध से मध्यवर्ग के अलगाव और इस अलगाव में सत्ता और राजनीति की भूमिका को व्याख्यायित करती चलती हैं। इसलिए यह कहना ज्यादा सार्थक प्रतीत होता है कि मुक्तिबोध मूलतः प्रक्रियाओं के कवि हैं। यही वजह है कि मुक्तिबोध की अधिकांश कवितायेँ असमाप्त प्रतीत होती हैं। हर कविता दूसरी कविता से जुडती है। रामविलास शर्मा ने जहाँ- जहाँ मुक्तिबोध की काव्य प्रक्रिया को व्य्ख्यायित किया है वहां वे बेहद सफल हुए हैं लेकिन ज्यों ही वे इस प्रक्रिया में मौजूद अंतर्विरोधों को मुक्तिबोध के व्यक्तिगत अंतर्विरोध मान कर निर्णयात्मक  होने लगते है वहां वे गलत निर्णयों का शिकार होते हैं। यह दिलचस्प है कि रामविलास शर्मा भारतेंदु या रामचन्द्र शुक्ल के संदर्भ में इससे उलट उनकी वैचारिकी को समग्रता में पकड़ने का प्रयत्न करते हैं परन्तु मुक्तिबोध के संदर्भ में अपनी ही स्वीकृत प्रक्रिया का निषेध कर बैठते हैं।

मुक्तिबोध वर्तमान से अधिक भविष्य के कवि हैं।  वे कविता में मध्यवर्ग के जीवन को निम्न वर्गीय जीवन मूल्य से जोड़ना चाहते हैं।

फिर भी, मैं अपनी सार्थकता में खिन्न हूँ
निज से अप्रसन्न हूँ
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता
पर, रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते की आदमी खरा हो
फिर भी मैं उस और अपने को ढो नहीं पाता।

यह जद्दोजहद मुक्तिबोध की कविता की केंद्रीय वस्तू है .मुक्तिबोध की कविताओं में जो छटपटाहट, बेचैनी  है, वह वर्तमान में न हो पाने और भविष्य में हो सकने के बीच की आवाजाही के रूप में दर्ज़ होती है।  इसलिए मुक्तिबोध भविष्य की आकांक्षा के कवि हैं। वे वर्तमान को ढोते नहीं है जैसा कि प्रयोगवादी या एक हद तक नयी कविता के कवि करते हैं बल्कि उसकी उदासी को  काल्पनिक –स्वप्न से जोड़ते हैं।

तब एक कल्पना-स्वप्न आता सा
कोई पढता है मेरा लिखा उपन्यास
घबराती बेचैनी में उत्तेजित विचार के
              जी भर आता-सा
कोई उद्दात अस्तित्व साँस लेता है 

परिवर्तन की प्रक्रिया व्यापक होनी चाहिए। निम्न वर्गीय जीवन संघर्ष से मध्यवर्ग को जोड़े बगैर सत्ता और राजनीति को चुनौती नहीं दी जा सकती है। मुक्तिबोध इसी क्रम में मध्यवर्ग के डी-क्लास होने की जटिल प्रक्रिया को काव्य-प्रक्रिया बनाते हैं। यह प्रक्रिया ही उनकी कविता की आत्मा है इसकी अनदेखी कर कविता के मर्म तक पहुंचना असंभव है।  यहाँ तक पहुचने के लिए मुक्तिबोध जीवन में और कविता में, गहरे आत्म-संघर्ष की बात करते हैं। जब हम इस संघर्ष को मुक्तिबोध के निजी जीवन के संघर्ष मात्र की संज्ञा देते है तो उसके मूल्य को हम कम कर देते हैं। वस्तुतः मुक्तिबोध कविता के और जीवन के और समय और समाज के संघर्ष को आत्म-संघर्ष में बदल देते हैं।

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मुक्तिबोध और प्रगतीशील कविता के सन्दर्भ में इस संक्षिप्त विषयांतरण का उद्देश्य महज़ इतना है कि हम यह देख सकें कि वर्तमान कविता कहाँ इनसे जुडती है और कहाँ स्वयम को इनसे अलगाती है। वर्तमान कविता का वर्गगत आधार क्या है ? इधर की हिंदी आलोचना ने कुछ जार्गन्स निर्मित किये हैं और जिसके अधार पर वह किसी कविता को मुक्तिबोध या नागार्जुन से जोड़ देती है।

यह तो स्वीकार करना ही होगा कि इधर की कविता मूलतः मध्वर्गीय मनुष्य की कविता है। तो क्या यह स्वीकार नहीं करना चाहिए कि इस कविता की सबसे बड़ी बिडम्बना यह है कि अपने वर्गीय दायरे को भेद नहीं पा रही है। मसलन कविता में जो भाई, बहन, पिता, माँ, देवर, भौजाई, बच्चा, कुआँ, गेंद इत्यादि आते हैं वे सब अपने साथ मध्यवर्गीय जीवन प्रसंगों के साथ ही आते हैं। कविता की सफलता यहीं तक महदूद कर दी गयी है कि कवि इनका प्रमाणिक चित्रण भर कर दे।  तो क्या यह स्थूल चित्रों और गतिहीन मध्वर्गीय यथार्थ की कविता है।  हालाँकि यथार्थ स्वयम में गतिशील होता है तो क्या गतिहीनता और यथार्थ ये दो विपरीतार्थक शब्द नहीं हैं। ऐसे में यह पूछना जरुरी हो जाता है कि चित्रात्मकता की शैली पर आधारित वर्तमान कविता किस हद तक यथार्थ को दर्ज़ करती है। वर्तमान कविता में जो यह कवि का बेहद आत्मीय एवं स्वजनों से भरा संसार है उसके तहत कवि का संकुचित और सीमित दृष्टिकोण ही उभर पाता है। उसका मध्यवर्गीय जीवन के प्रति अनुराग रह-रह कर प्रस्तुत होता है। लेकिन क्या वह बेचैनी वह छटपटाहट वह आकुलता या बकौल मुक्तिबोध वह असंग बबूलपन  आज की कविता में मौजूद है। कविता में जो घर परिवार और परिजन के दृश्य हैं वह आज की कविता का मूल कथ्य ।  कविता का संकट इसी निकट जीवन दृश्य के संकट तक सीमित होकर रह जाता है। यह नितांत घरेलु कविता मध्यवर्गीय जीवनबोध को बदलने की कविता नहीं बन पाती है। मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया और वर्तमान कविता के बीच मूलभूत अंतर यह है कि मुक्तिबोध मध्यवर्गीय जीवन-बोध को छिन्न-भिन्न कर उसे निम्न वर्गीय यथार्थ से जोड़ देना चाहते थे –

 मैंने नहीं कहा था कि
मेरी इस जिन्दगी के बंद किवाड़ की
              दरार से  
रश्मि सी घुसो और
विभिन्न दीवारों पर लगे हुए शीशों पर
प्रत्यावर्तित होती रहो 

xx  xx  xx  xx   xx 

मैंने नहीं कहा था कि तुम मुझे
                अपना संबल बना लो
मुझे नहीं चाहिए निज वक्ष कोई मुख
किसी पुष्पलता के विकास-प्रसार –हित
जाली नहीं बनूँगा मैं बांस की
चाहिए मुझे मैं
चाहिए मुझे मेरा खोया हुआ
           रुखा सुखा व्यक्तित्व
चाहिए मुझे मेरा पाषाण
चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन

आज का कवि अपने निकट के स्थूल जीवन दृश्यों को चित्रित कर यथार्थ से छुट्टी पा लेना चाहता है। यह बात तो समझी जा सकती है कि आज के कवि के पास पाठक नहीं हैं। लेकिन ऐसा क्यों है  कि आज का पाठक-विहीन कवि  समाज-विहीन भी होता जा रहा है। क्या पिछले तीन दशक की कविता पढ़ते हुए देश के कठिन हालात को, देश के लोगों के हालात को समझा जा सकता है। तो क्या यह जो साहित्य अकादमी पुरस्कार तक फैला हुआ वैभव हमारे वर्तमान कवि का है जहाँ कविता भले हाशिये पर हो परन्तु कवि लगातार सफल होता रहा है उसके मूल में यही पाठक-विहीन समाज-विहीन होने की विडम्बना है। क्या इस विडम्बना से हमारी कविता हमारा कवि वाकिफ है। अगर ऐसा है तो वह कविता की इस विशाल भूमि पर कहा अंकित है। इसी संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न जिसके आलोक में ही आज की कविता कि प्रासंगिकता प्रमाणित हो सकती है होनी चाहिए। वह ये की जिसे हम समकालीन कविता कह रहे है उसमे जो समकालीनता पद है वह क्या हमारे समाज हमारे देश हमारे लोगो की समकालीनता को भी दर्ज़ करती है। अगर ऐसा नहीं है तो इस अर्थहीन समकालीनता के मायने क्या हैं? आज की कविता में राजनितिक उदासीनता है इसके निहितार्थों को समझे बगैर उससे मुक्त होना संभव नहीं हो सकता। परिदृश्य में राजनैतिक आन्दोलन का नहीं होना क्या इस बात को सुनिश्चित करता है कि कविता को भी राजनीतिक बोध से मुक्त होना चाहिए। अगर कविता परिदृश्य को भेद नहीं पाती हो तो कवि की भूमिका समाज में क्या रह जाएगी। 




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अस्सी के दशक में जो नयी आर्थिक नीति आई उसने हमारे समाज की संरचना को बुरी तरह बदल दिया है। आज का मध्यवर्ग 70 का दशक की अपेक्षा अधिक क्रूर अधिक महत्वाकांक्षी अधिक कैरियरिस्ट अधिक व्यक्तिवादी हो चुका है। भारतीय मध्यवर्ग की आशा आकांक्षा के तार सीधे यूरोपीय मध्यवर्ग से जुड़ने लगे हैं। मध्यवर्ग के इसी चश्में से देखने वालों को भारतीय समाज कई बार पैरिस लन्दन और न्युयोर्क सा दीखता है लेकिन तलछट पर जीवन व्यतीत करने वालों की तादाद बहुत तेज़ी से इधर बढ़ी है। ऐसे असंख्य परिवार इस पैरिस लन्दन और न्युयोर्क से दीखते भारत की तलछट पर जीवन व्यतीत कर रहे हैं जो महज़ पांच सौ या हज़ार की रकम के लिए अपने जीवन, अपने परिवार को हाशिये के बाहर एक बड़े ब्लैक होल में फेंक देने को अभिशप्त है। हमारी कविता न तो उस चीख को सुन पा रही है न उसे दर्ज़ करने की कोई बेचैनी उसके भीतर दिखती है। कविता में राजनीतिक अंतर्वस्तु का संदर्भ यही है। उसका अर्थ कदापि यह नहीं है की कविता में गोला बारूद और बम के धमाके सुनाई दें। लेकिन जो कविता उस चीख को नहीं सुन पा रही हो जहाँ पुलिस के कुछ गुर्गे एक औरत को नक्सलवादी कहकर उसके जननांग में पत्थर घुसेरते हैं, तो वह कविता हमारे किस काम की है? क्या उसे दर्ज नहीं कर सारे कवि उसी पाशविक आनंद के सहभागी नहीं हो जाते जो उस चीख के अट्टहास में व्यक्त होती है।

आचार्य शुक्ल जब कहते हैं कि कवि कर्म उतरोत्तर कठिन होता जायेगा तो उसके मूल में यह बात है की कवि जिस वर्ग से आता है और समाज के निम्न वर्ग के बीच अन्तराल बढ़ता जायेगा। ऐसे में इस वर्गीय अन्तराल को पार कर निम्नवर्गीय समाज से तादात्म्य स्थापित करना कवि के लिए कठिन होता जायेगा और कवि कर्म की चुनौतियाँ बढती जाएँगी। नयी आर्थिक नीतियों ने एक सफ़ल मध्यवर्ग का जाल सा बुन दिया है। मध्यवर्ग न सिर्फ इस जाल में फंसता जा रहा है बल्कि वह लगातार सफल भी होता जा रहा है। ऐसे में इस सफल और अंतर्विरोध रहित मध्यवर्गीय कवि के लिए निम्नवर्ग की चिंताओं से जुड़ना उत्तरोतर कठिन होता जा रहा है। आज की कविता और कवि के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है। अपने वर्गीय दायरों (हितों) के पार नहीं देख पाना कविता में मौजूद एक बड़ा संकट है जिसका गुरुत्तम एहसास कवि को होना चाहिए।

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इधर की कविता के भूगोल को देखते हुए यह बार अक्सर मेरे जेहन में आती है कि किसी भी कालजयी रचना के मूल में लेखकीय प्रतिभा विद्यमान होती है या प्रतिबद्धता। प्रतिबद्धता को यहाँ मैं बेहद खुले और समय सापेक्ष अर्थों में ही देखने की बात कहूँगा। मलयज ने लिखा है -बौने जीवन से बड़ी कविता नहीं पैदा होती। तो यह जो जीवन की विराटता है जिसकी आकांक्षा मलयज कवि से करते हैं। वह इसी प्रतिबद्धता का प्रतिफल है जिसे प्रतिभा मात्र से अर्जित नहीं किया जा सकता। इधर की कविता में इस बात का एहसास बहुत कम दीखता है विशेषकर युवा कविता में। हालाँकि यह हमारे बेहद निकट की कविता है जिसे भविष्य में आकार लेना है परन्तु फिर भी युवा कविता को पढ़ते-देखते अकसर महसूस यही होता है कि हमारे घटित वर्तमान के बेहद भयावह दृश्यों से कवि और कविता उस हद तक मुब्तिला नहीं है जिस हद तक उसे होना चाहिए। जब हमारे बाहर एक पगलाया हुआ बेहद गतिशील क्षण-क्षण बदलता यथार्थ है तो कवि के लिए अपनी कविता और अपने जीवन के साथ इतना संतुलित और एक हद तक व्यवस्थित बर्ताव कर पाना सम्भव क्योंकर हो रहा है। क्या कविता में और जीवन में सबकुछ टूट-फुट नहीं जाना चाहिए था। वह क्या है जो हमारे कवि को इतना संयत रखे है। यह कैसे सम्भव है कि इस दौर में एक बेहद साफ़ सुथरी फिनिश्ड कविता लिखी जाये। यह तो हम स्वीकार करेंगे ही कि अस्सी के बाद कविता में असंग बबूलपन का स्थान फिनिश्ड, शब्द चातुर्य और बेहद संयत भाषा में मौजूद कविता ने ले लिया। इस हद तक कि कविता का अधिकांश शिल्पक्रांत हो चूका है। विशेषकर युवा कविता का .यह तो ऐसा समय है जब अँधेरे में से अधिक भयावह दृश्य अधिक छील देने वाले यथार्थ की, अधिक रुखड़ेपन के साथ कविता लिखी जाती। जिसमे कि हर शब्द बेतरह हमारे समय और समाज के हालत को गुण रही कविता की बेचैनी  से फूट पड़ते। यह तो हमारे अब तक के इतिहास का सबसे अधिक बेचैनी से भरा समय है। दुर्भाग्यवश हमने कविता के न सिर्फ लहजे को पूरी तरह ठंडा बना दिया है बल्कि उसके मुहावरे को भी उस बेचैनी से काफी दूर ले आयें हैं। दुःख और बेचैनी को हमने कविता में उदासी और बेबसी में बदल दिया है। मुक्तिबोध की कविता लाचारी और बेबसी को नहीं छटपटाहट और अकुलाहट को व्यक्त करती है।

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1975  के बाद हिंदी कविता में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं।  पहला कविता को दशकों में बाँटकर देखने की प्रवृति की शुरुआत और दुसरे पूरी कविता को समकालीन कविता की संज्ञा देना (हालाँकि समकालीन कविता पद का चलन 1970 के आसपास ही शुरू हो गया था लेकिन बड़े पैमाने पर इसका चलन 75 के बाद से ही देखने को मिलता है।) क्या आठवें दशक के जितने महत्वपूर्ण कवि हैं उन सबके लेखन काल को हटा दिया जाये तो क्या उनके बीच कुछ ऐसा है जो कॉमन हो। कहना न होगा कि आठवें दशक की समूची परिकल्पना का आधार महज़ उस दौर के कवियों की पत्र पत्रिका में प्रकाशित कविता या उनमे से कुछ के उसी समय प्रकाशित पहले काव्यसंग्रह हैं लेकिन क्या महज़ इस आधार पर यह कोई ऐसा आन्दोलन था या कोई ऐसी काव्य प्रवृत्ति थी जिसका विस्तार और जिसकी धमक हिंदी कविता पर इस हद तक और आज तक होनी चाहिए थी। यह प्रसंग इसलिए भी क्योंकि वागर्थ में चले उस छद्म बहस को आठवे दशक के रूप में शुरू किये गए आन्दोलन का विस्तार मानना चाहिए। हद ये कि इसी तर्ज़ पर एक युवा कवि ने 2000 के बाद की कविता के मूल्यांकन की मांग रखी है। लेकिन इन समस्त बहसों घोषणाओं हबड –दबड़ के बीच जो चीज़ गायब है, जिसके बारे में बात नहीं की जा रही है, वह ये कि क्या हमारे कवि और हमारी कविता का दायरा कितना संकुचित हो गया है। क्या तमाम कवि किसी अश्वमेघ यज्ञ पर निकले हैं। पुरस्कारों से आगे वे क्या जीत पाएंगे। और अगर हम यूँ ही कविता को दशक के नाम पर आयोजित और प्रायोजित करते जायेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब कविता के समाज का अदना नागरिक कवि,शासकों दलालों की पंक्ति में तो शुमार हो जायेगा परन्तु वह कवि नहीं रह पायेगा। उसे कवि के रूप में पुकारने वाले अपने संघर्ष में बहुत आगे निकल जायेंगे। क्या पता उनकी अगली कोई मुठभेड़ किसी कवि से ही हो। ऐसे में हमारे कवि की हार निश्चित है।

सम्पर्क -

मोबाईल - 09213166256


अच्युतानन्द मिश्र युवा कवि एवं आलोचक हैं। अभी हाल ही में इनका पहला कविता संग्रह 'आँख में तिनका'  प्रकाशित हुआ है। बहरहाल आजीविका के क्रम में इन दिनों दिल्ली में रहनवारी।   

(इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।
)  




टिप्पणियाँ

  1. एक विचारणीय लेख … हाँलाकि मुझे लगता है कि कुछ बातें पहले से ज्यादा प्रयास के साथ नज़रंदाज़ भी की जा रही हैं … मुक्तिबोध भी काफी नज़रंदाज़ किए गए थे शुरू में, लेकिन बाद में वे पहचाने गए … आज मूल्यांकन के मुहावरे बन चुके हैं और उन मुहावरों के चश्में से देखने पर बहुत कुछ दिखने से छूट जाता है … मध्यवर्गीय संत्रास की बहुतायत के बीच निम्नवर्गीय संत्रास की अभिव्यक्ति या तो दिखाई नहीं देती या उसे अनदेखा करना ही आज आलोचना की प्रवृत्ति बन गया है … आज जब अनजाने कुल-शील वाले कवियों की अनेक कविताएँ झुग्गियों में रहने वालों, कूड़ा बीनने वालों, खेतिहर मजदूरों आदि के बीच आम पाठकों द्वारा पर्चा छापकर बांटी जा रही हो किन्तु ऐसी कविताएँ आलोचकों की नज़रों से लगातार फिसल रही हों, तो ऐसे में ऐसी आलोचना को दूर से ही प्रणाम करना पड़ता है …

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  3. लेख में मेहनत दिखाई देती है लेकिन समकालीन कविता के अन्तःवासी के किसी सम्बद्ध कथन की जगह बाहर से किसी उच्च स्थान पर बैठे उपदेशक की सी भंगिमा है. लगता ही नहीं कि समकालीन कविता से आलोचक ने कोई संवाद करने, उसमें कोई प्रवेश करने या फिर उससे कोई रिश्ता जोड़ने का प्रयास किया है. आलोचक से, वह भी एक प्रतिबद्ध आलोचक से यह उम्मीद की जाती है कि वह नीर क्षीर विवेक के साथ युग की परस्पर विरोधी और संघर्षरत प्रवृतियों की पहचान करे. एक मार्क्सवादी के रूप में अच्युतानंद जानते हैं कि वर्ग संघर्ष न केवल समाज और राजनीति में बल्कि साहित्य और संस्कृति के रणक्षेत्र में भी सतत चलने वाली प्रक्रिया है. क्या वह यह कहना चाह रहे हैं कि हमारे समय में यह अनुपस्थित है? उनका इस हद तक सामान्यीकरण इसे पुष्ट करता है तो समकालीन कविता से एक उदाहरण भी न होना इस बात को कन्फ्रंट करता है कि वह कविताओं को केंद्र में रख कोई बात कर रहे हैं. अब का सब बुरा तब आ सब भला एक तरह का भाववादी और पुनरुत्थानवादी अप्रोच है और दुर्भाग्य से पहले गरिष्ठ फिर वरिष्ठ और अब युवा आलोचक भी इस पद्धति का शिकार हो रहे हैं. साथ में कभी भय और कभी अपरिचय के कारण कविता का ज़िक्र मुल्तवी कर एक तरह की अमूर्त आलोचना आलोचना का सृजन कर रहे हैं जो अपनी संरचना में भाववादी है.

    अपने समय की न तो इस आलोचना से कोई पहचान होती है न ही पक्षधरता का यह अमूर्त समर्थन उसे किसी ठोस ज़मीन पर खड़ा कर पाने तथा अपने संगी साथी ढूंढ पाने में सफल होता है. अच्युतानंद से कठोर लेकिन स्पष्ट और सम्बद्ध नीर क्षीर विवेकी आलोचना की उम्मीद थी लेकिन वह ऊपर से देखकर कूपही में यहाँ भांग परी है का नारा लगाते लौट गए हैं.

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  4. एक विचारणीय आलेख ………कवि और कविता के संदर्भ में ………सोच का पुनर्जागरण जरूरी है।

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  5. लेख विचारनीय तो है ,परंतु भटक सी गई है ।आज की कविता में ' फिनिश्ड, शब्द चातुर्य और शिल्पक्रांत ' होने के प्रति जो लेखकीय आक्रोश है ,वह कुछ हद तक ठीक भी है ,परंतु यह केवल समकालीन कविता की विशेषता भर नहीं है ।हरेक युग के रीतिवादियों पर यह आरोप लगाया जा सकता है ,और फिर क्‍या यही आरोप प्रगतिवादियों ने प्रयोगशील कविता पर नहीं लगाया था ।ऐसा लगता है कि लेखक कई चीज कहना चाह रहे हैं ,और फिर आज की कविता पर कोई भी बात आप बिना प्रमाण नहीं कह सकते ,उस स्थिति में तो और भी नहीं ,जब आप खुद ही आज की कविता से जुड़े हों ,तथापि लेख उत्‍तेजना पैदा करती है ,और संतोष जी के साथ ही अच्‍युतानंद जी को भी बधाई तो देना ही पड़ेगा ।

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  6. यह मठाधीशों का समय है ! बहरहाल अच्छा आलेख ....धन्यवाद मित्र !

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  7. मेरी कविता 'अन्नदाता 'देखे -जागरण जक्शन ब्लाग पर !ऐसा नही है ,कि यथार्थ की,या मार्मिक यथार्थ की उपेक्षाहै !पर सीमित संसाधन वाले कवियों को कोई पहचानना भी नही चाहता !!

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