अच्युतानन्द मिश्र के कविता संग्रह ‘आँख में तिनका’ की समीक्षा
अच्युतानन्द मिश्र हिन्दी के उन महत्वपूर्ण युवा कवियों में से एक हैं जिनका पहला कविता संग्रह ‘आँख में तिनका’ चर्चित रहा है। यह संग्रह हमें काफी-कुछ आश्वस्त करता है। इस संग्रह की समीक्षा लिखी है वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य ने। तो आईये पढ़ते हैं यह समीक्षा।
प्रतिबद्ध कवि का मनोरम रचना - संसार
अमीर चन्द वैश्य
आज ‘आँख में तिनका’ मेरे सामने है। सन् 2013 में प्रकाशित कविता संकलन। कवि हैं श्री अच्युतानन्द
मिश्र। नई पीढ़ी के युवा कवि। सन् 1981 में जनमे। जन्म - भूमि बोकारो है। स्कूली शिक्षा के बाद और शिक्षा दिल्ली में
अर्जित की हैं। कविताओं की रचना के साथ-साथ मिश्र जी आलोचनात्मक गद्य भी लिखते
हैं। आलोचना की एक पुस्तिका ‘नक्सलबाड़ी
आन्दोलन और हिन्दी कविता’ प्रकाश में आ
चुकी है। मिश्र जी अनुवादक भी हैं। उन्होंने प्रसिद्ध उपन्यासकार चिनुआ अचेवे के
उपन्यास Arrow Of God का अनुवाद ‘देवता का बाण’
शीर्षक से किया है।
संकलन का आवरण
पृष्ठ आकर्षक है। कारण? यह है कि प्रकाशक
ने वरिष्ठ कवि और चित्रकार विजेन्द्र की एक कलात्मक चित्र कृति प्रकाशित की है।
कविता में इन्द्रिय-बोध्, भाव-बोध्,
विचार-बोध्, कल्पना-बोध्, काल-बोध और भावी समाज के लिए सुखद स्वप्नों के द्वारा विजेन्द्र अपने चित्रों
में आकृतियों के साथ-साथ कुछ अमूर्तन भी पसंद करते हैं।
अच्युतानन्द
मिश्र विजेन्द्र जी के निकट हैं। उनके काव्य के अध्येता भी हैं। विजेन्द्र की
लम्बी कविता ‘जनशक्ति’ पर मिश्र जी ने आलोचनात्मक आलेख लिखा है। वह ‘प्रसंग’ पत्रिका के अंक 17-18 मई 2013 में छपा है।
विजेन्द्र जी से अच्युतानन्द के आत्मीय सम्बन्ध से यह बात स्पष्ट हो रही है कि
दोनों अपनी-अपनी काव्य-सर्जना को ‘लोकनिष्ठ वर्गीय’
दृष्टि से रचते हैं।
अच्युतानन्द
मात्र मनोरंजन के लिए कवि-कर्म से नहीं जुड़े हैं। अन्य जागरूक कवियों के समान वह
भी यह सोचते हैं कि काव्य-सर्जना का प्रयोजन क्या है। समीक्ष्य संकलन की पहली
कविता का शीर्षक है ‘मैं इसलिए लिख
रहा हूँ’। यह प्रारम्भिक
साभिप्राय है। काव्य-प्रयोजन की दृष्टि से। भारतीय काव्यशास्त्री आचार्य मम्मट ने ‘काव्यप्रकाश’ में प्रयोजनों की चर्चा करते हुए ‘शिवतेरक्षतये’ को सर्वोच्च प्रयोजन माना है। आशय यह है कि वर्तमान समय समाज और सम्पूर्ण
विश्व में जो भी अमंगलकारी दानवी शक्तियाँ हैं, उनके विनाश के लिए काव्य-सृष्टि की जाए। समाज में समरसता
नहीं है। सुषमा नहीं है। अपितु घनघोर विषमता है। एक ओर तो निरन्न,-निरीह निर्वस्त्र ‘लोक’ है, जो रात-दिन पसीना बहाकर मुश्किल से अपने परिवार
की ‘पेटाग्नि’ शान्त करता है। और दूसरी ओर मुट्ठी भर
पूँजीपतियों -नेताओं- उनके चाटुकारों -बड़े व्यापारियों -बड़े विद्वानों –माफियाओं आदि
का दुष्ट ‘तन्त्र’ है, जो उन्हें तो प्रतिपल मालामाल कर रहा है। परन्तु असंगठित ‘लोक’ अभावों को पीड़ित होकर रात-दिन मलाल कर रहा है। अथवा अपनी किस्मत को कोस रहा
है। दर-दर की ठोकरें खा रहा है। धोखे खा रहा है। क्रूर व्यवस्था अथवा ‘तन्त्रा’ द्वारा ठगा जा रहा है। उसे जातियों, उपजातियों, अगड़ों-पिछड़ों,
सम्प्रदायों, अस्मिताओं, विमर्शों आदि में
बाँट दिया गया है। परिणाम सामने है। न मजदूर संगठित हैं और न ही किसान। सामाजिक
परिवर्तन के लिए इन उत्पादक वर्गों की एकता उतनी ही अनिवार्य है, जितनी जीवन के लिए प्राण-वायु। ‘तन्त्रा’ इन वर्गों की खंडित एकता से परम मुदित रहता है। वह
साम्राज्यवादी शक्ति या शक्तियों से साँठ-गाँठ करके शोषण का ऐसा सघन जाल बुनती
रहती है कि सारे-के-सारे कबूतर दानों के लालच में पफँस कर रह जाते हैं। पराधी हो जाते हैं। यही परिप्रेक्ष्य सामने रखकर
अच्युतानन्द ने ठीक लिखा है-
‘‘मैं इसलिए नहीं
लिख रहा हूँ कविता
कि मेरे हाथ काट
दिए जाएँ
मैं इसलिए लिख
रहा हूँ
कि मेरे हाथ
तुम्हारे हाथों से जुड़ कर
उन हाथों को
रोकें
जो उन्हें काटना
चाहते हैं।’’ (आँख में तिनका,
पृ. 9)
कवि का आशय
स्पष्ट है कि यदि ‘मेरे हाथ’
और ‘तुम्हारे हाथ’ एक साथ मिल जाएँ,
संगठित हो जाएँ, तो एकता ‘हम’ में बदल जाएगी। ‘हम’ को इसीलिए ‘उत्तम पुरुष’ कहा जाता है कि वह सबको साथ लेकर आगे बढ़ता है। भविष्य के
मांगलिक पथ पर। कहा भी गया है कि ‘चल पड़े जिधर दो
डग मग में / चल पड़े कोटि पग उसी ओर’। कहा जाता है कि
‘ताजमहल’ के निर्माताओं के हाथ कटवा दिए गए थे। बादशाह
शाहजहाँ द्वारा, जिससे वे निपुण
निर्माता वैसा कोई दूसरा स्मारक न बना सके। इतिहास यही सिखाता है कि अब एक और
नवजागरण की अनिवार्यता उपस्थित हो गई है, जो सन् ‘सत्तावनी
क्रान्ति’ की अधूरी प्रक्रिया को
आगे बढ़ा सके। अत एव कवि क्रूर व्यवस्था के मारक हाथों की प्रखर आलोचना करता है।
आज-कल
भूमंडलीकरण-उदारीकरण-निजीकरण का ऐसा घातक गठबंध्न बनाया है कि आज का रावण अथवा कंस
जन-नायक बन गया है। विदेशी पूँजी और देशी निजीकरण ने ऐसी लूट मचाई है कि करोड़ों
लोगों का जीवन भार बन गया है। विशेष रूप से दिहाड़ी मजदूरों और छोटे किसानों का।
कवि और पत्रकार नित्यानन्द गायेन अपने आलेख ‘सरकारी योजनाएँ और चुनावी राजनीति’ में भारतीय किसानों की दुर्दशा के बारे में आँकड़े प्रस्तुत
करते हुए लिखा है - ‘‘आज लगभग 40 प्रतिशत भारतीय किसान किसानी छोड़ना चाहते हैं।
इसके लिए केवल और केवल सरकारी नीतियाँ और सरकार ही जिम्मेदार है। आज जब भारतीय
किसान सबसे (अधिक) दयनीय हालत
में जीने को मजबूर है, केन्द्र सरकार
आगामी चुनाव को ध्यान में रख कर खाद्य सुरक्षा बिल लाने की ढोल पीटने में लगी हुई
है। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि देश में लाखों टन अनाज खुले में सड़ कर बर्बाद हो
रहा है, या चूहे खा रहे हैं और
भारत सहित विश्व में कुपोषण से मरने वाले बच्चों की एक बड़ी तादाद है।’’ (सर्वनाम, अंक 109, पृ. 51)
प्रसंगवश
उल्लेखनीय है कि खाद्य सुरक्षा की गारंटी का अधिनियम अमल में आ चुका है। भविष्य
बताएगा कि इस ‘अधिनियम’ से कितनी जनता को सस्ता अनाज प्राप्त होगा।
कितना भ्रष्टाचार बढ़ेगा। उपर्युक्त सन्दर्भ में हमें कवि की ‘किसान’ कविता अवधनपूर्वक
पढ़नी-समझनी चाहिए। कवि किसान की व्यथा-कथा संक्षेप में सादगी से कहता है-
‘‘उसके हाथ में अब
कुदाल नहीं रही
उसके बीज सड़ चुके
हैं
खेत उसके पिता ने
बेच डाली (डाला) थी (था)
उसके माथे पर
पगड़ी भी नहीं रही
हाँ, कुछ दिन पहले तक
उसके घर में हल
का फाल और मूठ
हुआ करता था।
उसके घर में जो /
नमक की आखरी डली बची है / वह
इसी हल की बदौलत
है।’’ (वही, पृ. 105)
कवि को यह आशंका
है कि अब किसान का बेटा
‘दरकती हुई जमीन
के
सूखे पपड़ों के
भीतर से अन्न
के दाने निकालने’
का हुनर नहीं सीख पाएगा।
साम्राज्यवादी
देश एक ओर तो पृथ्वी का अंध दोहन कर रहे हैं और दूसरी ओर ‘पृथ्वी दिवस’ मना रहे हैं। बढ़ते प्रदूषण से पृथ्वी की रक्षा सम्भव हो पाएगी? इस प्रश्न का उत्तर कैसे प्राप्त होगा। यदि
पृथ्वी-पुत्रों के प्रति ऐसा ही क्रूर व्यवहार चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं है कि
किसानों की प्रजाति ‘डायनासोर की तरह’
धीरे-धीरे नष्ट हो
जाएगी। और जब कई सदी बाद खुदाई होगी तब
‘‘धरती के भीतर से
निकलेगा एक माथा
बताया जाएगा
देखो यह किसान का
माथा है
सूँघो इसे
इसमें अब तक बची
है
फसल की गंध्
यह मिट्टी के
भीतर से खींच
लेता था जीवन रस।’’ (वही, पृ. 106)
यह ‘जीवन रस’ सम्पूर्ण जीवन के लिए अनिवार्य है। अतः यह भी जरुरी है कि
किसानों को शोषण से मुक्त करवाया जाए। खेत जोतने वाले के पास भूमि के स्वामित्व का
अधिकार होना चाहिए। यह तभी सम्भव है जब भूमिहीनों को, कानून बना कर, भूमि का स्वामी बनाया जाय। और यह भी कानून बनाया जाए कि एक पृथक् परिवार को
कितनी भूमि की आवश्यकता है। अथवा भूमि का राष्ट्रीयकरण किया जाए। सामूहिक उत्पादन
के बाद समान वितरण-व्यवस्था लागू की जाए। लेकिन भारत की पूँजीवादी व्यवस्था
पिफलहाल ऐसा नहीं कर सकती है। इसलिए व्यवस्था परिवर्तन अनिवार्य है। कवि का अभीष्ट
मन्तव्य यही है।
आज का भारत दो
बड़े-छोटे देशों में बदल गया है। एक ओर है भारतीय भाषाएँ बोलने वाला विपन्न हिन्दुस्तान, जो रात-दिन मेहनत करके रोजी-रोटी कमाता है। दूसरी ओर है अमरीका-भक्त ‘इंडिया’ जो अब अमरीकी अंग्रेजी सीखने-बोलने के ललक रहा है और अमरीकी
अपसंस्कृति की गिरफ्त में है।
अजीब दौर है आज
का। गरीब हिन्दुस्तान के युवा जब अमरीकापरस्त ‘इंडिया’ में पहुँचते हैं,
तब उनका कायाकल्प हो जाता है। वे अपनी जड़ों से
कटकर निर्जीव हो जाते हैं। कवि के अनुसार ‘सैंडी याने संदीप राम’ हो जाते हैं। आधे
अधूरे लँगड़े व्यक्तित्व। स्वयं से शरमाते रहते हैं। उनकी वास्तविकता का उद्घाटन
करते हुए ठीक लिखा गया है-
‘‘वे अपने गाँव से
आए हुए लोग थे
गाँव में उनके घर
थे
घरों में दीवारें
थीं
जिनमें कैद थे
माँ-बाप
भाई-बहन
एक चूल्हा था
जिसकी आग
महज खाना नहीं
पकाती थी
पूरी की पूरी
आत्मा को सुखा देती थी
× × × × ×
वे हिन्दी की
शर्म में डूबे अंग्रेजीदा बच्चे थे
वे अपने पिताओं
की भी शर्म ढो रहे थे
जो उनसे कभी
हिन्दी में तो कभी
मगही, मैथिली और भोजपुरी में बात करते
वे घंटों
अंग्रेजी में हँसने का अभ्यास करते
और असफल होने पर
कॉल सेंटर के
नवें माले से छलाँग लगा देते
लेकिन ऐसे युवक ‘इंटरनेट’ पर अपने देश के किसानों की दुर्दशा देखकर-पढ़ कर सिहर उठते
थे। वे यह भी जान जाते कि ‘गाँव में
पिज्जाहट खुलने को है’। उनकी उदासी बढ़
जाती। और ऐसी ही परिस्थितियों में हताश संदीप राम उपर्फ सैंडी आत्म हत्या कर लेता
है - ‘यू नो सैंडी जम्प्ड फ्रॉम
नाइन्थ फ्लोर’। यह है अपसंस्कृति का दुष्परिणाम, जिसे अच्युतानन्द ने सहज ढंग से व्यक्त किया है। पूरी कविता
पढ़कर पाठक का मानस अवसाद और विषाद से भर जाता है।
अक्सर कहा जाता
था कि विश्वविख्यात पिफल्म-निर्माता सत्यजित राय अपनी फिल्मों में भारत की गरीबी
का प्रदर्शन अध्कि करते हैं। यह अच्छी प्रवृत्ति नहीं है। राजकपूर ‘श्री चार सौ बीस’ जैसी फिल्म के कारण रुस में लोकप्रिय हुए थे। इसका नायक भी
गरीब है। उनकी अन्य श्वेत-श्याम फिल्मों में गरीबी का प्रदर्शन कलात्मक ढंग से
किया गया है। आजादी के बाद आने वाली गरीबी ‘सुरसा’ के समान
विराटमुखी हो गई है। अच्युतानन्द ऐसी त्रासद गरीबी से आँखें चार करते हैं। यह
गरीबी ‘बेरोजगारी के दिन’
की याद दिलाती है –
‘फकत धुल फाँकते
दिनों में
सस्ती चायों का
सहारा है
इस ऊँघते मौसम
में
पेड़ों का हिलना
एक दोस्त की
मुस्कराहट की तरह है।’
लेकिन
‘चलते हुए पाँव की
थकान
चप्पल से उठते
हुए
पैरों की
माँस-पेशियों से गुजरते
पेट की अतड़ियों
में फैलने लगेगी
थकान हर बार
क्यों इन दिनों
भूख की शक्ल
अख्तियार कर लेती है?/
......... आँसुओं को इंतजार
है
बत्ती के बुझने
का
एक पूरी रात पड़ी
है खाली।’’ (वही, पृ. 94)
यह कविता पढ़कर मन
अवसाद से भर जाता है। यह अवसाद कविता में वर्णित व्यक्ति विशेष और उसके परिवार पर
छाया हुआ है। यह कविता पढ़ कर तुलसी याद आते हैं, जो कहते थे कि पेटाग्नि ‘बड़वाग्नि’ से भी बड़ी होती
है।
आजादी के बाद से
आज तक हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था गरीबी और भुखमरी का अन्त नहीं कर सकी है और
भविष्य में भी नहीं कर पाएगी। लेकिन प्रत्येक चुनाव से पहले राजनैतिक दल
लोक-लुभावन वादे करते हैं। इन्दिरा गाँधी ने भी अपने शासन-काल में नारा लगाया था -
‘गरीबी हटाओ’। ‘गरीबी’ तो नहीं हट सकी, लेकिन गरीब जरुर हट गए। उन्हें विस्थापित कर
दिया। अच्युतानन्द ने भारतीय राजनीति की दुष्टता गम्भीरता से समझी है। इस चुनाव के
बाद कविता में कवि ने सहज ढंग से व्यंग्य की भाषा में ठीक लिखा है –
‘इस चुनाव के बाद
आसमान में छेद
होगा
बूँद - बूँद
बरसेगा सूरज
धूं –धूं कर जल
जाएँगे दुख
सुख की इच्छाएँ
होंगी
अनन्त तक फैली
इस चुनाव के बाद
आकाश के पार
आकाशगंगाओं तक
फैली
सुबह होगी
बच्चे कुनमुना
रहे हैं मतदाताओं का लिबास पहनने से पहले
तुम्हारे जर्जर
घर पर
होगी अन्न की
वर्षा
बज चुका है चुनाव
का विगुल
इस बार भी तुम नहीं
डाल पाओगे
अपना वोट।’
(पृ. 91-92)
हमारे लोकतंत्र
की प्रशंसा खूब की जाती है। लेकिन वास्तविकता कुछ और है। जातिवाद और सम्प्रदायवाद
के नाम पर मतदान किया जाता है। बाहुबली नेता बलपूर्वक वोट डलवाते हैं अपने पक्ष
में। अथवा निर्बलों के वोट स्वयं अपने गुंडों से डलवाया करते हैं। अथवा धन-बल से
वोट खरीद लिए जाते हैं। इस प्रकार प्रत्येक चुनाव के बाद कोई भी ईमानदार प्रत्याशी
न तो विधायक बन पाता है। और न ही सांसद। चुनाव के बाद सत्ता तो बदल जाती है,
लेकिन व्यवस्था जस की तस रहती है। राजनीति का
ऐसा अपराधीकरण हुआ है कि देश की संसद और राज्यों की विधानसभाओं में अपराधियों का वर्चस्व
है। ऐसे लोकतंत्र में चुनाव के बाद कोई भी बुनियादी परिवर्तन नहीं होता है।
परिणामतः जन-गण-मन निराशा से भरा रहता है।
यदि कोई बुनियादी बदलाव होता तो बिहार में ‘मुसहर’ जाति नहीं होती। मरे हुए चूहे खाने वाली जाति लोकतंत्र के लिए कलंक नहीं है? अतएव कवि की मान्यता ठीक है कि
यदि कोई बुनियादी बदलाव होता तो बिहार में ‘मुसहर’ जाति नहीं होती। मरे हुए चूहे खाने वाली जाति लोकतंत्र के लिए कलंक नहीं है? अतएव कवि की मान्यता ठीक है कि
‘‘कितने बरस लग गए
ये जानने में
मुसहर किसी जाति
को नहीं
दुःख को कहते हैं’
(पृ. 102)।
यह ‘दुःख’ है घनघोर गरीबी और लाचारी।
हमारे लोकतंत्र
में एक ऐसी ‘दुनिया बनाई जा
रही है’ जिसमें
‘आदमी जा रहा है
चाँद पर
इधर उधर लड़ रहे
हैं भूखे शेर
और झपट्टा मारकर
नोच लेते हैं चिड़ियों को’ (पृ. 86)।
सवाल यह है कि
ऐसा क्यों हो रहा है। और इसका जबाव यह है कि व्यवस्था ऐसी निर्मम और क्रूर है कि
वह स्वार्थ के लिए निरीह जनों का त्रासद शोषण करती रहती है। अतः हमारे लोकतंत्र की
असलियत बताते हुए कवि ने ठीक लिखा है –
‘एक जम्हाई लेता
हुआ आदमी
खा लेना चाहता है
पूरे देश को
एक देश का आकार
आदमी के मुँह
जितना है
सोचते हैं चूहे
और घुस जाते हैं
पृथ्वी के पेट में’ (पृ. 86)।
आशय यह है कि देश
है गौण, प्रधान है सबल-समर्थ
विशेष व्यक्ति। स्वार्थी ‘तंत्र’ के चालाक चूहे अर्थात् सरकारी कर्मचारी ‘पृथ्वी-लोक’ को खोखला करते रहते हैं।
उपर्युक्त
कवितांश में कवि ने अन्तःविरोध द्वारा सामाजिक-राजनैतिक विंसगति की ओर संकेत किया
है। ‘तंत्र’ से सम्बद्ध अधिकारी अथवा नेता का चरित्र इतना
गिर गया है कि वह अपना घर भरने के लिए सम्पूर्ण देश को खा जाना चाहता है। प्रमाण
हैं अनेक भ्रष्टाचार प्रकरण जो आजादी के बाद से आज तक निरन्तर घटित होते रहे हैं।
और दूसरी ओर सम्पूर्ण विपन्न देश के रहवासी हैं, जिनके मुँह आदमी के मुख के समान छोटे आकार के हैं। वे अधिक खा
ही नहीं सकते हैं। यहाँ मुक्तिबोध याद आ रहे हैं। उन्होंने आजादी के बाद पनपे नव धनाढ्य
वर्ग की तीखी आलोचना की है। भारत के मध्यम वर्ग और साथ-ही-साथ उच्च वर्ग ने भारत
को खाने का खूब सपफल प्रयास किया है। मुक्तिबोध ने ठीक लिखा है कि ----
‘‘अब तक क्या किया
/ जीवन क्या जिया,
मर गया देश,
अरे! जीवित रह गए तुम’’ (अँधेरे में, चाँद का मुँह
टेढ़ा है, पृ. 261)
अच्युतानन्द ने
स्वार्थी मध्यम वर्ग की आलोचना कुछ भिन्न ढंग से की है –
‘वे चूहों से उधार
लेते हैं
रात भर के लिए
बिल
और टाँगें सिकोड़ कर
सो जाते हैं
वे देखते हैं
सपना
एक पहाड़ के पीछे
उगता है सूरज
चमकता है नदी में
जल
नदी के किनारे
खुले हैं उनके घर
दूर तक जाती एक
पगडंडी
जाती है चाँद तक’’।। (वही, पृ. 87)
यह है
महत्त्वाकांक्षी मध्यम वर्ग का मनोरम सपना। इस वर्ग का मूल मंत्रा है - ‘भाड़ में जाए दुनिया / हम बजाएँ हरमुनिया’।
ऐसी त्रासद
दुरवस्था में भी लोग सचेत नहीं होते हैं। वे अपने-अपने स्वार्थ के लिए अभीष्ट नेता
का दामन पकड़ लेते हैं। लेकिन श्रमशील जनों से उनका कोई भी आत्मीय सम्बन्ध नहीं जुड़
पाता है। इसी वास्तविकता की ओर कवि ने इशारा किया है कि
‘एक अजीब सा संयम
है
हवाओं में यहाँ
पत्ते कायदे से
टूट कर गिर रहे हैं
चेहरे पर कोई उफ्फ
नहीं
नदियाँ बह रही
हैं
शोर और संगीत के
बीच की लय से’।
और
‘ऐसी ही एक सुबह
इसी संयम भरी हवा
के बीच
एक नागरिक के
जाने का शोक
और एक भावी
नागरिक के पैदा होने की खुशी
वातावरण में फ़ैल जाती
है।’’
लेकिन बिल्ली के
समान चालाक लोग आहिस्ता-आहिस्ता सारा दूध पी जाते हैं। लेकिन ‘कहीं कोई आहट नहीं होती’ है। इस प्रकार विषमताग्रस्त समाज में
अन्याय-अत्याचार-शोषण-उत्पीड़न का क्रम चलता रहता है। चतुर-चालाक मस्त रहते हैं।
लेकिन श्रमीजन त्रस्त और लाचार बने रहते हैं।
लेकिन सदृश्य और
प्रतिबद्ध कवि अच्युतानन्द तटस्थ नहीं रह पाते हैं। समाज में घनघोर विषमता देखकर
उन्हें फर्क पड़ता है। उनका मानस-चिन्ताओं से भर जाता है। इसी कारण वे अपने पाठक से
कहते हैं –
‘‘रात रात भर कविता
के शब्द
रेंगते हैं
मस्तिष्क में
नींद और स्वप्न
की धुंधली दुनिया में
फँसा मैं
रच नहीं पाता
कविता
पक्षियों की
कतारें
आसमान की ऊँचाईयों
को
छूती गुजरती जाती
है
चाँद यूँ ही
ताकता रहता है धरती को
और दोस्त लिखते
रहते हैं कविता
नीली और गुलाबी
काँपियाँ
भरती जाती हैं
भरती जाती है एक
रात
टूटी हुई नींद और
अधूरे सपनों से’’ (पृ. 81)।
इस कवितांश में
परस्पर विरोधी मनोदशाएँ हैं। एक मनोदशा प्रतिबद्ध कवि की है, जो अपने जमाने के दुःख से दुःखी है। वह कबीर के
समान रात भर जागता है और रोता है। और दूसरी ओर खाए-अघाए कलावादी कवि हैं, जिन्हें जगत् की गति व्यापती ही नहीं है। अतः
वे सुख-सुविधाएँ भोगते हुए ‘देह’ और ‘गेह’ की कविताओं से ‘नीली’ और ‘गुलाबी’ काँपियाँ भरते रहते हैं। लेकिन समाज में
यथास्थिति टूटती है और
‘चीखते पक्षी
तब्दील होने लगते हैं
इंसानों में
सूरज का रक्तिम
लाल रंग
फैल जाता है
आसमान में
कलियाँ गुस्से
में बन्द फूलों में तब्दील नहीं होतीं’’ (पृ. 83)।
यह कवितांश पढ़कर
दुष्यंत कुमार अनायास याद आ रहे हैं-
कैसे मंजर सामने
आने लगे हैं
गाते गाते लोग
चिल्लाने लगे हैं।
अब तो इस तालाब
का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने
लगे हैं।।
अच्युतानन्द ने
कविता के अन्तिम अंश में सक्रिय प्राकृतिक बिम्बों के माध्यम से यथास्थिति भंग
करने का संकेत किया है। इसी भाव-भूमि पर कवि ने ‘सुबह के इंतजार में’ कविता की रचना की है। कविता का प्रारम्भ रात से होता है –
‘‘रात के हारमोनियम
पर
बजता है एक क्षीण
स्वर
सीटी बजाती हुई
रेलगाड़ी
दूर जाकर रुक गई
है
बेचैन आत्माओं को
नींद कहाँ आती है
...... भीषण रात
ये
सीने पर वज्रपात
ये
कटेगी मगर रात
जरुर
....... मगर अभी
- अभी खुलते देखा
कुछ कोंपलों को
बढ़ रहे हैं ये
लेकर खाद-पानी
मिट्टी से
हम भी तो टिके
हैं
खुदे न सही जुड़े
तो हैं
कुछ बढ़ेंगे
हम जरुर
दुःख अभी आध ही
है
पकड़े हुए है
मिट्टी
आधा दुःख
यह आधी रात
सुबह के इन्तजार
में’’ (पृ. 61)।
प्रत्येक नई सुबह
ताजगी और उत्साह का संदेश लेकर आती है। कवि को पूरा विश्वास है कि वर्तमान क्रूर
यथास्थिति एक दिन अवश्य भंग होगी, क्योंकि समय
प्रतिपल बदलता रहता है और दुनिया रोज नई बनती है।
हमारे देश में एक विभाग ऐसा है कि वह तब सक्रिय होता है, जब कोई दैवी या प्राकृतिक आपदा अचानक विनाश ताण्डव करने लगती है। ‘आपदा प्रबन्धन विभाग’ भी सक्रिय हो जाता है। मालूम नहीं कि किस विद्वान् ने यह परिभाषिक पदावली गढ़ी है। आपदा से रक्षा या सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाता है। अतः विभाग का नाम अपेक्षित है - ‘आपदा रक्षा प्रबन्धन विभाग’।
हमारे देश में एक विभाग ऐसा है कि वह तब सक्रिय होता है, जब कोई दैवी या प्राकृतिक आपदा अचानक विनाश ताण्डव करने लगती है। ‘आपदा प्रबन्धन विभाग’ भी सक्रिय हो जाता है। मालूम नहीं कि किस विद्वान् ने यह परिभाषिक पदावली गढ़ी है। आपदा से रक्षा या सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाता है। अतः विभाग का नाम अपेक्षित है - ‘आपदा रक्षा प्रबन्धन विभाग’।
समीक्ष्य संकलन
में बाढ़ के पाँच दृश्य हैं। लेकिन किसी भी कविता में उपर्युक्त विभाग की सक्रियता
का उल्लेख नहीं किया गया है। कवि ने आत्मीयता से बाढ़ के दृश्य प्रत्यक्ष करके
लोगों की मनोदशा का सटीक वर्णन किया है। व्यवस्था ओर जन-संचार माध्यमों को निर्मम
आलोचना भी की है। एक दृश्य देखिए-
डूबता हुआ गाँव
एक खबर है
डूबता हुआ बच्चा
एक खबर है
खबर के बाहर का
गाँव
कब का डूब चुका
है
बच्चे की लाश फूल
चुकी है
फूली हुई लाश एक
खबर है। (वही, बाढ़-2, पृ. 64)
आशय यह है कि टी.
वी. पत्रकारिता के बाढ़ के दृश्य मात्र ‘खबर’ है। उसे मानवीय संवेदना
से कुछ भी लेना-देना नहीं है। ‘बाढ़-3’ में सब कुछ डूब जाता है। जनप्रतिनिधि ‘चेहरे पर
अफसोस’ दरसाते हुए खड़ा रहता है। ‘बाढ़-5’ में सब कुछ डूबने वाला है, लेकिन फिर भी
‘उसका मस्तिष्क
अभी निष्क्रिय नहीं हुआ है
वह सोच रहा है
लगातार
बचने की उम्मीद
बाकी है अब भी’ (वही, पृ. 67)।
कवि ने मानव जिजीविषा
के प्रति अपनी पूरी आस्था व्यक्त की है।
अच्युतानन्द ने
अपनी वर्गीय दृष्टि से समाज के उन बाल श्रमिकों के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त की
है, जो मेहनत मजदूरी
करते-करते युवक हो जाते हैं। ‘लड़के जवान हो गए’
कविता का कथ्य यही है। और कथन-भंगिमा सादगी से
भरपूर। ऐसे लड़कों को गरीबी ने शिक्षा से हमेशा दूर ही रखा। लेकिन वे अपना-अपना
दैनिक काम निपुणता से करते हुए धीरे-धीरे एक दिन जवान हो गए। इस कविता का अंश पढ़िए
और जीवन की वास्तविकता समझिए –
‘‘एकदम अचूक निशाना
उनका
वे बिना किसी
गलती के
चौथी मंजिल की
बालकनी में अखबार डालते
पैदा होते ही सीख
लिया जीना
सावधानी से
हर वक्त रहे एकदम
चौकन्ने
कि कोई मौका छूट
न जाए
कि टूट न जाए
काँच का खिलौना
बेचते हुए
और गँवानी पड़े
दिहाड़ी
वे लड़के जवान हो
गए’ (वही, पृ. 69)।
लेकिन ऐसे लड़के
एक दिन पुलिस की गोलियों का शिकार हो गए, क्योंकि
‘नकली जुलूस के
लिए
शोर लगाते लड़के
जब सचमुच (का) भूख भूख
चिल्लाने लगे
तो पुलिस ने
दनादन बरसाई गोलियाँ
और जवान हो रहे
लड़के
पुलिस की गोलियों
का शिकार हुए
पुलिस ने कहा कि
वे खूँखार थे
नक्सली थे तस्कर
थे
अपराधी थे
पॉकेटमार थे
स्मैकिए थे नशेड़ी
थे’ (वही, पृ. 69, 70)
परन्तु वे लड़के
ऐसे नहीं थे। वे अपने माँ-बाप की आँखें और उनके हाथ थे। कविता का अन्तिम वाक्य तीर
के सामने चुभने वाला है –
‘बूढ़े हो रहे देश
में
इस तरह मारे गए
जवान लड़के’ (वही, पृ. 70)
वाच्यार्थ से
व्यंग्यार्थ स्वतः ध्वनित हो रहा है कि आजादी के छियासठ साल बीत जाने के बाद भी
हमारा पूँजीवादी लोकतंत्रा न तो सभी को शिक्षित कर सका और नहीं लोक के प्रति न्याय
का व्यवहार कर सका। विरोध में उठे हाथों को उकसाना हमारे लोकतंत्रा का तानाशाही
चरित्र है, जिसे कवि ने गम्भीरता से
समझा है।
इसी भाव-भूमि से
जुड़ी एक और श्रेष्ठ कविता है ‘ढेपा’। यह मैथिली का शब्द है। अर्थ है मिट्टी का कुछ
बड़ सा ढेला। आमतौर से ढेला का आकार छोटा होता है। ‘ढेपा’ को आकार में बड़ा
समझिए, जो सूख जाने पर अपनी सख्ती
से पाँव को घायल भी कर सकता है। इस कविता का नायक है ‘छोटुआ’, जो कम उम्र का
है। लेकिन पेट भरने के लिए उसे पसीना बहाना पड़ता है। घर से बेघर भी होना पड़ता है।
कवि ने उसकी सक्रियता का वर्णन इतनी आत्मीयता से किया है कि उससे प्रायः पूछा जाता
है –
‘क्या तुम बीमार
नहीं पड़ते
क्या तुम स्कूल
नहीं जाते
तुम एक बैल की
तरह क्यों होते जा रहे हो’ (वही, पृ. 76)
इस कविता की यह
विशेषता है कि कवि अपने नायक का वैशिष्ट्य बताते हुए प्रतिरोध व्यक्त करना नहीं
भूलता है। कविता का अन्तिम अंश पढ़िए –
‘पहाड़ से लुढकता
पत्थर नहीं है छोटुआ
बरसात के बाद
मिट्टी के ढेर से
बना ढेपा है
छोटुआ धीरे-धीरे सख्त
हो रहा है
बरसात के बाद
जैसे मिट्टी के ढेपे
सख्त होते जाते
हैं
और कभी तो इतने
सख्त कि
पैर में लग जाए
जो
खून निकाल ही दे’
(वही, पृ. 77)।
इस प्रकार कविता
का श्रमशील नायक छोटुआ ‘ढेपा’ में रूपान्तरित होकर व्यवस्था प्रतिरोध का
प्रतीक बन जाता है। इस कविता का शीर्षक कवि को अपने मैथिल जनपदीय परिवेश से जोड़ता
है। यह भी सम्भावना व्यक्त हो रही है कि ‘छोटुआ’ नामक पात्र परिचित जनपद
से ग्रहण किया गया है। चरित्र प्रधान कविताओं में वर्णनात्मकता के साथ-साथ नाटकीय
संवाद भी अनिवार्य है। संवादों के माध्यम से पात्रा स्वयं बोलता है। शोषण से पीड़ित
ऐसे पात्रों में स्वतः अग्रगामी सोच विकसित होती है। अच्युतानन्द की ‘ऐसी कविताओं में इस वैशिष्ट्य का सभाव लक्षित
होता है’।
इस संकलन में एक
और चरित्र प्रधान कविता है ‘निहाल सिंह’। यह सम्बोधनात्मक कविता है। निहाल सिंह को
सम्बोधित इस कविता में उसकी आन्तरिक व्यथा का वर्णन किया गया है, क्योंकि
‘बहुत उतरा हुआ
चेहरा है
निहाल सिंह का
उसकी छुट्टी की
दरखास्त नामंजूर
हो गई’।
लगता है कि निहाल
सिंह फौज में सेवारत है। इसीलिए, घर से दूर रहने
के कारण, उसे अपना बचपन याद आता है
–
‘निहाल सिंह का
बचपन
अब तक टँगा है
गाँव के बूढ़े
पीपल के पेड़ पर
और गाँव की
हरियाली
हरी दूब की तरह
मन की मिट्टी को
पकड़े हुए है’
(वही, पृ. 15)।
देश-प्रेम की
शुरुआत अपनी जन्म-भूमि के आत्मीय परिचय और प्रीति से होती है। उसके मन की मिट्टी
दूब की तरह गाँव की हरियाली से सम्बन्ध जोड़े हुए है। कवि ने इस कविता में भी अपने
चरित्र निहाल सिंह को बोलने का अवसर प्रदान नहीं किया है। लेकिन अवांछित और विनाशक
युग के खिलाफ उसकी भावना अवश्य व्यक्त होती है –
‘सच कहते हो कि
निहाल सिंह
वो सपनों के
खिलापफ ही तो
खड़ी करते हैं
फौजें
कैसा अच्छा सपना
है
निहाल सिंह
एक दिन उनके
खिलाफ
खड़ी होंगी फौजें’
(पृ. 16)
सवाल यह है कि ‘वो’ कौन है और ‘उनके खिलाफ’
फौजें क्यों खड़ी होंगी। जबाव है कि
साम्राज्यवादी वैश्विक ताकतें दुर्बल राष्ट्रों को अपना ‘उपनिवेश’ बनाने के लिए
फौजी अड्डे स्थापित किया करती है। पहले ब्रिटेन साम्राज्यवादी शक्ति था, जिसके साम्राज्य का सूर्यास्त कभी नहीं होता
था। लेकिन इतिहास-चक्र ने धीरे-धीरे उसकी शक्ति का ह्रास कर दिया। अब अमरीका एक ध्रुवीय
महाशक्ति बन गया है। इतिहास का चक्र उसके पर भी कतरेगा। उपर्युक्त कविता का यही
संदेश है, जो प्रतिरोध का सौन्दर्य
प्रत्यक्ष कर रहा है।
अच्युतानन्द
मिश्र अपनी विश्वव्यापी वर्गीय दृष्टि से देश और विदेश दोनों की परिघटनाओं को
देखते-परखते हैं। आलोचना करते हैं। यथास्थिति का भंजन करने के लिए विकल्प भी
प्रस्तुत करते हैं। रागात्मक स्मृतियों के बल से दीन-हीन लोक के श्रम की कथा से
साक्षात्कार करवाते हैं। देश की आधी आबादी स्त्रियों की है। उनके प्रति संवेदना
व्यक्त करते हैं। इन विशेषताओं की साक्षी हैं उनकी कई महत्त्वपूर्ण कविताएँ। यथा -
इस बेहद सँकरे समय में, म्याँमार की
सड़कों पर खून नहीं था, देश के बारे में,
लेखक का कमरा, आँख में तिनका, दुनिया का नक्शा, मेरे शहर के लोग,
देश, बच्चा और मैं, सबसे उदास औरत,
शहर में एक बस्ती थी, स्त्रिायाँ, धूल कण, ठीक उसी समय,
नदी गाथा, मंदी के दौर में घर, एकालाप आदि।
कुछ स्मृतियाँ
व्यक्ति-मानस में इतनी गहराई में पैठ जाती है कि प्रसंग उपस्थित होने पर वे अचानक
प्रत्यक्ष हो जाती है। संवेदनशील कवि उन्हें कविता में इस प्रकार रच देता है कि वे
अमृत हो जाती हैं। कवि की ‘नदी गाथा’
ऐसी ही स्मरणीय कविता है। कवि को अचानक महसूस
होता है कि
‘‘रात के इस
श्मशानी सन्नाटे में
क्यों याद आती है
नदी
पर मैं नदी को
याद भी तो नहीं पा रहा हूँ
किस चेहरे से याद
करुँ / नदी को
उस घाट से
जहाँ रग्घू धोबी
और उसका परिवार
धोता था कपड़े
या उस सिरे से
जहाँ
ठकवा चाचा मारते
थे मछली
या उस छोर से
जो मेरी नन्हीं
आँखों से
बरबस बहती हुई
छली जाती थी’ (वही, पृ. 71)।
यह कविता भी कवि
के देश-प्रेम का सबूत प्रस्तुत करती है। सभ्यता का विकास नदियों के आस-पास ही हुआ
है। इसीलिए वे जीवन-रेखा कहलाती है। उनके अभाव में जीवन भी जीवन-रहित हो जाता है।
एक युग था कि भारत के भू-भाग पर ‘सरस्वती’ का प्रखर प्रवाह घनघोर शोर से दिगन्त
परिव्याप्त कर देता था। लेकिन आज वह ‘वाणी’ की देवी के रूप में
वीणा-वादिनी सरस्वती देवी के रूप में बदल गई है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज
प्रत्येक नदी या तो मौन या चीख रही है। ‘क्रूर पूँजी’ के प्रबल लाभ-लोभ
ने उसे इतना अधिक बाँधा है कि उसकी धारा आगे चलकर या तो सूख गई है या छिछली हो गई
है या अब वह गंदा नाला बन गई है। सारांश यह है कि प्रत्यके शहर की जीवन-रेखा
गंगा-यमुना के समान रोग पैदा करने वाली नदियाँ बन गई हैं। इसी व्यथा की अभिव्यक्ति
कवि ने अधोलिखित पंक्तियों में की है-
‘‘पर नदी हमेशा
खामोश ही नहीं
रही
नदी का
चीखना भी सुना है
मैंने
और देखा है लोगों
की आँखों में
नदी का खौफ भी
नदी की चीख ने
बहुत खामोश कर
दिया
था हमें
हम सब के चेहरों
पर
मिट्टी के घरों
का टूटना
साफ नजर आता (है) (वही,
पृ. 73,74)।
इस कविता का
तात्पर्य वही समझ सकता है, जो प्रत्येक वर्ष
वर्षा-काल खण्ड प्रलय का दृश्य देखता है। पिछले दिनों उत्तराखण्ड के
जल-प्रलय-ताण्डव ने लोगों को सावधन कर दिया है कि जब नदी व्यथा से चीखती है,
तब किसी की भी परवाह नहीं करती है। वह बदला
लेकर रहती है। उसके मार्ग में जो भी सामने आता है, बहाकर ले जाती है। यहाँ तक कि गंगाधर जयशंकर को भी।
प्राकृतिक संसाधनों
के अंध विदोहन को समाजवादी व्यवस्था में ही रोका जा सकता है। इसी आस्था से प्रेरित
होकर अच्युतानन्द ने ठीक लिखा है –
‘उठता नहीं है
मेरा भरोसा
दुनिया के सबसे
मेहनतकश हाथ से
कि एक दिन
चाहे सदियों बाद
सही
बनेगा दुनिया का
एक ऐसा नक्शा
जहाँ हर उठे हुए
हाथ में फावड़ा
और हर झुके हुए
हाथ में रोटी होगी’ (वही, पृ. 27)।
बिम्बधर्मी भाषा
में रचित कवि का उपर्युक्त आत्मविश्वास उसे प्रतिबद्ध कवि घोषित कर रहा है। अन्य
लोकधर्मी कवियों निराला-केदारनाथ अग्रवाल-नागार्जुन-त्रिलोचन-मुक्तिबोध्- शील एवं
वरिष्ठ कवि विजेन्द्र के समान।
कहते हैं ‘आँख में तिनका’ पड़ने से आँख से पानी अथवा आँसू बहने लगते हैं। लेकिन इस
कविता में कवि ने देहाती और शहराती परिवेश का समावेश कर ‘मिस जोजो’ के जीवन
मर्मस्पर्शी व्यथा-कथा वर्णित की है। इस कविता का सामाजिक यथार्थ यह है कि
स्वेच्छाचारी पुरुष अपने आमोद-प्रमोद के लिए किसी भी युवती / महिला के प्रति
प्रेम-निवदेन करके उसे अपनाने के बजाए छोड़ भी सकता है। इस कविता में वर्णित ‘मिस जोजो’ के दुःखद जीवन की व्यथा वर्णित की गई है। आँख में पड़े छोटे
से तिनके की उपेक्षा करके मिस जोजो मनिया से स्वयं कहती है-
‘‘आज सुबह से ही
मिस जोजो की आँख से
झर-झर गिर रहे
हैं आँसू
मनिया कहती है
आँख में कोई
तिनका आ गया होगा
मिस जोजो कहती है
धत पगली।
तिनका आँख में आ
जाए
तो इतने आँसू
नहीं बहते
वे तो तब बहते
हैं
जब टूटता है कोई
सपना
मनिया हैरान है
सोचती है
माई की आँख में
तो तिनका .............।। (वही, पृ. 23-24)
उद्धृत कवितांश
में अन्तिम वाक्य अधूरा छोड़ा गया है। साभिप्राय। क्रियापद का अभाव और उसके कारण अधूरा
वाक्य पाठक का आभास गम्भीर वेदना से आन्दोलित कर देता है। सम्पूर्ण कविता का आशय
है कि सपना चाहे प्रेम का हो अथवा समाजिक परिवर्तन, उसके टूटने पर मन अवसन्न हो जाता है।
सोवियत संघ के विघटन से करोड़ों विपन्न जनों को ऐसा ही अनुभव हुआ था। लेकिन अब समय फिर
बदल रहा है। काल-चक्र तेजी से घूम रहा है कि वह एक ध्रुवीय दुनिया का विनाश करके
शक्ति-संतुलन पुनः स्थापित कर सके।
अच्युतानन्द
मिश्र का संकलन ‘आँख में तिनका’
पढ़ कर पाठक आँसू तो नहीं बहाता है, लेकिन सोचता जरुर है कि मौजूदा क्रूर व्यवस्था
का समापन किए बिना शोषित-दलित दमित जन-गण सच्चे सुख और सच्ची आजादी का अनुभव नहीं
कर सकते हैं। उनके लिए अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति भी असम्भव रहेगी। भाग्य और
भगवान पर भरोसा करने से उन्हें कुछ भी उपलब्ध् नहीं होगा। जो प्रलय कण्ठ से अपनी
रक्षा नहीं कर सके, वे संकटग्रस्त
लोगों को कैसे मुक्त कर पाएँगे। वास्तविकता यह है कि धरती पर आए संकटों का कारण
साम्राज्यवादियों का लाभ-लोभ है। अब तो ‘जनशक्ति’ ही पीड़ित मानवता
को मुक्ति प्रदान कर सकती है।
भाषिक संरचना की
दृष्टि से इस संकलन लगभग सभी कविताएँ हैं तो निश्छन्द में, लेकिन लयात्मक अनिवार्य रूप से हैं। कवि के पास जो
संवेदनात्मक ज्ञान है, उससे प्रेरित
होकर उसने मंथर लय में इन्द्रिय-बोध्, भाव-बोध्, विचार-बोध् को
सहज कल्पना से संश्लिष्ट किया है।
अच्युतानन्द के
इस संकलन में स्थानीयता की झलक तो है, लेकिन सम्पूर्ण परिदृश्य रूपायित नहीं है। वाक्य-रचना लगभग निर्दोष है। सहज बोधगम्य
है। लेकिन प्रूपफ की कुछ भूलें अर्थ-बोध् में बाधक सिद्ध होती है। यथा - छोटुआ आकाश
में कुछ टूँगता भी नहीं। यहाँ आकाश पद के स्थान पर ‘अवकाश’ अनिवार्य है। कहीं-कहीं मानक वर्तनी की कमी खटकती है। यथा -
‘नदी के अंधेरे तल में / काँपती
है पानी की छाया’ (पृ. 71)। मानक वर्तनी है - ‘अँधेरे’। मुक्तिबोध की
प्रसिद्ध कविता के नाम में यही पद विराजमान है - ‘अँधेरे में’।
‘आँख में तिनका’
कविता-अनुरागियों को आश्वस्त करता है कि कवि
अच्युतानन्द मिश्र भविष्य में लोक के और निकट पहुँचेंगे। अपने जनपद को उसके परिवेश
के साथ और अध्कि रूपायित करेंगे। चरित्र-प्रधान कविताओं में पात्रों को बोलने का
अवसर प्रदान कर उनके परम्परागत चरित्र को बदलने का सर्जनात्मक प्रयास करेंगे।
संपर्क
मोबाईल- 09897482597
(अमीर चन्द्र
वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)
bahut sunder kavitaye aur bahut sarthk sameksha. badhi .Manisha jain
जवाब देंहटाएंअमीर चन्द वैश्य जी ने बहुत सटीक और सुंदर समीक्षा लिखी हैं . आभार
जवाब देंहटाएं-नित्यानंद गायेन