चैतन्य नागर की कविताएँ
चैतन्य की कवितायें हमारे अंदर वह बेचैनी पैदा करतीं हैं जो अब आम तौर पर समाप्त होती जा रही है। बढ़ते भौतिकतावाद के साथ हमारी संवेदनशीलता लगातार क्षरित होती जा रही है। पहले हम समझ जाते थे बकौल कवि 'क्यों, किसके लिए रो रही है /किस बीते कल के लिए /किस दुखती रग को' लेकिन अब हालात ये हैं कि 'अब बस रोना समझ आता है।' बाकी कुछ भी समझ नहीं आ रहा। मनुष्यता को बचाये रखने के लिए जरुरी है कि 'अपना शिला-पन छोड़ कर /नदी-पन को जी लिया जाय।' आईये पढ़ते हैं चैतन्य की कुछ इसी तरह की आस्वाद वाली कविताओं को।
बताना मुश्किल है
पहले फूट-फूट रोती थी
पूरी देह भर, सांस सांस रोती थी
अब बस सिसकती है
चुपचाप
चादर की आड़ी-तिरछी सलवटें भिगोती है
अब तो सुबह ही कोई जानेगा
रात रोई होगी
पहले ख़बर लग जाती थी
क्यों, किसके लिए रो रही है
किस बीते कल के लिए
किस दुखती रग को
अब बस रोना समझ आता है
चुपचाप चीखता हुआ,
जगलों के भोले-भाले सन्नाटे से बेपरवाह
बताना मुश्किल है
दुःख के ज़्यादा करीब
पहले थी, या अब
शुभ है नींद का न आना
रात में सन्नाटे में किसी जिद्दी बच्चे की तरह
जब दूर भाग रही हो नींद
किसी का न होना चुभा जा रहा हो पीठ में
बढ़िया संयोग बनता है
अपने अन्दर-बाहर कैद
नयी-पुरानी वेदनाओं को छेड़ने का
सोने की कोशिश में उभरती आती हैं
भीतर अटके अनदेखे दुःख की शिराएँ
अन्दर कोनो में टंगी सलवटें निकल कर
फैलने लगती हैं चादर पर
अच्छा शकुन होता है
काली रातों में
उखड़ी हुई नींद का
बड़बड़ाता-भुनभुनाता अकेलापन
बंधुओं-से लगते हैं
झाड़ियों में विलाप करते सियार
और फिर मौन में चले जाते हैं
बुद्ध-महाकश्यप संवाद जैसे मौन में
शुभ है नागफनियों के बिस्तर पर
फटी आँखों के साथ पड़े रहना
पहाड़-सी रातें खर्च कर जाना
मानो भोर जैसा कुछ हो ही न
बीती रात का तूफ़ान
कल रात तूफ़ान में गिरे हैं कुछ पेड़
बूढ़े-बीमार भी, हरे-भरे भी
सुबह के सूरज ने जैसे नज़र ही नहीं डाली उनपर
नदी भी बहती रही चुप-चाप अपने ही राग में
पर सूरज भी थोड़ा-सा मर गया है
पेड़ों के साथ हल्की सी रुआंसी हुई है नदी भी
सूरज तो रोज़ मरेगा पेड़ों के साथ-साथ
पेड़ ख़त्म होकर भी रोज़ ही देंगे नदी को नयी उर्जा
थोड़े दिन की बात है…
जल्दी ही फिर बादल बनेगी नदी
फिर बरसायेगी नए पेड़, नए जंगल
एक दूसरे में घुला मिला जा रहा है जैसे सब
कुछ सूरज बहा जा रहा है, बरस रहे हैं जंगल
नदी उग रही है धरती के सबसे पुराने इस शहर के आकाश में
नदी आज फिर उग रही है पूरब में
शिलाओं को क्या खबर ?
1.
पत्थरों को क्या मालूम
कि कैसे लहरें तोड़े जा रही हैं उन्हें?
उनके शुष्क ठंडेपन को
पिघलाए जा रही हैं
नन्हे शिशुओं-सी लहरें
पत्थरों को अभी खबर नहीं लग पा रही
कि अपने जिद्दी, जमे हुए रक्त के बावजूद
वे नदी बनते जा रहे हैं
2.
बह जाने दो लहरों के साथ उन्हें
चलते रहने दो उनका पुराना कारोबार
बेहतर है
टूट कर पिघल जाना ...
कहीं खो ही जाना
ठीक ही है
अपना शिला-पन छोड़ कर
नदी-पन को जी लेना
जहाँ ठहर लिए बरसों
वहीँ मर जाने से बेहतर है
चलें किसी और तट
अपना कोई मगहर ढूंढ लें
बड़ा अँधेरा है
बड़े पेड़ को काटता है
छोटा आदमी
जब चलती है कुल्हाड़ी
तो याद करती है उसका जिस्म,
उसके रग-रेशे बने थे एक दिन इसी पेड़ की एक शाखा से
और आज उसे काटने की साजिश में
वह भी कैसे शामिल हो ली है
आदमी को याद नहीं आता कुछ भी
आँखों में बैठी धामिन देखने नहीं देती
कानो में भरा मवाद सुनने से रोकता है
नहीं देख पाता कि कैसे कटा जा रहा है
पेड़ के साथ-साथ
वह खुद भी
बड़े-से पेड़ से तो बहुत-ही अधिक बड़ा है
छोटे आदमी का अँधेरा
सीख गया बन्दर
कल जब मगरमच्छ ने बन्दर से माँगा जामुन
तो बन्दर बोला
जामुन कैसा?
पहले ला पैसा
मैं नहीं अपने पुरखों जैसा
अब तो मैंने यह पेड़ खरीद ही लिया है
और अपने मीठे दिल को भी
बदले में गिरवी रख दिया है
मेरी नेट सैवी बीवी ने पढ़ डाले हैं
तुम्हारी-मेरी कथाओं के सारे नए-पुराने संस्करण
जान गयी है कि
हम होते ही हैं सरल
और तुम्हारे बेरहम खून में सदियों से बहता रहा है गरल
सुनकर मगरमच्छ ने ली एक गहरी सांस
लगाई एक लम्बी डुबकी
किसी बचे-खुचे जामुन की तलाश में?
पैसे की आस में?
या उस हवा से बचने के लिए
जो जंगल की पगडंडियों पर चल कर
आ चुकी थी उसकी पुरानी नदी के पास में?
बन्दर तो अब चंगा था
और मगरमच्छ
ओफ़... कहाँ छुपे!
अब तो सबके सामने
पूरा का पूरा नंगा था !
संपर्क -
chaitanya.nagar@face
kavitaye achi he. padhvane ke liye santosh ji ka dhanyvad .Manisha jain
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएँ खासकर अंतिम दोनों .... आपको हार्दिक बधाई ! आभार संतोष जी .
जवाब देंहटाएं- कमल जीत चौधरी [ जे० & केओ ]